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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
पञ्चमः स्कन्धः
एकोनविंशोऽध्यायः

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देवीसान्त्वनम् -
देवताओंद्वारा भगवतीकी स्तुति -


व्यास उवाच
अथ प्रमुदिताः सर्वे देवा इन्द्रपुरोगमाः ।
महिषं निहतं दृष्ट्वा तुष्टुवुर्जगदम्बिकाम् ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-महिषासुरका संहार देखकर इन्द्र आदि प्रधान देवता परम प्रसन्न हुए और वे जगदम्बाकी स्तुति करने लगे ॥ १ ॥

देवा ऊचुः
ब्रह्मा सृजत्यवति विष्णुरिदं महेशः
     शक्त्या तवैव हरते ननु चान्तकाले ॥
ईशा न तेऽपि च भवन्ति तया विहीना-
     स्तस्मात्त्वमेव जगतः स्थितिनाशकर्त्री ॥ २ ॥
देवता बोले-हे देवि ! आपकी ही शक्तिसे ब्रह्मा इस जगत्का सृजन करते हैं, भगवान् विष्णु पालन करते हैं और शिवजी प्रलयकालमें संहार करते हैं । आपको शक्तिसे रहित हो जानेपर वे कुछ भी करनेमें समर्थ नहीं हो सकते । अतः जगत्का सृजन, पालन और संहार करनेवाली आप ही हैं ॥ २ ॥

कीर्तिर्मतिः स्मृतिगती करुणा दया त्वं
     श्रद्धा धृतिश्च वसुधा कमलाजपा च ।
पुष्टिः कलाथ विजया गिरिजा जया त्वं
     तुष्टिः प्रमा त्वमसि बुद्धिरुमा रमा च ॥ ३ ॥
विद्या क्षमा जगति कान्तिरपीह मेधा
     सर्वं त्वमेव विदिता भुवनत्रयेऽस्मिन् ।
आभिर्विना तव तु शक्तिभिराशु कर्तुं
     को वा क्षमः सकललोकनिवासभूमे ॥ ४ ॥
इस संसारमें कीर्ति, मति, स्मृति, गति, करुणा, दया, श्रद्धा, धृति, वसुधा, कमला, अजपा, पुष्टि, कला, विजया, गिरिजा, जया, तुष्टि, प्रमा, बुद्धि, उमा, रमा, विद्या, क्षमा, कान्ति और मेधा-ये सब शक्तियाँ आप ही हैं । इस त्रिलोकीमें आप विख्यात हैं । सम्पूर्ण जगत्को आश्रय देनेवाली हे देवि ! आपकी इन शक्तियोंके बिना कौन व्यक्ति कुछ भी स्वयं कर सकनेमें समर्थ है ? ॥ ३-४ ॥

त्वं धारणा ननु न चेदसि कूर्मनागौ
     धर्तुं क्षमौ कथमिलामपि तौ भवेताम् ।
पृथ्वी न चेत्त्वमसि वा गगने कथं स्था-
     स्यत्येतदम्ब निखिलं बहुभारयुक्तम् ॥ ५ ॥
हे अम्ब ! धारणा शक्ति भी निश्चितरूपसे आप ही हैं, अन्यथा कच्छप और शेषनाग इस पृथ्वीको धारण कर सकनेमें कैसे समर्थ हो पाते ? पृथ्वीशक्ति भी आप ही हैं । यदि आप इस रूपमें न होती तो प्रचुर भारसे सम्पन्न यह सम्पूर्ण जगत् आकाशमें कैसे ठहर सकता था ॥ ५ ॥

ये वा स्तुवन्ति मनुजा अमरान्विमूढा
     मायागुणैस्तव चतुर्मुखविष्णुरुद्रान् ।
शुभ्रांशुवह्नियमवायुगणेशमुख्यान्
     किं त्वामृते जननि ते प्रभवन्ति कार्ये ॥ ६ ॥
हे जननि ! जो मनुष्य मायाके गुणोंसे प्रभावित होकर ब्रह्मा, विष्णु, महेश, चन्द्रमा, अग्नि, यम, वायु, गणेश आदि प्रमुख देवताओंकी स्तुति करते हैं, वे अज्ञानी ही हैं; क्योंकि क्या वे देवता भी आपकी कृपाशक्तिके बिना उन मनुष्योंको कार्य-फल प्रदान करनेमें समर्थ हो सकते हैं ? ॥ ६ ॥

