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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
पञ्चमः स्कन्धः
पञ्चविंशोऽध्यायः

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देव्यासह युद्धाय चण्डमुण्डप्रेषणम् -
भगवती काली और धूम्रलोचनका संवाद, कालीके हंकारसे धूम्रलोचनका भस्म होना तथा शुम्भका चण्ड-मुण्डको युद्धहेतु प्रस्थानका आदेश देना -


व्यास उवाच
इत्युक्त्वा विररामासौ वचनं धूम्रलोचनः ।
प्रत्युवाच तदा काली प्रहस्य ललितं वचः ॥ १ ॥
विदूषकोऽसि जाल्म त्वं शैलूष इव भाषसे ।
वृथा मनोरथांश्चित्ते करोषि मधुरं वदन् ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-[हे महाराज !] यह बात कहकर धूम्रलोचन चुप हो गया । तब भगवती काली हँसकर सुन्दर वचन बोलीं-धूर्त ! तुम तो पूरे विदूषक हो और नटों-जैसी बात करते हो । मधुर बोलते हुए तुम व्यर्थ ही मनमें अनेकविध कामनाएँ कर रहे हो ॥ १-२ ॥

बलवान्बलसंयुक्तः प्रेषितोऽसि दुरात्मना ।
कुरु युद्धं वृथा वादं मुञ्च मूढमतेऽधुना ॥ ३ ॥
हे मूढमते ! दुष्टात्मा शुम्भने तुझ बलवान्को सेनासे सुसज्जित करके युद्धहेतु भेजा है, अतः अब युद्ध करो और व्यर्थकी बातें छोड़ दो ॥ ३ ॥

हत्वा शुम्भं निशुम्भञ्च त्वदन्यान्वा बलाधिकान् ।
देवी क्रुद्धा शराघातैर्व्रजिष्यति निजालयम् ॥ ४ ॥
ये देवी कुपित होकर शुम्भ, निशुम्भ तथा तुम्हारे अन्य बलवान् दैत्योंका अपने बाणोंके प्रहारसे संहार करके अपने धामको चली जायेंगी ॥ ४ ॥

क्वासौ मन्दमतिः शुम्भः क्व वा विश्वविमोहिनी ।
अयुक्तः खलु संसारे विवाहविधिरेतयोः ॥ ५ ॥
कहाँ वह मन्दमति शुम्भ और कहाँ ये विश्वमोहिनी जगदम्बा ! इन दोनोंका विवाह इस संसारमें सर्वथा अनुपयुक्त है ॥ ५ ॥

सिंही किं त्वतिकामार्ता जम्बुकं कुरुते पतिम् ।
करिणी गर्दभं वापि गवयं सुरभिः किमु ॥ ६ ॥
क्या अत्यधिक कामात होनेपर भी सिंहिनी सियारको, हथिनी किसी गर्दभको अथवा सुरभि किसी सामान्य वृषभको अपना पति बना सकती है ? ॥ ६ ॥

गच्छ शुम्भं निशुम्भं च वद सत्यं वचो मम ।
कुरु युद्धं न चेद्याहि पातालं तरसाधुना ॥ ७ ॥
अब तुम शुम्भ-निशुम्भके पास चले जाओ और उनसे मेरी यह सच्ची बात कह दो कि 'तुम मेरे साथ युद्ध करो; अन्यथा इसी समय शीघ्र पाताललोक चले जाओ' ॥ ७ ॥

व्यास उवाच
कालिकायावचः श्रुत्वा स दैत्यो धूम्रलोचनः ।
तामुवाच महाभाग क्रोधसंरक्तलोचनः ॥ ८ ॥
दुर्दर्शे त्वां निहत्याजौ सिंहञ्च मदगर्वितम् ।
गृहीत्वैनां गमिष्यामि राजानं प्रत्यहं किल ॥ ९ ॥
व्यासजी बोले-हे महाभाग ! देवी कालिकाका यह वचन सुनते ही वह दैत्य धूम्रलोचन क्रोधके मारे आँखें लाल करके उनसे कहने लगादुर्दशैं ! अभी तुझे तथा इस मदोन्मत्त सिंहको युद्धमें मारकर और इस स्त्रीको लेकर मैं राजा शुम्भके पास अवश्य चला जाऊँगा ॥ ८-९ ॥

