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देवीपराजयकरणाय दुर्धरप्रबोधवचनम् -
देवीके अट्टहाससे भयभीत होकर ताम्रका महिषासुरके पास भाग आना, महिषासुरका अपने मन्त्रियोंके साथ पुनः विचार-विमर्श तथा दुर्धर, दुर्मुख और बाष्कलकी गर्वोक्ति -
व्यास उवाच तन्निशम्य वचस्तस्य ताम्रस्य जगदम्बिका । मेघगम्भीरया वाचा हसन्ती तमुवाच ह ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-उस ताम्रकी वह बात सुनकर भगवती जगदम्बिका मेघके समान गम्भीर वाणीमें उससे हँसते हुए कहने लगीं ॥ १ ॥
देव्युवाच गच्छ ताम्र पतिं ब्रूहि मुमूर्षुं मन्दचेतसम् । महिषं चातिकामार्तं मूढं ज्ञानविवर्जितम् ॥ २ ॥ यथा ते महिषी माता प्रौढा यवसभक्षिणी । नाहं तथा शृङ्गवती लम्बपुच्छा महोदरी ॥ ३ ॥
देवी बोलीं-हे ताम्म्र ! तुम अपने स्वामी महिषके पास जाओ और मरनेको उद्यत, मन्दबुद्धि, अति कामातुर तथा ज्ञानशून्य उस मूर्खसे कहो कि जिस प्रकार तुम्हारी माता महिषी घास खानेवाली, प्रौढा, विशाल सींगोंवाली, लम्बी पूंछवाली तथा महान् उदरवाली है; वैसी मैं नहीं हूँ ॥ २-३ ॥
न कामयेऽहं देवेशं नैव विष्णुं न शङ्करम् । धनदं वरुणं नैव ब्रह्माणं न च पावकम् ॥ ४ ॥ एतान्देवगणान्हित्वा पशुं केन गुणेन वै । वृणोम्यहं वृथा लोके गर्हणा मे भवेदिति ॥ ५ ॥
मैं न देवराज इन्द्रको, न विष्णुको, न शिवको, न कुबेरको, न वरुणको, न ब्रह्माको और न तो अग्निदेवको ही चाहती हूँ । जब मैंने इन देवताओंकी उपेक्षा कर दी, तब भला मैं एक पशुका उसके किस गुणसे प्रसन्न होकर वरण करूँगी । इससे तो संसारमें मेरी निन्दा ही होगी ! ॥ ४-५ ॥
नाहं पतिंवरा नारी वर्तते मे पतिः प्रभुः । सर्वकर्ता सर्वसाक्षी ह्यकर्ता निःस्पृहः स्थिरः ॥ ६ ॥ निर्गुणो निर्ममोऽनन्तो निरालम्बो निराश्रयः । सर्वज्ञः सर्वगः साक्षी पूर्णः पूर्णाशयः शिवः ॥ ७ ॥ सर्वावासक्षमः शान्तः सर्वदृक्सर्वभावनः । तं त्यक्त्वा महिषं मन्दं कथं सेवितुमुत्सहे ॥ ८ ॥
मैं पतिका वरण करनेवाली साधारण स्त्री नहीं हूँ । मेरे पति तो साक्षात् प्रभु हैं । वे सब कुछ करनेवाले, सबके साक्षी, कुछ भी न करनेवाले, इच्छारहित, सदा रहनेवाले, निर्गुण, मोहरहित, अनन्त, निरालम्ब, आश्रयरहित, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, साक्षी, पूर्ण, पूर्ण आशयवाले, कल्याणकारी, सबको आश्रय देने में समर्थ, शान्त, सबको देखनेवाले तथा सबकी भावनाओंको जाननेवाले हैं । उन प्रभुको छोड़कर मैं मूर्ख महिषको अपना पति क्यों बनाना चाहूँगी ? ॥ ६-८ ॥
प्रबुध्य युध्यतां कामं करोमि यमवाहनम् । अथवा मनुजानां वै करिष्ये जलवाहकम् ॥ ९ ॥
[उससे कह देना-] अब तुम उठकर युद्ध करो । मैं तुम्हें या तो यमका वाहन बना दूंगी अथवा मनुष्योंके लिये पानी ढोनेवाला महिष बना दूंगी ॥ ९ ॥
इस संसारमें समान कुल तथा आचारवालोंका परस्पर सम्बन्ध सुखदायक होता है, इसके विपरीत बिना सोचे-समझे यदि सम्बन्ध हो जाता है, तो वह बड़ा दुःखदायी होता है ॥ ११ ॥
