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ताम्रकृतं देवीं प्रति विस्रंसनवचनवर्णनम् -
महिषासुरका अपने मन्त्रियोंसे विचार-विमर्श करना और ताम्रको भगवतीके पास भेजना -
व्यास उवाच इति तस्य वचः श्रुत्वा महिषो मदविह्वलः । मन्त्रिवृद्धान् समाहूय राजा वचनमब्रवीत् ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-मन्त्रीकी यह बात सुनकर मदोन्मत्त राजा महिषासुर अपने वयोवृद्ध मन्त्रियोंको बुलाकर उनसे यह वचन कहने लगा ॥ १ ॥
राजोवाच मन्त्रिणः किं च कर्तव्यं विश्रब्धं ब्रूत मा चिरम् । आगता देवविहिता मायेयं शाम्बरीव किम् ॥ २ ॥ कार्येऽस्मिन्निपुणा यूयमुपायेषु विचक्षणाः । सामादिषु च कर्तव्यः कोऽत्र मह्यं ब्रुवन्तु च ॥ ३ ॥
राजा बोला-हे मन्त्रिगण ! आपलोग निर्भीकतापूर्वक मुझे शीघ्र बतायें कि इस समय मुझे क्या करना चाहिये ? आपलोग इस कार्य में प्रवीण हैं, साथ ही साम तथा दण्ड आदि नीतियोंमें भी कुशल हैं । कहीं देवताओंके द्वारा रची गयी शाम्बरी मायाके रूपमें तो यह नहीं आयी हुई है ? अतः आपलोग मुझे यह बतायें कि इस समय किस नीतिका सहारा लिया जाय ? ॥ २-३ ॥
मन्त्रिगण बोले-हे नृपश्रेष्ठ ! बुद्धिमान् लोगोंको सदा सत्य और प्रिय बोलना चाहिये तथा सम्यक् विचार करके हितकर कार्य करना चाहिये ॥ ४ ॥
सत्यं च हितकृद्राजन्प्रियं चाहितकृद्भवेत् । यथौषधं नृणां लोके ह्यप्रियं रोगनाशनम् ॥ ५ ॥
हे राजन् ! सत्य वचन कल्याणकारी होता है और प्रिय वचन [प्रायः] अहितकर होता है । इस लोकमें अप्रिय वचन भी मनुष्योंके लिये उसी प्रकार हितकारक होता है, जैसे औषधि अरुचिकर होते हुए भी मनुष्योंके रोगोंका नाश करनेवाली होती है ॥ ५ ॥
सत्यस्य श्रोता मन्ता च दुर्लभः पृथिवीपते । वक्तापि दुर्लभः कामं बहवश्चाटुभाषकाः ॥ ६ ॥
हे पृथिवीपते ! सत्य बातको सुनने तथा माननेवाला दुर्लभ है । सत्य बोलनेवाला तो परम दुर्लभ है; किंतु चाटुकारितापूर्ण बातें करनेवाले बहुत से लोग हैं ॥ ६ ॥
कथं ब्रूमोऽत्र नृपते विचारे गहने त्विह । शुभं वाप्यशुभं वापि को वेत्ति भुवनत्रये ॥ ७ ॥
हे राजन् ! इस गूढ़ विषयमें हमलोग कुछ कैसे कह सकते हैं, और फिर इस त्रिलोकीमें भविष्यमें होनेवाले शुभ अथवा अशुभ परिणामके विषयमें कौन जान सकता है ? ॥ ७ ॥
राजोवाच स्वस्वमत्यनुसारेण ब्रुवन्त्वद्य पृथक्पृथक् । येषां हि यादृशो भावस्तच्छ्रुत्वा चिन्तयाम्यहम् ॥ ८ ॥ बहूनां मतमाज्ञाय विचार्य च पुनः पुनः । यच्छ्रेयस्तद्धि कर्तव्यं कार्यं कार्यविचक्षणैः ॥ ९ ॥
