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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
पञ्चमः स्कन्धः
द्वाविंशोऽध्यायः

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देवकृतदेव्याराधनवर्णनम् -
देवताओंद्वारा भगवतीकी स्तुति और उनका प्राकट्य -


व्यास उवाच
पराजिताः सुराः सर्वे राज्यं शुम्भः शशास ह ।
एवं वर्षसहस्रं तु जगाम नृपसत्तम ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-हे नृपत्रेष्ठ ! सभी देवता पराजित हो गये। इसके बाद शुम्भ राज्यपर शासन करने लगा। इस प्रकार एक हजार वर्ष व्यतीत हो गये ॥ १ ॥

भ्रष्टराज्यास्ततो देवाश्चिन्तामापुः सुदुस्तराम् ।
गुरुं दुःखातुरास्ते तु पप्रच्छुरिदमादृताः ॥ २ ॥
तत्पश्चात् राज्यच्युत होनेके कारण देवता महान् दुस्सह चिन्तामें पड़ गये। दुःखसे व्याकुल हुए वे देवता गुरु बृहस्पतिसे आदरपूर्वक यह पूछने लगे ॥ २ ॥

किं कर्तव्यं गुरो ब्रूहि सर्वज्ञस्त्वं महामुनिः ।
उपायोऽस्ति महाभाग दुःखस्य विनिवृत्तये ॥ ३ ॥
उपचारपरा नूनं वेदमन्त्राः सहस्रशः ।
वाच्छितार्थकरा नूनं सूत्रैः संलक्षिताः किल ॥ ४ ॥
इष्टयो विविधाः प्रोक्ताः सर्वकामफलप्रदाः ।
ताः कुरुष्व मुने नूनं त्वं जानासि च तत्क्रियाः ॥ ५ ॥
हे गुरो ! अब हम क्या करें, आप हमें बतायें। आप सर्वज्ञ महामुनि हैं। हे महाभाग ! दु:खकी निवृत्तिका उपाय भी तो होता है। हजारों ऐसे वैदिक मन्त्र हैं, जो उपचारोंसे परिपूर्ण हैं और सभी मनोरथ पूर्ण करनेवाले हैं। सूत्रोंने उनका भलीभाँति निदर्शन भी किया है। सभी वांछित फल प्रदान करनेवाले अनेक प्रकारके यज्ञ भी बताये गये हैं। हे मुने ! आप उनका अनुष्ठान कीजिये; क्योंकि आप उनकी क्रियाविधिको भलीभाँति जानते हैं ॥ ३-५ ॥

विधिः शत्रुविनाशाय यथोद्दिष्टः सदागमे ।
तं कुरुष्वाद्य विधिवद्यथा नो दुःखसंक्षयः ॥ ६ ॥
भवेदांगिरसाद्यैव तथा त्वं कर्तुमर्हसि ।
दानवानां विनाशाय अभिचारं यथामति ॥ ७ ॥
शत्रुओंके विनाशके लिये वेदमें जैसा उपाय बताया गया है, अब आप विधिपूर्वक उसका अनुष्ठान कीजिये, जिससे हमारे दुःखका पूर्णरूपसे नाश हो जाय। हे आंगिरस ! दानवोंके विनाशके लिये आप अपनी बुद्धिके अनुसार आज ही अभिचारकर्म आरम्भ करनेकी कृपा कीजिये ॥ ६-७ ॥

बृहस्पतिरुवाच
सर्वे मन्त्राश्च वेदोक्ता दैवाधीनफलाश्च ते ।
न स्वतन्त्राः सुराधीश तथैकान्तफलप्रदाः ॥ ८ ॥
बृहस्पति बोले-हे देवराज ! वेदोंमें बताये गये सभी मन्त्र प्रारब्धके अनुसार ही फल प्रदान करनेवाले हैं। वे स्वतन्त्र नहीं हैं और नियमके अनुसार ही फल प्रदान करते हैं ॥ ८ ॥

