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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
पञ्चमः स्कन्धः
सप्तविंशोऽध्यायः

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रक्तबीजद्वारा देवीसमीपे शुम्भनिशुम्भसंवादवर्णनम् -
शुम्भका रक्तबीजको भगवती अम्बिकाके पास भेजना और उसका देवीसे वार्तालाप -


व्यास उवाच
हतौ तौ दानवौ दृष्ट्वा हतशेषाश्च सैनिकाः ।
पलायनं ततः कृत्वा जग्मुः सर्वे नृपं प्रति ॥ १ ॥
भिन्नाङ्गा विशिखैः केचित्केचिच्छिन्नकरास्तथा ।
रुधिरस्रावदेहाश्च रुदन्तोऽभिययुः पुरे ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] उन दोनों दैत्योंको मारा गया देखकर मरनेसे बचे सभी सैनिक भागकर राजा शुम्भके पास गये । कुछ सैनिकोंके अंग बाणोंसे छिद गये थे, कुछके हाथ कट गये थे, उनके पूरे शरीरसे रक्त बह रहा था; वे सब रोते हुए नगरमें पहुँचे ॥ १-२ ॥

गत्वा दैत्यपतिं सर्वे चक्रुर्बुम्बारवं मुहुः ।
रक्ष रक्ष महाराज भक्षयत्यद्य कालिका ॥ ३ ॥
तया हतौ महावीरौ चण्डमुण्डौ सुरार्दनौ ।
भक्षिताः सैनिकाः सर्वे वयं भग्ना भयातुराः ॥ ४ ॥
दैत्यराज शुम्भके पास जाकर वे सब बार-बार चीख-पुकार करने लगे-हे महाराज ! हमें बचा लीजिये, बचा लीजिये; नहीं तो आज हमें कालिका खा जायगी । उसने देवताओंका मर्दन करनेवाले महावीर चण्ड-मुण्डको मार डाला और वह बहुतसे सैनिकोंको खा गयी । अंग-भंग हुए हमलोग इस समय भयसे व्याकुल हैं ॥ ३-४ ॥

भीतिदञ्च रणस्थानं कृतं कालिकया प्रभो ।
पातितैर्गजवीराश्वैर्दासेरकपदातिभिः ॥ ५ ॥
हे प्रभो ! मरे पड़े हाथियों, घोड़ों, ऊँटों तथा पैदल सैनिकोंसे उस कालिकाने युद्धभूमिको अत्यन्त डरावना बना दिया है ॥ ५ ॥

शोणितौघवहा कुल्या कृता मांसातिकर्दमा ।
केशशैवलिनी भग्नरथचक्रविराजिता ॥ ६ ॥
छिन्नबाह्वादिमत्स्याढ्या शीर्षतुम्बीफलान्विता ।
भयदा कातराणां वै सुराणां मोदवर्धिनी ॥ ७ ॥
उसने समरभूमिमें रक्तकी नदी बना डाली है, जिसमें मांस कीचड़की भाँति, मस्तकके केश सेवारके सदृश और टूटे हुए रथोंके पहिये भँवरके समान, सैनिकोंके कटे हाथ आदि मछलीके समान और सिर तुम्बीके फलके तुल्य प्रतीत हो रहे हैं । वह [रुधिरनदी] कायरोंको भयभीत करनेवाली तथा देवताओंके हर्षको बढ़ानेवाली है ॥ ६-७ ॥

कुलं रक्ष महाराज पातालं गच्छ सत्वरम् ।
क्रुद्धा देवी क्षयं सद्यः करिष्यति न संशयः ॥ ८ ॥
हे महाराज ! अब आप दैत्यकुलकी रक्षा कीजिये और शीघ्र पाताललोक चले जाइये; अन्यथा क्रोधमें भरी वह देवी आज ही [सभी दानवोंका] विनाश कर डालेगी । इसमें सन्देह नहीं है ॥ ८ ॥