राजा बोला-आपलोग अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार अलग-अलग विचार प्रकट करें । जिसका जो भाव होगा, उसे सुनकर मैं स्वयं विचार करूंगा; क्योंकि बुद्धिमान् पुरुषोंको चाहिये कि अनेक लोगोंके मन्तव्य सुनकर और फिर उनपर बार-बार विचार करके उनमेंसे अपने लिये जो कल्याणप्रद हो, उसी कामको करें ॥ ८-९ ॥
व्यास उवाच तस्यैवं वचनं श्रुत्वा विरूपाक्षो महाबलः । उवाच तरसा वाक्यं रञ्जयन्पृथिवीपतिम् ॥ १० ॥
व्यासजी बोले-उसकी यह बात सुनकर महाबली विरूपाक्ष राजा महिषको प्रसन्न करते हुए शीघ्र कहने लगा ॥ १० ॥
हे राजन् ! तीनों लोकोंपर विजय प्राप्त करके भी आज आप स्त्रीके भयसे ग्रस्त हो गये हैं ! उसकी अधीनता स्वीकार कर लेनेपर इस लोकमें अवश्य ही आप-जैसे वीरकी अपकीर्ति होगी ॥ १३ ॥
तस्माद्याम्यहमेकाकी युद्धाय चण्डिकां प्रति । हनिष्ये तां महाराज निर्भयो भव साम्प्रतम् ॥ १४ ॥
अतएव हे महाराज ! मैं अकेला ही उस चण्डिकासे युद्ध करनेके लिये जा रहा हूँ और उसे निश्चितरूपसे मार डालूंगा । अब आप भयमुक्त हो जायें ॥ १४ ॥
सेनावृतोऽहं गत्वा तां शस्त्रास्त्रैर्विविधैः किल । निषूदयामि दुर्मर्षां चण्डिकां चण्डविक्रमाम् ॥ १५ ॥ बद्ध्वा सर्पमयैः पाशैरानयिष्ये तवान्तिकम् । वशगा तु सदा ते स्यात्पश्य राजन् बलं मम ॥ १६ ॥
अपनी सेनाके साथ वहाँ जाकर अनेक प्रकारके शस्त्रास्त्रोंसे मैं उस दुःसह तथा प्रचण्ड पराक्रमसम्पन्न चण्डिकाका निश्चय ही वध कर दूंगा अथवा उसे नागपाशमें बाँधकर जीवित दशामें ही आपके पास ले आऊँगा, जिससे वह सदाके लिये आपकी वशवर्तिनी हो जाय । हे राजन् ! अब आप मेरा पराक्रम देखिये ॥ १५-१६ ॥
व्यासजी बोले-विरूपाक्षकी बात सुनकर दुर्धरने कहा-हे राजन् ! बुद्धिमान् विरूपाक्षने यथार्थ बात कही है । प्रतिभासम्पन्न आप अब मेरी भी उत्तम बात सुन लें । अनुमानसे ऐसा प्रतीत होता है कि सुन्दर दाँतोंवाली यह स्त्री कामातुर है । अपने रूपके गर्वमें चूर इस प्रकारकी नायिकाएँ अपने प्रियको डराधमकाकर वशमें करनेका प्रयास करती हैं । वैसे ही यह सुन्दरी भी आपको धमकाकर अपने वशमें करना चाहती है ॥ १७-१९ ॥
हावोऽयं मानिनीनां वै तं वेत्ति रसवित्तमः । वक्रोक्तिरेषा कामिन्याः प्रियं प्रति परायणम् ॥ २० ॥ वेत्ति कोऽपि नरः कामं कामशास्त्रविचक्षणः । यदुक्तं नाम बाणैस्त्वा वधिष्ये रणमूर्धनि ॥ २१ ॥ हेतुगर्भमिदं वाक्यं ज्ञातव्यं हेतुवित्तमैः । बाणास्तु मानिनीनां वै कटाक्षा एव विश्रुताः ॥ २२ ॥ पुष्पाञ्जलिमयाश्चान्ये व्यंग्यानि वचनानि च । का शक्तिरन्यबाणानां प्रेरणे त्वयि पार्थिव ॥ २३ ॥ तादृशीनां न सा शक्तिर्ब्रह्मविष्णुहरादिषु । ययोक्तं नेत्रबाणैस्त्वां हनिष्ये मन्द पार्थिवम् ॥ २४ ॥ विपरीतं परिज्ञातं तेनारसविदा किल ।
