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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
पञ्चमः स्कन्धः
विंशोऽध्यायः

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महिषवधानन्तरं पृथिवीसुखवर्णनम् -
देवीका मणिद्वीप पधारना तथा राजा शत्रुघ्नका भूमण्डलाधिपति बनना -


जनमेजय उवाच -
अथाद्‌भुतं वीक्ष्य मुने प्रभावं
     देव्या जगच्छान्तिकरं परञ्च ।
न तृप्तिरस्ति द्विजवर्य शृण्वतः
     कथामृतं ते मुखपद्मजातम् ॥ १ ॥
अन्तर्हितायां च तदा भवान्या
     चक्रुश्च किं देवपुरोगमास्ते ।
देव्याश्चरित्र परमं पवित्रं
     दुरापमेवाल्पपुण्यैर्नराणाम् ॥ २ ॥
जनमेजय बोले-हे मुने ! अब मैंने भगवतीके अत्यन्त अद्भुत तथा जगत्को शान्ति प्रदान करनेवाले प्रभावको तो देख लिया, फिर भी हे द्विजवर ! आपके मुखारविन्दसे निकली हुई सुधामयी कथाको बार-बार सुनते हुए भी मुझे तृप्ति नहीं हो रही है । [अब आप बतायें] भगवतीके अन्तर्धान हो जानेपर उन प्रधान देवताओंने क्या किया ? देवीका यह परम पावन चरित्र मनुष्योंके अल्प पुण्योंसे प्राप्त हो सकना सर्वथा दुर्लभ ही है ॥ १-२ ॥

कस्तृप्तिमाप्नोति कथामृतेन
     भिन्नोऽल्पभाग्यात्पटुकर्णरन्ध्रः ।
पीतेन येनामरतां प्रयाति
     धिक्तान्नरान् ये न पिबन्ति सादरम् ॥ ३ ॥
अल्पभाग्यवाले मनुष्यको छोड़कर भगवतीके कथाश्रवणमें सदा तत्पर कर्णपुटवाला ऐसा कौन होगा जो देवीके कथामृतसे तृप्ति प्राप्त कर लेता है ? जिस कथामृतका पान करनेसे मनुष्य अमरत्व प्राप्त कर लेता है, उसे जो आदरपूर्वक नहीं पीते, उन मनुष्योंको धिक्कार है ॥ ३ ॥

लीलाचरित्रं जगदम्बिकाया
     रक्षान्वितं देवमहामुनीनाम् ।
संसारवार्धेस्तरणं नराणां
     कथं कृतज्ञा हि परित्यजेयुः ॥ ४ ॥
भगवती जगदम्बाका लीलाचरित्र देवताओं और बड़े-बड़े मुनियोंके लिये भी रक्षाका परम साधन है । [यह लीलाचरित्र] मनुष्योंको संसारसागरसे पार करनेके लिये एक नौका है । कृतज्ञजन उस चरित्रको भला कैसे त्याग सकते हैं ? ॥ ४ ॥

मुक्ताश्च ये चैव मुमुक्षवश्च
     संसारिणो रोगयुताश्च केचित् ।
तेषां सदा श्रोत्रपुटैश्च पेयं
     सर्वार्थदं वेदविदो वदन्ति ॥ ५ ॥
तथा विशेषेण मुने नृपाणां
     धर्मार्थकामेषु सदा रतानाम् ।
मुक्ताश्च यस्मात्खलु तत्पिबन्ति
     कथं न पेयं रहितैश्च तेभ्यः ॥ ६ ॥
जीवन्मुक्त तथा मोक्षकी कामना करनेवाले अथवा रोगग्रस्त जो कोई भी सांसारिक प्राणी हों. उन सबको चाहिये कि वे अपने कर्णपुटसे भगवतीके इस सर्वार्थदायक कथामृतका पान करते रहें-ऐसा वेदवेत्ता कहते हैं । हे मुने ! धर्म, अर्थ और काममें तत्पर राजाओंको तो विशेष रूपसे कथामृतका पान करना चाहिये । जब मुक्त प्राणीतक उस कथामृतका पान करते हैं, तब मुक्तिसे वंचित जन इसका पान क्यों न करें ! ॥ ५-६ ॥

