Menus in CSS Css3Menu.com



श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
पञ्चमः स्कन्धः
त्रयोविंशोऽध्यायः

[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]


देव्या सुग्रीवदूताय स्वव्रतकथनम् -
भगवतीके श्रीविग्रहसे कौशिकीका प्राकट्य, देवीकी कालिकारूपमें परिणति, चण्ड-मुण्डसे देवीके अद्भुत सौन्दर्यको सुनकर शुम्भका सुग्रीवको दूत बनाकर भेजना, जगदम्बाका विवाहके विषयमें अपनी शर्त बताना -


व्यास उवाच
एवं स्तुता तदा देवी दैवतैः शत्रुतापितैः ।
स्वशरीरात्परं रूपं प्रादुर्भूतं चकार ह ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] तब शत्रुओंसे सन्त्रस्त देवताओंके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवतीने अपने शरीरसे एक दूसरा रूप प्रकट कर दिया ॥ १ ॥

पार्वत्यास्तु शरीराद्वै निःसृता चाम्बिका यदा ।
कौशिकीति समस्तेषु ततो लोकेषु पठ्यते ॥ २ ॥
निःसृतायां तु तस्यां सा पार्वती तनुव्यत्ययात् ।
कृष्णरूपाथ सञ्जाता कालिका सा प्रकीर्तिता ॥ ३ ॥
जब भगवती पार्वतीके विग्रहकोशसे अम्बिका प्रकट हुईं, तब वे सम्पूर्ण जगत्में 'कौशिकी' इस नामसे कही जाने लगी । पार्वतीके शरीरसे उन भगवती कौशिकीके निकल जानेसे शरीर क्षीण हो जानेके कारण वे पार्वती कृष्णवर्णकी हो गयीं । अतः वे कालिका नामसे विख्यात हुई ॥ २-३ ॥

मषीवर्णा महाघोरा दैत्यानां भयवर्धिनी ।
कालरात्रीति सा प्रोक्ता सर्वकामफलप्रदा ॥ ४ ॥
वे कालिका स्याहीके समान काले वर्णकी थीं तथा महाभयंकर प्रतीत होती थीं । दैत्योंके लिये भयवर्धिनी तथा [भक्तोंके लिये समस्त मनोरथ पूर्ण करनेवाली वे भगवती कालरात्रि' इस नामसे पुकारी जाने लगीं ॥ ४ ॥

अम्बिकायाः परं रूपं विरराज मनोहरम् ।
सर्वभूषणसंयुक्तं लावण्यगुणसंयुतम् ॥ ५ ॥
समस्त आभूषणोंसे मण्डित और लावण्यगुणसे सम्पन्न वह भगवतीका दूसरा रूप (कौशिकी) अत्यन्त मनोहर प्रतीत हो रहा था ॥ ५ ॥

ततोऽम्बिका तदा देवानित्युवाच ह सस्मिता ।
तिष्ठन्तु निर्भया यूयं हनिष्यामि रिपूनिह ॥ ६ ॥
कार्यं वः सर्वथा कार्यं विहरिष्याम्यहं रणे ।
निशुम्भादीन्वधिष्यामि युष्माकं सुखहेतवे ॥ ७ ॥
तदनन्तर अम्बिकाने मुसकराकर देवताओंसे यह कहा-आपलोग निर्भय रहें, मैं आपके शत्रुओंका वध अभी कर डालूँगी । आपलोगोंका कार्य मुझे सम्यक प्रकारसे सम्पन्न करना है । मैं समरांगणमें विचरण करूँगी और आपलोगोंके कल्याणके लिये निशुम्भ आदि दानवोंका संहार करूंगी ॥ ६-७ ॥

इत्युक्त्वा सा तदा देवी सिंहारूढा मदोत्कटा ।
कालिकां पार्श्वतः कृत्वा जगाम नगरे रिपोः ॥ ८ ॥
तब ऐसा कहकर गर्वोन्मत्त वे भगवती कौशिकी सिंहपर सवार हो गयीं और देवी कालिकाको साथमें लेकर शत्रुके नगरकी ओर चल पड़ीं ॥ ८ ॥

सा गत्वोपवने तस्थावम्बिका कालिकान्विता ।
जगावथ कलं तत्र जगन्मोहनमोहनम् ॥ ९ ॥
कालिकासहित देवी अम्बिका वहाँ पहुँचकर नगरके उपवनमें रुक गयीं । तत्पश्चात् उन्होंने जगत्को मोहमें डालनेवालेको भी मोहित करनेवाला गीत गाना आरम्भ कर दिया ॥ ९ ॥