यह तो मानिनी स्वियोंका हाव-भाव होता है और रसका महान् ज्ञाता ही उस हाव-भावको समझ पाता है । आसक्त प्रेमीके प्रति किसी स्त्रीकी ऐसी वक्रोक्ति होती ही है, जिसे कामशास्त्रका विद्वान् कोई विरला पुरुष ही समझ पाता है । जैसे उसने कहा है'मैं तुम्हें युद्धक्षेत्रमें बाणोंसे मार डालूँगी', इस कथनमें बहुत बड़ा रहस्य निहित है, जिसे रहस्यविद् ही भलीभाँति समझ सकते हैं । मानिनी स्त्रियोंके बाण तो उनके कटाक्ष ही कहे गये हैं और हे राजन् ! उनके व्यंग्यपूर्ण वचन दूसरे पुष्पांजलिमय बाण हैं; क्योंकि कटाक्षको छोड़कर वह अन्य प्रकारके बाण भला आपपर क्या चला सकेगी ? जब ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदिमें आपपर बाण चलानेकी शक्ति नहीं है, तब वैसी स्त्रियों में अन्य बाण चलानेकी शक्ति कहाँ है ? उसने अमात्यसे जो कहा था-'हे मन्द ! मैं तुम्हारे राजाको अपने नेत्रवाणोंसे वेध डालूँगी' इस कथनका तात्पर्य उन रसज्ञानसे विहीन मन्त्रीने विपरीत ही समझ लिया था ॥ २०-२४.५ ॥
पातयिष्यामि शय्यायां रणमय्यां पतिं तव ॥ २५ ॥ विपरीतरतिकीडाभाषणं ज्ञेयमेव तत् । करिष्ये विगतप्राणं यदुक्तं वचनं तया ॥ २६ ॥ वीर्यं प्राणा इति प्रोक्तं तद्विहीनं न चान्यथा ।
उसने प्रधान अमात्यसे जो यह कहा था कि 'मैं तुम्हारे स्वामीको रणमयी शय्यापर गिरा दूंगी'इस कथनका तात्पर्य उस स्त्रीके द्वारा विपरीत रतिक्रीडाका किया जाना समझना चाहिये । साथ ही उसने जो यह बात कही थी कि 'मैं उन्हें प्राणहीन कर दूंगी'-तो [हे राजन् !] पुरुषों में वीर्यको ही प्राण कहा गया है, अतः उस स्त्रीके कथनका तात्पर्य आपको वीर्यहीन कर देनेसे है, इसके अतिरिक्त दुसरी बात नहीं । २५-२६.५ ॥
व्यंग्याधिक्येन वाक्येन वरयत्युत्तमा नृप ॥ २७ ॥ तद्वै विचारतो ज्ञेयं रसग्रन्थविचक्षणैः । इति ज्ञात्वा महाराज कर्तव्यं रससंयुतम् ॥ २८ ॥ सामदानद्वयं तस्या नान्योपायोऽस्ति भूपते । रुष्टा वा गर्विता वापि वशगा मानिनी भवेत् ॥ २९ ॥ तादृशैर्मधुरैर्वाक्यैरानयिष्ये तवान्तिकम् । किं बहूक्तेन मे राजन् कर्तव्या वशवर्तिनी ॥ ३० ॥ गत्वा मयाधुनैवेयं किङ्करीव सदैव ते ।
