[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]
महिषमन्त्रिणा देवीवार्तावर्णनम् -
देवताओंद्वारा भगवतीको आयुध और आभूषण समर्पित करना तथा उनकी स्तुति करना, देवीका प्रचण्ड अट्टहास करना, जिसे सुनकर महिषासुरका उद्विग्न होकर अपने प्रधान अमात्यको देवीके पास भेजना -
व्यास उवाच देवा विष्णुवचः श्रुत्वा सर्वे प्रमुदितास्तदा । ददुश्च भूषणान्याशु वस्त्राणि स्वायुधानि च ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] तब भगवान् विष्णुका यह वचन सुनकर सभी देवता बहुत प्रसन्न हुए । वे तुरंत महालक्ष्मीको वस्त्र, आभूषण और अपने-अपने आयुध प्रदान करने लगे ॥ १ ॥
क्षीरोदश्चाम्बरे दिव्ये रक्ते सूक्ष्मे तथाजरे । निर्मलञ्च तथा हारं प्रीतस्तस्मै सुमण्डितम् ॥ २ ॥ ददौ चूडामणिं दिव्यं सूर्यकोटिसमप्रभम् । कुण्डले च तथा शुभ्रे कटकानि भुजेषु वै ॥ ३ ॥ केयूरान्कङ्कणान्दिव्यान्नानारत्नविराजितान् । ददौ तस्यै विश्वकर्मा प्रसन्नेन्द्रियमानसः ॥ ४ ॥ नूपुरौ सुस्वरौ कान्तौ निर्मलौ रत्नभूषितौ । ददौ सूर्यप्रतीकाशौ त्वष्टा तस्यै सुपादयोः ॥ ५ ॥
क्षीरसागरने देवीको दिव्य, रक्तवर्णवाले, महीन तथा कभी भी जीर्ण न होनेवाले दो वस्त्र; निर्मल तथा मनोहर हार; करोड़ों सूर्योंके समान प्रकाशमान दिव्य चूडामणि: दो सुन्दर कुण्डल तथा कड़े प्रसन्नतापूर्वक दिये । विश्वकर्माने भुजाऑपर धारण करनेके लिये बाजूबन्द और अनेक प्रकारके रत्नजटित दिव्य कंकण प्रसन्नचित्त होकर उन्हें प्रदान किये । साथ ही त्वष्टाने मधुर ध्वनिवाले, चमकीले, स्वच्छ, रत्नजटित और सूर्यके समान प्रकाशमान दो नपुर पैरोंमें पहननेके लिये उन्हें प्रदान किये ॥ २-५ ॥
तथा ग्रैवेयकं रम्यं ददौ तस्यै महार्णवः । अङ्गुलीयकरत्नानि तेजोवन्ति च सर्वशः ॥ ६ ॥
महासमुद्रने उन्हें गलेमें धारण करनेके लिये मनोहर कण्ठहार और रत्नोंसे निर्मित तेजोमय अंगूठियाँ प्रदान की ॥ ६ ॥
तत्पश्चात् भगवान् विष्णुने अपने चक्रसे उत्पन्न करके सहस अरोंवाला, तेजसम्पन्न और दैत्योंका सिर काट लेनेकी सामर्थ्यवाला एक चक्र उन्हें प्रदान किया ॥ १० ॥
शंकरजीने अपने त्रिशूलसे उत्पन्न करके भगवतीको एक ऐसा उत्तम त्रिशूल अर्पण किया. जो दानवोंको काट डालनेकी शक्तिसे सम्पन्न तथा देवताओंके भयका नाश करनेवाला था ॥ ११ ॥
अग्निदेवने प्रसन्नचित्त होकर सैकड़ों शत्रुओंका संहार करनेवाली, मनके समान तीव्र गतिसे चलनेवाली तथा दैत्योंका विनाश करनेवाली एक शक्ति उन्हें प्रदान की ॥ १३ ॥
पवनदेवने उन भगवती महालक्ष्मीको बाणोंसे भरा हुआ एक तरकस तथा देखने में अत्यन्त अद्धत. कठिनाईसे खींचा जा सकनेवाला और कर्कश टंकार करनेवाला धनुष प्रदान किया ॥ १४ ॥
स्ववज्राद्वज्रमुत्पाद्य ददाविन्द्रोऽतिदारुणम् । घण्टामैरावतात्तूर्णं सुशब्दां चातिसुन्दराम् ॥ १५ ॥
देवराज इन्द्रने अपने वज्रसे उत्पन्न करके एक अत्यन्त भयंकर वज्र तथा ऐरावत हाथीसे उतारकर एक परम सुन्दर तथा तीव्र ध्वनि करनेवाला घण्टा तुरंत भगवतीको अर्पण किया ॥ १५ ॥
