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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
पञ्चमः स्कन्धः
त्रिंशोऽध्यायः

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युद्धात्प्रत्यागतानां रक्षसां शुम्भाय वार्तावर्णनम् -
देवीद्वारा निशुम्भका वध -


व्यास उवाच
निशुम्भो निश्चयं कृत्वा मरणाय जयाय वा ।
सोद्यमः सबलः शूरो रणे देवीमुपाययौ ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] वह पराक्रमी निशुम्भ अब मृत्यु अथवा विजयका निश्चय करके पूरी तैयारीके साथ सेनासहित समरभूमिमें उपस्थित हो गया ॥ १ ॥

तमाजगाम शुम्भोऽपि स्वबलेन समावृतः ।
प्रेक्षकोऽभूद्‌रणे राजा संग्रामरसपण्डितः ॥ २ ॥
अपनी सेना साथमें लेकर शुम्भ भी उस निशुम्भके पास आ गया और युद्धकलाका पूर्ण ज्ञान रखनेवाला वह दैत्यराज शुम्भ रणमें दर्शक बनकर युद्धका अवलोकन करने लगा ॥ २ ॥

गगने संस्थिता देवास्तदाभ्रपटलावृताः ।
दिदृक्षवस्तु संग्रामे सेन्द्रा यक्षगणास्तथा ॥ ३ ॥
इन्द्रसहित समस्त देवता तथा यक्षगण संग्राम देखनेकी इच्छासे आकाशमण्डलमें मेघपटलोंमें छिपकर विराजमान हो गये ॥ ३ ॥

निशुम्भोऽथ रणे गत्वा धनुरादाय शार्ङ्गकम् ।
चकार शरवृष्टिं स भीषयञ्जगदम्बिकाम् ॥ ४ ॥
निशुम्भ रणभूमिमें पहुँचकर सींगका बना हुआ धनुष लेकर भगवती जगदम्बाको भयभीत करता हुआ उनके ऊपर बाणोंकी बौछार करने लगा ॥ ४ ॥

मुञ्चन्तं शरजालानि निशुम्भं चण्डिका रणे ।
वीक्ष्यादाय धनुः श्रेष्ठं जहास सुस्वरं मुहुः ॥ ५ ॥
उवाच कालिकां देवी पश्य मूर्खत्वमेतयोः ।
मरणायागतौ कालि मत्समीपमिहाधुना ॥ ६ ॥
युद्धभूमिमें निशुम्भको बाण-समूह छोड़ते हुए देखकर भगवती चण्डिका अपना उत्कृष्ट धनुष धारण करके उच्च स्वरमें बार-बार हँसने लगीं । देवी चण्डिकाने कालीसे कहा-हे काली ! इन दोनोंकी मूर्खता तो देखो, ये दोनों इस समय यहाँ मेरे पास मरनेके लिये ही आये हुए हैं ॥ ५-६ ॥

दृष्ट्वा दैत्यवधं घोरं रक्तबीजात्ययं तथा ।
जयाशां कुरुतस्त्वेतौ मोहितौ मम मायया ॥ ७ ॥
दैत्योंका भीषण संहार तथा रक्तबीजकी मृत्यु देखकर भी मेरी मायासे विमोहित हुए ये दोनों दैत्य विजयकी आशा कर रहे हैं ॥ ७ ॥

आशा बलवती ह्येषा न जहाति नरं क्वचित् ।
भग्नं हृतबलं नष्टं गतपक्षं विचेतनम् ॥ ८ ॥
यह आशा बड़ी बलवती होती है । यह प्राणियोंको कभी नहीं छोड़ती है । यहाँतक कि अंगहीन, बलहीन, नष्टप्राय, असहाय तथा अचेत प्राणी भी आशाके प्रभावसे छूट नहीं पाता है ॥ ८ ॥

आशापाशनिबद्धौ द्वौ युद्धाय समुपागतौ ।
निहन्तव्यौ मया कालि रणे शुम्भनिशुम्भकौ ॥ ९ ॥
हे कालि ! इस प्रकार आशा-पाशमें बँधे हुए ये दोनों शुम्भ-निशुम्भ युद्धके लिये समरभूमिमें आये हुए हैं, अब मुझे इन दोनोंका वध कर देना चाहिये ॥ ९ ॥