मूर्खस्त्वमसि यद् ब्रूषे पतिं मे भज भामिनि । क्वाहं क्व महिषः शृङ्गी सम्बन्धः कीदृशो द्वयोः ॥ १२ ॥ गच्छ युध्यस्व वा कामं हनिष्येऽहं सबान्धवम् । यज्ञभागं देवलोकं नोचेत्त्यक्त्वा सुखी भव ॥ १३ ॥
[अरे महिष !] तुम मूर्ख हो जो यह कहते हो कि 'हे भामिनि ! मुझे पतिरूपमें स्वीकार कर लो । ' कहाँ मैं और कहाँ तुम सींग धारण करनेवाले महिष ! हम दोनोंका यह कैसा सम्बन्ध ! अतः अब तुम [पाताललोक] चले जाओ अथवा मुझसे युद्ध करो, मैं तुम्हें बन्धु-बान्धवोंसहित निश्चय ही मार डालूंगी, नहीं तो देवताओंका यज्ञभाग दे दो और देवलोक छोड़कर सुखी हो जाओ ॥ १२-१३ ॥
व्यास उवाच इत्युक्त्वा सा तदा देवी जगर्ज भृशमद्भुतम् । कल्पान्तसदृशं नादं चक्रे दैत्यभयावहम् ॥ १४ ॥ चकम्पे वसुधा चेलुस्तेन शब्देन भूधराः । गर्भाश्च दैत्यपत्नीनां सस्रंसुर्गर्जितस्वनात् ॥ १५ ॥
व्यासजी बोले-ऐसा कहकर देवीने बड़े जोरसे अद्भुत गर्जन किया । वह गर्जन प्रलयकालीन भीषण ध्वनिके समान तथा दैत्योंको भयभीत कर देनेवाला था । उस नादसे पृथ्वी काँप उठी और पर्वत डगमगाने लगे तथा दैत्योंकी पत्नियोंके गर्भ गिर गये ॥ १४-१५ ॥
ताम्रः श्रुत्वा च तं शब्दं भयत्रस्तमनास्तदा । पलायनं ततः कृत्वा जगाम महिषान्तिकम् ॥ १६ ॥
उस शब्दको सुनकर ताम्रके मनमें भय व्याप्त हो गया और तब वह वहाँसे भागकर महिषासुरके पास जा पहुँचा ॥ १६ ॥
नगरे तस्य ये दैत्यास्तेऽपि चिन्तामवाप्नुवन् । बधिरीकृतकर्णाश्च पलायनपरा नृप ॥ १७ ॥
हे राजन् ! उसके नगरमें जो भी दैत्य थे, वे सब बड़े चिन्तित हुए । वे उस ध्वनिके प्रभावसे बधिर हो गये और वहाँसे भागने लगे ॥ १७ ॥
ताम्रको वापस आया हुआ देखकर महिषासुरको बहुत विस्मय हुआ । वह उसी समय मन्त्रियोंके साथ विचार-विमर्श करने लगा कि अब आगे क्या किया जाय ? ॥ १९ ॥
दुर्गग्रहो वा कर्तव्यो युद्धं निर्गत्य वा पुनः । पलायने कृते श्रेयो भवेद्वा दानवोत्तमाः ॥ २० ॥
[उसने कहा- हे श्रेष्ठ दानवो ! हमें आत्मरक्षार्थ किलेके भीतर ही रहना चाहिये अथवा बाहर निकलकर युद्ध करना चाहिये अथवा भाग जानेमें ही हमारा कल्याण है ? ॥ २० ॥
बुद्धिमन्तो दुराधर्षाः सर्वशास्त्रविशारदाः । मन्त्रः खलु प्रकर्तव्यः सुगुप्तः कार्यसिद्धये ॥ २१ ॥ मन्त्रमूलं स्मृतं राज्यं यदि स स्यात्सुरक्षितः । मन्त्रिभिश्च सदाचारैर्विधेयः सर्वथा बुधैः ॥ २२ ॥
आपलोग बुद्धिमान्, अजेय तथा सभी शास्त्रोंके विद्वान् हैं । अत: मेरे कार्यकी सिद्धिके लिये आपलोग अत्यन्त गुप्त मन्त्रणा करें; क्योंकि मन्त्रणाको ही राज्यका मूल कहा गया है । यदि मन्त्रणा सुरक्षित (गुप्त) रहती है, तभी राज्यकी सुरक्षा सम्भव है । अतएव राजाको चाहिये कि बुद्धिमान् तथा सदाचारी मन्त्रियोंके साथ सदा गुप्त मन्त्रणा करे ॥ २१-२२ ॥
मन्त्रणाके खुल जानेपर राज्य तथा राजा-इन दोनोंका विनाश हो जाता है । अतः अपने अभ्युदयकी इच्छा करनेवाले राजाको चाहिये कि भेद खल जानेके भयसे सदा गुप्त मन्त्रणा करे ॥ २३ ॥
