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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
पञ्चमः स्कन्धः
एकोनत्रिंशोऽध्यायः

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देव्यासह युद्धकरणाय निशुम्भप्रयाणम् -
रक्तबीजका वध और निशुम्भका युद्धक्षेत्रके लिये प्रस्थान -


व्यास उवाच
वरदानमिदं तस्य दानवस्य शिवार्पितम् ।
अत्यद्‌भुततरं राजञ्छ्रुणु तत्प्रब्रवीम्यहम् ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! किसी समय शंकरजीने उस दानव रक्तबीजको यह बड़ा ही अद्भुत वर दे डाला था, मैं उसे बता रहा हूँ; आप सुनिये ॥ १ ॥

तस्य देहाद्‌रक्तबिन्दुर्यदा पतति भूतले ।
समुत्पतन्ति दैतेयास्तद्‌रूपास्तत्पराक्रमाः ॥ २ ॥
असंख्याता महावीर्या दानवा रक्तसम्भवाः ।
प्रभवन्त्विति रुद्रेण दत्तोऽस्त्यत्यद्‌भुतो वरः ॥ ३ ॥
उस दानवके शरीरसे जब रक्तकी बूंद पृथ्वीपर गिरती थी, तब उसीके रूप तथा पराक्रमवाले दानव तुरंत उत्पन्न हो जाते थे । भगवान् शंकरने उसे यह बड़ा ही अद्धत वर दे दिया था कि तुम्हारे रक्तसे असंख्य महान् पराक्रमी दानव उत्पन्न हो जायँगे ॥ २-३ ॥

स तेन वरदानेन दर्पितः क्रोधसंयुतः ।
अभ्यगात्तरसा संख्ये हन्तुं देवीं सकालिकाम् ॥ ४ ॥
उस वरदानके कारण अभिमानमें भरा हुआ वह दैत्य अत्यन्त कुपित होकर कालिकासमेत अम्बिकाको मारनेके लिये बड़े वेगसे रणभूमिमें पहुँचा ॥ ४ ॥

स दृष्ट्वा वैष्णवीं शक्तिं गरुडोपरिसंस्थिताम् ।
शक्त्या जघान दैत्येन्द्रस्तां वै कमललोचनाम् ॥ ५ ॥
गरुडपर विराजमान वैष्णवी शक्तिको देखकर उस दैत्येन्द्रने उन कमलनयनी देवीपर शक्ति (बी)से प्रहार कर दिया ॥ ५ ॥

गदया वारयामास शक्तिः सा शक्तिसंयुता ।
अताडयच्च चक्रेण रक्तबीजं महासुरम् ॥ ६ ॥
तब उस शक्तिशालिनी वैष्णवी शक्तिने अपनी गदासे उस प्रहारको विफल कर दिया और अपने चक्रसे महान् असुर रक्तबीजपर आघात किया ॥ ६ ॥

रथाङ्गहतदेहात्तु बहु सुस्राव शोणितम् ।
वज्राहतगिरेः शृङ्गान्निर्झरा इव गैरिका ॥ ७ ॥
उस चक्रके लगनेपर रक्तबीजके घायल शरीरसे रक्तकी विशाल धारा बह चली मानो वज्रप्रहारसे घायल पर्वतके शिखरसे गेरूकी धारा बह चली हो ॥ ७ ॥

यत्र यत्र यदा भूमौ पतन्ति रक्तबिन्दवः ।
समुत्तस्थुस्तदाकाराः पुरुषाश्च सहस्रशः ॥ ८ ॥
पृथ्वीतलपर जहाँ-जहाँ रक्तकी बूंदें गिरती थीं, वहाँ-वहाँ उसीके समान आकारवाले हजारों पुरुष उत्पन्न हो जाते थे ॥ ८ ॥

