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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
पञ्चमः स्कन्धः
द्वात्रिंशोऽध्यायः

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सुरथराजसमाधिवैश्ययोर्मुनिसमीपे गमनम् -
देवीमाहात्म्यके प्रसंगमें राजा सुरथ और समाधि वैश्यकी कथा -


जनमेजय उवाच
महिमा वर्णितः सम्यक्चण्डिकायास्त्वया मुने ।
केन चाराधिता पूर्वं चरित्रत्रययोगतः ॥ १ ॥
जनमेजय बोले-हे मुने ! आपने भगवती चण्डिकाकी महिमाका भलीभाँति वर्णन किया । अब आप यह बतानेकी कृपा करें कि तीन चरित्रोंका प्रयोग करके पहले किसने भगवतीकी आराधना की थी ? ॥ १ ॥

प्रसन्ना कस्य वरदा केन प्राप्तं फलं महत् ।
आराध्य कामदां देवीं कथयस्व कृपानिधे ॥ २ ॥
वे वरदायिनी भगवती किसके ऊपर प्रसन्न हुई ? सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाली देवीकी उपासना करके किसने महान् फल प्राप्त किया ? हे कृपानिधान ! यह सब बताइये ॥ २ ॥

उपासनाविधिं ब्रह्मंस्तथा पूजाविधिं वद ।
विस्तरेण महाभाग होमस्य च विधिं पुनः ॥ ३ ॥
हे ब्रह्मन् ! हे महाभाग ! जगदम्बाकी उपासनाविधि, पूजाविधि तथा हवनविधिका भी विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये ॥ ३ ॥

सूत उवाच
इति भूपवचः श्रुत्वा प्रीतः सत्यवतीसुतः ।
प्रत्युवाच नृपं कृष्णो महामायाप्रपूजनम् ॥ ४ ॥
सतजी बोले-राजाकी यह बात सुनकर सत्यवतीनन्दन कृष्णद्वैपायन प्रसन्न होकर उन्हें महामाया भगवतीका पूजन-विधान बताने लगे ॥ ४ ॥

व्यास उवाच
स्वारोचिषेऽन्तरे पूर्वं सुरथो नाम पार्थिवः ।
बभूव परमोदारः प्रजापालनतत्परः ॥ ५ ॥
सत्यवादी कर्मपरो ब्राह्मणानाञ्च पूजकः ।
गुरुभक्तिरतो नित्यं स्वदारगमने रतः ॥ ६ ॥
ब्यासजी बोले- पूर्वकालमें स्वारोचिष मन्वन्तरमें सुरथ नामक एक राजा हुए; जो परम उदार, प्रजापालनमें तत्पर, सत्यवादी, कर्मनिष्ठ, ब्राह्मणोंके उपासक, गुरुजनोंके प्रति भक्ति रखनेवाले, सदा अपनी ही भार्यामें अनुरक्त, दानशील, किसीके साथ विरोधभाव न रखनेवाले तथा धनुर्विद्यामें पूर्ण पारंगत थे ॥ ५-६ ॥

दानशीलोऽविरोधी च धनुर्वेदैकपारगः ।
एवं पालयतो राज्यं म्लेच्छाः पर्वतवासिनः ॥ ७ ॥
बलाच्छत्रुत्वमापन्नाः सैन्यं कृत्वा चतुर्विधम् ।
हस्त्यश्वरथपादातिसहितास्ते मदोत्कटाः ॥ ८ ॥
कोलाविध्वंसिनः प्राप्ताः पृथ्वीग्रहणतत्पराः ।
सुरथः सैन्यमादाय सम्मुखः समपद्यत ॥ ९ ॥
इस प्रकार प्रजापालनमें तत्पर रहनेवाले राजा सुरथमे कुछ पर्वतवासी म्लेच्छोंने अनायास ही शत्रुता ठान ली । हाथी, घोड़े, रथ तथा पैदल सैनिकोंसे सुसज्जित चतुरंगिणी सेना लेकर अभिमानमें चूर वे कोलाविध्वंसी सुरथके राज्यपर अधिकार करनेकी लालसासे वहाँ आ पहुँचे । सुरथ भी अपनी सेना लेकर सामने डट गये । उन महाभयंकर म्लेच्छोंके साथ राजा सुरथका भीषण युद्ध होने लगा । ७-९ ॥

