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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
पञ्चमः स्कन्धः
षड्‌विंशोऽध्यायः

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देव्यासह युद्धाय चण्डमुण्डप्रेषणम् -
भगवती अम्बिकासे चण्ड-मुण्डका संवाद और युद्ध, देवी कालिकाद्वारा चण्ड-मुण्डका वध -


व्यास उवाच
इत्याज्ञप्तौ तदा वीरौ चण्डमुण्डौ महाबलौ ।
जग्मतुस्तरसैवाजौ सैन्येन महतान्वितौ ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-[हे महाराज !] तदनन्तर शुम्भसे ऐसा आदेश पाकर महाबली चण्ड-मुण्ड विशाल सेनाके साथ बड़े वेगसे रणभूमिकी ओर चल पड़े ॥ १ ॥

दृष्ट्वा तत्र स्थितां देवीं देवानां हितकारिणीम् ।
ऊचतुस्तौ महावीर्यौ तदा सामान्वितं वचः ॥ २ ॥
तब देवताओंका हित करनेवाली देवीको वहाँ युद्धभूमिमें विद्यमान देखकर वे दोनों महापराक्रमी दानव उनसे सामनीतियुक्त वचन बोले- ॥ २ ॥

बाले त्वं किं न जानासि शुम्भं सुरबलार्दनम् ।
निशुम्भञ्च महावीर्यं तुराषाड्‌विजयोद्धतम् ॥ ३ ॥
हे बाले ! क्या तुम देवताओंकी सेनाका नाश करनेवाले शुम्भ तथा इन्द्रपर विजय प्राप्त करनेके कारण उद्धत स्वभाववाले महापराक्रमी निशुम्भको नहीं जानती हो ? ॥ ३ ॥

त्वमेकासि वरारोहे कालिकासिंहसंयुता ।
जेतुमिच्छसि दुर्बुद्धे शुम्भं सर्वबलान्वितम् ॥ ४ ॥
हे सुन्दरि ! तुम यहाँ अकेली हो । हे दुर्बुद्धे ! तुम मात्र कालिका और सिंहको साथ लेकर सभी प्रकारकी सेनाओंसे सम्पन्न शुम्भको जीतना चाहती हो ! ॥ ४ ॥

मतिदः कोऽपि ते नास्ति नारी वापि नरोऽपि वा ।
देवास्त्वां प्रेरयन्त्येव विनाशाय तवैव ते ॥ ५ ॥
क्या कोई स्त्री या पुरुष तुम्हें सत्परामर्श देनेवाला नहीं है ? देवतालोग तो तुम्हारे विनाशके लिये ही तुम्हें प्रेरित कर रहे हैं ॥ ५ ॥

विमृश्य कुरु तन्वङ्‌गि कार्यं स्वपरयोर्बलम् ।
अष्टादशभुजत्वात्त्वं गर्वञ्च कुरुषे मृषा ॥ ६ ॥
हे सुकुमार अंगोंवाली ! तुम अपने तथा शत्रुके बलके विषयमें सम्यक् विचार करके ही कार्य करो । अठारह भुजाओंके कारण तुम अपनेपर व्यर्थ ही अभिमान करती हो ॥ ६ ॥

किं भुजैर्बहुभिर्व्यर्थैरायुधैः किं श्रमप्रदैः ।
शुम्भस्याग्रे सुराणां वै जेतुः समरशालिनः ॥ ७ ॥
ऐरावतकरच्छेत्तुर्दन्तिदारणकारिणः ।
जयिनः सुरसङ्घानां कार्यं कुरु मनोगतम् ॥ ८ ॥
देवताओंको जीतनेवाले तथा समरभूमिमें पराक्रम दिखानेवाले शुम्भके समक्ष तुम्हारी इन बहुत-सी व्यर्थ भुजाओं तथा श्रम प्रदान करनेवाले आयुधोंसे क्या लाभ ? अतः तुम ऐरावतकी सैंड काट डालनेवाले, हाथियोंको विदीर्ण करनेवाले और देवताओंको जीत लेनेवाले शुम्भका मनोवांछित कार्य करो ॥ ७-८ ॥

वृथा गर्वायसे कान्ते कुरु मे वचनं प्रियम् ।
हितं तव विशालाक्षि सुखदं दुःखनाशनम् ॥ ९ ॥
हे कान्ते ! तुम वृथा गर्व करती हो । हे विशालाक्षि ! तुम मेरी प्रिय बात मान लो, जो तुम्हारे लिये हितकर, सुखद तथा दुःखोंका नाश करनेवाली है ॥ ९ ॥

