[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]
महिषसेनाधिपबाष्कलदुर्मुखनिपातनवर्णनम् -
बाष्कल और दुर्मुखका रणभूमिमें आना, देवीसे उनका वार्तालाप और युद्ध तथा देवीद्वारा उनका वध -
व्यास उवाच इत्युक्त्वा तौ महाबाहू दैत्यौ बाष्कलदुर्मुखौ । जग्मतुर्मददिग्धाङ्गौ सर्वशस्त्रास्त्रकोविदौ ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! ऐसा कहकर अभिमानसे चूर अंगोंवाले तथा सभी शस्त्रास्त्रोंके विशारद वे दोनों महाबाहु दैत्य बाष्कल तथा दुर्मुख समरांगणकी ओर चल पड़े ॥ १ ॥
तौ गत्वा समरे देवीमूचतुर्वचनं तदा । दानवौ च मदोन्मत्तौ मेघगम्भीरया गिरा ॥ २ ॥
इसके बाद वे दोनों मदोन्मत्त दानव समरभूमिमें पहुँचकर मेघ गर्जनके समान गम्भीर वाणीमें देवीसे कहने लगे ॥ २ ॥
हे सुन्दर मुसकानवाली देवि ! [उन्हें पतिके रूपमें स्वीकार कर लेनेपर] आपको तीनों लोकोंका वैभव निश्चय ही प्राप्त हो जायगा । अतः हे कान्ते ! उन महिषासुरके प्रति आप अपने मनमें परम प्रेमभाव रखिये ॥ ५ ॥
देवी बोलीं-अरे दुष्ट ! क्या तुम यह समझ रहे हो कि यह कोई काममोहित, बुद्धिहीन तथा बलरहित नारी है ? मैं उस मूर्ख महिषासुरकी सेवा कैसे कर सकती हूँ ? ॥ ७ ॥
कुलशीलगुणैस्तुल्यं तं भजन्ति कुलस्त्रियः । अधिकं रूपचातुर्यबुद्धिशीलक्षमादिभिः ॥ ८ ॥
कुलीन स्त्रियाँ कुल, चरित्र तथा गुणमें समानता रखनेवाले एवं रूप, चतुरता, बुद्धि, व्यवहार, क्षमा आदिसे विशेषरूपसे सम्पन्न पुरुषको ही स्वीकार करती हैं । ८ ॥
का नु कामातुरा नारी भजेच्च पशुरूपिणम् । पशूनामधमं नूनं महिषं देवरूपिणी ॥ ९ ॥
ऐसी कौन देवरूपिणी नारी होगी, जो कामातुर होकर पशुरूपधारी तथा पशुओंमें भी अधम महिषको अपना पति बनाना चाहेगी ? ॥ ९ ॥
गच्छतं महिषं तूर्णं भूपं बाष्कलदुर्मुखौ । वदतं मद्वचो दैत्यं गजतुल्यं विषाणिनम् ॥ १० ॥ पातालं गच्छ वाभ्येत्य संग्रामं कुरु वा मया । रणे जाते सहस्राक्षो निर्भयः स्यादिति धुवम् ॥ ११ ॥ हत्वाहं त्वां गमिष्यामि नान्यथा गमनं मम । इत्थं ज्ञात्वा सुदुर्बुद्धे यथेच्छसि तथा कुरु ॥ १२ ॥ मामनिर्जित्य भूभागे न स्थानं ते कदाचन । भविष्यति चतुष्पाद दिवि वा गिरिकन्दरे ॥ १३ ॥
हे बाष्कल और दर्मख ! तुम लोग तत्काल अपने राजा महिषासुरके पास जाओ और हाथीके समान विशाल शरीरवाले तथा शृङ्गधारी उस दानवसे मेरा सन्देश कह दो-'तुम पाताललोक चले जाओ अथवा यहाँ आकर मेरे साथ युद्ध करो । संग्राम होनेपर ही इन्द्र निर्भय हो सकते हैं-यह निश्चित है । मैं तुम्हारा वध करके ही जाऊँगी, बिना तुम्हें मारे मैं नहीं जा सकती । हे महामूर्ख ! यह समझकर अब तुम जो चाहते हो वैसा करो । हे चतुष्पाद ! बिना मुझको पराजित किये पृथ्वीके किसी भी भागमें, अन्तरिक्ष या पर्वतकी गुफामें कहीं भी अब तुम्हें शरण नहीं मिलेगी' ॥ १०-१३ ॥
