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महिषासुरवधः -
दुर्धर, त्रिनेत्र, अन्धक और महिषासुरका वध -
महिष उवाच तस्यास्तु भगिनी कन्या नाम्ना चेन्दुमती शुभा । विवाहयोग्या सञ्जाता सुरूपावरजा यदा ॥ १ ॥ तस्या विवाहः संवृत्तः सञ्जातश्च स्वयंवरः । राजानो बहुदेशीयाः सङ्गतास्तत्र मण्डपे ॥ २ ॥
महिष बोला-उस मन्दोदरीकी इन्दुमती नामकी एक छोटी बहन थी, जो समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न तथा अत्यन्त रूपवती थी । जब वह विवाहके योग्य हुई, तब उसके विवाहकी तैयारी होने लगी । उसका स्वयंवर रचाया गया, स्वयंवरके मण्डपमें अनेक देशोंके राजा एकत्रित हुए ॥ १-२ ॥
तया वृतो नृपः कश्चिद्बलवान् रूपसंयुतः । कुलशीलसमायुक्तः सर्वलक्षणसंयुतः ॥ ३ ॥
इन्दुमतीने उनमेंसे एक बलशाली, रूपवान, कुलीन, शीलवान् तथा समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न राजाका वरण कर लिया ॥ ३ ॥
तदा कामातुरा जाता विटं वीक्ष्य नृपं तु सा । चकमे दैवयोगात्तु शठं चातुर्यभूषितम् ॥ ४ ॥
उसी समय वह मन्दोदरी दैवयोगसे एक धूर्त, शठ तथा चातुर्यसम्पन्न राजाको देखकर कामातुर हो उठी और उसपर मोहित हो गयी ॥ ४ ॥
पितरं प्राह तन्वङ्गी विवाहं कुरु मे पितः । इच्छा मेऽद्य समुद्भूता दृष्ट्वा मद्राधिपं त्विह ॥ ५ ॥
उस कोमलांगीने अपने पितासे कहा-हे पिताजी ! अब आप मेरा भी विवाह कर दीजिये । मद्रदेशके राजाको यहाँ देखकर अब मेरी भी विवाह करनेकी इच्छा हो गयी है ॥ ५ ॥
चन्द्रसेनोऽपि तच्छ्रुत्वा पुत्र्या यद्भाषितं रहः । प्रसन्नेन च मनसा तत्कार्ये तत्परोऽभवत् ॥ ६ ॥
पुत्रीने एकान्तमें अपने पितासे जो कुछ कहा था, उसे सुनकर राजा चन्द्रसेन प्रसन्नमनसे उसके भी विवाहकार्यकी व्यवस्थामें संलग्न हो गये ॥ ६ ॥
तमाहूय नृपं गेहे विवाहविधिना ददौ । कन्यां मन्दोदरीं तस्मै पारिबर्हं तथा बहु ॥ ७ ॥
तत्पश्चात् मद्रदेशके उन राजाको अपने घर बुलाकर उन्होंने वैवाहिक विधिके अनुसार उन्हें अपनी कन्या मन्दोदरी सौंप दी और बहुत-सा वैवाहिक उपहार प्रदान किया ॥ ७ ॥
मद्रनरेश चारुदेष्ण भी उस सुन्दरीको पाकर बहुत प्रसन्न हुआ और सन्तुष्ट होकर स्त्रीके साथ अपने घर चला गया ॥ ८ ॥
रेमे नृपतिशार्दूलः कामिन्या बहुवासरान् । कदाचिद्दासपत्न्या स रममाणो रहः किल ॥ ९ ॥ सैरन्ध्र्या कथितं तस्यै तया दृष्टः पतिस्तथा । उपालम्भं ददौ तस्मै स्मितपूर्वं रुषान्विता ॥ १० ॥
राजाओंमें श्रेष्ठ वह चारुदेष्ण बहुत दिनोंतक उस कामिनीके साथ रमण करता रहा । एक दिन वह किसी दासीके साथ एकान्तमें रमण कर रहा था । सैरन्ध्रीने यह बात मन्दोदरीको बता दी और उसने स्वयं जाकर पतिको [उस स्थितिमें] देख लिया । तब उसने मुसकराकर क्रोधके साथ राजाको बहुत उपालम्भ दिया ॥ ९-१० ॥
इसके बाद पुनः किसी दिन मन्दोदरीने राजाको एक रूपवती दासीके साथ एकान्तमें क्रीडाविहार करते हुए देख लिया । [यह देखकर] उस समय उसे महान् कष्ट हुआ ॥ ११ ॥
न ज्ञातोऽयं शठः पूर्वं यदा दृष्टः स्वयंवरे । किं कृतं तु मया मोहाद्वञ्चिताहं नृपेण ह ॥ १२ ॥
वह सोचने लगी कि जब मैंने इसे स्वयंवरमें देखा था, तब मैं इस शठके विषयमें ऐसा नहीं समझ पायी थी । मैंने मोहवश यह क्या कर डाला ? इस राजाने तो मुझे ठग लिया ॥ १२ ॥
किं करोम्यद्य सन्तापं निर्लज्जे निर्घृणे शठे । का प्रीतिरीदृशे पत्यौ धिगद्य मम जीवितम् ॥ १३ ॥
अब मैं क्या करूँ; केवल सन्ताप ही मिला । ऐसे निर्लज्ज, निर्दयी और धूर्त पतिके प्रति प्रेम कैसे हो सकता है ! अब मेरे जीवनको धिक्कार है ॥ १३ ॥