अतः इस समय आप मन्त्रिगण नीति-निर्णयपर सम्यक् विचार करके देश-कालके अनुसार मुझे सार्थक तथा हितकर परामर्श प्रदान करें ॥ २४ ॥
या योषात्र समायाता प्रबला देवनिर्मिता । एकाकिनी निरालम्बा कारणं तद्विचिन्त्यताम् ॥ २५ ॥
देवताओंद्वारा निर्मित जो यह अत्यन्त बलवती स्त्री बिना किसी सहायताके अकेली ही यहाँ आयी हुई है, उसके रहस्यपर आपलोग विचार करें ॥ २५ ॥
युद्धं प्रार्थयते बाला किमाश्चर्यमतः परम् । श्रेयोऽत्र विपरीतं वा को वेत्ति भुवनत्रये ॥ २६ ॥
वह बाला हमें युद्धके लिये चुनौती दे रही है, इससे बढ़कर आश्चर्य और क्या हो सकता है ? इसमें मेरी विजय होगी अथवा पराजय-इसे तीनों लोकोंमें भला कौन जानता है ? ॥ २६ ॥
न बहूनां जयोऽप्यस्ति नैकस्य च पराजयः । दैवाधीनौ सदा ज्ञेयौ युद्धे जयपराजयौ ॥ २७ ॥
न तो बहुत संख्यावालोंकी ही सदा विजय होती है और न तो अकेला रहते हुए भी किसीकी पराजय ही होती है । युद्ध में जय तथा पराजयको सदा दैवके अधीन जानना चाहिये ॥ २७ ॥
उपायवादिनः प्राहुर्दैवं किं केन वीक्षितम् । अदृष्टमिति यन्नाम प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ २८ ॥ तत्सत्त्वेऽपि प्रमाणं किं कातराशावलम्बनम् । न समर्थजनानां हि दैवं कुत्रापि लक्ष्यते ॥ २९ ॥ उद्यमो दैवमेतौ हि शूरकातरयोर्मतम् । विचिन्त्याद्य धिया सर्वं कर्तव्यं कार्यमादरात् ॥ ३० ॥
पुरुषार्थवादी लोग कहते हैं कि दैव क्या है, उसे किसने देखा है; इसीलिये तो बुद्धिमान् उसे 'अदृष्ट' कहते हैं । उसके होनेमें क्या प्रमाण है ? वह केवल कायरोंको आशा बँधानेका साधन है, सामर्थ्यवान् लोग उसे कहीं नहीं देखते । उद्यम और दैव-ये दोनों ही वीर तथा कायर लोगोंकी मान्यताएँ हैं । अतः बुद्धिपूर्वक सारी बातोंपर विचार करके हमें कर्तव्यका निश्चय करना चाहिये ॥ २८-३० ॥
व्यास उवाच इति राज्ञो वचः श्रुत्वा हेतुगर्भं महायशाः । बिडालाख्यो महाराजमित्युवाच कृताञ्जलिः ॥ ३१ ॥ राजन्नेषा विशालाक्षी ज्ञातव्या यत्नतः पुनः । किमर्थमिह सम्प्राप्ता कुतः कस्य परिग्रहः ॥ ३२ ॥
व्यासजी बोले-राजा महिषकी यह सारगर्भित बात सुनकर महायशस्वी बिडालाख्यने हाथ जोड़कर अपने महाराज महिषासुरसे यह वचन कहा-हे राजन् ! विशाल नयनोंवाली इस स्त्रीके विषयों सावधानीपूर्वक बार-बार यह पता लगाया जाना चाहिये कि यह यहाँ किसलिये और कहाँसे आयी हुई है तथा यह किसकी पत्नी है ? ॥ ३१-३२ ॥
[मैं तो यह समझता हूँ कि] 'स्त्रीके द्वारा ही आपकी मृत्यु होगी'-ऐसा भलीभाँति जानकर सभी देवताओंने अपने तेजसे उस कमलनयनी स्त्रीका निर्माण करके यहाँ भेजा है ॥ ३३ ॥
हे नरेश ! मैंने तो यही समझा है कि उन देवताओंका यही अभीष्ट है, किंतु मुझे भविष्यमें होनेवाले परिणामका बिलकुल ज्ञान नहीं है । हे प्रभो ! मैं इस समय यह भी नहीं कह सकता कि आप युद्ध न करें । हे महाराज ! देवताओंके द्वारा निर्मित इस कार्यमें कुछ भी निर्णय लेनेमें आप ही प्रमाण हैं ॥ ३६-३७ ॥