युद्धं समभवद्‌घोरं तस्य तैरतिदारुणैः ।
म्लेच्छानां तु बलं स्वल्पं राज्ञस्द्‌बलमद्‌भुतम् ॥ १० ॥
तथापि तैर्जितो युद्धे दैवाद्‌राजा पराजितः ।
भग्नश्च स्वपुरं प्राप्तः सुरक्षं दुर्गमण्डितम् ॥ ११ ॥
यद्यपि म्लेच्छोंकी सेना बहुत थोड़ी थी तथा राजाकी सेना अत्यन्त विशाल थी, फिर भी दैवयोगसे उन्होंने राजा सुरथको युद्धमें जीत लिया । इस प्रकार उनसे पराजित हुए राजा सुरथ हताश होकर अपने दुर्गवेष्टित सुरक्षित नगरमें आ गये ॥ १०-११ ॥

चिन्तयामास मेधावी राजा नीतिविचक्षणः ।
प्रधानान्विमना दृष्ट्वा शत्रुपक्षसमाश्रितान् ॥ १२ ॥
स्थानं गृहीत्वा विपुलं परिखादुर्गमण्डितम् ।
कालप्रतीक्षा कर्तव्या किं वा युद्धं वरं मतम् ॥ १३ ॥
मन्त्रिणः शत्रुवशगा मन्त्रयोग्या न ते किल ।
किं करोमीति मनसा भूपतिः समचिन्तयत् ॥ १४ ॥
कदाचित्ते गहीत्वा मां पापाचाराः पराश्रिताः ।
शत्रुभ्योऽथ प्रदास्यन्ति तदा किं वा भविष्यति ॥ १५ ॥
पापबुद्धिषु विश्वासो न कर्तव्यः कदाचन ।
किन्न ते वै प्रकुर्वन्ति ये लोभवशगा नराः ॥ १६ ॥
भ्रातरं पितरं मित्रं सुहृदं बान्धवं तथा ।
गुरुं पूज्यं द्विजं द्वेष्टि लोभाविष्टः सदा नरः ॥ १७ ॥
तस्मान्मया न कर्तव्यो विश्वासः सर्वथाधुना ।
मन्त्रिवर्गेऽतिपापिष्ठे शत्रुपक्षसमाश्रिते ॥ १८ ॥
तत्पश्चात् प्रतिभासम्पन्न तथा नीतिविशारद राजा सुरथ अपने मन्त्रियोंको शत्रुपक्षके अधीन देखकर अत्यन्त खिन्नमनस्क होकर विचार करने लगे कि मैं खाई तथा किलेसे सुरक्षित किसी बड़े स्थानपर रहकर समयकी प्रतीक्षा करूँ अथवा मेरे लिये युद्ध करना उचित होगा । मेरे मन्त्री शत्रुके वशीभूत हो गये हैं, इसलिये वे अब परामर्श करनेयोग्य नहीं रह गये हैं, तो अब मैं क्या करूँ ? वे राजा सुरथ पुनः मन-हीमन विचार करने लगे । कदाचित् वे पापी तथा शत्रुके साथ मिले हुए मन्त्री मुझे पकड़कर शत्रुओंको सौंप देंगे, तब क्या होगा ? पापबुद्धि पुरुषोंपर कभी भी विश्वास नहीं करना चाहिये; क्योंकि जो मनुष्य लोभके वशीभूत होते हैं वे क्या-क्या नहीं कर बैठते ? लोभपरायण मनुष्य अपने भाई, पिता, मित्र, सुहद, बन्धु-बान्धव, पूजनीय गुरु तथा ब्राह्मणसे भी सदा द्वेष करता है । अतएव इस समय शत्रुपक्षके आश्रयको प्राप्त अत्यन्त पापपरायण अपने मन्त्रिसमुदायपर मुझे बिलकुल विश्वास नहीं करना चाहिये । १२-१८ ॥

इति सञ्चिन्त्य मनसा राजा परमदुर्मनाः ।
एकाकी हयमारुह्य निर्जगाम पुरात्ततः ॥ १९ ॥
इस प्रकार अपने मनमें भलीभाँति विचार करके अत्यन्त दुःखीचित्त राजा सुरथ घोड़ेपर आरूढ होकर अकेले ही उस नगरसे निकल पड़े ॥ १९ ॥