रसभङ्गभयात्कालि बिभेमि त्विह साम्प्रतम् ।
नोचेत्त्वां निशितैर्बाणैर्हन्म्यद्य कलहप्रिये ॥ १० ॥
कलहमें अनुराग रखनेवाली हे काली ! रसमें भंग पड़नेकी शंकासे मैं इस समय डर रहा हूँ, नहीं तो मैं अपने तीक्ष्ण बाणोंसे तुम्हें अभी मार डालता ॥ १० ॥

कालिकोवाच
किं विकत्थसि मन्दात्मन्नायं धर्मो धनुष्मताम् ।
स्वशक्त्या मुञ्च विशिखान्गन्तासि यमसंसदि ॥ ११ ॥
कालिका बोलीं-हे मन्दबुद्धि ! तुम अनर्गल प्रलाप क्यों कर रहे हो, धनुर्धर वीरोंका यह धर्म नहीं है । तुम अपनी पूरी शक्तिसे बाण चलाओ । तुम तो अभी यमलोक जानेवाले हो ॥ ११ ॥

व्यास उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं दैत्यः संगृह्य कार्मुकं दृढम् ।
कालिकां तां शरासारैर्ववर्षातिशिलाशितैः ॥ १२ ॥
व्यासजी बोले-यह वचन सुनकर वह दैत्य धूम्रलोचन अपना सुदृढ़ धनुष लेकर भगवती कालिकाके ऊपर पत्थरकी सानपर चढ़ाकर तेज किये गये बाणोंकी घोर वर्षा करने लगा ॥ १२ ॥

देवास्तु प्रेक्षकास्तत्र विमानवरसंस्थिताः ।
तां स्तुवन्तो जयेत्यूचुर्देवीं शक्रपुरोगमाः ॥ १३ ॥
उस समय इन्द्र आदि प्रधान देवता उत्तम विमानोंमें बैठकर यह युद्ध देख रहे थे । वे देवीकी स्तुति करते हुए उनकी जयकार कर रहे थे ॥ १३ ॥

तयोः परस्परं युद्धं प्रवृत्तं चातिदारुणम् ।
बाणखड्गगदाशक्तिमुसलादिभिरुत्कटम् ॥ १४ ॥
परस्पर उन दोनोंमें बाण, खड्ग, गदा, शक्ति तथा मुसल आदि शस्त्रोंसे अत्यन्त भीषण तथा उग्र युद्ध होने लगा ॥ १४ ॥

कालिका बाणपातैस्तु हत्वा पूर्वं खरानथ ।
बभञ्ज तद्‌रथं व्यूढं जहास च मुहुर्मुहुः ॥ १५ ॥
भगवती कालिकाने पहले अपने बाण-प्रहारोंसे [उसके रथमें जुते] खच्चरोंको मारकर बादमें उसके सुदृढ़ रथको भी चूर्ण कर दिया, फिर वे बार-बार अट्टहास करने लगीं ॥ १५ ॥

स चान्यं रथमारूढः कोपेन प्रज्वलन्निव ।
बाणवृष्टिं चकारोग्रां कालिकोपरि भारत ॥ १६ ॥
हे भारत ! क्रोधाग्निमें जलता हुआ-सा वह दानव धूम्रलोचन दूसरे रथपर सवार हो गया और कालिकाके ऊपर भयंकर वाण-वृष्टि करने लगा ॥ १६ ॥

