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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
पञ्चमः स्कन्धः
सप्तदशोऽध्यायः

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राजपुत्रीमन्दोदरीवृत्तवर्णनम् -
महिषासुरका देवीको मन्दोदरी नामक राजकुमारीका आख्यान सुनाना -


व्यास उवाच
इति श्रुत्वा वचस्तस्य देवी पप्रच्छ दानवम् ।
का सा मन्दोदरी नारी कोऽसौ त्यक्तो नृपस्तया ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-[हे महाराज!] उसका यह वचन सुनकर भगवतीने उस दानवसे पूछा-वह स्त्री मन्दोदरी कौन थी और वह राजा कौन था, जिसे उसने त्याग दिया था ? ॥ १ ॥

शठः को वा नृपः पश्चात्तन्मे ब्रूहि कथानकम् ।
विस्तरेण यथा प्राप्तं दुःखं वनितया पुनः ॥ २ ॥
बादमें उसने जिसे पति बनाया, वह धूर्त राजा कौन था? उस स्त्रीको पुनः जिस प्रकार दुःख मिला हो, वह कथानक विस्तारपूर्वक बताओ ॥ २ ॥

महिष उवाच
सिंहलो नाम देशोऽस्ति विख्यातः पृथिवीतले ।
घनपादपसंयुक्तो धनधान्यसमृद्धिमान् ॥ ३ ॥
महिषासुर बोला-पृथ्वीतलपर विख्यात सिंहल नामक एक देश है। उसमें बहुत ही घने घने वृक्ष हैं और वह धन-धान्यसे समृद्ध है ॥ ३ ॥

चन्द्रसेनाभिधस्तत्र राजा धर्मपरायणः ।
न्यायदण्डधरः शान्तः प्रजापालनतत्परः ॥ ४ ॥
सत्यवादी मृदुः शूरस्तितिक्षुर्नीतिसागरः ।
शास्त्रवित्सर्वधर्मज्ञो धनुर्वेदेऽतिनिष्ठितः ॥ ५ ॥
वहाँ चन्द्रसेन नामका राजा राज्य करता था, जो बड़ा धर्मात्मा, शान्तस्वभाव, प्रजापालनमें तत्पर, न्यायपूर्वक शासन कार्य करनेवाला, सत्यवादी, मृदु स्वभाववाला, वीर, सहिष्णु, नीतिशास्त्रका सागर, शास्त्रवेत्ता, सब धर्मोका ज्ञाता और धनुर्वेदमें अत्यन्त प्रवीण था ॥ ४-५ ॥

तस्य भार्या वरारोहा सुन्दरी सुभगा शुभा ।
सदाचारातिसुमुखी पतिभक्तिपरायणा ॥ ६ ॥
नाम्ना गुणवती कान्ता सर्वलक्षणसंयुता ।
सुषुवे प्रथमे गर्भे पुत्रीं सा चातिसुन्दरीम् ॥ ७ ॥
उसकी भार्या भी रूपवती, सुन्दरी, सौभाग्यशालिनी, सद्गुणी, सदाचारिणी, अत्यन्त सुन्दर मुखवाली, पतिभक्तिमें लीन रहनेवाली, मनोहर और सभी उत्तम लक्षणोंसे सम्पन्न थी। उसका नाम गुणवती था । उसने प्रथम गर्भसे एक अति सुन्दर कन्याको जन्म दिया॥ ६-७ ॥

पिता चातीव सन्तुष्टः पुत्रीं प्राप्य मनोरमाम् ।
मन्दोदरीति नामास्याः पिता चक्रे मुदान्वितः ॥ ८ ॥
उस मनोरम कन्याको पाकर पिता बहुत ही प्रसन्न हुए और उन्होंने बड़े हर्षके साथ उसका नाम मन्दोदरी रखा ॥ ८ ॥