श्रुत्वा तन्मधुरं गानं मोहमीयुः खगा मृगाः ।
मुदञ्च परमां प्रापुरमरा गगने स्थिताः ॥ १० ॥
उस मधुर गानको सुनकर पशु-पक्षी भी मोहित हो गये और आकाशमण्डलमें स्थित देवतागण अत्यन्त आनन्दित हो उठे ॥ १० ॥

तस्मिन्नवसरे तत्र दानवौ शुम्भसेवकौ ।
चण्डमुण्डाभिधौ घोरौ रममाणौ यदृच्छया ॥ ११ ॥
आगतौ ददृशाते तु तां तदा दिव्यरूपिणीम् ।
अम्बिकां गानसंयुक्तां कालिकां पुरतः स्थिताम् ॥ १२ ॥
उसी समय शुम्भके चण्ड तथा मुण्ड नामक दो सेवक जो भयंकर दानव थे, स्वेच्छापूर्वक घूमते हुए वहाँ आ गये । उन्होंने देखा कि दिव्य स्वरूपवाली भगवती अम्बिका गायनमें लीन हैं और कालिका उनके सम्मुख विराजमान हैं ॥ ११-१२ ॥

दृष्ट्वा तां दिव्यरूपाञ्च दानवौ विस्मयान्वितौ ।
जग्मतुस्तरसा पार्श्वं शुम्भस्य नृपसत्तम ॥ १३ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! उन दिव्य रूपवाली भगवतीको देखकर दोनों दानव विस्मयमें पड़ गये । वे तुरंत शुम्भके पास जा पहुँचे ॥ १३ ॥

तौ गत्वा तं समासीनं दैत्यानामधिपं गृहे ।
ऊचतुर्मधुरां वाणीं प्रणम्य शिरसा नृपम् ॥ १४ ॥
अपने महलमें बैठे हुए उस दानवराज शुम्भके पास जाकर उन दोनोंने सिर झुकाकर राजाको प्रणाम करके मधुर वाणीमें कहा- ॥ १४ ॥

राजन् हिमालयात्कामं कामिनी काममोहिनी ।
सम्प्राप्ता सिंहमारूढा सर्वलक्षणसंयुता ॥ १५ ॥
हे राजन् ! कामदेवको भी मोहित कर देनेवाली एक सुन्दरी हिमालयसे यहाँ आयी हुई है । वह सिंहपर सवार है तथा सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न है ॥ १५ ॥

नेदृशी देवलोकेऽस्ति न गन्धर्वपुरे तथा ।
न दृष्टा न श्रुता क्वापि पृथिव्यां प्रमदोत्तमा ॥ १६ ॥
ऐसी उत्तम स्त्री न स्वर्गमें है और न गन्धर्वलोकमें । सम्पूर्ण पृथ्वीपर ऐसी सुन्दरी न तो कहीं देखी गयी और न सुनी ही गयी ॥ १६ ॥

गानञ्च तादृशं राजन् करोति जनरञ्जनम् ।
मृगास्तिष्ठन्ति तत्पार्श्वे मथुरस्वरमोहिताः ॥ १७ ॥
हे राजन् ! वह ऐसा गाती है कि उसके गानेपर सभी मुग्ध हो जाते हैं । उसके मधुर स्वरसे मोहित होकर मृग भी उसके पास बैठे रह जाते हैं ॥ १७ ॥

ज्ञायतां कस्य पुत्रीयं किमर्थमिह चागता ।
गृह्यतां राजशार्दूल तव योग्यास्ति कामिनी ॥ १८ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! अब आप यह पता लगाइये कि यह किसकी पुत्री है और किसलिये यहाँ आयी हुई है ? [उसके बाद] उसे अपने यहाँ रख लीजिये; क्योंकि वह सुन्दरी आपके योग्य है ॥ १८ ॥

ज्ञात्वाऽऽनय गृहे भार्यां कुरु कल्याणलोचनाम् ।
निश्चितं नास्ति संसारे नारी त्वेवंविधा किल ॥ १९ ॥
यह जानकारी प्राप्त करके आप उस सुन्दर नेत्रोंवाली स्त्रीको अपने घर ले आइये और अपनी भार्या बना लीजिये; क्योंकि ऐसी स्त्री निश्चितरूपसे संसारमें नहीं है ॥ १९ ॥

