उस दानवके शरीरसे जब रक्तकी बूंद पृथ्वीपर गिरती थी, तब उसीके रूप तथा पराक्रमवाले दानव तुरंत उत्पन्न हो जाते थे । भगवान् शंकरने उसे यह बड़ा ही अद्धत वर दे दिया था कि तुम्हारे रक्तसे असंख्य महान् पराक्रमी दानव उत्पन्न हो जायँगे ॥ २-३ ॥
स तेन वरदानेन दर्पितः क्रोधसंयुतः । अभ्यगात्तरसा संख्ये हन्तुं देवीं सकालिकाम् ॥ ४ ॥
उस वरदानके कारण अभिमानमें भरा हुआ वह दैत्य अत्यन्त कुपित होकर कालिकासमेत अम्बिकाको मारनेके लिये बड़े वेगसे रणभूमिमें पहुँचा ॥ ४ ॥
स दृष्ट्वा वैष्णवीं शक्तिं गरुडोपरिसंस्थिताम् । शक्त्या जघान दैत्येन्द्रस्तां वै कमललोचनाम् ॥ ५ ॥
गरुडपर विराजमान वैष्णवी शक्तिको देखकर उस दैत्येन्द्रने उन कमलनयनी देवीपर शक्ति (बी)से प्रहार कर दिया ॥ ५ ॥
तब उसके रक्तसे अनेक रक्तबीज उत्पन्न हो गये, जो उसीके समान पराक्रमी तथा आकारवाले थे । वे सब-के-सब शस्त्रसम्पन्न तथा युद्धोन्मत्त थे ॥ १० ॥
ब्रह्माणी ब्रह्मदण्डेन कुपिता ह्यहनद् भृशम् । माहेश्वरी त्रिशूलेन दारयामास दानवम् ॥ ११ ॥ नारसिंही नखाघातैस्तं विव्याध महासुरम् । अहनत्तुण्डघातेन क्रुद्धा तं राक्षसाधमम् ॥ १२ ॥ कौमारी च तथा शक्त्या वक्षस्येनमताडयत् ।
ब्रह्माणीने कुपित होकर उसे ब्रह्मदण्डसे बहुत मारा और देवी माहेश्वरीने अपने त्रिशूलसे उस दानवको विदीर्ण कर दिया । देवी नारसिंहीने अपने नखोंके प्रहारोंसे उस महान् असुरको बींध डाला, देवी वाराहीने क्रुद्ध होकर उस अधम राक्षसको अपने तुण्डप्रहारसे चोट पहुँचायी और भगवती कौमारीने अपनी शक्तिसे उसके वक्षपर प्रहार किया ॥ ११-१२.५ ॥
सोऽपि क्रुद्धः शरासारैर्बिभेद निशितैश्च ताः ॥ १३ ॥ गदाशक्तिप्रहारैस्तु मातॄः सर्वाः पृथक्पृथक् । शक्तयस्तं शराघातैर्विव्यधुस्तत्प्रकोपिताः ॥ १४ ॥ तस्य शस्त्राणि चिच्छेद चण्डिका स्वशरैः शितैः । जघानान्यैश्च विशिखैस्तं देवी कुपिता भृशम् ॥ १५ ॥
तब वह दानव रक्तबीज भी क्रुद्ध होकर अलगअलग उन सभी देवियोंको तीखे बाणोंकी घोर वर्षा तथा गदा और शक्तिके प्रहारोंसे चोट पहुँचाने लगा । उसके आघातसे कुपित होकर सभी देवियोंने बाणोंके प्रहारसे उसको बींध डाला । भगवती चण्डिकाने अपने तीक्ष्ण बाणोंसे उसके शस्त्रोंको काट डाला और अत्यन्त कुपित होकर वे अन्य बाणोंसे उस दानवको मारने लगीं ॥ १३-१५ ॥
अब उसके शरीरसे अत्यधिक रक्त निकलने लगा । उस रक्तसे उसी रक्तबीजके समान हजारों वीर उत्पन्न हो गये । इस प्रकार उस रुधिर-राशिसे उत्पन्न रक्तबीजोंसे सारा जगत् भर गया; वे सब कवच पहने हुए थे, आयुधोंसे सुसज्जित थे और अद्भुत युद्ध कर रहे थे ॥ १६-१७ ॥
