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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
पञ्चमः स्कन्धः
पञ्चदशोऽध्यायः

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असिलोमबिडालाख्यवधवर्णनम् -
बिडालाख्य और असिलोमाका रणभूमिमें आना; देवीसे उनका वार्तालाप और युद्ध तथा देवीद्वारा उनका वध -


व्यास उवाच
तौ तया निहतौ श्रुत्वा महिषो विस्मयान्वितः ।
प्रेषयामास दैतेयांस्तद्वधार्थं महाबलान् ॥ १ ॥
असिलोमबिडालाख्यप्रमुखान् युद्धदुर्मदान् ।
सैन्येन महता युक्तान्सायुधान्सपरिच्छदान् ॥ २ ॥
व्यासजी बोले- उस देवीने चिक्षुराख्य तथा ताम्रका वध कर दिया-यह सुनकर महिषासुरको बड़ा विस्मय हुआ । अब उसने विशाल सेनासे युक्त, शस्त्रास्त्र लिये हुए तथा कवच धारण किये हुए असिलोमा, बिडालाख्य आदि प्रमुख युद्धोन्मत्त तथा महाबली दैत्योंको भगवतीका वध करनेके लिये भेजा ॥ १-२ ॥

ते तत्र ददृशुर्देवीं सिंहस्योपरि संस्थिताम् ।
अष्टादशभुजां दिव्यां खड्गखेटकधारिणीम् ॥ ३ ॥
वहाँपर उन्होंने सिंहके ऊपर विराजमान, अठारह भुजाओंसे सुशोभित, खड्ग तथा ढाल धारण की हुई दिव्यस्वरूपवाली भगवतीको देखा ॥ ३ ॥

असिलोमाग्रतो गत्वा तामुवाच हसन्निव ।
विनयावनतः शान्तो देवीं दैत्यवधोद्यताम् ॥ ४ ॥
तब असिलोमा दैत्योंके वधके लिये उद्यत देवीके पास जाकर विनयावनत होकर शान्तिपूर्वक उनसे हँसते हुए कहने लगा- ॥ ४ ॥

असिलोमोवाच
देवि ब्रूहि वचः सत्यं किमर्थमिह सुन्दरि ।
आगतासि किमर्थं वा हंसि दैत्यान्निरागसः ॥ ५ ॥
कारणं कथयाद्य त्वं त्वया सन्धिं करोम्यहम् ।
काञ्चनं मणिरत्‍नानि भाजनानि वराणि च ॥ ६ ॥
यानीच्छसि वरारोहे गहीत्वा गच्छ मा चिरम् ।
किमर्थं युद्धकामासि दुःखसन्तापवर्धनम् ॥ ७ ॥
कथयन्ति महात्मानो युद्धं सर्वसुखापहम् ।
असिलोमा बोला-हे देवि ! सच्ची बात बताइये, आप यहाँ किस प्रयोजनसे आयी हैं ? हे सुन्दरि ! इन निरपराध दैत्योंको आप क्यों मार रही हैं ? इसका कारण बताइये । मैं अभी आपके साथ सन्धि करनेको तैयार हूँ । हे वरारोहे ! सूवर्ण, मणि, रत्न और अच्छे-अच्छे पात्र जो भी आप चाहती हैं, उन्हें लेकर यहाँसे शीघ्र चली जाइये । आप युद्धकी इच्छुक क्यों हैं ? महात्मा पुरुष कहते हैं कि युद्ध दु:ख तथा सन्तापको बढ़ानेवाला और सम्पूर्ण सुखोंका विघातक होता है । ५-७.५ ॥