सिंहोऽपि भक्षयत्याजौ दानवान्दनुजेश्वर ।
तथैव कालिका देवी हन्ति बाणैरनेकधा ॥ ९ ॥
तस्मात्त्वमपि राजेन्द्र मरणाय मृषा मतिम् ।
करोषि सहितो भ्रात्रा शुम्भेन कुपिताशयः ॥ १० ॥
हे दानवेन्द्र ! अम्बिकाका वाहन सिंह भी युद्धभूमिमें दानवोंको खाता जा रहा है और कालिकादेवी अपने बाणोंसे [दैत्य सैनिकोंका] अनेक तरहसे वध कर रही है । अतएव हे राजेन्द्र ! आप भी कोपके वशीभूत होकर अपने भाई निशुम्भसहित मरनेका व्यर्थ विचार कर रहे हैं ॥ ९-१० ॥

किं करिष्यति नार्येषा क्रूरा कुलविनाशिनी ।
यस्या हेतोर्महाराज हन्तुमिच्छसि बान्धवान् ॥ ११ ॥
हे महाराज ! राक्षसकुलका नाश करनेवाली यह क्रूर स्त्री, जिसके लिये आप अपने बन्धुओंको मरवा डालना चाहते हैं, यदि आपको प्राप्त हो ही गयी तो यह आपको क्या सुख प्रदान करेगी ? ॥ ११ ॥

दैवाधीनौ महाराज लोके जयपराजयौ ।
अल्पार्थाय महद्दुःखं बुद्धिमान्न प्रकल्पयेत् ॥ १२ ॥
हे महाराज ! जगत्में जय तथा पराजय दैवके अधीन होती है । बुद्धिमान्को चाहिये कि अल्प प्रयोजनके लिये भारी कष्ट न उठाये ॥ १२ ॥

चित्रं पश्य विधेः कर्म यदधीनं जगत् प्रभो ।
निहता राक्षसाः सर्वे स्त्रिया पश्यैकयानया ॥ १३ ॥
हे प्रभो ! जिसके अधीन यह सारा जगत् रहता है, उस विधाताका अद्भुत कम देखिये कि इस स्त्रीने अकेले ही सम्पूर्ण राक्षसोंका संहार कर डाला ॥ १३ ॥

जेता त्वं लोकपालानां सैन्ययुक्तो हि साम्प्रतम् ।
एका प्रार्थयते बाला युद्धायेति सुसम्भ्रमः ॥ १४ ॥
आप लोकपालोंको जीत चुके हैं और इस समय आपके पास बहुत-से सैनिक भी हैं तथापि एक स्त्री युद्धके लिये आपको ललकार रही है; यह महान् आश्चर्य है ! ॥ १४ ॥

पुरा त्वया तपस्तप्तं पुष्करे देवतायने ।
वरदानाय सम्प्राप्तो ब्रह्मा लोकपितामहः ॥ १५ ॥
धात्रोक्तस्त्वं महाराज वरं वरय सुव्रत ।
तदा त्वयामरत्वं च प्रार्थितं ब्रह्मणः किल ॥ १६ ॥
देवदैत्यमनुष्येभ्यो न भवेन्मरणं मम ।
सर्पकिन्नरयक्षेभ्यः पुंल्लिङ्गवाचकादपि ॥ १७ ॥
पूर्वकालमें आपने पुष्कर तीर्थमें एक देवालयमें तप किया था । उस समय वर प्रदान करनेके लिये लोकपितामह ब्रह्माजी आपके पास आये थे । हे महाराज ! जब ब्रह्माजीने आपसे कहा-'हे सुव्रत ! वर माँगो' तब आपने ब्रह्माजीसे अमर होनेकी यह | प्रार्थना की थी-'देवता, दैत्य, मनुष्य, सर्प, किन्नर, यक्ष और पुरुषवाचक जो भी प्राणी हैं-इनमें किसीसे भी मेरी मृत्यु न हो' ॥ १५-१७ ॥

तस्मात्त्वां हन्तुकामैषा प्राप्ता योषिद्वरा प्रभो ।
युद्धं मा कुरु राजेन्द्र विचार्यैवं धियाधुना ॥ १८ ॥
हे प्रभो ! इसी कारणसे यह श्रेष्ठ स्त्री आपका वध करनेकी इच्छासे आयी हुई है । अतएव हे राजेन्द्र ! बुद्धिसे ऐसा विचार करके अब आप युद्ध मत कीजिये ॥ १८ ॥

