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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
पञ्चमः स्कन्धः
दशमोऽध्यायः

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मन्त्रीद्वारा महिषासुरेण देव्या सह विवाहप्रस्तावः -
देवीद्वारा महिषासुरके अमात्यको अपना उद्देश्य बताना तथा अमात्यका वापस लौटकर देवीद्वारा कही गयी बातें महिषासुरको बताना -


व्यास उवाच
इति तस्य वचः श्रुत्वा प्रहस्य प्रमदोत्तमा ।
तमुवाच महाराज मेघगम्भीरया गिरा ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-हे महाराज ! उसकी यह बात सुनकर नारीश्रेष्ठ भगवती जोरसे हँसकर मेघके समान गम्भीर वाणीमें उससे कहने लगीं ॥ १ ॥

देव्युवाच
मन्त्रिवर्य सुराणां वै जननीं विद्धि मां किल ।
महालक्ष्मीमिति ख्यातां सर्वदैत्यनिषूदिनीम् ॥ २ ॥
देवी बोलीं-हे मन्त्रिवर ! मुझे देवमाताके रूपमें जानो । मैं सभी दैत्योंका नाश करनेवाली तथा महालक्ष्मी नामसे विख्यात हूँ ॥ २ ॥

प्रार्थिताहं सुरैः सर्वैर्महिषस्य वधाय च ।
पीडितैर्दानवेन्द्रेण यज्ञभागबहिष्कृतैः ॥ ३ ॥
तस्मादिहागतास्म्यद्य तद्वधार्थं कृतोद्यमा ।
एकाकिनी न सैन्येन संयुता मन्त्रिसत्तम ॥ ४ ॥
दानवेन्द्र महिषासुरसे पीड़ित और यज्ञभागसे बहिष्कृत सभी देवताओंने उसके संहारके लिये मुझसे प्रार्थना की है । हे मन्त्रि श्रेष्ठ ! इसलिये उसके वधके लिये पूर्णरूपसे तत्पर होकर मैं बिना किसी सेनाके अकेली ही आज यहाँ आयी हूँ ॥ ३-४ ॥

यत्त्वयाहं सामपूर्वं कृत्वा स्वागतमादरात् ।
उक्ता मधुरया वाचा तेन तुष्टास्मि तेऽनघ ॥ ५ ॥
नोचेद्धन्मि दृशा त्वां वै कालाग्निसमया किल ।
कस्य प्रीतिकरं न स्यान्माधुर्यवचनं खलु ॥ ६ ॥
हे अनघ ! तुमने जो शान्तिपूर्वक आदरके साथ मेरा स्वागत करके मधुर वाणीमें मुझसे बात की है, उससे मैं बहुत प्रसन्न हूँ; अन्यथा अपनी कालाग्निके समान दृष्टिसे तुम्हें भस्म कर देती । मधुरतासे युक्त वचन भला किसके लिये प्रीतिकारक नहीं होता ! ॥ ५-६ ॥

गच्छ तं महिषं पापं वद मद्वचनादिदम् ।
गच्छ पातालमधुना जीवितेच्छा यदस्ति ते ॥ ७ ॥
नोचेत्कृतागसं दुष्टं हनिष्यामि रणाङ्गणे ।
मद्‌बाणक्षुण्णदेहस्त्वं गन्तासि यमसादनम् ॥ ८ ॥
अब तुम जाओ और मेरे शब्दोंमें उस पापी महिषासुरसे कह दो-यदि तुम्हें जीवित रहनेकी अभिलाषा हो तो अभी पाताललोकमें चले जाओ, नहीं तो मैं तुझ पापी तथा दुष्टको रणभूमिमें मार डालूँगी । मेरे बाणोंसे छिन्न-भिन्न शरीरवाले होकर तुम यमपुरी चले जाओगे ॥ ७-८ ॥

