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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
पञ्चमः स्कन्धः
चतुर्दशोऽध्यायः

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ताम्रचिक्षुराख्यवधवर्णनम् -
चिक्षुर और ताम्रका रणभूमिमें आना, देवीसे उनका वार्तालाप और युद्ध तथा देवीद्वारा उनका वध -


व्यास उवाच
दुर्मुखं निहतं श्रुत्वा महिषः क्रोधमूर्च्छितः ।
उवाच दानवान्सर्वान्किं जातमिति चासकृत् ॥ १ ॥
निहतौ दानवौ शूरौ रणे दुर्मुखबाष्कलौ ।
तन्व्या तत्परमाश्चर्यं पश्यन्तु दैवचेष्टितम् ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! दुर्मुख मार दिया गयायह सुनकर महिषासुर क्रोधसे मच्छित हो गया और दानवोंसे बार-बार कहने लगा-'यह क्या हो गया ?' दुर्मुख और बाष्कल तो बड़े शूर-वीर दानव थे । एक सुकुमार नारीने उन्हें रणभूमिमें मार डाला, यह तो महान् आश्चर्य है ! दैवका विधान तो देखो ॥ १-२ ॥

कालो हि बलवान्कर्ता सततं सुखदुःखयोः ।
नराणां परतन्त्राणां पुण्यपापानुयोगतः ॥ ३ ॥
समय बड़ा बलवान् होता है, वही परतन्त्र मनुष्योंके पुण्य तथा पापके अनुसार सदा उनके सुखों-दुःखोंका निर्माण करता है ॥ ३ ॥

निहतौ दानवश्रेष्ठौ किं कर्तव्यमतः परम् ।
ब्रुवन्तु मिलिताः सर्वे यद्युक्तं कार्यसङ्कटे ॥ ४ ॥
ये दोनों ही श्रेष्ठ दानव मार डाले गये हैं, अब इसके बाद क्या करना चाहिये ? इस विषम स्थितिमें सब लोग विचार करके जो उचित हो, बतायें ॥ ४ ॥

व्यास उवाच
एवं ब्रुवति राजेन्द्र महिषेऽतिबलान्विते ।
चिक्षुराख्यस्तु सेनानीस्तमुवाच महारथः ॥ ५ ॥
राजन्नहं हनिष्यामि का चिन्ता स्त्रीविहिंसने ।
व्यासजी बोले-हे राजेन्द्र ! इस प्रकार महाशक्तिशाली महिषासुरके कहनेपर उसके महारथी सेनाध्यक्ष चिक्षुरने कहा-हे राजन् ! स्त्रीको मार डालनेमें चिन्ता किस बातकी ! मैं उसे मार डालूँगा ॥ ५.५ ॥

इत्युक्त्वा स्वबलैर्युक्तः प्रययौ रथसंयुतः ॥ ६ ॥
द्वितीयं पार्ष्णिरक्षं तु कृत्वा ताम्रं महाबलम् ।
महता सैन्यघोषेण पूरयन्गगनं दिशः ॥ ७ ॥
ऐसा कहकर वह चिक्षुराख्य रथपर बैठकर दूसरे महाबली ताम्रको अपना अंगरक्षक बनाकर सेनाकी तुमुल ध्वनिसे आकाश एवं दिशाओंको निनादित करता हुआ युद्धके लिये चल पड़ा ॥ ६-७ ॥

तमागच्छन्तमालोक्य देवी भगवती शिवा ।
चकार शङ्खज्याघोषं घण्टानादं महाद्‌भुतम् ॥ ८ ॥
तत्रसुस्तेन शब्देन ते च सर्वे सुरारयः ।
किमेतदिति भाषन्तो दुद्रुवुर्भयकम्पिताः ॥ ९ ॥
उसे आता हुआ देखकर कल्याणमयी भगवतीने अद्भुत शंखध्वनि, घण्टानाद तथा धनुषकी टंकार की । उस ध्वनिसे सभी राक्षस भयभीत हो गये । 'यह क्या'-ऐसा कहते हुए वे भयसे काँपने लगे तथा भाग खड़े हुए ॥ ८-९ ॥