सापि चिच्छेद तरसा तस्य बाणानसङ्गतान् ।
मुमोचान्यानुग्रवेगान्दानवोपरि कालिका ॥ १७ ॥
उसके बाण भगवतीके पास पहुँच भी नहीं पाते थे कि वे उन बाणोंको काट डालती थीं । तत्पश्चात् वे कालिका अन्य तीव्रगामी बाण उस दानवके ऊपर छोड़ने लगीं ॥ १७ ॥

तैर्बाणैर्निहतास्तस्य पार्ष्णिग्राहा सहस्रशः ।
बभञ्ज च रथं वेगात्सूतं हत्वा खरानपि ॥ १८ ॥
चिच्छेद तद्धनुः सद्यो बाणैरुरगसन्निभैः ।
मुदं चक्रे सुराणां सा शङ्खनादं तथाकरोत् ॥ १९ ॥
उन बाणोंसे उसके हजारों सहायक सैनिक मारे गये । तत्पश्चात् देवी कालिकाने उसके खच्चरों तथा सारथिको शीघ्रतापूर्वक मारकर उस रथको भी नष्ट कर दिया । उसके बाद देवीने अपने सर्प-सदृश बाणोंसे शीघ्रतापूर्वक उसका धनुष काट डाला । ऐसा करके देवीने देवताओंको आनन्दित कर दिया और वे शंखनाद करने लगीं ॥ १८-१९ ॥

विरथः परिघं गृह्य सर्वलोहमयं दृढम् ।
आजगाम रथोपस्थं कुपितो धूम्रलोचनः ॥ २० ॥
अब रथसे विहीन वह धूम्रलोचन कुपित होकर एक लोहमय मजबूत परिघ लेकर देवीके रथके सन्निकट आ गया ॥ २० ॥

वाचा निर्भर्त्सयन्कालीं करालः कालसन्निभः ।
अद्यैव त्वां हनिष्यामि कुरूपे पिङ्गलोचने ॥ २१ ॥
इत्युक्त्वा सहसाऽऽगत्य परिघं क्षिपते यदा ।
हुङ्कारेणैव तं भस्म चकार तरसाम्बिका ॥ २२ ॥
कालसदृश भयंकर वह धूम्रलोचन वाणीसे भगवती कालीको फटकारते हुए कहने लगा'कुरूपा तथा पिंगलनेत्रोंवाली ! मैं तुम्हें अभी मार डालूँगा' ऐसा कहकर वह ज्यों ही कालिकापर परिघ चलानेको उद्यत हुआ, देवीने अपने हुंकारमात्रसे उसे तुरंत भस्म कर दिया ॥ २१-२२ ॥

दृष्ट्वा भस्मीकृतं दैत्यं सैनिका भयविह्वलाः ।
चक्रुः पलायनं सद्यो हा तातेत्यब्रुवन्पथि ॥ २३ ॥
तब दैत्य धूम्रलोचनको भस्म हुआ देखकर सभी सैनिक भयाक्रान्त होकर 'हा तात'-ऐसा कहते हुए तुरंत मार्ग पकड़कर भाग चले ॥ २३ ॥

देवास्तं निहतं दृष्ट्वा दानवं धूम्रलोचनम् ।
मुमुचुः पुष्पवृष्टिं ते मुदिता गगने स्थिताः ॥ २४ ॥
उस धूम्रलोचनको मारा गया देखकर आकाशमें विद्यमान देवगण प्रसन्न होकर भगवतीपर पुष्प बरसाने लगे ॥ २४ ॥

रणभूमिस्तदा राजन् दारुणा समपद्यत ।
निहतैर्दानवैरश्वैः खरैश्च वारणैस्तथा ॥ २५ ॥
गृध्राः काका वटाः श्येना वरफा जम्बुकास्तथा ।
ननृतुश्चुक्रुशुः प्रेतान्पतितान् रणभूमिषु ॥ २६ ॥
हे राजन् ! मरे हुए दानवों, घोड़ों, खच्चरों और हाथियोंसे [पट जानेके कारण] वह रणभूमि उस समय बड़ी भयानक लग रही थी । युद्धभूमिमें पड़े हुए मृत दानवोंको देखकर गीध, कौए, बाज, सियार और पिशाच नाचने तथा कोलाहल करने लगे । २५-२६ ॥

