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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
पञ्चमः स्कन्धः
अष्टादशोऽध्यायः

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महिषासुरवधः -
दुर्धर, त्रिनेत्र, अन्धक और महिषासुरका वध -


महिष उवाच
तस्यास्तु भगिनी कन्या नाम्ना चेन्दुमती शुभा ।
विवाहयोग्या सञ्जाता सुरूपावरजा यदा ॥ १ ॥
तस्या विवाहः संवृत्तः सञ्जातश्च स्वयंवरः ।
राजानो बहुदेशीयाः सङ्गतास्तत्र मण्डपे ॥ २ ॥
महिष बोला-उस मन्दोदरीकी इन्दुमती नामकी एक छोटी बहन थी, जो समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न तथा अत्यन्त रूपवती थी । जब वह विवाहके योग्य हुई, तब उसके विवाहकी तैयारी होने लगी । उसका स्वयंवर रचाया गया, स्वयंवरके मण्डपमें अनेक देशोंके राजा एकत्रित हुए ॥ १-२ ॥

तया वृतो नृपः कश्चिद्‌बलवान् रूपसंयुतः ।
कुलशीलसमायुक्तः सर्वलक्षणसंयुतः ॥ ३ ॥
इन्दुमतीने उनमेंसे एक बलशाली, रूपवान, कुलीन, शीलवान् तथा समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न राजाका वरण कर लिया ॥ ३ ॥

तदा कामातुरा जाता विटं वीक्ष्य नृपं तु सा ।
चकमे दैवयोगात्तु शठं चातुर्यभूषितम् ॥ ४ ॥
उसी समय वह मन्दोदरी दैवयोगसे एक धूर्त, शठ तथा चातुर्यसम्पन्न राजाको देखकर कामातुर हो उठी और उसपर मोहित हो गयी ॥ ४ ॥

पितरं प्राह तन्वङ्गी विवाहं कुरु मे पितः ।
इच्छा मेऽद्य समुद्‌भूता दृष्ट्वा मद्राधिपं त्विह ॥ ५ ॥
उस कोमलांगीने अपने पितासे कहा-हे पिताजी ! अब आप मेरा भी विवाह कर दीजिये । मद्रदेशके राजाको यहाँ देखकर अब मेरी भी विवाह करनेकी इच्छा हो गयी है ॥ ५ ॥

चन्द्रसेनोऽपि तच्छ्रुत्वा पुत्र्या यद्‌भाषितं रहः ।
प्रसन्नेन च मनसा तत्कार्ये तत्परोऽभवत् ॥ ६ ॥
पुत्रीने एकान्तमें अपने पितासे जो कुछ कहा था, उसे सुनकर राजा चन्द्रसेन प्रसन्नमनसे उसके भी विवाहकार्यकी व्यवस्थामें संलग्न हो गये ॥ ६ ॥

तमाहूय नृपं गेहे विवाहविधिना ददौ ।
कन्यां मन्दोदरीं तस्मै पारिबर्हं तथा बहु ॥ ७ ॥
तत्पश्चात् मद्रदेशके उन राजाको अपने घर बुलाकर उन्होंने वैवाहिक विधिके अनुसार उन्हें अपनी कन्या मन्दोदरी सौंप दी और बहुत-सा वैवाहिक उपहार प्रदान किया ॥ ७ ॥

चारुदेष्णोऽपि तां प्राप्य सुन्दरीं मुदितोऽभवत् ।
जगाम स्वगृहं तुष्टो राजापि सहितः स्त्रिया ॥ ८ ॥
मद्रनरेश चारुदेष्ण भी उस सुन्दरीको पाकर बहुत प्रसन्न हुआ और सन्तुष्ट होकर स्त्रीके साथ अपने घर चला गया ॥ ८ ॥