असहायोऽथ निर्गत्य गहनं वनमाश्रितः ।
चिन्तयामास मेधावी क्व गन्तव्यं मया पुनः ॥ २० ॥
वे बिना किसी सहायकको साथ लिये ही नगरसे बाहर निकलकर एक घने जंगलमें चले गये । प्रतिभासम्पन्न राजा सुरथ सोचने लगे कि अब मुझे कहाँ चलना चाहिये ? ॥ २० ॥

योजनत्रयमात्रे तु मुनेराश्रममुत्तमम् ।
ज्ञात्वा जगाम भूपालस्तापसस्य सुमेधसः ॥ २१ ॥
तपस्वी सुमेधाका पवित्र आश्रम यहाँसे मात्र तीन योजनकी दूरीपर है-यह जानकर राजा सुरथ वहाँ चले गये ॥ २१ ॥

बहुवृक्षसमायुक्तं नदीपुलिनसंश्रितम् ।
निर्वैरश्वापदाकीर्णं कोकिलारावमण्डितम् ॥ २२ ॥
शिष्याध्ययनशब्दाढ्यं मृगयूथशतावृतम् ।
नीवारान्नसुपक्वाढ्यं सुपुष्पफलपादपम् ॥ २३ ॥
होमधूमसुगन्धेन प्रीतिदं प्राणिनां सदा ।
वेदध्वनिसमाक्रान्तं स्वर्गादपि मनोहरम् ॥ २४ ॥
दृष्ट्वा तमाश्रमं राजा बभूवासौ मुदान्वितः ।
भयं त्यक्त्वा मतिं चक्रे विश्रामाय द्विजाश्रमे ॥ २५ ॥
बहुत प्रकारके वृक्षोंसे युक्त, नदीके तटपर विराजमान, वैरभावसे रहित होकर विचरण करनेवाले पशुओंसे समन्वित, कोयलोंकी मधुर ध्वनिसे मण्डित, अध्ययनरत शिष्योंके स्वरसे निनादित, सैकड़ों मृगसमूहोंसे घिरे हुए, भलीभाँति पके हुए नीवारान्नसे परिपूर्ण, सुन्दर फल-फूलसे लदे हुए पादपोंसे सुशोभित, होमके सुगन्धित धूमसे प्राणियोंको सदा आनन्दित करनेवाले, निरन्तर वेदध्वनिसे परिव्याप्त तथा स्वर्गसे भी मनोहर उस आश्रमको देखकर वे राजा अत्यन्त आनन्दित हुए और उन्होंने भय त्यागकर मुनिके आश्रममें विश्राम करनेका निश्चय कर लिया ॥ २२-२५ ॥

आसज्य पादपेऽश्वं तु जगाम विनयान्वितः ।
दृष्ट्वा तं मुनिमासीनं सालच्छायासु संश्रितम् ॥ २६ ॥
मृगाजिनासनं शान्तं तपसातिकृशं ऋजुम् ।
अध्यापयन्तं शिष्यांश्च वेदशास्त्रार्थदर्शिनम् ॥ २७ ॥
रहितं क्रोधलोभाद्यैर्द्वन्द्वातीतं विमत्सरम् ।
आत्मज्ञानरतं सत्यवादिनं शमसंयुतम् ॥ २८ ॥
तं वीक्ष्य भूपतिर्भूमौ पपात दण्डवत्तदा ।
तदग्रेऽश्रुजलापूर्णनयनः प्रेमसंयुतः ॥ २९ ॥
तत्पश्चात् अपने घोड़ेको एक वृक्षमें बाँधकर उन्होंने विनम्रतापूर्वक आश्रममें प्रवेश किया । वहाँ उन्होंने देखा कि मुनि एक सालवृक्षकी छायामें मृगचर्मक आसनपर बैठे हुए हैं, उनकी आकृति शान्त है, तपस्या करनेके कारण उनका शरीर क्षीण हो गया है, उनका स्वभाव अति कोमल है, वे शिष्योंको पढ़ा रहे हैं, वे वेद-शास्त्रोंके तत्त्वदर्शी विद्वान् हैं, क्रोधलोभ आदि विकारोंसे मुक्त हैं, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंसे परे हैं, ईारहित हैं, आत्मज्ञानके चिन्तनमें संलग्न हैं, सत्यवादी तथा जितेन्द्रिय हैं । उन्हें देखकर अश्रुपूरित नयनोंवाले राजा सुरथ प्रेमपूर्वक उनके आगे दण्डकी भाँति भूतलपर गिर पड़े ॥ २६-२९ ॥