अम्बिका तद्‌रणस्थानं त्यक्त्वा दूरं स्थलान्तरे ।
गत्वा चकार चाप्युग्रं शङ्खनादं भयप्रदम् ॥ २७ ॥
अब भगवती अम्बिकाने उस रणभूमिको छोड़कर वहाँसे कुछ दूरीपर जाकर अत्यन्त तीव्र तथा भयदायक शंखनाद किया ॥ २७ ॥

तं श्रुत्वा दरशब्दं तु शुम्भः सद्मनि संस्थितः ।
दृष्ट्वाथ दानवान्भग्नानागतान् रुधिरोक्षितान् ॥ २८ ॥
छिन्नपादकराक्षांश्च मञ्चकारोपितानपि ।
भग्नपृष्ठकटिग्रीवान्क्रन्दमानाननेकशः ॥ २९ ॥
वीक्ष्य शुम्भो निशुम्भश्च क्व गतो धूम्रलोचनः ।
कथं भग्नाः समायाता नानीता किं वरानना ॥ ३० ॥
सैन्यं कुत्र गतं मन्दाः कथयन्तु यथोचितम् ।
कस्यायं शङ्खनादोऽद्य श्रूयते भयवर्धनः ॥ ३१ ॥
अपने महलमें स्थित शुम्भको भी वह भयानक शंख-ध्वनि सुनायी पड़ी । उसी समय उसने भागकर आये हुए बहुत-से दैत्योंको देखा । उनमेंसे बहुतोंके अंग भंग हो गये थे और वे रक्तसे लथपथ थे । अनेक दैत्योंके हाथ-पैर कट गये थे और नेत्र भग्न हो गये थे । कुछ दैत्य तो शय्या आदिपर लादकर लाये जा रहे थे; बहुतोंकी पीठ, कमर और गर्दन टूट गयी थी । सब-के-सब जोर-जोरसे चीख रहे थे । उन्हें देखकर शुम्भ-निशुम्भने सैनिकोंसे पूछा-'धूम्रलोचन कहाँ गया ? तुमलोग इस तरह अंग-भंग होकर क्यों आये हो और उस सुन्दर मुखवाली स्त्रीको क्यों नहीं ले आये ? हे मूर्यो ! सही-सही बताओ कि मेरी सेना कहाँ गयी और भयको बढ़ानेवाला यह किसका शंखनाद इस समय सुनायी पड़ रहा है ?' ॥ २८-३१ ॥

गणा ऊचुः
बलञ्च पातितं सर्वं निहतो धूम्रलोचनः ।
कृतं कालिकया कर्म रणभूमावमानुषम् ॥ ३२ ॥
गण बोले-सम्पूर्ण सेना मार डाली गयी और धूम्रलोचनका भी संहार कर दिया गया । रणभूमिमें यह अमानुषिक कार्य कालिकाके द्वारा किया गया है ॥ ३२ ॥

शङ्खनादोऽम्बिकायास्तु गगनं व्याप्य राजते ।
हर्षदः सुरसङ्घानां दानवानाञ्च शोककृत् ॥ ३३ ॥
उसी अम्बिकाकी यह शंखध्वनि है, जो सम्पूर्ण नभमण्डलको व्याप्त करके सुशोभित हो रही है । यह ध्वनि देवगणोंके लिये हर्षप्रद और दानवोंके लिये कष्टदायक है ॥ ३३ ॥

