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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
पञ्चमः स्कन्धः
एकत्रिंशोऽध्यायः

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शुम्भवधः -
शुम्भका रणभूमिमें आना और देवीसे वार्तालाप करना, भगवती कालिकाद्वारा उसका वध, देवीके इस उत्तम चरित्रके पठन और श्रवणका फल -


व्यास उवाच
इति तेषां वचः श्रुत्वा शुम्भो दैत्यपतिस्तथा ।
उवाच सैनिकानाशु कोपाकुलितलोचनः ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-उन सैनिकोंका यह वचन सुनकर क्रोधसे आकुलित नेत्रोंवाले दानवराज शुम्भने उनसे तुरन्त कहा ॥ १ ॥

शुम्भ उवाच
जाल्माः किं श्रूत दुर्वाच्यं कृत्वा जीवितुमुत्सहे ।
निहत्य सचिवान्भ्रातॄन्निर्लज्जो विचरामि किम् ॥ २ ॥
शुम्भ बोला-हे मूर्यो ! तुम सब खोटी बात क्यों बोल रहे हो ? तुम्हारे वचनोंको मानकर मैं भला अपने जीवनकी रक्षा क्यों करूँ ? क्या अपने सचिवों तथा भाई-बन्धुओंका वध कराकर मैं निर्लज्ज बनकर विचरण करूँ ? ॥ २ ॥

कालः कर्ता शुभानां वाशुभानां बलवत्तरः ।
का चिन्ता मम दुर्वारे तस्मिन्नीशेऽप्यरूपके ॥ ३ ॥
प्राणियोंके शुभ अथवा अशुभका कर्ता जब एकमात्र वही अति बलवान् काल है तो मुझे चिन्ता क्या ? क्योंकि परोक्षरूपसे सबपर शासन करनेवाला वह काल टाला नहीं जा सकता ॥ ३ ॥

यद्‌भवति तद्‌भवतु यत्करोति करोतु तत् ।
न मे चिन्तास्ति कुत्रापि मरणाज्जीवनात्तथा ॥ ४ ॥
जो हो रहा है, वह होता रहे तथा काल जो कुछ भी कर रहा है, उसे करता रहे; अब तो मुझे जीवन तथा मृत्युके विषयमें किसी भी प्रकारको चिन्ता नहीं है ॥ ४ ॥

स कालोऽप्यन्यथाकर्तुं भावितो नेशते क्वचित् ।
न वर्षति च पर्जन्यः श्रावणे मासि सर्वथा ॥ ५ ॥
कदाचिन्मार्गशीर्षे वा पौषे माघेऽथ फाल्गुने ।
अकाले वर्षतीवाशु तस्मान्मुख्यो न चास्त्वयम् ॥ ६ ॥
वह काल भी भवितव्यताको मिटा सकनेमें समर्थ नहीं है । ऐसा भी होता है कि सावनके महीनेमें मेघ सदा नहीं बरसते; अपितु कभी-कभी अगहन, पौष, माघ तथा फाल्गुनमें असमय ही तेज वृष्टि होने लगती है । अतएव [समस्त कार्योंमें] काल ही प्रधान नहीं है ॥ ५-६ ॥

कालो निमित्तमात्रं तु दैवं हि बलवत्तरम् ।
दैवेन निर्मितं सर्वं नान्यथा भवतीत्यदः ॥ ७
काल तो निमित्तमात्र है, अपितु [इसकी तुलनामें] दैव अधिक बलवान् है । सब कुछ दैवनिर्मित है; इसके विपरीत कुछ नहीं होता । ७ ॥

दैवमेव परं मन्ये धिक्पौरुषमनर्थकम् ।
जेता यः सर्वदेवानां निशुम्भोऽप्यनया हतः ॥ ८
मैं तो दैवको ही प्रधान मानता हूँ । अनर्थकारी पुरुषार्थको धिक्कार है । क्योंकि जिस निशुम्भने सभी देवताओंपर विजय प्राप्त कर ली थी, उसे इस स्त्रीने मार डाला ॥ ८ ॥

