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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
पञ्चमः स्कन्धः
अष्टाविंशोऽध्यायः

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रक्तबीजद्वारा देवीसमीपे शुम्भनिशुम्भसंवादवर्णनम् -
देवीके साथ रक्तबीजका युद्ध, विभिन्न शक्तियोंके साथ भगवान् शिवका रणस्थलमें आना तथा भगवतीका उन्हें दूत बनाकर शम्भके पास भेजना, भगवान् शिवके सन्देशसे दानवोंका क्रुद्ध होकर युद्धके लिये आना -


व्यास उवाच
कृत्वा हास्यं ततो देवी तमुवाच विशांपते ।
मेघगम्भीरया वाचा युक्तियुक्तमिदं वचः ॥ १ ॥
पूर्वमेव मया प्रोक्तं मन्दात्मन् किं विकत्थसे ।
दूतस्याग्रे यथायोग्यं वचनं हितसंयुतम् ॥ २ ॥
सदृशो मम रूपेण बलेन विभवेन च ।
त्रिलोक्यां यदि कोऽपि स्यात्तं पतिं प्रवृणोम्यहम् ॥ ३ ॥
ब्रूहि शुम्भं निशुम्भञ्च प्रतिज्ञा मे पुरा कृता ।
तस्माद्युध्यस्व जित्वा मां विवाहं विधिवत्कुरु ॥ ४ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! तत्पश्चात् वे देवी हँसकर मेघके समान गम्भीर वाणीमें उस रक्तबीजसे यह युक्तिसंगत वचन बोलीं-हे मन्दबुद्धि ! तुम क्यों व्यर्थ प्रलाप कर रहे हो ? मैं तो पहले ही दूतके सामने उचित और हितकर बात कह चुकी हूँ कि यदि तीनों लोकोंमें कोई भी पुरुष रूप, बल और वैभवमें मेरे समान हो तो मैं पतिरूपमें उसका वरण कर लूँगी । अब तुम शुम्भ-निशुम्भसे कह दो कि मैं पूर्वकालमें ऐसी प्रतिज्ञा कर चुकी है, अतः मेरे साथ युद्ध करो और रणमें मुझे जीतकर [मेरे साथ] विधिवत् विवाह कर लो ॥ १-४ ॥

त्वं वै तदाज्ञया प्राप्तस्तस्य कार्यार्थसिद्धये ।
संग्रामं कुरु पातालं गच्छ वा पतिना सह ॥ ५ ॥
तुम भी शुम्भकी आज्ञासे उसका कार्य सिद्ध करनेके लिये यहाँ आये हो । अतएव यदि चाहो तो मेरे साथ युद्ध करो अथवा अपने स्वामीके साथ पाताललोक चले जाओ ॥ ५ ॥

व्यास उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं देव्याः स दैत्योऽमर्षपूरितः ।
मुमोच तरसा बाणान्सिंहस्योपरि दारुणान् ॥ ६ ॥
व्यासजी बोले-देवीकी बात सुनकर वह दैत्य क्रोधमें भर उठा और बड़े वेगसे देवीके सिंहपर भीषण बाण छोड़ने लगा ॥ ६ ॥

अम्बिका ताच्छरान्वीक्ष्य गगने पन्नगोपमान् ।
चिच्छेद सायकैस्तीक्ष्णैर्लघुहस्ततया क्षणात् ॥ ७ ॥
सर्पसदृश उन बाणोंको देखकर अम्बिकाने दक्षतापूर्वक बड़ी फुर्तीके साथ अपने तीखे बाणोंसे उन्हें आकाशमें ही क्षणभरमें काट डाला ॥ ७ ॥

अन्यैर्जघान विशिखै रक्तबीजं महासुरम् ।
अम्बिकाचापनिर्मुक्तैः कर्णाकृष्टैः शिलाशितैः ॥ ८ ॥
इसके बाद अम्बिकाने कानतक खींचकर धनुषसे छोड़े गये तथा पत्थरपर घिसकर तीक्ष्ण बनाये गये अन्य बाणोंसे महान् असुर रक्तबीजपर प्रहार किया ॥ ८ ॥