व्यास उवाच इत्युक्तौ तौ तया दैत्यौ कोपाकुलितलोचनौ । धनुर्बाणधरौ वीरौ युद्धकामौ बभूवतुः ॥ १४ ॥
व्यासजी बोले-देवीके ऐसा कहनेपर क्रोधसे तमतमाये नेत्रोंवाले वे दोनों दैत्य धनुष-बाण लेकर युद्ध करनेके लिये तैयार हो गये ॥ १४ ॥
कृत्वा सुविपुलं नादं देवी सा निर्भया स्थिता । उभौ च चक्रतुस्तीव्रा बाणवृष्टिं कुरूद्वह ॥ १५ ॥
वे भगवती जगदम्बा भी गम्भीर गर्जना करके निर्भीक भावसे विराजमान थीं । हे कुरुनन्दन ! वे दोनों दैत्य घनघोर बाण-वृष्टि करने लगे ॥ १५ ॥
भगवत्यपि बाणौघान्मुमोच दानवौ प्रति । कृत्वातिमधुरं नादं देवकार्यार्थसिद्धये ॥ १६ ॥
भगवती जगदम्बा भी देवताओंकी कार्य-सिद्धिके निमित्त अत्यन्त मधुर नाद करती हुई उन दोनों दानवोंपर बाण-समूह बरसाने लगीं ॥ १६ ॥
तत्पश्चात् युद्धके लिये उन्मत्त उस बाष्कलको देखकर जगदम्बिका कुपित हो गयीं और उन्होंने पत्थरकी सानपर चढ़ाकर तीखे बनाये गये तथा कानोंतक खींचे गये पाँच बाणोंसे उसपर प्रहार किया ॥ १९ ॥
उस समय रणभूमिमें रुधिरकी नदी बह चली । उसके तटपर गिरे हुए मस्तक इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे, मानो वैतरणी पार करनेके लिये तैरना सीखनेवाले यमदूतोंके द्वारा प्रसन्नतापूर्वक तुम्बीफल लाकर रख दिये गये हों ॥ ३२-३३ ॥
देवी बोलीं-अब तुम्हारी मृत्यु समीप है, तभी तुम मोहित होकर ऐसा प्रलाप कर रहे हो । अभी मैं तुम्हें भी उसी प्रकार मार डालूंगी, जैसे मैंने इस बाष्कलको मारा है ॥ ३९ ॥
गच्छ वा तिष्ठ वा मन्द मरणं यदि रोचते । हत्वा त्वां वै वधिष्यामि बालिशं महिषीसुतम् ॥ ४० ॥
हे मूर्ख ! भाग जाओ और यदि तुम्हें मृत्यु अच्छी लगती हो तो रुके रहो । तुम्हें मारनेके बाद मैं मूर्ख महिषासुरका भी संहार कर दूंगी ॥ ४० ॥
भगवतीने भी कुपित होकर अपने तीक्ष्ण बाणोंसे उस बाण-वृष्टिको तत्काल व्यर्थ करके उस दैत्यपर उसी प्रकार आघात किया, जैसे इन्द्रने वृत्रासुरपर किया था ॥ ४२ ॥
रथके नष्ट हो जानेपर महाबाहु दुर्मुख अपनी भयानक गदा लेकर पैदल ही भगवती चण्डिकाकी ओर दौड़ा ॥ ४५ ॥
चकार स गदाघातं सिंहमौलौ महाबलः । न चचाल हरिः स्थानात्ताडितोऽपि महाबलः ॥ ४६ ॥
[उनके पास पहुँचकर] उस महाबली दैत्यने सिंहके मस्तकपर गदासे प्रहार कर दिया, किंतु महाशक्तिशाली सिंह गदासे मारे जानेपर भी अपने स्थानसे विचलित नहीं हुआ ॥ ४६ ॥