मन्त्राणां देवता यूयं ते तु दुःखैकभाजनम् ।
जाताः स्म कालयोगेन किं करोमि प्रसाधनम् ॥ ९ ॥
उन मन्त्रोंके देवता तो आप ही लोग हैं। जब आपलोग स्वयं समयके फेरसे कष्टमें पड़े हुए हैं तो मैं कौन-सा उपाय करूँ ? ॥ ९ ॥

इन्द्राग्निवरुणादीनां यजनं यज्ञकर्मसु ।
ते यूयं विपदं प्राप्ताः करिष्यन्ति किमिष्टयः ॥ १० ॥
यज्ञ-कर्मोमें इन्द्र, अग्नि, वरुण आदिकी पूजा की जाती है और वे आप सब देवता ही स्वयं विपत्ति भोग रहे हैं, तब यज्ञ क्या कर सकेंगे ? ॥ १० ॥

अवश्यम्भाविभावानां प्रतीकारो न विद्यते ।
उपायस्त्वथ कर्तव्य इति शिष्टानुशासनम् ॥ ११ ॥
अवश्यम्भावी घटनाओंका कोई प्रतीकार नहीं है। फिर भी [संकटसे बचनेके लिये] उपाय तो करना ही चाहिये, यह शिष्ट पुरुषोंका उपदेश है ॥ ११ ॥

दैवं हि बलवत्केचित्प्रवदन्ति मनीषिणः ।
उपायवादिनो दैवं प्रवदन्ति निरर्थकम् ॥ १२ ॥
दैवं चैवाप्युपायश्च द्वावेवाभिमतौ नृणाम् ।
केवलं दैवमाश्रित्य न स्थातव्यं कदाचन ॥ १३ ॥
उपायः सर्वथा कार्यो विचार्य स्वधिया पुनः ।
तस्माद्‌ ब्रवीमि वः सर्वान्संविचार्य पुनः पुनः ॥ १४ ॥
कुछ विद्वान् कहते हैं कि दैव सबसे बलवान् होता है और उपायवादी लोग दैवको निरर्थक बताते हैं, किंतु मनुष्यों के लिये दैव और उपाय दोनों ही आवश्यक माने गये हैं । मात्र दैवका आश्रय लेकर कभी भी बैठे नहीं रहना चाहिये । अपनी बुद्धिसे विचार करके सम्यक् रूपसे प्रयत्न करनेमें तत्पर हो जाना चाहिये । इसलिये भलीभाँति बार-बार सोच-विचारकर मैं आप सभीको उपाय बता रहा हूँ ॥ १२-१४ ॥

पुरा भगवती तुष्टा जघान महिषासुरम् ।
युष्माभिस्तु स्तुता देवी वरदानं ददावथ ॥ १५ ॥
आपदं नाशयिष्यामि संस्मृता वा सदैव हि ।
यदा यदा वो देवेशा आपदो दैवसम्भवाः ॥ १६ ॥
प्रभवन्ति तदा कामं स्मर्तव्याहं सुरैः सदा ।
स्मृताहं नाशयिष्यामि युष्माकं परमापदः ॥ १७ ॥
पूर्वकालमें जब भगवती जगदम्बाने आपलोगोंपर प्रसन्न होकर महिषासुरका वध किया था, उस समय आपलोगोंके स्तुति करनेपर उन्होंने यह वरदान दिया था-'आपलोगोंक स्मरण करनेपर मैं सदा आपलोगोंकी विपत्ति दूर करूंगी । हे देवेश्वरो ! जब-जब आपलोगोंपर दैव-जन्य आपदाएँ आयें, तब-तब आप देवतागण मेरा ध्यान कीजियेगा, स्मरण करते ही मैं आपलोगोंकी बड़ीसे-बड़ी विपत्तियोंका नाश कर दूंगी' ॥ १५-१७ ॥

