तब देवताओंका हित करनेवाली देवीको वहाँ युद्धभूमिमें विद्यमान देखकर वे दोनों महापराक्रमी दानव उनसे सामनीतियुक्त वचन बोले- ॥ २ ॥
बाले त्वं किं न जानासि शुम्भं सुरबलार्दनम् । निशुम्भञ्च महावीर्यं तुराषाड्विजयोद्धतम् ॥ ३ ॥
हे बाले ! क्या तुम देवताओंकी सेनाका नाश करनेवाले शुम्भ तथा इन्द्रपर विजय प्राप्त करनेके कारण उद्धत स्वभाववाले महापराक्रमी निशुम्भको नहीं जानती हो ? ॥ ३ ॥
हे सुकुमार अंगोंवाली ! तुम अपने तथा शत्रुके बलके विषयमें सम्यक् विचार करके ही कार्य करो । अठारह भुजाओंके कारण तुम अपनेपर व्यर्थ ही अभिमान करती हो ॥ ६ ॥
देवताओंको जीतनेवाले तथा समरभूमिमें पराक्रम दिखानेवाले शुम्भके समक्ष तुम्हारी इन बहुत-सी व्यर्थ भुजाओं तथा श्रम प्रदान करनेवाले आयुधोंसे क्या लाभ ? अतः तुम ऐरावतकी सैंड काट डालनेवाले, हाथियोंको विदीर्ण करनेवाले और देवताओंको जीत लेनेवाले शुम्भका मनोवांछित कार्य करो ॥ ७-८ ॥
वृथा गर्वायसे कान्ते कुरु मे वचनं प्रियम् । हितं तव विशालाक्षि सुखदं दुःखनाशनम् ॥ ९ ॥
हे कान्ते ! तुम वृथा गर्व करती हो । हे विशालाक्षि ! तुम मेरी प्रिय बात मान लो, जो तुम्हारे लिये हितकर, सुखद तथा दुःखोंका नाश करनेवाली है ॥ ९ ॥
दुःखदानि च कार्याणि त्याज्यानि दूरतो बुधैः । सुखदानि च सेव्यानि शास्त्रतत्त्वविशारदैः ॥ १० ॥
शास्त्रोंका तत्त्व जाननेवाले विद्वान् तथा बुद्धिमान् पुरुषोंको चाहिये कि दुःख देनेवाले कार्योंका दूरसे ही त्याग कर दें और सुख प्रदान करनेवाले कार्योका सेवन करें ॥ १० ॥
चतुरासि पिकालापे पश्य शुम्भबलं महत् । प्रत्यक्षं सुरसङ्घानां मर्दनेन महोदयम् ॥ ११ ॥ प्रत्यक्षञ्च परित्यज्य वृथैवानुमितिः किल । सन्देहसहिते कार्ये न विपश्चित्प्रवर्तते ॥ १२ ॥
हे कोयलके समान मधुर बोलनेवाली ! तुम तो बड़ी चतुर हो । तुम देवताओंके मर्दनसे अभ्युदयको प्राप्त तथा महान् शुम्भबलको प्रत्यक्ष देख लो । प्रत्यक्ष प्रमाणका त्याग करके अनुमानका आश्रय लेना बिलकुल व्यर्थ है । किसी सन्देहात्मक कार्यमें विद्वान् पुरुष प्रवृत्त नहीं होते ॥ ११-१२ ॥
शुम्भ देवताओंके महान् शत्रु हैं । वे संग्राममें अजेय हैं । इसीलिये दैत्येन्द्र शुम्भके द्वारा प्रताड़ित किये गये देवता तुम्हें युद्धके लिये प्रेरित कर रहे हैं ॥ १३ ॥
तस्मात्तद्वचनैः स्निग्धैर्वञ्चितासि शुचिस्मिते । दुःखाय तव देवानां शिक्षा स्वार्थस्य साधिका ॥ १४ ॥
हे सुन्दर मुसकानवाली ! तुम देवताओंके मधुर वचनोंसे ठग ली गयी हो । तुम्हारे प्रति देवताओंकी यह शिक्षा उनका कार्य सिद्ध करनेवाली तथा तुम्हें दुःख प्रदान करनेवाली है ॥ १४ ॥
