व्यास उवाच निशुम्भो निश्चयं कृत्वा मरणाय जयाय वा । सोद्यमः सबलः शूरो रणे देवीमुपाययौ ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] वह पराक्रमी निशुम्भ अब मृत्यु अथवा विजयका निश्चय करके पूरी तैयारीके साथ सेनासहित समरभूमिमें उपस्थित हो गया ॥ १ ॥
तमाजगाम शुम्भोऽपि स्वबलेन समावृतः । प्रेक्षकोऽभूद्रणे राजा संग्रामरसपण्डितः ॥ २ ॥
अपनी सेना साथमें लेकर शुम्भ भी उस निशुम्भके पास आ गया और युद्धकलाका पूर्ण ज्ञान रखनेवाला वह दैत्यराज शुम्भ रणमें दर्शक बनकर युद्धका अवलोकन करने लगा ॥ २ ॥
इन्द्रसहित समस्त देवता तथा यक्षगण संग्राम देखनेकी इच्छासे आकाशमण्डलमें मेघपटलोंमें छिपकर विराजमान हो गये ॥ ३ ॥
निशुम्भोऽथ रणे गत्वा धनुरादाय शार्ङ्गकम् । चकार शरवृष्टिं स भीषयञ्जगदम्बिकाम् ॥ ४ ॥
निशुम्भ रणभूमिमें पहुँचकर सींगका बना हुआ धनुष लेकर भगवती जगदम्बाको भयभीत करता हुआ उनके ऊपर बाणोंकी बौछार करने लगा ॥ ४ ॥
मुञ्चन्तं शरजालानि निशुम्भं चण्डिका रणे । वीक्ष्यादाय धनुः श्रेष्ठं जहास सुस्वरं मुहुः ॥ ५ ॥ उवाच कालिकां देवी पश्य मूर्खत्वमेतयोः । मरणायागतौ कालि मत्समीपमिहाधुना ॥ ६ ॥
युद्धभूमिमें निशुम्भको बाण-समूह छोड़ते हुए देखकर भगवती चण्डिका अपना उत्कृष्ट धनुष धारण करके उच्च स्वरमें बार-बार हँसने लगीं । देवी चण्डिकाने कालीसे कहा-हे काली ! इन दोनोंकी मूर्खता तो देखो, ये दोनों इस समय यहाँ मेरे पास मरनेके लिये ही आये हुए हैं ॥ ५-६ ॥
दृष्ट्वा दैत्यवधं घोरं रक्तबीजात्ययं तथा । जयाशां कुरुतस्त्वेतौ मोहितौ मम मायया ॥ ७ ॥
दैत्योंका भीषण संहार तथा रक्तबीजकी मृत्यु देखकर भी मेरी मायासे विमोहित हुए ये दोनों दैत्य विजयकी आशा कर रहे हैं ॥ ७ ॥
आशा बलवती ह्येषा न जहाति नरं क्वचित् । भग्नं हृतबलं नष्टं गतपक्षं विचेतनम् ॥ ८ ॥
यह आशा बड़ी बलवती होती है । यह प्राणियोंको कभी नहीं छोड़ती है । यहाँतक कि अंगहीन, बलहीन, नष्टप्राय, असहाय तथा अचेत प्राणी भी आशाके प्रभावसे छूट नहीं पाता है ॥ ८ ॥
देवीका सिंह भी अपने गर्दनके बालोंको झाड़ता हुआ दैत्योंके सेनारूपी समुद्रको उसी प्रकार मथने लगा, जैसे कोई बलवान् हाथी तालाबको मथ रहा हो ॥ १३ ॥
नखैर्दन्तप्रहारैस्तु दानवान्पुरतः स्थितान् । चखाद च विशीर्णाङ्गान् गजानिव मदोत्कटान् ॥ १४ ॥
जिस प्रकार कोई सिंह मतवाले हाथियोंके अंग-प्रत्यंग चीरकर खा डालता है, उसी प्रकार भगवतीका वह सिंह अपने समक्ष स्थित दानवोंको अपने नखों तथा दाँतोंके प्रहारसे फाड़कर खाने लगा ॥ १४ ॥
एवं विमथ्यमाने तु सैन्ये केसरिणा तदा । अभ्यधावन्निशुम्भोऽथ विकृष्टवरकार्मुकः ॥ १५ ॥