इन्दोः कलेव चात्यर्थं ववृधे सा दिने दिने ।
दशवर्षा यदा जाता कन्या चातिमनोहरा ॥ ९ ॥
वह कन्या चन्द्रमाकी कलाके समान दिनप्रतिदिन बढ़ने लगी। अत्यन्त मनोहारिणी वह कन्या जब दस वर्षकी हुई, तब उसके वरके लिये राजा चन्द्रसेन प्रतिदिन चिन्तित रहने लगे ॥ ९ ॥

वरार्थं नृपतिश्चिन्तामवाप च दिने दिने ।
मद्रदेशाधिपः शूरः सुधन्वा नाम पार्थिवः ॥ १० ॥
तस्य पुत्रोऽतिमेधावी कम्बुग्रीवोऽतिविश्रुतः ।
ब्राह्मणैः कथितो राज्ञे स युक्तोऽस्या वरः शुभः ॥ ११ ॥
सर्वलक्षणसम्पन्नः सर्वविद्यार्थपारगः ।
उस समय मद्रदेशके अधिपति सुधन्वा नामवाले एक पराक्रमी नरेश थे। कम्युग्रीव नामसे अति विख्यात उनका एक पुत्र था, जो बहुत मेधावी था। ब्राह्मणोंने राजा चन्द्रसेनसे कहा कि कम्बुग्रीव उस कन्याके योग्य वर है। वह सुन्दर, सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न | तथा समस्त विद्याओंमें पारंगत है ॥ १०-११.५ ॥

राज्ञा पृष्टा तदा राज्ञी नाम्ना गुणवती प्रिया ॥ १२ ॥
कम्बुग्रीवाय कन्यां स्वां दास्यामि वरवर्णिनीम् ।
तब राजाने गुणवती नामवाली अपनी प्रिय रानीसे पूछा-[मेरा विचार है कि मैं अपनी सुन्दर पुत्री मन्दोदरीको कम्बुग्रीवको सौंप दूँ ॥ १२.५ ॥

सा तु पत्युर्वचः श्रुत्वा पुत्रीं पप्रच्छ सादरम् ॥ १३ ॥
विवाहं ते पिता कर्तुं कम्बुग्रीवेण वाञ्छति ।
पतिकी यह बात सुनकर उस रानीने अपनी पुत्रीसे आदरपूर्वक पूछा-तुम्हारे पिता कम्बुग्रीवके साथ तुम्हारा विवाह करना चाहते हैं ॥ १३.५ ॥

तच्छ्रुत्वा मातरं प्राह वाक्यं मन्दोदरी तदा ॥ १४ ॥
नाहं पतिं करिष्यामि नेच्छा मेऽस्ति परिग्रहे ।
कौमारं व्रतमास्थाय कालं नेष्यामि सर्वथा ॥ १५ ॥
स्वातन्त्र्येण चरिष्यामि तपस्तीव्रं सदैव हि ।
पारतन्त्र्यं परं दुःखं मातः संसारसागरे ॥ १६ ॥
स्वातन्त्र्यान्मोक्षमित्याहुः पण्डिताः शास्त्रकोविदाः ।
तस्मान्मुक्ता भविष्यामि पत्या मे न प्रयोजनम् ॥ १७ ॥
तब यह सुनकर मन्दोदरीने मातासे यह वचन कहा-मैं पति नहीं बनाऊँगी, विवाह करनेमें मेरी अभिरुचि नहीं है । मैं सदा कौमार्यव्रतका आश्रय लेकर अपना जीवन व्यतीत करूँगी । मैं स्वतन्त्रतापूर्वक सदा कठोर तप करूँगी । हे माता ! संसारसागरमें परतन्त्रता परम दुःख है । स्वतन्त्रतासे ही मोक्षकी प्राप्ति होती है-ऐसा शास्त्रोंके ज्ञाता पण्डितजनोंने कहा है, अतएव मैं बन्धनसे मुक्त रहूँगी, मुझे पतिसे कोई भी प्रयोजन नहीं है ॥ १४-१७ ॥