ऐन्द्री तमसुरं घोरं वज्रेणाभिजघान च ।
रक्तबीजं क्रुधाऽऽविष्टा निःससार च शोणितम् ॥ ९ ॥
तदनन्तर इन्द्रकी शक्ति ऐन्द्रीने क्रोधमें भरकर उस महान् असुर रक्तवीजपर वज्रसे आघात किया, जिससे उसके शरीरसे और रक्त निकलने लगा ॥ ९ ॥

ततस्तत्क्षतजाज्जाता रक्तबीजा ह्यनेकशः ।
तद्वीर्याश्च तदाकारा सायुधा युद्धदुर्मदाः ॥ १० ॥
तब उसके रक्तसे अनेक रक्तबीज उत्पन्न हो गये, जो उसीके समान पराक्रमी तथा आकारवाले थे । वे सब-के-सब शस्त्रसम्पन्न तथा युद्धोन्मत्त थे ॥ १० ॥

ब्रह्माणी ब्रह्मदण्डेन कुपिता ह्यहनद्‌ भृशम् ।
माहेश्वरी त्रिशूलेन दारयामास दानवम् ॥ ११ ॥
नारसिंही नखाघातैस्तं विव्याध महासुरम् ।
अहनत्तुण्डघातेन क्रुद्धा तं राक्षसाधमम् ॥ १२ ॥
कौमारी च तथा शक्त्या वक्षस्येनमताडयत् ।
ब्रह्माणीने कुपित होकर उसे ब्रह्मदण्डसे बहुत मारा और देवी माहेश्वरीने अपने त्रिशूलसे उस दानवको विदीर्ण कर दिया । देवी नारसिंहीने अपने नखोंके प्रहारोंसे उस महान् असुरको बींध डाला, देवी वाराहीने क्रुद्ध होकर उस अधम राक्षसको अपने तुण्डप्रहारसे चोट पहुँचायी और भगवती कौमारीने अपनी शक्तिसे उसके वक्षपर प्रहार किया ॥ ११-१२.५ ॥

सोऽपि क्रुद्धः शरासारैर्बिभेद निशितैश्च ताः ॥ १३ ॥
गदाशक्तिप्रहारैस्तु मातॄः सर्वाः पृथक्पृथक् ।
शक्तयस्तं शराघातैर्विव्यधुस्तत्प्रकोपिताः ॥ १४ ॥
तस्य शस्त्राणि चिच्छेद चण्डिका स्वशरैः शितैः ।
जघानान्यैश्च विशिखैस्तं देवी कुपिता भृशम् ॥ १५ ॥
तब वह दानव रक्तबीज भी क्रुद्ध होकर अलगअलग उन सभी देवियोंको तीखे बाणोंकी घोर वर्षा तथा गदा और शक्तिके प्रहारोंसे चोट पहुँचाने लगा । उसके आघातसे कुपित होकर सभी देवियोंने बाणोंके प्रहारसे उसको बींध डाला । भगवती चण्डिकाने अपने तीक्ष्ण बाणोंसे उसके शस्त्रोंको काट डाला और अत्यन्त कुपित होकर वे अन्य बाणोंसे उस दानवको मारने लगीं ॥ १३-१५ ॥

तस्य देहाच्च सुस्राव रुधिरं बहुधा तु यत् ।
तस्मात्तत्सदृशाः शूराः प्रादुरासन्सहस्रशः ॥ १६ ॥
रक्तबीजैर्जगद्व्याप्तं रुधिरौघसमुद्‌भवैः ।
सन्नद्धैः सायुधैः कामं कुर्वद्‌भिर्युद्धमद्‌भुतम् ॥ १७ ॥
अब उसके शरीरसे अत्यधिक रक्त निकलने लगा । उस रक्तसे उसी रक्तबीजके समान हजारों वीर उत्पन्न हो गये । इस प्रकार उस रुधिर-राशिसे उत्पन्न रक्तबीजोंसे सारा जगत् भर गया; वे सब कवच पहने हुए थे, आयुधोंसे सुसज्जित थे और अद्भुत युद्ध कर रहे थे ॥ १६-१७ ॥