आसन्नमरणावेतौ सम्प्राप्तौ दैवमोहितौ ।
पश्यतां सर्वदेवानां हनिष्याम्यहमद्य तौ ॥ १० ॥
आसन्न मृत्युवाले ये दोनों दैत्य प्रारब्धकी प्रेरणासे यहाँ आये हुए हैं । सभी देवताओंके समक्ष आज ही मैं इन्हें मार डालूंगी ॥ १० ॥

व्यास उवाच
इत्युक्त्वा कालिकां चण्डी कर्णाकृष्टशरोत्करैः ।
छादयामास तरसा निशुम्भं पुरतः स्थितम् ॥ ११ ॥
व्यासजी बोले-भगवती चण्डिकाने कालिकासे ऐसा कहकर कानोंतक खींचकर छोड़े गये बाणसमूहोंसे अपने समक्ष खड़े निशुम्भको शीघ्र ही आच्छादित कर दिया ॥ ११ ॥

दानवोऽपि शरांस्तस्याश्चिच्छेद निशितैः शरैः ।
तयोः परस्परं युद्धं बभूवातिभयानकम् ॥ १२ ॥
दैत्य निशुम्भने भी उन चण्डिकाके बाणोंको अपने तीक्ष्ण बाणोंसे काट डाला । इस प्रकार उन दोनोंमें परस्पर अत्यन्त भयंकर युद्ध होने लगा ॥ १२ ॥

केसरी केशजालानि धुन्वानः सैन्यसागरम् ।
गाहयामास बलवान्सरसीं वारणो यथा ॥ १३ ॥
देवीका सिंह भी अपने गर्दनके बालोंको झाड़ता हुआ दैत्योंके सेनारूपी समुद्रको उसी प्रकार मथने लगा, जैसे कोई बलवान् हाथी तालाबको मथ रहा हो ॥ १३ ॥

नखैर्दन्तप्रहारैस्तु दानवान्पुरतः स्थितान् ।
चखाद च विशीर्णाङ्गान् गजानिव मदोत्कटान् ॥ १४ ॥
जिस प्रकार कोई सिंह मतवाले हाथियोंके अंग-प्रत्यंग चीरकर खा डालता है, उसी प्रकार भगवतीका वह सिंह अपने समक्ष स्थित दानवोंको अपने नखों तथा दाँतोंके प्रहारसे फाड़कर खाने लगा ॥ १४ ॥

एवं विमथ्यमाने तु सैन्ये केसरिणा तदा ।
अभ्यधावन्निशुम्भोऽथ विकृष्टवरकार्मुकः ॥ १५ ॥
भगवतीके उस सिंहद्वारा दानवी सेनाका इस प्रकार संहार होते देखकर निशुम्भ अपना श्रेष्ठ धनुष चढ़ाकर सिंहके पीछे दौड़ा ॥ १५ ॥

अन्येऽपि क्रुद्धा दैत्येन्द्रा देवीं हन्तुमुपाययुः ।
सन्दष्टदन्तरसना रक्तनेत्रा ह्यनेकशः ॥ १६ ॥
उसी समय कोपके कारण लाल नेत्रोंवाले अन्य बहुत-से प्रधान दानव भी दाँतोंसे अपनी जीभ चबाते हुए भगवतीको मारनेके लिये उनपर टूट पड़े ॥ १६ ॥

तत्राजगाम तरसा शुम्भः सैन्यसमावृतः ।
निहत्य कालिकां कोपाद्‌ग्रहीतुं जगदम्बिकाम् ॥ १७ ॥
उसी अवसरपर कुपित होकर शुम्भ भी कालिकापर प्रहार करके भगवती अम्बिकाको पकड़नेके लिये अपनी सेनाके साथ बड़े वेगसे वहाँ आ पहुँचा ॥ १७ ॥