कोमलेऽतीव ते देहे पुष्पघातासहे भृशम् ॥ ८ ॥
किमर्थं शस्त्रसम्पातान्सहसीति विसिस्मिये ।
चातुर्यस्य फलं शान्तिः सततं सुखसेवनम् ॥ ९ ॥
तत्किमर्थं दुःखहेतुं संग्रामं कर्तुमिच्छसि ।
संसारेऽत्र सुखं ग्राह्यं दुःखं हेयमिति स्थितिः ॥ १० ॥
मुझे महान् आश्चर्य हो रहा है कि पुष्पका भी आघात न सह सकनेवाले अपने अत्यन्त सुकोमल शरीरमें आप शस्त्रोंके आघात सहनेके लिये क्यों तैयार हैं ? चातुर्यका फल तो शान्ति और निरन्तर सुख भोगना है । अतः एकमात्र दुःखके कारणस्वरूप इस संग्रामको आप क्यों करना चाहती हैं ? इस संसारमें सुख ग्रहण करना चाहिये और दुःखका परित्याग करना चाहिये-यही सर्वमान्य | नियम है ॥ ८-१० ॥

तत्सुखं द्विविधं प्रोक्तं नित्यानित्यप्रभेदतः ।
आत्मज्ञानं सुखं नित्यमनित्यं भोगजं स्मृतम् ॥ ११ ॥
नाशात्मकं तु तत्त्याज्यं वेदशास्त्रार्थचिन्तकैः ।
सौगतानां मतं चेत्त्वं स्वीकरोषि वरानने ॥ १२ ॥
तथापि यौवनं प्राप्य भुंक्ष्व भोगाननुत्तमान् ।
परलोकस्य सन्देहो यदि तेऽस्ति कृशोदरि ॥ १३ ॥
स्वर्गभोगपरा नित्यं भव भामिनि भूतले ।
अनित्यं यौवनं देहे ज्ञात्वेति सुकृतं चरेत् ॥ १४ ॥
वह सुख भी नित्य और अनित्यके भेदसे दो प्रकारका कहा गया है । आत्मज्ञानसम्बन्धी सुखको 'नित्य' और भोगजनित सुखको 'अनित्य' माना गया है । वेद और शास्त्रके तत्त्वका चिन्तन करनेवाले लोगोंको चाहिये कि उस विनाशशील अनित्य सुखको त्याग दें । हे वरानने ! यदि आप नास्तिकका मत स्वीकार करती हों तो भी इस यौवनको पाकर उत्तमसे उत्तम सुखोंका भोग करें । हे कृशोदरि ! हे भामिनि ! यदि परलोकके विषयमें आपको सन्देह हो तो इस पृथ्वीपर ही सदाचारपूर्वक रहती हुई स्वर्गीय सुख प्राप्त करनेमें सदा तत्पर रहें, नहीं तो शरीरमें यह यौवन अनित्य है-ऐसा समझकर आपको सदा सत्कर्म करते रहना चाहिये ॥ ११-१४ ॥

परोपतापनं कार्यं वर्जनीयं सदा बुधैः ।
अविरोधेन कर्तव्यं धर्मार्थकामसेवनम् ॥ १५ ॥
तस्मात्त्वमपि कल्याणि मतिं धर्मे सदा कुरु ।
अपराधं विना दैत्यान्कस्मान्मारयसेऽम्बिके ॥ १६ ॥
दयाधर्मोऽस्य देहोऽस्ति सत्ये प्राणाः प्रकीर्तिताः ।
तस्माद्दया तथा सत्यं रक्षणीयं सदा बुधैः ॥ १७ ॥
कारणं वद सुश्रोणि दानवानां वधे तव ।
बुद्धिमान् पुरुषोंको चाहिये कि वे दूसरोंको पीड़ित करनेके कार्यका त्याग कर दें । अतः बिना विरोधके धर्म, अर्थ और कामका सेवन करना चाहिये । इसलिये हे कल्याणि ! आप अपनी बुद्धि धर्मकृत्यमें लगाइये । हे अम्बिके ! आप हम दैत्योंको बिना अपराधके क्यों मार रही हैं ? दयाभाव पुरुषमात्रका शरीर है और सत्यमें ही उसका प्राण प्रतिष्ठित कहा गया है । अतः बुद्धिमान् पुरुषोंको चाहिये कि दया और सत्यकी सदा रक्षा करें । हे देवि ! आप दानवोंके संहारमें अपना प्रयोजन बतायें ? ॥ १५-१७.५ ॥