रेमे नृपतिशार्दूलः कामिन्या बहुवासरान् ।
कदाचिद्दासपत्‍न्या स रममाणो रहः किल ॥ ९ ॥
सैरन्ध्र्या कथितं तस्यै तया दृष्टः पतिस्तथा ।
उपालम्भं ददौ तस्मै स्मितपूर्वं रुषान्विता ॥ १० ॥
राजाओंमें श्रेष्ठ वह चारुदेष्ण बहुत दिनोंतक उस कामिनीके साथ रमण करता रहा । एक दिन वह किसी दासीके साथ एकान्तमें रमण कर रहा था । सैरन्ध्रीने यह बात मन्दोदरीको बता दी और उसने स्वयं जाकर पतिको [उस स्थितिमें] देख लिया । तब उसने मुसकराकर क्रोधके साथ राजाको बहुत उपालम्भ दिया ॥ ९-१० ॥

कदाचिदपि सामान्यां रहो रूपवतीं नृपः ।
क्रीडयँल्लालयन्दृष्टः खेदं प्राप तदैव सा ॥ ११ ॥
इसके बाद पुनः किसी दिन मन्दोदरीने राजाको एक रूपवती दासीके साथ एकान्तमें क्रीडाविहार करते हुए देख लिया । [यह देखकर] उस समय उसे महान् कष्ट हुआ ॥ ११ ॥

न ज्ञातोऽयं शठः पूर्वं यदा दृष्टः स्वयंवरे ।
किं कृतं तु मया मोहाद्वञ्चिताहं नृपेण ह ॥ १२ ॥
वह सोचने लगी कि जब मैंने इसे स्वयंवरमें देखा था, तब मैं इस शठके विषयमें ऐसा नहीं समझ पायी थी । मैंने मोहवश यह क्या कर डाला ? इस राजाने तो मुझे ठग लिया ॥ १२ ॥

किं करोम्यद्य सन्तापं निर्लज्जे निर्घृणे शठे ।
का प्रीतिरीदृशे पत्यौ धिगद्य मम जीवितम् ॥ १३ ॥
अब मैं क्या करूँ; केवल सन्ताप ही मिला । ऐसे निर्लज्ज, निर्दयी और धूर्त पतिके प्रति प्रेम कैसे हो सकता है ! अब मेरे जीवनको धिक्कार है ॥ १३ ॥

अद्यप्रभृति संसारे सुखं त्यक्तं मया खलु ।
पतिसम्भोगजं सर्वं सन्तोषोऽद्य मया कृतः ॥ १४ ॥
आजसे मैं संसारमें पतिके साथ सहवाससे प्राप्त होनेवाले सारे सुखका त्याग कर रही हूँ; अब मैंने सन्तोष कर लिया ॥ १४ ॥

अकर्तव्यं कृतं कार्यं तज्जातं दुःखदं मम ।
देहत्यागः क्रियते चेद्धत्यातीव दुरत्यया ॥ १५ ॥
पितृगेहं व्रजाम्याशु तत्रापि न सुखं भवेत् ।
हास्ययोग्या सखीनां तु भवेयं नात्र संशयः ॥ १६ ॥
तस्मादत्रैव संवासो वैराग्ययुतया मया ।
कर्तव्यः कालयोगेन त्यक्त्वा कामसुखं पुनः ॥ १७ ॥
मैंने वह काम कर डाला, जिसे मुझे नहीं करना चाहिये था, इसीलिये वह मेरे लिये कष्टदायक सिद्ध हुआ । अब यदि मैं देहत्याग करती हूँ तो वह दुस्तर आत्महत्याके समान होगा । यदि पिताके घर चली जाऊँ तो वहाँ भी सुख नहीं मिलेगा और वहाँपर मैं अपनी सखियोंकी हँसीका पात्र बनी रहूँगी; इसमें कोई संशय नहीं है । अत: वैराग्ययुक्त होकर भोगविलासक सुखका परित्याग करके कालयोगसे मुझे यहींपर निवास करना चाहिये ॥ १५-१७ ॥

