शुम्भका धूम्रलोचनको देवीके पास भेजना और धूम्रलोचनका देवीको समझानेका प्रयास करना -
व्यास उवाच देव्यास्तद्वचनं श्रुत्वा स दूतः प्राह विस्मितः । किं ब्रूषे रुचिरापाङ्गि स्त्रीस्वभावाद्धि साहसात् ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-भगवतीका वह वचन सुनकर वह दूत विस्मित हो गया और उसने देवीसे कहाहे सुन्दर कटाक्षवाली ! तुम स्त्रीस्वभावके कारण साहसपूर्वक यह क्या बोल रही हो ? ॥ १ ॥
इन्द्राद्या निर्जिता येन देवा दैत्यास्तथापरे । तं कथं समरे देवि जेतुमिच्छसि भामिनि ॥ २ ॥
हे भामिनि ! हे देवि ! जिन्होंने इन्द्र आदि देवताओं तथा अन्य दैत्योंको पराजित कर दिया है, उन्हें तुम संग्राममें जीतनेकी अभिलाषा कैसे रखती हो ? ॥ २ ॥
त्रैलोक्ये तादृशो नास्ति यः शुम्भं समरे जयेत् । का त्वं कमलपत्राक्षि तस्याग्रे युधि साम्प्रतम् ॥ ३ ॥
त्रिलोकीमें वैसा कोई नहीं है, जो शुम्भको संग्राममें जीत सके; तब हे कमलसदृश नेत्रोंवाली ! तुम कौन-सी सामर्थ्यशालिनी हो जो इस समय युद्धमें उनके सामने टिक सको ? ॥ ३ ॥
अविचार्य न वक्तव्यं वचनं चापि सुन्दरि । बलं स्वपरयोर्ज्ञात्वा वक्तव्यं समयोचितम् ॥ ४ ॥
हे सुन्दरि ! बिना सोचे-समझे कोई बात नहीं बोलनी चाहिये, अपितु अपने तथा शत्रुके बलको जानकर ही समयके अनुसार बोलना चाहिये ॥ ४ ॥
त्रैलोक्याधिपतिः शुम्भस्तव रूपेण मोहितः । त्वाञ्च प्रार्थयते राजा कुरु तस्येप्सितं प्रिये ॥ ५ ॥
तीनों लोकोंके अधिपति महाराज शुम्भ तुम्हारे रूपपर मोहित हो गये हैं और तुमसे प्रार्थना कर रहे हैं । अतः हे प्रिये ! उनका मनोरथ पूर्ण करो ॥ ५ ॥
त्यक्त्वा मूर्खस्वभावं त्वं सम्मान्य वचनं मम । भज शुम्भं निशुम्भं वा हितमेतद् ब्रवीमि ते ॥ ६ ॥
मूर्खतापूर्ण स्वभाव त्यागकर मेरी बातको मान करके तुम शुम्भ अथवा निशुम्भ किसीको [पतिरूपमें] स्वीकार कर लो; मैं तुम्हारे लिये यह हितकर बात कह रहा हूँ ॥ ६ ॥
अतः हे कोमलांगी ! अपनी लज्जाकी रक्षा करो और इस दुस्साहसको पूर्णरूपसे छोड़ दो । तुम सम्मानित होकर उनके पास चलो; क्योंकि तुम सम्मानकी पात्र हो ॥ १० ॥
क्व युद्धं निशितैर्बाणैः क्व सुखं रतिसङ्गजम् । सारासारं परिच्छेद्य कुरु मे वचनं पटु ॥ ११ ॥ भज शुम्भं निशुम्भं वा लब्धासि परमं सुखम् ।
कहाँ तीक्ष्ण बाणोंसे होनेवाला युद्ध और कहाँ रतिक्रीड़ासे उत्पन्न होनेवाला सुख ! सार-असार बातपर सही-सही विचार करके तुम मेरे हितकर वचनको मान लो और शुम्भ अथवा निशुम्भको अपना पति स्वीकार कर लो; इससे तुम परम सुख प्राप्त करोगी ॥ ११.५ ॥
