Menus in CSS Css3Menu.com



श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
पञ्चमः स्कन्धः
त्रयोदशोऽध्यायः

[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]


महिषसेनाधिपबाष्कलदुर्मुखनिपातनवर्णनम् -
बाष्कल और दुर्मुखका रणभूमिमें आना, देवीसे उनका वार्तालाप और युद्ध तथा देवीद्वारा उनका वध -


व्यास उवाच
इत्युक्त्वा तौ महाबाहू दैत्यौ बाष्कलदुर्मुखौ ।
जग्मतुर्मददिग्धाङ्गौ सर्वशस्त्रास्त्रकोविदौ ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! ऐसा कहकर अभिमानसे चूर अंगोंवाले तथा सभी शस्त्रास्त्रोंके विशारद वे दोनों महाबाहु दैत्य बाष्कल तथा दुर्मुख समरांगणकी ओर चल पड़े ॥ १ ॥

तौ गत्वा समरे देवीमूचतुर्वचनं तदा ।
दानवौ च मदोन्मत्तौ मेघगम्भीरया गिरा ॥ २ ॥
इसके बाद वे दोनों मदोन्मत्त दानव समरभूमिमें पहुँचकर मेघ गर्जनके समान गम्भीर वाणीमें देवीसे कहने लगे ॥ २ ॥

देवि देवा जिता येन महिषेण महात्मना ।
वरय त्वं वरारोहे सर्वदैत्याधिपं नृपम् ॥ ३ ॥
हे देवि ! हे सुन्दरि ! जिन महान् महिषासुरने सभी देवताओंपर विजय प्राप्त कर ली है । सभी दैत्योंके अधिष्ठाता उन नरेश महिषासुरका आप वरण कर लें ॥ ३ ॥

स कृत्वा मानुषं रूपं सर्वलक्षणसंयुतम् ।
भूषितं भूषणैर्दिव्यैस्त्वामेष्यति रहः किल ॥ ४ ॥
वे सभी लक्षणोंसे सम्पन्न मनुष्य-रूप धारण करके तथा दिव्य आभूषणोंसे अलंकृत होकर एकान्तमें आपसे मिलनेके लिये आयेंगे ॥ ४ ॥

त्रैलोक्यविभवं कामं त्वमेष्यसि शुचिस्मिते ।
महिषे परमं भावं कुरु कान्ते मनोगतम् ॥ ५ ॥
हे सुन्दर मुसकानवाली देवि ! [उन्हें पतिके रूपमें स्वीकार कर लेनेपर] आपको तीनों लोकोंका वैभव निश्चय ही प्राप्त हो जायगा । अतः हे कान्ते ! उन महिषासुरके प्रति आप अपने मनमें परम प्रेमभाव रखिये ॥ ५ ॥

कृत्वा पतिं महावीरं संसारसुखमद्‌भुतम् ।
त्वं प्राप्स्यसि पिकालापे योषितां खलु वाञ्छितम् ॥ ६ ॥
हे कोकिलभाषिणि ! महान् पराक्रमी महिषासुरको अपना पति बनाकर आप स्त्रियोंके लिये अभीष्ट अद्भुत सांसारिक सुख प्राप्त करेंगी ॥ ६ ॥

देव्युवाच
जाल्म त्वं किं विजानासि नारीयं काममोहिता ।
मन्दबुद्धिबलात्यर्थं भजेयं महिषं शठम् ॥ ७ ॥
देवी बोलीं-अरे दुष्ट ! क्या तुम यह समझ रहे हो कि यह कोई काममोहित, बुद्धिहीन तथा बलरहित नारी है ? मैं उस मूर्ख महिषासुरकी सेवा कैसे कर सकती हूँ ? ॥ ७ ॥

कुलशीलगुणैस्तुल्यं तं भजन्ति कुलस्त्रियः ।
अधिकं रूपचातुर्यबुद्धिशीलक्षमादिभिः ॥ ८ ॥
कुलीन स्त्रियाँ कुल, चरित्र तथा गुणमें समानता रखनेवाले एवं रूप, चतुरता, बुद्धि, व्यवहार, क्षमा आदिसे विशेषरूपसे सम्पन्न पुरुषको ही स्वीकार करती हैं । ८ ॥

का नु कामातुरा नारी भजेच्च पशुरूपिणम् ।
पशूनामधमं नूनं महिषं देवरूपिणी ॥ ९ ॥
ऐसी कौन देवरूपिणी नारी होगी, जो कामातुर होकर पशुरूपधारी तथा पशुओंमें भी अधम महिषको अपना पति बनाना चाहेगी ? ॥ ९ ॥