देव्युवाच
त्वया पृष्टं महाबाहो किमर्थमिह चागता ॥ १८ ॥
तदहं सम्प्रवक्ष्यामि हनने च प्रयोजनम् ।
विचरामि सदा दैत्य सर्वलोकेषु सर्वदा ॥ १९ ॥
न्यायान्यायौ च भूतानां पश्यन्ती साक्षिरूपिणी ।
न मे कदापि भोगेच्छा न लोभो न च वैरिता ॥ २० ॥
देवी बोलीं-हे महाबाहो ! तुमने जो यह पूछा है कि मैं यहाँ क्यों आयी हूँ-उसे बताती हूँ और दानववधका प्रयोजन भी बताती हूँ । हे दैत्य ! मैं सदा साक्षी बनकर सभी प्राणियोंके न्याय तथा अन्यायको देखती हुई सब लोकोंमें निरन्तर विचरती रहती हूँ । मुझे न तो कभी भोगविलासकी इच्छा है, न लोभ है और न किसीके प्रति द्वेषभाव ही है ॥ १८-२० ॥

धर्मार्थं विचराम्यत्र संसारे साधुरक्षणम् ।
व्रतमेतत्तु नियतं पालयामि निजं सदा ॥ २१ ॥
साधूनां रक्षणं कार्यं हन्तव्या येऽप्यसाधवः ।
वेदसंरक्षणं कार्यमवतारैरनेकशः ॥ २२ ॥
युगे युगे तानेवाहमवतारान्बिभर्मि च ।
धर्मकी मर्यादा रखनेके लिये मैं इस संसारमें विचरण करती रहती हूँ । साधुपुरुषोंकी रक्षा करनाअपने इस व्रतका मैं सदा पालन करती हूँ । अनेक अवतार धारण करके मैं सज्जनोंकी रक्षा करती हूँ, जो असाधु हैं उनका संहार करती हूँ और वेदोंका संरक्षण करती हैं । मैं प्रत्येक युगमें उन अवतारोंको धारण करती रहती हूँ ॥ २१-२२.५ ॥

महिषस्तु दुराचारो देवान्वै हन्तुमुद्यतः ॥ २३ ॥
ज्ञात्वाहं तद्वधार्थं भोः प्राप्तास्मि राक्षसाधुना ।
तं हनिष्ये दुराचारं सुरशत्रुं महाबलम् ॥ २४ ॥
दुराचारी महिषासुर देवताओंको मार डालनेके लिये उद्यत है-यह जानकर मैं उसके वधके लिये इस समय यहाँ उपस्थित हुई हूँ । हे दानव ! मैं उस दुराचारी तथा सुरद्रोही महाबली महिषको मार डालूँगी ॥ २३-२४ ॥

गच्छ वा तिष्ठ कामं त्वं सत्यमेतदुदाहृतम् ।
ब्रूहि वा तं दुरात्मानं राजानं महिषीसुतम् ॥ २५ ॥
किमन्यान् प्रेषयस्यत्र स्वयं युद्धं कुरुष्व ह ।
सन्धिञ्चेत्कर्तुमिच्छास्ति राज्ञस्तव मया सह ॥ २६ ॥
सर्वे गच्छन्तु पातालं वैरं त्यक्त्वा यथासुखम् ।
देवद्रव्यं तु यत्किञ्चिद्धृतं जित्वा रणे सुरान् ।
तद्दत्त्वा यान्तु पातालं प्रह्लादो यत्र तिष्ठति ॥ २७ ॥
अब तुम इच्छानुसार जाओ या रुके रहो, मैंने तुमसे यह सब सच-सच बतला दिया । अतः जाकर अपने उस दुराचारी राजा महिषसे कह दो-'आप अन्य दैत्योंको क्यों भेजते हैं ? स्वयं युद्ध कीजिये । ' यदि तुम्हारे राजाकी इच्छा मेरे साथ सन्धि करनेकी हो, तो सभी दैत्य शत्रुता छोड़कर सुखपूर्वक पाताल चले जायें । देवताओंको जीतकर जो भी देवद्रव्य असुरोंने छीन लिया है, वह सब वापस करके वे उस पातालपुरीमें चले जायँ, जहाँ इस समय प्रहाद विराजमान हैं ॥ २५-२७ ॥