प्रसन्न मनवाले त्वष्टाने सैकड़ों घण्टोंके समान ध्वनि करनेवाली और दानवोंका विनाश कर डालनेवाली कौमोदकी नामक गदा उन्हें प्रदान की । साथ ही उन त्वष्टाने जगज्जननी भगवती महालक्ष्मीको अनेक प्रकारके अस्त्र तथा अभेद्य कवच प्रदान किये और सूर्यदेवने उन्हें अपनी किरणें प्रदान की । २०-२१ ॥
सायुधां भूषणैर्युक्तां दृष्ट्वा ते विस्मयं गताः । तुष्टुवुस्तां सुरा देवीं त्रैलोक्यमोहिनीं शिवाम् ॥ २२ ॥
इस प्रकार सभी आयुधों तथा आभूषणोंसे युक्त उन भगवतीको देखकर देवतागण अत्यन्त विस्मित हुए और त्रैलोक्यमोहिनी उन कल्याणकारिणी देवीकी स्तुति करने लगे ॥ २२ ॥
देवता बोले-शिवाको नमस्कार है । कल्याणी, शान्ति और पुष्टि देवीको बार-बार नमस्कार है । भगवतीको नमस्कार है । देवी रुद्राणीको निरन्तर नमस्कार है ॥ २३ ॥
कालरात्र्यै तथाम्बायै इन्द्राण्यै ते नमो नमः । सिद्ध्यै बुद्ध्यै तथा वृद्ध्यै वैष्णव्यै ते नमो नमः ॥ २४ ॥
आप कालरात्रि, अम्बा तथा इन्द्राणीको बारबार नमस्कार है । आप सिद्धि, बुद्धि, वृद्धि तथा वैष्णवीको बार-बार नमस्कार है ॥ २४ ॥
पृथिव्यां या स्थिता पृथ्व्या न ज्ञाता पृथिवीञ्च या । अन्तःस्थिता यमयति वन्दे तामीश्वरीं पराम् ॥ २५ ॥
पृथ्वीके भीतर स्थित रहकर जो पृथ्वीको नियन्त्रित करती हैं, किंतु पृथ्वी जिन्हें नहीं जान पातीं, उन परा परमेश्वरीकी मैं वन्दना करता हूँ ॥ २५ ॥
मायायां या स्थिता ज्ञाता मायया न च तामजाम् । अन्तःस्थिता प्रेरयति प्रेरयित्रीं नुमः शिवाम् ॥ २६ ॥
जो मायाके अन्दर स्थित रहनेपर भी मायाके द्वारा नहीं जानी जा सकीं तथा जो मायाके अन्दर विराजमान रहकर उसे प्रेरणा प्रदान करती हैं, उन जन्मरहित तथा प्रेरणा प्रदान करनेवाली भगवती शिवाको हम नमस्कार करते हैं ॥ २६ ॥
हे माता ! आप हमारा कल्याण करें और शत्रुओंसे संत्रस्त हम देवताओंकी रक्षा करें । आप अपने तेजसे इस मोहग्रस्त पापी महिषासुरका वध कर डालें । यह महिषासुर दुष्ट, घोर मायावी, केवल स्त्रीके द्वारा मारा जा सकनेवाला, वरदान प्राप्त करनेसे अभिमानी, समस्त देवताओंको दुःख देनेवाला तथा अनेक रूप धारण करनेवाला महादष्ट है ॥ २७-२८ ॥
त्वमेका सर्वदेवानां शरणं भक्तवत्सले । पीडितान्दानवेनाद्य त्राहि देवि नमोऽस्तु ते ॥ २९ ॥
हे भक्तवत्सले ! एकमात्र आप ही सभी देवताओंकी शरण हैं; दानव महिषासुरसे पीड़ित हम देवताओंकी आप रक्षा कीजिये । हे देवि ! आपको नमस्कार है ॥ २९ ॥
व्यास उवाच एवं स्तुता तदा देवी सुरैः सर्वसुखप्रदा । तानुवाच महादेवी स्मितपूर्वं शुभं वचः ॥ ३० ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार सब देवताओंके स्तुति करनेपर समस्त सुख प्रदान करनेवाली महादेवी मुसकराकर उन देवताओंसे यह मंगलमय वचन कहने लगीं ॥ ३० ॥
देवी बोलीं-हे देवतागण ! आपलोग मन्दबुद्धि महिषासुरका भय त्याग दें । मैं वर पानेके कारण अभिमानमें चूर तथा मोहग्रस्त उस महिषासुरको आज हो रणमें मार डालूँगी ॥ ३१ ॥
व्यासजी बोले-देवताओंसे ऐसा कहकर वे भगवती अत्यन्त उच्च स्वरमें हँस पड़ी । [ बोलों-] इस संसारमें यह बड़ी विचित्र बात है कि यह सारा जगत् ही भ्रम तथा मोहसे ग्रसित है । ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र आदि तथा अन्य देवता भी महिषासुरसे भयभीत होकर काँपने लगते हैं ॥ ३२-३३ ॥