गच्छतं महिषं तूर्णं भूपं बाष्कलदुर्मुखौ ।
वदतं मद्वचो दैत्यं गजतुल्यं विषाणिनम् ॥ १० ॥
पातालं गच्छ वाभ्येत्य संग्रामं कुरु वा मया ।
रणे जाते सहस्राक्षो निर्भयः स्यादिति धुवम् ॥ ११ ॥
हत्वाहं त्वां गमिष्यामि नान्यथा गमनं मम ।
इत्थं ज्ञात्वा सुदुर्बुद्धे यथेच्छसि तथा कुरु ॥ १२ ॥
मामनिर्जित्य भूभागे न स्थानं ते कदाचन ।
भविष्यति चतुष्पाद दिवि वा गिरिकन्दरे ॥ १३ ॥
हे बाष्कल और दर्मख ! तुम लोग तत्काल अपने राजा महिषासुरके पास जाओ और हाथीके समान विशाल शरीरवाले तथा शृङ्गधारी उस दानवसे मेरा सन्देश कह दो-'तुम पाताललोक चले जाओ अथवा यहाँ आकर मेरे साथ युद्ध करो । संग्राम होनेपर ही इन्द्र निर्भय हो सकते हैं-यह निश्चित है । मैं तुम्हारा वध करके ही जाऊँगी, बिना तुम्हें मारे मैं नहीं जा सकती । हे महामूर्ख ! यह समझकर अब तुम जो चाहते हो वैसा करो । हे चतुष्पाद ! बिना मुझको पराजित किये पृथ्वीके किसी भी भागमें, अन्तरिक्ष या पर्वतकी गुफामें कहीं भी अब तुम्हें शरण नहीं मिलेगी' ॥ १०-१३ ॥

व्यास उवाच
इत्युक्तौ तौ तया दैत्यौ कोपाकुलितलोचनौ ।
धनुर्बाणधरौ वीरौ युद्धकामौ बभूवतुः ॥ १४ ॥
व्यासजी बोले-देवीके ऐसा कहनेपर क्रोधसे तमतमाये नेत्रोंवाले वे दोनों दैत्य धनुष-बाण लेकर युद्ध करनेके लिये तैयार हो गये ॥ १४ ॥

कृत्वा सुविपुलं नादं देवी सा निर्भया स्थिता ।
उभौ च चक्रतुस्तीव्रा बाणवृष्टिं कुरूद्वह ॥ १५ ॥
वे भगवती जगदम्बा भी गम्भीर गर्जना करके निर्भीक भावसे विराजमान थीं । हे कुरुनन्दन ! वे दोनों दैत्य घनघोर बाण-वृष्टि करने लगे ॥ १५ ॥

भगवत्यपि बाणौघान्मुमोच दानवौ प्रति ।
कृत्वातिमधुरं नादं देवकार्यार्थसिद्धये ॥ १६ ॥
भगवती जगदम्बा भी देवताओंकी कार्य-सिद्धिके निमित्त अत्यन्त मधुर नाद करती हुई उन दोनों दानवोंपर बाण-समूह बरसाने लगीं ॥ १६ ॥

तयोस्तु बाष्कलस्तूर्णं सम्मुखोऽभूद्‌ रणाङ्गणे ।
दुर्मुखः प्रेक्षकस्तत्र देवीमभिमुखः स्थितः ॥ १७ ॥
उन दोनोंमेंसे बाष्कल शीघ्रतापूर्वक समरभूमिमें देवीके सामने आ गया । उस समय दुर्मुख केवल दर्शक बनकर देवीकी ओर मुख करके खड़ा रहा । ॥ १७ ॥

तयोर्युद्धमभूद्‌ घोरं देवीबाष्कलयोस्तदा ।
बाणासिपरिघाघातैर्भयदं मन्दचेतसाम् ॥ १८ ॥
अब भगवती तथा बाष्कलके बीच बाणों, तलवार तथा परिघके प्रहारसे भीषण युद्ध होने लगा, जो उत्साहहीन चित्तवाले लोगोंके लिये भयदायक था ॥ १८ ॥

ततः क्रुद्धा जगन्माता दृष्ट्वा तं युद्धदुर्मदम् ।
जघान पञ्चभिर्बाणैः कर्णाकृष्टैः शिलाशितैः ॥ १९ ॥
तत्पश्चात् युद्धके लिये उन्मत्त उस बाष्कलको देखकर जगदम्बिका कुपित हो गयीं और उन्होंने पत्थरकी सानपर चढ़ाकर तीखे बनाये गये तथा कानोंतक खींचे गये पाँच बाणोंसे उसपर प्रहार किया ॥ १९ ॥

