देवीके साथ रक्तबीजका युद्ध, विभिन्न शक्तियोंके साथ भगवान् शिवका रणस्थलमें आना तथा भगवतीका उन्हें दूत बनाकर शम्भके पास भेजना, भगवान् शिवके सन्देशसे दानवोंका क्रुद्ध होकर युद्धके लिये आना -
व्यास उवाच कृत्वा हास्यं ततो देवी तमुवाच विशांपते । मेघगम्भीरया वाचा युक्तियुक्तमिदं वचः ॥ १ ॥ पूर्वमेव मया प्रोक्तं मन्दात्मन् किं विकत्थसे । दूतस्याग्रे यथायोग्यं वचनं हितसंयुतम् ॥ २ ॥ सदृशो मम रूपेण बलेन विभवेन च । त्रिलोक्यां यदि कोऽपि स्यात्तं पतिं प्रवृणोम्यहम् ॥ ३ ॥ ब्रूहि शुम्भं निशुम्भञ्च प्रतिज्ञा मे पुरा कृता । तस्माद्युध्यस्व जित्वा मां विवाहं विधिवत्कुरु ॥ ४ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! तत्पश्चात् वे देवी हँसकर मेघके समान गम्भीर वाणीमें उस रक्तबीजसे यह युक्तिसंगत वचन बोलीं-हे मन्दबुद्धि ! तुम क्यों व्यर्थ प्रलाप कर रहे हो ? मैं तो पहले ही दूतके सामने उचित और हितकर बात कह चुकी हूँ कि यदि तीनों लोकोंमें कोई भी पुरुष रूप, बल और वैभवमें मेरे समान हो तो मैं पतिरूपमें उसका वरण कर लूँगी । अब तुम शुम्भ-निशुम्भसे कह दो कि मैं पूर्वकालमें ऐसी प्रतिज्ञा कर चुकी है, अतः मेरे साथ युद्ध करो और रणमें मुझे जीतकर [मेरे साथ] विधिवत् विवाह कर लो ॥ १-४ ॥
त्वं वै तदाज्ञया प्राप्तस्तस्य कार्यार्थसिद्धये । संग्रामं कुरु पातालं गच्छ वा पतिना सह ॥ ५ ॥
तुम भी शुम्भकी आज्ञासे उसका कार्य सिद्ध करनेके लिये यहाँ आये हो । अतएव यदि चाहो तो मेरे साथ युद्ध करो अथवा अपने स्वामीके साथ पाताललोक चले जाओ ॥ ५ ॥
व्यास उवाच तच्छ्रुत्वा वचनं देव्याः स दैत्योऽमर्षपूरितः । मुमोच तरसा बाणान्सिंहस्योपरि दारुणान् ॥ ६ ॥
व्यासजी बोले-देवीकी बात सुनकर वह दैत्य क्रोधमें भर उठा और बड़े वेगसे देवीके सिंहपर भीषण बाण छोड़ने लगा ॥ ६ ॥
भगवतीके बाणोंसे आहत होकर पापी रक्तबीज रथपर ही मूच्छित हो गया । रक्तबीजके गिर जानेपर बड़ा हाहाकार मच गया । उसके सभी सैनिक चीखने-चिल्लाने लगे और 'हाय ! हम मारे गये'ऐसा कहने लगे ॥ ९ ॥
तब अपने सैनिकोंका अत्यन्त भीषण क्रन्दन सुनकर शुम्भने सभी दैत्ययोद्धाओंको शस्त्रास्त्रसे सुसज्जित होनेका आदेश दिया ॥ १०.५ ॥
शुम्भ उवाच निर्यान्तु दानवाः सर्वे काम्बोजाः स्वबलैर्वृताः ॥ ११ ॥
शुम्भ बोला-कम्बोजदेशके सभी दानव तथा उनके अतिरिक्त अन्य महाबली वीर विशेष करके कालकेयसंज्ञक पराक्रमी योद्धा भी अपनी-अपनी सेनाके साथ निकल पड़ें ॥ ११ ॥