ये जुह्वति प्रविततेऽल्पधियोऽम्ब यज्ञे
     वह्नौ सुरान्समधिकृत्य हविः समृद्धम् ।
स्वाहा न चेत्त्वमसि ते कथमापुरद्धा
     त्वामेव किं न हि यजन्ति ततो हि मूढाः ॥ ७ ॥
हे अम्ब ! जो लोग सुविस्तृत यज्ञमें देवताओंको अधिकृत करके अग्निमें पुष्कल आहुति देते हैं, वे मन्दमति हैं; क्योंकि यदि स्वाहाके रूपमें आप न होतीं, तो वे देवता हविर्द्रव्यको कैसे पाते ? तब फिर वे मूढ़ आपका ही यजन क्यों नहीं करते ? ॥ ७ ॥

भोगप्रदासि भवतीह चराचराणां
     स्वांशैर्ददासि खलु जीवनमेव नित्यम् ।
स्वीयान्सुराञ्जननि पोषयसीह यद्व-
     त्तद्वत्परानपि च पालयसीति हेतोः ॥ ८ ॥
आप जगत्के चराचर प्राणियोंको भोग प्रदान करती हैं और अपने अंशोंसे उन्हें नित्य जीवन देती हैं । हे जननि. जिस प्रकार आप अपने प्रिय देवताओंका पोषण करती हैं, उसी प्रकार अपने शत्रुओका भी पालन करती हैं ॥ ८ ॥

मातः स्वयंविरचितान्विपिने विनोदा-
     द्वन्ध्यान्पलाशरहितांश्च कटूंश्च वृक्षान् ।
नोच्छेदयन्ति पुरुषा निपुणाः कथञ्चि-
     त्तस्मात्त्वमप्यतितरां परिपासि दैत्यान् ॥ ९ ॥
हे माता ! बुद्धिमान् पुरुष विनोदके लिये उद्यान में लगाये गये वृक्षोंमेंसे कुछ वृक्षोंके फल और पत्तों रहित हो जाने अथवा उन वृक्षोंका रस कड़वा निकल जानेपर भी उन्हें कभी भी नहीं काटते, उसी प्रकार आप भी [अपने ही बनाये हुए दैत्योंकी भलीभाँनि रक्षा करती हैं ॥ ९ ॥

यत्त्वं तु हंसि रणमूर्ध्नि शरैरराती-
     न्देवाङ्गनासुरतकेलिमतीन्विदित्वा ।
देहान्तरेऽपि करुणारसमाददाना
     तत्ते चरित्रमिदमीप्सितपूरणाय ॥ १० ॥
करुणारससे ओत-प्रोत हृदयवाली आप रणभूमि बाणोंद्वारा शत्रुओंका जो संहार करती हैं, वह में उनका मनोरथ पूर्ण करनेके लिये ही होता है; क्योंकि दुसरे जन्ममें देवांगनाओंके साथ क्रीड़ा-विहार करने इच्छावाला उन्हें जानकर ही आपके द्वारा ऐसा किन जाता है; ऐसा आपका अद्भुत चरित्र है ॥ १० ॥

चित्रं त्वमी यदसुभी रहिता न सन्ति
     त्वच्चिन्तितेन दनुजाः प्रथितप्रभावाः ।
येषां कृते जननि देहनिबन्धनं ते
     क्रीडारसस्तव न चान्यतरोऽत्र हेतुः ॥ ११ ॥
हे माता ! बड़ी विलक्षण बात तो यह है कि विख्यात प्रभावोंवाले उन दैत्योंका संहार जो आपके संकल्पमात्रसे ही सम्भव था, इसके लिये आपको अवतार लेना पड़ा । यह शरीर धारण करके आप वास्तवमें इसीके सहारे लीला करती हैं । इसमें कोई दूसरा कारण नहीं है ॥ ११ ॥

प्राप्ते कलावहह दुष्टतरे च काले
     न त्वां भजन्ति मनुजा ननु वञ्चितास्ते ।
धूर्तैः पुराणचतुरैर्हरिशङ्कराणां
     सेवापराश्च विहितास्तव निर्मितानाम् ॥ १२ ॥
जो मनुष्य इस विकराल कलिके उपस्थित होनेपर भी आपकी आराधना नहीं करते, अपितु आपके ही द्वारा निर्मित विष्णु, शिव आदि देवताओंकी उपासनामें तत्पर रहते हैं, वे लोग पुराण-चतुर धूर्तजनोंके द्वारा निश्चित रूपसे ठग लिये गये हैं ॥ १२ ॥