यैः पूजिता पूर्वभवे भवानी
     सत्कुन्दपुष्पैरथ चम्पकैश्च ।
बैल्वैर्दलैस्ते भुवि भोगयुक्ता
     नृपा भवन्तीत्यनुमेयमेवम् ॥ ७ ॥
यह अनुमान करना चाहिये कि जिन लोगों अपने पूर्वजन्ममें सुन्दर कुन्दपुष्पों, चम्पाके पुष्पों तथा बिल्वपत्रोंसे भगवतीका पूजन किया है, वे है इस जन्ममें भूतलपर भोग तथा ऐश्वर्यसे सम्पन्न राजा होते हैं । ॥ ७ ॥

ये भक्तिहीना समवाप्य देहं
     तं मानुषं भारतभूमिभागे ।
यैर्नार्चिता ते धनधान्यहीना
     रोगान्विताः सन्ततिवर्जिताश्च ॥ ८ ॥
भ्रमन्ति नित्यं किल दासभूता
     आज्ञाकराः केवलभारवाहाः ।
दिवानिशं स्वार्थपराः कदापि
     नैवाप्नुवन्त्यौदरपूर्तिमात्रम् ॥ ९ ॥
जो मनुष्य [पवित्र] भारत-भूभागमें यह मानवशरीर पाकर भी भगवतीकी भक्तिसे रहित हैं तथा जिन्होंने उनकी आराधना नहीं की, वे सदा धनधान्यसे हीन, रोगग्रस्त और नि:सन्तान रहते हैं; साध ही वे लोग दूसरोंके दास बनकर निरन्तर घूमते रहते हैं और आज्ञाकारी होकर दूसरोंका भार ढोया करते हैं । वे दिन-रात स्वार्थसाधनमें लगे रहते हैं, फिर भी उन्हें अपना पेट भरनेतकके लिये अन्न कभी नहीं मिलता ॥ ८-९ ॥

अन्धाश्च मूका बधिराश्च खञ्जाः
     कुष्ठान्विता ये भुवि दुःखभाजः ।
तत्रानुमानं कविभिर्विधेयं
     नाराधिता तैः सततं भवानी ॥ १० ॥
इस संसारमें जो लोग अन्धे, गूंगे, बहरे, लूले और कोढ़ीके रूपमें कष्ट भोग रहे हैं, उनके विषयमें विद्वानोंको यह अनुमान कर लेना चाहिये कि उन्होंने भगवतीकी निरन्तर आराधना नहीं की है ॥ १० ॥

ये राजभोगान्वितऋद्धिपूर्णाः
     संसेव्यमाना बहुभिर्मनुष्यैः ।
दृश्यन्ति ये वा विभवैः समेता-
     स्तैः पूजिताम्बेत्यनुमेयमेव ॥ ११ ॥
जो लोग राजोचित भोगसे युक्त, ऐश्वर्यसे सम्पन्न, अनेक मनुष्योंसे सेवित और वैभवशाली दिखायी पड़ते हैं, उनके विषयमें यह अनुमान लगाना चाहिये कि उन्होंने अवश्य ही जगदम्बाकी उपासना की है ॥ ११ ॥

तस्मात्सत्यवतीसूनो देव्याश्चरितमुत्तमम् ।
कथयस्व कृपां कृत्वा दयावानसि साम्प्रतम् ॥ १२ ॥
अतएव हे सत्यवतीनन्दन ! अब आप कृपा करके भगवतीके उत्तम चरित्रका वर्णन कीजिये; आप बड़े दयालु हैं ॥ १२ ॥

हत्वा तं महिषं पापं स्तुता सम्पूजिता सुरैः ।
क्व गता सा महालक्ष्मीः सर्वतेजःसमुद्‌भवा ॥ १३ ॥
उस पापी महिषासुरका वध करनेके पश्चात् देवताओंसे भलीभाँति पूजित होकर सभी देवताओंके तेजसे प्रादुर्भूत वे भगवती महालक्ष्मी कहाँ चली गयीं ? ॥ १३ ॥