व्यास उवाच
तच्छुत्वा वचनं देव्या असिलोमा पुरःस्थितः ।
बिडालाख्यं महावीरं पप्रच्छ प्रीतिपूर्वकम् ॥ २८ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] इस प्रकार देवीका वचन सुनकर असिलोमा भगवतीके सामने ही महान् शूरवीर बिडालाख्यसे प्रीतिपूर्वक पूछने लगा- ॥ २८ ॥

असिलोमोवाच
श्रुतं तेऽद्य बिडालाख्य भवान्या कथितं च यत् ।
एवं गते किं कर्तव्यो विग्रहः सन्धिरेव वा ॥ २९ ॥
असिलोमा बोला-बिडालाख्य ! देवीने अभीअभी जो कहा है, वह तो तुमने सुन लिया, इस स्थितिमें हमें सन्धि या विग्रह-क्या करना चाहिये ? ॥ २९ ॥

बिडालाख्य उवाच
न सन्धिकामोऽस्ति नृपोऽभिमानी
     युद्धे च मृत्युं नियतं हि जानन् ।
दृष्ट्वा हतान् प्रेरयते तथास्मा-
     न्दैव हि कोऽतिक्रमितुं समर्थः ॥ ३० ॥
बिडालाख्य बोला-युद्धमें मृत्युको निश्चित जानते हुए भी हमारे अभिमानी महाराज सन्धि नहीं करना चाहते । समरमें बहुत-से योद्धा मारे जा चुके हैं-यह देखकर भी वे हमें भेज रहे हैं । दैवको टाल सकनेमें भला कौन समर्थ है ! ॥ ३० ॥

(दुःसाध्य एवास्त्विह सेवकानां
     धर्मः सदा मानविवर्जितानाम् ।
आज्ञापराणां वशवर्तिकानां
     पाञ्चालिकानामिव सूत्रभेदात् ॥)
गत्वा कथं तस्य पुरस्त्वया च
     मयापि वक्तव्यमिदं कठोरम् ।
गच्छन्तु पातालमितश्च सर्वे
     दत्त्वाथ रत्‍नानि धनं सुराणाम् ॥ ३१ ॥
(सम्मानकी भावनासे रहित, स्वामीकी आज्ञाका पालन करनेवाले तथा सदा उनके अधीन रहनेवाले सेवकोंका सेवाधर्म अत्यन्त कठिन है । सूतके संकेतपर नर्तन करनेवाली कठपुतलीकी भाँति वे सदा परतन्त्र रहते हैं । ) अतः उन महिषासुरके सामने जाकर मेरे अथवा तुम्हारे द्वारा ऐसा अप्रिय वचन कैसे कहा जा सकता है कि देवताओंके धन एवं रत्न वापस करके सभी दानव यहाँसे पातालको लौट चलें ? ॥ ३१ ॥