तत्रागत्य ददर्शाजावम्बिकाञ्च पुरःस्थिताम् ।
रौद्ररसयुतां कान्तां शृङ्गाररससंयुताम् ॥ १८ ॥
वहाँ आकर उसने जगदम्बिकाको युद्धभूमिमें अपने सामने खड़ी देखा; जो परम सुन्दरी, शृंगाररससे परिपूर्ण तथा रौद्ररससे भरी हुई थीं ॥ १८ ॥

तां वीक्ष्य विपुलापाङ्गीं त्रैलोक्यवरसुन्दरीम् ।
सुरक्तनयनां रम्यां क्रोधरक्तेक्षणां तथा ॥ १९ ॥
विवाहेच्छां परित्यज्य जयाशां दूरतस्तथा ।
मरणे निश्चयं कृत्वा तस्थावाहितकार्मुकः ॥ २० ॥
[स्वभावतः] लाल नेत्रोंवाली, किंतु उस समय कोपके कारण अतिरक्त नयनोंवाली, तीनों लोकोंमें परम सुन्दरी तथा विशाल नेत्रप्रान्तोंवाली उन मनोहर भगवतीको देखकर विजयकी आशा तथा विवाहकी अभिलाषाका दूरसे ही परित्याग करके वह दानव अब अपने मरणका निश्चय कर हाथमें धनुष लिये हुए खड़ा ही रह गया ॥ १९-२० ॥

तं तथा दानवं देवी स्मितपूर्वमिदं वचः ।
बभाषे शृण्वतां तेषां दैत्यानां रणमस्तके ॥ २१ ॥
गच्छध्वं पामरा यूयं पातालं वा जलार्णवम् ।
जीविताशां स्थिरां कृत्वा त्यक्त्वात्रैवायुधानि च ॥ २२ ॥
अथवा मच्छराघातहतप्राणा रणाजिरे ।
प्राप्य स्वर्गसुखं सर्वे क्रीडन्तु विगतज्वराः ॥ २३ ॥
कातरत्वं च शूरत्वं न भवत्येव सर्वथा ।
ददाम्यभयदानं वै यान्तु सर्वे यथासुखम् ॥ २४ ॥

तब भगवतीने युद्धस्थलमें उपस्थित उन सभी दानवोंको सुनाते हुए मुसकराकर उस दैत्यसे यह वचन कहा-हे नीच दानवो ! यदि तुम सब जीवित रहनेकी इच्छा रखते हो तो अपने आयुध यहीं छोड़कर पाताललोक या समुद्रमें चले जाओ अथवा तुमलोग समरांगणमें मेरे बाणोंके प्रहारसे निष्प्राण होकर स्वर्गमें सुख प्राप्तकर वहाँ निर्भय होकर विहार करो । कायरता तथा पराक्रम दोनोंका एक साथ रह पाना सम्भव नहीं है । मैं तुम सबको अभयदान देती हूँ; तुम सब सुखपूर्वक चले जाओ ॥ २१-२४ ॥

व्यास उवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तस्या निशुम्भो मदगर्वितः ।
निशितं खड्गमादाय चर्म चैवाष्टचन्द्रकम् ॥ २५ ॥
धावमानस्तु तरसासिना सिंहं मदोत्कटम् ।
जघानातिबलान्मूर्ध्नि भ्रामयञ्जगदम्बिकाम् ॥ २६ ॥
व्यासजी बोले-उन भगवतीका वचन सुनकर मदोन्मत्त निशुम्भ तीक्ष्ण खड्ग तथा अष्टचन्द्र नामक ढाल लेकर बड़े वेगसे दौड़ा और उसने बलपूर्वक अपने खड्गसे मतवाले सिंहके मस्तकपर प्रहार किया । तत्पश्चात् उसने तलवार घुमाकर जगदम्बापर भी प्रहार किया ॥ २५-२६ ॥

ततो देवी स्वगदया वञ्चयित्वासिपातनम् ।
ताडयामास तं बाहोर्मूले परशुना तदा ॥ २७ ॥
तब भगवतीने अपनी गदासे उसके तलवारके प्रहारको रोककर अपने परशुसे उसके बाहुमूल (कन्धे)-पर आघात किया ॥ २७ ॥