दानवोऽपि शरान्देव्याश्चिच्छेद निशितैः शरैः ।
सप्तभिस्ताडयामास देवीं सिंहोपरिस्थिताम् ॥ २० ॥
उस दानवने भी अपने तीक्ष्ण बाणोंसे देवीके बाणोंको काट दिया और पुनः सिंहपर विराजमान भगवतीपर सात बाणोंसे प्रहार किया ॥ २० ॥

सापि तं दशभिस्तीक्ष्णैः सुपीतैः सायकैः खलम् ।
जघान तच्छरांश्छित्त्वा जहास च मुहुर्मुहुः ॥ २१ ॥
देवी भगवतीने उसके बाणोंको काटकर पानी चढ़ाकर तीक्ष्ण किये हुए दस बाणोंसे उस दुष्टपर प्रहार किया और वे बार-बार जोर-जोरसे हँसने लगीं ॥ २१ ॥

अर्धचन्द्रेण बाणेन चिच्छेद च शरासनम् ।
बाष्कलोऽपि गदां गृह्य देवीं हन्तुमुपाययौ ॥ २२ ॥
जगदम्बाने अपने अर्धचन्द्राकार बाणसे उसका धनुष काट डाला । तब बाष्कल भी गदा लेकर देवीको मारनेके लिये उनकी ओर दौड़ा ॥ २२ ॥

आगच्छन्तं गदापाणिं दानवं मदगर्वितम् ।
चण्डिका स्वगदापातैः पातयामास भूतले ॥ २३ ॥
अभिमानमें चूर उस दानवको हाथमें गदा लिये आता हुआ देखकर देवी चण्डिकाने अपनी गदाके प्रहारसे उसे धराशायी कर दिया ॥ २३ ॥

बाष्कलः पतितो भूमौ मुहूर्तादुत्थितः पुनः ।
चिक्षेप च गदां सोऽपि चण्डिकां चण्डविक्रमः ॥ २४ ॥
बाष्कल मुहूर्तभर पृथ्वीपर पड़ा रहा, इसके बाद वह फिर उठ खड़ा हुआ और प्रचण्ड, पराक्रमी उस वीरने भी भगवतीपर गदा चला दी ॥ २४ ॥

तमागच्छन्तमालोक्य देवी शूलेन वक्षसि ।
जघान बाष्कलं क्रुद्धा पपात च ममार सः ॥ २५ ॥
उस दैत्यको सामने आते देखकर भगवतीने कुपित होकर बाष्कलके वक्षःस्थलपर त्रिशूलसे प्रहार किया, जिससे वह गिर पड़ा और मर गया ॥ २५ ॥

पतिते बाष्कले सैन्यं भग्नं तस्य दुरात्मनः ।
जयेति च मुदा देवाश्चुक्रुशुर्गगने स्थिताः ॥ २६ ॥
बाष्कलके गिरते ही उस दुरात्माकी सेना भाग गयी और आकाशमण्डलमें विद्यमान देवता प्रसन्नतापूर्वक भगवतीकी जय-जयकार करने लगे ॥ २६ ॥

तस्मिंश्च निहते दैत्ये दुर्मुखोऽतिबलान्वितः ।
आजगाम रणे देवीं क्रोधसंरक्तलोचनः ॥ २७ ॥
उस दैत्यके मार दिये जानेपर महाबली दुर्मुख क्रोधसे आँखें लाल किये रणभूमिमें देवीके समक्ष आया ॥ २७ ॥

तिष्ठ तिष्ठाबले सोऽपि भाषमाणः पुनः पुनः ।
धनुर्बाणधरः श्रीमान्‌रथस्थः कवचावृतः ॥ २८ ॥
उस समय वह वैभवशाली दैत्य 'अरी अबले ! ठहरो, ठहरो'-ऐसा बार-बार कहते हुए धनुष-बाण धारण करके कवच पहने हुए रथपर सवार था ॥ २८ ॥

तमागच्छन्तमालोक्य देवी शङ्खमवादयत् ।
कोपयन्ती दानवं तं ज्याघोषञ्च चकार ह ॥ २९ ॥
उस दानवको अपनी ओर आते देखकर देवीने शंखध्वनि की और उसे कुपित करती हुई वे अपने धनुषकी टंकार करने लगीं ॥ २९ ॥