(प्रियं हि वक्तव्यमसत्यमेव
     न च प्रियं स्याद्धितकृत्तु भाषितम् ।
सत्यं प्रियं नो भवतीह कामं
     मौनं ततो बुद्धिमतां प्रतिष्ठितम् ॥)
न फल्गुवाक्यैः प्रतिबोधनीयो
     राजा तु वीरैरिति नीतिशास्त्रम् ॥ ३२ ॥
(सदा प्रिय वचन बोलना चाहिये, किंतु वह असत्य न हो । वचन हितकारक तथा प्रिय होना चाहिये । यदि वचन सत्य होनेपर भी प्रिय न हो तो ऐसी दशामें बुद्धिमान् मनुष्यों के लिये मौन ही श्रेष्ठ होता है । ) नौतिशास्त्रका कथन है कि वीर पुरुषोंको चाहिये कि वे मिथ्या वचनोंद्वारा राजाको धोखेमें न डालें ॥ ३२ ॥

न नूनं तत्र गन्तव्यं हितं वा वक्तुमादरात् ।
प्रष्टुं वापि गते राजा कोपयुक्तो भविष्यति ॥ ३३ ॥
इति सञ्चिन्त्य कर्तव्यं युद्धं प्राणस्य संशये ।
स्वामिकार्यं परं मत्वा मरणं तृणवत्तथा ॥ ३४ ॥
[सत्य बात तो यह है कि] आदरके साथ हितकी बात कहने अथवा पूछनेके लिये हमलोगोंको वहाँ नहीं चलना चाहिये । वहाँ जानेपर राजा महिषासुर कोपाविष्ट हो जायँगे । यह विचारकर अब हमलोगोंको यहाँ युद्ध ही करना चाहिये । जहाँ प्राणका संशय हो वहाँ स्वामीके कार्यको मुख्य मानकर मृत्युको तृणसदृश समझना चाहिये ॥ ३३-३४ ॥

व्यास उवाच
इति सञ्चिन्त्य तौ वीरौ संस्थितौ युद्धतत्परौ ।
धनुर्बाणधरौ तत्र सन्नद्धौ रथसङ्गतौ ॥ ३५ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार विचार करके वे दोनों वीर युद्धके लिये तत्पर हो गये और कवच धारण करके हाथोंमें धनुष-बाण लेकर रथपर आरूढ़ हो देवीके सामने आ डटे ॥ ३५ ॥

प्रथमं तु बिडालाख्यः सप्तबाणान्मुमोच ह ।
असिलोमा स्थितो दूरे प्रेक्षकः परमास्त्रवित् ॥ ३६ ॥
सर्वप्रथम बिडालाख्यने देवीके ऊपर सात बाण चलाये । अस्त्र चलानेमें अत्यन्त निपुण असिलोमा दूर जाकर दर्शकके रूपमें खड़ा हो गया ॥ ३६ ॥

चिच्छेद तांस्तथाप्राप्तानम्बिका स्वशरैः शरान् ।
बिडालाख्यं त्रिभिर्बाणैर्जघान च शिलाशितैः ॥ ३७ ॥
भगवती जगदम्बाने अपने बाणोंसे बिडालाख्यके द्वारा चलाये गये उन बाणोंको काट डाला और पत्थरपर घिसकर तीक्ष्ण बनाये गये तीन बाणोंसे बिडालाख्यपर आघात किया ॥ ३७ ॥

प्राप्य बाणव्यथां दैत्यः पपात समराङ्गणे ।
मूर्च्छितोऽथ ममाराशु दानवो दैवयोगतः ॥ ३८ ॥
उन बाणोंकी असह्य वेदनासे पीड़ित होकर वह दैत्य समरभूमिमें गिर पड़ा, उसे मूर्छा आ गयी और कालयोगसे वह मर गया ॥ ३८ ॥