भगवतीके उस सिंहद्वारा दानवी सेनाका इस प्रकार संहार होते देखकर निशुम्भ अपना श्रेष्ठ धनुष चढ़ाकर सिंहके पीछे दौड़ा ॥ १५ ॥
उसी अवसरपर कुपित होकर शुम्भ भी कालिकापर प्रहार करके भगवती अम्बिकाको पकड़नेके लिये अपनी सेनाके साथ बड़े वेगसे वहाँ आ पहुँचा ॥ १७ ॥
तत्रागत्य ददर्शाजावम्बिकाञ्च पुरःस्थिताम् । रौद्ररसयुतां कान्तां शृङ्गाररससंयुताम् ॥ १८ ॥
वहाँ आकर उसने जगदम्बिकाको युद्धभूमिमें अपने सामने खड़ी देखा; जो परम सुन्दरी, शृंगाररससे परिपूर्ण तथा रौद्ररससे भरी हुई थीं ॥ १८ ॥
तां वीक्ष्य विपुलापाङ्गीं त्रैलोक्यवरसुन्दरीम् । सुरक्तनयनां रम्यां क्रोधरक्तेक्षणां तथा ॥ १९ ॥ विवाहेच्छां परित्यज्य जयाशां दूरतस्तथा । मरणे निश्चयं कृत्वा तस्थावाहितकार्मुकः ॥ २० ॥
[स्वभावतः] लाल नेत्रोंवाली, किंतु उस समय कोपके कारण अतिरक्त नयनोंवाली, तीनों लोकोंमें परम सुन्दरी तथा विशाल नेत्रप्रान्तोंवाली उन मनोहर भगवतीको देखकर विजयकी आशा तथा विवाहकी अभिलाषाका दूरसे ही परित्याग करके वह दानव अब अपने मरणका निश्चय कर हाथमें धनुष लिये हुए खड़ा ही रह गया ॥ १९-२० ॥
तं तथा दानवं देवी स्मितपूर्वमिदं वचः । बभाषे शृण्वतां तेषां दैत्यानां रणमस्तके ॥ २१ ॥ गच्छध्वं पामरा यूयं पातालं वा जलार्णवम् । जीविताशां स्थिरां कृत्वा त्यक्त्वात्रैवायुधानि च ॥ २२ ॥ अथवा मच्छराघातहतप्राणा रणाजिरे । प्राप्य स्वर्गसुखं सर्वे क्रीडन्तु विगतज्वराः ॥ २३ ॥ कातरत्वं च शूरत्वं न भवत्येव सर्वथा । ददाम्यभयदानं वै यान्तु सर्वे यथासुखम् ॥ २४ ॥
तब भगवतीने युद्धस्थलमें उपस्थित उन सभी दानवोंको सुनाते हुए मुसकराकर उस दैत्यसे यह वचन कहा-हे नीच दानवो ! यदि तुम सब जीवित रहनेकी इच्छा रखते हो तो अपने आयुध यहीं छोड़कर पाताललोक या समुद्रमें चले जाओ अथवा तुमलोग समरांगणमें मेरे बाणोंके प्रहारसे निष्प्राण होकर स्वर्गमें सुख प्राप्तकर वहाँ निर्भय होकर विहार करो । कायरता तथा पराक्रम दोनोंका एक साथ रह पाना सम्भव नहीं है । मैं तुम सबको अभयदान देती हूँ; तुम सब सुखपूर्वक चले जाओ ॥ २१-२४ ॥
व्यास उवाच इत्याकर्ण्य वचस्तस्या निशुम्भो मदगर्वितः । निशितं खड्गमादाय चर्म चैवाष्टचन्द्रकम् ॥ २५ ॥ धावमानस्तु तरसासिना सिंहं मदोत्कटम् । जघानातिबलान्मूर्ध्नि भ्रामयञ्जगदम्बिकाम् ॥ २६ ॥
व्यासजी बोले-उन भगवतीका वचन सुनकर मदोन्मत्त निशुम्भ तीक्ष्ण खड्ग तथा अष्टचन्द्र नामक ढाल लेकर बड़े वेगसे दौड़ा और उसने बलपूर्वक अपने खड्गसे मतवाले सिंहके मस्तकपर प्रहार किया । तत्पश्चात् उसने तलवार घुमाकर जगदम्बापर भी प्रहार किया ॥ २५-२६ ॥