ज्ञात्वा सुरांस्तव वशानसुरार्दितांश्च
     ये वै भजन्ति भुवि भावयुता विभग्नान् ।
धृत्वा करे सुविमलं खलु दीपकं ते
     कूपे पतन्ति मनुजा विजलेऽतिघोरे ॥ १३ ॥
यह जानकर भी कि देवता आपके अधीन हैं तथा दैत्योंके द्वारा छिन्न-भिन्न और प्रताड़ित किये जाते हैं-जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक भूलोकमें अन्य देवताओंकी उपासना करते हैं, वे मानो हाथमें अत्यन्त प्रकाशमान दीपक लेकर भी किसी जलरहित भयानक कूपमें जा गिरते हैं ॥ १३ ॥

विद्या त्वमेव सुखदासुखदाप्यविद्या
     मातस्त्वमेव जननार्तिहरा नराणाम् ।
मोक्षार्थिभिस्तु कलिता किल मन्दधीभि-
     र्नाराधिता जननि भोगपरैस्तथाज्ञैः ॥ १४ ॥
हे माता ! आप ही सुखदायिनी विद्या तथा दु:खदायिनी अविद्या हैं और आप ही मनुष्योंके जन्म-मृत्युका दुःख दूर करनेवाली हैं । हे जननि ! मोक्षकी कामना करनेवाले लोग तो आपकी आराधना करते हैं, किंतु मन्दबुद्धि अज्ञानी तथा विषयभोगपरायण मनुष्य आपकी आराधना नहीं करते ॥ १४ ॥

ब्रह्मा हरश्च हरिरप्यनिशं शरण्यं
     पादाम्बुजं तव भजन्ति सुरास्तथान्ये ।
तद्वै न येऽल्पमतयो मनसा भजन्ति
     भ्रान्ताः पतन्ति सततं भवसागरे ते ॥ १५ ॥
ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा अन्य देवतागण आपके शरणदायक चरणकमलकी निरन्तर उपासना करते हैं, किंतु जो अल्पबुद्धि मनुष्य भ्रमित होकर मनसे आपकी आराधना नहीं करते, वे संसार-सागरमें बारबार गिरते हैं ॥ १५ ॥

चण्डि त्वदङ्‌घ्रिजलजोत्थरजःप्रसादै-
     र्ब्रह्मा करोति सकलं भुवनं भवादौ ।
शौरिश्च पाति खलु संहरते हरस्तु
     त्वां सेवते न मनुजस्त्विह दुर्भगोऽसौ ॥ १६ ॥
हे चण्डिके ! आपके चरण-कमलसे उत्पन्न हुई धूलिके प्रभावसे ही ब्रह्मा सृष्टिके प्रारम्भमें सम्पूर्ण भुवनकी रचना करते हैं, विष्णु पालन करते हैं और शिवजी संहार करते हैं । इस लोकमें जो मनुष्य आपकी उपासना नहीं करता, वह अभागा है ॥ १६ ॥

वाग्देवता त्वमसि देवि सुरासुराणां
     वक्तुं न तेऽमरवराः प्रभवन्ति शक्ताः ।
त्वं चेन्मुखे वससि नैव यदैव तेषां
     यस्माद्‌भवन्ति मनुजा न हि तद्विहीनाः ॥ १७ ॥
हे देवि ! आप ही देवताओं तथा दैत्योंकी वाग्देवता हैं । यदि आप मुखमें विराजमान न रहती, तो बड़े-बड़े देवता भी बोलनेमें समर्थ नहीं हो सकते थे । मुख होनेपर भी मनुष्य उस वाक्शक्तिके बिना बोल नहीं सकता ॥ १७ ॥

