उन सबका वध करके भगवती अम्बिकाने देवताओंका बहुत बड़ा भय दूर कर दिया । तदनन्तर देवताओंने पवित्र सुमेरुपर्वतपर उन देवीका स्तवन तथा विधिवत् पूजन किया ॥ ६ ॥
राजोवाच कावेतावसुरावादौ कथं तौ बलिनां वरौ । केन संस्थापितौ चेह स्त्रीवध्यत्वं कुतो गतौ ॥ ७ ॥ तपसा वरदानेन कस्य जातौ महाबलौ । कथञ्च निहतौ सर्वं कथयस्व सविस्तरम् ॥ ८ ॥
राजा बोले-पूर्वकालमें ये दोनों दानव कौन थे, वे बड़े-बड़े बलशालियोंसे भी श्रेष्ठ कैसे हुए, उन्हें राजसिंहासनपर किसने प्रतिष्ठित किया, स्त्रीके द्वारा वे कैसे मारे गये, किस देवताकी तपस्याके परिणामस्वरूप प्राप्त वरदानसे वे महाबली हुए ? और किस प्रकार वे मारे गये ? यह सब विस्तारपूर्वक बताइये ॥ ७-८ ॥
व्यास उवाच शृणु राजन्कथां दिव्यां सर्वपापप्रणाशिनीम् । देव्याश्चरितसंयुक्तां सर्वार्थफलदां शुभाम् ॥ ९ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! अब आप समस्त पापोंका नाश करनेवाली, सभी प्रकारके अभीष्ट फल प्रदान करनेवाली, मंगलमयी तथा भगवतीके चरित्रसे ओत-प्रोत दिव्य कथा सुनिये ॥ ९ ॥
पुरा शुम्भनिशुम्भौ द्वावसुरौ भूमिमण्डले । पातालतश्च सम्प्राप्तौ भ्रातरौ शुभदर्शनौ ॥ १० ॥
पूर्वकालमें शुम्भ-निशुम्भ नामक दो दैत्य पातालसे भूमण्डलपर आ गये । वे दोनों भाई देखने में बड़े सुन्दर थे ॥ १० ॥
ध्यानमग्न होकर बैठे हुए उन दोनोंको देखकर जगत्के रचयिता ब्रह्माजीने कहा-हे महाभाग ! तुम दोनों उठो, मैं तुमलोगोंकी तपस्यासे परम प्रसन्न हूँ । तुमलोगोंका जो भी अभीष्ट वर हो उसे बताओ, मैं अवश्य ,गा । तुम दोनोंका तपोबल देखकर तुमलोगोंकी अभिलाषा पूर्ण करनेके विचारसे ही मैं यहाँ आया हूँ ॥ १४-१५ ॥
व्यास उवाच इति श्रुत्वा वचस्तस्य प्रबुद्धौ तौ समाहितौ । प्रदक्षिणक्रियां कृत्वा प्रणामं चक्रतुस्तदा ॥ १६ ॥ दण्डवत्प्रणिपातञ्च कृत्वा तौ दुर्बलाकृती । ऊचतुर्मधुरां वाचं दीनौ गद्गदया गिरा ॥ १७ ॥ देवदेव दयासिन्धो भक्तानामभयप्रद । अमरत्वञ्च नौ ब्रह्मन्देहि तुष्टोऽसि चेद्विभो ॥ १८ ॥ मरणादपरं किञ्चिद्भयं नास्ति धरातले । तस्माद्भयाच्च सन्त्रस्तौ युष्माकं शरणं गतौ ॥ १९ ॥ त्राहि त्वं देवदेवेश जगत्कर्तः क्षमानिधे । परिस्फोटय विश्वात्मन् सद्यो मरणजं भयम् ॥ २० ॥