विवाहे वर्तमाने तु पावकस्य च सन्निधौ ।
वक्तव्यं वचनं सम्यक्त्वदधीनास्मि सर्वदा ॥ १८ ॥
श्वश्रूदेवरवर्गाणां दासीत्वं श्वशुरालये ।
पतिचित्तानुवर्तित्वं दुःखाद्दुःखतरं स्मृतम् ॥ १९ ॥
विवाह होते समय अग्निके साक्ष्यमें [प्रतिज्ञारूपमें] यह वचन कहना पड़ता है-[हे पतिदेव !] अब मैं सदाके लिये पूर्णरूपसे आपके अधीन हो चुकी हूँ । ' इसके अतिरिक्त ससुरालमें सास तथा देवर आदि लोगोंकी दासी बनकर रहना तथा सदा पतिके अनुकूल रहना अत्यन्त दुःखदायक बताया गया है ॥ १८-१९ ॥

कदाचित्पतिरन्यां वा कामिनीं च भजेद्यदि ।
तदा महत्तरं दुःखं सपत्‍नीसम्भवं भवेत् ॥ २० ॥
तदेर्ष्या जायते पत्यौ क्लेशश्चापि भवेदथ ।
संसारे क्व सुखं मातर्नारीणां च विशेषतः ॥ २१ ॥
कहीं यदि पतिने अन्य स्त्रीके साथ विवाह कर लिया तब तो सौतसे मिलनेवाला महान् दुःख उपस्थित हो जाता है । उस समय पतिके प्रति ईर्ष्याभाव उत्पन्न हो जाता है, कलह भी होने लगता है । हे माता ! संसारमें सुख कहाँ है ? और विशेष करके स्वभावसे ही परतन्त्र नारियोंके लिये इस स्वप्नधर्मा संसारमें सुख है ही नहीं ॥ २०-२१ ॥

स्वभावात्परतन्त्राणां संसारे स्वप्नधर्मिणि ।
श्रुतं मया पुरा मातरुत्तानचरणात्मजः ॥ २२ ॥
उत्तमः सर्वधर्मज्ञो ध्रुवादवरजो नृपः ।
पत्‍नीं धर्मपरां साध्वीं पतिभक्तिपरायणाम् ॥ २३ ॥
अपराधं विना कान्तां त्यक्तवान्विपिने प्रियाम् ।
हे माता ! मैंने सुना है कि प्राचीनकालमें राजा उत्तानपादके एक 'उत्तम' नामक पुत्र थे, जो समस्त धर्मोंके ज्ञाता एवं ध्रुवके कनिष्ठ भ्राता थे । उन्होंने अपनी धर्मनिष्ठ, पतिव्रता, पतिके प्रति भक्तिभाव रखनेवाली, प्रिय तथा सुन्दर पलीको बिना किसी अपराधके ही वनमें छोड़ दिया था ॥ २२-२३.५ ॥

एवंविधानि दुःखानि विद्यमाने तु भर्तरि ॥ २४ ॥
कालयोगान्मृते तस्मिन्नारी स्याद्दुःखभाजनम् ।
वैधव्यं परमं दुःखं शोकसन्तापकारकम् ॥ २५ ॥
परोषितपतित्वेऽपि दुःखं स्यादधिकं गृहे ।
मदनाग्निविदग्धायाः किं सुखं पतिसङ्गजम् ॥ २६ ॥
तस्मात्पतिर्न कर्तव्यः सर्वथेति मतिर्मम ।
पतिके रहते हुए भी इस प्रकारके अनेक दु:ख स्त्रीको सहने पड़ते हैं । दैवयोगसे उसकी मृत्यु हो जानेपर स्त्रीको [विधवा बनकर] दु:ख उठाना पड़ता है; क्योंकि वैधव्य परम दुःखमय होता है तथा नानाविध शोक एवं संताप उत्पन्न करता रहता है । पतिके परदेश चले जानेपर कामदेवकी अग्निमें जलती हुई स्त्रीको घरमें अत्यधिक दुःख सहना पड़ता है, तो फिर उसे पतिसंगजनित क्या सुख प्राप्त हुआ ? अतएव मेरा तो यही मत है कि स्त्रियोंको विवाह कभी नहीं करना चाहिये ॥ २४-२६.५ ॥