रक्तबीजो महाशूरः सोऽपि नाशं गतो यदा ।
तदाहं कीर्तिमुत्सृज्य जीविताशां करोमि किम् ॥ ९ ॥
जब महान् शूरवीर रक्तबीज भी विनाशको प्राप्त हो गया, तब अपनी कीर्तिको कलंकित करके मैं ही जीवनकी आशा क्यों करूँ ? ॥ ९ ॥

प्राप्ते काले स्वयं ब्रह्मा परार्धद्वयसम्मिते ।
निधनं याति तरसा जगत्कर्ता स्वयं प्रभुः ॥ १० ॥
जगत्के रचयिता सर्वसमर्थ स्वयं ब्रह्मा भी दो परार्धका समय बीत जानेपर तत्क्षण ही निधनको प्राप्त हो जाते हैं ॥ १० ॥

चतुर्युगसहस्रं तु ब्रह्मणो दिवसे किल ।
पतन्ति भवनात्पञ्च नव चेन्द्रास्तथा पुनः ॥ ११ ॥
ब्रह्माजीके एक दिनमें एक हजार चतुर्युग समाप्त हो जाते हैं और इतनी ही अवधिमें चौदह इन्द्रोंका स्वर्गसे पतन हो चुकता है ॥ ११ ॥

तथैव द्विगुणे विष्णुर्मरणायोपकल्पते ।
तथैव द्विगुणे काले शङ्करः शान्तिमेति च ॥ १२ ॥
इसी प्रकार [ब्रह्माजीके जीवनकालका] दुगुना समय बीतनेपर विष्णुका अन्त हो जाता है तथा इससे भी दूने समयके पश्चात् शंकर भी समाप्त हो जाते हैं ॥ १२ ॥

का चिन्ता मरणे मूढा निश्चले दैवनिर्मिते ।
मही महीधराणाञ्च नाशः सूर्यशशाङ्कयोः ॥ १३ ॥
इसी प्रकार पृथ्वी, पर्वत, सूर्य तथा चन्द्रमा आदिका भी विनाश हो जाता है, तब हे मूखों ! दैवकी बनायी हुई इस अटल मृत्युके विषयमें क्या चिन्ता है ? ॥ १३ ॥

जातस्य हि ध्रुवं मृत्युर्धुवं जन्म मृतस्य च ।
अध्रुवेऽस्मिञ्छरीरे तु रक्षणीयं यशः स्थिरम् ॥ १४ ॥
जन्म लेनेवालेकी मृत्यु निश्चित है तथा मरनेवालेका जन्म निश्चित है । अतः इस अनित्य शरीरके द्वारा अपनी स्थिर कीर्तिकी रक्षा करनी चाहिये ॥ १४ ॥

रथो मे कल्प्यतां शीघ्रं गमिष्यामि रणाजिरे ।
जयो वा मरणं वापि भवत्वद्यैव दैवतः ॥ १५ ॥
शीघ्रतापूर्वक मेरा रथ तैयार करो । मैं समरांगणमें जाऊँगा । विजय अथवा मरण प्रारब्धानुसार जो भी होनेवाला हो, वह आज ही हो जाय ॥ १५ ॥

इत्युक्त्वा सैनिकाञ्छुम्भो रथमास्थाय सत्वरः ।
प्रययावम्बिका यत्र संस्थिता तु हिमाचले ॥ १६ ॥
सैनिकोंसे ऐसा कहकर वह शुम्भ तुरंत रथपर सवार होकर हिमालयकी ओर चल दिया, जहाँ भगवती विराजमान थीं ॥ १६ ॥

सैन्यं प्रचलितं तस्य सङ्गे तत्र चतुर्विधम् ।
हस्त्यश्वरथपादातिसंयुतं सायुधं बहु ॥ १७ ॥
उस समय हाथी, घोड़े, रथ तथा पैदल चलनेवालोंसे सुसज्जित एवं नानाविध आयुधोंसे युक्त विशाल चतुरंगिणी सेना भी उसके साथ चल पड़ी ॥ १७ ॥