देवीबाणहतः पापो मूर्च्छामाप रथोपरि ।
पतिते रक्तबीजे तु हाहाकारो महानभूत् ॥ ९ ॥
भगवतीके बाणोंसे आहत होकर पापी रक्तबीज रथपर ही मूच्छित हो गया । रक्तबीजके गिर जानेपर बड़ा हाहाकार मच गया । उसके सभी सैनिक चीखने-चिल्लाने लगे और 'हाय ! हम मारे गये'ऐसा कहने लगे ॥ ९ ॥

सैनिकाश्चुक्रुशुः सर्वे हताः स्म इति चाब्रुवन् ।
ततो बुम्बारवं श्रुत्वा शुम्भः परमदारुणम् ॥ १० ॥
उद्योगं सर्वसैन्यानां दैत्यानामादिदेश ह ।
तब अपने सैनिकोंका अत्यन्त भीषण क्रन्दन सुनकर शुम्भने सभी दैत्ययोद्धाओंको शस्त्रास्त्रसे सुसज्जित होनेका आदेश दिया ॥ १०.५ ॥

शुम्भ उवाच
निर्यान्तु दानवाः सर्वे काम्बोजाः स्वबलैर्वृताः ॥ ११ ॥
शुम्भ बोला-कम्बोजदेशके सभी दानव तथा उनके अतिरिक्त अन्य महाबली वीर विशेष करके कालकेयसंज्ञक पराक्रमी योद्धा भी अपनी-अपनी सेनाके साथ निकल पड़ें ॥ ११ ॥

अन्येऽप्यतिबलाः शूराः कालकेया विशेषतः ।
व्यास उवाच
इत्याज्ञप्तं बलं सर्वं शुम्भेन च चतुर्विधम् ॥ १२ ॥
निर्जगाम मदाऽऽविष्टं देवीसमरमण्डले ।
तमागतं समालोक्य चण्डिका दानवं बलम् ॥ १३ ॥
घण्टानादं चकाराशु भीषणं भयदं मुहुः ।
ज्यास्वनं शङ्खनादञ्च चकार जगदम्बिका ॥ १४ ॥
तेन नादेन सा जाता काली विस्तारितानना ।
व्यासजी बोले-इस प्रकार शुम्भके आदेश देनेपर उसकी सारी चतरंगिणी सेना मदमत्त होकर देवीके संग्रामस्थलके लिये निकल पड़ी । समरभूमिमें आयी हुई उस दानवी सेनाको देखकर भगवती चण्डिका बार-बार भीषण तथा भयदायक घंटानाद करने लगीं । जगदम्बाने धनुषका टंकार तथा शंखनाद किया । उस नादके होते ही भगवती काली भी अपना मुख फैलाकर घोर ध्वनि करने लगीं ॥ १२-१४.५ ॥

श्रुत्वा तन्निनदं घोरं सिंहो देव्याश्च वाहनम् ॥ १५ ॥
जगर्ज सोऽपि बलवाञ्जनयन्भयमद्‌भुतम् ।
तन्निनादमुपश्रुत्य दानवाः क्रोधमूर्च्छिताः ॥ १६ ॥
उस भयंकर शब्दको सुनकर भगवतीका वाहन बलशाली सिंह भी अद्भुत भय उत्पन्न करता हुआ बड़े जोरका गर्जन करने लगा । वह निनाद सुनकर सभी दैत्य क्रोधके मारे बौखला उठे और वे महाबली दैत्य देवीपर अस्त्र छोड़ने लगे ॥ १५-१६ ॥

सर्वे चिक्षिपुरस्त्राणि देवीं प्रति महाबलाः ।
तस्मिन्नेवायते युद्धे दारुणे लोमहर्षणे ॥ १७ ॥
ब्रह्मादीनाञ्च देवानां शक्तयश्चण्डिकां ययुः ।
यस्य देवस्य यद्‌रूपं यथा भूषणवाहनम् ॥ १८ ॥
उस भयानक तथा रोमांचकारी महासंग्राममें ब्रह्मा आदि देवताओंकी विभिन्न शक्तियाँ भी चण्डिकाके पास पहुँच गयीं । जिस देवताका जैसा रूप, भूषण तथा वाहन था; ठीक उसी प्रकारके रूप, भूषण तथा वाहनसे युक्त होकर सभी देवियाँ रणक्षेत्रमें पहुँची थीं ॥ १७-१८ ॥