महिष उवाच
इति सञ्चिन्त्य सा नारी दुःखशोकपरायणा ।
स्थिता पतिगृहं त्यक्त्वा सुखं संसारजं ततः ॥ १८ ॥
महिष बोला-ऐसा विचार करके वह नारी सांसारिक सुखका परित्याग करके दुःख तथा शोकसे सन्तप्त रहती हुई अपने पतिके घरपर ही रह गयी ॥ १८ ॥

तस्मात्त्वमपि कल्याणि मामनादृत्य भूपतिम् ।
अन्यं कापुरुषं मन्दं कामार्ता संश्रयिष्यसि ॥ १९ ॥
अतः हे कल्याणि ! उसी प्रकार तुम भी मुझ राज पतिका अनादर करके पुन: कामातुर होनेपर किसी अन्य मूर्ख तथा कायर पुरुषका आश्रय ग्रहण करोगी ॥ १९

वचनं कुरु मे तथ्यं नारीणां परमं हितम् ।
अकृत्वा परमं शोकं लप्स्यसे नात्र संशयः ॥ २० ॥
अत: स्त्रियोंके लिये परम हितकारी तथा सच्ची मेरी यह बात मान लो । इसे न मानकर तुम बहुत कष्ट उठाओगी । इसमें सन्देह नहीं है ॥ २० ॥

देव्युवाच
मन्दात्मन् गच्छ पातालं युद्धं वा कुरु साम्प्रतम् ।
हत्वा त्वामसुरान्सर्वान्गमिष्यामि यथासुखम् ॥ २१ ॥
देवी बोलीं-हे मन्दबुद्धि ! अब तुम पाताललोक भाग जाओ अथवा मेरे साथ युद्ध करो । मैं तुम्हें तथा सभी असुरोंको मारकर सुखपूर्वक यहाँसे चली जाऊँगी ॥ २१ ॥

यदा यदा हि साधूनां दुःखं भवति दानव ।
तदा तेषां च रक्षार्थं देहं सन्धारयाम्यहम् ॥ २२ ॥
हे दानव ! जब-जब साधु पुरुषोंपर संकट आता है, तब-तब उनकी रक्षाके लिये मैं देह धारण करती हूँ ॥ २२ ॥

अरूपायाश्च मे रूपमजन्मायाश्च जन्म च ।
सुराणां रक्षणार्थाय विद्धि दैत्य विनिश्चितम् ॥ २३ ॥
हे दैत्य ! वास्तवमें मैं निराकार और अजन्मा हूँ, तथापि देवताओंको रक्षा करनेके लिये रूप और जन्म धारण करती हूँ; यह तुम निश्चित समझ लो ॥ २३ ॥

सत्यं ब्रवीमि जानीहि प्रार्थिताहं सुरैः किल ।
त्वद्वधार्थं हयारे त्वां हत्वा स्थास्यामि निश्चला ॥ २४ ॥
मैं सत्य कहती हूँ कि देवताओंने तुम्हारा वध करनेके लिये मुझसे प्रार्थना की थी । हे महिष ! तुझे मारकर मैं सर्वथा निश्चिन्त हो जाऊँगी ॥ २४ ॥

तस्माद्युध्यस्व वा गच्छ पातालमसुरालयम् ।
सर्वथा त्वां हनिष्यामि सत्यमेतद्‌ ब्रवीम्यहम् ॥ २५ ॥
अतएव अब तुम मेरे साथ युद्ध करो अथवा असुरोंकी निवासभूमि पाताललोकको चले जाओ । अब मैं तुम्हें निश्चय ही मार डालूँगी, मैं यह बिलकुल सच कह रही हूँ ॥ २५ ॥

व्यास उवाच
इत्युक्तः स तया देव्या धनुरादाय दानवः ।
युद्धकामः स्थितस्तत्र संग्रामाङ्गणभूमिषु ॥ २६ ॥
व्यासजी बोले-देवीके ऐसा कहनेपर महिषासुर धनुष लेकर युद्ध करनेकी इच्छासे संग्रामभूमिमें डट गया ॥ २६ ॥