देवानां सर्वरत्‍नानि गृहीतानि त्वया नृप ।
कस्मान्नेमां वरारोहां प्रगह्णासि नृपोत्तम ॥ २० ॥
हे राजन् ! आप देवताओंके सम्पूर्ण रल अपने अधिकारमें कर चुके हैं, तो फिर हे नृपश्रेष्ठ ! इस सुन्दरीको भी आप अपने अधिकारमें क्यों नहीं कर लेते ? ॥ २० ॥

इन्द्रस्यैरावतः श्रीमान्पारिजाततरुस्तथा ।
गृहीतोऽश्वः सप्तमुखस्त्वया नृप बलात्किल ॥ २१ ॥
हे राजन् ! आपने बलपूर्वक इन्द्रका ऐश्वर्ययुक्त ऐरावत हाथी, पारिजात वृक्ष और सप्तमुखवाला उच्चैःश्रवा घोड़ा छीन लिया ॥ २१ ॥

विमानं वैधसं दिव्यं मरालध्वजसंयुतम् ।
त्वयात्तं रत्‍नभूतं तद्‌बलेन नृप चाद्‌भुतम् ॥ २२ ॥
हे नृप ! आपने ब्रह्माजीके हंसध्वजसम्पन्न, दिव्य तथा रत्नमय अद्भुत विमानको बलपूर्वक अपने अधिकारमें कर लिया ॥ २२ ॥

कुबेरस्य निधिः पद्मस्त्वया राजन् समाहृतः ।
छत्रं जलपतेः शुभ्रं गृहीतं तत्त्वया बलात् ॥ २३ ॥
हे राजन् ! आपने बलपूर्वक कुबेरकी पद्म नामक निधिको छीन लिया है और वरुणके श्वेत छत्रको अपने अधिकारमें कर लिया है ॥ २३ ॥

पाशश्चापि निशुम्भेन भ्रात्रा तव नृपोत्तम ।
गृहीतोऽस्ति हठात्कामं वरुणस्य जितस्य च ॥ २४ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! आपके भाई निशुम्भने भी वरुणको पराजित करके उसके पाशको हठपूर्वक छीन लिया है । ॥ २४ ॥

अम्लानपङ्कजां तुभ्यं मालां जलनिधिर्ददौ ।
भयात्तव महाराज रत्‍नानि विविधानि च ॥ २५ ॥
हे महाराज ! आपके भयसे समुद्रने कभी भी न मुरझानेवाली कमल-पुष्पोंकी माला और विविध प्रकारके रत्न आपको प्रदान किये हैं ॥ २५ ॥

मृत्योः शक्तिर्यमस्यापि दण्डः परमदारुणः ।
त्वया जित्वा हृतः कामं किमन्यद्वर्ण्यते नृप ॥ २६ ॥
कामधेनुर्गहीताद्य वर्तते सागरोद्‌भवा ।
मेनकाद्या वशे राजंस्तव तिष्ठन्ति चाप्सराः ॥ २७ ॥
आपने मृत्युको जीतकर उसकी शक्तिको तथा यमराजको जीतकर उसके अति भीषण दण्डको अपने पूर्ण अधिकारमें कर लिया है । हे राजन् ! आपके पराक्रमका और क्या वर्णन किया जाय ? समुद्रसे प्रादुर्भूत कामधेनु आपने छीन ली, जो इस समय आपके पास विद्यमान है । हे राजन ! मेनका आदि अप्सराएँ भी आपके अधीन पड़ी हुई हैं ॥ २६-२७ ॥

एवं सर्वाणि रत्‍नानि त्वयात्तानि बलादपि ।
कस्मान्न गृह्यते कान्तारत्‍नमेषा वराङ्गना ॥ २८ ॥
इस प्रकार जब आपने सभी रत्न बलपूर्वक छीन लिये हैं, तब नारियोंमें रत्नस्वरूपा इस सुन्दरीको भी अपने अधिकारमें क्यों नहीं कर लेते ? ॥ २८ ॥

सर्वाणि ते गृहस्थानि रत्‍नानि विशदान्यथ ।
अनया सम्भविष्यन्ति रत्‍नभूतानि भूपते ॥ २९ ॥
हे भूपते ! आपके गृहमें विद्यमान समस्त विपुल रत्न इस सुन्दरीसे सुशोभित होकर यथार्थरूपमें रत्नस्वरूप हो जायेंगे ॥ २९ ॥