तादृग्‌रूपास्तदा देव्यः प्रययुः समराङ्गणे ।
ब्रह्माणी वरटारूढा साक्षसूत्रकमण्डलुः ॥ १९ ॥
आगता ब्रह्मणः शक्तिर्ब्रह्माणीति प्रतिश्रुता ।
वैष्णवी गरुडारूढा शङ्खचक्रगदाधरा ॥ २० ॥
पद्महस्ता समायाता पीताम्बरविभूषिता ।
शाङ्करी तु वृषारूढा त्रिशूलवरधारिणी ॥ २१ ॥
ब्रह्माजीकी शक्ति, जो ब्रह्माणी नामसे प्रख्यात हैं, हाथमें अक्षसूत्र तथा कमण्डलु धारण करके हंसपर आरूढ़ हो वहाँ आयीं । भगवान् विष्णुकी शक्ति वैष्णवी गरुडपर सवार होकर रणभूमिमें आयीं । वे पीताम्बरसे विभूषित थीं तथा उन्होंने हाथोंमें शंख-चक्र-गदा-पद्म धारण कर रखा था । शंकरकी शक्ति भगवती शिवा बैलपर सवार होकर हाथमें उत्तम त्रिशूल लिये मस्तकपर अर्धचन्द्र धारण किये तथा साँके कंगन पहने वहाँ उपस्थित हुई ॥ १९-२१ ॥

अर्धचन्द्रधरा देवी तथाहिवलया शिवा ।
कौमारी शिखिसंरूढा शक्तिहस्ता वरानना ॥ २२ ॥
युद्धकामा समायाता कार्तिकेयस्वरूपिणी ।
इन्द्राणी सुष्ठुवदना सुश्वेतगजवाहना ॥ २३ ॥
वज्रहस्तातिरोषाढ्या संग्रामाभिमुखी ययौ ।
वाराही शूकराकारा प्रौढप्रेतासना मता ॥ २४ ॥
नारसिंही नृसिंहस्य बिभ्रती सदृशं वपुः ।
याम्या च महिषारूढा दण्डहस्ता भयप्रदा ॥ २५ ॥
समायाताथ संग्रामे यमरूपा शुचिस्मिता ।
तथैव वारुणी शक्तिः कौबेरी च मदोत्कटा ॥ २६ ॥
एवंविधास्तथाऽऽकारा ययुः स्वस्वबलैर्वृताः ।
आगतास्ताः समालोक्य देवी मुदमवाप च ॥ २७ ॥
भगवान् कार्तिकेयके समान ही रूप धारण करके सुन्दर मुखवाली भगवती कौमारी युद्धकी इच्छासे हाथमें शक्ति धारण करके मयूरपर आरूढ़ होकर आयीं । सुन्दर मुखवाली इन्द्राणी अतिशय उज्ज्वल हाथीपर सवार होकर हाथमें वज़ लिये उग्र क्रोधसे आविष्ट हो समरभूमिमें पहुँची । इसी प्रकार सूकरका रूप धारण करके एक विशाल प्रेतपर सवार होकर भगवती वाराही, नृसिंहके समान रूप धारण करके भगवती नारसिंही और यमराजके ही समान रूपवाली भयदायिनी शक्ति भगवती याम्या हाथमें दण्ड धारण किये तथा महिषपर आरूढ़ होकर मधुर-मधुर मुसकराती हुई संग्राममें आयीं । उसी प्रकार वरुणकी शक्ति वारुणी तथा कुबेरकी मदोन्मत्त शक्ति कौबेरी भी समरभूमिमें पहुँच गयीं । इसी तरह अन्य देवताओंकी शक्तियाँ भी उन्हीं देवोंका रूप धारणकर अपनी-अपनी सेनाओंके साथ रणभूमिमें उपस्थित हुई । उन शक्तियोंको वहाँ उपस्थित देखकर भगवती अम्बिका बहुत हर्षित हुईं । इससे देवता निश्चिन्त तथा प्रसन्न हो गये और दैत्य भयभीत हो उठे ॥ २२-२७ ॥