दयालुत्वं ममेदं त्वं विदित्वा गच्छ सत्वरम् ।
हते त्वयि सुरा मूढ स्वर्गं प्राप्स्यन्ति सत्वरम् ॥ ९ ॥
तस्माद्‌ गच्छस्व त्यक्त्वैको मेदिनीञ्च ससागराम् ।
पातालं तरसा मन्द यावद्‌ बाणा न मेऽपतन् ॥ १० ॥
हे मूर्ख ! इसे मेरी दयालुता समझकर तुम यहाँसे शीघ्र चले जाओ, नहीं तो तुम्हारे मार दिये जानेपर देवतागण निश्चय ही तत्काल स्वर्गका राज्य पा जायेंगे । इसलिये हे दुष्ट ! जबतक मेरे बाण तुझपर नहीं गिरते, उसके पूर्व ही तुम शीघ्रतापूर्वक समुद्रसहित पृथ्वीका त्याग करके पाताललोक चले जाओ ॥ ९-१० ॥

युद्धेच्छा चेन्मनसि ते तर्ह्येहि त्वरितोऽसुर ।
वीरैर्महाबलैः सर्वैर्नयामि यमसादनम् ॥ ११ ॥
हे असुर ! यदि तुम्हारे मनमें युद्धकी इच्छा हो तो अपने सभी महाबली वीरोंको साथ लेकर शीघ्र आ जाओ । मैं सबको यमपुरी पहुँचा दूंगी ॥ ११ ॥

युगे युगे महामूढ हतास्त्वत्सदृशाः किल ।
असंख्यातास्तथा त्वां वै हनिष्यामि रणाङ्गणे ॥ १२ ॥
साफल्यं कुरु शस्त्राणां धारणे तु श्रमोऽन्यथा ।
तद्युध्यस्व मया सार्धं समरे स्मरपीडितः ॥ १३ ॥
हे महामूढ ! मैंने युग-युगमें तुम्हारे-जैसे असंख्य दैत्योंका संहार किया है, उसी प्रकार मैं तुम्हें भी रणमें मार डालूँगी । [मेरा सामना करके] तुम मेरे शस्त्र धारण करनेके परिश्रमको सफल करो, नहीं तो यह श्रम व्यर्थ हो जायगा । कामपीड़ित तुम रणभूमिमें मेरे साथ युद्ध करो ॥ १२-१३ ॥

मा गर्वं कुरु दुष्टात्मन् यन्मेऽस्ति ब्रह्मणो वरः ।
स्त्रीवध्यत्वे त्वया मूढ पीडिताः सुरसत्तमाः ॥ १४ ॥
हे दुरात्मन् ! तुम इस बातपर अभिमान मत करो कि मुझे ब्रह्माका वर प्राप्त हो गया है । हे मूढ़ ! केवल स्त्रीके द्वारा वध्य होनेके कारण तुमने श्रेष्ठ देवताओंको बहुत पीड़ित किया है ॥ १४ ॥

कर्तव्यं वचनं धातुस्तेनाहं त्वामुपागता ।
स्त्रीरूपमतुलं कृत्वा सत्यं हन्तुं कृतागसम् ॥ १५ ॥
यथेच्छं गच्छ वा मूढ पातालं पन्नगावृतम् ।
हित्वा भूसुरसद्माद्य जीवितेच्छा यदस्ति ते ॥ १६ ॥
अतः ब्रह्माजीका वचन सत्य करना है, इसीलिये स्वीका अनुपम रूप धारण करके मैं तुझ पापीका संहार करनेके लिये यहाँ आयी हूँ । हे मूढ ! यदि जीवित रहनेकी तुम्हारी इच्छा हो तो इसी समय देवलोक छोड़कर तम साँसे भरे पाताललोकको अथवा जहाँ तुम्हारी इच्छा हो वहाँ चले जाओ ॥ १५-१६ ॥