व्यासजी बोले-ब्रह्माजीकी यह वाणी सुनकर समाहित चित्तवाले उन दोनोंका ध्यान टूट गया । तब प्रदक्षिणा करके उन्होंने दण्डकी भाँति भूमिपर गिरकर ब्रह्माजीको प्रणाम किया । तत्पश्चात् तपके कारण दुर्बल शरीरवाले दोनों दानवोंने ब्रह्माजीसे बड़ी दीनतापूर्वक गद्गद वाणीमें यह मधुर वचन कहा-हे देवदेव ! हे दयासिन्धो ! हे भक्तोंको अभय देनेवाले ब्रह्मन् ! हे विभो ! यदि आप हमपर प्रसन्न हैं, तो हमें अमरत्व प्रदान कीजिये । मृत्युसे बढ़कर दूसरा कोई भी भय इस पृथ्वीलोकमें नहीं है, उसी भयसे सन्त्रस्त होकर हम दोनों आपकी शरणको प्राप्त हुए हैं । हे देवदेवेश ! आप हमारी रक्षा कीजिये । हे जगत्कर्ता ! हे क्षमानिधान ! हे विश्वात्मा ! आप हमारे मरणजन्य भयको शीघ्र ही दूर कीजिये ॥ १६-२० ॥
ब्रह्मोवाच किमिदं प्रार्थनीयं वो विपरीतं तु सर्वथा । अदेयं सर्वथा सर्वैः सर्वेभ्यो भुवनत्रये ॥ २१ ॥ जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च । मर्यादा विहिता लोके पूर्वं विश्वकृता किल ॥ २२ ॥ मर्तव्यं सर्वथा सर्वैः प्राणिभिर्नात्र संशयः । अन्यं प्रार्थयतं कामं ददामि यच्च वाञ्छितम् ॥ २३ ॥
ब्रह्माजी बोले-तुम लोगोंने यह कैसा सर्वथा नियमविरुद्ध वरदान माँगा है, तीनों लोकोंमें किसीके द्वारा किसीके भी लिये यह वरदान सर्वथा अदेय है । जन्म लेनेवालेको मृत्यु निश्चित है और मरनेवालेका जन्म निश्चित है । विश्वकी रचना करनेवाले प्रभुने यह नियम पहलेसे ही निर्धारित कर रखा है । सभी प्राणियोंको निश्चितरूपसे मरना ही पड़ता है । इसमें सन्देह नहीं है । अत: इसके अतिरिक्त तुमलोगोंका जो भी दूसरा अभिलषित वर हो, उसे माँग लो, मैं अभी देता हूँ ॥ २१-२३ ॥
व्यास उवाच तदाकर्ण्य वचस्तस्य सुविमृश्य च दानवौ । ऊचतुः प्रणिपत्याथ ब्रह्माणं पुरतः स्थितम् ॥ २४ ॥ पुरुषैरमराद्यैश्च मानवैर्मृगपक्षिभिः । अवध्यत्वं कृपासिन्धो देहि नौ वाञ्छितं वरम् ॥ २५ ॥ नारी बलवती कास्ति या नौ नाशं करिष्यति । न बिभीवः स्त्रियः कामं त्रैलोक्ये सचराचरे ॥ २६ ॥ अवध्यौ भ्रातरौ स्यातां नरेभ्यः पङ्कजोद्भव । भयं न स्त्रीजनेभ्यश्च स्वभावादबला हि सा ॥ २७ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] ब्रह्माजीकी यह बात सुनकर उन दोनों दानवोंने परस्पर भलीभाँति विचार करनेके उपरान्त अपने सम्मुख खड़े उन ब्रह्माजीको प्रणाम करके कहा-हे कृपासिन्धो ! देवता, मनुष्य, मग अथवा पक्षी-इनमेंसे किसी भी पुरुषजातिके द्वारा हमारा मरण न हो-यही हमारा अभीष्ट वर है, इसे आप हमें प्रदान करें । ऐसी कौन बलवती स्त्री है, जो हम दोनोंका नाश कर सके ? इस चराचर त्रिलोकीमें किसी भी स्त्रीसे हम नहीं डरते । हे ब्रह्मन् ! हम दोनों भाई पुरुषोंसे अवध्य होवें । हमें स्त्रियोंसे कोई डर नहीं है क्योंकि वे तो स्वभावसे ही अबला होती हैं ॥ २४-२७ ॥