प्रहरन्तश्च तान्दृष्ट्वा रक्तबीजाननेकशः । भयभीताः सुरास्त्रेसुर्विषण्णाः शोककर्षिताः ॥ १८ ॥ कथमद्य क्षयं दैत्या गमिष्यन्ति सहस्रशः । महाकाया महावीर्या दानवा रक्तसम्भवाः ॥ १९ ॥ एकैव चण्डिकात्रास्ति तथा काली च मातरः । एताभिर्दानवाः सर्वे जेतव्याः कष्टमेव तत् ॥ २० ॥ निशुम्भो वाथ शुम्भो वा सहसा बलसंवृतः । आगमिष्यति संग्रामे ततोऽनर्थो महान्भवेत् ॥ २१ ॥
उन असंख्य रक्तबीजोंको प्रहार करते देखकर देवता भयभीत, आतंकित, विषादग्रस्त और शोकसंतप्त हो गये । [वे सोचने लगे] इस समय रक्तबीजके रक्तसे उत्पन्न ये हजारों विशालकाय और महापराक्रमी दानव किस प्रकार विनष्ट होंगे ? यहाँ रणभूमिमें केवल भगवती चण्डिका हैं और उनके साथ में देवी काली तथा कुछ मातृकाएँ हैं; केवल इन्हीं देवियोंको मिलकर सभी दानवोंको जीतना है-यह तो महान् कष्ट है । इसी समय यदि अचानक शुम्भ अथवा निशुम्भ भी सेनाके साथ संग्राममें आ जायगा, तब तो बहुत बड़ा अनर्थ हो जायगा ॥ १८-२१ ॥
व्यास उवाच एवं देवा भयोद्विग्नाश्चिन्तामापुर्महत्तराम् । यदा तदाम्बिका प्राह कालीं कमललोचनाम् ॥ २२ ॥ चामुण्डे कुरु विस्तीर्णं वदनं त्वरिता भृशम् । मच्छस्त्रपातसम्भूतं रुधिरं पिब सत्वरा ॥ २३ ॥ भक्षयन्ती चर रणे दानवानद्य कामतः । हनिष्यामि शरैस्तीक्ष्णैर्गदासिमुसलैस्तथा ॥ २४ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] इस प्रकार जब सभी देवता भयसे व्याकुल होकर अत्यधिक चिन्तित हो उठे, तब भगवती अम्बिकाने कमलसदृश नेत्रोंवाली कालीसे कहा-हे चामुण्डे ! तुम शीघ्रतापूर्वक अपना मुख पूर्णरूपसे फैला लो और मेरे शस्त्राघातके द्वारा [रक्तबीजके शरीरसे] निकले रक्तको जल्दीजल्दी पीती जाओ । तुम दानवोंका भक्षण करती हुई इच्छानुसार युद्धभूमिमें विचरण करो । मैं तीक्ष्ण बाणों, गदा, तलवार तथा मुसलोंसे इन दैत्योंको मार डालूंगी ॥ २२-२४ ॥
तथा कुरु विशालाक्षि पानं तद्रुधिरस्य च । बिन्दुमात्रं यथा भूम्यां न पतेदपि साम्प्रतम् ॥ २५ ॥ भक्ष्यमाणास्तदा दैत्या न चोत्पत्स्यन्ति चापरे । एवमेषां क्षयो नूनं भविष्यति न चान्यथा ॥ २६ ॥
हे विशाल नयनोंवाली ! तुम इस प्रकारसे इस दैत्यके रुधिरका पान करो, जिससे कि अब एक भी बूंद रक्त भूमिपर न गिरने पाये; तब इस दंगसे भक्षण किये जानेपर दूसरे दानव उत्पन्न नहीं हो सकेंगे । इस प्रकार इन दैत्योंका नाश अवश्य हो जायगा, इसके अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय नहीं है ॥ २५-२६ ॥