त्रिषु लोकेषु दैत्येन्द्र नेदृशी वर्तते प्रिया ।
तस्मात्तामानयाशु त्वं कुरु भार्यां मनोहराम् ॥ ३० ॥
हे दैत्यराज ! तीनों लोकोंमें ऐसी सुन्दरी स्त्री नहीं है । अतः आप उस मनोहारिणी स्त्रीको शीघ्र ले आइये और अपनी भार्या बना लीजिये ॥ ३० ॥

व्यास उवाच
इति श्रुत्वा तयोर्वाक्यं मधुरं मधुराक्षरम् ।
प्रसन्नवदनः प्राह सुग्रीवं सनिधौ स्थितम् ॥ ३१ ॥
व्यासजी बोले-चण्ड मुण्डके मधुमय अक्षरोंसे युक्त यह मधुर वचन सुनकर प्रसन्न मुखमण्डलवाला शुम्भ अपने समीपमें बैठे हुए सुग्रीवसे कहने लगा- ॥ ३१ ॥

गच्छ सुग्रीव दूतत्वं कुरु कार्यं विचक्षण ।
वक्तव्यञ्च तथा तत्र यथाभ्येति कृशोदरी ॥ ३२ ॥
हे बुद्धिसम्पन्न सुग्रीव ! तुम दूत बनकर जाओ और मेरा यह कार्य सम्पन्न करो । वहाँ तुम ऐसी बातचीत करना, जिससे वह कृशोदरी यहाँ आ जाय ॥ ३२ ॥

उपायौ द्वौ प्रयोक्तव्यौ कान्तासु सुविचक्षणैः ।
सामदाने इति प्राहुः शृङ्गाररसकोविदाः ॥ ३३ ॥
बुद्धिमान् पुरुषोंको स्त्रियोंके विषयमें साम और दान-इन दो उपायोंका प्रयोग करना चाहिये-ऐसा शृंगाररसके विद्वानोंने कहा है ॥ ३३ ॥

भेदे प्रयुज्यमानेऽपि रसाभासस्तु जायते ।
निग्रहे रसभङ्गः स्यात्तस्मात्तौ दूषितौ बुधैः ॥ ३४ ॥
भेदनीतिका प्रयोग करनेपर रसका आभासमात्र हो पाता है और दण्डनीतिका प्रयोग करनेपर रसभंग ही हो जाता है, अतः विद्वान् पुरुषोंने इन दोनोंको दोषपूर्ण बताया है ॥ ३४ ॥

सामदानमुखैर्वाक्यैः श्लक्ष्णैर्नर्मयुतैस्तथा ।
का न याति वशे दूत कामिनी कामपीडिता ॥ ३५ ॥
हे दूत ! ऐसी कौन स्त्री होगी; जो साम, दानइन मुख्य नीतियोंसे सम्पन्न, मधुर तथा हासपरिहाससे परिपूर्ण वाक्योंके द्वारा कामपीड़ित होकर वशमें न हो जाय ॥ ३५ ॥

व्यास उवाच
सुग्रीवस्तु वचः श्रुत्वा शुम्भोक्तं सुप्रियं पटु ।
जगाम तरसा तत्र यत्रास्ते जगदम्बिका ॥ ३६ ॥
व्यासजी बोले-शुम्भके द्वारा कही गयी अत्यन्त प्रिय तथा चातुर्यपूर्ण बात सुनकर सुग्रीव बड़े वेगसे उधर चल पड़ा, जहाँ जगदम्बिका विराजमान थीं ॥ ३६ ॥

सोऽपश्यत्सुमुखीं कान्तां सिंहस्योपरिसंस्थिताम् ।
प्रणम्य मधुरं वाक्यमुवाच जगदम्बिकाम् ॥ ३७ ॥
वहाँपर उसने देखा कि एक सुन्दर मुखवाली युवती सिंहपर सवार है । तब जगदम्बिकाको प्रणाम करके वह मधुर वाणीमें कहने लगा- ॥ ३७ ॥

दूत उवाच
वरोरु त्रिदशारातिः शुम्भः सर्वाङ्गसुन्दरः ।
त्रैलोक्याधिपतिः शूरः सर्वजिद्‌राजते नृपः ॥ ३८ ॥
दूत बोला-हे सुजघने ! देवताओंके शत्रु राजा शुम्भ सर्वांगसुन्दर और पराक्रमी हैं । सबको जीतकर वे तीनों लोकोंके अधिपति हो गये हैं ॥ ३८ ॥

