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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
पञ्चमः स्कन्धः
षोडशोऽध्यायः

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महिषद्वारा देवीप्रबोधनम् -
महिषासुरका रणभूमिमें आना तथा देवीसे प्रणय-याचना करना -


व्यास उवाच
तेषां तद्वचनं श्रुत्वा क्रोधयुक्तो नराधिपः ।
दारुकं प्राह तरसा रथमानय मेऽद्‌भुतम् ॥ १ ॥
सहस्रखरसंयुक्तं पताकाध्वजभूषितम् ।
आयुधैः संयुतं शुभ्रं सुचक्रं चारुकूबरम् ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-उन सैनिकोंकी बात सुनकर राजा महिष क्रोधित हो उठा और उसने सारथिसे कहा-हजार गधोंसे जुते हुए, ध्वजा तथा पताकाओंसे सुशोभित, अनेक प्रकारके आयुधोंसे परिपूर्ण, सुन्दर चक्कों तथा जुएसे विभूषित तथा प्रकाशमान मेरा अद्भुत रथ तुरंत ले आओ ॥ १-२ ॥

सूतोऽपि रथमानीय तमुवाच त्वरान्वितः ।
राजन् रथोऽयमानीतो द्वारि तिष्ठति भूषितः ॥ ३ ॥
सारथिने भी तत्क्षण रथ लाकर उससे कहाहे राजन् ! सुसज्जित करके रथ ला दिया गया जो द्वारपर खड़ा है; यह सभी आयुधोंसे समन्वित तथा उत्तम आस्तरणोंसे युक्त है ॥ ३.५ ॥

सर्वायुधसमायुक्तो वरास्तरणसंयुतः ।
आनीतं तं रथं ज्ञात्वा दानवेन्द्रो महाबलः ॥ ४ ॥
मानुषं देहमास्थाय संग्रामे गन्तुमुद्यतः ।
विचार्य मनसा चेति देवी मां प्रेक्ष्य दुर्मुखम् ॥ ५ ॥
शृङ्‌गिणं महिषं नूनं विमना सा भविष्यति ।
नारीणां च प्रियं रूपं तथा चातुर्यमित्यपि ॥ ६ ॥
तस्माद्‌रूपं च चातुर्यं कृत्वा यास्यामि तां प्रति ।
यथा मां वीक्ष्य सा बाला प्रेमयुक्ता भविष्यति ॥ ७ ॥
ममापि च तदैव स्यात्सुखं नान्यस्वरूपतः ।
रथके आनेकी बात सुनकर महाबली दानवराज महिष मनुष्यका रूप धारण करके युद्धभूमिमें जानेको तैयार हुआ । उसने अपने मनमें सोचा कि यदि मैं अपने महिषरूपमें जाऊँगा तो देवी मुझ शृंगयुक्त महिषको देखकर अवश्य उदास हो जायगी । स्त्रियोंको सुन्दर रूप और चातुर्य अत्यन्त प्रिय होता है । अतः आकर्षक रूप तथा चातुर्यसे सम्पन्न होकर मैं उसके पास जाऊँगा, जिससे मुझे देखते ही वह युवती प्रेमयुक्त-मोहित हो जायगी । मुझे भी इसी स्थितिमें सुख होगा, अन्य किसी स्वरूपसे नहीं ॥ ४-७.५ ॥

इति सञ्चिन्त्य मनसा दानवेन्द्रो महाबलः ॥ ८ ॥
त्यक्त्वा तन्माहिषं रूपं बभूव पुरुषः शुभः ।
सर्वायुधधरः श्रीमांश्चारुभूषणभूषितः ॥ ९ ॥
दिव्याम्बरधरः कान्तः पुष्पबाण इवापरः ।
रथोपविष्टः केयूरस्रग्वी बाणधनुर्धरः ॥ १० ॥
सेनापरिवृतो देवीं जगाम मदगर्वितः ।
मनोज्ञं रूपमास्थाय मानिनीनां मनोहरम् ॥ ११ ॥
मनमें ऐसा विचार करके महाबली वह दानवेन्द्र महिषरूप छोड़कर एक सुन्दर पुरुष बन गया । वह सभी प्रकारके आयुधको धारण किये हुए था, वह ऐश्वर्यसम्पन्न था, वह सुन्दर आभूषणोंसे अलंकृत था, उसने दिव्य वस्त्र धारण कर रखे थे । केयूर और हार पहने तथा हाथमें धनुष-बाण धारण किये रथपर बैठा हुआ वह कान्तिमान् दैत्य दूसरे कामदेवके सदृश प्रतीत हो रहा था । मानिनी सुन्दरियोंका भी मन हर लेनेवाला ऐसा सुन्दर रूप बनाकर वह मदोन्मत्त दैत्य अपनी विशाल सेनाके साथ देवीकी ओर चला ॥ ८-११ ॥