खड्गेन निहतः सोऽपि बाहुमूले महामदः ।
संस्तभ्य वेदनां भूयो जघान चण्डिकां तदा ॥ २८ ॥
अपने कन्धेपर खड्गसे प्रहार होनेपर भी उस महाभिमानी अहंकारी निशुम्भने उस आघातकी वेदना सहकर भगवती चण्डिकापर पुनः प्रहार किया ॥ २८ ॥

सापि घण्टास्वनं घोरं चकार भयदं नृणाम् ।
पपौ पुनः पुनः पानं निशुम्भं हन्तुमिच्छती ॥ २९ ॥
तत्पश्चात् भगवती चण्डिकाने भी प्राणियोंको भयभीत कर देनेवाली भीषण घंटाध्वनि की और निशुम्भको मारनेकी इच्छा प्रकट करती हुई उन्होंने बार-बार मधुपान किया ॥ २९ ॥

एवं परस्परं युद्धं बभूवातिभयप्रदम् ।
देवानां दानवानाञ्च परस्परजयैषिणाम् ॥ ३० ॥
इस प्रकार एक-दूसरेको जीतनेकी प्रबल इच्छावाले देवताओं तथा दानवोंमें परस्पर अत्यन्त भयंकर युद्ध आरम्भ हो गया ॥ ३० ॥

पलादाः पक्षिणः क्रूराः सारमेयाश्च जम्बुकाः ।
ननृतुश्चातिसन्तुष्टा गृध्राः कङ्काश्च वायसाः ॥ ३१ ॥
मांसाहारी क्रूर पक्षी, कुत्ते, सियार, गोध, कंक तथा कौए अति प्रसन्न होकर नृत्य करने लगे ॥ ३१ ॥

रणभूर्भाति भूयिष्ठपतितासुरवर्ष्मकैः ।
रुधिरस्रावसंयुक्तैर्गजाश्वदेहसंकुला ॥ ३२ ॥
उस समय बहुत-से गिरे हुए दैत्योंके रक्त बहते हुए शरीरोंसे तथा हाथियों और घोड़ोंके देहसे पटी हुई वह रणभूमि अत्यधिक [भयानक] प्रतीत हो रही थी ॥ ३२ ॥

पतितान्दानवान्दृष्ट्वा निशुम्भोऽतिरुषान्वितः ।
प्रययौ चण्डिकां तूर्णं गदामादाय दारुणाम् ॥ ३३ ॥
[भूमिपर गिरे हुए दानवोंको देखकर निशुम्भ अत्यन्त कुपित हो उठा और एक भयंकर गदा लेकर शीघ्रतापूर्वक भगवतीके समक्ष पहुँच गया ॥ ३३ ॥

सिंहं जघान गदया मस्तके मदगर्वितः ।
प्रहृत्य च स्मितं कृत्वा पुनर्देवीमताडयत् ॥ ३४ ॥
अभिमानमें चूर उस निशुम्भने सिंहके मस्तकपर गदासे प्रहार किया । तत्पश्चात् उसने मुसकराकर पुनः देवीपर प्रहार करके उन्हें चोट पहुँचायी ॥ ३४ ॥

सापि तं कुपितातीव निशुम्भं पुरतः स्थितम् ।
प्रहरन्तं समीक्ष्याथ देवी वचनमब्रवीत् ॥ ३५ ॥
इससे वे भगवती भी अत्यन्त कुपित हो गयीं और समक्ष स्थित होकर प्रहार कर रहे उस निशुम्भको देखकर कहने लगीं- ॥ ३५ ॥

देव्युवाच
तिष्ठ मन्दमते तावद्यावत्खड्गमिदं तव ।
ग्रीवायां प्रेरयाम्यस्माद्‌ गन्तासि यमसादनम् ॥ ३६ ॥
देवी बोलीं-हे मन्दबुद्धि ! मैं तलवार चला रही हूँ । तुम तबतकके लिये ठहर जाओ, जबतक मेरी यह तलवार तुम्हारी गर्दनतक नहीं पहुँच जाती । इसके बाद तुम यमपुरी निश्चय ही पहुँच जाओगे ॥ ३६ ॥