तस्माद्धिमाचले गत्वा पर्वते सुमनोहरे ।
आराधनं चण्डिकायाः कुरुध्वं प्रेमपूर्वकम् ॥ १८ ॥
मायाबीजविधानज्ञास्तत्पुरश्चरणे रताः ।
जानाम्यहं योगबलात्प्रसन्ना सा भविष्यति ॥ १९ ॥
अत: अब आपलोग परम रमणीक हिमालयपर्वतपर जाकर प्रेमपूर्वक भगवती चण्डिकाकी आराधना कीजिये । आपलोग मायावीजके विधानके ज्ञाता हैं, उसीके पुरश्चरणमें तत्पर हो जाइये । मैं जानता हूँ कि इस अनुष्ठानके प्रभावसे वे भगवती प्रसन्न हो जायँगी ॥ १८-१९ ॥

दुःखस्यान्तोऽद्य युष्माकं दृश्यते नात्र संशयः ।
तस्मिञ्छैले सदा देवी तिष्ठतीति मया श्रुतम् ॥ २० ॥
स्तुता सम्पूजिता सद्यो वाञ्छितार्थान् प्रदास्यति ।
निश्चयं परमं कृत्वा गच्छध्वं वै हिमालयम् ॥ २१ ॥
सुराः सर्वाणि कार्याणि सा वः कामं विधास्यति ।
अब आपलोगोंके दुःखका अन्त दिखायी पड़ रहा है । इसमें सन्देह नहीं है । मैंने सुना है कि वे भगवती उस हिमालयपर्वतपर सदा विराजमान रहती हैं । उनकी स्तुति तथा विधिवत् पूजा करनेपर वे शीघ्र ही आपलोगोंको वांछित फल प्रदान करेंगी । अतः हे देवताओ ! आपलोग दृढ़ निश्चय करके हिमालयपर्वतपर जाइये; वे भगवती आपलोगोंका कार्य अवश्य सिद्ध कर देंगी ॥ २०-२१.५ ॥

व्यास उवाच
इति तस्य वचः श्रुत्वा देवास्ते प्रययुर्गिरिम् ॥ २२ ॥
हिमालयं महाराज देवीध्यानपरायणाः ।
मायाबीजं हृदा नित्यं जपन्तः सर्व एव हि ॥ २३ ॥
नमश्चक्रुर्महामायां भक्तानामभयप्रदाम् ।
तुष्टुवुः स्तोत्रमन्त्रैश्च भक्त्या परमया युताः ॥ २४ ॥
व्यासजी बोले-हे महाराज ! उनका वचन सुनकर देवता हिमालयपर्वतपर चले गये । वहाँ देवीके ध्यानमें लीन होकर एकाग्र मनसे निरन्तर मायाबीजमन्त्रका जप करते हुए उन सब देवताओंने भक्तोंके लिये अभयदायिनी महामाया भगवतीको प्रणाम किया और पूर्णभक्तिसे युक्त होकर स्तोत्र-मन्त्रोंसे वे इस प्रकार उनकी स्तुति करने लगे ॥ २२-२४ ॥

नमो देवि विश्वेश्वरि प्राणनाथे
     सदानन्दरूपे सुरानन्ददे ते ।
नमो दानवान्तप्रदे मानवाना-
     मनेकार्थदे भक्तिगम्यस्वरूपे ॥ २५ ॥
हे विश्वेश्वरि ! हे प्राणोंकी स्वामिनि ! सदा आनन्दरूपमें रहनेवाली तथा देवताओंको आनन्द प्रदान करनेवाली हे देवि ! आपको नमस्कार है । दानवोंका अन्त करनेवाली, मनुष्योंकी समस्त कामनाएँ पूर्ण करनेवाली तथा भक्तिके द्वारा अपने रूपका दर्शन देनेवाली हे देवि ! आपको नमस्कार है ॥ २५ ॥