तत्र गत्वाचले शुम्भः संस्थितां जगदम्बिकाम् ।
त्रैलोक्यमोहिनीं कान्तामपश्यत्सिंहवाहिनीम् ॥ १८ ॥
सर्वाभरणभूषाढ्यां सर्वलक्षणसंवृताम् ।
स्तूयमानां सुरैः खस्थैर्गन्धर्वयक्षकिन्नरैः ॥ १९ ॥
पुष्पैश्च पूज्यमानाञ्च मन्दारपादपोद्‌भवैः ।
कुर्वाणां शङ्खनिनदं घण्टानादं मनोहरम् ॥ २० ॥
उस पर्वतपर पहुँचकर शुम्भने त्रिभुवनको मोहित करनेवाली परम सुन्दरी सिंहवाहिनी भगवती जगदम्बिकाको वहाँ विराजमान देखा । वे सभी प्रकारके आभूषणोंसे अलंकृत थीं तथा सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न थीं; देवता, यक्ष तथा किन्नर आकाशमें स्थित होकर उनकी स्तुति कर रहे थे तथा मन्दारवृक्षके पुष्पोंसे पूजा कर रहे थे और वे मनोहर शंखध्वनि तथा घंटानाद कर रही थीं ॥ १८-२० ॥

दृष्ट्वा तां मोहमगमच्छुम्भः कामविमोहितः ।
पञ्चबाणाहतः कामं मनसा समचिन्तयत् ॥ २१ ॥
उन्हें देखकर शुम्भ मोहित हो गया । कामबाणसे आहत वह शुम्भ कामासक्त होकर मन-ही-मन सोचने लगा- ॥ २१ ॥

अहो रूपमिदं सम्यगहो चातुर्यमद्‍भुतम् ।
सौकुमार्यञ्ज धैर्यञ्च परस्परविरोधि यत् ॥ २२ ॥
अहो, इसका ऐसा आकर्षक रूप तथा ऐसा अद्भुत चातुर्य है । सुकुमारता तथा धीरता-ये दोनों परस्पर विरोधीभाव इसमें एक साथ विद्यमान हैं ! ॥ २२ ॥

सुकुमारातितन्वङ्गी सद्यः प्रकटयौवना ।
चित्रमेतदसौ बाला कामभावविवर्जिता ॥ २३ ॥
अत्यन्त कृश शरीरवाली इस सुकुमारीमें अभीअभी यौवन प्रस्फुटित हुआ है, किंतु आश्चर्य है कि यह रमणी कामभावनासे रहित है ॥ २३ ॥

कामकान्तासमा रूपे सर्वलक्षणलक्षिता ।
अम्बिकेयं किमेतत्तु हन्ति सर्वान्महाबलान् ॥ २४ ॥
रूपमें कामदेवकी पत्नी रतिके समान सुन्दर तथा सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न यह स्त्री कहीं अम्बिका ही तो नहीं, जो सभी महाबली दानवोंका संहार कर रही है ॥ २४ ॥

उपायः कोऽत्र कर्तव्यो येन मे वशगा भवेत् ।
न मन्त्रा वा मरालाक्षीसाधने सन्निधौ मम ॥ २५ ॥
इस अवसरपर मैं कौन-सा उपाय करूँ, जिससे यह मेरी वशवर्तिनी हो जाय ? इस हंस-सदृश नेत्रोंवालीको वशमें करनेहेतु मेरे पास कोई मन्त्र भी नहीं है ॥ २५ ॥

सर्वमन्त्रमयी ह्येषा मोहिनी मदगर्विता ।
सुन्दरीयं कथं मे स्याद्वशगा वरवर्णिनी ॥ २६ ॥
सर्वमन्त्रमयी, सबको मोहित करनेवाली, अभिमानमें मत्त रहनेवाली तथा उत्तम लक्षणोंवाली यह सुन्दरी किस प्रकार मेरे वशमें होगी ? ॥ २६ ॥

