शुम्भ बोला-हे मूर्यो ! तुम सब खोटी बात क्यों बोल रहे हो ? तुम्हारे वचनोंको मानकर मैं भला अपने जीवनकी रक्षा क्यों करूँ ? क्या अपने सचिवों तथा भाई-बन्धुओंका वध कराकर मैं निर्लज्ज बनकर विचरण करूँ ? ॥ २ ॥
कालः कर्ता शुभानां वाशुभानां बलवत्तरः । का चिन्ता मम दुर्वारे तस्मिन्नीशेऽप्यरूपके ॥ ३ ॥
प्राणियोंके शुभ अथवा अशुभका कर्ता जब एकमात्र वही अति बलवान् काल है तो मुझे चिन्ता क्या ? क्योंकि परोक्षरूपसे सबपर शासन करनेवाला वह काल टाला नहीं जा सकता ॥ ३ ॥
यद्भवति तद्भवतु यत्करोति करोतु तत् । न मे चिन्तास्ति कुत्रापि मरणाज्जीवनात्तथा ॥ ४ ॥
जो हो रहा है, वह होता रहे तथा काल जो कुछ भी कर रहा है, उसे करता रहे; अब तो मुझे जीवन तथा मृत्युके विषयमें किसी भी प्रकारको चिन्ता नहीं है ॥ ४ ॥
स कालोऽप्यन्यथाकर्तुं भावितो नेशते क्वचित् । न वर्षति च पर्जन्यः श्रावणे मासि सर्वथा ॥ ५ ॥ कदाचिन्मार्गशीर्षे वा पौषे माघेऽथ फाल्गुने । अकाले वर्षतीवाशु तस्मान्मुख्यो न चास्त्वयम् ॥ ६ ॥
वह काल भी भवितव्यताको मिटा सकनेमें समर्थ नहीं है । ऐसा भी होता है कि सावनके महीनेमें मेघ सदा नहीं बरसते; अपितु कभी-कभी अगहन, पौष, माघ तथा फाल्गुनमें असमय ही तेज वृष्टि होने लगती है । अतएव [समस्त कार्योंमें] काल ही प्रधान नहीं है ॥ ५-६ ॥
कालो निमित्तमात्रं तु दैवं हि बलवत्तरम् । दैवेन निर्मितं सर्वं नान्यथा भवतीत्यदः ॥ ७
काल तो निमित्तमात्र है, अपितु [इसकी तुलनामें] दैव अधिक बलवान् है । सब कुछ दैवनिर्मित है; इसके विपरीत कुछ नहीं होता । ७ ॥
मैं तो दैवको ही प्रधान मानता हूँ । अनर्थकारी पुरुषार्थको धिक्कार है । क्योंकि जिस निशुम्भने सभी देवताओंपर विजय प्राप्त कर ली थी, उसे इस स्त्रीने मार डाला ॥ ८ ॥
उस पर्वतपर पहुँचकर शुम्भने त्रिभुवनको मोहित करनेवाली परम सुन्दरी सिंहवाहिनी भगवती जगदम्बिकाको वहाँ विराजमान देखा । वे सभी प्रकारके आभूषणोंसे अलंकृत थीं तथा सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न थीं; देवता, यक्ष तथा किन्नर आकाशमें स्थित होकर उनकी स्तुति कर रहे थे तथा मन्दारवृक्षके पुष्पोंसे पूजा कर रहे थे और वे मनोहर शंखध्वनि तथा घंटानाद कर रही थीं ॥ १८-२० ॥
रूपमें कामदेवकी पत्नी रतिके समान सुन्दर तथा सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न यह स्त्री कहीं अम्बिका ही तो नहीं, जो सभी महाबली दानवोंका संहार कर रही है ॥ २४ ॥
उपायः कोऽत्र कर्तव्यो येन मे वशगा भवेत् । न मन्त्रा वा मरालाक्षीसाधने सन्निधौ मम ॥ २५ ॥
इस अवसरपर मैं कौन-सा उपाय करूँ, जिससे यह मेरी वशवर्तिनी हो जाय ? इस हंस-सदृश नेत्रोंवालीको वशमें करनेहेतु मेरे पास कोई मन्त्र भी नहीं है ॥ २५ ॥
सर्वमन्त्रमयी ह्येषा मोहिनी मदगर्विता । सुन्दरीयं कथं मे स्याद्वशगा वरवर्णिनी ॥ २६ ॥
सर्वमन्त्रमयी, सबको मोहित करनेवाली, अभिमानमें मत्त रहनेवाली तथा उत्तम लक्षणोंवाली यह सुन्दरी किस प्रकार मेरे वशमें होगी ? ॥ २६ ॥
पातालगमनं मेऽद्य न युक्तं समराङ्गणात् । सामदानविभेदैश्च नेयं साध्या महाबला ॥ २७ ॥