चिक्षुराख्यस्तु तान्दृष्ट्वा पलायनपरायणान् ।
उवाचातीव संकुद्धः किं भयं वः समागतम् ॥ १० ॥
अद्यैवाहं हनिष्यामि बाणैर्बालां मदोन्नताम् ।
तिष्ठन्त्वत्र भयं त्यक्त्वा दैत्याः समरमूर्धनि ॥ ११ ॥
उन्हें भागते हुए देखकर चिक्षुराख्यने अत्यन्त क्रोधित होकर कहा-तुम्हारे सामने कौन-सा भय आ गया ? मैं इस मदोन्मत्त नारीको आज ही बाणोंद्वारा मार डालूँगा । हे दैत्यो ! तुम लोग भय छोड़कर लड़ाईके मोर्चेपर डटे रहो ॥ १०-११ ॥

इत्युक्त्वा दानवश्रेष्ठश्चापपाणिर्बलान्वितः ।
आगत्य सङ्गरे देवीमित्युवाच गतव्यथः ॥ १२ ॥
किं गर्जसि विशालाक्षि भीषयन्तीतरान्नरान् ।
नाहं बिभेमि तन्वङ्‌गि श्रुत्वा तेऽद्य विचेष्टितम् ॥ १३ ॥
ऐसा कहकर उस पराक्रमी दैत्यश्रेष्ठ चिक्षुरने हाथमें धनुष उठा लिया और युद्धभूमिमें आकर वह निश्चिन्ततापूर्वक भगवतीसे कहने लगा-हे विशालाक्षि ! अन्य साधारण मनुष्योंको भयभीत करती हुई तुम क्यों गरज रही हो ? तुम्हारा यह व्यर्थ गर्जन सुनकर मैं भयभीत नहीं हो सकता ॥ १२-१३ ॥

स्त्रीवधे दूषणं ज्ञात्वा तथैवाकीर्तिसम्भवम् ।
उपेक्षां कुरुते चित्तं मदीयं वामलोचने ॥ १४ ॥
स्त्रीणां युद्धं कटाक्षैश्च तथा हावैश्च सुन्दरि ।
न शस्त्रैर्विहितं क्वापि त्वादृशीनां कदाचन ॥ १५ ॥
हे सुलोचने ! स्त्रीका वध करना पाप है तथा इससे जगत्में अपकीर्ति होती है-यह जानकर मेरा चित्त तुम्हें मारनेसे विचलित हो रहा है । हे सुन्दरि ! तुम जैसी स्त्रियोंके कटाक्षों तथा हाव-भावोंसे समरका कार्य सम्पन्न हो जाता है; कभी कहीं भी शस्त्रोंद्वारा स्त्रीका युद्ध नहीं हुआ है ॥ १४-१५ ॥

पुष्पैरपि न योद्धव्यं किं पुनर्निशितैः शरैः ।
भवादृशीनां देहेषु दुनोति मालतीदलम् ॥ १६ ॥
हे सुन्दरि ! तुम्हें तो पुष्पसे भी युद्ध नहीं करना चाहिये, तब फिर तीक्ष्ण बाणोंसे युद्धकी बात ही क्या; क्योंकि तुम्हारी-जैसी सुन्दरियोंके शरीरमें मालतीकी पंखुड़ी भी पीड़ा उत्पन्न कर सकती है ॥ १६ ॥

धिग्जन्म मानुषे लोके क्षात्रधर्मानुजीविनाम् ।
लालितोऽयं प्रियो देहः कृन्तनीयः शितैः शरैः ॥ १७ ॥
इस संसारमें क्षात्रधर्मानयायी लोगोंके जन्मको धिक्कार है; क्योंकि वे बड़े प्यारसे पाले गये अपने शरीरको भी तीक्ष्ण बाणोंसे छिदवाते हैं ! ॥ १७ ॥

तैलाभ्यङ्गैः पुष्पवातैस्तथा मिष्टान्नभोजनैः ।
पोषितोऽयं प्रियो देहो घातनीयः परेषुभिः ॥ १८ ॥
देहं छित्त्वासिधाराभिर्धनभृज्जायते नरः ।
धिग्धनं दुःखदं पूर्वं पश्चात्किं सुखदं भवेत् ॥ १९ ॥
तेलकी मालिशसे, फूलोंकी हवासे तथा स्वादिष्ट भोजन आदिसे पोषित इस प्रिय शरीरको शत्रुओंके बाणोंसे बिंधवाते हैं । तलवारकी धारसे अपना शरीर कटवाकर मनुष्य धनवान् होना चाहते हैं । ऐसे धनको धिक्कार है जो प्रारम्भमें ही दुःख देनेवाला होता है; तो बादमें क्या वह सुख देनेवाला हो सकता है ? ॥ १८-१९ ॥