हे राजन् ! व्यंग्यभरे इस कथनके द्वारा वह सुन्दरी आपको पतिके रूपमें वरण करना चाहती है । रसशास्त्रके विद्वानोंको विचारपूर्वक इस कथनका अभिप्राय भलीभाँति जान लेना चाहिये । हे महाराज ! ऐसा जानकर आपको उसके प्रति रसमय व्यवहार करना चाहिये । हे राजन् ! साम (प्रिय वचन) और दान (प्रलोभन आदि)-ये ही दो उपाय उसे वशमें करनेके हैं, इनके अतिरिक्त कोई दूसरा उपाय नहीं है । रुष्ट अथवा मदगर्वित कोई भी मानिनी स्त्री इन उपायोंसे वशवर्तिनी हो जाती है । उसी प्रकारके मधुर वचनोंसे प्रसन्न करके मैं उसे आपके पास ले आऊँगा । हे राजन् ! बहुत कहनेसे क्या लाभ ! अभी वहाँ जाकर मैं उस स्त्रीको एक दासीकी भाँत सदाके लिये आपके वशमें कर दूंगा ॥ २७-३०.५ ॥
व्यास उवाच इत्थं निशम्य तद्वाक्यं ताम्रस्तत्त्वविचक्षणः ॥ ३१ ॥ उवाच वचनं राजन्निशामय मयोदितम् । हेतुमद्धर्मसहितं रसयुक्तं नयान्वितम् ॥ ३२ ॥
व्यासजी बोले-दुर्धरकी यह बात सुनकर तत्त्वविद् ताम्र बोला-हे राजन् ! अब आप मेरेद्वारा कही गयी बात सुनिये जो तर्कयुक्त, धर्मसे ओतप्रोत, रसमय तथा नीतिसे भरी हुई है ॥ ३१-३२ ॥
हे महाबाहो ! यह तो महान् आश्चर्य है कि एक अत्यधिक रूपवती और मनोहर स्त्री बिना किसीका आश्रय लिये अकेली ही युद्धहेतु आयी हुई है । अठारह भुजाओंसे सम्पन्न ऐसी पराक्रमशालिनी तथा सुन्दर स्त्री किसीके भी द्वारा तीनों लोकोंमें न तो देखी गयी और न तो सुनी ही गयी । उसने अनेक प्रकारके सुदृढ़ आयुध धारण कर रखे हैं । हे राजन् ! इससे मैं तो यह मानता हूँ कि समयने सब कुछ हमारे विपरीत कर दिया है ॥ ३४-३६ ॥
हे राजन् ! आजकल घर-घरमें भयानक पक्षी रोया करते हैं और घर-घरमें विविध प्रकारके उपद्रव होते रहते हैं । इससे मैं तो यह समझता हूँ कि इसमें निश्चितरूपसे कुछ और ही कारण है, तभी तो युद्धके लिये कृतसंकल्प यह स्त्री आपको ललकार रही है ॥ ३९-४० ॥
नैषास्ति मानुषी नो वा गान्धर्वी न तथासुरी । देवैः कृतेयं ज्ञातव्या माया मोहकरी विभो ॥ ४१ ॥
हे राजन् ! यह न तो मानुषी, न गान्धर्वी और न आसुरी ही है; अपितु इसे देवताओंकी रची हुई मोहकरी माया समझना चाहिये ॥ ४१ ॥
कातरत्वं न कर्तव्यं ममैतन्मतमित्यलम् । कर्तव्यं सर्वथा युद्धं यद्भाव्यं तद्भविष्यति ॥ ४२ ॥ को वेद दैवकर्तव्यं शुभं वाप्यशुभं तथा । अवलम्ब्य धिया धैर्यं स्थातव्यं वै विचक्षणैः ॥ ४३ ॥
अतः मेरा यह दृढ़ मत है कि इस समय कायरता नहीं प्रदर्शित करनी चाहिये, अपितु हर तरहसे युद्ध करना चाहिये जो होना होगा वह होगा । भविष्यमें विधाताके द्वारा किये जानेवाले शुभ या अशुभके बारेमें कौन जानता है ? अतः विद्वान् पुरुषोंको चाहिये कि बुद्धिपूर्वक धैर्य धारण करके समयकी प्रतीक्षा करें ॥ ४२-४३ ॥