पातालगमनं मेऽद्य न युक्तं समराङ्गणात् ।
सामदानविभेदैश्च नेयं साध्या महाबला ॥ २७ ॥
अब युद्धभूमि छोड़कर पाताललोक जाना भी मेरे लिये उचित नहीं है । साम, दान तथा भेद आदि उपायोंसे भी यह महाबलशालिनी वशमें नहीं की जा सकती ॥ २७ ॥

किं कर्तव्यं च गन्तव्यं विषमे समुपस्थिते ।
मरणं नोत्तमं चात्र स्त्रीकृतं तु यशोऽपहृत् ॥ २८ ॥
इस विषम परिस्थितिके आ जानेपर अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ ? स्त्रीके हाथों मर जाना भी उचित नहीं है; क्योंकि ऐसी मृत्यु यशको नष्ट करनेवाली होती है ॥ २८ ॥

मरणमृषिभिः प्रोक्तं सङ्गरे मङ्गलास्पदम् ।
यत्तत्समानबलयोर्योधयोर्युध्यतोः किल ॥ २९ ॥
ऋषियोंने उस मृत्युको श्रेयस्कर कहा है, जो समरभूमिमें समान बलवाले योद्धाओंके साथ लड़तेलड़ते प्राप्त हो ॥ २९ ॥

प्राप्तेयं दैवरचिता नारी नरशतोत्तमा ।
नाशायास्मत्कुलस्येह सर्वथातिबलाबला ॥ ३० ॥
सैकड़ों वीरोंसे श्रेष्ठ, महाबलशालिनी तथा दैव-विरचित यह नारी मेरे कुलके पूर्ण विनाशके लिये यहाँ उपस्थित हुई है ॥ ३० ॥

वृथा किं सामवाक्यानि मया योज्यानि साम्प्रतम् ।
हननायागता ह्येषा किं नु साम्ना प्रसीदति ॥ ३१ ॥
न दानैश्चालितुं योग्या नानाशस्त्रविभूषिता ।
भेदस्तु विफलः कामं सर्वदेववशानुगा ॥ ३२ ॥
मैं इस समय सामनीतिसे युक्त वचनोंका प्रयोग व्यर्थ में क्यों करूँ ? क्योंकि यह तो संहारके लिये आयी हुई है, तो फिर सामवचनोंसे यह कैसे प्रसन्न हो सकती है ? अनेक प्रकारके शस्त्रोंसे विभूषित होनेके कारण दान आदिके प्रलोभनोंसे भी यह विचलित नहीं की जा सकती । भेदनीति भी निष्फल सिद्ध होगी; क्योंकि सभी देवता इसके वशमें हैं ॥ ३१-३२ ॥

तस्मात्तु मरणं श्रेयो न संग्रामे पलायनम् ।
जयो वा मरणं वाद्य भवत्वेव यथाविधि ॥ ३३ ॥
अतएव संग्राममें मर जाना श्रेयस्कर है, किंतु पलायन करना ठीक नहीं है । अब तो प्रारब्धके अनुसार विजय अथवा मृत्यु जो भी होना हो, वह हो ॥ ३३ ॥

व्यास उवाच
इति सञ्चिन्त्य मनसा शुम्भः सत्त्वाश्रितोऽभवत् ।
युद्धाय सुस्थिरो भूत्वा तामुवाच पुरःस्थिताम् ॥ ३४ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार अपने मनमें विचार करके शुम्भने धैर्यका सहारा लिया । अब युद्धके लिये दृढ़ निश्चय करके उसने अपने सामने खड़ी भगवतीसे कहा ॥ ३४ ॥

देवि युध्यस्व कान्तेऽद्य मृथायं ते परिश्रमः ।
मूर्खासि किल नारीणां नायं धर्मः कदाचन ॥ ३५ ॥
हे देवि ! युद्ध करो, किंतु हे प्रिये ! इस समय तुम्हारा यह परिश्रम व्यर्थ है । तुम मूर्ख हो; क्योंकि युद्ध करना स्त्रियोंका धर्म कदापि नहीं है । ॥ ३५ ॥