तेनाहं प्रेषितः कामं त्वत्सकाशं महात्मना ।
त्वद्‌रूपश्रवणासक्तचित्तेनातिविदूयता ॥ ३९ ॥
आपके सौन्दर्यके विषयमें सुनकर आपपर आसक्त मनवाले उन्हीं महाराज शुम्भने व्याकुल होकर मुझे आपके पास भेजा है ॥ ३९ ॥

वचनं तस्य तन्वङ्‌गि शृणु प्रेमपुरःसरम् ।
प्रणिपत्य यथा प्राह दैत्यानामधिपस्त्वयि ॥ ४० ॥
हे तन्वंगि ! दैत्यपति शुम्भने आपको प्रणाम करके जो प्रेमपूर्ण वचन कहा है, उनके उस वचनको आप सुनें- ॥ ४० ॥

देवा मया जिताः सर्वे त्रैलोक्याधिपतिस्त्वहम् ।
यज्ञभागानहं कान्ते गह्णामीह स्थितः सदा ॥ ४१ ॥
हे कान्ते ! मैंने सभी देवताओंको जीत लिया है, इस समय मैं तीनों लोकोंका स्वामी हूँ । मैं यहाँ रहते हुए सदा यज्ञभाग प्राप्त करता हूँ ॥ ४१ ॥

हृतसारा कृता नूनं द्यौर्मया रत्‍नवर्जिता ।
यानि रत्‍नानि देवानां तानि चाहृतवानहम् ॥ ४२ ॥
मैंने स्वर्गलोककी सभी सार वस्तुएँ छीन ली हैं और उसे रत्नविहीन कर दिया है । देवताओंके पास जो भी रत्न थे, उन सबको मैंने हर लिया है ॥ ४२ ॥

भोक्ताहं सर्वरत्‍नानां त्रिषु लोकेषु भामिनि ।
वशानुगाः सुराः सर्वे मम दैत्याश्च मानवाः ॥ ४३ ॥
हे भामिनि ! तीनों लोकोंमें सभी रत्नोंका भोग करनेवाला एकमात्र मैं ही हूँ । देवता, दैत्य और मनुष्य-ये सब मेरे अधीन रहते हैं । ४३ ॥

त्वद्‌गुणैः कर्णमागत्य प्रविश्य हृदयान्तरम् ।
त्वदधीनः कृतः कामं किङ्करोऽस्मि करोमि किम् ॥ ४४ ॥
तुम्हारे गुणोंने कानोंके मार्गसे मेरे हदयमें प्रवेश करके मुझे पूर्णरूपसे तुम्हारे वशमें कर दिया है । अब मैं क्या करूँ ? मैं तो तुम्हारा दास बन गया हूँ ॥ ४४ ॥

त्वमाज्ञापय रम्भोरु तत्करोमि वशानुगः ।
दासोऽहं तव चार्वङ्‌गि रक्ष मां कामबाणतः ॥ ४५ ॥
हे रम्भोरु ! मैं तुम्हारे अधीन हूँ, तुम मुझे जो भी आज्ञा प्रदान करो, उसे मैं करूंगा । हे सुन्दर अंगोंवाली ! मैं तुम्हारा दास हूँ, कामबाणसे मेरी रक्षा करो ॥ ४५ ॥

भज मां त्वं मरालाक्षि तवाधीनं स्मराकुलम् ।
त्रैलोक्यस्वामिनी भूत्वा भुंक्ष्व भोगाननुत्तमान् ॥ ४६ ॥
हे मरालाक्षि ! तुम्हारे अधीन हुए मुझ कामातुरको तुम स्वीकार कर लो और तीनों लोकोंकी स्वामिनी बनकर उत्कृष्ट सुखोंका उपभोग करो ॥ ४६ ॥

तव चाज्ञाकरः कान्ते भवामि मरणावधि ।
अवध्योऽस्मि वरारोहे सदेवासुरमानुषैः ॥ ४७ ॥
सदा सौभाग्यसंयुक्ता भविष्यसि वरानने ।
यत्र ते रमते चित्तं तत्र क्रीडस्व सुन्दरि ॥ ४८ ॥
हे कान्ते ! मैं मरणपर्यन्त तुम्हारी आज्ञाका पालन करूँगा । हे वरारोहे ! मैं देवता, असुर तथा मनुष्योंसे अवध्य हूँ । हे सुमुखि ! [मुझे पति बनाकर] तुम सदा सौभाग्यवती रहोगी । हे सुन्दरि ! जहाँ तुम्हारा मन लगे, वहाँ विहार करना ॥ ४७-४८ ॥