प्रहरन्तश्च तान्दृष्ट्वा रक्तबीजाननेकशः ।
भयभीताः सुरास्त्रेसुर्विषण्णाः शोककर्षिताः ॥ १८ ॥
कथमद्य क्षयं दैत्या गमिष्यन्ति सहस्रशः ।
महाकाया महावीर्या दानवा रक्तसम्भवाः ॥ १९ ॥
एकैव चण्डिकात्रास्ति तथा काली च मातरः ।
एताभिर्दानवाः सर्वे जेतव्याः कष्टमेव तत् ॥ २० ॥
निशुम्भो वाथ शुम्भो वा सहसा बलसंवृतः ।
आगमिष्यति संग्रामे ततोऽनर्थो महान्भवेत् ॥ २१ ॥
उन असंख्य रक्तबीजोंको प्रहार करते देखकर देवता भयभीत, आतंकित, विषादग्रस्त और शोकसंतप्त हो गये । [वे सोचने लगे] इस समय रक्तबीजके रक्तसे उत्पन्न ये हजारों विशालकाय और महापराक्रमी दानव किस प्रकार विनष्ट होंगे ? यहाँ रणभूमिमें केवल भगवती चण्डिका हैं और उनके साथ में देवी काली तथा कुछ मातृकाएँ हैं; केवल इन्हीं देवियोंको मिलकर सभी दानवोंको जीतना है-यह तो महान् कष्ट है । इसी समय यदि अचानक शुम्भ अथवा निशुम्भ भी सेनाके साथ संग्राममें आ जायगा, तब तो बहुत बड़ा अनर्थ हो जायगा ॥ १८-२१ ॥

व्यास उवाच
एवं देवा भयोद्विग्नाश्चिन्तामापुर्महत्तराम् ।
यदा तदाम्बिका प्राह कालीं कमललोचनाम् ॥ २२ ॥
चामुण्डे कुरु विस्तीर्णं वदनं त्वरिता भृशम् ।
मच्छस्त्रपातसम्भूतं रुधिरं पिब सत्वरा ॥ २३ ॥
भक्षयन्ती चर रणे दानवानद्य कामतः ।
हनिष्यामि शरैस्तीक्ष्णैर्गदासिमुसलैस्तथा ॥ २४ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] इस प्रकार जब सभी देवता भयसे व्याकुल होकर अत्यधिक चिन्तित हो उठे, तब भगवती अम्बिकाने कमलसदृश नेत्रोंवाली कालीसे कहा-हे चामुण्डे ! तुम शीघ्रतापूर्वक अपना मुख पूर्णरूपसे फैला लो और मेरे शस्त्राघातके द्वारा [रक्तबीजके शरीरसे] निकले रक्तको जल्दीजल्दी पीती जाओ । तुम दानवोंका भक्षण करती हुई इच्छानुसार युद्धभूमिमें विचरण करो । मैं तीक्ष्ण बाणों, गदा, तलवार तथा मुसलोंसे इन दैत्योंको मार डालूंगी ॥ २२-२४ ॥

तथा कुरु विशालाक्षि पानं तद्‌रुधिरस्य च ।
बिन्दुमात्रं यथा भूम्यां न पतेदपि साम्प्रतम् ॥ २५ ॥
भक्ष्यमाणास्तदा दैत्या न चोत्पत्स्यन्ति चापरे ।
एवमेषां क्षयो नूनं भविष्यति न चान्यथा ॥ २६ ॥
हे विशाल नयनोंवाली ! तुम इस प्रकारसे इस दैत्यके रुधिरका पान करो, जिससे कि अब एक भी बूंद रक्त भूमिपर न गिरने पाये; तब इस दंगसे भक्षण किये जानेपर दूसरे दानव उत्पन्न नहीं हो सकेंगे । इस प्रकार इन दैत्योंका नाश अवश्य हो जायगा, इसके अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय नहीं है ॥ २५-२६ ॥