दुःखदानि च कार्याणि त्याज्यानि दूरतो बुधैः ।
सुखदानि च सेव्यानि शास्त्रतत्त्वविशारदैः ॥ १० ॥
शास्त्रोंका तत्त्व जाननेवाले विद्वान् तथा बुद्धिमान् पुरुषोंको चाहिये कि दुःख देनेवाले कार्योंका दूरसे ही त्याग कर दें और सुख प्रदान करनेवाले कार्योका सेवन करें ॥ १० ॥

चतुरासि पिकालापे पश्य शुम्भबलं महत् ।
प्रत्यक्षं सुरसङ्घानां मर्दनेन महोदयम् ॥ ११ ॥
प्रत्यक्षञ्च परित्यज्य वृथैवानुमितिः किल ।
सन्देहसहिते कार्ये न विपश्चित्प्रवर्तते ॥ १२ ॥
हे कोयलके समान मधुर बोलनेवाली ! तुम तो बड़ी चतुर हो । तुम देवताओंके मर्दनसे अभ्युदयको प्राप्त तथा महान् शुम्भबलको प्रत्यक्ष देख लो । प्रत्यक्ष प्रमाणका त्याग करके अनुमानका आश्रय लेना बिलकुल व्यर्थ है । किसी सन्देहात्मक कार्यमें विद्वान् पुरुष प्रवृत्त नहीं होते ॥ ११-१२ ॥

शत्रुः सुराणां परमः शुम्भः समरदुर्जयः ।
तस्मात्त्वां प्रेरयन्त्यत्र देवा दैत्येशपीडिताः ॥ १३ ॥
शुम्भ देवताओंके महान् शत्रु हैं । वे संग्राममें अजेय हैं । इसीलिये दैत्येन्द्र शुम्भके द्वारा प्रताड़ित किये गये देवता तुम्हें युद्धके लिये प्रेरित कर रहे हैं ॥ १३ ॥

तस्मात्तद्वचनैः स्निग्धैर्वञ्चितासि शुचिस्मिते ।
दुःखाय तव देवानां शिक्षा स्वार्थस्य साधिका ॥ १४ ॥
हे सुन्दर मुसकानवाली ! तुम देवताओंके मधुर वचनोंसे ठग ली गयी हो । तुम्हारे प्रति देवताओंकी यह शिक्षा उनका कार्य सिद्ध करनेवाली तथा तुम्हें दुःख प्रदान करनेवाली है ॥ १४ ॥

कार्यमित्रं परिक्षिप्य धर्ममित्रं समाश्रयेत् ।
देवाः स्वार्थपराः कामं त्वामहं सत्यमब्रुवम् ॥ १५ ॥
भज शुम्भं सुरेशानं जेतारं भुवनेश्वरम् ।
चतुरं सुन्दरं शूरं कामशास्त्रविशारदम् ॥ १६
ऐश्वर्यं सर्वलोकानां प्राप्स्यसे शुम्भशासनात् ।
निश्चयं परमं कृत्वा भर्तारं भज शोभनम् ॥ १७ ॥
अपना ही कार्य साधने में तत्पर रहनेवाले मित्रका त्यागकर धर्ममार्गपर चलनेवाले मित्रका ही अवलम्बन करना चाहिये । देवता बड़े ही स्वार्थी हैं, मैंने तुमसे यह सत्य कहा है, अतः तुम देवताओंके शासक, विजेता, तीनों लोकोंके स्वामी, चतुर, सुन्दर, वीर और कामशास्त्रमें प्रवीण शुम्भको स्वीकार कर लो । शुम्भके अधीन रहनेसे तुम समस्त लोकोंका वैभव प्राप्त करोगी । अतएव दृढ़ निश्चय करके तुम सौन्दर्यसम्पन्न शुम्भको अपना पति बना लो ॥ १५-१७ ॥