इति तस्य वचश्चित्ते विमृश्य मदमन्थरे ।
वक्तव्यं यद्‌भवेत्प्रेम्णा तद्‌ ब्रूहि मधुरं वचः ॥ ४९ ॥
शुम्भाय चञ्चलापाङ्‌गि तद्‌ब्रवीम्यहमाशु वै ।
मदसे अलसायी हुई हे कामिनि ! [मेरे स्वामी] उन शुम्भकी बातपर अपने मन में भलीभाँति विचार करके तुम्हें जो कुछ कहना हो, उसे प्रेमपूर्वक मधुर वाणीमें कहो । हे चंचल कटाक्षवाली ! मैं वह सन्देश तुरंत शुम्भसे निवेदन करूँगा ॥ ४९.५ ॥

व्यास उवाच
तद्दूतवचनं श्रुत्वा स्मितं कृत्वा सुपेशलम् ॥ ५० ॥
व्यासजी बोले-दूतका वह वचन सुनकर देवताओंका कार्य सिद्ध करनेवाली भगवती अत्यन्त मधुर मुसकान करके मीठी वाणीमें उससे कहने लगी ॥ ५० ॥

तं प्राह मधुरां वाचं देवी देवार्थसाधिका ।

देव्युवाच
जानाम्यहं निशुम्भं च शुम्भं चातिबलं नृपम् ॥ ५१ ॥
जेतारं सर्वदेवानां हन्तारञ्चैव विद्विषाम् ।
राशिं सर्वगुणानाञ्च भोक्तारं सर्वसम्पदाम् ॥ ५२ ॥
दातारं चातिशूरं च सुन्दरं मन्मथाकृतिम् ।
द्वात्रिंशल्लक्षणैर्युक्तमवध्यं सुरमानुषैः ॥ ५३ ॥
ज्ञात्वा समागतास्स्म्यत्र द्रष्टुकामा महासुरम् ।
रत्‍नं कनकमायाति स्वशोभाधिकवृद्धये ॥ ५४ ॥
तत्राहं स्वपतिं द्रष्टुं दूरादेवागतास्मि वै ।
देवी बोलीं-मैं महाबली राजा शुम्भ तथा निशुम्भ-दोनोंको जानती हूँ । उन्होंने सभी देवताओंको जीत लिया है और अपने शत्रुओंका संहार कर डाला है, वे सभी गुणोंकी राशि हैं और सब सम्पदाओंका भोग करनेवाले हैं । वे दानी, महापराक्रमी, सुन्दर, कामदेवसदृश रूपवाले, बत्तीस लक्षणोंसे सम्पन्न और देवताओं तथा मनुष्योंसे अवध्य हैं-यह जानकर मैं उस महान् असुरको देखनेकी इच्छासे यहाँ आयी हूँ । जैसे रल अपनी शोभाको और अधिक बढ़ानेके लिये सुवर्णके पास आता है, वैसे ही मैं अपने पतिको देखनेके लिये दूरसे यहाँ आयी हूँ ॥ ५१-५४.५ ॥

दृष्टा मया सुराः सर्वे मानवा भुवि मानदाः ॥ ५५ ॥
गन्धर्वा राक्षसाश्चान्ये ये चातिप्रियदर्शनाः ।
सर्वे शुम्भभयाद्‌भीता वेपमाना विचेतसः ॥ ५६ ॥
सभी देवताओं, पृथ्वीलोकमें मान प्रदान करनेवाले सभी मनुष्यों, गन्धों, राक्षसों तथा देखने में सुन्दर लगनेवाले जो भी अन्य लोग हैं; उन सबको मैंने देख लिया है । सब-के-सब शुम्भके आतंकसे डरे हुए हैं, भयके मारे काँपते रहते हैं और सदा व्याकुल रहते हैं ॥ ५५-५६ ॥

