जब भगवती पार्वतीके विग्रहकोशसे अम्बिका प्रकट हुईं, तब वे सम्पूर्ण जगत्में 'कौशिकी' इस नामसे कही जाने लगी । पार्वतीके शरीरसे उन भगवती कौशिकीके निकल जानेसे शरीर क्षीण हो जानेके कारण वे पार्वती कृष्णवर्णकी हो गयीं । अतः वे कालिका नामसे विख्यात हुई ॥ २-३ ॥
वे कालिका स्याहीके समान काले वर्णकी थीं तथा महाभयंकर प्रतीत होती थीं । दैत्योंके लिये भयवर्धिनी तथा [भक्तोंके लिये समस्त मनोरथ पूर्ण करनेवाली वे भगवती कालरात्रि' इस नामसे पुकारी जाने लगीं ॥ ४ ॥
तदनन्तर अम्बिकाने मुसकराकर देवताओंसे यह कहा-आपलोग निर्भय रहें, मैं आपके शत्रुओंका वध अभी कर डालूँगी । आपलोगोंका कार्य मुझे सम्यक प्रकारसे सम्पन्न करना है । मैं समरांगणमें विचरण करूँगी और आपलोगोंके कल्याणके लिये निशुम्भ आदि दानवोंका संहार करूंगी ॥ ६-७ ॥
इत्युक्त्वा सा तदा देवी सिंहारूढा मदोत्कटा । कालिकां पार्श्वतः कृत्वा जगाम नगरे रिपोः ॥ ८ ॥
तब ऐसा कहकर गर्वोन्मत्त वे भगवती कौशिकी सिंहपर सवार हो गयीं और देवी कालिकाको साथमें लेकर शत्रुके नगरकी ओर चल पड़ीं ॥ ८ ॥
कालिकासहित देवी अम्बिका वहाँ पहुँचकर नगरके उपवनमें रुक गयीं । तत्पश्चात् उन्होंने जगत्को मोहमें डालनेवालेको भी मोहित करनेवाला गीत गाना आरम्भ कर दिया ॥ ९ ॥
उसी समय शुम्भके चण्ड तथा मुण्ड नामक दो सेवक जो भयंकर दानव थे, स्वेच्छापूर्वक घूमते हुए वहाँ आ गये । उन्होंने देखा कि दिव्य स्वरूपवाली भगवती अम्बिका गायनमें लीन हैं और कालिका उनके सम्मुख विराजमान हैं ॥ ११-१२ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! अब आप यह पता लगाइये कि यह किसकी पुत्री है और किसलिये यहाँ आयी हुई है ? [उसके बाद] उसे अपने यहाँ रख लीजिये; क्योंकि वह सुन्दरी आपके योग्य है ॥ १८ ॥
यह जानकारी प्राप्त करके आप उस सुन्दर नेत्रोंवाली स्त्रीको अपने घर ले आइये और अपनी भार्या बना लीजिये; क्योंकि ऐसी स्त्री निश्चितरूपसे संसारमें नहीं है ॥ १९ ॥
आपने मृत्युको जीतकर उसकी शक्तिको तथा यमराजको जीतकर उसके अति भीषण दण्डको अपने पूर्ण अधिकारमें कर लिया है । हे राजन् ! आपके पराक्रमका और क्या वर्णन किया जाय ? समुद्रसे प्रादुर्भूत कामधेनु आपने छीन ली, जो इस समय आपके पास विद्यमान है । हे राजन ! मेनका आदि अप्सराएँ भी आपके अधीन पड़ी हुई हैं ॥ २६-२७ ॥
एवं सर्वाणि रत्नानि त्वयात्तानि बलादपि । कस्मान्न गृह्यते कान्तारत्नमेषा वराङ्गना ॥ २८ ॥
इस प्रकार जब आपने सभी रत्न बलपूर्वक छीन लिये हैं, तब नारियोंमें रत्नस्वरूपा इस सुन्दरीको भी अपने अधिकारमें क्यों नहीं कर लेते ? ॥ २८ ॥
सर्वाणि ते गृहस्थानि रत्नानि विशदान्यथ । अनया सम्भविष्यन्ति रत्नभूतानि भूपते ॥ २९ ॥
हे भूपते ! आपके गृहमें विद्यमान समस्त विपुल रत्न इस सुन्दरीसे सुशोभित होकर यथार्थरूपमें रत्नस्वरूप हो जायेंगे ॥ २९ ॥
भेदनीतिका प्रयोग करनेपर रसका आभासमात्र हो पाता है और दण्डनीतिका प्रयोग करनेपर रसभंग ही हो जाता है, अतः विद्वान् पुरुषोंने इन दोनोंको दोषपूर्ण बताया है ॥ ३४ ॥
सामदानमुखैर्वाक्यैः श्लक्ष्णैर्नर्मयुतैस्तथा । का न याति वशे दूत कामिनी कामपीडिता ॥ ३५ ॥
हे दूत ! ऐसी कौन स्त्री होगी; जो साम, दानइन मुख्य नीतियोंसे सम्पन्न, मधुर तथा हासपरिहाससे परिपूर्ण वाक्योंके द्वारा कामपीड़ित होकर वशमें न हो जाय ॥ ३५ ॥
तुम्हारे गुणोंने कानोंके मार्गसे मेरे हदयमें प्रवेश करके मुझे पूर्णरूपसे तुम्हारे वशमें कर दिया है । अब मैं क्या करूँ ? मैं तो तुम्हारा दास बन गया हूँ ॥ ४४ ॥