देव्युवाच सत्यं दूत महाभाग प्रवक्तुं निपुणो ह्यसि ॥ १२ ॥ निशुम्भशुम्भौ जानामि बलवन्ताविति ध्रुवम् । प्रतिज्ञा मे कृता बाल्यादन्यथा सा कथं भवेत् ॥ १३ ॥ तस्माद् ब्रूहि निशुम्भञ्च शुम्भं वा बलवत्तरम् । विना युद्धं न मे भर्ता भविता कोऽपि सौष्ठवात् ॥ १४ ॥ जित्वा मां तरसा कामं करं गृह्णातु साम्प्रतम् । युद्धेच्छया समायातां विद्धि मामबलां नृप ॥ १५ ॥ युद्धं देहि समर्थोऽसि वीरधर्मं समाचर । बिभेषि मम शूलाच्चेत्पातालं गच्छ मा चिरम् ॥ १६ ॥ त्रिदिवं च धरां त्यक्त्वा जीवितेच्छा यदस्ति ते । इति दूत वदाशु त्वं गत्वा स्वपतिमादरात् ॥ १७ ॥ स विचार्य यथायुक्तं करिष्यति महाबलः । संसारे दूतधर्मोऽयं यत्सत्यं भाषणं किल ॥ १८ ॥
देवी बोली-हे महाभाग दूत ! तुम बात करने में निपुण हो; यह सत्य है । शुम्भ और निशुम्भ निश्चय ही बलवान् हैं-यह मैं जानती हूँ । किंतु मैंने बाल्यकालसे ही जो प्रतिज्ञा कर रखी है, उसे मिथ्या कैसे किया जाय ? अतः तुम निशुम्भसे अथवा उससे भी बलवान् शुम्भसे कह दो कि बिना युद्ध किये मात्र सौन्दर्यके बलपर कोई भी मेरा पति नहीं बन सकेगा । मुझे अपने बलसे जीतकर वह अभी पाणिग्रहण कर ले । हे राजन् ! आप यह जान लीजिये कि मैं अबला होती हुई भी युद्धको इच्छासे यहाँ आयी हूँ । यदि तुम समर्थ हो तो मेरे साथ युद्ध करो और वीरधर्मका पालन करो । इसके अतिरिक्त यदि मेरे त्रिशूलसे डरते हो और यदि जीनेकी तुम्हारी अभिलाषा है तो स्वर्ग और पृथ्वीलोकको छोड़कर अविलम्ब पाताललोक चले जाओ । हे दूत ! अभी जाकर अपने स्वामीसे आदरपूर्वक ये बातें कह दो । इसके बाद वे महाबली शुम्भ विचार करके जो उचित होगा, उसे करेंगे । संसारमें यही दूतधर्म है कि जो सच्ची बात हो, उसे वैसा-का-वैसा शत्रु और स्वामी-दोनोंके प्रति अवश्य कह दे । हे धर्मज्ञ ! तुम भी वैसा ही व्यवहार करो; विलम्ब मत करो ॥ १२-१८ ॥
शत्रौ पत्यौ च धर्मज्ञ तथा त्वं कुरु मा चिरम् । व्यास उवाच अथ तद्वचनं श्रुत्वा नीतिमद्बलसंयुतम् ॥ १९ ॥ हेतुयुक्तं प्रगल्पञ्च विस्मितः प्रययौ तदा । गत्वा दैत्यपतिं दूतो विचार्य च पुनः पुनः ॥ २० ॥ प्रणम्य पादयोः प्रह्वः प्रत्युवाच नृपञ्ज तम् । राजनीतिकरं वाक्यं मृदुपूर्वं प्रियं वचः ॥ २१ ॥
व्यासजी बोले-उस समय भगवती जगदम्बाके नीतियुक्त, शक्तिसम्पन्न, हेतुपूर्ण और ओजस्वी वचन सुनकर वह दूत आश्चर्यचकित हो गया और वहाँसे लौट गया । दैत्यपति शुम्भके पास पहुँचकर बार-बार विचार करके वह दूत विनम्र भावसे अपने राजाको प्रणाम करके उनसे नीतिपूर्ण, मधुरतासे युक्त तथा मनोहर बात कहने लगा ॥ १९-२१ ॥
दूत उवाच सत्यं प्रियं च वक्तव्यं तेन चिन्तापरो ह्यहम् । सत्यं प्रियं च राजेन्द्र वचनं दुर्लभं किल ॥ २२ ॥ अप्रियं वदतां कामं राजा कुप्यति सर्वथा । साक्षात्कुतः समायाता कस्य वा किंबलाबला ॥ २३ ॥ न ज्ञानगोचरं किञ्चित्किं ब्रवीमि विचेष्टितम् । युद्धकामा मया दृष्टा गर्विता कटुभाषिणी ॥ २४ ॥