तमागतं समालोक्य दैत्यानामधिपं तदा ।
बहुभिः संवृतं वीरैर्देवी शङ्खमवादयत् ॥ १२ ॥
अनेक वीरोंसे घिरे हुए उस दैत्यराज महिषासुरको आया हुआ देखकर देवीने अपना शंख बजाया ॥ १२ ॥

स शङ्खनिनदं श्रुत्वा जनविस्मयकारकम् ।
समीपमेत्य देव्यास्तु तामुवाच हसन्निव ॥ १३ ॥
लोगोंको आश्चर्यचकित कर देनेवाली उस शंखध्वनिको सुनकर भगवतीके पास आकर वह दैत्य हँसता हुआ उनसे कहने लगा- ॥ १३ ॥

देवि संसारचक्रेऽस्मिन्वर्तमानो जनः किल ।
नरो वाथ तथा नारी सुखं वाञ्छति सर्वथा ॥ १४ ॥
सुखं संयोगजं नॄणां नासंयोगे भवेदिह ।
संयोगो बहुधा भिन्नस्तान्ब्रवीमि शृणुष्व ह ॥ १५ ॥
भेदान्सुप्रीतिहेतूत्थान्स्वभावोत्थाननेकशः ।
तत्र प्रीतिभवानादौ कथयामि यथामति ॥ १६ ॥
हे देवि ! इस परिवर्तनशील जगतमें रहनेवाला व्यक्ति वह स्त्री अथवा पुरुष चाहे कोई भी हो, सब प्रकारसे सुख ही चाहता है । इस लोकमें सुख मनुष्योंको संयोगमें ही प्राप्त होता है, वियोगमें सुख होता ही नहीं । संयोग भी अनेक प्रकारका होता है । मैं उन भेदोंको बताता हूँ, सुनो । कहीं उत्तम प्रीतिके कारण संयोग हो जाता है और कहीं स्वभावतः संयोग हो जाता है, इनमें सर्वप्रथम मैं प्रीतिसे उत्पन्न होनेवाले संयोगके विषयमें अपनी बुद्धिके अनुसार बता रहा हूँ ॥ १४-१६ ॥

मातापित्रोस्तु पुत्रेण संयोगस्तूत्तमः स्मृतः ।
भ्रातुर्भ्रात्रा तथा योगः कारणान्मध्यमो मतः ॥ १७ ॥
उत्तमस्य सुखस्यैव दातृत्वादुत्तमः स्मृतः ।
तस्मादल्पसुखस्यैव प्रदातृत्वाच्च मध्यमः ॥ १८ ॥
माता-पिताका पुत्रके साथ होनेवाला संयोग उत्तम कहा गया है । भाईका भाईके साथ संयोग किसी प्रयोजनसे होता है, अतः वह मध्यम माना गया है । उत्तम सुख प्रदान करनेके कारण पहले प्रकारके संयोगको उत्तम तथा उससे कम सुख प्रदान करनेके कारण [दूसरे प्रकारके] संयोगको मध्यम कहा गया है । १७-१८ ॥

नाविकानां तु संयोगः स्मृतः स्वाभाविको बुधैः ।
विविधावृतचित्तानां प्रसङ्गपरिवर्तिनाम् ॥ १९ ॥
विविध विचारोंसे युक्त चित्तवाले तथा प्रसंगवश एकत्रित नौकामें बैठे हुए लोगोंके मिलनेको विद्वानोंने स्वाभाविक संयोग कहा है । बहुत कम समयके लिये सुख प्रदान करनेके कारण विद्वानोंके द्वारा इसे कनिष्ठ संयोग कहा गया है ॥ १९ ॥