न ते नामसंख्यां न ते रूपमीदृ-
     क्तथा कोऽपि वेदादिदेवस्वरूपे ।
त्वमेवासि सर्वेषु शक्तिस्वरूपा
     प्रजासृष्टिसंहारकाले सदैव ॥ २६ ॥
हे आदिदेवस्वरूपिणि ! आपके नामोंकी निश्चित संख्या तथा आपके इस रूपको कोई भी नहीं जान सकता । सबमें आप ही विराजमान हैं । जीवोंके सृजन और संहारकालमें शक्तिस्वरूपसे सदा आप ही कार्य करती हैं ॥ २६ ॥

स्मृतिस्त्वं धृतिस्त्वं त्वमेवासि बुद्धि-
     र्जरा पुष्टितुष्टी धृतिः कान्तिशान्ती ।
सुविद्या सुलक्ष्मीर्गतिः कीर्तिमेधे
     त्वमेवासि विश्वस्य बीजं पुराणम् ॥ २७ ॥
आप ही स्मृति, धृति, बुद्धि, जरा, पृष्टि, तष्टि, धृति, कान्ति, शान्ति, सुविद्या, सुलक्ष्मी, गति, कीर्ति, मेधा और विश्वकी पुरातन मूल प्रकृति हैं ॥ २७ ॥

यदा यैः स्वरूपैः करोषीह कार्यं
     सुराणां च तेभ्यो नमामोऽद्य शान्त्यै ।
क्षमा योगनिद्रा दया त्वं विवक्षा
     स्थिता सर्वभूतेषु शस्तैः स्वरूपैः ॥ २८ ॥
आप जिस समय जिन स्वरूपोंसे देवताओंका कार्य सम्पन्न करती हैं, हम शान्तिके लिये आपके उन स्वरूपोंको नमस्कार करते हैं । आप ही क्षमा, योगनिद्रा, दया तथा विवक्षा-इन कल्याणकारी रूपोंसे सभी जीवोंमें निवास करती हैं ॥ २८ ॥

कृतं कार्यमादौ त्वया यत्सुराणां
     हतोऽसौ महारिर्मदान्धो हयारिः ।
दया ते सदा सर्वदेवेषु देवि
     प्रसिद्धा पुराणेषु वेदेषु गीता ॥ २९ ॥
पूर्वकालमें आपने हम देवताओंका कार्य किया था जो कि महान् शत्रु मदान्ध महिषासुरका वध कर डाला था । हे देवि ! सभी देवताओंपर आपकी दया सदैव रहती है, आपकी दया पूर्ण प्रसिद्ध है और पुराणों तथा वेदों में भी उसका वर्णन किया गया है ॥ २९ ॥

किमत्रास्ति चित्रं यदम्बा सुतं स्वं
     मुदा पालयेत्पोषयेत्सम्यगेव ।
यतस्त्वं जनित्री सुराणां सहाया
     कुरुष्वैकचित्तेन कार्यं समग्रम् ॥ ३० ॥
इसमें आश्चर्यकी क्या बात; क्योंकि माता प्रसन्नतापूर्वक सम्यक् प्रकारसे अपने पुत्रका पालनपोषण करती ही है । क्योंकि आप देवताओंकी जननी हैं, अतः उनका सहायक बनकर एकाग्र मनसे हमलोगोंका सम्पूर्ण कार्य सम्पन्न करें ॥ ३० ॥

न वा ते गुणानामियत्तां स्वरूपं
     वयं देवि जानीमहे विश्ववन्द्ये ।
कृपापात्रमित्येव मत्वा तथास्मा-
     न्भयेभ्यः सदा पाहि पातुं समर्थे ॥ ३१ ॥
हे देवि ! हे विश्ववन्द्ये ! हमलोग न आपके गुणोंकी सीमा जानते हैं और न आपका स्वरूप ही जानते हैं । अतः रक्षा करनेमें समर्थ हे देवि ! हमें केवल अपना कृपापात्र मानकर आप भयोंसे निरन्तर हमारी रक्षा करती रहें ॥ ३१ ॥