देवी ह्येषा महामाया प्रकृतिः परमा मता ।
कल्पान्तकाले राजेन्द्र सर्वसंहारकारिणी ॥ १९ ॥
इन देवी अम्बिकाको ही महामाया और परमा प्रकृति कहा गया है । हे राजेन्द्र ! कल्पके अन्तमें ये भगवती ही सम्पूर्ण सृष्टिका संहार करती हैं ॥ १९ ॥

उत्पादयित्री लोकानां देवानामीश्वरी शुभा ।
त्रिगुणा तामसी देवी सर्वशक्तिसमन्विता ॥ २० ॥
अजय्या चाक्षया नित्या सर्वज्ञा च सदोदिता ।
वेदमाता च गायत्री सन्ध्या सर्वसुरालया ॥ २१ ॥
निर्गुणा सगुणा सिद्धा सर्वसिद्धिप्रदाव्यया ।
आनन्दानन्ददा गौरी देवानामभयप्रदा ॥ २२ ॥
सबपर शासन करनेवाली ये कल्याणमयी देवी सम्पूर्ण लोकों तथा देवताओंको भी उत्पन्न करनेवाली हैं । ये देवी तीनों गुणोंसे युक्त हैं, फिर भी ये विशेषरूपसे तमोगुणसे युक्त और सभी प्रकारको शक्तियोंसे सम्पन्न हैं । ये अजेय, विनाशरहित, नित्य, सर्वज्ञ तथा सदा विराजमान रहती हैं । वेदमाता गायत्री और सन्ध्याके रूपमें प्रतिष्ठित ये देवी सम्पूर्ण देवताओंको आश्रय प्रदान करती हैं । ये देवी निर्गुण तथा सगुणरूपवाली, स्वयं सिद्धिस्वरूपिणी, सम्पूर्ण सिद्धियोंको देनेवाली, अविनाशिनी, आनन्दस्वरूपा, सबको आनन्द देनेवाली, गौरी नामसे विख्यात तथा देवताओंको अभय प्रदान करनेवाली हैं । २०-२२ ॥

एवं ज्ञात्वा महाराज वैरभावं त्यजानया ।
शरणं व्रज राजेन्द्र देवी त्वां पालयिष्यति ॥ २३ ॥
आज्ञाकरो भवैतस्याः सञ्जीवय निजं कुलम् ।
हतशेषाश्च ये दैत्यास्ते भवन्तु चिरायुषः ॥ २४ ॥
हे महाराज ! ऐसा जानकर आप इनके साथ वैरभावका परित्याग कर दीजिये । हे राजेन्द्र ! आप इनकी शरणमें चले जाइये; ये भगवती आपकी रक्षा करेंगी । आप इनके सेवक बन जाइये [और इस प्रकार अपने कुलका जीवन बचा लीजिये; मरनेसे बचे हुए जो दैत्य हैं, वे भी दीर्घजीवी हो जायें ॥ २३-२४ ॥

व्यास उवाच
इति तेषां वचः श्रुत्वा शुम्भः सुरबलार्दनः ।
उवाच वचनं तथ्यं वीरवर्यगुणान्वितम् ॥ २५ ॥
व्यासजी बोले-उनका यह वचन सुनकर देवसेनाका मर्दन करनेवाले शुम्भने महान् वीरोंके पराक्रम-गुणसे सम्पन्न यथार्थ वचन कहना आरम्भ किया ॥ २५ ॥

शुम्भ उवाच
मौनं कुर्वन्तु भो मन्दा यूयं भग्ना रणाजिरात् ।
शीघ्रं गच्छत पातालं जीविताशा बलीयसी ॥ २६ ॥
शुम्भ बोला-अरे मूर्यो ! चुप रहो; तुमलोग युद्धभूमिसे भाग आये हो । तुम्हें यदि जीवित रहनेकी प्रबल अभिलाषा है तो तुम सब अभी पाताललोक चले जाओ ॥ २६ ॥