व्यास उवाच
इति तस्य वचः श्रुत्वा चण्डस्य जगदम्बिका ।
मेघगम्भीरनिनदं जगर्ज पुनरब्रवीत् ॥ १८ ॥
गच्छ जाल्म मृषा किं त्वं भाषसे वञ्चकं वचः ।
त्यक्त्वा हरिहरादींश्च शुम्भं कस्माद्‌भजे पतिम् ॥ १९ ॥
व्यासजी बोले-चण्डकी यह बात सुनकर जगदम्बाने मेघके समान गम्भीर ध्वनिमें गर्जना की और वे बोलीं-धूर्त ! भाग जाओ; तुम यह छलयुक्त बात व्यर्थ क्यों बोल रहे हो ? विष्णु, शिव आदिको छोड़कर मैं शुम्भको अपना पति किसलिये बनाऊँ ? ॥ १८-१९ ॥

न मे कश्चित्पतिः कार्यो न कार्यं पतिना सह ।
स्वामिनी सर्वभूतानामहमेव निशामय ॥ २० ॥
न तो मुझे किसीको पति बनाना है और न तो पतिसे मेरा कोई काम ही है । क्योंकि जगतके सभी प्राणियोंकी स्वामिनी मैं ही हूँ; इसे तुम सुन लो ॥ २० ॥

शुम्भा मे बहवो दृष्टा निशुम्भाश्च सहस्रशः ।
घातिताश्च मया पूर्वं शतशो दैत्यदानवाः ॥ २१ ॥
मैंने हजारों-हजार शुम्भ तथा निशुम्भ देखे हैं और पूर्वकालमें मैंने सैकड़ों दैत्यों तथा दानवोंका वध किया है ॥ २१ ॥

ममाग्रे देववृन्दानि विनष्टानि युगे युगे ।
नाशं यास्यन्ति दैत्यानां यूथानि पुनरद्य वै ॥ २२ ॥
काल एवागतोऽस्त्यत्र दैत्यसंहारकारकः ।
वृथा त्वं कुरुषे यत्‍नं रक्षणायात्मसन्ततेः ॥ २३ ॥
प्रत्येक युगमें अनेक देवसमुदाय मेरे सामने ही नष्ट हो चुके हैं । दैत्योंके समूह अब फिर विनाशको प्राप्त होंगे । दैत्योंका विनाशकारी समय अब आ ही गया है । अतएव तुम अपनी सन्ततिकी रक्षाके लिये व्यर्थ प्रयत्न कर रहे हो ॥ २२-२३ ॥

कुरु युद्धं वीरधर्मरक्षायै त्वं महामते ।
मरणं भावि दुस्त्याज्यं यशो रक्ष्यं महात्मभिः ॥ २४ ॥
हे महामते ! तुम वीरधर्मको रक्षाके लिये मेरे साथ युद्ध करो । मृत्यु तो अवश्यम्भावी है, इसे टाला नहीं जा सकता । अत: महात्मा लोगोंको यशकी रक्षा करनी चाहिये ॥ २४ ॥

किं ते कार्यं निशुम्भेन शुम्भेन च दुरात्मना ।
वीरधर्मं परं प्राप्य गच्छ स्वर्गं सुरालयम् ॥ २५ ॥
दुराचारी शुम्भ तथा निशुम्भसे तुम्हारा क्या प्रयोजन सिद्ध हो संकता है ? अतः अब तुम श्रेष्ठ वीरधर्मका आश्रय लेकर देवलोक स्वर्ग चले जाओ ॥ २५ ॥

शुम्भो निशुम्भश्चैवान्ये ये चात्र तव बान्धवाः ।
सर्वे तवानुगाः पश्चादागमिष्यन्ति साम्प्रतम् ॥ २६ ॥
अब शुम्भ, निशुम्भ तथा तुम्हारे जो अन्य बन्धु-बान्धव हैं, वे सब भी बादमें तुम्हारा अनुसरण करते हुए वहाँ पहुँचेंगे ॥ २६ ॥

क्रमशः सर्वदैत्यानां करिष्याम्यद्य संक्षयम् ।
विषादं त्यज मन्दात्मन् कुरु युद्धं विशांपते ॥ २७ ॥
हे मन्दात्मन् ! मैं अब क्रमशः सभी दैत्योंका संहार कर डालूँगी । हे विशांपते ! अब विषाद त्यागो और मेरे साथ युद्ध करो ॥ २७ ॥