दूत बोला-हे राजेन्द्र ! सत्य और प्रिय बात कहनी चाहिये, इसीलिये मैं अत्यन्त चिन्तामें पड़ा हुआ हूँ; क्योंकि जो सत्य हो और प्रिय भी हो, वैसा वचन निश्चय ही दुर्लभ है । अप्रिय बोलनेवाले दूतोंपर राजा सर्वथा कुपित हो सकते हैं, [तथापि अपना धर्मपालन करते हुए मैं सच्ची बात कह रहा हूँ] वह स्त्री कहाँसे आयी है, किसकी पुत्री है और कितनी सबल अथवा निर्बल है-इनमेंसे कुछ भी मैं नहीं जान सका, तब मैं उसके मनकी बात क्या बताऊँ ! मुझे तो वह घमण्डी, कटु बोलनेवाली और सदा युद्धके लिये उत्सुक दिखायी पड़ती थी ॥ २२-२४ ॥
तया यत्कथितं सम्यक् तच्छृणुष्व महामते । मया बाल्यात्प्रतिज्ञेयं कृता पूर्वं विनोदतः ॥ २५ ॥ सखीनां पुरतः कामं विवाहं प्रति सर्वथा । यो मां युद्धे जयेदद्धा दर्पञ्च विधुनोति वै ॥ २६ ॥ तं वरिष्याम्यहं कामं पतिं समबलं किल । न मे प्रतिज्ञा मिथ्या सा कर्तव्या नृपसत्तम ॥ २७ ॥ तस्माद्युध्यस्व धर्मज्ञ जित्वा मां स्ववशं कुरु ।
हे महामते ! उस स्त्रीने जो कुछ कहा है, उसे आप भलीभाँति सुनें-'मैंने पहले ही बाल्यावस्थामें सखियोंके समक्ष विनोदवश विवाहके विषयमें यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि जो युद्धमें मुझे जीत लेगा और मेरे अभिमानको चूर्ण कर देगा, उसी समान बलवालेका मैं पतिरूपसे वरण करूँगी । हे नृपश्रेष्ठ ! मेरी वह प्रतिज्ञा मिथ्या नहीं की जानी चाहिये । अत: हे धर्मज्ञ ! मेरे साथ युद्ध करो और मुझे जीतकर अपने अधीन कर लो' ॥ २५-२७.५ ॥
तयेति व्याहृतं वाक्यं श्रुत्वाहं समुपागतः ॥ २८ ॥ यथेच्छसि महाराज तथा कुरु तव प्रियम् । सा युद्धार्थं कृतमतिः सायुधा सिंहगामिनी ॥ २९ ॥ निश्चला वर्तते भूप यद्योग्यं तद्विधीयताम् ।
उस स्त्रीके द्वारा कही गयी यह बात सुनकर मैं आपके पास आया हूँ । हे महाराज ! अब आप जैसे भी अपना हित समझते हों, वैसा ही करें । आयुधोंसे सुसज्जित तथा सिंहपर सवार वह युद्धके लिये दृढ़ संकल्प किये हुए है । हे भूप ! वह अपनी बातपर अडिग है, अतः जो उचित हो उसे आप करें ॥ २८-२९.५ ॥
व्यास उवाच इत्याकर्ण्य वचस्तस्य सुग्रीवस्य नराधिपः ॥ ३० ॥
व्यासजी बोले-अपने दूत सुग्रीवका यह वचन सुनकर राजा शुम्भने पासमें ही बैठे हुए शूरवीर तथा महाबली भाई निशुम्भसे पूछा ॥ ३० ॥
शुम्भ बोला-हे भाई ! इस स्थितिमें मुझे क्या करना चाहिये, हे महामते ! सच-सच बताओ । एक स्त्री युद्ध करनेकी अभिलाषा रखती है, इस समय [हमें युद्धके लिये] बुला रही है । अतः युद्धस्थलमें मैं जाऊँ अथवा सेना लेकर तुम जाओगे ? हे निशुम्भ ! इस विषयमें तुम्हें जो अच्छा लगेगा, निश्चय ही मैं वही करूँगा ॥ ३१-३२.५ ॥