एवं प्रोक्ता तदा माता पतिं प्राह नृपात्मजा ॥ २७ ॥
न च वाञ्छति भर्तारं कौमारव्रतधारिणी ।
व्रतजाप्यपरा नित्यं संसाराद्विमुखी सदा ॥ २८ ॥
न काङ्क्षति पतिं कर्तुं बहुदोषविचक्षणा ।
[पुत्रीके] ऐसा कहनेपर उसकी माताने अपने पतिसे कहा-कौमारव्रत धारण करनेकी इच्छावाली वह राजकुमारी पतिकी कामना नहीं करती है । संसारसे विरक्त रहकर वह सदा व्रत और जपमें तत्पर रहना चाहती है । [पतिसंगजनित] अनेक दोषोंको जाननेवाली वह कन्या विवाह नहीं करना चाहती ॥ २७-२८.५ ॥

भार्याया भाषितं श्रुत्वा तथैव संस्थितो नृपः ॥ २९ ॥
विवाहो न कृतः पुत्र्या ज्ञात्वा भावविवर्जिताम् ।
वर्तमाना गृहेष्वेव पित्रा मात्रा च रक्षिता ॥ ३० ॥
यौवनस्याङ्कुरा जाता नारीणां कामदीपकाः ।
तथापि सा वयस्याभिः प्रेरितापि पुनः पुनः ॥ ३१ ॥
चकमे न पतिं कर्तुं ज्ञानार्थपदभाषिणी ।
अपनी भार्याकी बात सुनकर राजा चन्द्रसेन भी चुप रह गये । अपनी पुत्रीको विवाहकी इच्छासे रहित भाववाली जानकर राजाने भी उसका विवाह नहीं किया । वह मन्दोदरी भी माता-पिताके द्वारा भलीभांति रक्षित होती हुई घरपर ही रहने लगी । कुछ समय पश्चात् नारियोंमें कामोत्तेजना उत्पन्न करनेवाले यौवनसम्बन्धी लक्षण उसमें विकसित होने लगे । उस समय उसकी सखियोंने विवाहके लिये उसे बार-बार प्रेरित किया, फिर भी ज्ञान-तत्त्वकी बातें कहकर वह मन्दोदरी पति बनानेके लिये तैयार न हुई । २९-३१.५ ॥

एकदोद्यानदेशे सा विहर्तुं बहुपादपे ॥ ३२ ॥
जगाम सुमुखी प्रेम्णा सैरन्ध्रीगणसेविता ।
रेमे कृशोदरी तत्रापश्यत्कुसुमिता लताः ॥ ३३ ॥
पुष्पाणि चिन्वती रम्या वयस्याभिः समावृता ।
एक दिन सुन्दर मुखवाली वह कन्या अपनी दासियोंके साथ बहुत-से वृक्षोंसे सुशोभित उद्यानमें आनन्दपूर्वक विहार करनेके लिये गयी । उस कृशोदरीने वहाँ पुष्पित लताओंको देखा और अपनी सखियोंके साथ पुष्प चुनती हुई वह वहींपर क्रीडाविहार करने लगी ॥ ३२-३३.५ ॥

कोसलाधिपतिस्तत्र मार्गे दैववशात्तदा ॥ ३४ ॥
आजगाम महावीरो वीरसेनोऽतिविश्रुतः ।
एकाकी रथमारूढः कतिचित्सेवकैर्वृतः ॥ ३५ ॥
सैन्यं च पृष्ठतस्तस्य समायाति शनैः शनैः ।
उसी समय उस मार्गसे संयोगवश कोसलनरेश वीरसेन आ गये । वे महान् शूरवीर तथा बहुत विख्यात थे । वे रथपर अकेले ही आरूढ़ थे तथा उनके साथ कुछ सेवक भी थे और सेना उनके पीछे धीरे-धीरे चली आ रही थी ॥ ३४-३५.५ ॥