त्वमप्यज्ञैव वामोरु युद्धमाकाङ्क्षसे यतः ।
सुखं सम्भोगजं त्यक्त्वा कं गुणं वेत्सि सङ्गरे ॥ २० ॥
हे सुन्दरि ! तुम भी मूर्ख ही हो, तभी तो सम्भोगजन्य सुखको त्यागकर युद्धकी इच्छा कर रही हो । युद्धमें तुम कौन-सा लाभ समझ रही हो ? ॥ २० ॥

खड्गपातं गदाघातं भेदनञ्ज शिलीमुखैः ।
मरणान्ते तु संस्कारो गोमायुमुखकर्षणम् ॥ २१ ॥
युद्धमें तलवारें चलती हैं, गदाका प्रहार होता है और बाणोंसे शरीरका बेधन किया जाता है । मृत्युके अन्तमें सियार अपने मुँहसे नोच-नोचकर उस देहका संस्कार करते हैं ॥ २१ ॥

तस्यैव कविभिर्धूर्तैः कृतं चातीव शंसनम् ।
रणे मृतानां स्वःप्राप्तिरर्थवादोऽस्ति केवलः ॥ २२ ॥
धूर्त कवियोंने उसी युद्धको अत्यन्त प्रशंसा की है कि रणभूमिमें मरनेवालोंको स्वर्ग प्राप्त होता है । उनका यह कहना केवल अर्थवादमात्र है ॥ २२ ॥

तस्माद्‌ गच्छ वरारोहे यत्र ते रमते मनः ।
भज वा भूपतिं नाथं हयारिं सुरमर्दनम् ॥ २३ ॥
अत: हे वरारोहे ! तुम्हारा मन जहाँ लगे, वहाँ चली जाओ अथवा तुम देवताओंका दमन करनेवाले मेरे स्वामी महाराज महिषासुरको स्वीकार कर लो ॥ २३ ॥

व्यास उवाच
एवं ब्रुवाणं तं दैत्यं प्रोवाच जगदम्बिका ।
किं मृषा भाषसे मूढ बुद्धिमानिव पण्डितः ॥ २४ ॥
नीतिशास्त्रं न जानासि विद्यां चान्वीक्षिकीं तथा ।
न सेवितास्त्वया वृद्धा न धर्मे मतिरस्ति ते ॥ २५ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार बोलते हुए उस दैत्यसे भगवती जगदम्बाने कहा-मूर्ख ! तुम अपनेको बुद्धिमान् पण्डितके समान मानकर व्यर्थ क्यों बोल रहे हो ? तुम न तो नीतिशास्त्र जानते हो, न आन्वीक्षिकी विद्या ही जानते हो, तुमने कभी न वृद्धोंकी सेवा की है और न तो तुम्हारी बुद्धि ही धर्मपरायण है ॥ २४-२५ ॥

मूर्खसेवापरो यस्मात्तस्मात्त्वं मूर्ख एव हि ।
राजधर्मं न जानासि किं ब्रवीषि ममाग्रतः ॥ २६ ॥
क्योंकि तुम मूर्खकी सेवामें लगे रहते हो, अत: तुम भी मूर्ख हो । जब तुम्हें राजधर्म ही ज्ञात नहीं, तब मेरे सामने क्यों व्यर्थ बकवाद कर रहे हो ? ॥ २६ ॥

संग्रामे महिषं हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम् ।
यशःस्तम्भं स्थिरं कृत्वा गमिष्यामि यथासुखम् ॥ २७ ॥
संग्राममें महिषासुरका वध करके समरांगणको रुधिरसे पंकमय बनाकर अपना यश-स्तम्भ सुदृढ़ स्थापितकर मैं सुखपूर्वक चली जाऊँगी ॥ २७ ॥