घातयिष्याम्यहं दैत्यं त्वं भक्षय च सत्वरा ।
पिबन्ती क्षतजं सर्वं यतमानारिसंक्षये ॥ २७ ॥
इत्थं दैत्यक्षयं कृत्वा दत्त्वा राज्यं सुरालयम् ।
इन्द्राय सुस्थिरं सर्वं गमिष्यामो यथासुखम् ॥ २८ ॥
जब मैं इस दैत्यको मारूँ, तब तुम शत्रुसंहाररूपी इस कार्यमें प्रयत्नशील होकर सारा रक्त पीती हुई शीघ्रतापूर्वक इसका भक्षण कर जाना । इस प्रकार दैत्यवध करके स्वर्गका सारा राज्य इन्द्रको देकर हम सब आनन्दपूर्वक यहाँसे चली जायेंगी । २७-२८ ॥

व्यास उवाच
इत्युक्ताम्बिकया देवी चामुण्डा चण्डविक्रमा ।
पपौ च क्षतजं सर्वं रक्तबीजशरीरजम् ॥ २९ ॥
अम्बिका तं जघानाशु खड्गेन मुसलेन च ।
चखाद देहशकलांश्चामुण्डा तान्कृशोदरी ॥ ३० ॥
व्यासजी बोले- भगवती अम्बिकाके ऐसा कहनेपर प्रचण्ड पराक्रमवाली देवी चामुण्डा रक्तबीजके शरीरसे निकले हुए समस्त रुधिरको पीने लगीं । जगदम्बा खड्ग तथा मुसलसे उस दैत्यको मारने लगीं और कृशोदरी चामुण्डा उसके शरीरके कटे हुए अंगोंका भक्षण करने लगीं ॥ २९-३० ॥

सोऽपि क्रुद्धो गदाघातैश्चामुण्डां समघातयत् ।
तथापि सा पपावाशु क्षतजं तमभक्षयत् ॥ ३१ ॥
अब वह रक्तबीज भी कुपित होकर गदाके प्रहारोंसे चामुण्डाको घायल करने लगा, फिर भी वे शीघ्रतापूर्वक उसका रुधिर पीती रहीं और उसका भक्षण करती रहीं ॥ ३१ ॥

येऽन्ये रुधिरजाः क्रूरा रक्तबीजा महाबलाः ।
तेऽपि निष्पातिताः सर्वे भक्षिता गतशोणिताः ॥ ३२ ॥
उस दैत्यके रुधिरसे उत्पन्न हुए अन्य जो भी महाबली और क्रूर रक्तबीज थे, उन्हें भी चामुण्डाने मार डाला । वे देवी उनका भी रक्त पी गयीं और उन सबको खा गयीं ॥ ३२ ॥

कृत्रिमा भक्षिताः सर्वे यस्तु स्वाभाविकोऽसुरः ।
सोऽपि प्रपातितो हत्वा खड्गेनातिविखण्डितः ॥ ३३ ॥
इस प्रकार भगवतीने जब सभी कृत्रिम रक्तबीजोंका भक्षण कर लिया, तब जो वास्तविक रक्तबीज था, उसे भी मारकर उन्होंने खड्गसे उसके अनेक टुकड़े करके भूमिपर गिरा दिया ॥ ३३ ॥

रक्तबीजे हते रौद्रे ये चान्ये दानवा रणे ।
पलायनं ततः कृत्वा गतास्ते भयकम्पिताः ॥ ३४ ॥
हाहेति विब्रुवन्तस्ते शुम्भं प्रोचुः सविह्वलाः ।
रुथिरारक्तदेहाश्च विगतास्त्रा विचेतसः ॥ ३५ ॥
राजन्नम्बिकया रक्तबीजोऽसौ विनिपातितः ।
चामुण्डा तस्य देहात्तु पपौ सर्वं च शोणितम् ॥ ३६ ॥
ये चान्ये दानवाः शूरा वाहनेनातिरंहसा ।
सिंहेन निहताः सर्वे काल्या च भक्षिताः परे ॥ ३७ ॥
तत्पश्चात् भयंकर रक्तबीजका वध हो जानेपर जो अन्य दानव रणभूमिमें थे, वे भयसे काँपते हुए भाग करके शुम्भके पास पहुंचे । उनका चित्त बहुत व्याकुल था, उनका शरीर रुधिरसे लथपथ था, वे शस्त्रविहीन हो गये थे और अचेत-से हो गये थे । वे हाय, हाय-ऐसा पुकारते हुए शुम्भसे कहने लगे-हे राजन् ! अम्बिकाने उस रक्तबीजको मार डाला और चामुण्डा उसकी देहसे निकला सारा रुधिर पी गयी । जो अन्य दानववीर थे, उन सबको देवीके वाहन सिंहने बड़ी तेजीसे मार डाला और शेष दानवोंको भगवती काली खा गयीं ॥ ३४-३७ ॥