मुमोच तरसा बाणान्कर्णाकृष्टाञ्छिलाशितान् ।
देवी चिच्छेद तान्बाणैः क्रोधान्मुक्तैरयोमुखैः ॥ २७ ॥
वह पत्थरपर घिसकर नुकीले बनाये गये बाणोंको कानतक खींचकर बड़े वेगसे छोड़ने लगा । तब भगवतीने कुपित होकर अपने लौहमुख बाणोंसे उसके बाणोंको काट डाला ॥ २७ ॥

तयोः परस्परं युद्धं सम्बभूव भयप्रदम् ।
देवानां दानवानाञ्च परस्परजयैषिणाम् ॥ २८ ॥
अब देवी और दानव महिषमें भीषण संग्राम होने लगा । वह युद्ध अपनी-अपनी विजय चाहनेवाले देवताओं और दानवोंके लिये बड़ा भयदायक था ॥ २८ ॥

मध्ये दुर्धर आगत्य मुमोच च शिलीमुखान् ।
देवीं प्रति विषासक्तान्कोपयन्नतिदारुणान् ॥ २९ ॥
उसी समय दुर्धर नामक दैत्य बीचमें आकर भगवतीको कुपित करता हुआ उनपर अतिशय दारुण और विषैले बाणोंकी वर्षा करने लगा ॥ २९ ॥

ततो भगवती क्रुद्धा तं जघान शितैः शरैः ।
दुर्धरस्तु पपातोर्व्यां गतासुर्गिरिशृङ्गवत् ॥ ३० ॥
तब भगवतीने क्रोधित होकर उसपर तीक्ष्ण बाणोंके द्वारा प्रहार किया, जिससे दुर्धर प्राणहीन होकर पर्वतशिखरकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ ३० ॥

तं तथा निहतं दृष्ट्वा त्रिनेत्रः परमास्त्रवित् ।
आगत्य सप्तभिर्बाणैर्जघान परमेश्वरीम् ॥ ३१ ॥
दुर्धरको मृत देखकर शस्त्रोंका महान् ज्ञाता त्रिनेत्र रणभूमिमें आकर सात बाणोंसे भगवती परमेश्वरीपर आघात करने लगा ॥ ३१ ॥

अनागतांस्तु चिच्छेद देवी तान्विशिखैः शरान् ।
त्रिशूलेन त्रिनेत्रं तु जघान जगदम्बिका ॥ ३२ ॥
वे बाण देवीके पास पहुँच भी नहीं पाये थे कि बीचहीमें उन्होंने अपने बाणोंसे उन बाणोंको काट दिया । तत्पश्चात् जगदम्बाने अपने त्रिशूलसे त्रिनेत्रको मार डाला ॥ ३२ ॥

अन्धकस्त्वाजगामाशु हतं दृष्ट्वा त्रिलोचनम् ।
गदया लोहमय्याऽऽशु सिंहं विव्याध मस्तके ॥ ३३ ॥
सिंहस्तु नखघातेन तं हत्वा बलवत्तरम् ।
चखाद तरसा मांसमन्धकस्य रुषान्वितः ॥ ३४ ॥
तब त्रिनेत्रको मारा गया देखकर तुरंत अन्धक आ गया और उसने अपनी लौहमयी गदासे सिंहके मस्तकपर प्रहार कर दिया, किंतु सिंह क्रोध भरकर अपने तीक्ष्ण नखोंके प्रहारसे उस महान बलशाली दानवका वध करके उसका मांस खाने लगा ॥ ३३-३४ ॥

तान् रणे निहतान्वीक्ष्य दानवो विस्मयं गतः ।
चिक्षेप तरसा बाणानतितीक्ष्णाञ्छिलाशितान् ॥ ३५ ॥
उन्हें रणमें मारा गया देखकर महिषासुरको बहुत आश्चर्य हुआ । अतएव वह और भी वेगके साथ अति तीक्ष्ण और पत्थरकी सानपर चढ़ाकर तीक्ष्ण किये हुए बाणोंको छोड़ने लगा ॥ ३५ ॥