व्यास उवाच
इत्युक्तः स ततो देव्या मन्त्रिश्रेष्ठो बलान्वितः ।
प्रत्युवाच निशम्यासौ वचनं हेतुगर्भितम् ॥ १७ ॥
व्यासजी बोले-देवीने उससे ऐसा कहा, तब उनकी बात सुनकर वह पराक्रमशाली मन्त्रि श्रेष्ठ उनसे सारगर्भित वचन कहने लगा- ॥ १७ ॥

देवि स्त्रीसदृशं वाक्यं ब्रूषे त्वं मदगर्विता ।
क्वासौ क्व त्वं कथं युद्धमसम्भाव्यमिदं किल ॥ १८ ॥
हे देवि ! आप अभिमानमें चूर होकर एक साधारण स्त्रीके समान बात कर रही हैं । कहाँ वे महिषासुर और कहाँ आप, यह युद्ध तो असम्भव ही दीखता है ॥ १८ ॥

एकाकिनी पुनर्बाला प्रारब्धयौवना मृदुः ।
महिषोऽसौ महाकायो दुर्विभाव्यं हि सङ्गतम् ॥ १९ ॥
आप यहाँ अकेली हैं और उसपर भी सद्यः युवावस्थाको प्राप्त सुकुमार बाला हैं । [इसके विपरीत] वे महिषासुर विशाल शरीरवाले हैं । ऐसी स्थितिमें उनकी और आपकी तुलना कल्पनातीत है । ॥ १९ ॥

सैन्यं बहुविधं तस्य हस्त्यश्वरथसंकुलम् ।
पदातिगणसंविद्धं नानायुधविराजितम् ॥ २० ॥
उनके पास हाथी-घोड़े और रथसे परिपूर्ण, पैदल सैनिकोंसे सम्पन्न तथा अनेक प्रकारके आयुधोंसे सज्जित अनेक प्रकारकी सेना है ॥ २० ॥

कः श्रमः करिराजस्य मालतीपुष्पमर्दने ।
मारणे तव वामोरु महिषस्य तथा रणे ॥ २१ ॥
मालतीके पुष्पोंको कुचल डालनेमें गजराजको भला कौन-सा परिश्रम करना पड़ता है । हे सुजघने ! उसी प्रकार युद्ध में आपको मारनेमें महिषासुरको कुछ भी प्रयास नहीं करना पड़ेगा ॥ २१ ॥

यदि त्वां परुषं वाक्यं ब्रवीमि स्वल्पमप्यहम् ।
शृङ्गारे तद्विरुद्धं हि रसभङ्गाद्‌बिभेम्यहम् ॥ २२ ॥
यदि मैं आपको थोड़ा भी कठोर वचन कह दूँ तो वह शृंगाररसके विरुद्ध होगा; और मैं रसभंगसे डरता हूँ ॥ २२ ॥

राजास्माकं सुररिपुर्वर्तते त्वयि भक्तिमान् ।
साममेव मया वाच्यं दानयुक्तं तथा वचः ॥ २३ ॥
नोचेद्धन्म्यहमद्यैव बाणेन त्वां मृषावदाम् ।
मिथ्याभिमानचतुरां रूपयौवनगर्विताम् ॥ २४ ॥
हमारे राजा महिषासुर देवताओंके शत्रु हैं, किंतु वे आपके प्रति अनुरागयुक्त हैं । [मेरे राजाने कहा है कि] मैं आपसे साम तथा दाननीतियोंसे पूर्ण वचन ही बोलँ, अन्यथा मैं झूठ बोलनेवाली, मिथ्या अभिमानमें भरकर चतुरता दिखानेवाली और रूप तथा यौवनके अभिमानमें चूर रहनेवाली आपको इसी समय अपने बाणसे मार डालता ॥ २३-२४ ॥