यदा निपातिताः सर्वे तेन केसरिणा विभो ।
रथा भग्ना हयाश्चैव बाणपातैर्विनाशिताः ॥ ३४ ॥
गगनस्थाः सुराश्चक्रुः पुष्पवृष्टिं मुदान्विताः ।
हे विभो ! जब देवीके सिंहने सारे सैनिकोंका विनाश कर डाला और उनके बाण-प्रहारोंसे दैत्योंके रथ टूट गये तथा घोड़े मार डाले गये, तब आकाशमें स्थित देवता प्रसन्न होकर पुष्प-वृष्टि करने लगे ॥ ३४.५ ॥

दृष्ट्वा भग्नं बलं सर्वं पातितं धूम्रलोचनम् ॥ ३५ ॥
निश्चयस्तु कृतोऽस्माभिर्जयो नैव भवेदिति ।
विचारं कुरु राजेन्द्र मन्त्रिभिर्मन्त्रवित्तमैः ॥ ३६ ॥
विस्मयोऽयं महाराज यदेका जगदम्बिका ।
भवद्‌भिः सह युद्धाय संस्थिता सैन्यवर्जिता ॥ ३७ ॥
निर्भयैकाकिनी बाला सिंहारूढा मदोत्कटा ।
चित्रमेतन्महाराज भासतेऽद्‌भुतमञ्जसा ॥ ३८ ॥
सन्धिर्वा विग्रहो वाद्य स्थानं निर्याणमेव च ।
मन्त्रयित्वा महाराज कुरु कार्यं यथारुचि ॥ ३९ ॥
इस प्रकार समस्त सेनाका विनाश तथा धूम्रलोचनका वध देखकर हमलोगोंने निश्चय कर लिया कि अब हमारी विजय नहीं हो सकती । अतएव हे राजेन्द्र ! अब आप मन्त्रणाका उत्तम ज्ञान रखनेवाले अपने मन्त्रियोंसे इस विषयपर विचार कर लीजिये । हे महाराज ! यह आश्चर्य है कि जगदम्बास्वरूपिणी वह मदमत्त बाला बिना किसी सेनाके ही सिंहपर सवार होकर निर्भयभावसे आपसे युद्ध करनेके लिये रणभूमिमें अकेली खड़ी है । हे महाराज ! हमें तो यह सब बड़ा विचित्र और अद्भुत प्रतीत हो रहा है । अतएव अब आप शीघ्र मन्त्रणा करके सन्धि, युद्ध, उदासीन होकर स्थित रहना अथवा पलायन-इनमेंसे अपनी रुचिके अनुसार जो चाहें, वह कार्य करें ॥ ३५-३९ ॥

तत्सन्निधौ बलं नास्ति तथापि शत्रुतापन ।
पार्ष्णिग्राहा सुराः सर्वे भविष्यन्ति किलापदि ॥ ४० ॥
समये तत्समीपस्थौ ज्ञातौ च हरिशङ्करौ ।
लोकपालाः समीपेऽद्य वर्तन्ते गगने स्थिताः ॥ ४१ ॥
रक्षोगणाश्च गन्धर्वाः किन्नरा मानुषास्तथा ।
तत्सहायाश्च मन्तव्याः समये सुरतापन ॥ ४२ ॥
हे शत्रुतापन ! यद्यपि उसके पास सेना नहीं है फिर भी उसकी विपत्तिमें सभी देवता उसके सहायक बनकर उपस्थित हो जायेंगे । ज्ञात हुआ है कि भगवान् विष्णु और शिव भी समयानुसार उसके पासमें विद्यमान रहते हैं । सभी लोकपाल आकाशमें रहते हुए भी इस समय उस देवीके पास विद्यमान हैं । हे सुरतापन ! राक्षसगण, गन्धर्व, किन्नर और मनुष्यइन सबको समय आनेपर उसका सहायक समझना चाहिये ॥ ४०-४२ ॥