आजसे मैं संसारमें पतिके साथ सहवाससे प्राप्त होनेवाले सारे सुखका त्याग कर रही हूँ; अब मैंने सन्तोष कर लिया ॥ १४ ॥
अकर्तव्यं कृतं कार्यं तज्जातं दुःखदं मम । देहत्यागः क्रियते चेद्धत्यातीव दुरत्यया ॥ १५ ॥ पितृगेहं व्रजाम्याशु तत्रापि न सुखं भवेत् । हास्ययोग्या सखीनां तु भवेयं नात्र संशयः ॥ १६ ॥ तस्मादत्रैव संवासो वैराग्ययुतया मया । कर्तव्यः कालयोगेन त्यक्त्वा कामसुखं पुनः ॥ १७ ॥
मैंने वह काम कर डाला, जिसे मुझे नहीं करना चाहिये था, इसीलिये वह मेरे लिये कष्टदायक सिद्ध हुआ । अब यदि मैं देहत्याग करती हूँ तो वह दुस्तर आत्महत्याके समान होगा । यदि पिताके घर चली जाऊँ तो वहाँ भी सुख नहीं मिलेगा और वहाँपर मैं अपनी सखियोंकी हँसीका पात्र बनी रहूँगी; इसमें कोई संशय नहीं है । अत: वैराग्ययुक्त होकर भोगविलासक सुखका परित्याग करके कालयोगसे मुझे यहींपर निवास करना चाहिये ॥ १५-१७ ॥
वे बाण देवीके पास पहुँच भी नहीं पाये थे कि बीचहीमें उन्होंने अपने बाणोंसे उन बाणोंको काट दिया । तत्पश्चात् जगदम्बाने अपने त्रिशूलसे त्रिनेत्रको मार डाला ॥ ३२ ॥
तब त्रिनेत्रको मारा गया देखकर तुरंत अन्धक आ गया और उसने अपनी लौहमयी गदासे सिंहके मस्तकपर प्रहार कर दिया, किंतु सिंह क्रोध भरकर अपने तीक्ष्ण नखोंके प्रहारसे उस महान बलशाली दानवका वध करके उसका मांस खाने लगा ॥ ३३-३४ ॥
उन्हें रणमें मारा गया देखकर महिषासुरको बहुत आश्चर्य हुआ । अतएव वह और भी वेगके साथ अति तीक्ष्ण और पत्थरकी सानपर चढ़ाकर तीक्ष्ण किये हुए बाणोंको छोड़ने लगा ॥ ३५ ॥
किंतु भगवतीने उन बाणोंको अपने पास पहुँचनेके पहले ही अपने बाणोंसे काटकर उनके दो टुकड़े कर दिये । इसी समय जगदम्बाने महिषासुरके वक्षपर अपनी गदासे आघात किया ॥ ३६ ॥
देवताओंको दुःख देनेवाला महिष गदासे घायल होकर मूञ्छित हो गया । किंतु उस वेदनाको सहन करके वह पापी उठ खड़ा हुआ और पुनः तुरंत आकर उसने कोपाविष्ट होकर अपनी गदासे सिंहके मस्तकपर प्रहार कर दिया । तब सिंह भी नखोंके आघातसे उस महान् असुरको विदीर्ण करने लगा ॥ ३७-३८ ॥
उससे आहत होकर महिषासुर भूमिपर गिर पड़ा और मूच्छित हो गया, किंतु मुहूर्तभर बाद पुनः उठकर अपने पैरोंसे वेगपूर्वक देवी चामुण्डाको मारने लगा । इस प्रकार पदप्रहारोंसे देवीको चोट पहुंचाकर वह बारम्बार हँसने लगा और देवताओंको भयभीत कर देनेवाली भीषण ध्वनि करके चिल्लाने लगा ॥ ६०-६१ ॥
तदनन्तर भगवतीने हजार अरों और सुन्दर नाभिवाला एक उत्कृष्ट चक्र हाथमें लेकर अपने समक्ष खड़े महिषासुरसे उच्च स्वरमें कहा-अर मदान्ध ! तुम्हारे गलेको काट डालनेवाले इस चक्रकी ओर देखो । तनिक देर और ठहरकर अब तुम यमलोकके लिये प्रस्थान कर दो ॥ ६२-६३ ॥
ऐसा कहकर जगदम्बाने युद्धभूमिमें उस दारुण चक्रको चला दिया । तब चक्रसे उस दानवका सिर कट गया । उस समय उसके कण्ठकी नलीसे इस्म प्रकार उष्ण रक्त बहने लगा, जैसे गेरू आदिसे युक्त लाल पानीका झरना बड़े वेगके साथ पर्वतम गिर रहा हो । [मस्तक कट जानेपर] उस दानवक धड़ घूमता हुआ भूमिपर गिर पड़ा । उस समय देवताओंके [मुखसे] सुखकी वृद्धि करनेवाला विजयघोष होने लगा । ६४-६६ ॥
भगवती चण्डिका भी रणभूमि छोड़कर एक पवित्र स्थानमें विराजमान हो गयीं । देवता भी उन सुख प्रदान करनेवाली भगवतीकी स्तुति करनेकी इच्छासे शीघ्र ही वहाँ आ पहुँचे ॥ ७० ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे महिषासुरवधो नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