अन्येऽप्यतिबलाः शूराः कालकेया विशेषतः । व्यास उवाच इत्याज्ञप्तं बलं सर्वं शुम्भेन च चतुर्विधम् ॥ १२ ॥ निर्जगाम मदाऽऽविष्टं देवीसमरमण्डले । तमागतं समालोक्य चण्डिका दानवं बलम् ॥ १३ ॥ घण्टानादं चकाराशु भीषणं भयदं मुहुः । ज्यास्वनं शङ्खनादञ्च चकार जगदम्बिका ॥ १४ ॥ तेन नादेन सा जाता काली विस्तारितानना ।
व्यासजी बोले-इस प्रकार शुम्भके आदेश देनेपर उसकी सारी चतरंगिणी सेना मदमत्त होकर देवीके संग्रामस्थलके लिये निकल पड़ी । समरभूमिमें आयी हुई उस दानवी सेनाको देखकर भगवती चण्डिका बार-बार भीषण तथा भयदायक घंटानाद करने लगीं । जगदम्बाने धनुषका टंकार तथा शंखनाद किया । उस नादके होते ही भगवती काली भी अपना मुख फैलाकर घोर ध्वनि करने लगीं ॥ १२-१४.५ ॥
श्रुत्वा तन्निनदं घोरं सिंहो देव्याश्च वाहनम् ॥ १५ ॥ जगर्ज सोऽपि बलवाञ्जनयन्भयमद्भुतम् । तन्निनादमुपश्रुत्य दानवाः क्रोधमूर्च्छिताः ॥ १६ ॥
उस भयंकर शब्दको सुनकर भगवतीका वाहन बलशाली सिंह भी अद्भुत भय उत्पन्न करता हुआ बड़े जोरका गर्जन करने लगा । वह निनाद सुनकर सभी दैत्य क्रोधके मारे बौखला उठे और वे महाबली दैत्य देवीपर अस्त्र छोड़ने लगे ॥ १५-१६ ॥
सर्वे चिक्षिपुरस्त्राणि देवीं प्रति महाबलाः । तस्मिन्नेवायते युद्धे दारुणे लोमहर्षणे ॥ १७ ॥ ब्रह्मादीनाञ्च देवानां शक्तयश्चण्डिकां ययुः । यस्य देवस्य यद्रूपं यथा भूषणवाहनम् ॥ १८ ॥
उस भयानक तथा रोमांचकारी महासंग्राममें ब्रह्मा आदि देवताओंकी विभिन्न शक्तियाँ भी चण्डिकाके पास पहुँच गयीं । जिस देवताका जैसा रूप, भूषण तथा वाहन था; ठीक उसी प्रकारके रूप, भूषण तथा वाहनसे युक्त होकर सभी देवियाँ रणक्षेत्रमें पहुँची थीं ॥ १७-१८ ॥
ब्रह्माजीकी शक्ति, जो ब्रह्माणी नामसे प्रख्यात हैं, हाथमें अक्षसूत्र तथा कमण्डलु धारण करके हंसपर आरूढ़ हो वहाँ आयीं । भगवान् विष्णुकी शक्ति वैष्णवी गरुडपर सवार होकर रणभूमिमें आयीं । वे पीताम्बरसे विभूषित थीं तथा उन्होंने हाथोंमें शंख-चक्र-गदा-पद्म धारण कर रखा था । शंकरकी शक्ति भगवती शिवा बैलपर सवार होकर हाथमें उत्तम त्रिशूल लिये मस्तकपर अर्धचन्द्र धारण किये तथा साँके कंगन पहने वहाँ उपस्थित हुई ॥ १९-२१ ॥
अर्धचन्द्रधरा देवी तथाहिवलया शिवा । कौमारी शिखिसंरूढा शक्तिहस्ता वरानना ॥ २२ ॥ युद्धकामा समायाता कार्तिकेयस्वरूपिणी । इन्द्राणी सुष्ठुवदना सुश्वेतगजवाहना ॥ २३ ॥ वज्रहस्तातिरोषाढ्या संग्रामाभिमुखी ययौ । वाराही शूकराकारा प्रौढप्रेतासना मता ॥ २४ ॥ नारसिंही नृसिंहस्य बिभ्रती सदृशं वपुः । याम्या च महिषारूढा दण्डहस्ता भयप्रदा ॥ २५ ॥ समायाताथ संग्रामे यमरूपा शुचिस्मिता । तथैव वारुणी शक्तिः कौबेरी च मदोत्कटा ॥ २६ ॥ एवंविधास्तथाऽऽकारा ययुः स्वस्वबलैर्वृताः । आगतास्ताः समालोक्य देवी मुदमवाप च ॥ २७ ॥