ततो देवी स्वगदया वञ्चयित्वासिपातनम् । ताडयामास तं बाहोर्मूले परशुना तदा ॥ २७ ॥
तब भगवतीने अपनी गदासे उसके तलवारके प्रहारको रोककर अपने परशुसे उसके बाहुमूल (कन्धे)-पर आघात किया ॥ २७ ॥
अपने कन्धेपर खड्गसे प्रहार होनेपर भी उस महाभिमानी अहंकारी निशुम्भने उस आघातकी वेदना सहकर भगवती चण्डिकापर पुनः प्रहार किया ॥ २८ ॥
सापि घण्टास्वनं घोरं चकार भयदं नृणाम् । पपौ पुनः पुनः पानं निशुम्भं हन्तुमिच्छती ॥ २९ ॥
तत्पश्चात् भगवती चण्डिकाने भी प्राणियोंको भयभीत कर देनेवाली भीषण घंटाध्वनि की और निशुम्भको मारनेकी इच्छा प्रकट करती हुई उन्होंने बार-बार मधुपान किया ॥ २९ ॥
एवं परस्परं युद्धं बभूवातिभयप्रदम् । देवानां दानवानाञ्च परस्परजयैषिणाम् ॥ ३० ॥
इस प्रकार एक-दूसरेको जीतनेकी प्रबल इच्छावाले देवताओं तथा दानवोंमें परस्पर अत्यन्त भयंकर युद्ध आरम्भ हो गया ॥ ३० ॥
देवी बोलीं-हे मन्दबुद्धि ! मैं तलवार चला रही हूँ । तुम तबतकके लिये ठहर जाओ, जबतक मेरी यह तलवार तुम्हारी गर्दनतक नहीं पहुँच जाती । इसके बाद तुम यमपुरी निश्चय ही पहुँच जाओगे ॥ ३६ ॥
व्यास उवाच इत्युक्त्वा तरसा देवी कृपाणेन समाहिता । चिच्छेद मस्तकं तस्य निशुम्भस्याथ चण्डिका ॥ ३७ ॥
व्यासजी बोले-ऐसा कहकर भगवती चण्डिकाने एकाग्रचित्त होकर बड़ी शीघ्रतासे अपने कपाणसे उस निशुम्भका मस्तक काट दिया ॥ ३७ ॥
तत्पश्चात् भगवतीने तीक्ष्ण बाणोंसे उसके दोनों हाथ तथा पैर भी काट दिये । इसके बाद पर्वतके समान शरीरवाला वह पापी दैत्य प्राणहीन होकर धरतीपर गिर पड़ा ॥ ३९ ॥
प्रचण्ड पराक्रमवाले उस निशुम्भ दैत्यके गिर जानेपर भवसे कम्पित दानवसेनामें महान् हाहाकार मच गया । रक्तसे लथपथ समस्त दानवसैनिक अपनेअपने सभी आयुध फेंककर चीख-पुकार करते हुए राजभवनकी ओर भाग गये । ४०-४१ ॥
शत्रुओंके संहारकी शक्ति रखनेवाले शुम्भने वहाँ आये हुए उन सैनिकोंको देखकर उनसे पूछानिशुम्भ कहाँ है और घायल होकर तुम सब युद्धभूमिसे भाग क्यों आये ? ॥ ४२ ॥
यह सामान्य नारी नहीं है, अपितु देवीरूपिणी कोई अत्युत्तम शक्ति है । अद्भुत चरित्रोंवाली ये देवी देवताओंके भी ज्ञानसे परे हैं ॥ ४७ ॥
नानारूपधरातीव मायामूलविशारदा । विचित्रभूषणा देवी सर्वायुधधरा शुभा ॥ ४८ ॥
ये कल्याणी भगवती अनेक रूप धारण करनेमें समर्थ हैं, मायाके मूल तत्त्वका पूर्ण ज्ञान रखनेवाली हैं और अद्भुत भूषण तथा समस्त प्रकारके आयुध धारण करनेवाली हैं । ४८ ॥
गूढ़ चरित्रोंवाली इन देवीको जान पाना अत्यन्त कठिन है । ये दूसरी कालरात्रिके समान प्रतीत होती हैं । असीमके भी पार जा सकने में समर्थ ये पूर्णतामयी देवी सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न हैं ॥ ४९ ॥