वयं त्वां कथितुं राजन्नागता युद्धचेष्टितम् ।
चरितञ्च तथा देव्याः संग्रामे परमाद्‌भुतम् ॥ ३८ ॥
हे राजन् ! हमलोग आपको युद्धका वृत्तान्त तथा संग्राममें देवीके द्वारा प्रदर्शित किये गये उनके अत्यन्त अद्भुत चरित्रको बतानेके लिये आपके पास आये हुए हैं ॥ ३८ ॥

अजेयेयं महाराज सर्वथा दैत्यदानवैः ।
गन्धर्वासुरयक्षैश्च पन्नगोरगराक्षसैः ॥ ३९ ॥
हे महाराज ! यह देवी दैत्य, दानव, गन्धर्व, असुर, यक्ष, पन्नग, उरग और राक्षस-इन सभीसे सर्वथा अजेय है ॥ ३९ ॥

अन्यास्तत्रागता देव्य इन्द्राणीप्रमुखा भृशम् ।
युध्यमाना महाराज वाहनैरायुधैर्युताः ॥ ४० ॥
ताभिः सर्वं हतं सैन्यं दानवानां वरायुधैः ।
रक्तबीजोऽपि राजेन्द्र तरसा विनिपातितः ॥ ४१ ॥
हे महाराज ! इन्द्राणी आदि अन्य प्रमुख देवियाँ भी वहाँ आयी हुई हैं । वे अपने-अपने वाहनोंपर सवार होकर नानाविध आयुध धारण करके घोर युद्ध कर रही हैं । हे राजेन्द्र ! उन देवियोंने अपने उत्तम अस्त्रोंसे दानवोंकी सारी सेनाका विध्वंस कर डाला और रक्तबीजको भी बड़ी शीघ्रतासे मार गिराया ॥ ४०-४१ ॥

एकापि दुःसहा देवी किं पुनस्ताभिरन्विता ।
सिंहोऽपि हन्ति संग्रामे राक्षसानमितप्रभः ॥ ४२ ॥
एकमात्र देवी अम्बिका ही हमलोगोंके लिये असह्य थी, और फिर जब वह उन देवियोंके साथ हो गयी है तब कहना ही क्या ? असीम तेजवाला उसका वाहन सिंह भी संग्राममें राक्षसोंका वध कर रहा है ॥ ४२ ॥

अतो विचार्य सचिवैर्यद्युक्तं तद्विधीयताम् ।
न वैरमनया युक्तं सन्धिरेव सुखप्रदः ॥ ४३ ॥
अतएव मन्त्रियोंके साथ विचार-विमर्श करके जो उचित हो, वह कीजिये । इसके साथ शत्रुता उचित नहीं है, अपितु सन्धि कर लेना ही सुखदायक होगा ॥ ४३ ॥