हे राजन् ! अद्भुत बात तो यह है कि बलाभिमानी और सेनासम्पन्न हमलोगोंको एक स्त्री युद्धके लिये चुनौती दे रही है ॥ ३९ ॥
दुर्मुख उवाच राजन् युद्धे जयो नोऽद्य भविता वेद्म्यहं किल । पलायनं न कर्तव्यं यशोहानिकरं नृणाम् ॥ ४० ॥
दुर्मुख बोला-हे राजन् ! मैं यह पूर्णरूपसे जानता हूँ कि आज युद्धमें विजय निश्चितरूपसे हमलोगोंकी होगी । हमलोगोंको पलायन नहीं करना चाहिये; क्योंकि युद्धसे भाग जाना पुरुषोंकी कीर्तिको नष्ट करनेवाला होता है ॥ ४० ॥
इन्द्रादीनां संयुगेऽपि न कृतं यज्जुगुप्सितम् । एकाकिनीं स्त्रियं प्राप्य को हि कुर्यात्पलायनम् ॥ ४१ ॥
इन्द्र आदि देवताओंके साथ भी युद्धमें जब हमलोगोंने यह निन्दनीय कार्य नहीं किया था, तब उस अकेली स्त्रीको सामने पाकर उससे डरकर भला कौन पलायन करेगा ? ॥ ४१ ॥
अतः अब हमें युद्ध आरम्भ कर देना चाहिये, युद्धमें हमारी मृत्यु हो अथवा विजय । जो होना होगा वह तो होगा ही । यथार्थ ज्ञानवालेको इस विषयमें चिन्ताकी क्या आवश्यकता ? ॥ ४२ ॥
मरणेऽत्र यशःप्राप्तिर्जीवने च तथा सुखम् । उभयं मनसा कृत्वा कर्तव्यं युद्धमद्य वै ॥ ४३ ॥
रणभूमिमें मरनेपर कीर्ति मिलेगी और विजयी होनेपर जीवनमें सुख मिलेगा । इन दोनों ही बातोंको मनमें स्थिर करके हमें आज ही युद्ध छेड़ देना चाहिये ॥ ४३ ॥
युद्धसे पलायन कर जानेसे हमारा यश नष्ट हो जायगा । आयुके समाप्त हो जानेपर मृत्यु होनी तो निश्चित ही है । अतएव जीवन तथा मरणके लिये व्यर्थ चिन्ता नहीं करनी चाहिये ॥ ४४ ॥
बाष्कल बोला-हे राजन् ! कायर लोगोंके लिये प्रिय इस [पलायन] कार्यके विषयमें आपको विचार नहीं करना चाहिये । मैं उस चंचल नेत्रोंवाली चण्डीको अकेला ही मार डालूँगा ॥ ४६ ॥
अतएव हे राजन् ! भयका त्याग करके मैं अद्भुत युद्ध करूँगा । हे नरेन्द्र ! मैं उस चण्डिकाको मारकर उसे यमपुरी पहुँचा दूंगा ॥ ४८ ॥
न बिभेमि यमादिन्द्रात्कुबेराद्वरुणादपि । वायोर्वह्नेस्तथा विष्णोः शङ्कराच्छशिनो रवेः ॥ ४९ ॥ एकाकिनी तथा नारी किं पुनर्मदगर्विता । अहं तां निहनिष्यामि विशिखैश्च शिलाशितैः ॥ ५० ॥ पश्य बाहुबलं मेऽद्य विहरस्व यथासुखम् । भवतात्र न गन्तव्यं संग्रामेऽप्यनया समम् ॥ ५१ ॥
मैं यम, इन्द्र, कुबेर, वरुण, वायु, अग्नि, विष्णु, शिव, चन्द्रमा और सूर्यसे भी नहीं डरता, तब उस अकेली तथा मदोन्मत्त स्त्रीसे भला क्यों डरूँगा ? पत्थरपर सान धरे हुए तीक्ष्ण बाणोंसे मैं उस स्त्रीका वध कर दूंगा । आज आप मेरा बाहुबल तो देखिये और इस स्त्रीके साथ युद्ध करनेके लिये आपको संग्राममें जानेकी आवश्यकता नहीं है । आप केवल सुखपूर्वक विहार कीजिये ॥ ४९-५१ ॥
व्यास उवाच एवं ब्रुवति राजेन्द्रं बाष्कले मदगर्विते । प्रणम्य नृपतिं तत्र दुर्धरो वाक्यमब्रवीत् ॥ ५२ ॥