अस्माकं मतिमानेन ज्ञायते सर्वथेदृशम् ।
अम्बिकायाः सहायाशा तत्कार्याशा न काचन ॥ ४३ ॥
एका नाशयितुं शक्ता जगत्सर्वं चराचरम् ।
का कथा दानवानां तु सर्वेषामिति निश्चयः ॥ ४४ ॥
हमारी बुद्धिसे तो हर तरहसे ऐसा जान पड़ता है कि वे अम्बिका किसीसे भी कोई सहायता अथवा कार्यकी अपेक्षा नहीं रखती । वे अकेली ही सम्पूर्ण चराचर जगत्का नाश करने में समर्थ हैं, तो फिर सब दानवोंकी बात ही क्या-यह सत्य है ॥ ४३-४४ ॥

इति ज्ञात्वा महाभाग यथारुचि तथा कुरु ।
हितं सत्यं मितं वाक्यं वक्तव्यमनुयायिभिः ॥ ४५ ॥
हे महाभाग ! यह सब भलीभाँत समझबूझकर आपकी जैसी रुचि हो, वैसा कीजिये । सेवकोंको तो अपने स्वामीसे हितकर, सत्य और नपी-तुली बात कहनी चाहिये ॥ ४५ ॥

व्यास उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं तेषां शुम्भः परबलार्दनः ।
कनीयांसं समानीय पप्रच्छ रहसि स्थितः ॥ ४६ ॥
भ्रातः कालिकयाद्यैव निहतो धूम्रलोचनः ।
बलञ्च शातितं सर्वं गणा भग्नाः समागताः ॥ ४७ ॥
अम्बिका शङ्खनादं वै करोति मदगर्विता ।
व्यासजी बोले-उनकी बात सुनकर शत्रुसेनाको विनष्ट कर डालनेवाले शुम्भने अपने छोटे भाई निशुम्भको एकान्त स्थानमें ले जाकर वहाँ स्थित हो उससे पूछा-हे भाई ! आज कालिकाने अकेले ही धूम्रलोचनको मार डाला, सारी सेना नष्ट कर दी और शेष सैनिक अंग-भंग होकर भाग आये हैं । अभिमानमें चूर रहनेवाली वही अम्बिका शंखनाद कर रही है ॥ ४६-४७.५ ॥

ज्ञानिनां चैव दुर्ज्ञेया गतिः कालस्य सर्वथा ॥ ४८ ॥
तृणं वज्रायते नूनं वज्रं चैव तृणायते ।
बलवान्बलहीनः स्याद्दैवस्य गतिरीदृशी ॥ ४९ ॥
कालकी गतिको पूर्णरूपसे समझना ज्ञानियोंके लिये भी अत्यन्त कठिन है । [कालकी प्रेरणासे] तृण वज़ बन जाता है, वन तृण बन जाता है और बलशाली प्राणी बलहीन हो जाता है; दैवकी ऐसी विचित्र गति है ॥ ४८-४९ ॥

पृच्छामि त्वां महाभाग किं कर्तव्यमितः परम् ।
अभोग्या चाम्बिका नूनं कारणादत्र चागता ॥ ५० ॥
हे महाभाग ! मैं तुमसे पूछता हूँ कि अब आगे मुझे क्या करना चाहिये ? ऐसा लगता है कि यह अम्बिका किसी उद्देश्यसे यहाँ आयी हुई है । अत: निश्चय ही वह हमारे भोगके योग्य नहीं है ॥ ५० ॥

युक्तं पलायनं वीर युद्धं वा वद सत्वरम् ।
लघुं ज्येष्ठं विजानामि त्वामहं कार्यसङ्कटे ॥ ५१ ॥

हे वीर ! तुम मुझे शीघ्र बताओ कि इस समय भाग जाना उचित है या युद्ध करना ? यद्यपि तुम छोटे हो, फिर भी इस संकटके समय मैं तुम्हें बड़ा मान रहा हूँ ॥ ५१ ॥