कथितं ते महाभाग गतान्तर्धानमाशु सा ।
स्वर्गे वा मृत्युलोके वा संस्थिता भुवनेश्वरी ॥ १४ ॥
लयं गता वा तत्रैव वैकुण्ठे वा समाश्रिता ।
अथवा हेमशैले सा तत्त्वतो मे वदाधुना ॥ १५ ॥
हे महाभाग ! आपने अभी कहा है कि वे तुरंत अन्तर्धान हो गयीं । स्वर्गलोक अथवा मृत्युलोक किस जगह वे भगवती भुवनेश्वरी प्रतिष्ठित हुई ? वे वहींपर विलीन हो गयीं या वैकुण्ठधाममें विराजने लगीं अथवा वे सुमेरुपर्वतपर विराजमान हुईं, अब आप मुझे यह सब यथार्थरूपमें बतायें ॥ १४-१५ ॥

व्यास उवाच
पूर्वं मया ते कथितं मणिद्वीपं मनोहरम् ।
क्रीडास्थानं सदा देव्या वल्लभं परमं स्मृतम् ॥ १६ ॥
यत्र ब्रह्मा हरिः स्थाणुः स्त्रीभावं ते प्रपेदिरे ।
पुरुषत्वं पुनः प्राप्य स्वानि कार्याणि चक्रिरे ॥ १७ ॥
यः सुधासिन्धुमध्येऽस्ति द्वीपः परमशोभनः ।
नानारूपैः सदा तत्र विहारं कुरुतेऽम्बिका ॥ १८ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] इसके पहले मैं आपसे रमणीय मणिद्वीपका वर्णन कर चुका हूँ । वह भगवतीका क्रीडास्थल है तथा उनके लिये सदा परम प्रिय बतलाया गया है । जहाँ ब्रह्मा, विष्णु और महेश स्त्रीरूपमें परिणत हो गये थे और पुनः पुरुषत्व पाकर वे अपने-अपने कार्योंमें संलग्न हो गये । वह परम सुन्दर द्वीप सुधासागरके मध्यमें विराजमान है । भगवती जगदम्बा वहाँ अनेक रूपोंमें सदा विहार करती रहती हैं ॥ १६-१८ ॥

स्तुता सम्पूजिता देवैः सा तत्रैव गता शिवा ।
यत्र संक्रीडते नित्यं मायाशक्तिः सनातनी ॥ १९ ॥
[महिषासुरके वधके पश्चात् ] देवताओंसे स्तुत तथा भलीभाँति पूजित होकर वे सनातनी मायाशक्ति भगवती शिवा उसी मणिद्वीपमें चली गयीं, जहाँ वे निरन्तर विहार करती रहती हैं ॥ १९ ॥

देवास्तां निर्गतां वीक्ष्य देवीं सर्वेश्वरीं तथा ।
रविवंशोद्‌भवं चक्रुर्भूमिपालं महाबलम् ॥ २० ॥
अयोध्याधिपतिं वीरं शत्रुघ्नं नाम पार्थिवम् ।
सर्वलक्षणसम्पन्नं महिषस्यासने शुभे ॥ २१ ॥
दत्त्वा राज्यं तदा तस्मै देवा इन्द्रपुरोगमाः ।
स्वकीयैर्वाहनैः सर्वे जग्मुः स्वान्यालयानि ते ॥ २२ ॥
उन सर्वेश्वरी भगवतीको अन्तर्हित देखकर देवताओंने सूर्यवंशमें उत्पन्न, महाबली एवं सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न अयोध्याधिपति शत्रुघ्न नामक पराक्रमी राजाको महिषासुरके सुन्दर आसनपर अभिषिक्त किया । इस प्रकार इन्द्र आदि सभी प्रधान देवता शत्रुघ्नको राज्य प्रदान करके अपने-अपने वाहनोंसे अपने-अपने स्थानोंको चले गये ॥ २०-२२ ॥

गतेषु तेषु देवेषु पृथिव्यां पृथिवीपते ।
धर्मराज्यं बभूवाथ प्रजाश्च सुखितास्तथा ॥ २३ ॥
पर्जन्यः कालवर्षी च धरा धान्यगुणावृता ।
पादपाः फलपुष्पाढ्या बभूवुः सुखदाः सदा ॥ २४ ॥
हे भूपते ! उन देवताओंके चले जानेपर पृथ्वीपर धर्मराज्य स्थापित हो गया और प्रजाएँ सुखी हो गयीं । मेघ उचित समयपर जल बरसाते थे और पृथ्वीपर उत्तम धान्य उत्पन्न होते थे । वृक्ष फलों तथा फूलोंसे सदा लदे रहते थे और वे लोगोंके लिये बड़े सुखदायक हो गये । २३-२४ ॥