व्यास उवाच इति श्रुत्वा तयोर्वाक्यं प्रददौ वाञ्छितं वरम् । ब्रह्मा प्रसन्नमनसा जगामाथ स्वमालयम् ॥ २८ ॥
व्यासजी बोले-उन दोनोंका यह वचन सुनकर ब्रह्माजीने उन्हें अभिलषित वर दे दिया और प्रसन्नमनसे अपने स्थानपर चले गये ॥ २८ ॥
ब्रह्माजीके अपने लोक चले जानेपर वे दोनों दानव भी अपने घर चले गये । उन्होंने वहाँपर शुक्राचार्यको अपना पुरोहित बनाकर उनका पूजन किया ॥ २९ ॥
शुभे दिने सुनक्षत्रे जातरूपमयं शुभम् । कृत्वा सिंहासनं दिव्यं राज्यार्थं प्रददौ मुनिः ॥ ३० ॥ शुम्भाय ज्येष्ठभूताय ददौ राज्यासनं शुभम् । सेवनार्थं तदैवाशु सम्प्राप्ता दानवोत्तमाः ॥ ३१ ॥
तत्पश्चात् किसी उत्तम दिन और नक्षत्रमें सोनेका दिव्य तथा सुन्दर सिंहासन बनवाकर मुनिने राज्यस्थापनाके लिये उन्हें प्रदान किया । उन्होंने ज्येष्ठ होनेके कारण शुम्भको वह सुन्दर राजसिंहासन समर्पित किया । उसी समय अनेक श्रेष्ठ दानव उसकी सेवा करनेके लिये शीघ्र वहाँ उपस्थित हो गये ॥ ३०-३१ ॥
उसी प्रकार वरदानके प्रभावसे अत्यधिक बलशाली तथा शूरवीर रक्तबीज भी दो अक्षौहिणी सेनाके साथ वहाँ आकर सम्मिलित हो गया । हे राजन् ! उसके अतिशय बलवान् होनेका एक कारण यह था कि संग्राममें युद्ध करते हुए उस रक्तबीजके शस्त्राहत होनेपर उसके शरीरसे जब भूमिपर रुधिर गिरता था, उसी समय उसके ही समान क्रूर और हाथोंमें शस्त्र धारण किये बहुत-से वीर पुरुष उत्पन्न हो जाते थे । रक्तबिन्दुओंसे उत्पन्न वे पुरुष उसी रक्तबीजके आकार, रूप और पराक्रमवाले होते थे और वे सभी पुनः युद्ध करने लगते थे । इसलिये संग्राममें महापराक्रमी तथा अजेय समझा जानेवाला वह महान् असुर रक्तबीज सभी प्राणियोंसे अवध्य हो गया था ॥ ३४-३८ ॥
तत्पश्चात् शत्रुपक्षके वीरोंका संहार करनेवाले निशुम्भने अपनी सेना सुसज्जित करके इन्द्रको जीतनेहेतु बड़े वेगसे स्वर्गके लिये प्रस्थान किया । [वहाँ पहुँचकर] उसने लोकपालोंके साथ घोर युद्ध किया । तब इन्द्रने उसके वक्षपर वज़से प्रहार किया । उस वज्राघातसे आहत होकर दानव शुम्भका छोटा भाई निशुम्भ भूमिपर गिर पड़ा । तब परम साहसी उस निशुम्भकी सेना भाग गयी ॥ ४१-४३ ॥
तब उस शुम्भने अपने पराक्रमके प्रभावसे कल्पवृक्ष और कामधेनुसहित इन्द्रपदको अधिकारमें कर लिया । उस दुस्साहसी शुम्भने तीनों लोकोंपर आधिपत्य जमा लिया और देवताओंको मिलनेवाले यज्ञभागोंका हरण कर लिया । नन्दनवन पा करके वह महान् असुर आनन्दित हुआ और अमृतके पानसे उसे बहुत सुख मिला ॥ ४६-४७.५ ॥