स्वस्था मुमुदिरे देवा दैत्याश्च भयमाययुः ।
ताभिः परिवृतस्तत्र शङ्करो लोकशङ्करः ॥ २८ ॥
समागम्य च संग्रामे चण्डिकामित्युवाच ह ।
हन्यन्तामसुराः शीघ्रं देवानां कार्यसिद्धये ॥ २९ ॥
निशुम्भं चैव शुम्भं च ये चान्ये दानवाः स्थिताः ।
हत्वा दैत्यबलं सर्वं कृत्वा च निर्भयं जगत् ॥ ३० ॥
स्वानि स्वानि च धिष्ण्यानि समागच्छन्तु शक्तयः ।
देवा यज्ञभुजः सन्तु ब्राह्मणा यजने रताः ॥ ३१ ॥
प्राणिनः सन्तु सन्तुष्टाः सर्वे स्थावरजङ्गमाः ।
शमं यान्तु तथोत्पाता ईतयश्च तथा पुनः ॥ ३२ ॥
घनाः काले प्रवर्षन्तु कृषिर्बहुफला तथा ।
लोककल्याणकारी शिवजी भी उन शक्तियोंके साथ वहाँ संग्राममें भगवती चण्डिकाके पास आकर उनसे कहने लगे-देवताओंकी कार्यसिद्धिके लिये आप शुम्भ-निशुम्भ तथा अन्य जो भी दानव उपस्थित हैं, उन सबका वध कर दीजिये । साथ ही सारी असुर-सेनाका संहार करके और इस प्रकार संसारको भयमुक्त करके ये समस्त शक्तियाँ अपने-अपने स्थानोंको चली जायें । [आप यह कार्य सम्पन्न करें जिससे] देवता यज्ञभाग पाने लगें, ब्राह्मण [निर्भय होकर] यज्ञ आदि करनेमें तत्पर हो जायें, सभी स्थावर-जंगम प्राणी सन्तुष्ट हो जायँ, सब प्रकारके उपद्रव और अकाल आदि आपदाएँ समाप्त हो जायें, मेघ समयपर वृष्टि करें और कृषि लोगोंके लिये अधिक फलदायिनी हो ॥ २८-३२.५ ॥