गावश्च क्षीरसम्पना घटोध्न्यः कामदा नृणाम् ।
नद्यः सुमार्गगाः स्वच्छाः शीतोदाः खगसंयुताः ॥ २५ ॥
घड़ेके समान थनवाली दुधारू गौएँ मनुष्योंको उनकी इच्छाके अनुसार दूध दिया करती थीं । स्वच्छ एवं शीतल जलवाली नदियाँ सुगमतापूर्वक बहती थीं और पक्षियोंसे सुशोभित रहती थीं ॥ २५ ॥

ब्राह्मणा वेदतत्त्वाश्च यज्ञकर्मरतास्तथा ।
क्षत्रिया धर्मसंयुक्ता दानाध्ययनतत्पराः ॥ २६ ॥
शस्त्रविद्यारता नित्यं प्रजारक्षणतत्पराः ।
न्यायदण्डधराः सर्वे राजानः शमसंयुताः ॥ २७ ॥
ब्राह्मण वेदतत्त्वोंके ज्ञाता हो गये और यज्ञकर्ममें प्रवृत्त रहने लगे । क्षत्रिय धर्मभावनासे ओतप्रोत हो गये और सदा दान तथा अध्ययनमें तत्पर रहने लगे । सभी राजा शस्त्रविद्या प्राप्त करने में संलग्न हो गये, वे सदा प्रजाओंकी रक्षा करने लगे, उनका दण्ड-विधान न्यायके अनुसार चलने लगा और वे शान्तिगुणसे सम्पन्न हो गये ॥ २६-२७ ॥

अविरोधस्तु भूतानां सर्वेषां सम्बभूव ह ।
आकरा धनदा नृणां व्रजा गोयूथसंयुताः ॥ २८ ॥
सभी प्राणियोंमें परस्पर मेल-जोल रहने लगा, खानोंसे मनुष्योंको अपार धन प्राप्त होने लगा और गोशालाएँ गोसमुदायसे सम्पन्न हो गयीं ॥ २८ ॥

ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च नृपसत्तम ।
देवीभक्तिपराः सर्वे सम्बभूवुर्धरातले ॥ २९ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! उस समय धरातलपर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-ये सब-के-सब देवीकी भक्तिमें संलग्न हो गये ॥ २९ ॥

सर्वत्र यज्ञयूपाश्च मण्डपाश्च मनोहराः ।
मखैः पूर्णा धराश्चासन् ब्राह्मणैः क्षत्रियैः कृतैः ॥ ३० ॥
सर्वत्र मनोहर यज्ञमण्डप तथा यज्ञयुप दृष्टिगोचर होते थे । ब्राह्मणों तथा क्षत्रियोंद्वारा सम्पन्न किये गये यज्ञोंसे सारी पृथ्वी सुशोभित होने लगी ॥ ३० ॥

पतिव्रतधरा नार्यः सुशीलाः सत्यसंयुताः ।
पितृभक्तिपराः पुत्रा आसन्धर्मपरायणाः ॥ ३१ ॥
उस समय स्त्रियाँ पातिव्रतधर्मपरायण, सशील तथा सत्यनिष्ठ थीं और पुत्र पिताके प्रति श्रद्धा रखनेवाले तथा धर्मशील होते थे ॥ ३१ ॥

न पाखण्डं न वाधर्मः कुत्रापि पृथिवीतले ।
वेदवादा शास्त्रवादा नान्ये वादास्तथाभवन् ॥ ३२ ॥
पृथ्वीतलपर पाखण्ड तथा अधर्म कहीं भी नहीं रह गया । उस समय वेदवाद और शास्त्रवादके अतिरिक्त अन्य कोई वाद प्रचलित नहीं थे ॥ ३२ ॥