कुबेरं स च निर्जित्य तस्य राज्यं चकार ह ॥ ४८ ॥ अधिकारं तथा भानोः शशिनश्च चकार ह । यमञ्चैव विनिर्जित्य जग्राह तत्पदं तथा ॥ ४९ ॥ वरुणस्य तथा राज्यं चकार वह्निकर्म च । वायोः कार्यं निशुम्भश्च चकार स्वबलान्वितः ॥ ५० ॥
उसने कुबेरको जीतकर उनके राज्यपर अधिकार कर लिया और सूर्य तथा चन्द्रमाका भी अधिकार छीन लिया । उसने यमराजको परास्त करके उनका पद स्वयं ले लिया । इसी प्रकार अपने बलके प्रभावसे वरुणका राज्य अपने अधीन करके वह शुम्भ राज्यशासन स्वयं करने लगा और अग्नि तथा वायुके कार्य स्वयं करने लगा ॥ ४८-५० ॥
तब [असुरोंके द्वारा] तिरस्कृत और राज्य छिन जानेके कारण नष्ट शोभावाले सभी देवता नन्दनवन छोड़कर पर्वतोंकी गुफाओंमें चले गये ॥ ५१ ॥
हृताधिकारास्ते सर्वे बभ्रमुर्विजने वने । निरालम्बा निराधारा निस्तेजस्का निरायुधाः ॥ ५२ ॥ विचेरुरमराः सर्वे पर्वतानां गुहासु च । उद्यानेषु च शून्येषु नदीनां गह्वरेषु च ॥ ५३ ॥
अधिकारसे वंचित होकर वे सब निर्जन वनमें भटकने लगे । अब उनका कोई सहारा नहीं रहा, उनके रहनेकी जगह नहीं रही, वे तेजहीन और आयुधविहीन हो चुके थे । इस प्रकार सभी देवता पर्वतोंकी कन्दराओं, निर्जन उद्यानों और नदियोंकी घाटियोंमें विचरण करने लगे ॥ ५२-५३ ॥
न प्रापुस्ते सुखं वापि स्थानभ्रष्टा विचेतसः । लोकपाला महाराज दैवाधीनं सुखं किल ॥ ५४ ॥
हे महाराज ! स्थानभ्रष्ट हो जानेके कारण उन बेचारे लोकपालोंको कहीं भी सुख नहीं मिल रहा था, और फिर यह सुनिश्चित भी है कि सुख सदा प्रारब्धके अधीन रहता है ॥ ५४ ॥
हे महाराज ! उस कालकी गति बड़ी ही विचित्र होती है, जो एक साधारण मनुष्यको राजा बना देता है और उसके बाद राजाको भिखारी बना देता है । वही काल दाताको याचक, बलवानको निर्बल, पण्डितको अज्ञानी और वीरको अत्यन्त कायर बना देता है ॥ ५६-५७ ॥
सौ अश्वमेधयज्ञ करनेके बाद सर्वोत्कृष्ट इन्द्रासन प्राप्त करके भी बादमें समयके फेरसे इन्द्रको असीम कष्ट उठाना पड़ा था-कालकी ऐसी विचित्र गति होती है । ५८ ॥
अतः कालकी इस अद्भुत गतिके विषयमें कुछ भी आश्चर्य नहीं करना चाहिये । यही काल ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदिको भी इसी प्रकार संकटमें डाल देता है । बलवान् कालके ही प्रभावसे भगवान् विष्णुको सूकर आदि योनियोंमें जन्म लेना पड़ा और शिवजीको कपाली होना पड़ा ॥ ६०-६१ ॥