दृष्टस्तस्या वयस्याभिर्दूरतः पार्थिवस्तदा ॥ ३६ ॥
मन्दोदर्यै तथा प्रोक्तं समायाति नरः पथि ।
रथारूढो महाबाहू रूपवान्मदनोऽपरः ॥ ३७ ॥
मन्येऽहं नृपतिः कश्चित्प्राप्तो भाग्यवशादिह ।
तभी उसकी सखियोंने दूरसे ही राजाको देख लिया और [उनमेंसे किसी युवतीने] मन्दोदरीसे कहा-विशाल भुजाओंवाला, रूपवान् तथा दूसरे कामदेवके समान एक पुरुष रथपर सवार होकर इस मार्गसे चला आ रहा है । मैं तो यह मानती हूँ कि यहाँ भाग्यवश कोई राजा ही आ गया है । ३६-३७.५ ॥

एवं ब्रुवत्यां तत्रासौ कोसलेन्द्रः समागतः ॥ ३८ ॥
दृष्ट्वा तामसितापाङ्गीं विस्मयं प्राप भूपतिः ।
उत्तीर्य स रथात्तूर्णं पप्रच्छ परिचारिकाम् ॥ ३९ ॥
केयं बाला विशालाक्षी कस्य पुत्री वदाशु मे ।
वह युवती ऐसा कह रही थी कि इतनेमें कोसल-नरेश वीरसेन वहाँ आ गये । उस श्याम कटाक्षोंवाली मन्दोदरीको देखकर राजा विस्मयमें पड़ गये । रथसे तुरंत उतरकर उन्होंने दासीसे पूछाविशाल नेत्रोंवाली यह युवती कौन है और किसकी पुत्री है ? मुझे शीघ्र बताओ ॥ ३८-३९.५ ॥

एवं पृष्टा तु सैरन्ध्री तमुवाच शुचिस्मिता ॥ ४० ॥
प्रथमं ब्रूहि मे वीर पृच्छामि त्वां सुलोचन ।
कोऽसि त्वं किमिहायातः किं कार्यं वद साम्प्रतम् ॥ ४१ ॥
इस प्रकार पूछे जानेपर मधुर मुसकानवाली दासीने उनसे कहा-सुन्दर नेत्रोंवाले हे वीर ! पहले आप मुझे बतायें, मैं आपसे पूछ रही हूँ कि आप कौन हैं ? यहाँ किसलिये आये हैं और यहाँ आपका कौनसा कार्य है ? [यह सब] अभी बतानेकी कृपा करें ॥ ४०-४१ ॥

इति पृष्टस्तु सैरन्ध्र्या तामुवाच महीपतिः ।
कोसलो नाम देशोऽस्ति पृथिव्यां परमाद्‌भुतः ॥ ४२ ॥
तस्य पालयिता चाहं वीरसेनाभिधः प्रिये ।
वाहिनी पृष्ठतः कामं समायाति चतुर्विधा ॥ ४३ ॥
मार्गभ्रमादिह प्राप्तं विद्धि मां कोसलाधिपम् ।
दासीके यह पूछनेपर राजाने उससे कहापृथ्वीपर अत्यन्त अद्भुत कोसल नामक एक देश है । हे प्रिये ! वीरसेन नामवाला मैं उसी देशका शासक हूँ । मेरी विशाल चतुरंगिणी सेना पीछे-पीछे आ रही है । मार्ग भूल जानेके कारण यहाँ आये हुए मुझको तुम कोसलदेशका राजा समझो । ४२-४३.५ ॥

सैरन्ध्र्युवाच
चन्द्रसेनसुता राजन्नाम्ना मन्दोदरी किल ॥ ४४ ॥
उद्याने रन्तुकामेयं प्राप्ता कमललोचना ।
सैरन्ध्री बोली-हे राजन् ! यह महाराज चन्द्रसेनकी पुत्री है और इसका नाम मन्दोदरी है । कमलसदृश नेत्रोंवाली यह राजकुमारी विहार करनेकी इच्छासे इस उपवन में आयी है ॥ ४४.५ ॥