स्वामी मे मोहितः श्रुत्वा रूपं ते भुवनातिगम् ।
तत्प्रियार्थं प्रियं कामं वक्तव्यं त्वयि यन्मया ॥ २५ ॥
आपके अलौकिक रूपके विषयमें सुनकर मेरे स्वामी मोहित हो गये हैं । उनकी प्रसन्नताके लिये ही मुझे प्रिय वचन बोलना पड़ रहा है । ॥ २५ ॥

राज्यं तव धनं सर्वं दासस्ते महिषः किल ।
कुरु भावं विशालाक्षि त्यक्त्वा रोषं मृतिप्रदम् ॥ २६ ॥
उनका सम्पूर्ण राज्य तथा धन आपका है; क्योंकि वे महाराज महिषासर निश्चय ही आपके दास हो चुके हैं । अतः हे विशालनयने ! इस मृत्युदायक रोषका त्याग करके उनके प्रति प्रेमभाव प्रदर्शित कीजिये ॥ २६ ॥

पतामि पादयोस्तेऽहं भक्तिभावेन भामिनि ।
पट्टराज्ञी महाराज्ञो भव शीघ्रं शुचिस्मिते ॥ २७ ॥
हे भामिनि ! मैं भक्तिभावसे आपके चरणोंपर गिर रहा हूँ । हे पवित्र मुसकानवाली ! आप शीघ्र ही महाराज महिषकी पटरानी बन जाइये ॥ २७ ॥

त्रैलोक्यविभवं सर्वं प्राप्स्यसि त्वमनाविलम् ।
सुखं संसारजं सर्वं महिषस्य परिग्रहात् ॥ २८ ॥
महिषासुरको स्वीकार कर लेनेसे आपको तीनों लोकोंका सम्पूर्ण उत्तम वैभव तथा समस्त सांसारिक सुख प्राप्त हो जायगा ॥ २८ ॥

देव्युवाच
शृणु साचिव वक्ष्यामि वाक्यानां सारमुत्तमम् ।
शास्त्रदृष्टेन मार्गेण चातुर्यमनुचिन्त्य च ॥ २९ ॥
देवी बोलीं-हे सचिव ! सुनो, मैं बुद्धिचातुर्यसे सम्यक् विचार करके तथा शास्त्रप्रतिपादित मार्गसे निर्णय करके सारभूत बातें बताऊँगी ॥ २९ ॥

महिषस्य प्रधानस्त्वं मया ज्ञातं धिया किल ।
पशुबुद्धिस्वभावोऽसि वचनात्तव साम्प्रतम् ॥ ३० ॥
तुम्हारी बातोंसे मैंने अपनी बुद्धिद्वारा जान लिया कि तुम महिषासुरके प्रधानमन्त्री हो और तुम भी [उसीकी तरह] पशुबुद्धिस्वभाववाले हो ॥ ३० ॥

मन्त्रिणस्त्वादृशा यस्य स कथं बुद्धिमान्भवेत् ।
उभयोः सदृशो योगः कृतोऽयं विधिना किल ॥ ३१ ॥
जिस राजाके तुम्हारे-जैसे मन्त्री हों, वह बुद्धिमान् कैसे हो सकता है ? ब्रह्माने निश्चय ही तुम दोनोंका यह समान योग रचा है ॥ ३१ ॥

यदुक्तं स्त्रीस्वभावासि तद्विचारस्य मूढ किम् ।
पुमान्नाहं तत्स्वभावाभवंस्त्रीवेषधारिणी ॥ ३२ ॥
हे मूर्ख ! तुमने जो यह कहा कि 'तुम स्त्रीस्वभाववाली हो', तो अब तुम इस बातपर जरा विचार करो कि क्या मैं पुरुष नहीं हूँ ? वस्तुतः उसीके स्वभाववाली मैं इस समय स्त्रीवेषधारिणी हो गयी हूँ ॥ ३२ ॥