अब युद्धभूमि छोड़कर पाताललोक जाना भी मेरे लिये उचित नहीं है । साम, दान तथा भेद आदि उपायोंसे भी यह महाबलशालिनी वशमें नहीं की जा सकती ॥ २७ ॥
किं कर्तव्यं च गन्तव्यं विषमे समुपस्थिते । मरणं नोत्तमं चात्र स्त्रीकृतं तु यशोऽपहृत् ॥ २८ ॥
इस विषम परिस्थितिके आ जानेपर अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ ? स्त्रीके हाथों मर जाना भी उचित नहीं है; क्योंकि ऐसी मृत्यु यशको नष्ट करनेवाली होती है ॥ २८ ॥
मरणमृषिभिः प्रोक्तं सङ्गरे मङ्गलास्पदम् । यत्तत्समानबलयोर्योधयोर्युध्यतोः किल ॥ २९ ॥
ऋषियोंने उस मृत्युको श्रेयस्कर कहा है, जो समरभूमिमें समान बलवाले योद्धाओंके साथ लड़तेलड़ते प्राप्त हो ॥ २९ ॥
प्राप्तेयं दैवरचिता नारी नरशतोत्तमा । नाशायास्मत्कुलस्येह सर्वथातिबलाबला ॥ ३० ॥
सैकड़ों वीरोंसे श्रेष्ठ, महाबलशालिनी तथा दैव-विरचित यह नारी मेरे कुलके पूर्ण विनाशके लिये यहाँ उपस्थित हुई है ॥ ३० ॥
मैं इस समय सामनीतिसे युक्त वचनोंका प्रयोग व्यर्थ में क्यों करूँ ? क्योंकि यह तो संहारके लिये आयी हुई है, तो फिर सामवचनोंसे यह कैसे प्रसन्न हो सकती है ? अनेक प्रकारके शस्त्रोंसे विभूषित होनेके कारण दान आदिके प्रलोभनोंसे भी यह विचलित नहीं की जा सकती । भेदनीति भी निष्फल सिद्ध होगी; क्योंकि सभी देवता इसके वशमें हैं ॥ ३१-३२ ॥
तस्मात्तु मरणं श्रेयो न संग्रामे पलायनम् । जयो वा मरणं वाद्य भवत्वेव यथाविधि ॥ ३३ ॥
अतएव संग्राममें मर जाना श्रेयस्कर है, किंतु पलायन करना ठीक नहीं है । अब तो प्रारब्धके अनुसार विजय अथवा मृत्यु जो भी होना हो, वह हो ॥ ३३ ॥
अंगराग (शीतल चन्दन आदि) ही उनका कवच है, मनोकामना रथ है तथा धीरे-धीरे मधुर वाणीमें बोलना भेरी-ध्वनि है । अतएव स्त्रियोंके लिये अन्य शस्त्रोंकी कोई आवश्यकता नहीं रहती ॥ ३७ ॥
अन्यास्त्रधारणं स्त्रीणां विडम्बनमसंशयम् । लज्जैव भूषणं कान्ते न च धार्ष्ट्यं कदाचन ॥ ३८ ॥
यदि स्त्रियाँ इनके अतिरिक्त अन्य अस्त्र धारण करें तो यह निश्चितरूपसे उनके लिये विडम्बना ही है । हे प्रिये लजा ही नारियोंका आभूषण है, धृष्टता उन्हें कभी भी शोभा नहीं देती ॥ ३८ ॥
कहाँ नारियोंकी मन्धरगति और कहाँ युद्धमें गदा लेकर दौड़ना । इस समय यह कालिका तथा दूसरी स्त्री चामुण्डा ही तुम्हें बुद्धि देनेवाली हैं । मध्यस्थ होकर चण्डिका मन्त्रणा देती है, कर्कश स्वरवाली शिवा तुम्हारी शुश्रूषामें रहती है और सभी प्राणियोंमें भयंकर सिंह तुम्हारा वाहन है ॥ ४०-४१ ॥
हे भामिनि ! यदि युद्ध करना ही तुम्हें अभीष्ट है तो तुम सर्वप्रथम लम्बे ओठोंवाली, विचित्र नखोंवाली, क्रूर स्वभाववाली, कौए-जैसे वर्णवाली, विकृत आँखोंवाली, लम्बे पैरोंवाली, भयंकर दाँतोंवाली और बिल्लीसदृश नेत्रोंवाली कुरूप स्त्री बन जाओ । ऐसा ही विकराल रूप धारण करके तुम युद्धभूमिमें स्थिरतापूर्वक खड़ी हो जाओ और कर्कश वचन बोलो, तभी मैं तुम्हारे साथ युद्ध करूँगा; क्योंकि हे मृगशावक-सदृश नेत्रोंवाली ! हे रतितुल्य सुन्दरि ! सुन्दर दाँतोंवाली ऐसी रमणीको देखकर तुम्हें युद्ध में मारनेके लिये मेरा हाथ नहीं उठ पा रहा है ॥ ४३-४५.५ ॥