देवानां दुःखदातारं दानवं मदगर्वितम् ।
हनिष्येऽहं दुराचारं युद्धं कुरु स्थिरो भव ॥ २८ ॥
जीवितेच्छास्ति चेन्मूढ महिषस्य तथा तव ।
तदा गच्छन्तु पातालं दानवाः सर्व एव ते ॥ २९ ॥
मुमूर्षा यदि वश्चित्ते युद्धं कुर्वन्तु सत्वराः ।
सर्वानेव वधिष्यामि निश्चयोऽयं ममाधुना ॥ ३० ॥
देवताओंको दुःख देनेवाले इस दुराचारी तथा मदोन्मत्त दानवको मैं अवश्य मार डालूँगी । तुम सावधान होकर युद्ध करो । हे मूर्ख ! यदि तुम्हें तथा महिषासुरको जीनेकी अभिलाषा हो तो सभी दानव पाताललोकको शीघ्र ही चले जायें; अन्यथा यदि तुमलोगोंके मनमें मरनेकी इच्छा हो तो तुरंत युद्ध करो । यह मेरा संकल्प है कि मैं सभी दानवोंको मार डालूंगी ॥ २८-३० ॥

व्यास उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्या दानवो बलदर्पितः ।
मुमोच बाणवृष्टिं तां घनवृष्टिमिवापराम् ॥ ३१ ॥
व्यासजी बोले-देवीका वचन सुनकर बलके अभिमानसे युक्त वह दैत्य उनपर इस प्रकार बाणोंकी वर्षा करने लगा, मानो दूसरे मेघ ही जलकी धारा बरसा रहे हों ॥ ३१ ॥

चिच्छेद तस्य सा बाणान्स्वबाणैर्निशितैस्तदा ।
जघान तं तथा घोरैराशीविषसमैः शरैः ॥ ३२ ॥
युद्धं परस्परं तत्र बभूव विस्मयप्रदम् ।
गदया घातयामास तं रथाज्जगदम्बिका ॥ ३३ ॥
तब भगवतीने अपने तीक्ष्ण बाणोंद्वारा उसके सभी बाण काट डाले और विषधर सर्पके समान विषैले बाणोंसे उसपर प्रहार किया । उन दोनोंमें परस्पर विस्मयकारी युद्ध होने लगा । जगदम्बाने अपने वाहन सिंहपरसे ही उस दैत्यपर गदासे प्रहार किया ॥ ३२-३३ ॥

मूर्च्छां प्राप स दुष्टात्मा गदयाभिहतो भृशम् ।
मुहूर्तद्वयमात्रं तु रथोपस्थ इवाचलः ॥ ३४ ॥
गदासे अत्यधिक आहत होनेके कारण वह दुष्टात्मा दैत्य मूञ्छित हो गया और दो मुहूर्ततक पाषाणकी भाँति रथपर ही पड़ा रहा ॥ ३४ ॥

तं तथा मूर्च्छितं दृष्ट्वा ताम्रः परबलार्दनः ।
आजगाम रणे योद्धुं चण्डिकां प्रति चापलात् ॥ ३५ ॥
इस प्रकार उसे मूछित देखकर शत्रुसेनाको नष्ट कर डालनेवाला ताम्र नामक दैत्य चण्डिकासे लड़नेके लिये वेगपूर्वक रणमें उपस्थित हो गया ॥ ३५ ॥

आगच्छन्तं तु तं वीक्ष्य हसन्ती प्राह चण्डिका ।
एह्येहि दानवश्रेष्ठ यमलोकं नयाम्यहम् ॥ ३६ ॥
उसे आते देखकर भगवती चण्डिका उससे हँसती हुई बोलीं-अरे दानवश्रेष्ठ ! आओ-आओ, अभी तुम्हें यमलोक भेज देती हूँ ॥ ३६ ॥