अत्यल्पसुखदातृत्वात्कनिष्ठोऽयं स्मृतो बुधैः ।
अत्युत्तमस्तु संयोगः संसारे सुखदः सदा ॥ २० ॥
नारीपुरुषयोः कान्ते समानवयसो सदा ।
संयोगो यः समाख्यातः स एवात्युत्तमः स्मृतः ॥ २१ ॥
अत्युत्तमसुखस्यैव दातृत्वात्स तथाविधः ।
चातुर्यरूपवेषाद्यैः कुलशीलगुणैस्तथा ॥ २२ ॥
परस्परसमुत्कर्षः कथ्यते हि परस्परम् ।
आत्युत्तम संयोग संसारमें सदा सुखदायक होता है । हे कान्ते ! समान अवस्थावाले स्त्री-पुरुषका जो संयोग है, वही अत्युत्तम कहा गया है । अत्युत्तम सुख प्रदान करनेके कारण ही उसे उस प्रकारका संयोग कहा गया है । चातुर्य, रूप, वेष, कुल, शील, गुण आदिमें समानता रहनेपर परस्पर सुखकी अभृिवद्धि कही जाती है । २०-२२.५ ॥

तं चेत्करोषि संयोगं वीरेण च मया सह ॥ २३ ॥
अत्युत्तमसुखस्यैव प्राप्तिः स्यात्ते न संशयः ।
नानाविधानि रूपाणि करोमि स्वेच्छया प्रिये ॥ २४ ॥
इन्द्रादयः सुराः सर्वे संग्रामे विजिता मया ।
रत्‍नानि यानि दिव्यानि भवनेऽस्मिन्ममाधुना ॥ २५ ॥
भुंक्ष्व त्वं तानि सर्वाणि यथेष्टं देहि वा यथा ।
पट्टराज्ञी भवाद्य त्वं दासोऽस्मि तव सुन्दरि ॥ २६ ॥
यदि तुम मुझ वीरके साथ संयोग करोगी तो तुम्हें अत्युत्तम सुखकी प्राप्ति होगी । इसमें सन्देह नहीं है । हे प्रिये ! मैं अपनी रुचिके अनुसार अनेक प्रकारके रूप धारण कर लेता हूँ । मैंने इन्द्र आदि सभी देवताओंको संग्राममें जीत लिया है । मेरे भवनमें इस समय जो भी दिव्य रत्न हैं, उन सबका तुम उपभोग करो; अथवा इच्छानुसार उसका दान करो । अब तुम मेरी पटरानी बन जाओ । हे सुन्दरि ! मैं तुम्हारा दास हूँ ॥ २३-२६ ॥

वैरं त्यजेऽहं देवैस्तु तव वाक्यान्न संशयः ।
यथा त्वं सुखमाप्नोषि तथाहं करवाणि वै ॥ २७ ॥
आज्ञापय विशालाक्षि तथाहं प्रकरोम्यथ ।
चित्तं मे तव रूपेण मोहितं चारुभाषिणि ॥ २८ ॥
तुम्हारे कहनेसे मैं देवताओंसे वैर करना भी छोड़ दूंगा; इसमें सन्देह नहीं है । तुम्हें जैसे भी सुख मिलेगा, मैं वही करूँगा । हे विशालनयने ! अब तुम मुझे आज्ञा दो और मैं उसका पालन करूँ । हे मधुरभाषिणि ! मेरा मन तुम्हारे रूपपर मोहित हो गया है ॥ २७-२८ ॥