श्रुत्वा शुम्भगुणानत्र प्राप्तास्म्यद्य दिदृक्षया ।
गच्छ दूत महाभाग ब्रूहि शुम्भं महाबलम् ॥ ५७ ॥
निर्जने श्लक्ष्णया वाचा वचनं वचनान्मम ।
त्वां ज्ञात्वा बलिनां श्रेष्ठं सुन्दराणां च सुन्दरम् ॥ ५८ ॥
दातारं गुणिनं शूरं सर्वविद्याविशारदम् ।
जेतारं सर्वदेवानां दक्षं चोग्रं कुलोत्तरम् ॥ ५९ ॥
भोक्तारं सर्वरत्‍नानां स्वाधीनं स्वबलोन्नतम् ।
पतिकामास्म्यहं सत्यं तव योग्या नराधिप ॥ ६० ॥
स्वेच्छया नगरे तेऽत्र समायाता महामते ।
ममास्ति कारणं किञ्चिद्विवाहे राक्षसोत्तम ॥ ६१ ॥
बालभावाद्व्रतं किञ्चित्कृतं राजन्मया पुरा ।
क्रीडन्त्या च वयस्याभिः सहैकान्ते यदृच्छया ॥ ६२ ॥
स्वदेहबलदर्पेण सखीनां पुरतो रहः ।
मत्समानबलः शूरो रणे मां जेष्यति स्फुटम् ॥ ६३ ॥
तं वरिष्याम्यहं कामं ज्ञात्वा तस्य बलाबलम् ।
जहसुर्वचनं श्रुत्वा सख्यो विस्मितमानसाः ॥ ६४ ॥
किमेतया कृतं क्रूरं व्रतमद्‌भुतमाशु वै ।
तस्मात्त्वमपि राजेन्द्र ज्ञात्वा मे हीदृशं बलम् । ६५ ॥
जित्वा मां स्वबलेनात्र वाञ्छितं कुरु चात्मनः ।
त्वं वा तवानुजो भ्राता समेत्य समराङ्गणे ।
जित्वा मां समरेणात्र विवाहं कुरु सुन्दर ॥ ६६ ॥
शुम्भके गुण सुनकर उन्हें देखनेकी इच्छासे मैं इस समय यहाँ आयी हुई हूँ । हे महाभाग्यशाली दूत ! तुम जाओ और महाबली शुम्भसे एकान्त स्थानमें मधुर वाणीमें मेरे शब्दोंमें यह बात कहो-हे राजन् ! आपको बलवानोंमें सबसे बली, सुन्दरोंमें अति सुन्दर, दानी, गुणी, पराक्रमी, सभी विद्याओंमें पारंगत, सभी देवताओंको जीत लेनेवाला, कुशल, प्रतापी, श्रेष्ठ कुलवाला, समस्त रत्नोंका भोग करनेवाला, स्वतन्त्र तथा अपनी शक्तिसे समृद्धिशाली बना हुआ जानकर मैं आपको पति बनानेकी इच्छुक हूँ । हे नराधिप ! मैं भी निश्चितरूपसे आपके योग्य हूँ । हे महामते ! मैं आपके इस नगरमें अपनी इच्छासे आयी है । किंतु हे राक्षसश्रेष्ठ ! मेरे विवाहमें कुछ शर्त है । हे राजन् ! पूर्वमें मैंने सखियोंके साथ खेलते समय बालस्वभाववश अपने शारीरिक बलके अभिमानके कारण संयोगसे उन सखियोंके समक्ष एकान्तमें यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि मेरे समान पराक्रम रखनेवाला जो वीर रणमें मुझे स्पष्टरूपसे जीत लेगा, उसके बलाबलको जानकर ही मैं पतिरूपमें उसका वरण करूंगी । मेरी यह बात सुनकर सखियोंके मनमें बड़ा विस्मय हआ और वे जोर-जोरसे हँसने लगीं । वे कहने लगीं] 'इसने शीघ्रतापूर्वक यह कैसी भीषण तथा अद्भुत प्रतिज्ञा कर ली । ' अतएव हे राजेन्द्र ! आप भी मेरे ऐसे पराक्रमको जानकर यहींपर अपने बलसे मुझे जीतकर अपना मनोरथ पूर्ण कर लीजिये । हे सुन्दर ! आप अथवा आपका छोटा भाई समरांगणमें आकर युद्धके द्वारा मुझे जीतकर [ मेरे साथ] विवाह कर लें ॥ ५७-६६ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां पञ्चमस्कन्धे देव्या सुग्रीवदूताय
स्वव्रतकथनं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥
अध्याय तेईसवाँ समाप्त ॥ २३ ॥


GO TOP