हे श्रेष्ठ देवताओ ! दैवबल बड़ा ही भयानक और दुर्जय है । काल ही सुख और दुःखका कर्ता है । यही सबका प्रभु तथा ईश्वर है । सृष्टि, पालन तथा संहार करनेमें समर्थ रहते हुए भी वे ब्रह्मा आदि मोह-ग्रस्त हो जाते हैं, कष्ट भोगते हैं और महिषासुरके द्वारा सताये जाते हैं ॥ ३४-३५ ॥
उस अद्भुत शब्दको सुनकर पृथ्वी काँपने लगी. सभी पर्वत चलायमान हो उठे और अगाध महासमुद्री विक्षोभ उत्पन्न होने लगा । उस शब्दसे सुमेरुपर्वत हिलने लगा और सभी दिशाएँ गूंज उठी । उस तीव्र ध्वनिको सुनकर सभी दानव भयभीत हो गये । सभी देवता परम प्रसन्न होकर 'आपकी जय हो', 'हमारी रक्षा करो'-ऐसा उन देवीसे कहने लगे ॥ ३७-३८ ॥
अभिमानमें चूर महिषासुर भी वह ध्वनि सुनकर क्रुद्ध हो उठा । उस ध्वनिसे सशंकित महिषासुरने दैत्योंसे पूछा-यह कैसी ध्वनि है ? इस ध्वनिके उद्गम-स्थलको जाननेके लिये दूतगण तत्काल यहाँसे जायें । कानोंको पीड़ा पहुँचानेवाला यह अति भीषण शब्द किसने किया है ? देवता या दानव जो कोई भी इस ध्वानिको उत्पन्न करनेवाला हो, उस दुष्टात्माको पकड़कर मेरे पास ले आयें । ऐसा गर्जन करनेवाले उस अभिमानके मदमें उन्मत्त दुराचारीको मैं मार डालूँगा । मैं क्षीण-आयु तथा मन्दबुद्धिवाले उस दुष्टको अभी यमपुरी पहुँचा दूंगा । देवता मुझसे पराजित होकर भयभीत हो गये हैं, अतः वे ऐसा गर्जन कर ही नहीं सकते । दानव भी ऐसा नहीं कर सकते; क्योंकि वे सब तो मेरे अधीन हैं, तो फिर यह मूर्खतापूर्ण चेष्टा किसकी हो सकती है ? अब दूतगण इस शब्दके कारणका पता लगाकर मेरे पास शीघ्र आयें । तत्पश्चात् मैं स्वयं वहाँ जाकर ऐसा व्यर्थ कर्म करनेवाले उस पापीका वध कर दूंगा ॥ ३९-४४.५ ॥
व्यासजी बोले-महिषासुरके ऐसा कहनेपर वे दूत [शब्दके कारणका पता लगाते-लगाते] समस्त सुन्दर अंगोंवाली, अठारह भुजाओंवाली, दिव्य विग्रहमयी, सभी प्रकारके आभूषणोंसे अलंकृत, सम्पूर्ण शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न, उत्तम आयुध धारण करनेवाली और हाथमें मधुपात्र लेकर बार-बार उसका पान करती हुई भगवतीके पास पहुँच गये । उन्हें देखकर वे भयभीत हो गये और व्याकुल तथा सशंकित होकर वहाँसे भाग चले । महिषासुरके पास आकर वे उससे ध्वनिका कारण बताने लगे ॥ ४५-४७.५ ॥
दूत बोले-हे दैत्येन्द्र ! वह कोई प्रौढा स्वी और देवीकी भाँति दिखायी देती है । उस स्त्रीके सभी अंगोंमें आभूषण विद्यमान हैं तथा वह सभी प्रकारके रत्नोंसे सुशोभित है । वह स्त्री न तो मानवी है और न तो आसुरी है । दिव्यविग्रहवाली वह स्त्री बड़ी मनोहर है । अठारह भुजाओंवाली वह श्रेष्ठ नारी नानाविध आयुध धारण करके सिंहपर विराजमान है । वही स्त्री गर्जन कर रही है । वह मदोन्मत्त दिखायी दे रही है । वह निरन्तर मद्यपान कर रही है । हमें ऐसा जान पड़ता है कि वह अभी विवाहिता नहीं है । ४८-५०.५ ॥