शप्तो हरिस्तु भृगुणा कुपितेन कामं
     मीनो बभूव कमठः खलु सूकरस्तु ।
पश्चान्नृसिंह इति यश्छलकृद्धरायां
     तान्सेवतां जननि मृत्युभयं न किं स्यात् ॥ १८ ॥
हे जननि ! महर्षि भृगुने कुपित होकर भगवान् विष्णुको शाप दे दिया, जिससे उन्हें पृथ्वीपर बारम्बार मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह और छली वामनका अवतार लेना पड़ा । तो फिर [एक ऋषिके शापसे अपनी रक्षा न कर पानेवाले ऐसे विष्णु आदि] उन देवताओंकी उपासना करनेवाले लोगोंको मृत्युका भय क्यों नहीं बना रहेगा ? ॥ १८ ॥

शम्भोः पपात भुवि लिङ्गमिदं प्रसिद्धं
     शापेन तेन च भृगोर्विपिने गतस्य ।
तं ये नरा भुवि भजन्ति कपालिनं तु
     तेषां सुखं कथमिहापि परत्र मातः ॥ १९ ॥
हे माता ! सम्पूर्ण संसारमें यह बात प्रसिद्ध है कि भृगुमुनिके काननमें गये हुए भगवान् शिवका लिंग मुनिके शापके कारण कटकर पृथ्वीपर गिर पडा था । अतः जो मनुष्य पृथ्वीपर उन कापालिक शिवको ही भजते हैं, उन्हें इस लोक तथा परलोकमें भी सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? ॥ १९ ॥

योऽभूद्‌ गजाननगणाधिपतिर्महेशा-
     त्तं ये भजन्ति मनुजा वितथप्रपन्नाः ।
जानन्ति ते न सकलार्थफलप्रदात्रीं
     त्वां देवि विश्वजननीं सुखसेवनीयाम् ॥ २० ॥
शिवसे जो गणोंके अधिपति गणेश उत्पन्न हुए हैं-उन गणेशको जो लोग भजते हैं, उनकी यह शरणागति व्यर्थ है । हे देवि ! वे लोग सभी प्रकारके अभीष्ट फल प्रदान करनेवाली तथा सुखपूर्वक आराधनीय आप जगज्जननीको नहीं जानते हैं ॥ २० ॥

चित्रं त्वयारिजनतापि दयार्द्रभावा-
     द्धत्वा रणे शितशरैर्गमिता द्युलोकम् ।
नोचेत्स्वकर्मनिचिते निरये नितान्तं
     दुःखातिदुःखगतिमापदमापतेत्सा ॥ २१ ॥
यह बड़ी विचित्र बात है कि आपने अपने शत्रुदैत्योंपर भी दया करके उन्हें तीक्ष्ण बाणोंसे रणमें मारकर स्वर्गलोक भेज दिया । यदि आप ऐसा न करतीं तो वे अपने कर्मोंके परिणामस्वरूप प्राप्त होनेवाले घोर नरकमें बड़े-से-बड़े दुःख और विपत्तिमें पड़ जाते ॥ २१ ॥

ब्रह्मा हरश्च हरिरप्युत गर्वभावा-
     ज्जानन्ति तेऽपि विबुधा न तव प्रभावम् ।
केऽन्ये भवन्ति मनुजा विदितुं समर्थाः
     सम्मोहितास्तव गुणैरमितप्रभावैः ॥ २२ ॥
जब ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवता भी अहंकारके कारण आपकी महिमा नहीं जानते, तब आपके अमित प्रभाववाले गुणोंसे मोहित तुच्छ मनुष्य आपकी महिमाको कैसे जान सकेंगे ? ॥ २२ ॥

क्लिश्यन्ति तेऽपि मुनयस्तव दुर्विभाव्यं
     पादाम्बुजं न हि भजन्ति विमूढचित्ताः ।
सूर्याग्निसेवनपराः परमार्थतत्त्वं
     ज्ञातं न तैः श्रुतिशतैरपि वेदसारम् ॥ २३ ॥
जो मुनिगण आपके स्वरूपको बड़ी कठिनतासे ध्यानमें आनेवाला समझकर आपके चरणकमलकी उपासना नहीं करते; अपितु सूर्य, अग्नि आदिको उपासनामें लगे रहते हैं, वे मूढ़बुद्धि अनेकविध कष्ट पाते हैं । समस्त श्रुतियोंके द्वारा प्रतिपादित वेदसारस्वरूप परमार्थतत्त्वको वे नहीं जान पाते ॥ २३ ॥