निशुम्भ उवाच
न वा पलायनं युक्तं न दुर्गग्रहणं तथा ।
युद्धमेव परं श्रेयः सर्वथैवानयानघ ॥ ५२ ॥
निशुम्भ बोला-हे अनघ ! इस समय न तो भागना उचित है और न तो किलेमें छिपना ही ठीक है । अब तो इस स्त्रीके साथ हर प्रकारसे युद्ध करना ही श्रेयस्कर है ॥ ५२ ॥

ससैन्योऽहं गमिष्यामि रणे तु प्रवराश्रितः ।
हत्वा तामागमिष्यामि तरसा त्वबलामिमाम् ॥ ५३ ॥
अथवा बलवद्दैवादन्यथा चेद्‌भविष्यति ।
मृते मयि त्वया कार्यं विमृश्य च पुनः पुनः ॥ ५४ ॥
श्रेष्ठ सेनापतियोंको लेकर मैं अपनी सेनाके साथ युद्धभूमिमें जाऊँगा और उस कालिकाको मारकर तथा अबला अम्बिकाको पकड़कर शीघ्र यहाँ ले आऊँगा और यदि बलवान् दैवके कारण इसके विपरीत हो जाय तो मेरे मर जानेपर बार-बार सोच-विचारकर ही आप कोई कार्य कीजियेगा ॥ ५३-५४ ॥

इति तस्य वचः श्रुत्वा शुम्भः प्रोवाच चानुजम् ।
तिष्ठ त्वं चण्डमुण्डौ द्वौ गच्छेतां बलसंयुतौ ॥ ५५ ॥
शशकग्रहणायात्र न युक्तं गजमोचनम् ।
चण्डमुण्डौ महावीरौ तां हन्तुं सर्वथा क्षमौ ॥ ५६ ॥
छोटे भाई निशुम्भकी यह बात सुनकर शुम्भने उससे कहा-अभी तुम ठहरो, पहले पराक्रमी चण्ड-मुण्ड जायें । खरगोश पकड़नेके लिये हाथी छोड़ना उचित नहीं है । चण्ड-मुण्ड बड़े वीर हैं, अतः ये दोनों उसे मार डालने में हर तरहसे समर्थ हैं ॥ ५५-५६ ॥

इत्युक्त्वा भ्रातरं शुम्भः सम्भाष्य च महाबलौ ।
उवाच वचनं राजा चण्डमुण्डौ पुरःस्थितौ ॥ ५७ ॥
गच्छतं चण्डमुण्डौ द्वौ स्वसैन्यपरिवारितौ ।
हन्तुं तामबलां शीघ्रं निर्लज्जां मदगर्विताम् ॥ ५८ ॥
गृहीत्वाथ निहत्याजौ कालिकां पिङ्गलोचनाम् ।
आगम्यतां महाभागौ कृत्वा कार्यं महत्तरम् ॥ ५९ ॥
सा नायाति गृहीतापि गर्विता चाम्बिका यदि ।
तदा बाणैर्महातीक्ष्णैर्हन्तव्याहवमण्डिता ॥ ६० ॥
अपने भाई निशुम्भसे ऐसा कहकर और उससे परामर्श करके राजा शुम्भने समक्ष बैठे हुए महान् बलशाली चण्ड-मुण्डसे कहा-हे चण्ड-मुण्ड ! तुम दोनों अपनी सेना लेकर उस निर्लज और मदोन्मत्त अबलाका वध करनेके लिये शीघ्र जाओ । हे महाभागो ! रणभूमिमें पिंग-नेत्रोंवाली उस कालिकाको मारकर और अम्बिकाको पकड़कर-यह महान् कार्य करके यहाँ लौट आओ । यदि वह मदोन्मत्त अम्बिका पकड़ी जानेपर भी नहीं आती तो अपने अत्यन्त तीक्ष्ण बाणोंसे उस रणभूषिताका भी वध कर देना ॥ ५७-६० ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां पञ्चमस्कन्धे देव्यासह युद्धाय
चण्डमुण्डप्रेषणं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥
अध्याय पच्चिसवाँ समाप्त ॥ २५ ॥


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