निशुम्भ उवाच न मया न त्वया वीर गन्तव्यं रणमूर्धनि ॥ ३३ ॥ प्रेषयस्व महाराज त्वरितं धूम्रलोचनम् । स गत्वा तां रणे जित्वा गृहीत्वा चारुलोचनाम् ॥ ३४ ॥ आगमिष्यति शुम्भात्र विवाहः संविधीयताम् ।
निशुम्भ बोला-हे वीर ! अभी रणक्षेत्रमें न मुझे और न तो आपको ही जाना चाहिये । हे महाराज ! शीघ्र ही धूम्रलोचनको भेज दीजिये । वहाँ जाकर युद्धमें उस सुन्दर नेत्रोंवाली स्त्रीको जीतकर और उसे पकड़कर वह यहाँ ले आयेगा । तत्पश्चात् हे शुम्भ ! आप उसके साथ सम्यक् विवाह कर लीजिये । ३३-३४.५ ॥
व्यास उवाच तन्निशम्य वचस्तस्य शुम्भो भ्रातुः कनीयसः ॥ ३५
व्यासजी बोले-अपने छोटे भाईकी वह बात सुनकर शुम्भने पासमें ही बैठे हुए धूम्रलोचनको जानेके लिये क्रोधपूर्वक आदेश दिया ॥ ३५ ॥
शुम्भ बोला-हे धूम्रलोचन ! तुम एक विशाल सेना लेकर अभी जाओ और अपने बलके मदमें चूर रहनेवाली उस मूढ स्त्रीको पकड़कर ले आओ । देवता, दानव या महाबली मनुष्य-कोई भी जो उसकी सहायताके लिये उपस्थित हो, उसे तुम तुरंत मार डालना । उसके साथमें रहनेवाली कालीको भी मारकर पुन: उस सुन्दरीको पकड़ करके और इस प्रकार मेरा यह अत्युत्तम कार्य सम्पन्नकर यहाँ शीघ्र आ जाओ । हे वीर ! कोमल बाणोंको छोड़ती हुई उस सुकोमल शरीरवाली कृशोदरी साध्वी स्त्रीकी तुम प्रयत्नपूर्वक रक्षा करना । हाथमें शस्त्र धारण किये हुए उसके जो भी सहायक रणमें हों, उन्हें मार डालना, किंतु उसे मत मारना; सब तरहसे प्रयत्नपूर्वक उसकी रक्षा करना ॥ ३६-४०.५ ॥
व्यासजी बोले-अपने राजा शुम्भका यह आदेश पाकर धूम्रलोचन उसे प्रणाम करके सेना साथ लेकर तुरंत युद्धभूमिकी ओर चल पड़ा । उसके साथ में साठ हजार राक्षस थे ॥ ४१-४२ ॥
वहाँ पहुँचकर उसने एक मनोहर उपवनमें विराजमान भगवती जगदम्बाको देखा । हरिणके बच्चेके समान नेत्रोंवाली देवीको देखकर वह विनम्रतापूर्वक उनसे मधुर, हेतुयुक्त तथा सरस वचन कहने लगाहे महाभाग्यवती देवि ! सुनो, शुम्भ तुम्हारे विरहसे अत्यन्त व्याकुल हैं । नीतिनिपुण महाराजने रसभंग होनेके भयसे उद्विग्न होकर शान्तिपूर्वक तुम्हारे पास स्वयं एक दूत भेजा था ॥ ४३-४५ ॥
हे सुमुखि ! उसने लौटकर विपरीत बात कह दी । उस बातसे मेरे स्वामी महाराज शुम्भके मनमें बहुत चिन्ता व्याप्त हो गयी है । हे रसतत्त्वको जाननेवाली ! शुम्भ इस समय कामसे विमोहित हो गये हैं । वह दूत तुम्हारे सहेतुक वचनोंको नहीं समझ सका । तुमने जो यह कठिन वचन कहा था कि 'जो मुझे संग्राममें जीतेगा', उस संग्रामका तात्पर्य वह नहीं जान सका । हे मानिनि ! संग्राम दो प्रकारका होता है-कामजनित और उत्साहजनित । पात्रभेदसे समय-समयपर इनका अलग-अलग अर्थ किया जाता है । हे वामोरु ! उन दोनोंमें आप-जैसी युवतीके साथ होनेवाले संग्रामको कामजनित संग्राम और शत्रुके साथ होनेवाले संग्रामको उत्साहजनित संग्राम कहा गया है ॥ ४६-४९ ॥