व्यास उवाच
इत्युक्त्वा तरसा देवी कृपाणेन समाहिता ।
चिच्छेद मस्तकं तस्य निशुम्भस्याथ चण्डिका ॥ ३७ ॥
व्यासजी बोले-ऐसा कहकर भगवती चण्डिकाने एकाग्रचित्त होकर बड़ी शीघ्रतासे अपने कपाणसे उस निशुम्भका मस्तक काट दिया ॥ ३७ ॥

सच्छिन्नमस्तको देव्या कबन्धोऽतीव दारुणः ।
बभ्राम च गदापाणिस्त्रासयन्देवतागणान् ॥ ३८ ॥
इस प्रकार भगवतीके द्वारा सिर कटा हुआ अत्यन्त विकराल वह धड़ हाथमें गदा धारण किये देवगणोंको भयभीत करता हुआ इधर-उधर घूमने लगा ॥ ३८ ॥

देवी तस्य शितैर्बाणैश्चिच्छेद चरणौ करौ ।
पपातोर्व्यां ततः पापी गतासुः पर्वतोपमः ॥ ३९ ॥
तत्पश्चात् भगवतीने तीक्ष्ण बाणोंसे उसके दोनों हाथ तथा पैर भी काट दिये । इसके बाद पर्वतके समान शरीरवाला वह पापी दैत्य प्राणहीन होकर धरतीपर गिर पड़ा ॥ ३९ ॥

तस्मिन्निपतिते दैत्ये निशुम्भे भीमविक्रमे ।
हाहाकारो महानासीत्तत्सैन्ये भयकम्पिते ॥ ४० ॥
त्यक्त्वाऽऽयुधानि सर्वाणि सैनिकाः क्षतजाप्लुताः ।
जग्मुर्बुम्बारवं सर्वे कुर्वाणा राजमन्दिरम् ॥ ४१ ॥
प्रचण्ड पराक्रमवाले उस निशुम्भ दैत्यके गिर जानेपर भवसे कम्पित दानवसेनामें महान् हाहाकार मच गया । रक्तसे लथपथ समस्त दानवसैनिक अपनेअपने सभी आयुध फेंककर चीख-पुकार करते हुए राजभवनकी ओर भाग गये । ४०-४१ ॥

तानागतान्सुसम्प्रेक्ष्य शुम्भः शत्रुनिषूदनः ।
पप्रच्छ क्व निशुम्भोऽसौ कथं भग्नाः पलायिताः ॥ ४२
शत्रुओंके संहारकी शक्ति रखनेवाले शुम्भने वहाँ आये हुए उन सैनिकोंको देखकर उनसे पूछानिशुम्भ कहाँ है और घायल होकर तुम सब युद्धभूमिसे भाग क्यों आये ? ॥ ४२ ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं राज्ञस्ते प्रोचुः प्रणता भृशम् ।
राजंस्ते निहतो भ्राता शेते समरमूर्धनि ॥ ४३ ॥
दानवराज शुम्भका वह वचन सुनकर उन सैनिकोंने अति विनम्रतापूर्वक कहा-हे राजन् ! आपके भाई निशुम्भ मृत होकर रणभूमिमें सोये पड़े हैं ॥ ४३ ॥

तया निपातिताः शूरा ये च तेऽप्यनुजानुगाः ।
वयं त्वां कथितुं सर्वं वृत्तान्तं समुपागताः ॥ ४४ ॥
उस स्त्रीने आपके अनुज (निशुम्भ)-के जो भी अनुचर दानववीर थे, उन्हें मार डाला । यही सब समाचार आपको बतानेके लिये हम यहाँ आये हुए हैं । ४४ ॥

निशुम्भो निहतस्तत्र तया चण्डिकयाधुना ।
न हि युद्धस्य कालोऽद्य तव राजन् रणाङ्गणे ॥ ४५ ॥
उस चण्डिकाने इसी समय युद्धभूमिमें निशुम्भका संहार किया है । अतएव हे राजन् ! उसके साथ समरभूमिमें आपके लिये आज युद्ध करनेका [उचित] अवसर नहीं है । ॥ ४५ ॥