द्विधा चक्रे शरान्देवी तानप्राप्ताञ्छिलीमुखैः ।
गदया ताडयामास दैत्यं वक्षसि चाम्बिका ॥ ३६ ॥
किंतु भगवतीने उन बाणोंको अपने पास पहुँचनेके पहले ही अपने बाणोंसे काटकर उनके दो टुकड़े कर दिये । इसी समय जगदम्बाने महिषासुरके वक्षपर अपनी गदासे आघात किया ॥ ३६ ॥

स गदाभिहतो मूर्च्छामवापामरबाधकः ।
विषह्य पीडां पापात्मा पुनरागत्य सत्वरः ॥ ३७ ॥
जघान गदया सिंहं मूर्ध्नि क्रोधसमन्वितः ।
सिंहोऽपि नखघातेन तं ददार महासुरम् ॥ ३८ ॥
देवताओंको दुःख देनेवाला महिष गदासे घायल होकर मूञ्छित हो गया । किंतु उस वेदनाको सहन करके वह पापी उठ खड़ा हुआ और पुनः तुरंत आकर उसने कोपाविष्ट होकर अपनी गदासे सिंहके मस्तकपर प्रहार कर दिया । तब सिंह भी नखोंके आघातसे उस महान् असुरको विदीर्ण करने लगा ॥ ३७-३८ ॥

विहाय पौरुषं रूपं सोऽपि सिंहो बभूव ह ।
नखैर्विदारयामास देवीसिंहं मदोत्कटम् ॥ ३९ ॥
तब महिषासुरने मानवरूप त्यागकर सिंहका रूप धारण कर लिया और वह अपने नखोंसे भगवतीक मतवाले सिंहको चीरने लगा ॥ ३९ ॥

तञ्च केसरिणं वीक्ष्य देवी क्रुद्धा ह्ययोमुखैः ।
शरैरवाकिरत्तीक्ष्णैः क्रूरैराशीविषैरिव ॥ ४० ॥
उसे सिंहरूपमें देखकर भगवती क्रोधित हो उठी और अपने लौहंमुख, तीक्ष्ण, क्रूर एवं सर्पसदृश बाणोंसे उसे बींधने लगीं ॥ ४० ॥

त्यक्त्वा स हरिरूपं तु गजो भूत्वा मदस्रवः ।
शैलशृङ्गं करे कृत्वा चिक्षेप चण्डिकां प्रति ॥ ४१ ॥
तदनन्तर सिंहरूप त्यागकर महिषासुरने मद बहाते हुए हाथीका रूप धारण करके अपनी सँड़से एक विशाल शैलशिखर उठाकर चण्डिकापर फेंका ॥ ४१ ॥

आगच्छन्तं गिरेः शृङ्गं देवी बाणैः शिलाशितैः ।
चकार तिलशः खण्डाञ्जहास जगदम्बिका ॥ ४२ ॥
उस पर्वतशिखरको आते देखकर भगवती जगदम्बाने पत्थरपर घिसकर तेज किये गये बाणोंसे उसे तिल-तिल करके काट डाला और वे बड़ी जोरसे अट्टहास करने लगीं ॥ ४२ ॥

उत्पत्य च तदा सिंहस्तस्य मूर्ध्नि व्यवस्थितः ।
नखैर्विदारयामास महिषं गजरूपिणम् ॥ ४३ ॥
उस समय देवीका सिंह उछलकर उसके मस्तकपर चढ़ बैठा और अपने तीक्ष्ण नखोंसे उस गजरूपधारी महिषको विदीर्ण करने लगा ॥ ४३ ॥