किं भवद्‌भिः समायातैरबलैश्च गतायुषैः ।
महिषः किं गृहे मूढः करोति जीवनोद्यमम् ॥ ३७ ॥
किं भवद्‌भिर्हतैर्मन्दैर्ममापि विफलः श्रमः ।
अहते महिषे पापे सुरशत्रौ दुरात्मनि ॥ ३८ ॥
तस्माद्यूयं गृहं गत्वा महिषं प्रेषयन्त्विह ।
पश्येन्मां सोऽपि मन्दात्मा यादृशीं तादृशीं स्थिताम् ॥ ३९ ॥
निर्बल और समाप्त आयुवाले तुमलोगोंके यहाँ आनेसे क्या लाभ ? वह मूर्ख महिषासुर घरमें रहकर अपने जीनेका कौन-सा उपाय कर रहा है ? देवताओंके शत्रु, दुष्टात्मा तथा पापी महिषासुरका संहार किये बिना तुम मुल्को मारनेसे मुझे क्या लाभ होगा ? इससे तो मेरा परिश्रम भी व्यर्थ हो जायगा, अतः तुमलोग घरपर जाकर महिषासुरको यहाँ भेज दो. जिससे वह मन्दबुद्धि भी मैं जिस रूपमें स्थित हूँ, उसमें मुझको देख ले ॥ ३७-३९ ॥

ताम्रस्तद्वचनं श्रुत्वा बाणवृष्टिं चकार ह ।
चण्डिकां प्रति कोपेन कर्णाकृष्टशरासनः ॥ ४० ॥
भगवतीका वचन सुनकर वह ताम्र कुपित हो धनुषको कानतक खींचकर उनपर बाणोंकी वर्षा करने लगा ॥ ४० ॥

भगवत्यपि ताम्राक्षी समाकृष्य शरासनम् ।
बाणान्मुमोच तरसा हन्तुकामा सुराहितम् ॥ ४१ ॥
देवताओंके शत्रु उस दैत्यको मारनेकी इच्छावाली ताम्राक्षी भगवती भी धनुष खींचकर उसके ऊपर वेगपूर्वक बाण छोड़ने लगीं ॥ ४१ ॥

चिक्षुराख्योऽपिबलवान्मूर्च्छां त्यक्त्वोत्थितः पुनः ।
गृहीत्वा सशरं चापं तस्थौ तत्सम्मुखः क्षणात् ॥ ४२ ॥
इतनेमें बलवान् चिक्षुराख्य भी मूर्छा त्यागकर उठ खड़ा हुआ और तुरंत बाणसहित धनुष लेकर देवीके सामने आकर खड़ा हो गया ॥ ४२ ॥

चिक्षुराख्यश्च ताम्रश्च द्वावप्यतिबलोत्कटौ ।
युयुधाते महावीरौ सह देव्या रणाङ्गणे ॥ ४३ ॥
चिक्षुराख्य और ताम्र दोनों ही अत्यन्त उग्र बलवान् और महान् वीर थे । अब वे दोनों ही मिलकर भगवती जगदम्बासे रणमें युद्ध करने लगे ॥ ४३ ॥

कुपिता च महामाया ववर्ष शरसन्ततिम् ।
चकार दानवान् सर्वान् बाणक्षततनुच्छदान् ॥ ४४ ॥
तब महामाया क्रोधित होकर बाणसमूहोंकी वर्षा करने लगी, और उन्होंने अपने बाणोंके प्रहारसे सभी दानवोंके कवच छिन्न-भिन्न कर दिये ॥ ४४ ॥

असुराः क्रोधसम्मूढा बभूवुः शरताडिताः ।
चिक्षिपुः शरजालानि देवीं प्रति रुषान्विताः ॥ ४५ ॥
बभुस्ते राक्षसास्तत्र किंशुका इव पुष्पिणः ।
शिलीमुखक्षताः सर्वे वसन्ते च वने रणे ॥ ४६ ॥
उन बाणोंसे आहत होकर सभी असूर क्रोधसे व्याकुल हो गये तथा रोषपूर्वक देवीपर बाणसमूह छोड़ने लगे । उस समय समस्त रणभूमिमें भगवतीके बाणोंसे घायल सभी राक्षस ऐसे सुशोभित होने लगे, जैसे वसन्त ऋतुमें वनमें किंशुकके लाल पुष्प दिखायी पड़ते हों ॥ ४५-४६ ॥

बभूव तुमुलं युद्धं ताम्रेण सह संयुगे ।
विस्मयं परमं जग्मुर्देवा ये प्रेक्षकाः स्थिताः ॥ ४७ ॥
उस समरभूमिमें ताम्रके साथ देवीका भीषण युद्ध होने लगा । इसे देखनेवाले जो देवता आकाशमें स्थित थे, वे आश्चर्यचकित हो गये । ४७ ॥