घातयिष्याम्यहं दैत्यं त्वं भक्षय च सत्वरा । पिबन्ती क्षतजं सर्वं यतमानारिसंक्षये ॥ २७ ॥ इत्थं दैत्यक्षयं कृत्वा दत्त्वा राज्यं सुरालयम् । इन्द्राय सुस्थिरं सर्वं गमिष्यामो यथासुखम् ॥ २८ ॥
जब मैं इस दैत्यको मारूँ, तब तुम शत्रुसंहाररूपी इस कार्यमें प्रयत्नशील होकर सारा रक्त पीती हुई शीघ्रतापूर्वक इसका भक्षण कर जाना । इस प्रकार दैत्यवध करके स्वर्गका सारा राज्य इन्द्रको देकर हम सब आनन्दपूर्वक यहाँसे चली जायेंगी । २७-२८ ॥
व्यास उवाच इत्युक्ताम्बिकया देवी चामुण्डा चण्डविक्रमा । पपौ च क्षतजं सर्वं रक्तबीजशरीरजम् ॥ २९ ॥ अम्बिका तं जघानाशु खड्गेन मुसलेन च । चखाद देहशकलांश्चामुण्डा तान्कृशोदरी ॥ ३० ॥
व्यासजी बोले- भगवती अम्बिकाके ऐसा कहनेपर प्रचण्ड पराक्रमवाली देवी चामुण्डा रक्तबीजके शरीरसे निकले हुए समस्त रुधिरको पीने लगीं । जगदम्बा खड्ग तथा मुसलसे उस दैत्यको मारने लगीं और कृशोदरी चामुण्डा उसके शरीरके कटे हुए अंगोंका भक्षण करने लगीं ॥ २९-३० ॥
उस दैत्यके रुधिरसे उत्पन्न हुए अन्य जो भी महाबली और क्रूर रक्तबीज थे, उन्हें भी चामुण्डाने मार डाला । वे देवी उनका भी रक्त पी गयीं और उन सबको खा गयीं ॥ ३२ ॥
इस प्रकार भगवतीने जब सभी कृत्रिम रक्तबीजोंका भक्षण कर लिया, तब जो वास्तविक रक्तबीज था, उसे भी मारकर उन्होंने खड्गसे उसके अनेक टुकड़े करके भूमिपर गिरा दिया ॥ ३३ ॥
तत्पश्चात् भयंकर रक्तबीजका वध हो जानेपर जो अन्य दानव रणभूमिमें थे, वे भयसे काँपते हुए भाग करके शुम्भके पास पहुंचे । उनका चित्त बहुत व्याकुल था, उनका शरीर रुधिरसे लथपथ था, वे शस्त्रविहीन हो गये थे और अचेत-से हो गये थे । वे हाय, हाय-ऐसा पुकारते हुए शुम्भसे कहने लगे-हे राजन् ! अम्बिकाने उस रक्तबीजको मार डाला और चामुण्डा उसकी देहसे निकला सारा रुधिर पी गयी । जो अन्य दानववीर थे, उन सबको देवीके वाहन सिंहने बड़ी तेजीसे मार डाला और शेष दानवोंको भगवती काली खा गयीं ॥ ३४-३७ ॥
हे राजन् ! हमलोग आपको युद्धका वृत्तान्त तथा संग्राममें देवीके द्वारा प्रदर्शित किये गये उनके अत्यन्त अद्भुत चरित्रको बतानेके लिये आपके पास आये हुए हैं ॥ ३८ ॥
अजेयेयं महाराज सर्वथा दैत्यदानवैः । गन्धर्वासुरयक्षैश्च पन्नगोरगराक्षसैः ॥ ३९ ॥
हे महाराज ! यह देवी दैत्य, दानव, गन्धर्व, असुर, यक्ष, पन्नग, उरग और राक्षस-इन सभीसे सर्वथा अजेय है ॥ ३९ ॥
हे महाराज ! इन्द्राणी आदि अन्य प्रमुख देवियाँ भी वहाँ आयी हुई हैं । वे अपने-अपने वाहनोंपर सवार होकर नानाविध आयुध धारण करके घोर युद्ध कर रही हैं । हे राजेन्द्र ! उन देवियोंने अपने उत्तम अस्त्रोंसे दानवोंकी सारी सेनाका विध्वंस कर डाला और रक्तबीजको भी बड़ी शीघ्रतासे मार गिराया ॥ ४०-४१ ॥