विहाय गजरूपं च बभूवाष्टापदी तथा ।
हन्तुकामो हरिं कोपाद्दारुणो बलवत्तरः ॥ ४४ ॥
अब महिषने क्रोधपूर्वक उस सिंहको मारनेके विचारसे हाथीका रूप त्यागकर अत्यन्त भीषण और बलवान् आठ पैरोंवाले शरभका रूप धारण कर लिया ॥ ४४ ॥

तं वीक्ष्य शरभं देवी खड्गेन सा रुषान्विता ।
उत्तमाङ्गे जघानाशु सोऽपि तां प्राहरत्तदा ॥ ४५ ॥
उस शरभको देखकर जगदम्बाने अतिशय क्रोधमें भरकर उसके मस्तकपर खड्गसे आघात किया । तब उसने भी भगवतीपर प्रहार किया ॥ ४५ ॥

तयोः परस्परं युद्धं बभूवातिभयप्रदम् ।
माहिषं रूपमास्थाय शृङ्गाभ्यां प्राहरत्तदा ॥ ४६ ॥
अब उन दोनोंमें महाभयंकर युद्ध होने लगा । उसी समय उसने महिषरूप धारण करके अपनी सींगोंसे देवीके ऊपर आघात किया ॥ ४६ ॥

पुच्छप्रभ्रमणेनाशु शृङ्गाघातैर्महासुरः ।
ताडयामास तन्वङ्गीं घोररूपो भयानकः ॥ ४७ ॥
विकराल रूपवाला तथा भयानक वह महान् असुर अपनी पूंछके घुमाने तथा सींगोंसे कोमल अंगोंवाली देवीपर प्रहार करने लगा ॥ ४७ ॥

पुच्छेन पर्वताञ्छृङ्गे गृहीत्वा भ्रामयन्बलात् ।
प्रेषयामास पापात्मा प्रहसन्परया मुदा ॥ ४८ ॥
वह पापी अपनी पूँछसे पर्वतोंको सींगपर रखकर बड़े वेगसे घुमाता हुआ हँसकर अति प्रसन्नतापूर्वक भगवतीके ऊपर फेंकने लगा ॥ ४८ ॥

तामुवाच बलोन्मत्तस्तिष्ठ देवि रणाङ्गणे ।
अद्याहं त्वां हनिष्यामि रूपयौवनभूषिताम् ॥ ४९ ॥
बलसे उन्मत्त उस दानवने भगवतीसे कहा-हे देवि ! ठहरो । रूप और यौवनसे सम्पन्न तुमको मैं आज मार डालूँगा ॥ ४९ ॥

मूर्खासि मदमत्ताद्य यन्मया सह सङ्गरम् ।
करोषि मोहितातीव मृषा बलवती खरा ॥ ५० ॥
तुम मूर्ख हो जो कि मदमत्त हो मेरे साथ युद्ध कर रही हो । तुम अज्ञानवश अपनेको व्यर्थ ही बलवती समझकर मुखर हो रही हो ॥ ५० ॥

हत्वा त्वां निहनिष्यामि देवान्कपटपण्डितान् ।
ये नारीं पुरतः कृत्वा जेतुमिच्छन्ति मां शठाः ॥ ५१ ॥
तुम्हें मारनेके बाद मैं उन सब कपटपण्डित देवताओंको मार डालूँगा, जो शठ देवतागण एक स्त्रीको आगे करके मुझे जीतना चाहते हैं ॥ ५१ ॥

देव्युवाच
मा गर्वं कुरु मन्दात्मंस्तिष्ठ तिष्ठ रणाङ्गणे ।
करिष्यामि निरातङ्कान्हत्वा त्वां सुरसत्तमान् ॥ ५२ ॥
देवी बोलीं-अरे मूर्ख ! व्यर्थ अभिमान मत करो, रणभूमिमें ठहर जाओ, ठहर जाओ । तुम्हें मारकर मैं देवताओंको निर्भय बना दूंगी ॥ ५२ ॥