उत्तिष्ठोत्तिष्ठ भद्रं ते तमुवाच तदा मुनिः ।
शिष्यो ददौ बृसीं तस्मै गुरुणा नोदितस्तदा ॥ ३० ॥
तब मुनिने उनसे कहा-उठिये-उठिये, आपका कल्याण हो । तत्पश्चात् गुरुसे आदेश पाकर एक शिष्यने उन्हें आसन प्रदान किया ॥ ३० ॥

उत्थाय नृपतिस्तस्यां समासीनस्तदाज्ञया ।
अर्ध्यपाद्यार्हणं चक्रे सुमेधा विधिपूर्वकम् ॥ ३१ ॥
पप्रच्छात्र कुतः प्राप्तः कस्त्वं चिन्तापरः कथम् ।
कथयस्व यथाकामं संवृतं कारणं त्विह ॥ ३२ ॥
किमागमनकृत्यं ते ब्रूहि कार्यं मनोगतम् ।
करिष्ये वाञ्छितं काममसाध्यमपि यत्तव ॥ ३३ ॥
तब वे उठकर मुनिसे आज्ञा लेकर उस आसनपर बैठ गये । इसके बाद सुमेधाऋषिने अर्घ्य-पाद्य आदिसे उनका विधिपूर्वक सत्कार किया । मुनिने उनसे पूछा कि आप यहाँ कहाँसे आये हैं ? आप कौन हैं तथा चिन्तित क्यों हैं ? यहाँ आनेका जो भी कारण हो, उसे आप यथारुचि बतायें । आपके आगमनका प्रयोजन क्या है ? आप अपने मनके विचारोंको अवश्य बताइये । आपका कोई असाध्य मनोरथ होगा तो उसे भी मैं पूर्ण करूँगा ॥ ३१-३३ ॥

राजोवाच
सुरथो नाम राजाहं शत्रुभिश्च पराजितः ।
त्यक्त्वा राज्यं गृहं भार्यामहं ते शरणं गतः ॥ ३४ ॥
राजा बोले-मैं सुरथ नामवाला राजा हूँ । शत्रुओंसे पराजित होकर मैं राज्य, महल तथा स्त्री-सब कुछ छोड़कर आपकी शरण में आया हूँ ॥ ३४ ॥

यदाज्ञापयसे ब्रह्मंस्तदहं भक्तितत्परः ।
करिष्यामि न मे त्राता त्वदन्यः पृथिवीतले ॥ ३५ ॥
हे ब्रह्मन् ! अब आप मुझे जो भी आज्ञा देंगे, मैं श्रद्धापूर्वक वही करूँगा । इस पृथ्वीतलपर आपके अतिरिक्त अब कोई दूसरा मेरा रक्षक नहीं है ॥ ३५ ॥

शत्रुभ्यो मे भयं घोरं प्राप्तोऽस्म्यद्य तवान्तिकम् ।
त्रायस्व मुनिशार्दूल शरणागतवत्सल ॥ ३६ ॥
हे मुनिराज ! हे शरणागतवत्सल ! शत्रुओंसे मुझे महान् भय उपस्थित है, अतएव मैं आपके पास आया हूँ; अब आप मेरी रक्षा कीजिये ॥ ३६ ॥

ऋषिरुवाच
निर्भयं वस राजेन्द्र नात्र ते शत्रवः किल ।
आगमिष्यन्ति बलिनो निश्चयं तपसो बलात् ॥ ३७ ॥
ऋषि बोले-हे राजेन्द्र ! आप निर्भीक होकर यहाँ रहिये । यह निश्चित है कि मेरी तपस्याके प्रभावसे आपके पराक्रमी शत्रु यहाँ नहीं आ सकेंगे ॥ ३७ ॥

नात्र हिंसा प्रकर्तव्या वनवृत्त्वा नृपोत्तम ।
कर्तव्यं जीवनं शस्तैर्नीवारफलमूलकैः ॥ ३८ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! यहाँपर आपको हिंसा नहीं करनी चाहिये और वनवासियोंकी भाँति पवित्र नीवार तथा फल-मूल आदिके द्वारा जीवन निर्वाह करना चाहिये ॥ ३८ ॥