व्यास उवाच
एवं ब्रुवति देवेशे शङ्करे लोकशङ्करे ॥ ३३ ॥
चण्डिकाया शरीरात्तु निर्गता शक्तिरद्‌भुता ।
भीषणातिप्रचण्डा च शिवाशतनिनादिनी ॥ ३४ ॥
घोररूपाथ पञ्चास्यमित्युवाच स्मितानना ।
देवदेव व्रजाशु त्वं दैत्यानामधिपं प्रति ॥ ३५ ॥
दूतत्वं कुरु कामारे ब्रूहि शुम्भं स्मराकुलम् ।
निशुम्भञ्च मदोत्सिक्तं वचनान्मम शङ्कर ॥ ३६ ॥
मुक्त्वा त्रिविष्टपं यात यूयं पातालमाशु वै ।
देवाः स्वर्गे सुखं यान्तु तुराषाट् स्वासनं शभम् ॥ ३७ ॥
प्राप्नोतु त्रिदिवं स्थानं यज्ञभागांश्च देवताः ।
जीवितेच्छा च युष्माकं यदि स्यात्तु महत्तरा ॥ ३८ ॥
तर्हि गच्छत पातालं तरसा यत्र दानवाः ।
अथवा बलमास्थाय युद्धेच्छा मरणाय चेत् ॥ ३९ ॥
तदाऽऽगच्छन्तु तृप्यन्तु मच्छिवाः पिशितेन वः ।
व्यासजी बोले-लोकका कल्याण करनेवाले देवेश्वर शिवके ऐसा कहनेपर भगवती चण्डिकाके शरीरसे एक अद्भुत शक्ति प्रकट हुई । वह शक्ति अत्यन्त भयंकर तथा प्रचण्ड थी, वह सैकड़ों सियारिनोंके समवेत स्वरके समान ध्वनि कर रही थी और उसका रूप बहुत भयानक था । मन्द-मन्द मुसकानयुक्त मुखमण्डलवाली उस शक्तिने पंचमुख शिवजीसे कहा-हे देवदेव ! आप दैत्यराज शुम्भके पास शीघ्र जाइये । हे कामरिपु ! इस समय आप मेरे दूतका काम कीजिये । हे शंकर ! कामपीड़ित शुम्भ तथा मदोन्मत्त निशुम्भसे मेरे शब्दोंमें कह दीजिये-'तुम सब तत्काल स्वर्ग त्यागकर पाताललोक चले जाओ, जिससे देवगण सुखपूर्वक स्वर्गमें प्रविष्ट हो सकें और इन्द्रको स्वर्गलोक तथा अपना उत्तम इन्द्रासन पुनः प्राप्त हो जाय; साथ ही सभी देवताओंको उनके यज्ञभाग पुनः मिलने लगें । यदि जीवित रहनेकी तुमलोगोंकी बलवती इच्छा हो तो तुमलोग बहुत शीघ्र पाताललोक चले जाओ, जहाँ दानवलोग रहते हैं । अथवा अपने बलका आश्रय लेकर यदि तुम सब युद्धकी इच्छा रखते हो, तो मरनेके लिये आ जाओ, जिससे मेरी सियारिनें तुमलोगोंके कच्चे मांससे तृप्त हो जायें ॥ ३३-३९.५ ॥

व्यास उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्याः शूलपाणिस्त्वरान्वितः ॥ ४० ॥
व्यासजी बोले-चण्डिकाका यह वचन सुनकर शिव अपनी सभामें बैठे हुए दैत्यराज शुम्भके पास शीघ्र जाकर उससे कहने लगे ॥ ४० ॥

गत्वाऽऽह दैत्यराजानं शुम्भं सदसि संस्थितम् ।
शिव उवाच
राजन् दूतोऽहमम्बायास्त्रिपुरान्तकरो हरः ॥ ४१ ॥
त्वत्सकाशमिहायातो हितं कर्तुं तवाखिलम् ।
त्यक्त्वा स्वर्गं तथा भूमिं यूयं गच्छत सत्वरम् ॥ ४२ ॥
पातालं यत्र प्रह्लादो बलिश्च बलिनां वरः ।
अथवा मरणेच्छा चेत्तर्ह्यागच्छत सत्वरम् ॥ ४३ ॥
संग्रामे वो हनिष्यामि सर्वानेवाहमाशु वै ।
इत्युवाच महाराज्ञी युष्मत्कल्याणहेतवे ॥ ४४ ॥
शिवजी बोले-हे राजन् ! मैं त्रिपुरासुरका संहार करनेवाला महादेव हूँ । अम्बिकाका दूत बनकर मैं इस समय तुम्हारा सम्पूर्ण हित करनेके लिये यहाँ तुम्हारे पास आया हूँ । [देवीने कहलाया है कि] तुमलोग स्वर्ग तथा भूलोक त्यागकर शीघ्र पाताललोक चले जाओ, जहाँ प्रह्लाद तथा बलवानोंमें श्रेष्ठ राजा बलि रहते हैं । अथवा यदि मरनेकी ही इच्छा हो तो तुरंत सामने आ जाओ; मैं तुम सबको संग्राममें शीघ्र ही मार डालूँगी । तुमलोगोंके कल्याणके लिये महारानी अम्बिकाने ऐसा कहा है ॥ ४१-४४ ॥

व्यास उवाच
इति दैत्यवरान्देवीवाक्यं पीयूषसन्निभम् ।
हितकृच्छ्रावयित्वा स प्रत्यायातश्च शूलभृत् ॥ ४५ ॥
व्यासजी बोले-भगवतीका यह अमृत-तुल्य कल्याणकारी सन्देश उन प्रधान दैत्योंको सुनाकर शूलधारी भगवान् शंकर लौट आये ॥ ४५ ॥