मन्ये गुणास्तव भुवि प्रथितप्रभावाः
     कुर्वन्ति ये हि विमुखान्ननु भक्तिभावात् ।
लोकान्स्वबुद्धिरचितैर्विविधागमैश्च
     विष्ण्वीशभास्करगणेशपरान्विधाय ॥ २४ ॥
मैं तो यही समझता हूँ कि अद्भुत प्रभावोंवाले जो आपके सत्त्व, रज और तम गुण हैं, वे ही मनुष्योंको उन्हींकी अपनी ही बुद्धिद्वारा विरचित अनेक प्रकारके शास्त्रोंमें उलझाकर उन्हें विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश आदिका उपासक बनाकर आपके भक्तिभावसे सर्वथा विमुख कर देते हैं ॥ २४ ॥

कुर्वन्ति ये तव पदाद्विमुखान्नराग्र्या-
     न्स्वोक्तागमैर्हरिहरार्चनभक्तियोगैः ।
तेषां न कुप्यसि दयां कुरुषेऽम्बिके त्वं
     तान्मोहमन्त्रनिपुणान्प्रथयस्यलं च ॥ २५ ॥
हे अम्बिके ! जो लोग विष्णु तथा शिवकी पूजा और भक्तिसे परिपूर्ण शास्त्रोंके उपदेशद्वारा ब्राह्मणोंको आपके चरणोंसे विमुख कर देते हैं, उनके ऊपर भी आप क्रोध नहीं करती हैं, बल्कि दया ही करती हैं और इसके अतिरिक्त मोहन आदि मन्त्रोंके ज्ञाताओंको भी आप संसारमें बहुत प्रसिद्ध बना देती हैं ॥ २५ ॥

तुर्ये युगे भवति चातिबलं गुणस्य
     तुर्यस्य तेन मथितान्यसदागमानि ।
त्वां गोपयन्ति निपुणाः कवयः कलौ वै
     त्वत्कल्पितान्सुरगणानपि संस्तुवन्ति ॥ २६ ॥
सत्ययुगमें सत्त्वगुणकी प्रबलता रहती है, अतः उस युगमें असत्-शास्त्रोंपर आस्था नहीं हो पाती । किंतु कलिमें तो कवित्वके अभिमानी लोग आपकी उपेक्षा करते हैं और आपहीके द्वारा बनाये गये देवताओंकी स्तुति करते हैं ॥ २६ ॥

ध्यायन्ति मुक्तिफलदां भुवि योगसिद्धां
     विद्यां पराञ्च मुनयोऽतिविशुद्धसत्त्वाः ।
ते नाप्नुवन्ति जननीजठरे तु दुःखं
     धन्यास्त एव मनुजास्त्वयि ये विलीनाः ॥ २७ ॥
इस पृथ्वीतलपर अत्यन्त शुद्ध अन्त:करणवाले जो सात्त्विक मुनिगण मुक्ति-फल प्रदान करनेवाली योगसिद्धा एवं पराविद्यास्वरूपिणी आप भगवतीका ध्यान करते हैं, वे पुनः माताके गर्भमें आकर कष्ट नहीं पाते । जो मनुष्य आपमें ध्यानमग्न हैं, वे धन्य हैं ॥ २७ ॥

चिच्छक्तिरस्ति परमात्मनि येन सोऽपि
     व्यक्तो जगत्सु विदितो भवकृत्यकर्ता ।
कोऽन्यस्त्वया विरहितः प्रभवत्यमुष्मिन्
     कर्तुं विहर्तुमपि सञ्चलितुं स्वशक्त्या ॥ २८ ॥
आप चित्-शक्ति हैं और वही चित्-शक्ति परमात्मामें विद्यमान है, जिसके कारण वे भी [नाम और रूपसे] अभिव्यक्त होकर इस जगत्के सृजन, पालन एवं संहाररूपी कार्योंके कर्ताके रूपमें लोकोंमें प्रसिद्ध होते हैं । उन परमात्माके अतिरिक्त दूसरा कौन है, जो आपसे रहित होकर अपनी शक्तिसे इस जगत्का सृजन, पालन और संहार करने में समर्थ हो सकता है ? ॥ २८ ॥