देवी बोलीं-हे मन्दबुद्धि ! कामबाणसे विमोहित होकर तुम इस प्रकार विषाद क्यों कर रहे हो ? हे मूढ ! तुम पहले कालिका अथवा चामुण्डाके साथ ही युद्ध कर लो । ये दोनों देवियाँ ही समरांगणमें तुम्हारे साथ युद्ध करनेमें पूर्ण समर्थ हैं । मैं तो केवल दर्शक बनकर खड़ी हूँ । तुम इन दोनोंपर यथेच्छ प्रहार करो । मैं तुमसे लड़नेकी इच्छा नहीं करती । ४७-४८.५ ॥
व्यासजी बोले-भगवतीके इस प्रकार कहनेपर कालरूपिणी कालिका कालसे प्रेरित होकर बड़ी तेजीसे तत्काल गदा उठाकर सावधानीपूर्वक रणमें खड़ी हो गयीं । इसके बाद सभी देवताओं, मुनियों और महात्माओंके देखते-देखते उन दोनोंमें अतीव भीषण युद्ध प्रारम्भ हो गया । ५०-५१.५ ॥
शुम्भने अपनी गदा लेकर उससे कालिकापर प्रहार किया । भगवती कालिका भी अपनी गदासे दैत्यराज शुम्भपर तेज प्रहार करने लगीं । भयानक स्वरवाली चण्डीने गदासे उस दैत्यके सुवर्णमय चमकीले रथको चूर-चूर कर डाला और [शुम्भका रथ खींचनेवाले] गदहोंको मारकर उसके सारथिको भी मार डाला ॥ ५२-५३.५ ॥
इसके बाद वह शुम्भ कुपित होकर कालिकापर पैरसे प्रहार करनेके लिये शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ा । तभी कालिकाने अपनी तलवारसे तुरंत उसके दोनों पैर भी काट डाले ॥ ५८.५ ॥
उसे आते देखकर कालिकाने उसके कमलसदृश मस्तकको काट दिया, जिससे उसके कण्ठसे रक्तकी अजस्त्र धारा बहने लगी । मस्तक कट जानेपर पर्वततुल्य वह शुम्भ जमीनपर गिर पड़ा और उसके प्राण शरीरसे निकलकर तत्काल प्रयाण कर गये ॥ ६०-६१.५ ॥
सुखदायक पवन बहने लगा तथा सभी दिशाएँ अत्यन्त निर्मल हो गयीं । हवन करते समय [शुभ सूचनाके रूपमें] अग्निकी पवित्र ज्वालाएँ दाहिनी ओरसे उठने लगीं ॥ ६३.५ ॥
हतशेषाश्च ये दैत्याः प्रणम्य जगदम्बिकाम् ॥ ६४ ॥ त्यक्त्वाऽऽयुधानि ते सर्वे पातालं प्रययुर्नृप ।
हे राजन् ! जो दानव मरनेसे बच गये थे, वे सभी जगदम्बिकाको प्रणाम करके अपने-अपने आयुध त्यागकर पाताल चले गये ॥ ६४.५ ॥
एतत्ते सर्वमाख्यातं देव्याश्चरितमुत्तमम् ॥ ६५ ॥ शुम्भादीनां वधं चैव सुराणां रक्षणं तथा । एतदाख्यानकं सर्वं पठन्ति भुवि मानवाः ॥ ६६ ॥ शृण्वन्ति च सदा भक्त्या ते कृतार्था भवन्ति हि । अपुत्रो लभते पुत्रान्निर्धनश्च धनं बहु ॥ ६७ ॥ रोगी च मुच्यते रोगात्सर्वान्कामानवाप्नुयात् । शत्रुतो न भयं तस्य य इदं चरितं शुभम् । शृणोति पठते नित्यं मुक्तिमाञ्जायते नरः ॥ ६८ ॥
देवीका उत्तम चरित्र, शुम्भ आदि दैत्योंका वध तथा देवताओंकी रक्षा-इन सबका वर्णन आपसे कर दिया । पृथ्वीपर रहनेवाले जो मनुष्य इस समस्त आख्यानका भक्तिभावसे निरन्तर पठन तथा श्रवण करते हैं, वे निश्चितरूपसे कृतार्थ हो जाते हैं । पुत्रहीनको पुत्र प्राप्त होते हैं, निर्धनको विपुल सम्पदा सुलभ हो जाती है तथा रोगी रोगसे मुक्त हो जाता है । वह सभी वांछित फल प्राप्त कर लेता है और उसे शत्रुओंसे किसी प्रकारका भय नहीं रह जाता है । जो मनुष्य इस पवित्र आख्यानका नित्य पठन तथा श्रवण करता है, वह अन्तमें मोक्षका भागी हो जाता है ॥ ६५-६८ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे शुम्भवधो नामेकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