श्रुत्वा तद्‌भाषितं राजा प्रत्युवाच प्रसाधिकाम् ॥ ४५ ॥
सैरन्ध्रि चतुरासि त्वं राजपुत्रीं प्रबोधय ।
ककुत्स्थवंशजश्चाहं राजास्मि चारुलोचने ॥ ४६ ॥
गान्धर्वेण विवाहेन पतिं मां कुरु कामिनि ।
न मे भार्यास्ति सुश्रोणि वयसोऽद्‌भुतयौवनाम् ॥ ४७ ॥
वाञ्छामि रूपसम्पन्नां सुकुलां कामिनीं किल ।
अथवा ते पिता मह्यं विधिना दातुमर्हति ॥ ४८ ॥
अनुकूलः पतिश्चाहं भविष्यामि न संशयः ।
उसकी बात सुनकर राजाने उस सैरन्ध्रीसे कहाहे सैरन्ध्र ! तुम चतुर हो, अतः राजकुमारीको समझा दो । 'हे सुनयने ! मैं ककुत्स्थवंशमें उत्पन्न एक राजा हैं । अतः हे कामिनि ! तुम गान्धर्व-विवाहके द्वारा मुझे पति बना लो । हे सुश्रोणि ! मेरी कोई भार्या नहीं है । मैं भी अद्भुत यौवनावस्थासे सम्पन्न, रूपवती और कुलीन युवतीकी आकांक्षा रखता हूँ । अथवा [यदि गान्धर्वविवाह पसन्द न हो तो तुम्हारे पिता विधि-विधानसे तुमको मुझे सौंप दें । मैं सर्वथा तुम्हारे अनुकूल पति होऊँगा; इसमें सन्देह नहीं है' ॥ ४५-४८.५ ॥

महिष उवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य सैरन्ध्री प्राह तां तदा ॥ ४९ ॥
प्रहस्य मधुरं वाक्यं कामशास्त्रविशारदा ।
मन्दोदरि नृपः प्राप्तः सूर्यवंशसमुद्‌भवः ॥ ५० ॥
रूपवान्बलवान्कान्तो वयसा त्वत्समः पुनः ।
प्रीतिमान्नृपतिर्जातस्त्वयि सुन्दरि सर्वथा ॥ ५१ ॥
महिष बोला-तब वीरसेनका वचन सुनकर कामशास्त्रमें प्रवीण सैरन्ध्रीने हँसकर उस मन्दोदरीसे मधुर वाणीमें कहा-हे मन्दोदरि ! सूर्यवंशमें उत्पन्न ये राजा यहाँ आये हैं । ये रूपवान्, बलवान् तथा आयुमें तुम्हारे ही तुल्य हैं । हे सुन्दरि ! ये राजा सम्यक् प्रकारसे तुझमें प्रेमासक्त हो गये हैं । ४९-५१ ॥

पितापि ते विशालाक्षि परितप्यति सर्वथा ।
विवाहकालं ते ज्ञात्वा त्वां च वैराग्यसंयुताम् ॥ ५२ ॥
इत्याहास्मान्स नृपतिर्विनिःश्वस्य पुनः पुनः ।
पुत्रीं प्रबोधयन्त्वेतां सैरन्ध्र्यः सेवने रताः ॥ ५३ ॥
वक्तुं शक्ता वयं न त्वां हठधर्मरतां पुनः ।
भर्तुः शुश्रूषणं स्त्रीणां परो धर्मोऽब्रवीन्मनुः ॥ ५४ ॥
भर्तारं सेवमाना वै नारी स्वर्गमवाप्नुयात् ।
तस्मात्कुरु विशालाक्षि विवाहं विधिपूर्वकम् ॥ ५५ ॥
हे विशाल नयनोंवाली ! तुम्हारी विवाहयोग्य अवस्था हो गयी है और तुम वैराग्यभावसे युक्त रहती हो-यह जानकर तुम्हारे पिता भी सदा चिन्तित रहते हैं । उन महाराजने बार-बार लंबी साँस लेकर हमलोगोंसे यह कहा था-'हे दासियो ! तुमलोग सदा उसकी सेवामें संलग्न रहती हो, अतः तुम्हीं लोग मेरी इस पुत्रीको समझाओ । ' किंतु हमलोग तुझ हठधर्मपरायणासे कुछ भी कहने में समर्थ नहीं हैं । [फिर भी हम तुम्हें बता देना चाहती हैं कि] पतिकी सेवा ही स्त्रियोंके लिये परम धर्म है-ऐसा मनुने कहा है । पतिकी सेवा करनेवाली स्त्री स्वर्ग प्राप्त कर लेती है । अतएव हे विशाल नेत्रोंवाली ! तुम विधिपूर्वक विवाह कर लो । ५२-५५ ॥