विना बाणपातैर्विना मुष्टिघातै-
     र्विनाशूलखड्गैर्विना शक्तिदण्डैः ।
रिपून्हन्तुमेवासि शक्ता विनोदा-
     त्तथापीह लोकोपकाराय लीला ॥ ३२ ॥
यद्यपि बिना बाण चलाये बिना मुष्टिप्रहार किये और बिना त्रिशूल, तलवार, बी, दण्ड आदिका प्रयोग किये भी आप विनोदपूर्वक शत्रुओंका संहार करनेमें समर्थ हैं, फिर भी जगत्के उपकारके लिये ही आपकी यह लीला दृष्टिगोचर होती है ॥ ३२ ॥

इदं शाश्वतं नैव जानन्ति मूढा
     न कार्यं विना कारणं सम्भवेद्वा ।
वयं तर्कयामोऽनुमानं प्रमाणं
     त्वमेवासि कर्तास्य विश्वस्य चेति ॥ ३३ ॥
आपका यह रूप सनातन है-इस रहस्यको अविवेकी लोग नहीं जानते हैं । [हे माता !] बिना कारणके कोई कार्य नहीं होता । अतः अनुमान और प्रमाणके आधारपर हम यही जानते हैं कि इस विश्वकी रचना करनेवाली आप ही हैं ॥ ३३ ॥

अजः सृष्टिकर्ता मुकुन्दोऽवितायं
     हरो नाशकृद्वै पुराणे प्रसिद्धः ।
न किं त्वत्प्रसूतास्त्रयस्ते युगादौ
     त्वमेवासि सर्वस्य तेनैव माता ॥ ३४ ॥
ब्रह्मा सृष्टिकर्ता, विष्णु पालनकर्ता और शंकर संहारकर्ताके रूपमें पुराणमें प्रसिद्ध हैं, किंतु क्या वे तीनों देव आपसे उत्पन्न नहीं हुए हैं ? युगके प्रारम्भमें केवल आप ही रहती हैं, अतः आप ही सबकी माता हैं ॥ ३४ ॥

त्रिभिस्त्वं पुराराधिता देवि दत्ता
     त्वया शक्तिरुग्रा च तेभ्यः समग्रा ।
त्वया संयुतास्ते प्रकुर्वन्ति कामं
     जगत्पालनोत्पत्तिसंहारमेव ॥ ३५ ॥
हे देवि ! पूर्वकालमें इन तीनोंने आपकी आराधना की थी, तब आपने उन्हें अपनी समस्त प्रबल शक्ति प्रदान की थी । वास्तवमें उसी शक्तिसे सम्पन्न होकर वे जगत्का सृजन, पालन तथा संहार करते हैं ॥ ३५ ॥

ते किं न मन्दमतयो यतयो विमूढा-
     स्त्वां ये न विश्वजननीं समुपाश्रयन्ति ।
विद्यां परां सकलकामफलप्रदां तां
     मुक्तिप्रदां विबुधवृन्दसुवन्दिताङ्‌घ्रिम् ॥ ३६ ॥
जो संन्यासी लोग विश्वकी जननी, परम विद्यास्वरूपिणी, समस्त वांछित फल प्रदान करनेवाली, मुक्तिदायिनी तथा सभी देवताओंसे वन्दित चरणोंवाली आप भगवतीकी उपासना नहीं करते, क्या वे मन्दबुद्धि तथा अज्ञानी नहीं हैं ? ॥ ३६ ॥