ययासौ प्रेरितः शंभुर्दूतत्वे दानवान्प्रति ।
शिवदूतीति विख्याता जाता त्रिभुवनेऽखिले ॥ ४६ ॥
भगवती अम्बिकाने शिवजीको दूत बनाकर दानवोंके पास भेजा था, अतः वे सम्पूर्ण त्रिलोकीमें 'शिवदूती' इस नामसे विख्यात हुई ॥ ४६ ॥

तेऽपि श्रुत्वा वचो देव्याः शङ्करोक्तं तुदुष्करम् ।
युद्धाय निर्ययुः शीघ्रं दंशिताः शस्त्रपाणयः ॥ ४७ ॥
शंकरजीके मुखसे कहे गये भगवतीके इस दुष्कर सन्देशको सुनते ही वे दैत्य भी कवच धारण करके तथा हाथोंमें शस्त्र लेकर शीघ्र ही युद्धके लिये निकल पड़े ॥ ४७ ॥

तरसा रणमागत्य चण्डिकां प्रति दानवाः ।
निर्जघ्नुश्च शरैस्तीक्ष्णैः कर्णाकृष्टैः शिलाशितैः ॥ ४८ ॥
वे दानव बड़े वेगसे रणभूमिमें चण्डिकाके समक्ष आकर कानोंतक खींचे गये तथा पत्थरपर सान चढ़े तीखे बाणोंसे प्रहार करने लगे ॥ ४८ ॥

कालिका शूलपातैस्तान् गदाशक्तिविदारितान् ।
कुर्वन्ती व्यचरत्तत्र भक्षयन्ती च दानवान् ॥ ४९ ॥
भगवती कालिका त्रिशूल, गदा और शक्तिसे दानवोंको विदीर्ण करती हुई और उनका भक्षण करती हुई युद्ध में विचरने लगीं ॥ ४९ ॥

कमण्डलुजलाक्षेपगतप्राणान् महाबलान् ।
ब्रह्माणी चाकरोत्तत्र दानवान्समराङ्गणे ॥ ५० ॥
भगवती ब्रह्माणी युद्धभूमिमें अपने कमण्डलुके जलके प्रक्षेपमात्रसे उन महाबली दानवोंको प्राणशून्य कर देती थीं ॥ ५० ॥

माहेश्वरी वृषारूढा त्रिशूलेनातिरंहसा ।
जघान दानवान्संख्ये पातयामास भूतले ॥ ५१ ॥
वृषभपर विराजमान भगवती माहेश्वरी अपने त्रिशूलसे रणमें दानवोंपर बड़े वेगसे प्रहार करती थीं और उन्हें मारकर धराशायी कर देती थीं ॥ ५१ ॥

वैष्णवी चक्रपातेन गदापातेन दानवान् ।
गतप्राणांश्चकाराशु चोत्तमाङ्गविवर्जितान् ॥ ५२ ॥
भगवती वैष्णवी गदा तथा चक्रके प्रहारसे दानवोंको निष्प्राण तथा सिरविहीन कर डालती थीं ॥ ५२ ॥

ऐन्द्री वज्रप्रहारेण पातयामास भूतले ।
ऐरावतकराघातपीडितान्दैत्यपुङ्गवान् ॥ ५३ ॥
इन्द्रकी शक्ति देवी ऐन्द्री ऐरावत हाथीकी Vडकी चोटसे पीड़ित बड़े-बड़े दैत्योंको अपने वज्रके प्रहारसे भूतलपर गिरा देती थीं ॥ ५३ ॥

वाराही तुण्डघातेन दंष्ट्राग्रपातनेन च ।
जघान क्रोधसंयुक्ता शतशो दैत्यदानवान् ॥ ५४ ॥
देवी वाराही कुपित होकर अपने तुण्ड तथा भयंकर दाढ़ोंके प्रहारसे सैकड़ों दैत्यों और दानवोंको मार डालती थीं ॥ ५४ ॥