आश्चर्यमेतदखिलं यन्नारी हन्ति राक्षसान् ।
रक्तबीजोऽपि निहतः पीतं तस्यापि शोणितम् ॥ ४४ ॥
अन्ये निपातिता दैत्याः संग्रामेऽम्बिकया नृप ।
चामुण्डया च मांसं वै भक्षितं सकलं रणे ॥ ४५ ॥
यह आश्चर्य है कि एक स्त्री राक्षसोंका संहार कर रही है ! रक्तबीज भी मार डाला गया ! देवी चामुण्डा उसका सारा रक्त भी पी गयी ! हे नृप ! अम्बिकाने संग्राममें अन्य दैत्योंको मार डाला और देवी चामुण्डा उनका सम्पूर्ण मांस खा गयी ॥ ४४-४५ ॥

वरं पातालगमनं तस्याः सेवाथवा वरा ।
न तु युद्धं महाराज कार्यमम्बिकया सह ॥ ४६ ॥
न नारी प्राकृता ह्येषा देवकार्यार्थसाधिनी ।
मायेयं प्रबला देवी क्षपयन्तीयमुत्थिता ॥ ४७ ॥
हे महाराज ! अब हमलोगोंके लिये या तो पाताल चला जाना श्रेयस्कर है अथवा उसकी दासता स्वीकार कर लेना; किंतु उस अम्बिकाके साथ युद्ध नहीं करना चाहिये । यह साधारण स्त्री नहीं है, यह देवताओंका कार्य सिद्ध करनेवाली है और यह मायारूपिणी शक्तिसम्पन्न देवीके रूपमें दैत्योंका नाश करनेके लिये प्रकट हुई है ॥ ४६-४७ ॥

व्यास उवाच
इति तेषां वचस्तथ्यं श्रुत्वा कालविमोहितः ।
मुमूर्षुः प्रत्युवाचेदं शुम्भः प्रस्फुरिताधरः ॥ ४८ ॥

व्यासजी बोले-उन सैनिकोंकी यह यथार्थ बात सुनकर कालसे मोहित तथा मरनेके लिये उद्यत वह काँपते हुए ओठोंवाला शुम्भ उनसे कहने लगा ॥ ४८ ॥

शुम्भ उवाच
यूयं गच्छत पातालं शरणं वा भयातुराः ।
हनिष्याम्यहमद्यैव ताञ्च ताश्च समुद्यतः ॥ ४९ ॥
शुम्भ बोला-तुमलोग भयभीत होकर पाताल चले जाओ अथवा उसकी शरणमें चले जाओ, किंतु मैं तो युद्ध में पूर्णरूपसे तत्पर रहते हुए उस अम्बिका तथा उन देवियोंको आज ही मार डालूँगा ॥ ४९ ॥

जित्वा सर्वान्सुरानाजौ कृत्वा राज्यं सुपुष्कलम् ।
कथं नारीभयोद्विग्नः पातालं प्रविशाम्यहम् ॥ ५० ॥
निहत्य पार्षदान्सर्वान् रक्तबीजमुखान् रणे ।
प्राणत्राणाय गच्छामि हित्वा किं विपुलं यशः ॥ ५१ ॥
रणभूमिमें सभी देवताओंको जीतकर तथा विशाल राज्यका भोग करके भला एक स्त्रीके भयसे व्याकुल होकर मैं पाताल क्यों चला जाऊँ ? रक्तबीज आदि प्रमुख पार्षदोंको रणमें मरवाकर और अपनी विशद कीर्तिका नाश करके प्राणरक्षाके लिये मैं पाताल क्यों चला जाऊँ ? ॥ ५०-५१ ॥

मरणं त्वनिवार्यं वै प्राणिनां कालकल्पितम् ।
तद्‌भयं जन्मनोपात्तं त्यजेत्को दुर्लभं यशः ॥ ५२ ॥
कालके द्वारा निर्धारित प्राणियोंकी मृत्यु तो अनिवार्य है । जन्मके साथ ही मृत्युका भय प्राणीके साथ लग जाता है । तब भला कौन (बुद्धिमान्) व्यक्ति दुर्लभ यशका त्याग कर सकता है ? ॥ ५२ ॥