नारीणां लोचने बाणा भ्रुवावेव शरासनम् ।
हावभावास्तु शस्त्राणि पुमाँल्लक्ष्यं विचक्षणः ॥ ३६ ॥
स्त्रियोंके नेत्र ही बाण हैं, उनकी भौंहें ही धनुष हैं, उनके हाव-भाव ही शस्त्र हैं और रसज्ञ पुरुष उनका लक्ष्य है ॥ ३६ ॥

सन्नाहश्चाङ्गरागोऽत्र रथश्चापि मनोरथः ।
मन्दप्रजल्पितं भेरीशब्दो नान्यः कदाचन ॥ ३७ ॥
अंगराग (शीतल चन्दन आदि) ही उनका कवच है, मनोकामना रथ है तथा धीरे-धीरे मधुर वाणीमें बोलना भेरी-ध्वनि है । अतएव स्त्रियोंके लिये अन्य शस्त्रोंकी कोई आवश्यकता नहीं रहती ॥ ३७ ॥

अन्यास्त्रधारणं स्त्रीणां विडम्बनमसंशयम् ।
लज्जैव भूषणं कान्ते न च धार्ष्ट्यं कदाचन ॥ ३८ ॥
यदि स्त्रियाँ इनके अतिरिक्त अन्य अस्त्र धारण करें तो यह निश्चितरूपसे उनके लिये विडम्बना ही है । हे प्रिये लजा ही नारियोंका आभूषण है, धृष्टता उन्हें कभी भी शोभा नहीं देती ॥ ३८ ॥

युध्यमाना वरा नारी कर्कशेवाभिदृश्यते ।
स्तनौ सङ्गोपनीयौ वा धनुषः कर्षणे कथम् ॥ ३९ ॥
युद्ध करती हुई उत्तम नारी भी कर्कशाके सदृश दिखायी देती है । धनुष खींचते समय कोई स्त्री अपने दोनों स्तनोंको छिपानेमें कैसे सफल हो सकती है ? ॥ ३९ ॥

क्व मन्दगमनं कुत्र गदामादाय धावनम् ।
बुद्धिदा कालिका तेऽत्र चामुण्डा परनायिका ॥ ४० ॥
चण्डिका मन्त्रमध्यस्था लालनेऽसुस्वरा शिवा ।
वाहनं मृगराडास्ते सर्वसत्त्वभयङ्करः ॥ ४१ ॥
कहाँ नारियोंकी मन्धरगति और कहाँ युद्धमें गदा लेकर दौड़ना । इस समय यह कालिका तथा दूसरी स्त्री चामुण्डा ही तुम्हें बुद्धि देनेवाली हैं । मध्यस्थ होकर चण्डिका मन्त्रणा देती है, कर्कश स्वरवाली शिवा तुम्हारी शुश्रूषामें रहती है और सभी प्राणियोंमें भयंकर सिंह तुम्हारा वाहन है ॥ ४०-४१ ॥

वीणानादं परित्यज्य घण्टानादं करोषि यत् ।
रूपयौवनयोः सर्वं विरोधि वरवर्णिनि ॥ ४२ ॥
हे सुन्दरि ! वीणा-वादन छोड़कर तुम यह जो घंटा-नाद कर रही हो, वह सब तुम्हारे रूप तथा यौवनके सर्वथा विपरीत है ॥ ४२ ॥