याचितं मरणं पूर्वं स्त्रिया त्वत्प्रभुणा यथा ।
तस्मान्मन्येऽतिमूर्खोऽसौ न वीररसवित्तमः ॥ ३३ ॥
तुम्हारे स्वामी महिषासुरने पूर्वकालमें जो स्त्रीस मारे जानेका वरदान माँगा था, उसीसे मैं समझती हूँ कि वह महामूर्ख है । वह वीररसका थोड़ा में जानकार नहीं है ॥ ३३ ॥

कामिन्या मरणं क्लीबरतिदं शूरदुःखदम् ।
प्रार्थितं प्रभुणा तेन महिषेणात्मबुद्धिना ॥ ३४ ॥
तस्मात्स्त्रीरूपमाधाय कार्यं कर्तुमुपागता ।
कथं बिभेमि त्वद्वाक्यैर्धर्मशास्त्रविरोधकैः ॥ ३५ ॥
स्त्रीके द्वारा मारा जाना पराक्रमहीनके लिये भलं ही सुखकर हो, किंतु वीरके लिये यह कष्टप्रद होता है । महिषकी अपनी जो बुद्धि हो सकती है, उसीके अनुसार तुम्हारे स्वामीने ऐसा वरदान माँगा । इसीलिन मैं स्त्री-रूप धारण करके अपना कार्य सिद्ध करनेके लिये यहाँ आयी हूँ । मैं तुम्हारे धर्मशास्त्र-विरोधी वचनोंसे क्यों डरूँ ? ॥ ३४-३५ ॥

विपरीतं यदा दैवं तृणं वज्रसमं भवेत् ।
विधिश्चेत्सुमुखः कामं कुलिशं तूलवत्तदा ॥ ३६ ॥
जब दैव प्रतिकूल होता है, तब एक तिनका भी वज्र-तुल्य हो जाता है और जब वह दैव अनुकूल होता है, तब वज्र भी तूल (रूई)-के समान कोमल हो जाता है ॥ ३६ ॥

किं सैन्यैरायुधैः किं वा प्रपञ्चैर्दुर्गसेवनैः ।
मरणं साम्प्रतं यस्य तस्य सैन्यैस्तु किं फलम् ॥ ३७ ॥
जिसकी मृत्यु सन्निकट हो उसके लिये सेना, अस्त्र-शस्त्र तथा किलेकी सुरक्षा, सैन्यबल आदि प्रपंचोंसे क्या लाभ ! ॥ ३७ ॥

यदायं देहसम्बन्धो जीवस्य कालयोगतः ।
तदैव लिखितं सर्वं सुखं दुःखं तथा मृतिः ॥ ३८ ॥
यस्य येन प्रकारेण मरणं दैवनिर्मितम् ।
तस्य तेनैव जायेत नान्यथेति विनिश्चयः ॥ ३९ ॥
जब कालयोगसे देहके साथ जीवका सम्बन्ध स्थापित होता है, उसी समय विधाताके द्वारा सुख, दुःख तथा मृत्यु-सब कुछ निर्धारित कर दिया जाता है । दैबने जिस प्राणीकी मृत्यु जिस प्रकारसे निश्चित कर दी है, उसकी मृत्यु उसी प्रकारसे होगी, इसके विपरीत नहीं; यह पूर्ण सत्य है ॥ ३८-३९ ॥

ब्रह्मादीनां यथा काले नाशोत्पत्ती विनिर्मिते ।
तथैव भवतः कामं किमन्येषां विचार्यते ॥ ४० ॥
ये मृत्युधर्मिणस्तेषां वरदानेन दर्पिताः ।
मरिष्यामो न मन्यन्ते ते मूढा मन्दचेतसः ॥ ४१ ॥
जिस प्रकारसे ब्रह्मा आदि देवताओंके भी जन्म और मृत्यु सुनिश्चित किये गये रहते हैं, समय आनेपर उसी प्रकारसे उनका भी जन्म-मरण होता है तब अन्य लोगोंके विषयमें विचार ही क्या ! उन ब्रह्मा आदि मरणधर्माके वरदानसे गर्वित होकर जो लोग यह समझते हैं कि 'हम नहीं मरेंगे' वे मूर्ख तथा अल्पबुद्धिवाले हैं ॥ ४०-४१ ॥