हे सर्वज्ञ ! तुम पराक्रमी तथा कामशास्त्रके पूर्ण विद्वान् हो, अतः किसी भी युक्तिसे उस सुन्दरीपर विजय प्राप्त करना ॥ ४७ ॥
त्वरन्वीर महाबाहो सैन्येन महता वृतः । तत्र गत्वा त्वया ज्ञेया विचार्य च पुनः पुनः ॥ ४८ ॥ किमर्थमागता चेयं ज्ञातव्यं तद्धि कारणम् । कामाद्वा वैरभावाच्च माया कस्येयमित्युत ॥ ४९ ॥
हे वीर ! हे महाबाहो ! विशाल सेनाके साथ तुम वहाँ शीघ्रतापूर्वक जाओ और वहाँ पहुँचकर बारबार चिन्तन-मनन करके इसका पता लगाओ कि यह किसलिये आयी हुई है ? तुम यह भी ज्ञात करना कि वह कामभाव अथवा वैरभाव-किस भावसे आयी है और वह किसकी माया है ? ॥ ४८-४९ ॥
आरम्भमें इन बातोंकी जानकारी कर लेनेपर तुम यह पता करना कि वह क्या करना चाहती है ? तत्पश्चात् उसकी सबलता तथा निर्बलताको भलीभाँति समझकर ही उसके साथ तुम युद्ध करना ॥ ५० ॥
कातरत्वं न कर्तव्यं निर्दयत्वं तथा न च । यादृशं हि मनस्तस्याः कर्तव्यं तादृशं त्वया ॥ ५१ ॥
तुम उसके समक्ष न तो कायरता प्रदर्शित करना और न बिलकुल निर्दयताका ही व्यवहार करना । उसकी जैसी मनोदशा देखना, उसीके अनुसार उससे बर्ताव करना ॥ ५१ ॥
व्यासजी बोले-महिषासुरको यह बात सुनकर कालके वशीभूत वह ताम्र राजा महिषको प्रणाम करके सेनाके साथ चल पड़ा । चलते समय मार्गमें यमका द्वार दिखलानेवाले अत्यन्त भयानक अपशकुनोंको देख-देखकर वह बहुत विस्मित तथा भयभीत होता था ॥ ५२-५३ ॥
देवीके समीप पहुँचकर उसने देखा कि वे सिंहपर सवार हैं, वे विविध प्रकारके आयुधोंसे विभूषित हैं तथा सभी देवता उनकी स्तुति कर रहे हैं । तदनन्तर उस ताम्रने विनम्र भावसे खड़े होकर सामनीतिका आश्रय लेकर मधुर वाणीमें शान्तिपूर्वक देवीसे यह वचन कहा-हे देवि ! दैत्योंके अधिपति तथा विशाल सींगोंवाले राजा महिष आपके रूप तथा गुणपर मोहित होकर आपसे विवाह करनेकी अभिलाषा रखते हैं ॥ ५४-५६ ॥
विशाल नयनों तथा सुकुमार अंगोंवाली हे सुन्दरि ! देवताओंके लिये भी अजेय उन महिषसे आप प्रेम कीजिये और उन्हें पतिरूपमें प्राप्त करके अद्भुत नन्दनवनमें विहार कीजिये ॥ ५७ ॥
सभी प्रकारके सुखोंके निधानस्वरूप इस सर्वांगसुन्दर शरीरको प्राप्त करके हर तरह सुख भोगना चाहिये और दुःखका तिरस्कार करना चाहिये, यही बात सर्वमान्य है । ५८ ॥
पुष्पोंसे भी युद्ध नहीं करना चाहिये, फिर तीक्ष्ण बाणोंसे युद्धकी बात ही क्या ? अपने अंगोंका छिद जाना भला किसकी प्रसन्नताका कारण बन सकता है ? अतएव हे तन्वंगि ! आप कृपा करें और देवताओं तथा दानवोंके द्वारा पूजित मेरे स्वामी महिषको पतिके रूपमें स्वीकार कर लें । ६२-६३ ॥