दैवाधीनं जगत्सर्वं का चिन्तात्र जये मम ।
देवास्तथैव ब्रह्माद्या दैवाधीना वयं यथा ॥ २७ ॥
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रोऽयं यमोऽग्निर्वरुणस्तथा ।
सूर्यश्चन्द्रस्तथा शक्रः सर्वे दैववशाः किल ॥ २८ ॥
का चिन्ता तर्हि मे मन्दा यद्‌भावि तद्‌भविष्यति ।
उद्यमस्तादृशो भूयाद्यादृशी भवितव्यता ॥ २९ ॥
सर्वथैव विचार्यैव न शोचन्ति बुधाः क्वचित् ।
स्वधर्मं न त्यजन्तीह ज्ञानिनो मरणाद्‌भयात् ॥ ३० ॥
जब यह सारा संसार ही दैवके अधीन है, तब विजयके सम्बन्धमें मुझे क्या चिन्ता हो सकती है ? जैसे हमलोग दैवके अधीन हैं, वैसे ही ब्रह्मा आदि देवता भी सदा दैवके अधीन रहते हैं । ब्रह्मा, विष्णु, महेश, यम, अग्नि, वरुण, सूर्य, चन्द्र और इन्द्र-ये सब देवता सदा दैवके अधीन हैं । हे मूर्यो ! तब मुझे किस बातकी चिन्ता ? जो होना होगा, वह तो होकर रहेगा । जैसी भवितव्यता होती है, उसी प्रकारका उद्यम भी आरम्भ हो जाता है । सब प्रकारसे ऐसा विचार करके विद्वान् लोग कभी शोक नहीं करते । ज्ञानी लोग मृत्युके भयसे अपने धर्मका त्याग नहीं करते ॥ २७-३० ॥

सुखं दुःखं तथैवायुर्जीवितं मरणं नृणाम् ।
काले भवति सम्प्राप्ते सर्वथा दैवनिर्मितम् ॥ ३१ ॥
ब्रह्मा पतति काले स्वे विष्णुश्च पार्वतीपतिः ।
नाशं गच्छन्त्यायुषोऽन्ते सर्वे देवाः सवासवाः ॥ ३२ ॥
तथाहमपि कालस्य वशगः सर्वथाधुना ।
नाशं जयं वा गन्तास्मि स्वधर्मपरिपालनात् ॥ ३३ ॥
समय आनेपर दैवकी प्रेरणासे मनुष्योंको सुख, दु:ख, आयु, जीवन तथा मरण-ये सब निश्चितरूपसे प्राप्त होते हैं । अपना-अपना समय पूरा हो जानेपर ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी नष्ट हो जाते हैं । इन्द्रसहित सभी देवता भी अपनी आयुके अन्तमें विनाशको प्राप्त होते हैं । उसी प्रकार मैं भी सर्वधा कालका वशवती हूँ । अतः अब मुझे विनाश अथवा विजय जो भी प्राप्त होगी, उसे मैं अपने धर्मका सम्यक् पालन करते हुए स्वीकार करूँगा ॥ ३१-३३ ॥

आहूतोऽप्यनया कामं युद्धायाबलया किल ।
कथं पलायनपरो जीवेयं शरदां शतम् ॥ ३४ ॥
करिष्याम्यद्य संग्रामं यद्‌भावि तद्‌भवत्विह ।
जयो वा मरणं वापि स्वीकरोमि यथा तथा ॥ ३५ ॥
जब इस स्त्रीने मुझे युद्धके लिये ललकारा है, तब [उसके भयसे] भागकर मैं सैकड़ों वर्ष जीवित रहनेकी आशा क्यों करूँ ? मैं आज ही उसके साथ युद्ध करूँगा, फिर जो होना है वह होवे । युद्धमें विजय अथवा मृत्यु जो भी प्राप्त होगी, उसे मैं स्वीकार करूँगा ॥ ३४-३५ ॥

दैवं मिथ्येति विद्वांसो वदन्त्युद्यमवादिनः ।
युक्तियुक्तं वचस्तेषां ये जानन्त्यभिभाषितम् ॥ ३६ ॥
'दैव मिथ्या है'-ऐसा उद्यमवादी विद्वान् कहते हैं । इस प्रकार जो शास्त्रको जानते हैं, उन उद्यमवादी विद्वानोंकी बात युक्तियुक्त भी है ॥ ३६ ॥