त्वामहं निहनिष्यामि भ्रातरं तव साम्प्रतम् ।
ततः शुम्भं निशुम्भं च रक्तबीजं मदोत्कटम् ॥ २८ ॥
अन्यांश्च दानवान्सर्वान्हत्वाहं समराङ्गणे ।
गमिष्यामि यथास्थानं तिष्ठ वा गच्छ वा द्रुतम् ॥ २९ ॥
मैं इसी समय तुम्हारा तथा तुम्हारे भाईका वध कर दूँगी । तत्पश्चात् शुम्भ, निशुम्भ, मदोन्मत्त रक्तबीज तथा अन्य दानवोंको रणभूमिमें मारकर मैं अपने धामको चली जाऊँगी । अब तुम यहाँ ठहरो अथवा शीघ्र भाग जाओ ॥ २८-२९ ॥

गृहाणास्त्रं वृथापुष्ट कुरु युद्धं मयाधुना ।
किं जल्पसि मृषा वाक्यं सर्वथा कातरप्रियम् ॥ ३० ॥
व्यर्थ ही स्थूल शरीर धारण करनेवाले हे दैत्य ! तुरंत शस्त्र उठा लो और मेरे साथ अभी युद्ध करो । कायरोंको सदा प्रिय लगनेवाली व्यर्थ बातें क्यों बोल रहे हो ? ॥ ३० ॥

व्यास उवाच
तयेत्थं प्रेरितौ दैत्यौ चण्डमुण्डौ क्रुधान्वितौ ।
ज्याशब्दं तरसा घोरं चक्रतुर्बलदर्पितौ ॥ ३१ ॥
व्यासजी बोले-देवीके इस प्रकार उत्तेजित करनेपर दैत्य चण्ड-मुण्ड क्रोधसे भर उठे और अपने बलके अभिमानमें चूर उन दोनोंने वेगपूर्वक अपने धनुषकी प्रत्यंचाकी भीषण टंकार की ॥ ३१ ॥

सापि शङ्खस्वनं चक्रे पूरयन्ती दिशो दश ।
सिंहोऽपि कुपितस्तावन्नादं समकरोद्‌बली ॥ ३२ ॥
तेन नादेन शक्राद्या जहर्षुरमरास्तदा ।
मुनयो यक्षगन्धर्वाः सिद्धाः साध्याश्च किन्नराः ॥ ३३ ॥
उसी समय दसों दिशाओंको गुंजित करती हुई भगवतीने भी शंखनाद किया और बलवान् सिंहने भी कुपित होकर गर्जन किया । उस गर्जनसे इन्द्र आदि देवता, मुनि, यक्ष, गन्धर्व, सिद्ध, साध्य और किन्नर बहुत हर्षित हुए ॥ ३२-३३ ॥

युद्धं परस्परं तत्र जातं कातरभीतिदम् ।
चण्डिकाचण्डयोस्तीव्रं बाणखड्‍गगदादिभिः ॥ ३४ ॥
तदनन्तर चण्डिका और चण्डमें परस्पर बाण, तलवार, गदा आदिके द्वारा भीषण संग्राम होने लगा; जो कायरोंके लिये भयदायक था । ॥ ३४ ॥

चण्डमुक्ताञ्छरान्देवी चिच्छेद निशितैः शरैः ।
मुमोच पुनरुग्रान्सा बाणांश्च पन्नगानिव ॥ ३५ ॥
चण्डिकाने दैत्य चण्डके द्वारा छोड़े गये बाणोंको अपने तीक्ष्ण बाणोंसे काट दिया और फिर वे चण्डपर अपने सर्पसदृश भयंकर बाण छोड़ने लगीं ॥ ३५ ॥

गगनं छादितं तत्र संग्रामे विशिखैस्तदा ।
शलभैरिव मेघान्ते कर्षकाणां भयप्रदैः ॥ ३६ ॥
उस समय संग्राममें आकाशमण्डल बाणोंसे उसी प्रकार आच्छादित हो गया, जैसे वर्षाऋतुके अन्तमें किसानोंको भय प्रदान करनेवाली टिड़ियोंसे आकाश छा जाता है ॥ ३६ ॥

मुण्डोऽपि सैनिकैः सार्धं पपात तरसा रणे ।
मुमोच बाणवृष्टिं वै क्रुद्धः परमदारुणः ॥ ३७ ॥
उसी समय अतीव भयंकर मुण्ड भी सैनिकोंके साथ बड़ी तेजीसे रणभूमिमें आ पहुँचा और क्रोधित होकर बाणोंकी वर्षा करने लगा ॥ ३७ ॥