सोऽपि बाणान्मुमोचाशु तीक्ष्णानाशीविषोपमान् ।
स्वबाणैस्तान्महामाया चिच्छेद च ननाद च ॥ ३० ॥
दुर्मुख भी बड़ी तेजीसे सर्पके समान विषैले तीक्ष्ण बाण छोड़ने लगा । तब महामायाने अपने बाणोंसे उन बाणोंको काट डाला और वे गर्जन करने लगीं ॥ ३० ॥

तयोः परस्परं युद्धं बभूव तुमुलं नृप ।
बाणशक्तिगदाघातैर्मुसलैस्तोमरैस्तथा ॥ ३१ ॥
हे राजन् ! बाण, शक्ति, गदा, मूसल और तोमर आदिके प्रहारसे उन दोनोंमें परस्पर भयंकर युद्ध होने लगा ॥ ३१ ॥

रणभूमौ तदा जाता रुधिरौघवहा नदी ।
पतितानि तदा तीरे शिरांसि प्रबभुस्तदा ॥ ३२ ॥
यथा सन्तरणार्थाय यमकिङ्करनायकैः ।
तुम्बीफलानि नीतानि नवशिक्षापरैर्मुदा ॥ ३३ ॥
उस समय रणभूमिमें रुधिरकी नदी बह चली । उसके तटपर गिरे हुए मस्तक इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे, मानो वैतरणी पार करनेके लिये तैरना सीखनेवाले यमदूतोंके द्वारा प्रसन्नतापूर्वक तुम्बीफल लाकर रख दिये गये हों ॥ ३२-३३ ॥

रणभूमिस्तदा घोरा बभूवातीव दुर्गमा ।
शरीरैः पतितैर्भूमौ खाद्यमानैर्वृकादिभिः ॥ ३४ ॥
भूमिपर कटकर गिरे शवों तथा उन्हें खानेवाले भेडिये आदि जन्तुओंसे वह रणभूमि अत्यन्त भयंकर तथा दुर्गम हो गयी थी ॥ ३४ ॥

गोमायुसारमेयाश्च काकाः कङ्का अयोमुखाः ।
गृध्रा श्येनाश्च खादन्ति शरीराणि दुरात्मनाम् ॥ ३५ ॥
सियार, कुत्ते, कौए, कंक, अयोमुख नामक पक्षी, गिद्ध और बाज उन दुष्ट दानवोंके शरीरको [नोच-नोचकर] खा रहे थे ॥ ३५ ॥

ववौ वायुश्च दुर्गन्धो मृतानां देहसङ्गतः ।
अभूत्किलकिलाशब्दः खगानां पलभक्षिणाम् ॥ ३६ ॥
मृतकोंके शरीरके संसर्गसे दुर्गन्धित हवा चल रही थी और मांसाहारी पक्षियोंकी किलकिला ध्वनि हो रही थी ॥ ३६ ॥

तदा चुकोप दुष्टात्मा दुर्मुखः कालमोहितः ।
देवीमुवाच गर्वेण कृत्वा चोर्ध्वकरं शुभम् ॥ ३७ ॥
तब कालसे मोहित वह दुरात्मा दुर्मुख अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा और गर्वके साथ अपनी सुन्दर भुजा उठाकर देवीसे कहने लगा- ॥ ३७ ॥

गच्छ चण्डि हनिष्यामि त्वामद्यैव सुबालिशे ।
दैत्यं वा भज वामोरु महिषं मदगर्वितम् ॥ ३८ ॥
हे चण्डिके ! हे मुर्ख बाले ! भाग जाओ, नहीं तो मैं तुम्हें अभी मार डालूँगा अथवा हे वामोरु ! मदसे मत्त महिषासुरको स्वीकार कर लो ॥ ३८ ॥

देव्युवाच
आसन्नमरणः कामं प्रलपस्यद्य मोहितः ।
अद्यैव त्वां हनिष्यामि यथायं बाष्कलो हतः ॥ ३९ ॥
देवी बोलीं-अब तुम्हारी मृत्यु समीप है, तभी तुम मोहित होकर ऐसा प्रलाप कर रहे हो । अभी मैं तुम्हें भी उसी प्रकार मार डालूंगी, जैसे मैंने इस बाष्कलको मारा है ॥ ३९ ॥

गच्छ वा तिष्ठ वा मन्द मरणं यदि रोचते ।
हत्वा त्वां वै वधिष्यामि बालिशं महिषीसुतम् ॥ ४० ॥
हे मूर्ख ! भाग जाओ और यदि तुम्हें मृत्यु अच्छी लगती हो तो रुके रहो । तुम्हें मारनेके बाद मैं मूर्ख महिषासुरका भी संहार कर दूंगी ॥ ४० ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं तस्या दुर्मुखो मर्तुमुद्यतः ।
मुमोच बाणवृष्टिं तु चण्डिकां प्रति दारुणाम् ॥ ४१ ॥
देवीका वह वचन सुनकर मरणोन्मुख दुर्मुख भगवती चण्डिकाके ऊपर भीषण बाण-वृष्टि करने लगा ॥ ४१ ॥