पीत्वाद्य माधवीं मिष्टां शातयामि रणेऽधम ।
देवानां दुःखदं पापं मुनीनां भयकारकम् ॥ ५३ ॥
अरे अधम ! मैं अभी मधुर मद्य पीकर देवताओंके लिये दुःखदायी और मुनियोंको भयभीत करनेवाले तुझ पापीको रणमें काट डालूँगी ॥ ५३ ॥

व्यास उवाच
इत्युक्त्वा चषकं हैमं गहीत्वा सुरया युतम् ।
पपौ पुनः पुनः क्रोधाद्धन्तुकामा महासुरम् ॥ ५४ ॥
व्यासजी बोले-ऐसा कहकर क्रोधपूर्वक उस दैत्यको मार डालनेके विचारसे भगवती मद्यपूर्ण सोनेका पात्र लेकर बारम्बार उसे पीने लगीं ॥ ५४ ॥

पीत्वा द्राक्षासवं मिष्टं शूलमादाय सत्वरा ।
दुद्राव दानवं देवी हर्षयन्देवतागणान् ॥ ५५ ॥
उस मीठे द्राक्षारसको पीकर भगवती बड़े वेगसे अपना त्रिशूल उठाकर देवताओंको हर्षित करती हुई उस दानवपर झपटौं ॥ ५५ ॥

देवास्तां तुष्टुवुः प्रेष्णा चक्रुः कुसुमवर्षणम् ।
जय जीवेति ते प्रोचुर्दुन्दुभीनाञ्च निःस्वनैः ॥ ५६ ॥
उस समय देवता प्रेमपूर्वक उनकी स्तुति करने लगे और पुष्पवर्षा करने लगे । वे दुन्दुभियोंकी ध्वनिके साथ देवीकी जय हो-ऐसा बार-बार कहने लगे ॥ ५६ ॥

ऋषयः सिद्धगन्धर्वाः पिशाचोरगचारणाः ।
किन्नराः प्रेक्ष्य संग्रामं मुदिता गगने स्थिताः ॥ ५७ ॥
सभी ऋषि, सिद्ध, गन्धर्व, पिशाच, नाग, चारण और किन्नरगण आकाशमण्डलमें स्थित होकर उस युद्धको देखकर आनन्दित हो रहे थे ॥ ५७ ॥

सोऽपि नानाविधान्देहान्कृत्वा कृत्वा पुनः पुनः ।
मायामयाञ्जघानाजौ देवीं कपटपण्डितः ॥ ५८ ॥
कपटकार्यमें प्रवीण वह महिषासुर रणभूमिमें बार-बार विविध प्रकारके मायामय शरीर धारण करके भगवतीपर प्रहार करने लगा ॥ ५८ ॥

चण्डिकापि च तं पापं त्रिशूलेन बलाद्‌धृदि ।
ताडयामास तीक्ष्णेन क्रोधादरुणलोचना ॥ ५९ ॥
तब क्रोधसे लाल नेत्र करके चण्डिकाने अपने तीक्ष्ण त्रिशूलसे उस पापीके हृदयदेशपर बलपूर्वक आघात किया ॥ ५९ ॥

ताडितोऽसौ पपातोर्व्यां मूर्च्छामाप मुहूर्तकम् ।
पुनरुत्थाय चामुण्डां पद्‌भ्यां वेगादताडयत् ॥ ६० ॥
विनिहत्य पदाघातैर्जहास च मुहुर्मुहुः ।
रुराव दारुणं शब्दं देवानां भयकारकम् ॥ ६१ ॥
उससे आहत होकर महिषासुर भूमिपर गिर पड़ा और मूच्छित हो गया, किंतु मुहूर्तभर बाद पुनः उठकर अपने पैरोंसे वेगपूर्वक देवी चामुण्डाको मारने लगा । इस प्रकार पदप्रहारोंसे देवीको चोट पहुंचाकर वह बारम्बार हँसने लगा और देवताओंको भयभीत कर देनेवाली भीषण ध्वनि करके चिल्लाने लगा ॥ ६०-६१ ॥