व्यास उवाच
इति तस्य वचः श्रुत्वा निर्भयः स नृपस्तदा ।
उवासाश्रम एवासौ फलमूलाशनः शुचिः ॥ ३९ ॥
व्यासजी बोले-तब मुनिकी यह बात सुनकर राजा सुरथ निर्भय हो गये । अब वे फल-मूलका आहार करते हुए पवित्रताके साथ उस आश्रममें ही रहने लगे ॥ ३९ ॥

कदाचित्स नृपस्तत्र वृक्षच्छायां समाश्रितः ।
चिन्तयामास चिन्तार्तो गृह एव गताशयः ॥ ४० ॥
किसी समय उस आश्रममें एक वृक्षकी छायामें बैठे हुए चिन्ताकुल राजा सुरथका चित्त घरकी ओर चला गया और वे सोचने लगे- ॥ ४० ॥

राज्यं मे शत्रुभिः प्राप्तं म्लेच्छैः पापरतैः सदा ।
सम्पीडिताः स्युर्लोकास्तैर्दुराचारैर्गतत्रपैः ॥ ४१ ॥
निरन्तर पापकर्ममें लगे रहनेवाले म्लेच्छ शत्रुओंने मेरा राज्य छीन लिया है । उन दुराचारी तथा निर्लज्ज म्लेच्छोंके द्वारा मेरी प्रजा बहुत सतायी जाती होगी ॥ ४१ ॥

गजाश्च तुरगाः सर्वे दुर्बला भक्ष्यवर्जिताः ।
जाताः स्युर्नात्र सन्देहः शत्रुणा परिपीडिताः ॥ ४२ ॥
मेरे सभी हाथी तथा घोड़े आहार न पाने तथा शत्रुसे प्रताड़ित किये जानेके कारण अत्यन्त दुर्बल हो गये होंगे । इसमें तो कोई सन्देह नहीं है ॥ ४२ ॥

सेवका मम सर्वे ते शत्रूणां वशवर्तिनः ।
दुःखिता एव जाताः स्युः पालिता ये मया पुरा ॥ ४३ ॥
अपने जिन सेवकोंका मैंने पहले पालन-पोषण किया था, वे सब शत्रुओंके अधीन हो जानेके कारण कष्टका अनुभव करते होंगे ॥ ४३ ॥

धनं मे सुदुराचारैरसद्व्ययपरैः परैः ।
द्यूतासवभुजिष्यादिस्थाने स्यात्प्रापितं किल ॥ ४४ ॥
उन अति दुराचारी तथा अपव्यय करनेके स्वभाववाले शत्रुओंने मेरा धन द्यूत, मदिरालय एवं वेश्यालयोंमें निश्चित रूपसे खर्च कर दिया होगा ॥ ४४ ॥

कोशक्षयं करिष्यन्ति व्यसनैः पापबुद्धयः ।
न पात्रदाननिपुणा म्लेच्छास्ते मन्त्रिणोऽपि मे ॥ ४५ ॥
वे पापबुद्धि मेरा समस्त राजकोष व्यसनोंमें नष्ट कर डालेंगे, सत्पात्रोंको दान देनेकी योग्यता भी उन म्लेच्छोंमें नहीं है और मेरे मन्त्री भी अधीनतामें रहनेके कारण उन्हींके जैसे हो गये होंगे ॥ ४५ ॥

इति चिन्तापरो राजा वृक्षमूलस्थितो यदा ।
तदाऽऽजगाम वैश्यस्तु कश्चिदार्तिपरस्तथा ॥ ४६ ॥
महाराज सुरथ वृक्षके नीचे बैठकर इसी चिन्तामें पड़े हुए थे कि उसी समय एक विषादग्रस्त वैश्य वहाँ आ पहुँचा ॥ ४६ ॥