यदि ते सङ्गरेच्छास्ति कुरूपा भव भामिनि ।
लम्बोष्ठी कुनखी क्रूरा ध्वांक्षवर्णा विलोचना ॥ ४३ ॥
लम्बपादा कुदन्ती च मार्जारनयनाकृतिः ।
ईदृशं रूपमास्थाय तिष्ठ युद्धे स्थिरा भव ॥ ४४ ॥
कर्कशं वचनं ब्रूहि ततो युद्धं करोम्यहम् ।
ईदृशीं सुदतीं दृष्ट्वा न मे पाणिः प्रसीदति ॥ ४५ ॥
हन्तुं त्वां मृगशावाक्षि कामकान्तोपमे मृधे ।
हे भामिनि ! यदि युद्ध करना ही तुम्हें अभीष्ट है तो तुम सर्वप्रथम लम्बे ओठोंवाली, विचित्र नखोंवाली, क्रूर स्वभाववाली, कौए-जैसे वर्णवाली, विकृत आँखोंवाली, लम्बे पैरोंवाली, भयंकर दाँतोंवाली और बिल्लीसदृश नेत्रोंवाली कुरूप स्त्री बन जाओ । ऐसा ही विकराल रूप धारण करके तुम युद्धभूमिमें स्थिरतापूर्वक खड़ी हो जाओ और कर्कश वचन बोलो, तभी मैं तुम्हारे साथ युद्ध करूँगा; क्योंकि हे मृगशावक-सदृश नेत्रोंवाली ! हे रतितुल्य सुन्दरि ! सुन्दर दाँतोंवाली ऐसी रमणीको देखकर तुम्हें युद्ध में मारनेके लिये मेरा हाथ नहीं उठ पा रहा है ॥ ४३-४५.५ ॥

व्यास उवाच
इति ब्रुवाणं कामार्तं वीक्ष्य तं जगदम्बिका ॥ ४६ ॥
स्मितपूर्वमिदं वाक्यमुवाच भरतोत्तम ।
व्यासजी बोले-हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ जनमेजय ! उस कामातुर शुम्भको ऐसा बोलते हुए देखकर भगवती जगदम्बा मुसकराकर यह वचन कहने लगीं- ॥ ४६.५ ॥

देव्युवाच
किं विषीदसि मन्दात्मन् कामबाणविमोहितः ॥ ४७ ॥
प्रेक्षिकाहं स्थिता मूढ कुरु कालिकया मृधम् ।
चामुण्डया वा कुर्वेते तव योग्ये रणाङ्गणे ॥ ४८ ॥
प्रहरस्व यथाकामं नाहं त्वां योद्धमुत्सहे ।
देवी बोलीं-हे मन्दबुद्धि ! कामबाणसे विमोहित होकर तुम इस प्रकार विषाद क्यों कर रहे हो ? हे मूढ ! तुम पहले कालिका अथवा चामुण्डाके साथ ही युद्ध कर लो । ये दोनों देवियाँ ही समरांगणमें तुम्हारे साथ युद्ध करनेमें पूर्ण समर्थ हैं । मैं तो केवल दर्शक बनकर खड़ी हूँ । तुम इन दोनोंपर यथेच्छ प्रहार करो । मैं तुमसे लड़नेकी इच्छा नहीं करती । ४७-४८.५ ॥

इत्युक्त्वा कालिकां प्राह देवी मधुरया गिरा ॥ ४९ ॥
जह्येनं कालिके क्रूरे कुरूपप्रियमाहवे ।
शुम्भसे ऐसा कहकर भगवतीने मधुर वाणीमें कालिकासे कहा-हे क्रूर कालिके ! कुरूपाके साथ लड़नेकी इच्छावाले इस दानवको तुम युद्धमें मार डालो ॥ ४९.५ ॥

व्यास उवाच
इत्युक्ता कालिका कालप्रेरिता कालरूपिणी ॥ ५० ॥
गदां प्रगृह्य तरसा तस्थावाजौ कृतोद्यमा ।
तयोः परस्परं युद्धं बभूवातिभयानकम् ॥ ५१ ॥
पश्यतां सर्वदेवानां मुनीनाञ्च महात्मनाम् ।
व्यासजी बोले-भगवतीके इस प्रकार कहनेपर कालरूपिणी कालिका कालसे प्रेरित होकर बड़ी तेजीसे तत्काल गदा उठाकर सावधानीपूर्वक रणमें खड़ी हो गयीं । इसके बाद सभी देवताओं, मुनियों और महात्माओंके देखते-देखते उन दोनोंमें अतीव भीषण युद्ध प्रारम्भ हो गया । ५०-५१.५ ॥