ताम्रो मुसलमादाय लोहजं दारुणं दृढम् ।
जघान मस्तके सिंहं जहास च ननर्द च ॥ ४८ ॥
उसी समय ताम्रने लोहेका बना हुआ एक सुदृढ़ तथा भयंकर मूसल लेकर देवीके सिंहके सिरपर प्रहार किया और वह जोरसे हँसने तथा गरजने लगा ॥ ४८ ॥

नर्दमानं तदा तं तु दृष्ट्वा देवी रुषान्विता ।
खड्गेन शितधारेण शिरश्चिच्छेद सत्वरा ॥ ४९ ॥
तब उसे गरजता हुआ देखकर भगवती क्रोधित हो गयीं और उन्होंने तुरंत अपनी तेज धारवाली तलवारसे उसका मस्तक काट डाला ॥ ४९ ॥

छिन्ने शिरसि ताम्रस्तु विशीर्षो मुसली बली ।
बभ्राम क्षणमात्रं तु पपात रणमस्तके ॥ ५० ॥
सिर कट जानेपर भी वह मस्तकविहीन बलशाली ताम्र मूसाल लिये हुए कुछ क्षणतक घूमता रहा, इसके बाद वह समरांगणमें गिर पड़ा ॥ ५० ॥

पतितं ताम्रमालोक्य चिक्षुराख्यो महाबलः ।
खड्गमादाय तरसा दुद्राव चण्डिकां प्रति ॥ ५१ ॥
ताम्रको गिरा हुआ देखकर महाबली चिक्षुराख्य खड्ग लेकर बड़े वेगसे चण्डिकाकी ओर झपटा ॥ ५१ ॥

भगवत्यपि तं दृष्ट्वा खड्गपाणिमुपागतम् ।
दानवं पञ्चभिर्बाणैर्जघान तरसा रणे ॥ ५२ ॥
हाथमें तलवार लिये उस दानवको रणमें अपनी ओर आते देखकर देवीने भी तुरंत पाँच बाणोंसे उसपर प्रहार किया ॥ ५२ ॥

एकेन पातितं खड्गं द्वितीयेन तु तत्करः ।
कण्ठाच्च मस्तकं तस्य कृन्तितं चापरैः शरैः ॥ ५३ ॥
भगवतीने एक बाणसे उसका खड्ग काट दिया, दूसरेसे उसका हाथ काट दिया और अन्य बाणोंसे उसका मस्तक कण्ठसे अलग कर दिया ॥ ५३ ॥

एवं तौ निहतौ कूरौ राक्षसौ रणदुर्मदौ ।
भग्नं सैन्यं तयोस्तूर्णं दिक्षु सन्त्रस्तमानसम् ॥ ५४ ॥
इस प्रकार युद्धके लिये उन्मत्त रहनेवाले उन दोनों क्रूर राक्षसोंका वध हो गया, तब उन दोनोंकी सेना भयभीत होकर चारों दिशाओंमें शीघ्रतापूर्वक भाग चली ॥ ५४ ॥

देवाश्च मुदिताः सर्वे दृष्ट्वा तौ निहतौ रणे ।
पुष्पवृष्टिं मुदा चक्रुर्जयशब्दं नभःस्थिताः ॥ ५५ ॥
ऋषयो देवगन्धर्वा वेतालाः सिद्धचारणाः ।
ऊचुस्ते जय देवीति चाम्बिकेति पुनः पुनः ॥ ५६ ॥
उन दोनों दानवोंको रणमें मारा गया देखकर आकाशमें विराजमान सम्पूर्ण देवता आहादित हो गये और प्रसन्नतापूर्वक भगवतीकी जयध्वनि करते हुए फूलोंकी वर्षा करने लगे । ऋषि, देवता, गन्धर्व, वेताल, सिद्ध और चारण-वे सब 'देवीकी जय, अम्बिकाकी जय' ऐसा बार-बार बोलने लगे ॥ ५५-५६ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां पञ्चमस्कन्धे
ताम्रचिक्षुराख्यवधवर्णनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
अध्याय चौदहवाँ समाप्त ॥ १४ ॥


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