आतुरोऽस्मि वरारोहे प्राप्तस्ते शरणं किल ।
प्रपन्नं पाहि रम्भोरु कामबाणैः प्रपीडितम् ॥ २९ ॥
धर्माणामुत्तमो धर्मः शरणागतरक्षणम् ।
त्वदीयोऽस्म्यसितापाङ्‌गि सेवकोऽहं कृशोदरि ॥ ३० ॥
मरणान्तं वचः सत्यं नान्यथा प्रकरोम्यहम् ।
पादौ नतोऽस्मि तन्वङ्‌गि त्यक्त्वा नानायुधानि ते ॥ ३१ ॥
हे सुन्दरि ! मैं [तुम्हें पानेके लिये] व्याकुल हूँ, इसलिये इस समय तुम्हारी शरणमें आया हूँ । हे रम्भोरु ! कामबाणसे आहत मुझ शरणागतकी रक्षा करो । शरणमें आये हुएकी रक्षा करना सभी धर्मोमें उत्तम धर्म है । श्याम नेत्रोंवाली हे कृशोदरि ! मैं तुम्हारा सेवक हूँ । मैं मरणपर्यन्त सत्य वचनका पालन करूँगा, इसके विपरीत नहीं करूंगा । हे तन्वंगि ! नानाविध आयुधोंको त्यागकर मैं तुम्हारे चरणोंमें अवनत हूँ ॥ २९-३१ ॥

दयां कुरु विशालाक्षि तप्तोऽस्मि काममार्गणैः ।
जन्मप्रभृति चार्वङ्‌गि दैन्यं नाचरितं मया ॥ ३२ ॥
ब्रह्मादीनीश्वरान्प्राप्य त्वयि तद्विदधाम्यहम् ।
चरितं मम जानन्ति रणे ब्रह्मादयः सुराः ॥ ३३ ॥
सोऽप्यहं तव दासोऽस्मि मन्मुखं पश्य भामिनि ।
हे विशालाक्षि ! मैं कामदेवके बाणोंद्वारा सन्तप्त हो रहा हूँ, अतः तुम मेरे ऊपर दया करो । हे सुन्दरि ! जन्मसे लेकर आजतक मैंने ब्रह्मा आदि देवताओंके समक्ष भी दीनता नहीं प्रदर्शित की, किंतु तुम्हारे समक्ष आज उसे प्रकट कर रहा हूँ । ब्रह्मा आदि देवता समरांगणमें मेरे चरित्रको जानते हैं । हे भामिनि ! वही मैं आज तुम्हारी दासता स्वीकार करता हूँ, मेरी ओर देखो ॥ ३२-३३.५ ॥

व्यास उवाच
इति ब्रुवाणं तं दैत्यं देवी भगवती हि सा ॥ ३४ ॥
व्यासजी बोले-ऐसा कहते हुए उस दैत्य महिषासुरसे हँसकर अनुपम सौन्दर्यमयी भगवती मुसकानके साथ यह वचन कहने लगीं ॥ ३४ ॥

प्रहस्य सस्मितं वाक्यमुवाच वरवर्णिनी ।
देव्युवाच
नाहं पुरुषमिच्छामि परमं पुरुषं विना ॥ ३५ ॥
तस्य चेच्छास्म्यहं दैत्य सृजामि सकलं जगत् ।
स मां पश्यति विश्वात्मा तस्याहं प्रकृतिः शिवा ॥ ३६ ॥
तत्सान्निध्यवशादेव चैतन्यं मयि शाश्वतम् ।
जडाहं तस्य संयोगात्प्रभवामि सचेतना ॥ ३७ ॥
अयस्कान्तस्य सान्निध्यादयसश्चेतना यथा ।
देवी बोलीं-मैं परमपुरुषके अतिरिक्त अन्य किसी पुरुषको नहीं चाहती । हे दैत्य ! मैं उनकी इच्छाशक्ति हूँ, मैं ही सारे संसारकी सृष्टि करती हूँ । वे विश्वात्मा मुझे देख रहे हैं; मैं उनकी कल्याणमयी प्रकृति हूँ । निरन्तर उनके सांनिध्यके कारण ही मुझमें शाश्वत चेतना है । वैसे तो मैं जड़ हूँ, किंतु उन्हींके संयोगसे मैं चेतनायुक्त हो जाती हैं जैसे चम्बकके संयोगसे साधारण लोहेमें भी चेतना उत्पन्न हो जाती है ॥ ३५-३७.५ ॥