तस्माद्‌ गच्छ नृपं ब्रूहि वचनं मम सत्वरम् ।
यदाज्ञापयते भूपस्तत्कर्तव्यं त्वया किल ॥ ४२ ॥
मघवा स्वर्गमाप्नोतु देवाः सन्तु हविर्भुजः ।
यूयं प्रयात पातालं यदि जीवितुमिच्छथ ॥ ४३ ॥
अन्यथा चेन्मतिर्मन्द महिषस्य दुरात्मनः ।
तद्युध्यस्व मया सार्धं मरणाय कृतादरः ॥ ४४ ॥
अतएव अब तुम शीघ्र जाओ और अपने राजासे मेरी बात कह दो । इसके बाद तुम्हारे राजा जैसी आज्ञा दें, तुम वैसा करो । इन्द्रको स्वर्ग प्राप्त हो जाय और देवताओंको यज्ञका भाग मिलने लगे । तुमलोग यदि जीवित रहना चाहते हो, तो पाताललोक चले जाओ और हे मूर्ख ! यदि दुष्टात्मा महिषासुरका विचार विपरीत हो, तो वह मरनेके लिये तैयार होकर मेरे साथ युद्ध करे ॥ ४२-४४ ॥

मन्यसे सङ्गरे भग्ना देवा विष्णुपुरोगमाः ।
दैवं हि कारणं तत्र वरदानं प्रजापतेः ॥ ४५ ॥
यदि तुम यह मानते हो कि विष्णु आदि प्रधान देवता तो युद्धमें पहले ही परास्त किये जा चुके हैं, तो उस समय उसका कारण था-विपरीत भाग्य तथा ब्रह्माजीका वरदान ॥ ४५ ॥

व्यास उवाच
इति देव्या वचः श्रुत्वा चिन्तयामास दानवः ।
किं कर्तव्यं मया युद्धं गन्तव्यं वा नृपं प्रति ॥ ४६ ॥
व्यासजी बोले-देवीका यह वचन सुनकर वह दानव सोचने लगा-अब मुझे क्या करना चाहिये ? मैं इसके साथ युद्ध करूं या राजा महिषके पास लौट चलूँ ॥ ४६ ॥

विवाहार्थमिहाज्ञप्तो राज्ञा कामातुरेण वै ।
तत्कथं विरसं कृत्वा गच्छेयं नृपसन्निधौ ॥ ४७ ॥
[किंतु यह भी है कि] कामातुर महाराज महिषने विवाहके लिये [उसे राजी करनेकी] मुझे आज्ञा दी है तो फिर रसभंग करके मैं राजाके पास लौटकर कैसे जाऊँ ? ॥ ४७ ॥

इयं बुद्धिः समीचीना यद्‌ व्रजामि कलिं विना ।
यथागतं तथा शीघ्रं राज्ञे संवेदयाम्यहम् ॥ ४८ ॥
स प्रमाणं पुनः कार्ये राजा मतिमतां वरः ।
करिष्यति विचार्यैव सचिवैर्निपुणैः सह ॥ ४९ ॥
अन्तमें अब मुझे यही विचार उचित प्रतीत होता है कि बिना युद्ध किये ही राजाके पास शीघ्र चला जाऊँ और जैसा सामने उपस्थित है, वैसा उनको बता दूं । उसके बाद बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ राजा महिष अपने चतुर मन्त्रियोंसे विचार-विमर्श करके जो उचित समझेंगे, उसे करेंगे ॥ ४८-४९ ॥