सापि तां तरसा छित्त्वा बाणवृष्टिं शितैः शरैः ।
जघान दानवं कृद्धा वृत्रं वज्रधरो यथा ॥ ४२ ॥
भगवतीने भी कुपित होकर अपने तीक्ष्ण बाणोंसे उस बाण-वृष्टिको तत्काल व्यर्थ करके उस दैत्यपर उसी प्रकार आघात किया, जैसे इन्द्रने वृत्रासुरपर किया था ॥ ४२ ॥

तयोः परस्परं युद्धं सञ्जातं चातिकर्कशम् ।
भयदं कातराणाञ्च शूराणां बलवर्धनम् ॥ ४३ ॥
अब उन दोनोंमें बड़ा भीषण युद्ध आरम्भ हो गया, जो कायरोंके लिये भयदायक तथा वीरोंके लिये उत्साहवर्धक था ॥ ४३ ॥

देवी चिच्छेद तरसा धनुस्तस्य करे स्थितम् ।
तथैव पञ्चभिर्बाणैर्बभञ्ज रथमुत्तमम् ॥ ४४ ॥
देवीने बड़ी फुर्तीके साथ उसके हाथमें स्थित धनुषको काट डाला और उसी तरह अपने पाँच बाणोंसे उसके उत्तम रथको छिन्न-भिन्न कर दिया ॥ ४४ ॥

रथे भग्ने महाबाहुः पदातिर्दुर्मुखस्तदा ।
गदां गहीत्वा दुर्धर्षां जगाम चण्डिकां प्रति ॥ ४५ ॥
रथके नष्ट हो जानेपर महाबाहु दुर्मुख अपनी भयानक गदा लेकर पैदल ही भगवती चण्डिकाकी ओर दौड़ा ॥ ४५ ॥

चकार स गदाघातं सिंहमौलौ महाबलः ।
न चचाल हरिः स्थानात्ताडितोऽपि महाबलः ॥ ४६ ॥
[उनके पास पहुँचकर] उस महाबली दैत्यने सिंहके मस्तकपर गदासे प्रहार कर दिया, किंतु महाशक्तिशाली सिंह गदासे मारे जानेपर भी अपने स्थानसे विचलित नहीं हुआ ॥ ४६ ॥

अम्बिका तं समालोक्य गदापाणिं पुरःस्थितम् ।
खड्गेन शितधारेण शिरश्चिच्छेद मौलिमत् ॥ ४७ ॥
उसी समय जगदम्बाने हाथमें गदा लिये हुए उस दर्मखको सम्मुख उपस्थित देखकर अपनी तीक्ष्ण धारवाली तलवारसे उसके किरीटयुक्त मस्तकको काट दिया ॥ ४७ ॥

छिन्ने च मस्तके भूमौ पपात दुर्मुखो मृतः ।
जयशब्दं तदा चक्रुर्मुदिता निर्जरा भृशम् ॥ ४८ ॥
मस्तक कट जानेपर दुर्मुख जमीनपर गिर पड़ा और मर गया । तब देवता परम प्रसन्न होकर देवीकी जय-जयकार करने लगे ॥ ४८ ॥

तुष्टुवुस्तां तदा देवीं दुर्मुखे निहतेऽमराः ।
पुष्पवृष्टिं तथा चक्रुर्जयशब्दं नभःस्थिताः ॥ ४९ ॥
दुर्मुखके मर जानेपर आकाशमें विद्यमान देवता भगवतीकी स्तुति करने लगे । उनपर पुष्प बरसाने लगे तथा उनकी जयकार करने लगे ॥ ४९ ॥

ऋषयः सिद्धगन्धर्वाः सविद्याधरकिन्नराः ।
जहृषुस्तं हतं दृष्ट्वा दानवं रणमस्तके ॥ ५० ॥
रणभूमिमें उस महान् दानवको मरा हुआ देखकर ऋषि, सिद्ध, गन्धर्व, विद्याधर और किन्नर आनन्दित हो उठे ॥ ५० ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां पञ्चमस्कन्धे महिषसेनाधिप-
बाष्कलदुर्मुखनिपातनवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
अध्याय तेरहवाँ समाप्त ॥ १३ ॥


GO TOP