न ग्राम्यसुखवाञ्छा मे कदाचिदपि जायते ॥ ३८ ॥
मूर्खस्त्वमसि मन्दात्मन् यत्स्त्रीसङ्गं चिकीर्षसि ।
नरस्य बन्धनार्थाय शृङ्खला स्त्री प्रकीर्तिता ॥ ३९ ॥
लोहबद्धोऽपि मुच्येत स्त्रीबद्धो नैव मुच्यते ।
किमिच्छसि च मन्दात्मन् मूत्रागारस्य सेवनम् ॥ ४० ॥
शमं कुरु सुखाय त्वं शमात्सुखमवाप्स्यसि ।
नारीसङ्गे महद्दुःखं जानन्किं त्वं विमुह्यसि ॥ ४१ ॥
मेरे मनमें कभी भी विषयभोगकी इच्छा नहीं होती । हे मन्दबुद्धि ! तुम मूर्ख हो जो कि स्त्रीसंग करना चाहते हो; पुरुषको बाँधनेके लिये स्त्री जंजीर कही गयी है । लोहेसे बँधा हुआ मनुष्य बन्धनमुक्त हो भी सकता है, किंतु स्त्रीके बन्धनमें बँधा हुआ प्राणी कभी नहीं छूटता । हे मूर्ख ! मूत्रागार (गुह्य अंग)-का सेवन क्यों करना चाहते हो ? सुखके लिये मनमें शान्ति धारण करो । शान्तिसे ही तुम सुख प्राप्त कर सकोगे । स्त्रीसंगसे बहुत दुःख मिलता है-इस बातको जानते हुए भी तुम अज्ञानी क्यों बनते हो ? ॥ ३८-४१ ॥

त्यज वैरं सुरैः सार्धं यथेष्टं विचरावनौ ।
पातालं गच्छ वा कामं जीवितेच्छा यदस्ति ते ॥ ४२ ॥
अथवा कुरु संग्रामं बलवत्यस्मि साम्प्रतम् ।
प्रेषिताहं सुरैः सर्वैस्तव नाशाय दानव ॥ ४३ ॥
तुम देवताओंके साथ वैरभाव छोड़ दो और पृथ्वीपर इच्छानुसार विचरण करो । यदि जीवित रहनेकी तुम्हारी अभिलाषा हो तो पाताललोक चले जाओ अथवा मेरे साथ युद्ध करो । इस समय मुझमें पूर्ण शक्ति विद्यमान है । हे दानव ! सभी देवताओंने तुम्हारा नाश करनेके लिये मुझे यहाँ भेजा है ॥ ४२-४३ ॥

सत्यं ब्रवीमि येनाद्य त्वया वचनसौहृदम् ।
दर्शितं तेन तुष्टास्मि जीवन्गच्छ यथासुखम् ॥ ४४ ॥
सतां सप्तपदी मैत्री तेन मुञ्चामि जीवितम् ।
मरणेच्छास्ति चेद्युद्धं कुरु वीर यथासुखम् ॥ ४५ ॥
हनिष्यामि महाबाहो त्वामहं नात्र संशयः ।
मैं तुमसे यह सत्य कह रही हूँ, तुमने वाणीद्वारा सौहार्दपूर्ण भाव प्रदर्शित किया है, अतः मैं तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हूँ । अब तुम जीवित रहते ही सुखपूर्वक यहाँसे चले जाओ । केवल सात पग साथ चलनेपर ही सज्जनोंमें मैत्री हो जाती है, इसी कारण मैं तुम्हें जीवित छोड़ दे रही हूँ । हे वीर ! यदि मरनेकी ही इच्छा हो तो तुम मेरे साथ आनन्दसे युद्ध कर सकते हो । हे महाबाहो ! मैं तुम्हें युद्ध में मार डालूंगी । इसमें संशय नहीं है । ४४-४५.५ ॥

इति तस्या वचः श्रुत्वा दानवः काममोहितः ॥ ४६ ॥
उवाच श्लक्ष्णया वाचा मधुरं वचनं ततः ।
बिभेम्यहं वरारोहे त्वां प्रहर्तुं वरानने ॥ ४७ ॥
कोमलां चारुसर्वाङ्गीं नारीं नरविमोहिनीम् ।
जित्वा हरिहरादींश्च लोकपालांश्च सर्वशः ॥ ४८ ॥
किं त्वया सह युद्धं मे युक्तं कमललोचने ।
व्यासजी बोले-भगवतीका यह वचन सुनकर कामसे मोहित दानव [पुनः] मधुर वाणीमें मीठी बातें करने लगा-हे सुन्दरि ! हे सुमुखि ! कोमल, सुन्दर अंगोंवाली तथा पुरुषोंको मोह लेनेवाली तुझ युवतीके ऊपर प्रहार करनेमें मुझे भय लगता है । हे कमललोचने ! विष्णु, शिव आदि बडे-बडे देवताओं और सब लोकपालोंपर विजय प्राप्त करके क्या अब तुम्हारे साथ मेरा युद्ध करना उचित होगा ? ॥ ४६-४८.५ ॥