बिडालाख्यं हतं दृष्ट्वा रणे शक्तिशरोत्करैः ।
असिलोमा धनुष्पाणिः संस्थितो युद्धतत्परः ॥ ३९ ॥
ऊर्ध्वं सव्यं करं कृत्वा तामुवाच मितं वचः ।
देवि जानामि मरणं दानवानां दुरात्मनाम् ॥ ४० ॥
तथापि युद्धं कर्तव्यं पराधीनेन वै मया ।
महिषो मन्दबुद्धिश्च न जानाति प्रियाप्रिये ॥ ४१ ॥
इस प्रकार भगवतीके बाणसमूहोंसे रणमें बिडालाख्यको मारा गया देखकर असिलोमा भी हाथमें धनुष लेकरके युद्ध करनेके लिये तैयार होकर सामने आ गया और दाहिना हाथ ऊपर उठाकर अभिमानपूर्वक बोला-हे देवि ! मैं जानता हूँ कि सभी दुराचारी दानव मारे जायेंगे, फिर भी पराधीन होनेके कारण मुझे युद्ध करना ही होगा । वह मन्दबुद्धि महिषासुर अपने प्रिय तथा अप्रियके विषयमें नहीं जानता ॥ ३९-४१ ॥

तदग्रे नैव वक्तव्यं हितं चैवाप्रियं मया ।
मर्तव्यं वीरधर्मेण शुभं वाप्यशुभं भवेत् ॥ ४२ ॥
दैवमेव परं मन्ये धिपौरुषमनर्थकम् ।
पतन्ति दानवास्तूर्णं तव बाणहता भुवि ॥ ४३ ॥
उसके सामने हितकर वचन भी यदि अप्रिय है तो मुझे नहीं बोलना चाहिये । अब वीरधर्मके अनुसार मर जाना ही मेरे लिये उचित है-वह चाहे शुभ हो अथवा अशुभ । मैं तो दैवको ही बलवान् मानता हूँ, अनर्थकारी पुरुषार्थको धिक्कार है. तभी तो आपके बाणोंसे हत होकर दानव पृथ्वीपर गिरते जा रहे हैं ॥ ४२-४३ ॥

इत्युक्त्वा शरवृष्टिं स चकार दानवोत्तमः ।
देवी चिच्छेद तान्बाणैरप्राप्तांस्तु निजान्तिके ॥ ४४ ॥
अन्यैर्विव्याध तं तूर्णमसिलोमानमाशुगैः ।
वीक्षितामरसङ्घैश्च कोपपूर्णानना तदा ॥ ४५ ॥
शुशुभे दानवः कामं बाणैर्विद्धतनुः किल ।
स्रवद्‌रुधिरधारः स प्रफुल्लः किंशुको यथा ॥ ४६ ॥
ऐसा कहकर दानव श्रेष्ठ असिलोमा बाणवृष्टि करने लगा । देवीने अपने पासतक न पहुँचे हुए उन बाणोंको अपने बाणोंसे काट डाला और अपने अन्य शीघ्रगामी बाणोंसे असिलोमाको शीघ्रतापूर्वक बींध डाला । उस समय आकाशमें स्थित देवताओंने देखा कि भगवतीका मुखमण्डल क्रोधसे भर उठा है । देवीके बाणोंसे बिंधे शरीरवाला तथा बहती हुई रुधिरकी धारासे युक्त वह दैत्य ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो पुष्पित हुआ पलाशका वृक्ष हो ॥ ४४-४६ ॥

असिलोमा गदां गुर्वीं लौहीमुद्यम्य वेगतः ।
दुद्राव चण्डिकां कोपात्सिंहं मूर्ध्नि जघान ह ॥ ४७ ॥
सिंहोऽपि नखराघातैस्तं ददार भुजान्तरे ।
अगणय्य गदाघातं कृतं तेन बलीयसा ॥ ४८ ॥
अब असिलोमा लोहेकी बनी एक विशाल गदा लेकर बड़ी तेजीसे चण्डिकाकी ओर दौड़ा और क्रोधपूर्वक सिंहके सिरपर उसने गदासे प्रहार कर दिया । परंतु देवीके सिंहने उस बलवान् दानवके द्वारा किये गये गदा-प्रहारकी कुछ भी परवाह न करके अपने नखोंद्वारा उसके वक्षःस्थलको फाड़ डाला ॥ ४७-४८ ॥