ये वैष्णवाः पाशपताश्च सौरा
     दम्भास्त एव प्रतिभान्ति नूनम् ।
ध्यायन्ति न त्वां कमलाञ्च लज्जां
     कान्तिं स्थितिं कीर्तिमथापि पुष्टिम् ॥ ३७ ॥
विष्णु, शिव तथा सूर्यकी आराधना करनेवाले जो लोग कमला, लज्जा, कान्ति, स्थिति, कीर्ति और पुष्टि नामोंसे विख्यात आप भगवतीका ध्यान नहीं करते हैं, वे निश्चितरूपसे दम्भी प्रतीत होते हैं ॥ ३७ ॥

हरिहरादिभिरप्यथ सेविता
     त्वमिह देववरैरसुरैस्तथा ।
भुवि भजन्ति न येऽल्पधियो नरा
     जननि ते विधिना खलु वञ्चिताः ॥ ३८ ॥
विष्णु और शंकर आदि श्रेष्ठ देवता तथा असुर भी आपकी पूजा करते हैं । अत: हे माता ! इस जगत्में जो मन्दबुद्धि मनुष्य आपकी आराधना नहीं करते, निश्चय ही विधाताने उन्हें ठग लिया है ॥ ३८ ॥

जलधिजापदपङ्कजरञ्जनं
     जतुरसेन करोति हरिः स्वयम् ।
त्रिनयनोऽपि धराधरजाङ्‌घ्रिपं-
     कजपरागनिषेवणतत्परः ॥ ३९ ॥
किमपरस्य नरस्य कथानकै-
     स्तव पदाब्जयुगं न भजन्ति के ।
विगतरागगृहाश्च दयां क्षमां
     कृतधियो मुनयोऽपि भजन्ति ते ॥ ४० ॥
भगवान् विष्णु अपने पास लक्ष्मीरूपमें विराजमान आप भगवतीके चरणकमलोंमें स्वयं महावर लगाते हैं । इसी प्रकार त्रिनेत्र भगवान् शिव भी अपने पास पार्वती रूपमें विराजमान आप भगवतीके चरणकमलकी रजके सेवनमें निरन्तर तत्पर रहते हैं; तब अन्य मनुष्यकी बात ही क्या ! आपके चरणकमलोंकी आराधना कौन नहीं करते ? घर-गृहस्थीसे विरक्त बुद्धिमान् मुनिगण भी दया और क्षमारूपमें प्रतिष्ठित आप भगवतीकी उपासना करते हैं ॥ ३९-४० ॥

देवि त्वदङ्‌घ्रिभजने न जना रता ये
     संसारकूपपतिताः पतिताः किलामी ।
ते कुष्ठगुल्मशिरआधियुता भवन्ति
     दारिद्र्यदैन्यसहिता रहिताः सुखौघैः ॥ ४१ ॥
हे देवि ! जो लोग आपके चरणोंकी उपासनामें संलग्न नहीं रहते, उन्हें निश्चय ही इस संसाररूप अगाध कूपमें गिरना पड़ता है । वे पतित लोग कुष्ठ, गुल्म और शिरोरोगसे ग्रस्त रहते हैं, दरिद्रता तथा दीनतासे युक्त रहते हैं और सुखोंसे सदा बंचित रहते हैं ॥ ४१ ॥

ये काष्ठभारवहने यवसावहारे
     कार्ये भवन्ति निपुणा धनदारहीनाः ।
जानीमहेऽल्पमतिभिर्भवदङ्‌घ्रिसेवा
     पूर्वे भवे जननि तैर्न कृता कदापि ॥ ४२ ॥

हे माता ! धन और स्त्रीसे रहित जो मनुष्य लकड़ीका बोझ ढोने और तृण आदिका वहन करने में लगे हैं, [उनके विषयमें] हम तो यही समझते हैं कि उन मन्दबुद्धि मनुष्योंने पूर्वजन्ममें आपके चरणोंकी उपासना कभी नहीं की ॥ ४२ ॥