अपना ही कार्य साधने में तत्पर रहनेवाले मित्रका त्यागकर धर्ममार्गपर चलनेवाले मित्रका ही अवलम्बन करना चाहिये । देवता बड़े ही स्वार्थी हैं, मैंने तुमसे यह सत्य कहा है, अतः तुम देवताओंके शासक, विजेता, तीनों लोकोंके स्वामी, चतुर, सुन्दर, वीर और कामशास्त्रमें प्रवीण शुम्भको स्वीकार कर लो । शुम्भके अधीन रहनेसे तुम समस्त लोकोंका वैभव प्राप्त करोगी । अतएव दृढ़ निश्चय करके तुम सौन्दर्यसम्पन्न शुम्भको अपना पति बना लो ॥ १५-१७ ॥
व्यासजी बोले-चण्डकी यह बात सुनकर जगदम्बाने मेघके समान गम्भीर ध्वनिमें गर्जना की और वे बोलीं-धूर्त ! भाग जाओ; तुम यह छलयुक्त बात व्यर्थ क्यों बोल रहे हो ? विष्णु, शिव आदिको छोड़कर मैं शुम्भको अपना पति किसलिये बनाऊँ ? ॥ १८-१९ ॥
न मे कश्चित्पतिः कार्यो न कार्यं पतिना सह । स्वामिनी सर्वभूतानामहमेव निशामय ॥ २० ॥
न तो मुझे किसीको पति बनाना है और न तो पतिसे मेरा कोई काम ही है । क्योंकि जगतके सभी प्राणियोंकी स्वामिनी मैं ही हूँ; इसे तुम सुन लो ॥ २० ॥
शुम्भा मे बहवो दृष्टा निशुम्भाश्च सहस्रशः । घातिताश्च मया पूर्वं शतशो दैत्यदानवाः ॥ २१ ॥
मैंने हजारों-हजार शुम्भ तथा निशुम्भ देखे हैं और पूर्वकालमें मैंने सैकड़ों दैत्यों तथा दानवोंका वध किया है ॥ २१ ॥
ममाग्रे देववृन्दानि विनष्टानि युगे युगे । नाशं यास्यन्ति दैत्यानां यूथानि पुनरद्य वै ॥ २२ ॥ काल एवागतोऽस्त्यत्र दैत्यसंहारकारकः । वृथा त्वं कुरुषे यत्नं रक्षणायात्मसन्ततेः ॥ २३ ॥
प्रत्येक युगमें अनेक देवसमुदाय मेरे सामने ही नष्ट हो चुके हैं । दैत्योंके समूह अब फिर विनाशको प्राप्त होंगे । दैत्योंका विनाशकारी समय अब आ ही गया है । अतएव तुम अपनी सन्ततिकी रक्षाके लिये व्यर्थ प्रयत्न कर रहे हो ॥ २२-२३ ॥
हे महामते ! तुम वीरधर्मको रक्षाके लिये मेरे साथ युद्ध करो । मृत्यु तो अवश्यम्भावी है, इसे टाला नहीं जा सकता । अत: महात्मा लोगोंको यशकी रक्षा करनी चाहिये ॥ २४ ॥
किं ते कार्यं निशुम्भेन शुम्भेन च दुरात्मना । वीरधर्मं परं प्राप्य गच्छ स्वर्गं सुरालयम् ॥ २५ ॥
दुराचारी शुम्भ तथा निशुम्भसे तुम्हारा क्या प्रयोजन सिद्ध हो संकता है ? अतः अब तुम श्रेष्ठ वीरधर्मका आश्रय लेकर देवलोक स्वर्ग चले जाओ ॥ २५ ॥
शुम्भो निशुम्भश्चैवान्ये ये चात्र तव बान्धवाः । सर्वे तवानुगाः पश्चादागमिष्यन्ति साम्प्रतम् ॥ २६ ॥
अब शुम्भ, निशुम्भ तथा तुम्हारे जो अन्य बन्धु-बान्धव हैं, वे सब भी बादमें तुम्हारा अनुसरण करते हुए वहाँ पहुँचेंगे ॥ २६ ॥