उत्पत्य तरसा दैत्यो गदापाणिः सुदारुणः ।
सिंहमूर्ध्नि समारुह्य जघान गदयाम्बिकाम् ॥ ४९ ॥
तब उस महाविकराल दैत्यने हाथमें गदा लिये ही बड़े वेगसे उछलकर सिंहके मस्तकपर सवार हो भगवतीके ऊपर गदासे प्रहार किया ॥ ४९ ॥

कृतं तेन प्रहारं तु वञ्चयित्वा विशांपते ।
खड्गेन शितधारेण शिरश्चिच्छेद कण्ठतः ॥ ५० ॥
छिन्ने शिरसि दैत्येन्द्रः पपात तरसा क्षितौ ।
हाहाकारो महानासीत्सैन्ये तस्य दुरात्मनः ॥ ५१ ॥
हे राजन् ! उसके द्वारा किये गये प्रहारको रोककर देवीने तेज धारवाली तलवारसे उसका मस्तक गर्दनसे अलग कर दिया । इस प्रकार मस्तक कट जानेपर वह दानवराज तुरंत गिर पड़ा । अब उस दुरात्माकी सेनामें हाहाकार मच गया ॥ ५०-५१ ॥

जय देवीति देवास्ता तुष्टुवुर्जगदम्बिकाम् ।
देवदुन्दुभयो नेदुर्जगुश्च नृप किन्नराः ॥ ५२ ॥
हे राजन् ! देवीकी जय हो-ऐसा कहकर देवतागण भगवतीकी स्तुति करने लगे । देवताओंकी दुन्दुभियाँ बज उठी और किन्नरगण देवीका यशोगान करने लगे ॥ ५२ ॥

निहतौ दानवौ वीक्ष्य पतितौ च रणाङ्गणे ।
निहताः सैनिकाः सर्वे तत्र केसरिणा बलात् ॥ ५३ ॥
भक्षिताश्च तथा केचिन्निःशेषं तद्‌रणं कृतम् ।
भग्नाः केचिद्‌ गता मन्दा महिषं प्रति दुःखिताः ॥ ५४ ॥
चुक्रुशू रुरुदुश्चैव त्राहि त्राहीति भाषणैः ।
असिलोमबिडालाख्यौ निहतौ नृपसत्तम ॥ ५५ ॥
अन्ये ये सैनिका राजन् सिंहेन भक्षिताश्च ते ।
एवं ब्रुवन्तो राजानं तदा चक्रुश्च वैशसम् ॥ ५६ ॥
मारे गये उन दोनों दैत्योंको समरांगणमें गिरा हुआ देखकर शेष सम्पूर्ण सैनिकोंको सिंहने अपने पराक्रमद्वारा मार गिराया और कुछ दानवोंको खा डाला और इस प्रकार उस युद्धभूमिको दानवोंसे रहित कर दिया । कुछ अंग-भंग हुए मूर्ख दानव दुःखी होकर महिषासुरके पास पहुँचे और 'रक्षा कीजिये-रक्षा कीजिये'-ऐसा कहते हुए वे चीखनेचिल्लाने तथा रोने लगे-'हे नृपश्रेष्ठ ! असिलोमा और बिडालाख्य दोनों ही मारे गये । हे राजन् ! अन्य जो भी सैनिक थे, उन्हें सिंह खा गया' ऐसा कहते हुए उन्होंने राजाको दुःखमें डाल दिया ॥ ५३–५६ ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं तेषां महिषो दुर्मनास्तदा ।
बभूव चिन्ताकुलितो विमना दुःखसंयुतः ॥ ५७ ॥
उनकी बात सुनकर महिषासुर खिन्नमनस्क, चिन्तासे व्याकुल, उदास तथा दुःखी हो गया ॥ ५७ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महायुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां पञ्चमस्कन्धे असिलोम-
बिडालाख्यवधवर्णनं नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
अध्याय पंद्रहवाँ समाप्त ॥ १५ ॥


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