नृपेण पुरतो दृष्टः पार्श्वे तत्रोपवेशितः ।
पप्रच्छ तं नृपः कोऽसि कुत एवागतो वनम् ॥ ४७ ॥
कोऽसि कस्माच्च दीनोऽसि हरिणः शोकपीडितः ।
ब्रूहि सत्यं महाभाग मैत्री साप्तपदी मता ॥ ४८ ॥
राजाने उस वैश्यको सामने देख लिया । उन्होंने उसे अपने समीपमें बैठा लिया और पुनः उससे पूछा-आप कौन हैं तथा इस वनमें कहाँसे आये हैं ? आप कौन हैं, आप उदास क्यों हैं ? चिन्ताग्रस्त रहने के कारण आप तो पीले वर्णक हो गये हैं ? हे महाभाग ! सात पग एक साथ चलनेपर ही मैत्री समझ ली जाती है, अत: आप मुझे सब कुछ सचसच बता दीजिये ॥ ४७-४८ ॥

व्यास उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं राज्ञस्तमुवाच विशोत्तमः ।
उपविश्य स्थिरो भूत्वा मत्वा साधुसमागमम् ॥ ४९ ॥
व्यासजी बोले-राजाका वचन सुनकर वह वैश्य श्रेष्ठ उनके पास बैठ गया और इसे सज्जनसमागम समझकर शान्तचित्त होकर उनसे कहने लगा ॥ ४९ ॥

वैश्य उवाच
मित्राहं वैश्यजातीयः समाधिर्नाम विश्रुतः ।
धनवान्धर्मनिपुणः सत्यवागनसूयकः ॥ ५० ॥
पुत्रदारैर्निरस्तोऽहं धनलुब्धैरसाधुभिः ।
(कृपणेति मिषं कृत्वा त्यक्त्वा मायां सुदुस्त्यजाम् ।)
स्वजनेन च संत्यक्तः प्राप्तोऽस्मि वनमाशु वै ॥ ५१ ॥
कोऽसि त्वं भाग्यवान्भासि कथयस्व प्रियाधुना ।
वैश्य बोला-हे मित्र ! मैं वैश्यजातिमें उत्पन्न हूँ और समाधि नामसे प्रसिद्ध हूँ । मैं धनवान्, धर्मकार्योंमें निपुण, सत्यवादी और ईर्ष्यासे रहित हूँ, फिर भी धनके लोभी और कुटिल स्त्री-पुत्रोंने मुझे घरसे निकाल दिया (उन्होंने मुझे कृपण कहकर कठिनाईसे टूटनेवाला माया-बन्धन भी तोड़ दिया), अतः अपने कुटुम्बियोंसे परित्यक्त होकर मैं अभी-अभी इस वनमें आया हूँ । हे प्रिय ! आप कौन हैं ? मुझे बतायें; आप भाग्यवान् प्रतीत होते हैं ॥ ५०-५१.५ ॥

राजोवाच
सुरथो नाम राजाहं दस्युभिः पीडितोऽभवम् ॥ ५२ ॥
प्राप्तोऽस्मि गतराज्योऽत्र मन्त्रिभिः परिवञ्चितः ।
दिष्ट्या त्वमत्र मित्रं मे मिलितोऽसि विशोत्तम ॥ ५३ ॥
सुखेन विहरिष्यावो वनेऽत्र शुभपादपे ।
शोकं त्यज महाबुद्धे स्वस्थो भव विशोत्तम ॥ ५४ ॥
राजा बोले-मैं सुरथ नामका राजा हूँ, मैं दस्युओंसे पीड़ित हूँ । मन्त्रियोंके द्वारा ठगे जानेके कारण राज्यविहीन होकर मैं यहाँ आया हूँ । हे वैश्यश्रेष्ठ ! भाग्यवश आप मुझे यहाँ मित्रके रूपमें मिल गये हैं । अब हम दोनों सुन्दर वृक्षोंसे युक्त इस वनमें विहार करेंगे । हे महाबुद्धिमान् वैश्यश्रेष्ठ ! चिन्ता छोड़िये और प्रसन्नचित्त होइये (अब आप मेरे साथ यहींपर इच्छानुसार सुखपूर्वक रहिये) ॥ ५२-५४ ॥

(अत्रैव च यथाकामं सुखं तिष्ठ मया सह ।)
वैश्य उवाच
कुटुम्बं मे निरालम्बं मया हीनं सुदुःखितम् ।
भविष्यति च चिन्ताऽऽर्तं व्याधिशोकोपतापितम् ॥ ५५ ॥
वैश्य बोला- मेरा परिवार आश्रयरहित है, मेरे बिना परिवारके लोग अत्यन्त दु:खी होंगे । मेरे बारेमें चिन्ता करते हुए वे रोग तथा शोकसे व्याकुल हो जायँगे ॥ ५५ ॥