निशुम्भाहं गमिष्यामि रथारूढो रणाजिरे ।
हत्वा तामागमिष्यामि नागमिष्यामि चान्यथा ॥ ५३ ॥
हे निशुम्भ ! मैं रथपर सवार होकर युद्धभूमिमें जाऊँगा और उसे मारकर ही वापस आऊँगा और यदि मैं उसे मार न सका तो फिर वापस नहीं लौटूंगा ॥ ५३ ॥

त्वं तु सेनायुतो वीर पार्ष्णिग्राहो भवस्व मे ।
तरसा तां शरैस्तीक्ष्णैर्नारीं नय यमालये ॥ ५४ ॥
हे वीर ! तुम भी सेना साथमें लेकर चलो और युद्ध में मेरे सहायक बनो । वहाँ अपने तीक्ष्ण बाणोंसे मारकर तुम उस स्त्रीको शीघ्र ही यमलोक पहुँचा दो ॥ ५४ ॥

निशुम्भ उवाच
अहमद्य हनिष्यामि गत्वा दुष्टाञ्च कालिकाम् ।
आगमिष्याम्यहं शीघ्रं गृहीत्वा तामथाम्बिकाम् ॥ ५५ ॥
निशुम्भ बोला-मैं अभी युद्धक्षेत्रमें जाकर दुष्ट कालिकाको मार डालूँगा और उस अम्बिकाको लेकर शीघ्र ही आपके पास आ जाऊंगा ॥ ५५ ॥

मा चिन्तां कुरु राजेन्द्र वराकायास्तु कारणे ।
क्वैषा बाला क्व मे बाहुवीर्यं विश्ववशङ्करम् ॥ ५६ ॥
त्यक्त्वाऽऽर्तिं विपुलां भ्रातर्भुंक्ष भोगाननुत्तमान् ।
आनयिष्याम्यहं कामं मानिनीं मानसंयुताम् ॥ ५७ ॥
हे राजेन्द्र ! आप उस बेचारीके विषयमें चिन्ता मत कीजिये । कहाँ यह एक साधारण स्त्री और कहाँ पूरे विश्वको अपने वशमें कर लेनेवाला मेरा बाहुबल ! हे भाई ! आप इस भारी चिन्ताको छोड़कर सर्वोत्तम सुखोंका उपभोग कीजिये । मैं आदरकी पात्र उस मानिनीको अवश्य ही ले आऊँगा ॥ ५६-५७ ॥

मयि तिष्ठति ते राजन्न युक्तं गमनं रणे ।
गत्वाहमानयिष्यामि तवार्थे वै जयश्रियम् ॥ ५८ ॥
हे राजन् ! मेरे रहते युद्धक्षेत्रमें आपका जाना उचित नहीं है । आपका कार्य सिद्ध करनेके लिये मैं वहाँ जाकर विजयश्री अवश्य ही प्राप्त करूंगा ॥ ५८ ॥

व्यास उवाच
इत्युक्त्वा भ्रातरं ज्येष्ठं कनीयान्बलगर्वितः ।
रथमास्थाय विपुलं सन्नद्धः स्वबलावृतः ॥ ५९ ॥
जगाम तरसा तूर्णं सङ्गरे कृतमङ्गलः ।
संस्तुतो बन्दिसूतैश्च सायुधः सपरिष्करः ॥ ६० ॥
व्यासजी बोले-बड़े भाई शुम्भसे ऐसा कहकर अपने बलपर अभिमान रखनेवाले छोटे भाई निशुम्भने कवच धारण कर लिया और अपनी सेना साथमें लेकर एक विशाल रथपर आरूढ़ हो स्वयं अनेकविध आयुध लेकर वह पूरी तैयारीके साथ तुरंत बड़ी तेजीसे युद्धभूमिकी ओर चल पड़ा । उस समय मंगलाचार किया जा रहा था और बन्दीजन तथा चारण उसका यशोगान कर रहे थे ॥ ५९-६० ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां पञ्चमस्कन्धे देव्यासह युद्धकरणाय
निशुम्भप्रयाणं नामकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥
अध्याय उनतीसवाँ समाप्त ॥ २९ ॥


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