भगवान् कार्तिकेयके समान ही रूप धारण करके सुन्दर मुखवाली भगवती कौमारी युद्धकी इच्छासे हाथमें शक्ति धारण करके मयूरपर आरूढ़ होकर आयीं । सुन्दर मुखवाली इन्द्राणी अतिशय उज्ज्वल हाथीपर सवार होकर हाथमें वज़ लिये उग्र क्रोधसे आविष्ट हो समरभूमिमें पहुँची । इसी प्रकार सूकरका रूप धारण करके एक विशाल प्रेतपर सवार होकर भगवती वाराही, नृसिंहके समान रूप धारण करके भगवती नारसिंही और यमराजके ही समान रूपवाली भयदायिनी शक्ति भगवती याम्या हाथमें दण्ड धारण किये तथा महिषपर आरूढ़ होकर मधुर-मधुर मुसकराती हुई संग्राममें आयीं । उसी प्रकार वरुणकी शक्ति वारुणी तथा कुबेरकी मदोन्मत्त शक्ति कौबेरी भी समरभूमिमें पहुँच गयीं । इसी तरह अन्य देवताओंकी शक्तियाँ भी उन्हीं देवोंका रूप धारणकर अपनी-अपनी सेनाओंके साथ रणभूमिमें उपस्थित हुई । उन शक्तियोंको वहाँ उपस्थित देखकर भगवती अम्बिका बहुत हर्षित हुईं । इससे देवता निश्चिन्त तथा प्रसन्न हो गये और दैत्य भयभीत हो उठे ॥ २२-२७ ॥
स्वस्था मुमुदिरे देवा दैत्याश्च भयमाययुः । ताभिः परिवृतस्तत्र शङ्करो लोकशङ्करः ॥ २८ ॥ समागम्य च संग्रामे चण्डिकामित्युवाच ह । हन्यन्तामसुराः शीघ्रं देवानां कार्यसिद्धये ॥ २९ ॥ निशुम्भं चैव शुम्भं च ये चान्ये दानवाः स्थिताः । हत्वा दैत्यबलं सर्वं कृत्वा च निर्भयं जगत् ॥ ३० ॥ स्वानि स्वानि च धिष्ण्यानि समागच्छन्तु शक्तयः । देवा यज्ञभुजः सन्तु ब्राह्मणा यजने रताः ॥ ३१ ॥ प्राणिनः सन्तु सन्तुष्टाः सर्वे स्थावरजङ्गमाः । शमं यान्तु तथोत्पाता ईतयश्च तथा पुनः ॥ ३२ ॥ घनाः काले प्रवर्षन्तु कृषिर्बहुफला तथा ।
लोककल्याणकारी शिवजी भी उन शक्तियोंके साथ वहाँ संग्राममें भगवती चण्डिकाके पास आकर उनसे कहने लगे-देवताओंकी कार्यसिद्धिके लिये आप शुम्भ-निशुम्भ तथा अन्य जो भी दानव उपस्थित हैं, उन सबका वध कर दीजिये । साथ ही सारी असुर-सेनाका संहार करके और इस प्रकार संसारको भयमुक्त करके ये समस्त शक्तियाँ अपने-अपने स्थानोंको चली जायें । [आप यह कार्य सम्पन्न करें जिससे] देवता यज्ञभाग पाने लगें, ब्राह्मण [निर्भय होकर] यज्ञ आदि करनेमें तत्पर हो जायें, सभी स्थावर-जंगम प्राणी सन्तुष्ट हो जायँ, सब प्रकारके उपद्रव और अकाल आदि आपदाएँ समाप्त हो जायें, मेघ समयपर वृष्टि करें और कृषि लोगोंके लिये अधिक फलदायिनी हो ॥ २८-३२.५ ॥