देवतागण आकाशमें स्थित होकर प्रसन्नतापूर्वक उसकी इस प्रकार स्तुति कर रहे हैं-'आपकी जय हो', 'हमारी रक्षा करो' और 'शत्रुओंका वध करो' । हे प्रभो ! मैं यह नहीं जानता कि वह सुन्दरी कौन है, किसकी पत्नी है, वह सुन्दरी यहाँ किसलिये आयी हुई है और वह क्या करना चाहती है ? उस स्त्रीके तेजसे चकाचौंध हमलोग उसे देखनेमें समर्थ नहीं हो सके । वह स्त्री शृंगार, वीर, हास्य, रौद्र और अद्भुतइन सभी रसोंसे परिपूर्ण थी । इस प्रकारकी अद्भुत स्वरूपवाली नारीको देखकर हमलोग बिना कुछ कहे ही आपके आज्ञानुसार लौट आये । हे राजन् ! अब इसके बाद क्या करना है ? ॥ ५१-५४.५ ॥
महिषासुर बोला-हे वीर ! हे मन्त्रि श्रेष्ठ ! तुम मेरे आदेशसे सेना साथमें लेकर जाओ और साम आदि उपायोंसे उस सुन्दर मुखवाली स्त्रीको यहाँ ले आओ । यदि वह स्त्री साम, दान और भेद-इन तीन उपायोंसे भी यहाँ न आये तो उस सुन्दरीको बिना मारे ही पकड़कर मेरे पास ले आओ, यदि वह मृगनयनी प्रीतिपूर्वक आयेगी तो मैं हंसके समान भाँहोंवाली उस स्त्रीको प्रसन्नतापूर्वक अपनी पटरानी बनाऊँगा । मेरी इच्छा समझकर जिस प्रकार रसभंग न हो, वैसा करना । मैं उसकी रूपराशिकी बात सुनकर मोहित हो गया हूँ ॥ ५५-५८ ॥
व्यासजी बोले-महिषासुरकी यह कोमल वाणी सुनकर वह श्रेष्ठ मन्त्री हाथी, घोड़े और रथ साथ लेकर तुरंत चल पड़ा । वहाँ पहुँचकर कुछ दूर खड़े होकर वह सचिव कोमल तथा मधुर वाणीमें विनम्रतापूर्वक उस दृढ़ निश्चयवाली नारीसे कहने लगा ॥ ५९-६० ॥
प्रधान बोला-हे मधुरभाषिणि ! तुम कौन हो और यहाँ क्यों आयी हो ? हे महाभागे ! मेरे मुखसे ऐसा कहलाकर मेरे स्वामीने तुमसे यह बात पूछी है ॥ ६१.५ ॥
स जेता सर्वदेवानामवध्यस्तु नरैः किल ॥ ६२ ॥ ब्रह्मणो वरदानेन गर्वितश्चारुलोचने । दैत्येश्वरोऽसौ बलवान्कामरूपधरः सदा ॥ ६३ ॥
उन्होंने समस्त देवताओंको जीत लिया है और वे मनुष्योंसे अवध्य हैं । हे चारुलोचने ! ब्रह्माजीसे वरदान पानेके कारण वे बहुत गर्वयुक्त रहते हैं । वे दैत्यराज महिष बड़े बलवान् हैं और अपनी इच्छाके अनुसार वे सदा विविध रूप धारण कर सकते है ॥ ६२-६३ ॥
श्रुत्वा त्वां समुपायातां चारुवेषां मनोहराम् । द्रष्टुमिच्छति राजा मे महिषो नाम पार्थिवः ॥ ६४ ॥ मानुषं रूपमादाय त्वत्समीपं समेष्यति । यथा रुच्येत चार्वङ्गि तथा मन्यामहे वयम् ॥ ६५ ॥
सुन्दर वेष तथा मनोहर विग्रहवाली आप यहाँ आयी हुई हैं-ऐसा सुनकर मेरे प्रभु महाराज महिषासुर आपको देखना चाहते हैं । वे मनुष्यका रूप धारण करके आपके पास आयेंगे । हे सुन्दर अंगोंवाली ! आपकी जो इच्छा होगी, हम उसीको मान लेंगे ॥ ६४-६५ ॥
हे बालमृगके समान नेत्रोंवाली ! अब आप उन बुद्धिमान् राजा महिषके पास चलें और नहीं तो मैं स्वयं जाकर आपके प्रेममें लीन राजा महिषको यहाँ ले आऊँ ॥ ६६ ॥
तथा करोमि देवेशि यथा ते मनसेप्सितम् । वशगोऽसौ तवात्यर्थं रूपसंश्रवणात्तव ॥ ६७ ॥ करभोरु वदाशु त्वं संविधेयं मया तथा ॥ ६८ ॥
हे देवेशि ! आपके मनमें जैसी इच्छा होगी, मैं वही करूँगा । आपके रूपके विषयमें सुनकर वे पूर्णरूपसे आपके वशवर्ती हो गये हैं । हे करभोरु ! आप शीघ्र बताएँ: मैं उसीके अनुसार कार्य करूँगा ॥ ६७-६८ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे महिषमन्त्रिणा देवीवार्तावर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