उद्यमेन विना कामं न सिध्यन्ति मनोरथाः ।
कातरा एव जल्पन्ति यद्‌भाव्यं तद्‌भविष्यति ॥ ३७ ॥
अदृष्टं बलवन्मूढाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
प्रमाणं तस्य सत्त्वे किमदृश्यं दृश्यते कथम् ॥ ३८ ॥
बिना उद्यम किये मनोरथ कभी सिद्ध नहीं होते । केवल कायरलोग ही कहते हैं कि जो होना होगा, वह तो होकर रहेगा । अदृष्ट-प्रारब्ध बलवान् होता है-ऐसी बात मूर्ख कहते हैं न कि पण्डितजन । प्रारब्धकी सत्ता है-इसमें क्या प्रमाण हो सकता है ? क्योंकि जो स्वयं अदृष्ट है, वह भला कैसे दिखायी पड़ सकता है ? ॥ ३७-३८ ॥

अदृष्टं क्त्वापि दृष्टं स्यादेषा मूर्खविभीषिका ।
अवलम्बं विनैवैषा दुःखे चित्तस्य धारणा ॥ ३९ ॥
अदृष्टको कभी किसीने देखा भी है क्या ? यह तो मोंके लिये विभीषिकामात्र है । इसका कोई आधार नहीं है; केवल कष्टकी स्थितिमें मनको ढाँढस देनेके लिये वह सहारामात्र अवश्य बन जाता है ॥ ३९ ॥

चक्रीसमीपे संविष्टा संस्थिता पिष्टकारिणी ।
उद्यमेन विना पिष्टं न भवत्येव सर्वथा ॥ ४० ॥
आटा पीसनेवाली कोई स्त्री चक्कीके पास चुपचाप बैठी रहे, तो बिना उद्यम किये किसी प्रकार भी आटा तैयार नहीं हो सकता ॥ ४० ॥

उद्यमे च कृते कार्यं सिद्धिं यात्येव सर्वथा ।
कदाचित्तस्य न्यूनत्वे कार्यं नैव भवेदपि ॥ ४१ ॥
उद्यम करनेपर ही हर प्रकारसे कार्य सिद्ध होता है । जब कभी उद्यम करने में कमी रह जाती है, तब कार्य किसी तरह सिद्ध नहीं हो पाता है ॥ ४१ ॥

देशं कालञ्च विज्ञाय स्वबलं शत्रुजं बलम् ।
कृतं कार्यं भवत्येव बृहस्पतिवचो यथा ॥ ४२ ॥
देश, काल, अपना बल तथा शत्रुका बलइन सबकी पूरी जानकारी करके किया गया कार्य निश्चय ही सिद्ध होता है-यह आचार्य बृहस्पतिका वचन है ॥ ४२ ॥

व्यास उवाच
इति निश्चित्य दैत्येन्द्रो रक्तबीजं महासुरम् ।
प्रेषयामास संग्रामे सैन्येन महताऽऽवृतम् ॥ ४३ ॥
व्यासजी बोले-ऐसा निश्चय करके दैत्यराज शुम्भने महान् असुर रक्तबीजको विशाल सेनाके साथ समरभूमिमें जानेकी आज्ञा दी ॥ ४३ ॥

शुम्भ उवाच
रक्तबीज महाबाहो गच्छ त्वं समराङ्गणे ।
कुरु युद्धं महाभाग यथा ते बलमाहितम् ॥ ४४ ॥
शुम्भ बोला-हे विशाल भुजाओंवाले रक्तबीज ! तुम युद्धभूमिमें जाओ; और हे महाभाग ! अपनी पूरी शक्ति लगाकर युद्ध करो ॥ ४४ ॥

रक्तबीज उवाच
महाराज न ते कार्या चिन्ता स्वल्पतरापि वा ।
अहमेनां हनिष्यामि करिष्यामि वशे तव ॥ ४५ ॥
पश्य मे युद्धचातुर्यं क्वेयं बाला सुरप्रिया ।
दासीं तेऽहं करिष्यामि जित्वेमां समरे बलात् ॥ ४६ ॥
रक्तबीज बोला-हे महाराज ! आपको तनिक भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये । मैं इस स्त्रीको या तो मार डालूंगा और या तो इसे आपके अधीन कर दूंगा । आप मेरा बुद्धिचातुर्य देखें । [मेरे आगे] देवताओंकी प्रिय यह बाला है ही क्या ? मैं इसे युद्ध में बलपूर्वक जीतकर आपकी दासी बना दूंगा ॥ ४५-४६ ॥