बाणजालं महद्‌ दृष्ट्वा कुद्धा तत्राम्बिका भृशम् ।
कोपेन वदनं तस्या बभूव घनसन्निभम् ॥ ३८ ॥
तब [मुण्डके द्वारा प्रक्षिप्त] महान् बाणसमूहको देखकर अम्बिका बहुत कुपित हुई । क्रोधके कारण उनका मुख मेघके समान काला, आँखें केलेके पुष्पके समान लाल और भौंहें टेढ़ी हो गयीं ॥ ३८ ॥

कदलीपुष्पनेत्रञ्च भृकुटीकुटिलं तदा ।
निष्क्रान्ता च तदा काली ललाटफलकाद्द्रुतम् ॥ ३९ ॥
व्याघ्रचर्माम्बरा क्रूरा गजचर्मोत्तरीयका ।
मुण्डमालाधरा घोरा शुष्कवापीसमोदरा ॥ ४० ॥
खड्गपाशधरातीव भीषणा भयदायिनी ।
खट्वाङ्गधारिणी रौद्रा कालरात्रिरिवापरा ॥ ४१ ॥
उसी समय देवीके ललाटपटलसे सहसा भगवती काली प्रकट हुई । अत्यन्त क्रूर वे काली व्याघ्रचर्म पहने थीं और गजचर्मके उत्तरीय वस्त्रोंसे सुशोभित थीं । उन भयानक कालीने गले में मुण्डमाला धारण कर रखी थी और उनका उदर सूखी बावलीके समान प्रतीत हो रहा था । अत्यन्त भीषण तथा भय प्रदान करनेवाली वे भगवती काली हाथमें खड्ग, पाश तथा खट्वांग धारण किये हुई थीं । रौद्र रूपवाली वे काली साक्षात् दूसरी कालरात्रिके समान प्रतीत हो रही थीं ॥ ३९-४१ ॥

विस्तीर्णवदना जिह्वां चालयन्ती मुहुर्मुहुः ।
विस्तारजघना वेगाज्जघानासुरसैनिकान् ॥ ४२ ॥
विशाल मुख तथा विस्तृत जघनप्रदेशवाली वे भगवती काली बार-बार जिह्वा लपलपाती हुई बड़े वेगसे असुर-सैनिकोंका संहार करने लगीं ॥ ४२ ॥

करे कृत्वा महावीरांस्तरसा सा रुषान्विता ।
मुखे चिक्षेप दैतेयान्पिपेष दशनैः शनैः ॥ ४३ ॥
वे कुपित होकर बड़े-बड़े दैत्यवीरोंको हाथमें पकड़कर अपने मुख में डाल लेती थीं और धीरे-धीरे उन्हें दाँतोंसे पीस डालती थीं ॥ ४३ ॥

गजान्घण्टान्वितान्हस्ते गृहीत्वा निदधौ मुखे ।
सारोहान्भक्षयित्वाजौ साट्टहासं चकार ह ॥ ४४ ॥
तथैव तुरगानुष्ट्रांस्तथा सारथिभिः सह ।
निक्षिप्य वक्त्त्रे दशनैश्चर्वयत्यतिभैरवम् ॥ ४५ ॥
घंटा तथा आरोहियोंसमेत हाथियोंको अपने हाथमें पकड़कर वे देवी उन्हें मुखमें डाल लेती थीं और उन्हें चबा-चबाकर अट्टहास करने लगती थीं । उसी प्रकार वे घोड़ों, ऊँटों और सारथियोंसहित रथोंको अपने मुख में डालकर दाँतोंसे अत्यन्त भयानक रूपसे चबाने लगती थीं ॥ ४४-४५ ॥

हन्यमानं बलं प्रेक्ष्य चण्डमुण्डौ महासुरौ ।
छादयामासतुर्देवीं बाणासारैरनन्तरैः ॥ ४६ ॥
अपनी सेनाको मारे जाते देखकर महान् असुर चण्ड-मुण्डने निरन्तर बाण-वृष्टिके द्वारा भगवतीको आच्छादित कर दिया ॥ ४६ ॥

चण्डश्चण्डकरच्छायं चक्रं चक्रधरायुधम् ।
चिक्षेप तरसा देवीं ननाद च मुहुर्मुहुः ॥ ४७ ॥
चण्डने सूर्यके समान तेजस्वी तथा भगवान् विष्णुके सुदर्शनचक्रके तुल्य प्रभाववाला चक्र बड़े वेगसे देवीपर चला दिया और वह बार-बार गरजने लगा ॥ ४७ ॥