व्यास उवाच
एवं स्तुता सुरैः सर्वैरम्बिका करुणान्विता ।
प्रादुर्बभूव तरसा रूपयौवनसंयुता ॥ ४३ ॥
दिव्याम्बरधरा देवी दिव्यभूषणभूषिता ।
दिव्यमाल्यसमायुक्ता दिव्यचन्दनचर्चिता ॥ ४४ ॥
जगन्मोहनलावण्या सर्वलक्षणलक्षिता ।
अद्वितीयस्वरूपा सा देवानां दर्शनं गता ॥ ४५ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार समस्त देवताओंके स्तुति करनेपर अम्बिका करुणासे ओत-प्रोत होकर तुरंत प्रकट हो गयीं । [उस समय] वे भगवती रूप तथा यौवनसे सम्पन्न थी, उन्होंने दिव्य वस्त्र धारण कर रखा था, वे अलौकिक आभूषणोंसे अलंकृत थीं, दिव्य मालाओंसे सुशोभित हो रही थीं, दिव्य चन्दनसे अनुलिप्त थीं, जगतको मोहित कर देनेवाले सौन्दर्यसे सम्पन्न थीं और समस्त शुभ लक्षणोंसे समन्वित थीं । इस प्रकार अद्वितीय स्वरूपवाली वे भगवती देवताओंक समक्ष प्रकट हुई । ४३-४५ ॥

जाह्नव्यां स्नातुकामा सा निर्गता गिरिगह्वरात् ।
दिव्यरूपधरा देवी विश्वमोहनमोहिनी ॥ ४६ ॥
दिव्य रूप धारण करनेवाली तथा विश्वको मोह लेने में समर्थ कामदेवको भी मोहित करनेवाली वे भगवती गंगामें स्नान करनेकी अभिलाषासे पर्वतको कन्दरासे बाहर निकली थीं ॥ ४६ ॥

देवान्स्तुतिपरानाह मेघगम्भीरया गिरा ।
प्रेमपूर्वं स्मितं कृत्वा कोकिलामञ्जुवादिनी ॥ ४७ ॥
कोकिलके समान मधुर बोलनेवाली भगवती प्रेमपूर्ण भावसे मुसकराकर स्तुति करनेमें संलग्न देवताओंसे मेघके समान गम्भीर वाणीमें कहने लगीं ॥ ४७ ॥

देव्युवाच
भो भोः सुरवराः कात्र भवद्‌भिः स्तूयते भृशम् ।
किमर्थं ब्रूत वः कार्यं चिन्ताविष्टाः कुतः पुनः ॥ ४८ ॥
देवी बोलीं-हे श्रेष्ठ देवतागण ! आपलोग यहाँपर इतनी बड़ी स्तुति किसलिये कर रहे हैं ? आपलोग इस प्रकार चिन्तासे व्याकुल क्यों हैं ? मुझे अपना कार्य बताइये ॥ ४८ ॥

व्यास उवाच
तच्छ्रुत्वा भाषितं तस्या मोहिता रूपसम्पदा ।
प्रेमपूर्वं हृदुत्साहास्तामूचुः सुरसत्तमाः ॥ ४९ ॥
व्यासजी बोले-भगवतीका यह वचन सुनकर उनके रूप-वैभवसे मोहित श्रेष्ठ देवताओंका हृदय उत्साहसे परिपूर्ण हो गया, जिससे वे प्रेमपूर्वक उनसे कहने लगे ॥ ४९ ॥

देवा ऊचुः
देवि स्तुमस्त्वां विश्वेशि प्रणताः स्म कृपार्णवे ।
पाहि नः सर्वदुःखेभ्यः संविग्नान्दैत्यतापितान् ॥ ५० ॥
देवता बोले-जगत्को नियन्त्रणमें रखनेवाली हे देवि ! हम आपकी स्तुति कर रहे हैं, हम आपके शरणागत हैं । हे कृपासिन्धो ! दैत्योंसे सताये गये हम देवताओंकी सम्पूर्ण दुःखोंसे रक्षा कीजिये ॥ ५० ॥