व्यासजी बोले-लोकका कल्याण करनेवाले देवेश्वर शिवके ऐसा कहनेपर भगवती चण्डिकाके शरीरसे एक अद्भुत शक्ति प्रकट हुई । वह शक्ति अत्यन्त भयंकर तथा प्रचण्ड थी, वह सैकड़ों सियारिनोंके समवेत स्वरके समान ध्वनि कर रही थी और उसका रूप बहुत भयानक था । मन्द-मन्द मुसकानयुक्त मुखमण्डलवाली उस शक्तिने पंचमुख शिवजीसे कहा-हे देवदेव ! आप दैत्यराज शुम्भके पास शीघ्र जाइये । हे कामरिपु ! इस समय आप मेरे दूतका काम कीजिये । हे शंकर ! कामपीड़ित शुम्भ तथा मदोन्मत्त निशुम्भसे मेरे शब्दोंमें कह दीजिये-'तुम सब तत्काल स्वर्ग त्यागकर पाताललोक चले जाओ, जिससे देवगण सुखपूर्वक स्वर्गमें प्रविष्ट हो सकें और इन्द्रको स्वर्गलोक तथा अपना उत्तम इन्द्रासन पुनः प्राप्त हो जाय; साथ ही सभी देवताओंको उनके यज्ञभाग पुनः मिलने लगें । यदि जीवित रहनेकी तुमलोगोंकी बलवती इच्छा हो तो तुमलोग बहुत शीघ्र पाताललोक चले जाओ, जहाँ दानवलोग रहते हैं । अथवा अपने बलका आश्रय लेकर यदि तुम सब युद्धकी इच्छा रखते हो, तो मरनेके लिये आ जाओ, जिससे मेरी सियारिनें तुमलोगोंके कच्चे मांससे तृप्त हो जायें ॥ ३३-३९.५ ॥
व्यास उवाच तच्छ्रुत्वा वचनं तस्याः शूलपाणिस्त्वरान्वितः ॥ ४० ॥
व्यासजी बोले-चण्डिकाका यह वचन सुनकर शिव अपनी सभामें बैठे हुए दैत्यराज शुम्भके पास शीघ्र जाकर उससे कहने लगे ॥ ४० ॥
शिवजी बोले-हे राजन् ! मैं त्रिपुरासुरका संहार करनेवाला महादेव हूँ । अम्बिकाका दूत बनकर मैं इस समय तुम्हारा सम्पूर्ण हित करनेके लिये यहाँ तुम्हारे पास आया हूँ । [देवीने कहलाया है कि] तुमलोग स्वर्ग तथा भूलोक त्यागकर शीघ्र पाताललोक चले जाओ, जहाँ प्रह्लाद तथा बलवानोंमें श्रेष्ठ राजा बलि रहते हैं । अथवा यदि मरनेकी ही इच्छा हो तो तुरंत सामने आ जाओ; मैं तुम सबको संग्राममें शीघ्र ही मार डालूँगी । तुमलोगोंके कल्याणके लिये महारानी अम्बिकाने ऐसा कहा है ॥ ४१-४४ ॥
व्यास उवाच इति दैत्यवरान्देवीवाक्यं पीयूषसन्निभम् । हितकृच्छ्रावयित्वा स प्रत्यायातश्च शूलभृत् ॥ ४५ ॥
व्यासजी बोले-भगवतीका यह अमृत-तुल्य कल्याणकारी सन्देश उन प्रधान दैत्योंको सुनाकर शूलधारी भगवान् शंकर लौट आये ॥ ४५ ॥
दानवोंकी भयंकर चीत्कार तथा देवताओंकी जयध्वनि सुनकर रक्तबीज बहुत कुपित हुआ । उस समय दैत्योंको पलायित देखकर तथा देवताओंको गरजते हुए देखकर वह महाबली तथा तेजस्वी दैत्य रक्तबीज युद्धभूमिमें स्वयं आ डटा । वह आयुधोंसे सुसज्जित होकर रथपर सवार था और प्रत्यंचाकी अद्भुत टंकार करता हुआ क्रोधके मारे आँखें लाल किये युद्धके लिये देवीके सम्मुख आ गया ॥ ६१-६३ ॥