गदामुद्यम्य शुम्भोऽथ जघान कालिकां रणे ॥ ५२ ॥
कालिका दैत्यराजानं गदया न्यहनद्‌ भृशम् ।
बभंजास्य रथं चण्डी गदया कनकोज्ज्वलम् ॥ ५३ ॥
खरान्हत्वा जघानाशु दारुकं दारुणस्वना ।
शुम्भने अपनी गदा लेकर उससे कालिकापर प्रहार किया । भगवती कालिका भी अपनी गदासे दैत्यराज शुम्भपर तेज प्रहार करने लगीं । भयानक स्वरवाली चण्डीने गदासे उस दैत्यके सुवर्णमय चमकीले रथको चूर-चूर कर डाला और [शुम्भका रथ खींचनेवाले] गदहोंको मारकर उसके सारथिको भी मार डाला ॥ ५२-५३.५ ॥

स पदातिर्गदां गुर्वीं समादाय क्रुधान्वितः ॥ ५४ ॥
कालिकाभुजयोर्मध्ये प्रहसन्नहनत्तदा ।
अब क्रोधमें भरे हुए शुम्भने अपनी विशाल गदा लेकर अट्टहास करते हुए पैदल ही पहुँचकर कालिकाकी दोनों भुजाओंके मध्यभाग (वक्षःस्थल)पर प्रहार किया ॥ ५४.५ ॥

वञ्चयित्वा गदाघातं खड्गमादाय सत्वरा ॥ ५५ ॥
चिच्छेदास्य भुजं सव्यं सायुधं चन्दनार्चितम् ।
तब कालिकाने उसके गदा-प्रहारको निष्फल करके शीघ्रतापूर्वक तलवार उठाकर शुम्भके चन्दनचर्चित तथा आयुधयुक्त बायें हाथको काट दिया ॥ ५५.५ ॥

स छिन्नबाहुर्विरथो गदापाणिः परिप्लुतः ॥ ५६ ॥
अचिरेण समागम्य कालिकामहनत्तदा ।
हाथ कट जाने तथा रथविहीन होनेके बावजूद भी रक्तसे लथपथ वह शुम्भ हाथमें गदा लिये हुए शीघ्रतापूर्वक कालिकाके पास पहुँचकर उनके ऊपर प्रहार करने लगा ॥ ५६.५ ॥

काली च करवालेन भुजं तस्याथ दक्षिणम् ॥ ५७ ॥
चिच्छेद प्रहसन्ती सा सगदं किल साङ्गदम् ।
तब कालीने अपने करवाल (तलवार) से उसके गदायुक्त तथा बाजूबन्दसे सुशोभित दाहिने हाथको हँसते-हँसते काट डाला ॥ ५७.५ ॥

कर्तुं पादप्रहारं स कुपितः प्रययौ जवात् ॥ ५८ ॥
काली चिच्छेद चरणौ खड्गेनास्य त्वरान्विता ।
इसके बाद वह शुम्भ कुपित होकर कालिकापर पैरसे प्रहार करनेके लिये शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ा । तभी कालिकाने अपनी तलवारसे तुरंत उसके दोनों पैर भी काट डाले ॥ ५८.५ ॥

सच्छिन्नकरपादोऽपि तिष्ठ तिष्ठेति च ब्रुवन् ॥ ५९ ॥
धावमानो ययावाशु कालिकां भीषयन्निव ।
हाथ-पैर कट जानेपर भी 'ठहरो-ठहरो' ऐसा कहता हुआ वह शुम्भ कालिकाको भयभीत करते हुए वेगपूर्वक दौड़ता हुआ उनकी ओर बढ़ा ॥ ५९.५ ॥