सहसा न मया युद्धं कर्तव्यमनया सह ।
जये पराजये वापि भूपतेरप्रियं भवेत् ॥ ५० ॥
मुझे अचानक इस स्त्रीके साथ युद्ध नहीं करना चाहिये; क्योंकि जय अथवा पराजय-इन दोनोंमें राजाका अप्रिय हो सकता है । ॥ ५० ॥

यदि मां सुन्दरी हन्यादहं वा हन्मि तां पुनः ।
येन केनाप्युपायेन स कुप्येत्पार्थिवः किल ॥ ५१ ॥
तस्मात्तत्रैव गत्वाहं बोधयिष्यामि तं नृपम् ।
यथाद्याभिहितं देव्या यथारुचि करोतु सः ॥ ५२ ॥
यदि यह सुन्दरी मुझे मार डाले अथवा मैं ही जिस किसी उपायसे इसको मार डालूँ, तब भी राजा महिष निश्चितरूपसे कुपित होंगे । अतः अब मैं वहींपर चलकर इस सुन्दरीके द्वारा आज जो कुछ कहा गया है, वह सब राजा महिषको बता दूँगा । तत्पश्चात् उनकी जैसी रुचि होगी, वैसा वे करेंगे । ५१-५२ ॥

व्यास उवाच
इति सञ्चिन्त्य मेधावी जगाम नृपसन्निधौ ।
प्रणम्य तमुवाचेदं कृताञ्जलिरमात्यकः ॥ ५३ ॥

व्यासजी बोले-ऐसा विचार करके वह बुद्धिमान मन्त्री राजा (महिष)-के पास गया और उसे प्रणामकर दोनों हाथ जोड़कर कहने लगा- ॥ ५३ ॥

मन्त्र्युवाच
राजन् देवी वरारोहा सिंहस्योपरि संस्थिता ।
अष्टादशभुजा रम्या वरायुधधरा परा ॥ ५४ ॥
मन्त्री बोला-हे राजन् ! सुन्दर रूपवाली वह देवी सिंहपर आरूढ़ है, उस मनोहर देवीकी अठारह भुजाएँ हैं और उस श्रेष्ठ देवीने उत्तम कोटिके आयुध धारण कर रखे हैं ॥ ५४ ॥

सा मयोक्ता महाराज महिषं भज भामिनि ।
महिषी भव राज्ञस्त्वं त्रैलोक्याधिपतेः प्रिया ॥ ५५ ॥
पट्टराज्ञी त्वमेवास्य भविता नात्र संशयः ।
स तवाज्ञाकरो जातो वशवर्ती भविष्यति ॥ ५६ ॥
त्रैलोक्यविभवं भुक्त्वा चिरकालं वरानने ।
महिषं पतिमासाद्य योषितां सुभगा भव ॥ ५७ ॥
हे महाराज ! मैंने उससे कहा-हे भामिनि ! तुम राजा महिषसे प्रेम कर लो और तीनों लोकोंके स्वामी उन महाराजकी प्रिय पटरानी बन जाओ । केवल तुम्ही उनकी पटरानी बननेयोग्य हो; इसमें कोई संशय नहीं है । वे तुम्हारे आज्ञाकारी बनकर सदा तुम्हारे अधीन रहेंगे । हे सुमुखि ! महाराज महिषको पतिरूपमें प्राप्त करके तुम चिरकालतक तीनों लोकोंके ऐश्वर्यका उपभोगकर समस्त स्त्रियोंमें सौभाग्यवती बन जाओ ॥ ५५-५७ ॥

इति मद्वचनं श्रुत्वा सा स्मयावेशमोहिता ।
मामुवाच विशालाक्षी स्मितपूर्वमिदं वचः ॥ ५८ ॥
महिषीगर्भसम्भूतं पशूनामधमं किल ।
बलिं दास्याम्यहं देव्यै सुराणां हितकाम्यया ॥ ५९ ॥
मेरा यह वचन सुनकर विशाल नयनोंवाली वह सुन्दरी गर्वके आवेगसे विमोहित होकर मुसकराती हुई मुझसे यह बात बोली-मैं देवताओंका हित करनेके विचारसे महिषीके गर्भसे उत्पन्न उस अधम पशु (महिष)-को देवीके लिये बलि चढ़ा दूंगी ॥ ५८-५९ ॥