नदन्तं वीक्ष्य तं काली रथाङ्गञ्च रविप्रभम् ।
बाणेनैकेन चिच्छेद सुप्रभं तत्सुदर्शनम् ॥ ४८ ॥
उसे गर्जन करते देखकर कालीने अपने एक ही बाणसे उसके सूर्य-तुल्य तेजस्वी तथा सुदर्शनचक्रसदश प्रभावाले चक्रको काट डाला ॥ ४८ ॥

तं जघान शरैस्तीक्ष्णैश्चण्डं चण्डी शिलाशितैः ।
मूर्च्छितोऽसौ पपातोर्व्यां देवीबाणार्दितो भृशम् ॥ ४९ ॥
तत्पश्चात् भगवती चण्डिकाने पत्थरकी सानपर चढ़ाये हुए अपने तीक्ष्ण बाणोंसे उस चण्डपर प्रहार किया । देवीके बाणोंसे अत्यधिक घायल होकर वह मूच्छित हो गया और पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ ४९ ॥

पतितं भ्रातरं वीक्ष्य मुण्डो दुःखार्दितस्तदा ।
चकार शरवृष्टिञ्च कालिकोपरि कोपतः ॥ ५० ॥
उस समय अपने भाईको पृथ्वीपर गिरा हुआ देखकर मुण्ड दुःखसे व्याकुल हो उठा और कुपित होकर कालिकाके ऊपर बाणोंकी वर्षा करने लगा ॥ ५० ॥

चण्डिका मुण्डनिर्मुक्तां शरवृष्टिं सुदारुणाम् ।
ईषिकास्त्रैर्बलान्मुक्तैश्चकार तिलशः क्षणात् ॥ ५१ ॥
भगवती चण्डिकाने मुण्डके द्वारा की गयी अत्यन्त भीषण बाणवर्षाको अपने द्वारा छोड़े गये ईषिकास्त्रोंसे बलपूर्वक तिल-तिल करके क्षणभरमें ही नष्ट कर डाला ॥ ५१ ॥

अर्धचन्द्रेण बाणेन ताडयामास तं पुनः ।
पतितोऽसौ महावीर्यो मेदिन्यां मदवर्जितः ॥ ५२ ॥
तत्पश्चात् चण्डिकाने एक अर्धचन्द्राकार बाणसे मुण्डपर पुनः प्रहार किया, जिससे वह महाशक्तिशाली दैत्य मदहीन होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ ५२ ॥

हाहाकारो महानासीद्दानवानां बले तदा ।
जहर्षुरमराः सर्वे गगनस्था गतव्यथाः ॥ ५३ ॥
[यह देखकर] उस समय दानवोंकी सेनामें महान् हाहाकार मच गया । आकाशमें विद्यमान सभी देवताओंकी व्यथा दूर हो गयी और वे हर्षसे भर उठे ॥ ५३ ॥

विहाय मूर्च्छां चण्डस्तु संगृह्य महतीं गदाम् ।
तरसा ताडयामास कालिकां दक्षिणे भुजे ॥ ५४ ॥
- इसके बाद कुछ देरमें मूर्छा दूर होनेपर चण्डने एक विशाल गदा लेकर बड़े वेगसे कालिकाकी दाहिनी भुजापर प्रहार किया ॥ ५४ ॥

वञ्चयित्वा गदाघातं तं बबन्ध महासुरम् ।
तरसा बाणपाशेन मन्त्रमुक्तेन कालिका ॥ ५५ ॥
भगवती कालिकाने उसके गदाप्रहारको रोककर अभिमन्त्रित करके छोड़े गये बाण-पाशसे उस महान् असुरको शीघ्र ही बाँध लिया ॥ ५५ ॥

उत्थितस्तु तदा मुण्डो बद्धं दृष्ट्वानुजं बलात् ।
आजगाम सुसन्नद्धः शक्तिं कृत्वा करे दृढाम् ॥ ५६ ॥
उधर जब मुण्डचेतनामें आया तब अपने अनुजको पाशास्त्रमें बलपूर्वक बँधा देखकर कवच पहने हुए वह अपने हाथमें एक सुदृढ़ शक्ति लेकर आ गया ॥ ५६ ॥