ततो देवी सहस्रारं सुनाभं चक्रमुत्तमम् ।
करे कृत्वा जगादोच्चैः संस्थितं महिषासुरम् ॥ ६२ ॥
पश्य चक्रं मदान्धाद्य तव कण्ठनिकृन्तनम् ।
क्षणमात्रं स्थिरो भूत्वा यमलोकं व्रजाधुना ॥ ६३ ॥
तदनन्तर भगवतीने हजार अरों और सुन्दर नाभिवाला एक उत्कृष्ट चक्र हाथमें लेकर अपने समक्ष खड़े महिषासुरसे उच्च स्वरमें कहा-अर मदान्ध ! तुम्हारे गलेको काट डालनेवाले इस चक्रकी ओर देखो । तनिक देर और ठहरकर अब तुम यमलोकके लिये प्रस्थान कर दो ॥ ६२-६३ ॥

इत्युक्त्वा दारुणं चक्रं मुमोच जगदम्बिका ।
शिरश्छिन्नं रथाङ्गेन दानवस्य तदा रणे ॥ ६४ ॥
सुस्राव रुधिरं चोष्णं कण्ठनालाद्‌ गिरेर्यथा ।
गैरिकाद्यरुणं प्रौढं प्रवाहमिव नैर्झरम् ॥ ६५ ॥
कबन्धस्तस्य दैत्यस्य भ्रमन्वै पतितः क्षितौ ।
जयशब्दश्च देवानां बभूव सुखवर्धनः ॥ ६६ ॥
ऐसा कहकर जगदम्बाने युद्धभूमिमें उस दारुण चक्रको चला दिया । तब चक्रसे उस दानवका सिर कट गया । उस समय उसके कण्ठकी नलीसे इस्म प्रकार उष्ण रक्त बहने लगा, जैसे गेरू आदिसे युक्त लाल पानीका झरना बड़े वेगके साथ पर्वतम गिर रहा हो । [मस्तक कट जानेपर] उस दानवक धड़ घूमता हुआ भूमिपर गिर पड़ा । उस समय देवताओंके [मुखसे] सुखकी वृद्धि करनेवाला विजयघोष होने लगा । ६४-६६ ॥

सिंहस्त्वतिबलस्तत्र पलायनपरानथ ।
दानवान्भक्षयामास क्षुधार्त इव सङ्गरे ॥ ६७ ॥
अब भगवतीका महाबली सिंह मानो भूखसे व्याकुल होकर रणभूमिमें भागते हुए दानवोंको खाने लगा । ६७ ॥

मृते च महिषे क्रूरे दानवा भयपीडिताः ।
मृतशेषाश्च ये केचित्पातालं ते ययुर्नृप ॥ ६८ ॥
हे नृप ! क्रूर महिषासुरके मर जानेपर जो कोई दानव मरनेसे शेष बच गये थे, वे भयसे सन्त्रस्त होकर पाताल चले गये ॥ ६८ ॥

आनन्दं परमं जग्मुर्देवास्तस्मिन्निपातिते ।
मुनयो मानवाश्चैव ये चान्ये साधवः क्षितौ ॥ ६९ ॥
उसके मर जानेपर भूमण्डलपर जो भी देवता, मुनिगण, मनुष्य और साधुजन थे, वे परम आनन्दित हो गये ॥ ६९ ॥

चण्डिकापि रणं त्यक्त्वा शुभे देशेऽथ संस्थिता ।
देवास्तत्राययुः शीघ्रं स्तोतुकामाः सुखप्रदाम् ॥ ७० ॥
भगवती चण्डिका भी रणभूमि छोड़कर एक पवित्र स्थानमें विराजमान हो गयीं । देवता भी उन सुख प्रदान करनेवाली भगवतीकी स्तुति करनेकी इच्छासे शीघ्र ही वहाँ आ पहुँचे ॥ ७० ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां पञ्चमस्कन्धे
महिषासुरवधो नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
अध्याय अठारवाँ समाप्त ॥ १८ ॥


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