क्रमशः सर्वदैत्यानां करिष्याम्यद्य संक्षयम् । विषादं त्यज मन्दात्मन् कुरु युद्धं विशांपते ॥ २७ ॥
हे मन्दात्मन् ! मैं अब क्रमशः सभी दैत्योंका संहार कर डालूँगी । हे विशांपते ! अब विषाद त्यागो और मेरे साथ युद्ध करो ॥ २७ ॥
त्वामहं निहनिष्यामि भ्रातरं तव साम्प्रतम् । ततः शुम्भं निशुम्भं च रक्तबीजं मदोत्कटम् ॥ २८ ॥ अन्यांश्च दानवान्सर्वान्हत्वाहं समराङ्गणे । गमिष्यामि यथास्थानं तिष्ठ वा गच्छ वा द्रुतम् ॥ २९ ॥
मैं इसी समय तुम्हारा तथा तुम्हारे भाईका वध कर दूँगी । तत्पश्चात् शुम्भ, निशुम्भ, मदोन्मत्त रक्तबीज तथा अन्य दानवोंको रणभूमिमें मारकर मैं अपने धामको चली जाऊँगी । अब तुम यहाँ ठहरो अथवा शीघ्र भाग जाओ ॥ २८-२९ ॥
व्यर्थ ही स्थूल शरीर धारण करनेवाले हे दैत्य ! तुरंत शस्त्र उठा लो और मेरे साथ अभी युद्ध करो । कायरोंको सदा प्रिय लगनेवाली व्यर्थ बातें क्यों बोल रहे हो ? ॥ ३० ॥
व्यास उवाच तयेत्थं प्रेरितौ दैत्यौ चण्डमुण्डौ क्रुधान्वितौ । ज्याशब्दं तरसा घोरं चक्रतुर्बलदर्पितौ ॥ ३१ ॥
व्यासजी बोले-देवीके इस प्रकार उत्तेजित करनेपर दैत्य चण्ड-मुण्ड क्रोधसे भर उठे और अपने बलके अभिमानमें चूर उन दोनोंने वेगपूर्वक अपने धनुषकी प्रत्यंचाकी भीषण टंकार की ॥ ३१ ॥
उसी समय दसों दिशाओंको गुंजित करती हुई भगवतीने भी शंखनाद किया और बलवान् सिंहने भी कुपित होकर गर्जन किया । उस गर्जनसे इन्द्र आदि देवता, मुनि, यक्ष, गन्धर्व, सिद्ध, साध्य और किन्नर बहुत हर्षित हुए ॥ ३२-३३ ॥
तब [मुण्डके द्वारा प्रक्षिप्त] महान् बाणसमूहको देखकर अम्बिका बहुत कुपित हुई । क्रोधके कारण उनका मुख मेघके समान काला, आँखें केलेके पुष्पके समान लाल और भौंहें टेढ़ी हो गयीं ॥ ३८ ॥
उसी समय देवीके ललाटपटलसे सहसा भगवती काली प्रकट हुई । अत्यन्त क्रूर वे काली व्याघ्रचर्म पहने थीं और गजचर्मके उत्तरीय वस्त्रोंसे सुशोभित थीं । उन भयानक कालीने गले में मुण्डमाला धारण कर रखी थी और उनका उदर सूखी बावलीके समान प्रतीत हो रहा था । अत्यन्त भीषण तथा भय प्रदान करनेवाली वे भगवती काली हाथमें खड्ग, पाश तथा खट्वांग धारण किये हुई थीं । रौद्र रूपवाली वे काली साक्षात् दूसरी कालरात्रिके समान प्रतीत हो रही थीं ॥ ३९-४१ ॥
घंटा तथा आरोहियोंसमेत हाथियोंको अपने हाथमें पकड़कर वे देवी उन्हें मुखमें डाल लेती थीं और उन्हें चबा-चबाकर अट्टहास करने लगती थीं । उसी प्रकार वे घोड़ों, ऊँटों और सारथियोंसहित रथोंको अपने मुख में डालकर दाँतोंसे अत्यन्त भयानक रूपसे चबाने लगती थीं ॥ ४४-४५ ॥