कलहो नैव केषाञ्चिन्न दैन्यं नाशुभा मतिः ।
सर्वत्र सुखिनो लोकाः काले च मरणं तथा ॥ ३३ ॥
उस समय किसीमें भी परस्पर कलह नहीं होता था, दीनता नहीं थी और किसीकी अशुभ बुद्धि नहीं रह गयी थी । सभी जगह लोग सुखी थे और आयु पूर्ण होनेपर ही उनकी मृत्यु होती थी, किसीकी अकालमृत्यु नहीं होती थी ॥ ३३ ॥

सुहृदां न वियोगश्च नापदश्च कदाचन ।
नानावृष्टिर्न दुर्भिक्षं न मारी दुःखदा नृणाम् ॥ ३४ ॥
मित्रोंमें वियोग नहीं होता था, किसीपर कभी विपत्तियाँ नहीं आती थीं, अनावृष्टि नहीं होती थी, न अकाल पड़ता था और न तो दु:खदायिनी महामारी ही मनुष्योंको ग्रसित करती थी ॥ ३४ ॥

न रोगो न च मात्सर्यं न विरोधः परस्परम् ।
सर्वत्र सुखसम्पन्ना नरा नार्यः सुखान्विताः ॥ ३५ ॥
क्रीडन्ति मानवाः सर्वे स्वर्गे देवगणा इव ।
न चौरा न च पाखण्डा वञ्चका दम्भकास्तथा ॥ ३६ ॥
पिशुना लम्पटाः स्तब्धा न बभूवुस्तदा नृप ।
न वेदद्वेषिणः पापा मानवाः पृथिवीपते ॥ ३७ ॥
सर्वधर्मरता नित्यं द्विजसेवापरायणाः ।
न किसीको रोग था और न तो लोगोंका आपसमें डाह तथा विरोध ही था । सर्वत्र नर तथा नारी सब प्रकारसे सुखी थे । सभी मनुष्य स्वर्गमें रहनेवाले देवताओंकी भाँति आनन्द भोगते थे । हे राजन् ! उस समय चोर, पाखण्डी, धोखेबाज, दाभी, चुगलखोर, लम्पट तथा जड़ प्रकृतिवाले मनुष्य नहीं रह गये थे । हे भूपते ! वेदोंसे द्वेष करनेवाले तथा पापी मनुष्य उस समय नहीं थे, अपितु सभी लोग धर्मनिष्ठ थे और नित्य ब्राह्मणोंकी सेवामें लगे रहते थे ॥ ३५-३७.५ ॥

त्रिधात्वात्सृष्टिधर्मस्य त्रिविधा ब्राह्मणास्ततः ॥ ३८ ॥
सात्त्विका राजसाश्चैव तामसाश्च तथापरे ।
सर्वे वेदविदो दक्षाः सात्त्विकाः सत्त्ववृत्तयः ॥ ३९ ॥
प्रतिग्रहविहीनाश्च दयादमपरायणाः ।
यज्ञास्ते सात्त्विकैरन्नैः कुर्वाणा धर्मतत्पराः ॥ ४० ॥
पुरोडाशविधानैश्च पशुभिर्न कदाचन ।
दानमध्ययनञ्चैव यजनं तु तृतीयकम् ॥ ४१ ॥
त्रिकर्मरसिकास्ते वै सात्त्विका ब्राह्मणा नृप ।
सृष्टिधर्मके तीन प्रकार होनेके कारण ब्राह्मण भी तीन प्रकारके थे-सात्त्विक, राजस तथा तामस । उनमें सत्त्व-वृत्तिवाले सभी सात्त्विक ब्राह्मण वेदोंके ज्ञाता तथा [यज्ञकार्योमें] दक्ष, दान लेनेकी प्रवृत्तिसे रहित, दयालु तथा संयम रखनेवाले थे । वे धर्मपरायण रहकर सात्त्विक अन्नोंसे यज्ञ करते हुए सदा पुरोडाशके द्वारा विधिविधानसे हवन करते थे और पशुबलिके द्वारा कभी भी यज्ञ सम्पन्न नहीं करते थे । हे राजन् ! वे सात्त्विक ब्राह्मण दान, अध्ययन और यज्ञ-इन्हीं तीनों कार्यों में सदा अभिरुचि रखते थे* ॥ ३८-४१.५ ॥