देवकार्यं समुद्दिश्य कापीयं परमाङ्गना ।
हन्तुं दैत्यकुलं नूनं प्राप्तेति परिचिन्तय ॥ ४६ ॥
आप यह निश्चितरूपसे जान लीजिये कि देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके उद्देश्यसे दानवकुलका संहार करनेके लिये यह कोई अद्भुत देवी प्रकट हुई है ॥ ४६ ॥

नैषा प्राकृतयोषैव देवी शक्तिरनुत्तमा ।
अचिन्त्यचरिता क्वापि दुर्ज्ञेया दैवतैरपि ॥ ४७ ॥
यह सामान्य नारी नहीं है, अपितु देवीरूपिणी कोई अत्युत्तम शक्ति है । अद्भुत चरित्रोंवाली ये देवी देवताओंके भी ज्ञानसे परे हैं ॥ ४७ ॥

नानारूपधरातीव मायामूलविशारदा ।
विचित्रभूषणा देवी सर्वायुधधरा शुभा ॥ ४८ ॥
ये कल्याणी भगवती अनेक रूप धारण करनेमें समर्थ हैं, मायाके मूल तत्त्वका पूर्ण ज्ञान रखनेवाली हैं और अद्भुत भूषण तथा समस्त प्रकारके आयुध धारण करनेवाली हैं । ४८ ॥

गहना गूढचरिता कालरात्रिरिवापरा ।
अपारपारगा पूर्णा सर्वलक्षणसंयुता ॥ ४९ ॥
गूढ़ चरित्रोंवाली इन देवीको जान पाना अत्यन्त कठिन है । ये दूसरी कालरात्रिके समान प्रतीत होती हैं । असीमके भी पार जा सकने में समर्थ ये पूर्णतामयी देवी सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न हैं ॥ ४९ ॥

अन्तरिक्षस्थिता देवास्तां स्तुवन्त्यकुतोभयाः ।
देवकार्यञ्च कुर्वाणां श्रीदेवीं परमाद्‌भुताम् ॥ ५० ॥
समस्त देवतागण अन्तरिक्षमें स्थित होकर देवकार्य सिद्ध करनेवाली परम अद्भुतस्वरूपिणी उन देवीका निर्भीकतापूर्वक स्तवन कर रहे हैं ॥ ५० ॥

पलायनं परो धर्मः सर्वथा देहरक्षणम् ।
रक्षिते किल देहेस्मिन्कालेऽस्मत्सुखताङ्गते ॥ ५१ ॥
संग्रामे विजयो राजन् भविता ते न संशयः ।
कालः करोति बलिनं समये निर्बलं क्वचित् ॥ ५२ ॥
तं पुनः सबलं कृत्वा जयायोपदधाति हि ।
दातारं याचकं कालः करोति समये क्वचित् ॥ ५३ ॥
भिक्षुकं धनदातारं करोति समयान्तरे ।
यदि आप शरीरकी रक्षा करना चाहते हैं तो इस समय पलायन ही परम धर्म है । इस शरीरकी रक्षा हो जानेके बाद पुनः आनन्ददायक अनुकूल समय आनेपर संग्राममें आपकी विजय होगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है । हे राजन् ! कभी-कभी काल बलवान्को भी बलहीन बना देता है और पुन: समय आनेपर उसे बलशाली बनाकर विजयकी प्राप्ति करा देता है । कभी-कभी काल विषम परिस्थितिमें दाताको भिखारी बना देता है और पुनः कुछ समय बीतनेपर उसी भिखारीको धन देनेवाला बना देता है ॥ ५१-५३.५ ॥

विष्णुः कालवशे नूनं ब्रह्मा वा पार्वतीपतिः ॥ ५४ ॥
इन्द्राद्या निर्जराः सर्वे काल एव प्रभुः स्वयम् ।
तस्मात्कालं प्रतीक्षस्व विपरीतं तवाधुना ॥ ५५ ॥
विष्णु, ब्रह्मा, शिव तथा इन्द्र आदि सभी देवता निश्चितरूपसे सदा कालके वशवर्ती हैं । यह काल स्वयं ही सबका स्वामी है । हे राजन् ! अभी काल आपके लिये विपरीत है, अतएव आप समयकी प्रतीक्षा कीजिये ॥ ५४-५५ ॥