हे कान्ते ! उनमें प्रथम रतिजन्य संग्राम सुखदायक और शत्रुके साथ किया जानेवाला उत्साहजन्य संग्राम दुःखदायक कहा गया है । हे सुन्दरि ! मैं तुम्हारे मनकी बात जानता हूँ: तुम्हारे मनमें रतिजन्य संग्रामका भाव है । मुझको यह सब जाननेमें निपुण समझकर ही महाराज शुम्भने विशाल सेनाके साथ इस समय मुझे आपके पास भेजा है । ५०-५१.५ ॥
हे महाभागे ! तुम बड़ी चतुर हो । मेरे मधुर वचन सुनो । देवताओंका अभिमान चूर्ण कर देनेवाले त्रिलोकाधिपति शुम्भको [पतिरूपसे] स्वीकार कर लो और उनकी प्रिय पटरानी बनकर अत्युत्तम सुखोंका उपभोग करो ॥ ५२-५३ ॥
कामसम्बन्धी बलका रहस्य जाननेवाले विशालबाहु शुम्भ तुम्हें जीत लेंगे । तुम उनके साथ विचित्र हाव-भाव करो, वे भी वैसे ही हाव-भाव प्रदर्शित करेंगे । यह कालिका [उस अवसरपर] हास-विलासकी साक्षी रहेगी । इस प्रकार कामतत्त्वके परमवेत्ता मेरे स्वामी शुम्भ कामयूद्धके द्वारा तुम्हें सुखशय्यापर जीतकर शिथिल कर देंगे । वे महाराज शुम्भ अपने नखोंके आपातसे तुम्हें रक्तरंजित शरीरवाली बना देंगे, दाँतोंसे काटकर तुम्हारे ओठोंको खण्डित कर देंगे, तुम्हें पसीनेसे तर कर देंगे और मर्दित कर डालेंगे तब तुम्हारा रतिसंग्रामसम्बन्धी मनोरथ पूर्ण हो जायगा ॥ ५४-५७ ॥
दर्शनाद्वश एवास्ते शुम्भः सर्वात्मना प्रिये । वचनं कुरु मे पथ्यं हितकृच्चापि पेशलम् ॥ ५८ ॥ भज शुम्भं गणाध्यक्षं माननीयातिमानिनी । मन्दभाग्याश्च ते नूनं ह्यस्त्रयुद्धप्रियाश्च ये ॥ ५९ ॥ न तदर्हासि कान्ते त्वं सदा सुरतवल्लभे । अशोकं कुरु राजानं पादाघातविकासितम् ॥ ६० ॥ बकुलं सीधुसेकेन तथा कुरबकं कुरु ॥ ६१ ॥
हे प्रिये ! तुम्हें देखते ही शुम्भ पूर्णरूपसे तुम्हारे वशीभूत हो जायेंगे । अतएव मेरी उचित, कल्याणकारी और सुखकर बात मान लो । तुम माननीयोंमें अत्यन्त मानिनी हो, अत: गणाध्यक्ष शुम्भको स्वीकार कर लो । जो शस्त्रयुद्धसे प्रेम रखते हैं, वे अवश्य ही मन्दभाग्य हैं । रतिक्रीड़ामें प्रीति रखनेवाली हे कान्ते ! तुम शस्त्रयुद्धके योग्य नहीं हो । जैसे कामिनीके पदप्रहारसे अशोक, मुख मदिराके सेचनसे मौलसिरी और कुरबक प्रफुल्लित हो उठता है, उसी प्रकार तुम भी महाराज शुम्भको शोकरहित और आह्लादित करो ॥ ५८-६१ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे देवीमाहात्म्ये देवीपार्श्वे धूम्रलोचनदूतप्रेषणं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