राजसा वेदविद्वांसः क्षत्रियाणां पुरोहिताः ॥ ४२ ॥
षट्कर्मनिरता सर्वे विधिवन्मांसभक्षकाः ।
यजनं याजनं दानं तथैव च प्रतिग्रहः ॥ ४३ ॥
अध्ययनं तु वेदानां तथैवाध्यापनं तु षट् ।
राजस ब्राह्मण वेदके विद्वान् थे और वे क्षत्रियोंके पुरोहित होते थे । वे यथाविधि मांसभक्षी थे । वे सदा छ: कोंमें ही संलग्न रहते थे । यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना, दान लेना, वेद पढ़ना और वेद पढ़ाना-ये ही उनके छ: कर्म थे ॥ ४२-४३.५ ॥

तामसाः क्रोधसंयुक्ता रागद्वेषपराः पुनः ॥ ४४ ॥
राज्ञां कर्मकरा नित्यं किञ्चिदध्ययने रताः ।
तामस प्रकृतिवाले ब्राह्मण क्रोधी और रागद्वेषपरायण रहते थे । वे सदा राजाओंके यहाँ कर्मचारीके रूपमें कार्य करते थे । वे कुछ कुछ अध्ययनमें भी संलग्न रहते थे ॥ ४४.५ ॥

महिषे निहते सर्वे सुखिनो वेदतत्पराः ॥ ४५ ॥
बभूवुर्व्रतनिष्णाता दानधर्मपरास्तथा ।
क्षत्रियाः पालने युक्ता वैश्या वणिजवृत्तयः ॥ ४६ ॥
कृषिवाणिज्यगोरक्षाकुसीदवृत्तयः परे ।
एवं प्रमुदितो लोको महिषे विनिपातिते ॥ ४७ ॥
इस प्रकार महिषासुरका वध हो जानेपर सभी ब्राह्मण सुखी, वेदपरायण, व्रतनिष्ठ तथा दान-धर्ममें संलग्न हो गये; क्षत्रिय प्रजापालनमें लग गये; वैश्य व्यवसायमें तत्पर हो गये और कुछ अन्य वैश्य कृषि, वाणिज्य, गोरक्षा तथा सूदपर धन देनेके कर्ममें प्रवृत्त हो गये । इस प्रकार महिषासुरके संहारके पश्चात् सारा जनसमुदाय आनन्दसे परिपूर्ण हो गया ॥ ४५-४७ ॥

अनुद्वेगः प्रजानां वै सम्बभूव धनागमः ।
बहुक्षीरा शुभा गावो नद्यश्चैव बहूदकाः ॥ ४८ ॥
वृक्षा बहुफलाश्चासन्मानवा रोगवर्जिताः ।
नाधयो नेतयः क्वापि प्रजानां दुःखदायकाः ॥ ४९ ॥
प्रजाओंकी व्याकुलता दूर हो गयी, उन्हें पर्याप्त धन प्राप्त होने लगा, गौएँ परम सुन्दर तथा बहुत दूध देनेवाली हो गयीं, नदियाँ प्रचुर जलसे भर गयीं, वृक्ष बहुत अधिक फलोंसे लद गये और सभी मनुष्य रोगरहित हो गये । कहीं भी किसी प्राणीको मानसिक व्याधियाँ तथा प्राकृतिक आपदाएँ व्यथित नहीं करती थीं ॥ ४८-४९ ॥

न निधनमुपयान्ति प्राणिनस्तेऽप्यकाले
     सकलविभवयुक्ता रोगहीनाः सदैव ।
निगमविहितधर्मे तत्पराश्चण्डिकाया-
     श्चरणसरसिजानां सेवने दत्तचित्ताः ॥ ५० ॥
उस समय सभी प्राणी अकालमृत्युको प्राप्त नहीं होते थे, वे सब प्रकारके वैभवसे सम्पन्न तथा नीरोग रहते थे । वेदप्रतिपादित धर्ममें तत्पर रहते हुए सभी लोगोंने भगवती चण्डिकाके चरणकमलोंकी सेवामें ही अपना चित्त लगा दिया था ॥ ५० ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाह्स्र्यां
संहितायां पञ्चमस्कन्धे महिषवधानन्तरं
पृथिवीसुखवर्णनं नाम विशोऽध्यायः ॥ २० ॥
अध्याय बीसवाँ समाप्त ॥ २० ॥


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