तत्त्वानि चिद्विरहितानि जगद्विधातुं
     किं वा क्षमाणि जगदम्ब यतो जडानि ।
किं चेन्द्रियाणि गुणकर्मयुतानि सन्ति
     देवि त्वया विरहितानि फलं प्रदातुम् ॥ २९ ॥
हे जगदम्बे ! क्या चित्-शून्य तत्त्व जगत्की रचना करने में समर्थ हो सकते हैं ? चूँकि तत्त्व जड़ हैं, अत: वे जगत्की रचनामें समर्थ नहीं हैं । हे देवि ! यद्यपि इन्द्रियाँ गुण तथा कर्मसे युक्त हैं, फिर भी आपसे रहित होकर क्या वे फल प्रदान कर सकती हैं ? ॥ २९ ॥

देवा मखेष्वपि हुतं मुनिभिः स्वभागं
     गृह्णीयुरम्ब विधिवत्प्रतिपादितं किम् ।
स्वाहा न चेत्त्वमसि तत्र निमित्तभूता
     तस्मात्त्वमेव ननु पालयसीव विश्वम् ॥ ३० ॥
हे माता ! यदि आप यज्ञोंमें 'स्वाहा' के रूपमें निमित्त न बनतीं तो क्या देवगण उन यज्ञोंमें मुनियोंके द्वारा विधिवत् प्रदत्त आहुति-रूप यज्ञभाग प्राप्त करते ? अतः यह निश्चय हो गया कि आप ही विश्वका पालन करती हैं ॥ ३० ॥

सर्वं त्वयेदमखिलं विहितं भवादौ
     त्वं पासि वै हरिहरप्रमुखान्दिगीशान् ।
कालेऽत्सि विश्वमपि ते चरितं भवाद्यं
     जानन्ति नैव मनुजाः क्व नु मन्दभाग्याः ॥ ३१ ॥
सृष्टिके प्रारम्भमें इस सम्पूर्ण जगत्की रचना आपने ही की है, आप ही विष्णु-शिव आदि प्रमुख देवताओं तथा दिक्पालोंकी रक्षा करती हैं और प्रलयकालमें आप ही सम्पूर्ण विश्वको अपनेमें विलीन कर लेती हैं । [हे देवि !] जब ब्रह्मा आदि देवता भी आपके आद्य चरित्रको नहीं जान पाते, तब मन्दभाग्य हम देवता उसे कैसे जान सकते हैं ? ॥ ३१ ॥

हत्वासुरं महिषरूपधरं महोग्रं
     मातस्त्वया सुरगणः किल रक्षितोऽयम् ।
कां ते स्तुतिं जननि मन्दधियो विदामो
     वेदा गतिं तव यथार्थतया न जग्मुः ॥ ३२ ॥
हे माता ! आपने महिषका रूप धारण करनेवाले अत्यन्त उग्र असुरका वध करके इस देवसमुदायकी रक्षा की है । हे जननि ! जब वेद भी यथार्थरूपसे आपकी गतिको नहीं जान पाये, तब हम मन्दबुद्धि देवता उसे कैसे जान सकते हैं, हम कैसे आपकी स्तुति करें ? ॥ ३२ ॥

कार्यं कृतं जगति नो यदसौ दुरात्मा
     वैरी हतो भुवनकण्टकदुर्विभाव्यः ।
कीर्तिः कृता ननु जगत्सु कृपा विधेया-
     प्यस्मांश्च पाहि जननि प्रथितप्रभावे ॥ ३३ ॥
विख्यात प्रभाववाली हे जननि ! आपने जगत्में महान् कार्य किया है जो कि आपने संसारके अचिन्त्य कण्टकस्वरूप हमारे शत्रु दुरात्मा महिषासुरका वध कर दिया । ऐसा करके आपने सम्पूर्ण लोकोंमें अपनी कीर्ति स्थापित कर दी है, अब आप सारे संसारपर अनुग्रह करें और हमारी रक्षा करें ॥ ३३ ॥

व्यास उवाच
एवं स्तुता सुरैर्देवी तानुवाच मृदुस्वरा ।
अन्यत्कार्यं च दुःसाध्यं ब्रुवन्तु सुरसत्तमाः ॥ ३४ ॥
यदा यदा हि देवानां कार्यं स्यादतिदुर्घटम् ।
स्मर्तव्याहं तदा शीघ्रं नाशयिष्यामि चापदम् ॥ ३५ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार देवताओंके स्तुति करनेपर देवीने मधुर स्वरमें उनसे कहाहे श्रेष्ठ देवतागण ! इसके अतिरिक्त भी कोई दुःसाध्य कार्य हो तो उसे आपलोग बता दीजिये । जब-जब आप देवताओंके सामने कोई महान् दुःसाध्य कार्य उपस्थित हो, तब-तब आपलोग मेरा स्मरण कीजियेगा; मैं उस संकटको शीघ्र ही दूर कर दूंगी ॥ ३४-३५ ॥