भार्यादेहे सुखं नो वा पुत्रदेहे न वा सुखम् ।
इति चिन्तातुरं चेतो न मे शाम्यति भूमिप ॥ ५६ ॥
हे राजन् ! मेरी पत्नी तथा पुत्र शारीरिक सुख पा रहे होंगे अथवा नहीं, इसी चिन्तासे व्याकुल रहनेके कारण मेरा मन शान्त नहीं रह पाता ॥ ५६ ॥

कदा द्रक्ष्ये सुतं भार्यां गृहं स्वजनमेव च ।
स्वस्थं न मन्मनो राजन् गृहचिन्ताकुलं भृशम् ॥ ५७ ॥
हे राजन् ! मैं पुत्र, पत्नी, घर और स्वजनोंको कब देख सकूँगा ? गृहकी चिन्तासे अत्यन्त व्याकुल मेरा मन स्वस्थ नहीं हो पाता है ॥ ५७ ॥

राजोवाव
यैर्निरस्तोऽसि पुत्राद्यैरसद्‌वृत्तैः सुबालिशैः ।
तान्दृष्ट्वा किं सुखं तेऽद्य भविष्यति महामते ॥ ५८ ॥
हितकारी वरः शत्रुर्दुःखदाः सुहृदः कुतः ।
तस्मात्स्थिरं मनः कृत्वा विहरस्व मया सह ॥ ५९ ॥
राजा बोले-हे महामते ! जिन दुराचारी तथा महामूर्ख पुत्र आदिके द्वारा आप घरसे निकाल दिये गये, उन्हें देखकर अब आपको कौन-सा सुख मिलेगा ? दुःख देनेवाले सुहृदोंकी अपेक्षा सुख देनेवाला शत्रु श्रेष्ठ है; अतः अपने मनको स्थिर करके आप मेरे साथ आनन्द कीजिये ॥ ५८-५९ ॥

वैश्य उवाच
मनो मे न स्थिरं राजन् भवत्यद्य सुदुःखितम् ।
चिन्तयात्र कुटुम्बस्य दुस्त्यजस्य दुरात्मभिः ॥ ६० ॥
वैश्य बोला-हे राजन् ! दुर्जनोंके द्वारा भी अत्यन्त कठिनतासे त्यागे जानेवाले कुटुम्बकी चिन्तासे अत्यन्त दुःखित मेरा मन इस समय स्थिर नहीं हो पा रहा है । ६० ॥

राजोवाच
ममापि राज्यजं दुःखं दुनोति किल मानसम् ।
पृच्छावोऽद्य मुनिं शान्तं शोकनाशनमौषधम् ॥ ६१ ॥
राजा बोले-राज्यसम्बन्धी चिन्ता मेरे मनको भी दुःखी करती रहती है । अतः अब हम दोनों शान्त प्रकृतिवाले मुनिसे शोकके नाशकी औषधि पूछे ॥ ६१ ॥

व्यास उवाच
इति कृत्वा मतिं तौ तु राजा वैश्यश्च जग्मतुः ।
मुनिं तौ विनयोपेतौ प्रष्टुं शोकस्य कारणम् ॥ ६२ ॥
व्यासजी बोले-ऐसा विचार करके राजा और वैश्य-दोनों ही अत्यन्त विनम्र होकर शोकका कारण पूछनेके लिये मुनिके पास गये ॥ ६२ ॥

गत्वा तं प्रणिपत्याह राजा ऋषिमनुत्तमम् ।
आसीनं सम्यगासीनः शान्तं शान्तिमुपागतः ॥ ६३ ॥
वहाँ जाकर राजा सुरथ आसन लगाकर शान्त बैठे हुए मुनिश्रेष्ठको प्रणाम करके स्वयं भी सम्यक् रूपसे आसनपर बैठकर शान्तिपूर्वक उनसे कहने लगे ॥ ६३ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां पञ्चमस्कन्धे सुरथराजसमाधि-
वैश्ययोर्मुनिसमीपे गमनं नाम द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२ ॥
अध्याय बत्तीसवाँ समाप्त ॥ ३२ ॥


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