आगच्छन्तं तदा काली दानवं वीक्ष्य सत्वरम् ।
बबन्ध तरसा तं तु द्वितीयं भ्रातरं भृशम् ॥ ५७ ॥
तब भगवती कालीने उस दूसरे भाई दानव मुण्डको बड़े वेगसे अपनी ओर आता हुआ देखकर उसे भी बड़ी मजबूतीसे बाँध लिया ॥ ५७ ॥

गृहीत्वा तौ महावीर्यौ चण्डमुण्डौ शशाविव ।
कुर्वती विपुलं हासमाजगामाम्बिकां प्रति ॥ ५८ ॥
आगत्य तामथोवाच गृहाणेमौ पशू प्रिये ।
रणयज्ञार्थमानीतौ दानवौ रणदुर्जयौ ॥ ५९ ॥
इस प्रकार महाबली चण्ड-मुण्डको खरगोशकी तरह पकड़कर जोर-जोरसे हँसती हुई वे कालिका अम्बिकाके पास जा पहुँची । उनके पास आकर कालिका कहने लगीं-हे प्रिये ! मैं रणयज्ञमें पशुबलिके लिये इन रणदुर्जय दानवोंको यहाँ ले आयी हूँ, आप इन्हें स्वीकार करें । । ५८-५९ ॥

तावानीतौ तदा वीक्ष्य चण्डिका तौ वृकाविव ।
अम्बिका कालिकां प्राह माधुरीसंयुतं वचः ॥ ६० ॥
वधं मा कुरु मा मुञ्च चतुरासि रणप्रिये ।
देवानां कार्यसंसिद्धिः कर्तव्या तरसा त्वया ॥ ६१ ॥
तब उन लाये गये दोनों दानवोंको भेडियेकी तरह दीन-हीन देखकर भगवती अम्बिकाने कालिकासे मधुरताभरी वाणीमें कहा-हे रणप्रिये ! न इनका वध करो और न छोड़ो ही । तुम चतुर हो अत: किसी उपायसे अब तुम्हें शीघ्र ही देवताओंका कार्य सिद्ध करना चाहिये ॥ ६०-६१ ॥

व्यास उवाच
इति तस्या वचः श्रुत्वा कालिका प्राह तां पुनः ।
युद्धयज्ञेऽतिविख्याते खड्गयूपे प्रतिष्ठिते ॥ ६२ ॥
आलम्भञ्च करिष्यामि यथा हिंसा न जायते ।
व्यासजी बोले-अम्बिकाकी यह बात सुनकर कालिकाने उनसे पुन: कहा-जिस प्रकार यज्ञभूमिमें यूप स्थापित किये जाते हैं, उसी प्रकार विख्यात युद्धयज्ञमें बलिदान-स्तम्भके रूपमें प्रतिष्ठित खड्गके द्वारा मैं आलम्भनपूर्वक इस तरह इनका वध करूँगी, जिससे हिंसा नहीं होगी ॥ ६२.५ ॥

इत्युक्त्वा सा तदा देवी खड्गेन शिरसी तयोः ॥ ६३ ॥
चकर्त तरसा काली पपौ च रुधिरं मुदा ।
ऐसा कहकर देवी कालिकाने तुरंत तलवारसे उन दोनोंका सिर काट लिया और वे आनन्दपूर्वक रुधिरपान करने लगीं ॥ ६३.५ ॥

एवं दैत्यौ हतौ दृष्ट्वा मुदितोवाच चाम्बिका ॥ ६४ ॥
कृतं कार्यं सुराणां ते ददाम्यद्य वरं शुभम् ।
चण्डमुण्डौ हतौ यस्मात्तस्मात्ते नाम कालिके ।
चामुण्डेति सुविख्यातं भविष्यति धरातले ॥ ६५ ॥
इस प्रकार उन दोनों दैत्योंको मारा गया देखकर अम्बिकाने प्रसन्न होकर कहा-तुमने आज देवताओंका महान् कार्य किया है इसीलिये मैं तुम्हें एक शुभ वरदान दे रही हूँ । हे कालिके ! चूँकि तुमने चण्ड-मुण्डका वध किया है, इसलिये अब तुम इस पृथ्वीलोकमें 'चामुण्डा'-इस नामसे अत्यधिक विख्यात होओगी ॥ ६४-६५ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां पञ्चमस्कन्धे चण्डमुण्डवधेन
देव्याश्चामुण्डेतिनामवर्णनं नाम षड्‌विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥
अध्याय छ्ब्बीसवाँ समाप्त ॥ २६ ॥


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