नारसिंही नखैस्तीव्रैर्दारितान्दैत्यपुङ्गवान् ।
भक्षयन्ती चचाराजौ ननाद च मुहुर्मुहुः ॥ ५५ ॥
देवी नारसिंही अपने तीक्ष्ण नखोंसे बड़े-बड़े दैत्योंको फाड़-फाड़कर खाती हुई रणभूमिमें विचर रही थीं तथा बार-बार गर्जना कर रही थीं ॥ ५५ ॥

शिवदूती अट्टहासैः पातयामास भूतले ।
तांश्चखादाथ चामुण्डा कालिका च त्वरान्विता ॥ ५६ ॥
शिवदूती अपने अट्टहाससे ही दैत्योंको धराशायी कर देती थीं और चामुण्डा तथा कालिका बड़ी शीघ्रतासे उन्हें खाने लगती थीं ॥ ५६ ॥

शिखिसंस्था च कौमारी कर्णाकृष्टैः शिलाशितैः ।
निजघान रणे शत्रून्देवानां च हिताय वै ॥ ५७ ॥
मयूरपर विराजमान भगवती कौमारी देवताओंके कल्याणके लिये कानोंतक खींचे गये तथा पत्थरपर सान चढ़े तीक्ष्ण बाणोंसे शत्रुओंका संहार करने लगीं ॥ ५७ ॥

वारुणी पाशसम्बद्धान्दैत्यान्समरमस्तके ।
पातयामास तत्पृष्ठे मूर्च्छितान्गतचेतनान् ॥ ५८ ॥
भगवती वारुणी समरांगणमें दैत्योंको अपने पाशमें बाँधकर उन्हें अचेत करके एकके ऊपर एकके क्रमसे गिरा देती थीं और वे निष्प्राण हो जाते थे ॥ ५८ ॥

एवं मातृगणेनाजावतिवीर्यपराक्रमम् ।
मर्दितं दानवं सैन्यं पलायनपरं ह्यभूत् ॥ ५९ ॥
इस प्रकार उन मातृशक्तियोंके प्रयाससे दानवोंकी वह ओजस्विनी तथा पराक्रमी सेना युद्धभूमिमें तहसनहस होकर भाग खड़ी हुई ॥ ५९ ॥

बुम्बारवस्तु सुमहानभूत्तत्र बलार्णवे ।
पुष्पवृष्टिं तदा देवाश्चक्रुर्देव्या गणोपरि ॥ ६० ॥
उस सेनारूपी समुद्रमें बड़े जोरसे रोने-चिल्लानेकी ध्वनि होने लगी । देवीके गणोंके ऊपर देवता पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ॥ ६० ॥

तच्छ्रुत्वा निनदं घोरं जयशब्दं च दानवाः ।
रक्तबीजश्चुकोपाशु दृष्ट्वा दैत्यान्पलायितान् ॥ ६१ ॥
गर्जमानांस्तथा देवान्वीक्ष्य दैत्यो महाबलः ।
रक्तबीजस्तु तेजस्वी रणमभ्याययौ तदा ॥ ६२ ॥
सायुधो रथसंविष्टः कुर्वञ्ज्याशब्दमद्‌भुतम् ।
आजगाम तदा देवीं क्रोधरक्तेक्षणोद्यतः ॥ ६३ ॥
दानवोंकी भयंकर चीत्कार तथा देवताओंकी जयध्वनि सुनकर रक्तबीज बहुत कुपित हुआ । उस समय दैत्योंको पलायित देखकर तथा देवताओंको गरजते हुए देखकर वह महाबली तथा तेजस्वी दैत्य रक्तबीज युद्धभूमिमें स्वयं आ डटा । वह आयुधोंसे सुसज्जित होकर रथपर सवार था और प्रत्यंचाकी अद्भुत टंकार करता हुआ क्रोधके मारे आँखें लाल किये युद्धके लिये देवीके सम्मुख आ गया ॥ ६१-६३ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां पञ्चमस्कन्धे रक्तबीजेन
देव्या युद्धवर्णनं नामाष्टाविशोऽध्यायः ॥ २८ ॥
अध्याय अठ्ठाईसवाँ समाप्त ॥ २८ ॥


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