का मूढा कामिनी लोके महिषं वै पतिं भजेत् ।
मादृशी मन्दबुद्धे किं पशुभावं भजेदिह ॥ ६० ॥
हे मन्दबुद्धे ! इस संसारमें भला कौन मूर्ख स्त्री महिषको पतिरूपमें स्वीकार कर सकती है ? क्या मुझ-जैसी स्त्री पशुस्वभाववाले उस महिषासुरसे प्रेम कर सकती है ? ॥ ६० ॥

महिषी महिषं नाथं सशृङ्गा शृङ्गसंयुतम् ।
कुरुते क्रन्दमाना वै नाहं तत्सदृशी शठा ॥ ६१ ॥
करिष्येऽहं मृधे युद्धं हनिष्ये त्वां सुराप्रियम् ।
गच्छ वा दुष्ट पातालं जीवितेच्छा यदस्ति ते ॥ ६२ ॥
हे मूर्ख ! सींगवाली तथा जोर-जोरसे चिल्लानेवाली कोई महिषी ही उस श्रृंगधारी महिषको अपना पति बना सकती है । किंतु मैं वैसी मूर्ख नहीं हूँ । [देवीने पुनः कहलाया है] मैं तो देवताओंके शत्रु तुझ महिषासुरके साथ रणक्षेत्रमें युद्ध करूँगी और तुम्हें मार डालूँगी । हे दुष्ट ! यदि जीवित रहनेकी तुम्हारी इच्छा है, तो अभी पाताललोक चले जाओ ॥ ६१-६२ ॥

परुषं तु तया वाक्यमित्युक्तं नृप मत्तया ।
तच्छ्रुत्वाहं समायातः प्रविचिन्त्य पुनः पुनः ॥ ६३ ॥
हे राजन् ! उस मदमत्त स्त्रीने ऐसी बहुत कठोर बात मुझसे कही । उसे सुनकर बार-बार विचार करनेके बाद मैं यहाँ लौट आया हूँ ॥ ६३ ॥

रसभङ्गं विचिन्त्यैव न युद्धं तु मया कृतम् ।
आज्ञां विना तवात्यन्तं कथं कुर्यां वृथोद्यमम् ॥ ६४ ॥
आपका रसभंग न हो-यह सोचकर मैंने उसके साथ युद्ध नहीं किया और फिर आपकी आज्ञाके बिना मैं व्यर्थ ही युद्ध कैसे कर सकता था ? ॥ ६४ ॥

सातीव च बलोन्मत्ता वर्तते भूप भामिनी ।
भवितव्यं न जानामि किं वा भावि भविष्यति ॥ ६५ ॥
कार्येऽस्मिंस्त्वं प्रमाणं नो मन्त्रोऽतीव दुरासदः ।
युद्धं पलायनं श्रेयो न जानेऽहं विनिश्चयम् ॥ ६६ ॥
हे राजन् ! वह स्त्री सदा अपने बलसे अत्यन्त उन्मत्त रहती है । होनीके विषयमें मैं नहीं जानता; आगे न जाने क्या होगा ! इस विषयमें आप ही प्रमाण हैं । इसमें परामर्श देना मेरे लिये अत्यन्त कठिन है । इस समय हमारे लिये युद्ध करना अथवा पलायन कर जाना-इन दोनोंमें कौन श्रेयस्कर होगा, इसका निर्णय मैं नहीं कर पा रहा हूँ ॥ ६५-६६ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां पञ्चमस्कन्धे मन्त्रीद्वारा महिषासुरेण
देव्या सह विवाहप्रस्तावो नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
अध्याय दसवाँ समाप्त ॥ १० ॥


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