तत्पश्चात् भगवती चण्डिकाने पत्थरकी सानपर चढ़ाये हुए अपने तीक्ष्ण बाणोंसे उस चण्डपर प्रहार किया । देवीके बाणोंसे अत्यधिक घायल होकर वह मूच्छित हो गया और पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ ४९ ॥
भगवती चण्डिकाने मुण्डके द्वारा की गयी अत्यन्त भीषण बाणवर्षाको अपने द्वारा छोड़े गये ईषिकास्त्रोंसे बलपूर्वक तिल-तिल करके क्षणभरमें ही नष्ट कर डाला ॥ ५१ ॥
इस प्रकार महाबली चण्ड-मुण्डको खरगोशकी तरह पकड़कर जोर-जोरसे हँसती हुई वे कालिका अम्बिकाके पास जा पहुँची । उनके पास आकर कालिका कहने लगीं-हे प्रिये ! मैं रणयज्ञमें पशुबलिके लिये इन रणदुर्जय दानवोंको यहाँ ले आयी हूँ, आप इन्हें स्वीकार करें । । ५८-५९ ॥
तब उन लाये गये दोनों दानवोंको भेडियेकी तरह दीन-हीन देखकर भगवती अम्बिकाने कालिकासे मधुरताभरी वाणीमें कहा-हे रणप्रिये ! न इनका वध करो और न छोड़ो ही । तुम चतुर हो अत: किसी उपायसे अब तुम्हें शीघ्र ही देवताओंका कार्य सिद्ध करना चाहिये ॥ ६०-६१ ॥
व्यास उवाच इति तस्या वचः श्रुत्वा कालिका प्राह तां पुनः । युद्धयज्ञेऽतिविख्याते खड्गयूपे प्रतिष्ठिते ॥ ६२ ॥ आलम्भञ्च करिष्यामि यथा हिंसा न जायते ।
व्यासजी बोले-अम्बिकाकी यह बात सुनकर कालिकाने उनसे पुन: कहा-जिस प्रकार यज्ञभूमिमें यूप स्थापित किये जाते हैं, उसी प्रकार विख्यात युद्धयज्ञमें बलिदान-स्तम्भके रूपमें प्रतिष्ठित खड्गके द्वारा मैं आलम्भनपूर्वक इस तरह इनका वध करूँगी, जिससे हिंसा नहीं होगी ॥ ६२.५ ॥
इत्युक्त्वा सा तदा देवी खड्गेन शिरसी तयोः ॥ ६३ ॥ चकर्त तरसा काली पपौ च रुधिरं मुदा ।
ऐसा कहकर देवी कालिकाने तुरंत तलवारसे उन दोनोंका सिर काट लिया और वे आनन्दपूर्वक रुधिरपान करने लगीं ॥ ६३.५ ॥
एवं दैत्यौ हतौ दृष्ट्वा मुदितोवाच चाम्बिका ॥ ६४ ॥ कृतं कार्यं सुराणां ते ददाम्यद्य वरं शुभम् । चण्डमुण्डौ हतौ यस्मात्तस्मात्ते नाम कालिके । चामुण्डेति सुविख्यातं भविष्यति धरातले ॥ ६५ ॥
इस प्रकार उन दोनों दैत्योंको मारा गया देखकर अम्बिकाने प्रसन्न होकर कहा-तुमने आज देवताओंका महान् कार्य किया है इसीलिये मैं तुम्हें एक शुभ वरदान दे रही हूँ । हे कालिके ! चूँकि तुमने चण्ड-मुण्डका वध किया है, इसलिये अब तुम इस पृथ्वीलोकमें 'चामुण्डा'-इस नामसे अत्यधिक विख्यात होओगी ॥ ६४-६५ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे चण्डमुण्डवधेन देव्याश्चामुण्डेतिनामवर्णनं नाम षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