एकमात्र देवी अम्बिका ही हमलोगोंके लिये असह्य थी, और फिर जब वह उन देवियोंके साथ हो गयी है तब कहना ही क्या ? असीम तेजवाला उसका वाहन सिंह भी संग्राममें राक्षसोंका वध कर रहा है ॥ ४२ ॥
यह आश्चर्य है कि एक स्त्री राक्षसोंका संहार कर रही है ! रक्तबीज भी मार डाला गया ! देवी चामुण्डा उसका सारा रक्त भी पी गयी ! हे नृप ! अम्बिकाने संग्राममें अन्य दैत्योंको मार डाला और देवी चामुण्डा उनका सम्पूर्ण मांस खा गयी ॥ ४४-४५ ॥
वरं पातालगमनं तस्याः सेवाथवा वरा । न तु युद्धं महाराज कार्यमम्बिकया सह ॥ ४६ ॥ न नारी प्राकृता ह्येषा देवकार्यार्थसाधिनी । मायेयं प्रबला देवी क्षपयन्तीयमुत्थिता ॥ ४७ ॥
हे महाराज ! अब हमलोगोंके लिये या तो पाताल चला जाना श्रेयस्कर है अथवा उसकी दासता स्वीकार कर लेना; किंतु उस अम्बिकाके साथ युद्ध नहीं करना चाहिये । यह साधारण स्त्री नहीं है, यह देवताओंका कार्य सिद्ध करनेवाली है और यह मायारूपिणी शक्तिसम्पन्न देवीके रूपमें दैत्योंका नाश करनेके लिये प्रकट हुई है ॥ ४६-४७ ॥
शुम्भ बोला-तुमलोग भयभीत होकर पाताल चले जाओ अथवा उसकी शरणमें चले जाओ, किंतु मैं तो युद्ध में पूर्णरूपसे तत्पर रहते हुए उस अम्बिका तथा उन देवियोंको आज ही मार डालूँगा ॥ ४९ ॥
रणभूमिमें सभी देवताओंको जीतकर तथा विशाल राज्यका भोग करके भला एक स्त्रीके भयसे व्याकुल होकर मैं पाताल क्यों चला जाऊँ ? रक्तबीज आदि प्रमुख पार्षदोंको रणमें मरवाकर और अपनी विशद कीर्तिका नाश करके प्राणरक्षाके लिये मैं पाताल क्यों चला जाऊँ ? ॥ ५०-५१ ॥
कालके द्वारा निर्धारित प्राणियोंकी मृत्यु तो अनिवार्य है । जन्मके साथ ही मृत्युका भय प्राणीके साथ लग जाता है । तब भला कौन (बुद्धिमान्) व्यक्ति दुर्लभ यशका त्याग कर सकता है ? ॥ ५२ ॥
हे राजेन्द्र ! आप उस बेचारीके विषयमें चिन्ता मत कीजिये । कहाँ यह एक साधारण स्त्री और कहाँ पूरे विश्वको अपने वशमें कर लेनेवाला मेरा बाहुबल ! हे भाई ! आप इस भारी चिन्ताको छोड़कर सर्वोत्तम सुखोंका उपभोग कीजिये । मैं आदरकी पात्र उस मानिनीको अवश्य ही ले आऊँगा ॥ ५६-५७ ॥
व्यासजी बोले-बड़े भाई शुम्भसे ऐसा कहकर अपने बलपर अभिमान रखनेवाले छोटे भाई निशुम्भने कवच धारण कर लिया और अपनी सेना साथमें लेकर एक विशाल रथपर आरूढ़ हो स्वयं अनेकविध आयुध लेकर वह पूरी तैयारीके साथ तुरंत बड़ी तेजीसे युद्धभूमिकी ओर चल पड़ा । उस समय मंगलाचार किया जा रहा था और बन्दीजन तथा चारण उसका यशोगान कर रहे थे ॥ ५९-६० ॥