व्यासजी बोले-दैत्यराज महिषसे मदोन्मत्त बाष्कलके ऐसा कहनेपर वहाँ उपस्थित दुर्धर अपने राजा महिषासुरको प्रणाम करके कहने लगा ॥ ५२ ॥
हे राजन् ! यह सब तो राजनीतिकी बात हुई, अब आप मन्त्रियोंका कर्तव्य सुनिये । हे दानवेन्द्र ! तीन प्रकारके मन्त्री संसारमें होते हैं । उनमें कुछ सात्त्विक, कुछ राजस तथा अन्य तामस होते हैं । सात्त्विक मन्त्री अपनी पूरी शक्तिसे अपने स्वामीका कार्य सिद्ध करते हैं । वे अपने स्वामीके कार्यमें बिना कोई अवरोध उत्पन्न किये अपना कार्य करते हैं । ऐसे मन्त्री एकाग्रचित्त, धर्मपरायण तथा मन्त्रशास्त्रों (मन्त्रणासे सम्बन्धित शास्त्र)-के विद्वान् होते हैं ॥ ५५-५७ ॥
राजसा भिन्नचित्ताश्च स्वकार्यनिरताः सदा । कदाचित्स्वामिकार्यं ते प्रकुर्वन्ति यदृच्छया ॥ ५८ ॥
राजस प्रकृतिके मन्त्री चंचल चित्तवाले होते हैं और वे सदा अपना कार्य साधनेमें लगे रहते हैं । जब कभी उनके मनमें आ जाता है, तब वे अपने स्वामीका भी काम कर देते हैं । ५८ ॥
तामसा लोभनिरताः स्वकार्यनिरताः सदा । प्रभुकार्यं विनाश्यैव स्वकार्यं साधयन्ति ते ॥ ५९ ॥ समये ते विभिद्यन्ते परैस्तु परिवञ्चिताः । स्वच्छिद्रं शत्रुपक्षीयान्निर्दिशन्ति गृहस्थिताः ॥ ६० ॥ कार्यभेदकरा नित्यं कोशगुप्तासिवत्सदा । संग्रामेऽथ समुत्पन्ने भीषयन्ति प्रभुं सदा ॥ ६१ ॥
तामस प्रकृतिके मन्त्री लोभपरायण होते हैं और वे सदैव अपना कार्य सिद्ध करने में संलग्न रहते हैं । वे अपने स्वामीका कार्य विनष्ट करके भी अपना कार्य सिद्ध करते हैं । वे समय आनेपर परपक्षके लोगोंसे प्रलोभन पाकर अपने स्वामीका भेद खोल देते हैं और घरमें बैठे-बैठे अपनी कमजोरी शत्रपक्षके लोगोंको बता देते हैं । ऐसे मन्त्री म्यानमें छिपी तलवारकी भाँति अपने स्वामीके कार्यमें बाधा डालते हैं और संग्रामकी स्थिति उत्पन्न होनेपर सदा उन्हें डराते रहते हैं ॥ ५९-६१ ॥
विश्वासस्तु न कर्तव्यस्तेषां राजन् कदाचन । विश्वासे कार्यहानिः स्यान्मन्त्रहानिः सदैव हि ॥ ६२ ॥ खलाः किं किं न कुर्वन्ति विश्वस्ता लोभतत्पराः । तामसाः पापनिरता बुद्धिहीनाः शठास्तथा ॥ ६३ ॥
हे राजन् ! उन मन्त्रियोंका कभी विश्वास नहीं करना चाहिये क्योंकि उनका विश्वास करनेपर काम बिगड जाता है और गुप्त भेद भी खुल जाता है । लोभी, तमोगुणी, पापी, बुद्धिहीन, शठ तथा खल मन्त्रियोंका विश्वास कर लेनेपर वे क्या-क्या अनर्थ नहीं कर डालते ? ॥ ६२-६३ ॥
अतएव हे नृपश्रेष्ठ ! मैं स्वयं युद्धभूमिमें जाकर आपका कार्य सम्पन्न करूँगा । आप किसी भी तरहकी चिन्ता न करें । मैं उस दुराचारिणी स्त्रीको पकड़कर आपके पास शीघ्र ले आऊँगा । आप मेरा बल तथा धैर्य देखें । मैं अपनी पूरी शक्तिसे अपने स्वामीका कार्य सिद्ध करूँगा ॥ ६४-६५ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महायुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे देवीपराजयकरणाय दुर्धरप्रबोधवचनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