रोचते यदि चार्वङ्‌गि विवाहं कुरु मां भज ॥ ४९ ॥
नोचेद्‌ गच्छ यथेष्टं ते देशं यस्मात्समागता ।
नाहं त्वां प्रहरिष्यामि यतो मैत्री कृता त्वया ॥ ५० ॥
हितमुक्तं शुभं वाक्यं तस्माद्‌ गच्छ यथासुखम् ।
का शोभा मे भवेदन्ते हत्वा त्वां चारुलोचनाम् ॥ ५१ ॥
स्त्रीहत्या बालहत्या च ब्रह्महत्या दुरत्यया ।
हे सुन्दर अंगोंवाली ! यदि तुम्हारी इच्छा हो तो मेरे साथ विवाह कर लो और मेरा सेवन करो; अन्यथा तुम जहाँसे आयी हो, उसी देशमें इच्छानुसार चली जाओ । मैं तुम्हारे साथ मित्रता कर चुका है, इसलिये तुमपर प्रहार नहीं करूंगा । यह मैंने तुम्हारे लिये हितकर तथा कल्याणकारी बात बतायी है; इसलिये तुम सुखपूर्वक यहाँसे चली जाओ । सुन्दर नेत्रोंवाली तुझ रमणीका वध करनेसे मेरी कौन-सी गरिमा बढ़ जायगी ? स्त्रीहत्या, बालहत्या और ब्रह्महत्याका पाप बहुत ही जघन्य होता है । ४९-५१.५ ॥

गृहीत्वा त्वां गृहं नूनं गच्छाम्यद्य वरानने ॥ ५२ ॥
तथापि मे फलं न स्याद्‌बलाद्‌भोगसुखं कुतः ।
प्रब्रवीमि सुकेशि त्वां विनयावनतो यतः ॥ ५३ ॥
पुरुषस्य सुखं न स्यादृते कान्तामुखाम्बुजात् ।
तत्तथैव हि नारीणां न स्याच्च पुरुषं विना ॥ ५४ ॥
हे वरानने ! वैसे तो मैं तुम्हें बलपूर्वक पकड़कर अपने घर निश्चितरूपसे ले जा सकता हूँ, किंतु बलप्रयोगसे मुझे सच्चा सुख नहीं मिलेगा, उसमें भोगसुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? अतएव हे सुकेशि ! मैं बहुत विनीतभावसे तुमसे कह रहा हूँ कि जैसे पुरुषको अपनी प्रियाके मुखकमलके बिना सुख नहीं मिलता, उसी प्रकार स्त्रियोंको भी पुरुषके बिना सुख नहीं मिलता ॥ ५२-५४ ॥

संयोगे सुखसम्भूतिर्वियोगे दुःखसम्भवः ।
कान्तासि रूपसम्पन्ना सर्वाभरणभूषिता ॥ ५५ ॥
चातुर्यं त्वयि किं नास्ति यतो मां न भजस्यहो ।
तवोपदिष्टं केनेदं भोगानां परिवर्जनम् ॥ ५६ ॥
वञ्चितासि प्रियालापे वैरिणा केनचित्त्विह ।
संयोगमें सुख उत्पन्न होता है और वियोगमें दुःख । तुम सुन्दर, रूपवती और सभी आभूषणोंसे अलंकृत हो । [यह सब होते हुये भी] तुझमें चतुरता क्यों नहीं है, जिससे तुम मुझे स्वीकार नहीं कर रही हो ? इस तरह भोगोंको छोड़ देनेका परामर्श तुम्हें किसने दिया है ? हे मधुरभाषिणि ! [ऐसा करके] किसी शत्रुने तुम्हें धोखा दिया है ॥ ५५-५६.५ ॥