सम्मुखो देवतानाञ्च दैत्यानां नाशहेतुकः ।
एकैव च गतिर्नास्ति कालस्य किल भूपते ॥ ५६ ॥
नानारूपधराप्यस्ति ज्ञातव्यं तस्य चेष्टितम् ।
कदाचित्सम्भवो नॄणां कदाचित्प्रलयस्तथा ॥ ५७ ॥
उत्पत्तिहेतुः कालोऽन्यः क्षयहेतुस्तथापरः ।
हे पृथ्वीपते ! इस समय काल देवताओंके लिये अनुकूल तथा दैत्योंके लिये विनाशकारी है । कालकी गति सर्वथा एक ही तरहकी नहीं बनी रहती है । यह काल-गति नानाविध रूप भी धारण करती है । अतः कालकी चेष्टापर विचार करते रहना चाहिये । कभी प्राणियोंका जन्म होता है और कभी उनका मरण उपस्थित हो जाता है । एक काल उत्पत्तिका हेतु होता है तो दूसरा काल विनाशका हेतु बन जाता है ॥ ५६-५७.५ ॥

प्रत्यक्षं ते महाराज देवाः सर्वे सवासवाः ॥ ५८ ॥
करदास्ते कृताः पूर्वं कालेन सम्मुखेन च ।
तेनैव विमुखेनाद्य बलिनोऽबलयासुराः ॥ ५९ ॥
निहता नितरां कालः करोति च शुभाशुभम् ।
नैवात्र कारणं काली नैव देवाः सनातनाः ॥ ६० ॥
हे महाराज ! आपके समक्ष इसका प्रमाण विद्यमान है कि पहले इन्द्र आदि सभी देवता आपके लिये अनुकूल समय रहनेपर आपके करदाता बन गये थे, किंतु आज उसी कालके विपरीत हो जानेके कारण एक अबलाने बलशाली असुरोंका संहार कर डाला । यही काल हित भी करता है तथा अहित भी करता है । इस पराजयमें न तो काली कारण हैं और न तो सनातन देवता ही कारण हैं ॥ ५८-६० ॥

यथा ते रोचते राजंस्तथा कुरु विमृश्य च ।
कालोऽयं नात्र हेतुस्ते दानवानां तथा पुनः ॥ ६१ ॥
हे राजन् ! आपको जैसा उचित जान पड़े भलीभाँति सोच-समझकर आप वैसा ही कीजिये । हमारी समझमें तो यह काल अभी आपके तथा अन्य दानवोंके लिये भी अनुकूल नहीं है ॥ ६१ ॥

त्वदग्रतो गतः शक्रो भग्नः संख्ये निरायुधः ।
तथा विष्णुस्तथा रुद्रो वरुणो धनदो यमः ॥ ६२ ॥
तथा त्वमपि राजेन्द्र वीक्ष्य कालवशं जगत् ।
पातालं गच्छ तरसा जीवन्भद्रमवाप्स्यसि ॥ ६३ ॥
किसी समय संग्राममें घायल होकर तथा अपने आयुध छोड़कर इन्द्र आपके सामनेसे भाग गये थे । ऐसे ही विष्णु, रुद्र, वरुण, कुबेर, यम आदि देवता भी आपके समक्ष टिक नहीं पाये थे । अतः हे राजेन्द्र ! इस समस्त जगत्को कालके अधीन मानकर आप भी तत्काल पाताललोक चले जाइये; जीवन बचा रहा तो आप कल्याण अवश्य प्राप्त करेंगे ॥ ६२-६३ ॥

मृते त्वयि महाराज शत्रवस्ते मुदान्विताः ।
मङ्गलानि प्रगायन्तो विचरिष्यन्ति सर्वतः ॥ ६४ ॥
हे महाराज ! यदि कहीं आपका निधन हो गया तो आपके शत्रु प्रसन्नतापूर्वक मंगलगान करते हुए निर्भय होकर सर्वत्र विचरण करेंगे ॥ ६४ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां पञ्चमस्कन्धे युद्धात्प्रत्यागतानां रक्षसां
शुम्भाय वार्तावर्णनं नाम त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥
अध्याय तीसवाँ समाप्त ॥ ३० ॥


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