तमागच्छन्तमालोक्य कालिका कमलोपमम् ॥ ६० ॥
चकर्त मस्तकं कण्ठाद्‌रुधिरौघवहं भृशम् ।
छिन्नेऽसौ मस्तके भूमौ पपात गिरिसन्निभः ॥ ६१ ॥
प्राणा विनिर्ययुस्तस्य देहादुत्क्रम्य सत्वरम् ।
उसे आते देखकर कालिकाने उसके कमलसदृश मस्तकको काट दिया, जिससे उसके कण्ठसे रक्तकी अजस्त्र धारा बहने लगी । मस्तक कट जानेपर पर्वततुल्य वह शुम्भ जमीनपर गिर पड़ा और उसके प्राण शरीरसे निकलकर तत्काल प्रयाण कर गये ॥ ६०-६१.५ ॥

गतासुं पतितं दैत्यं दृष्ट्वा देवाः सवासवाः ॥ ६२ ॥
तुष्टुवुस्तां तदा देवीं चामुण्डां कालिकां तथा ।
दैत्य शुम्भको इस प्रकार प्राणविहीन होकर गिरा हुआ देखकर इन्द्रसहित सभी देवता भगवती चामुण्डा तथा कालिकाकी स्तुति करने लगे ॥ ६२.५ ॥

ववुर्वाताः शिवास्तत्र दिशश्च विमला भृशम् ॥ ६३ ॥
बभूवुश्चाग्नयो होमे प्रदक्षिणशिखाः शुभाः ।
सुखदायक पवन बहने लगा तथा सभी दिशाएँ अत्यन्त निर्मल हो गयीं । हवन करते समय [शुभ सूचनाके रूपमें] अग्निकी पवित्र ज्वालाएँ दाहिनी ओरसे उठने लगीं ॥ ६३.५ ॥

हतशेषाश्च ये दैत्याः प्रणम्य जगदम्बिकाम् ॥ ६४ ॥
त्यक्त्वाऽऽयुधानि ते सर्वे पातालं प्रययुर्नृप ।
हे राजन् ! जो दानव मरनेसे बच गये थे, वे सभी जगदम्बिकाको प्रणाम करके अपने-अपने आयुध त्यागकर पाताल चले गये ॥ ६४.५ ॥

एतत्ते सर्वमाख्यातं देव्याश्चरितमुत्तमम् ॥ ६५ ॥
शुम्भादीनां वधं चैव सुराणां रक्षणं तथा ।
एतदाख्यानकं सर्वं पठन्ति भुवि मानवाः ॥ ६६ ॥
शृण्वन्ति च सदा भक्त्या ते कृतार्था भवन्ति हि ।
अपुत्रो लभते पुत्रान्निर्धनश्च धनं बहु ॥ ६७ ॥
रोगी च मुच्यते रोगात्सर्वान्कामानवाप्नुयात् ।
शत्रुतो न भयं तस्य य इदं चरितं शुभम् ।
शृणोति पठते नित्यं मुक्तिमाञ्जायते नरः ॥ ६८ ॥
देवीका उत्तम चरित्र, शुम्भ आदि दैत्योंका वध तथा देवताओंकी रक्षा-इन सबका वर्णन आपसे कर दिया । पृथ्वीपर रहनेवाले जो मनुष्य इस समस्त आख्यानका भक्तिभावसे निरन्तर पठन तथा श्रवण करते हैं, वे निश्चितरूपसे कृतार्थ हो जाते हैं । पुत्रहीनको पुत्र प्राप्त होते हैं, निर्धनको विपुल सम्पदा सुलभ हो जाती है तथा रोगी रोगसे मुक्त हो जाता है । वह सभी वांछित फल प्राप्त कर लेता है और उसे शत्रुओंसे किसी प्रकारका भय नहीं रह जाता है । जो मनुष्य इस पवित्र आख्यानका नित्य पठन तथा श्रवण करता है, वह अन्तमें मोक्षका भागी हो जाता है ॥ ६५-६८ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां पञ्चमस्कन्धे
शुम्भवधो नामेकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥
अध्याय एकतीसवाँ समाप्त ॥ ३१ ॥


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