व्यास उवाच
इत्याभाष्य कुरुश्रेष्ठ रक्तबीजो महासुरः ।
जगाम रथमारुह्य स्वसैन्यपरिवारितः ॥ ४७ ॥
व्यासजी बोले-हे कुरुश्रेष्ठ ! ऐसा कहकर महान् असुर रक्तबीज रथपर आरूढ होकर अपनी सेनाके साथ चल पड़ा । ४७ ॥

हस्त्यश्वरथपादातवृन्दैश्च परिवेष्टितः ।
निर्जगाम रथारूढो देवीं शैलोपरिस्थिताम् ॥ ४८ ॥
हाथी, घोड़े, रथ तथा पैदल सैनिकोंसे चारों ओरसे आवृत हुआ रक्तबीज रथपर आरूढ़ होकर पर्वतपर विराजमान भगवतीकी ओर चल दिया ॥ ४८ ॥

तमागतं समालोक्य देवी शङ्खमवादयत् ।
भयदं सर्वदैत्यानां देवानां मोदवर्धनम् ॥ ४९ ॥
उसे आया हुआ देखकर देवीने शंख बजाया । वह शंखनाद सभी दैत्योंके लिये भयदायक तथा देवताओंके लिये हर्षवर्धक था । ॥ ४९ ॥

श्रुत्वा शङ्खस्वनं चोग्रं रक्तबीजोऽतिवेगवान् ।
गत्वा समीपे चामुण्डां बभाषे वचनं मृदु ॥ ५० ॥
उस भीषण शंखध्वनिको सुनकर वह रक्तबीज बड़े वेगसे देवी चामुण्डाके पास पहुंचकर मधुर वाणीमें उनसे कहने लगा ॥ ५० ॥

रक्तबीज उवाच
बाले किं मां भीषयसि मत्वा त्वं कातरं किल ।
शङ्खनादेन तन्वङ्‌गि वेत्सि किं धूम्रलोचनम् ॥ ५१ ॥
रक्तबीज बोला-हे बाले ! क्या तुम कायर समझकर अपने शंखनादसे मुझको डरा रही हो ? हे कोमलांगि ! क्या तुमने मुझे धूम्रलोचन समझ रखा है ? ॥ ५१ ॥

रक्तबीजोऽस्मि नाम्नाहं त्वत्सकाशमिहागतः ।
युद्धेच्छा चेत्पिकालापे सज्जा भव भयं न मे ॥ ५२ ॥
मेरा नाम रक्तबीज है । मैं यहाँ तुम्हारे ही पास आया हूँ । हे पिकभाषिणि ! यदि तुम्हारी युद्ध करनेकी इच्छा हो तो तैयार हो जाओ; मुझे तुमसे भय नहीं है ॥ ५२ ॥

पश्याद्य मे बलं कान्ते दृष्टा ये कातरास्त्वया ।
नाहं पङ्क्तिगतस्तेषां कुरु युद्धं यथेच्छसि ॥ ५३ ॥
हे कान्ते ! अब तुम मेरा पराक्रम देखो । अभीतक तुमने जिन-जिन कायर दैत्योंको देखा है, उनकी श्रेणीका मैं नहीं हूँ । तुम जिस तरहसे चाहो, वैसे लड़ लो ॥ ५३ ॥

वृद्धाश्च सेविताः पूर्वं नीतिशास्त्रं श्रुतं त्वया ।
पतितं चार्थविज्ञानं विद्वद्‌गोष्ठी कृताथ वा ॥ ५४ ॥
साहित्यतन्त्रविज्ञानं चेदस्ति तव सुन्दरि ।
शृणु मे वचनं पथ्यं तथ्यं प्रमितिबृंहितम् ॥ ५५ ॥
हे सुन्दरि ! यदि तुमने वृद्धजनोंकी सेवा की हो, नीतिशास्त्रका अध्ययन किया हो, अर्थशास्त्र पढ़ा हो, विद्वानोंकी गोष्ठीमें भाग लिया हो और यदि तुम्हें साहित्य तथा तन्त्रविज्ञानका ज्ञान हो, तो मेरी हितकर, यथार्थ तथा प्रामाणिक बात सुन लो ॥ ५४-५५ ॥