देवा ऊचुः
सर्वं कृतं त्वया देवि कार्यं नः खलु साम्प्रतम् ।
यदयं निहतः शत्रुरस्माकं महिषासुरः ॥ ३६ ॥
देवता बोले-हे देवि ! इस समय आपने हमारा सारा कार्य पूर्ण कर दिया है जो कि आपके द्वारा हमारा शत्रु यह महिषासुर मार डाला गया ॥ ३६ ॥

स्मरिष्यामो यथा तेऽम्ब सदैव पदपङ्कजम् ।
तथा कुरु जगन्मातर्भक्तिं त्वय्यप्यचञ्चलाम् ॥ ३७ ॥
हे आम्ब ! हे जगज्जननि ! अब आप हमारे मनमें अपने प्रति ऐसी अविचल भक्ति स्थापित कीजिये कि हम सदा आपके चरण-कमलका स्मरण करते रहें ॥ ३७ ॥

अपराधसहस्राणि मातैव सहते सदा ।
इति ज्ञात्वा जगद्योनिं न भजन्ते कुतो जनाः ॥ ३८ ॥
माता ही [अपनी सन्तानके] हजारों अपराध सह सकती है-ऐसा समझकर लोग जगत्की उत्पत्तिस्वरूपा भगवतीकी उपासना क्यों नहीं करते ? ॥ ३८ ॥

द्वौ सुपर्णो तु देहेऽस्मिंस्तयोः सख्यं निरन्तरम् ।
नान्यः सखा तृतीयोऽस्ति योऽपराधं सहेत हि ॥ ३९ ॥
तस्माज्जीवः सखायं त्वां हित्वा किं नु करिष्यति ।
पापात्मा मन्दभाग्योऽसौ सुरमानुषयोनिषु ॥ ४० ॥
प्राप्य देहं सुदुष्प्रापं न स्मरेत्त्वां नराधमः ।
इस देहरूपी वृक्षपर जीवात्मा और परमात्मारूपी दो पक्षी रहते हैं । उन दोनों में सर्वदा मित्रता बनी रहती है, किंतु उनका तीसरा सखा ऐसा कोई भी नहीं है, जो अपराधको सह सके । अतएव यह जीव आपजैसे मित्रको त्यागकर क्या करेगा ? देवताओं और मानवोंकी योनिमें वह प्राणी पापी, मन्दभागी और अधम है, जो अत्यन्त दुर्लभ देह पाकर भी आपका स्मरण नहीं करता ॥ ३९-४०.५ ॥

मनसा कर्मणा वाचा ब्रूमः सत्यं पुनः पुनः ॥ ४१ ॥
सुखे वाप्यथवा दुःखे त्वं नः शरणमद्‌भुतम् ।
पाहि नः सततं देवि सर्वैस्तव वरायुधैः ॥ ४२ ॥
अन्यथा शरणं नास्ति त्वत्पादाम्बुजरेणुतः ।
हम मन, वाणी और कर्मसे बार-बार यह सत्य कह रहे हैं कि सुख अथवा दुःख-प्रत्येक परिस्थितिमें एकमात्र आप ही हमारे लिये अद्भुत शरण हैं । हे देवि ! आप अपने समस्त श्रेष्ठ आयुधोंद्वारा हमारी निरन्तर रक्षा करें । आपके चरणकमलोंकी धूलिको छोड़कर हमारे लिये कोई दूसरा शरण नहीं है । ४१-४२.५ ॥

व्यास उवाच
एवं स्तुता सुरैर्देवी तत्रैवान्तरधीयत ।
विस्मयं परमं जग्मुर्देवास्तां वीक्ष्य निर्गताम् ॥ ४३ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार देवताओंके स्तुति करनेपर भगवती जगदम्बा वहीं अन्तर्धान हो गयीं । तब उन्हें अन्तर्हित देखकर देवता बड़े विस्मयमें पड़ गये ॥ ४३ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां पञ्चमस्कन्धे
देवीसान्त्वनं नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
अध्याय उन्निसवाँ समाप्त ॥ १९ ॥


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