हे रम्भोरु ! मैं तुम्हारे अधीन हूँ, तुम मुझे जो भी आज्ञा प्रदान करो, उसे मैं करूंगा । हे सुन्दर अंगोंवाली ! मैं तुम्हारा दास हूँ, कामबाणसे मेरी रक्षा करो ॥ ४५ ॥
हे कान्ते ! मैं मरणपर्यन्त तुम्हारी आज्ञाका पालन करूँगा । हे वरारोहे ! मैं देवता, असुर तथा मनुष्योंसे अवध्य हूँ । हे सुमुखि ! [मुझे पति बनाकर] तुम सदा सौभाग्यवती रहोगी । हे सुन्दरि ! जहाँ तुम्हारा मन लगे, वहाँ विहार करना ॥ ४७-४८ ॥
मदसे अलसायी हुई हे कामिनि ! [मेरे स्वामी] उन शुम्भकी बातपर अपने मन में भलीभाँति विचार करके तुम्हें जो कुछ कहना हो, उसे प्रेमपूर्वक मधुर वाणीमें कहो । हे चंचल कटाक्षवाली ! मैं वह सन्देश तुरंत शुम्भसे निवेदन करूँगा ॥ ४९.५ ॥
व्यास उवाच तद्दूतवचनं श्रुत्वा स्मितं कृत्वा सुपेशलम् ॥ ५० ॥
व्यासजी बोले-दूतका वह वचन सुनकर देवताओंका कार्य सिद्ध करनेवाली भगवती अत्यन्त मधुर मुसकान करके मीठी वाणीमें उससे कहने लगी ॥ ५० ॥
देवी बोलीं-मैं महाबली राजा शुम्भ तथा निशुम्भ-दोनोंको जानती हूँ । उन्होंने सभी देवताओंको जीत लिया है और अपने शत्रुओंका संहार कर डाला है, वे सभी गुणोंकी राशि हैं और सब सम्पदाओंका भोग करनेवाले हैं । वे दानी, महापराक्रमी, सुन्दर, कामदेवसदृश रूपवाले, बत्तीस लक्षणोंसे सम्पन्न और देवताओं तथा मनुष्योंसे अवध्य हैं-यह जानकर मैं उस महान् असुरको देखनेकी इच्छासे यहाँ आयी हूँ । जैसे रल अपनी शोभाको और अधिक बढ़ानेके लिये सुवर्णके पास आता है, वैसे ही मैं अपने पतिको देखनेके लिये दूरसे यहाँ आयी हूँ ॥ ५१-५४.५ ॥
सभी देवताओं, पृथ्वीलोकमें मान प्रदान करनेवाले सभी मनुष्यों, गन्धों, राक्षसों तथा देखने में सुन्दर लगनेवाले जो भी अन्य लोग हैं; उन सबको मैंने देख लिया है । सब-के-सब शुम्भके आतंकसे डरे हुए हैं, भयके मारे काँपते रहते हैं और सदा व्याकुल रहते हैं ॥ ५५-५६ ॥
शुम्भके गुण सुनकर उन्हें देखनेकी इच्छासे मैं इस समय यहाँ आयी हुई हूँ । हे महाभाग्यशाली दूत ! तुम जाओ और महाबली शुम्भसे एकान्त स्थानमें मधुर वाणीमें मेरे शब्दोंमें यह बात कहो-हे राजन् ! आपको बलवानोंमें सबसे बली, सुन्दरोंमें अति सुन्दर, दानी, गुणी, पराक्रमी, सभी विद्याओंमें पारंगत, सभी देवताओंको जीत लेनेवाला, कुशल, प्रतापी, श्रेष्ठ कुलवाला, समस्त रत्नोंका भोग करनेवाला, स्वतन्त्र तथा अपनी शक्तिसे समृद्धिशाली बना हुआ जानकर मैं आपको पति बनानेकी इच्छुक हूँ । हे नराधिप ! मैं भी निश्चितरूपसे आपके योग्य हूँ । हे महामते ! मैं आपके इस नगरमें अपनी इच्छासे आयी है । किंतु हे राक्षसश्रेष्ठ ! मेरे विवाहमें कुछ शर्त है । हे राजन् ! पूर्वमें मैंने सखियोंके साथ खेलते समय बालस्वभाववश अपने शारीरिक बलके अभिमानके कारण संयोगसे उन सखियोंके समक्ष एकान्तमें यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि मेरे समान पराक्रम रखनेवाला जो वीर रणमें मुझे स्पष्टरूपसे जीत लेगा, उसके बलाबलको जानकर ही मैं पतिरूपमें उसका वरण करूंगी । मेरी यह बात सुनकर सखियोंके मनमें बड़ा विस्मय हआ और वे जोर-जोरसे हँसने लगीं । वे कहने लगीं] 'इसने शीघ्रतापूर्वक यह कैसी भीषण तथा अद्भुत प्रतिज्ञा कर ली । ' अतएव हे राजेन्द्र ! आप भी मेरे ऐसे पराक्रमको जानकर यहींपर अपने बलसे मुझे जीतकर अपना मनोरथ पूर्ण कर लीजिये । हे सुन्दर ! आप अथवा आपका छोटा भाई समरांगणमें आकर युद्धके द्वारा मुझे जीतकर [ मेरे साथ] विवाह कर लें ॥ ५७-६६ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे देव्या सुग्रीवदूताय स्वव्रतकथनं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