रसानाञ्च नवानां वै द्वावेव मुख्यतां गतौ ।
शृङ्गारकः शान्तिरसो विद्वज्जनसभासु च ॥ ५६ ॥
तयोः शृङ्गार एवादौ नृपभावे प्रतिष्ठितः ।
विष्णुर्लक्ष्म्या सहास्ते वै सावित्र्या चतुराननः ॥ ५७ ॥
शच्येन्द्रः शैलसुतया शङ्करः सह शेरते ।
वल्ल्या वृक्षो मृगो मृग्या कपोत्या च कपोतकः ॥ ५८ ॥
विद्वानोंकी सभाओंमें नौ रसोंके अन्तर्गत शृंगाररस तथा शान्तिरस-ये दो रस ही मुख्य माने गये हैं । उन दोनोंमें भी शृंगाररस रसोंके राजाके रूपमें प्रतिष्ठित है । [इसीके प्रभावसे] विष्णु लक्ष्मीके साथ, ब्रह्मा सावित्रीके साथ, इन्द्र शचीके साथ और भगवान् शिव पार्वतीके साथ निवास करते हैं; उसी प्रकार वृक्ष लताके साथ, मृग मृगीके साथ और कपोत कपोतीके साथ आनन्दपूर्वक रहते हैं ॥ ५६-५८ ॥

एवं सर्वे प्राणभृतः संयोगरसिका भृशम् ।
अप्राप्तभोगविभवा ये चान्ये कातरा नराः ॥ ५९ ॥
भवन्ति यतयस्ते वै मूढा दैवेन वञ्चिताः ।
असंसाररसज्ञास्ते वञ्चिता वञ्चनापरैः ॥ ६० ॥
मधुरालापनिपुणै रताः शान्तिरसे हि ते ।
क्व ज्ञानं क्व च वैराग्यं वर्तमाने मनोभवे ॥ ६१ ॥
लोभे क्रोधे च दुर्धर्षे मोहे मतिविनाशके ।
तस्मात्त्वमपि कल्याणि कुरु कान्तं मनोहरम् ॥ ६२ ॥
शुम्भं सुराणां जेतारं निशुम्भं वा महाबलम् ।
इस प्रकार जगत्के समस्त जीवधारी संयोगजनित सुखका अत्यधिक उपभोग करते हैं । जो लोग भोग तथा वैभवका सुख नहीं प्राप्त कर सके हैं और अन्य जो कातर मनुष्य हैं, वे निश्चय ही मूर्ख हैं और दैवसे वंचित होकर यति हो जाते हैं । संसारके रसका ज्ञान न रखनेवाले वे लोग मीठी-मीठी बात बोलने में निपुण धूतों तथा वंचकोंद्वारा ठग लिये जाते हैं और सदा शान्तरसमें निमग्न रहते हैं; किंतु काम, लोभ, भयंकर क्रोध और बुद्धिनाशक मोहके उत्पन्न होते ही कहाँ ज्ञान रह जाता है और कहाँ वैराग्य ! अतएव हे कल्याणि ! तुम भी देवताओंपर विजय प्राप्त कर लेनेवाले मनोहर तथा महाबली शम्भ अथवा निशुम्भको पति बना लो ॥ ५९-६२.५ ॥

व्यास उवाच
इत्युक्त्वा रक्तबीजोऽसौ विरराम पुरःस्थितः ।
श्रुत्वा जहास चामुण्डा कालिका चाम्बिका तथा ॥ ६३ ॥
व्यासजी बोले-इतना कहकर वह रक्तबीज देवीके सामने चुपचाप खड़ा हो गया । उसकी बातें सुनकर चामुण्डा, कालिका और अम्बिका हँसने लगीं ॥ ६३ ॥

इति श्रमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां पञ्चमस्कन्धे रक्तबीजद्वारा देवीसमीपे
शुम्भनिशुम्भसंवादवर्णनं नाम सस्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥
अध्याय सत्ताईसवाँ समाप्त ॥ २७ ॥


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