मुञ्चाग्रहमिमं कान्ते कुरु कार्यं सुशोभनम् ॥ ५७ ॥
सुखं तव ममापि स्याद्विवाहे विहिते किल ।
विष्णुर्लक्ष्या सहाभाति सावित्र्या च सहात्मभूः ॥ ५८ ॥
रुद्रो भाति च पार्वत्या शच्या शतमखस्तथा ।
का नारी पतिहीना च सुखं प्राप्नोति शाश्वतम् ॥ ५९ ॥
हे कान्ते ! अब तुम यह आग्रह छोड़ दो और अत्यन्त सुन्दर कार्य करने में तत्पर हो जाओ । विवाह सम्पन्न हो जानेपर तुम्हें और मुझे दोनोंको सुख प्राप्त होगा । विष्णु लक्ष्मीके साथ, ब्रह्मा सावित्रीके साथ, शंकर पार्वतीके साथ तथा इन्द्र शचीके साथ रहकर ही सुशोभित होते हैं । पतिके बिना कौन स्त्री चिरस्थायी सुख प्राप्त कर सकती है ? हे सुन्दरि ! [कौन-सा ऐसा कारण है] जिससे तुम मुझ-जैसे उत्तम पुरुषको अपना पति नहीं बना रही हो ? ॥ ५७-५९ ॥

येन त्वमसितापाङ्‌गि न करोषि पतिं शुभम् ।
कामः क्वाद्य गतः कान्ते यस्त्वां बाणैः सुकोमलैः ॥ ६० ॥
मादनैः पञ्चभिः कामं न ताडयति मन्दधीः ।
मन्येऽहमिव कामोऽपि दयावांस्त्वयि सुन्दरि ॥ ६१ ॥
अबलेति च मन्वानो न प्रेरयति मार्गणान् ।
मनोभवस्य वैरं वा किमप्यस्ति मया सह ॥ ६२ ॥
तेन च त्वय्यरालाक्षि न मुञ्चति शिलीमुखान् ।
अथवा मेऽहितैर्देवैर्वारितोऽसौ झषध्वजः ॥ ६३ ॥
सुखविध्वंसिभिस्तेन त्वयि न प्रहरत्यपि ।
हे कान्ते ! न जाने मन्दबुद्धि कामदेव इस समय कहाँ चला गया जो अपने अत्यन्त कोमल तथा मादक पंचबाणोंसे तुम्हें आहत नहीं कर रहा है । हे सुन्दरि ! मुझे तो लगता है कि कामदेव भी तुम्हारे ऊपर दयालु हो गया है और तुम्हें अबला समझते हुए वह अपने बाण नहीं छोड़ रहा है । हे तिरछी चितवनवाली सुन्दरि ! सम्भव है उस कामदेवको भी मेरे साथ कुछ शत्रुता हो, इसीलिये वह तुम्हारे ऊपर बाण न चलाता हो । अथवा यह भी हो सकता है कि मेरे सुखका नाश करनेवाले मेरे शत्रु देवताओंने उस कामदेवको मना कर दिया हो, इसीलिये वह तुम्हारे ऊपर [अपने बाणोंसे प्रहार नहीं कर रहा है ॥ ६०-६३.५ ॥

त्यक्त्वा मां मृगशावाक्षि पश्चात्तापं करिष्यसि ॥ ६४ ॥
मन्दोदरीव तन्वङ्‌गि परित्यज्य शुभं नृपम् ।
अनुकूलं पतिं पश्चात्सा चकार शठं पतिम् ।
कामार्ता च यदा जाता मोहेन व्याकुलान्तरा ॥ ६५ ॥
हे मृगशावकके समान नेत्रोंवाली ! मुझे त्यागकर तुम मन्दोदरीकी भाँति पश्चात्ताप करोगी, हे तन्वंगि ! पतिरूपमें प्राप्त सुन्दर तथा अनुकूल राजाका त्याग करके बादमें वह मन्दोदरी जब कामार्त तथा मोहसे व्याकुल अन्त:करणवाली हो गयी, तब उसने एक धूर्तको अपना पति बना लिया था । ६४-६५ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां पञ्चमस्कन्धे महिषद्वारा
देवीप्रबोधनं नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥
अध्याय सोलहवाँ समाप्त ॥ १६ ॥


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