पुरा त्वया महादेवि निहत्यासुरकण्टकम् ।
महिषं नो वरो दत्तः स्मर्तव्याहं सदापदि ॥ ५१ ॥
स्मरणाद्दैत्यजां पीडां नाशयिष्याम्यसंशयम् ।
तेन त्वं संस्मृता देवि नूनमस्माभिरित्यपि ॥ ५२ ॥
हे महादेवि ! पूर्वकालमें देवताओंके लिये कंटक बने महिषासुरका वध करके आपने हमें वर प्रदान किया था-'आपलोग संकटमें मुझे सदा याद कीजियेगा, स्मरण करते ही मैं दैत्योंके द्वारा आपलोगोंको पहुँचायी गयी पीड़ाका निःसन्देह नाश कर दूंगी । ' हे देवि ! इसीलिये हमलोगोंने आपका स्मरण किया है ॥ ५१-५२ ॥

अद्य शुम्भनिशुम्भौ द्वावसुरौ घोरदर्शनौ ।
उत्पन्नौ विघ्नकर्तारावहन्यौ पुरुषैः किल ॥ ५३ ॥
रक्तबीजश्च बलवांश्चण्डमुण्डौ तथासुरौ ।
एतैरन्यैश्च देवानां हृतं राज्यं महाबलैः ॥ ५४ ॥
गतिरन्या न चास्माकं त्वमेवासि महाबले ।
कुरु कार्यं सुराणां वै दुःखितानां सुमध्यमे ॥ ५५ ॥
इस समय शुम्भ और निशुम्भ नामक दो दानव उत्पन्न हुए हैं, जो देखनेमें महाभयंकर हैं । वे [हमारे कार्यों में] विघ्न डाला करते हैं । वे पुरुषोंसे सर्वथा अवध्य हैं । ऐसे ही बलशाली दानव रक्तबीज तथा चण्ड और मुण्ड भी हैं । इन सभी तथा अन्य महाबली दानवोंने हम देवताओंका राज्य छीन लिया है । हे महाबले ! हमलोगोंका दूसरा कोई अवलम्ब नहीं, एकमात्र आप ही हमारी शरण हैं । हे सुमध्यमे ! आप दुःखित देवताओंका कार्य सिद्ध करें ॥ ५३-५५ ॥

देवास्त्वदङ्‌घ्रिभजने निरताः सदैव
     ते दानवैरतिबलैर्विपदं सुनीताः ।
तान्देवि दुःखरहितान् कुरु भक्तियुक्ता-
     न्मातस्त्वमेव शरणं भव दुःखितानाम् ॥ ५६ ॥
देवता आपके चरणोंकी उपासनामें सदैव संलग्न रहते हैं । [इस समय] वे सब महान् बलशाली दैत्योंके द्वारा विपत्तिमें डाल दिये गये हैं । अतः हे देवि ! आप उन भक्तिपरायण देवताओंको दुःखरहित कर दीजिये । हे माता ! आप दुःखित देवताओंका आश्रय बन जाइये ॥ ५६ ॥

सकलभुवनरक्षा देवि कार्या त्वयाद्य
     स्वकृतमिति विदित्वा विश्वमेत‌द्युगादौ ।
जननि जगति पीडां दानवा दर्पयुक्ताः
     स्वबलमदसमेतास्ते प्रकुर्वन्ति मातः ॥ ५७ ॥
हे देवि ! युगके आरम्भमें इस विश्वकी रचना आप भगवतीने स्वयं की थी-यह जानकर आप इस समय सम्पूर्ण भूमण्डलकी रक्षा करें । हे जननि ! हे माता ! अपने बलसे मदान्वित तथा अभिमानमें चूर दानव जगत्में लोगोंको पीड़ित कर रहे हैं ॥ ५७ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां पञ्चमस्कन्धे
देवकृतदेव्याराधनवर्णनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥
अध्याय बाइसवाँ समाप्त ॥ २२ ॥


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