मन्दोदर्युवाच
नाहं पतिं करिष्यामि चरिष्ये तप अद्‌भुतम् ।
निवारय नृपं बाले किं मां पश्यति निस्त्रपः ॥ ५६ ॥
मन्दोदरी बोली-मैं पति नहीं बनाऊँगी; मैं अद्भुत ताप करूँगी । हे बाले ! तुम इस राजाको मना कर दो; यह निर्लज्ज मेरी ओर क्यों देख रहा है ? ॥ ५६ ॥

सैरन्ध्र्युवाच
दुर्जयो देवि कामोऽसौ कालोऽसौ दुरतिक्रमः ।
तस्मान्मे वचनं पथ्यं कर्तुमर्हसि सुन्दरि ॥ ५७ ॥
अन्यथा व्यसनं नूनमापतेदिति निश्चयः ।
सैरन्ध्री बोली-हे देवि ! यह कामदेव अजेय है तथा कालका अतिक्रमण भी अत्यन्त कठिन है । अतएव हे सुन्दरि ! तुम मेरे इस कल्याणकारी वचनको मान लेनेकी कृपा करो । अन्यथा [तुम्हारे ऊपर कभी-न-कभी] संकट अवश्य पड़ेगा; यह मेरा दृढ़ विश्वास है ॥ ५७.५ ॥

इति तस्या वचः श्रुत्वा कन्योवाचाथ तां सखीम् ॥ ५८ ॥
यद्यद्‌भवेत्तद्‌भवतु दैवयोगादसंशयम् ।
न विवाहं करिष्येऽहं सर्वथा परिचारिके ॥ ५९ ॥
उसकी यह बात सुनकर राजकुमारीने उस सखीसे कहा-हे परिचारिके ! दैवयोगसे जो भी होनेवाला है वह हो, किंतु मैं विवाह बिलकुल नहीं करूँगी; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५८-५९ ॥

महिष उवाच
इति तस्यास्तु निर्बन्धं ज्ञात्वा प्राह नृपं पुनः ।
गच्छ राजन् यथाकामं नेयमिच्छति सत्पतिम् ॥ ६० ॥
महिष बोला-उस राजकुमारीका निश्चित विचार जानकर सैरन्ध्रीने राजासे पुनः कहा-हे राजन् ! आप इच्छानुसार यहाँसे जा सकते हैं । यह राजकुमारी उत्तम पति बनाना नहीं चाहती ॥ ६० ॥

नृपस्तु तद्वचः श्रुत्वा निर्गतः सह सेनया ।
कोसलान्विमना भूत्वा कामिनीं प्रति निःस्पृहः ॥ ६१ ॥
उसकी बात सुनकर राजा वीरसेन उदास हो गये और उस राजकुमारीके प्रति आसक्तिरहित होकर अपनी सेनाके साथ कोसलदेशके लिये प्रस्थित हो गये ॥ ६१ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां पञ्चमस्कन्धे देवीमहिषसंवादे
राजपुत्रीमन्दोदरीवृत्तवर्णनं नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥
अध्याय सत्रहवाँ समाप्त ॥ १७ ॥


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