यदि आप शरीरकी रक्षा करना चाहते हैं तो इस समय पलायन ही परम धर्म है । इस शरीरकी रक्षा हो जानेके बाद पुनः आनन्ददायक अनुकूल समय आनेपर संग्राममें आपकी विजय होगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है । हे राजन् ! कभी-कभी काल बलवान्को भी बलहीन बना देता है और पुन: समय आनेपर उसे बलशाली बनाकर विजयकी प्राप्ति करा देता है । कभी-कभी काल विषम परिस्थितिमें दाताको भिखारी बना देता है और पुनः कुछ समय बीतनेपर उसी भिखारीको धन देनेवाला बना देता है ॥ ५१-५३.५ ॥
विष्णु, ब्रह्मा, शिव तथा इन्द्र आदि सभी देवता निश्चितरूपसे सदा कालके वशवर्ती हैं । यह काल स्वयं ही सबका स्वामी है । हे राजन् ! अभी काल आपके लिये विपरीत है, अतएव आप समयकी प्रतीक्षा कीजिये ॥ ५४-५५ ॥
हे पृथ्वीपते ! इस समय काल देवताओंके लिये अनुकूल तथा दैत्योंके लिये विनाशकारी है । कालकी गति सर्वथा एक ही तरहकी नहीं बनी रहती है । यह काल-गति नानाविध रूप भी धारण करती है । अतः कालकी चेष्टापर विचार करते रहना चाहिये । कभी प्राणियोंका जन्म होता है और कभी उनका मरण उपस्थित हो जाता है । एक काल उत्पत्तिका हेतु होता है तो दूसरा काल विनाशका हेतु बन जाता है ॥ ५६-५७.५ ॥
प्रत्यक्षं ते महाराज देवाः सर्वे सवासवाः ॥ ५८ ॥ करदास्ते कृताः पूर्वं कालेन सम्मुखेन च । तेनैव विमुखेनाद्य बलिनोऽबलयासुराः ॥ ५९ ॥ निहता नितरां कालः करोति च शुभाशुभम् । नैवात्र कारणं काली नैव देवाः सनातनाः ॥ ६० ॥
हे महाराज ! आपके समक्ष इसका प्रमाण विद्यमान है कि पहले इन्द्र आदि सभी देवता आपके लिये अनुकूल समय रहनेपर आपके करदाता बन गये थे, किंतु आज उसी कालके विपरीत हो जानेके कारण एक अबलाने बलशाली असुरोंका संहार कर डाला । यही काल हित भी करता है तथा अहित भी करता है । इस पराजयमें न तो काली कारण हैं और न तो सनातन देवता ही कारण हैं ॥ ५८-६० ॥
यथा ते रोचते राजंस्तथा कुरु विमृश्य च । कालोऽयं नात्र हेतुस्ते दानवानां तथा पुनः ॥ ६१ ॥
हे राजन् ! आपको जैसा उचित जान पड़े भलीभाँति सोच-समझकर आप वैसा ही कीजिये । हमारी समझमें तो यह काल अभी आपके तथा अन्य दानवोंके लिये भी अनुकूल नहीं है ॥ ६१ ॥
किसी समय संग्राममें घायल होकर तथा अपने आयुध छोड़कर इन्द्र आपके सामनेसे भाग गये थे । ऐसे ही विष्णु, रुद्र, वरुण, कुबेर, यम आदि देवता भी आपके समक्ष टिक नहीं पाये थे । अतः हे राजेन्द्र ! इस समस्त जगत्को कालके अधीन मानकर आप भी तत्काल पाताललोक चले जाइये; जीवन बचा रहा तो आप कल्याण अवश्य प्राप्त करेंगे ॥ ६२-६३ ॥