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देवीमाहात्म्यवर्णनम् -
मुनि सुमेधाका सुरथ और समाधिको देवीकी महिमा बताना -
राजोवाव मुने वैश्योऽयमधुना वने मे मित्रतां गतः । पुत्रदारैर्निरस्तोऽयं प्राप्तोऽत्र मम सङ्गमम् ॥ १ ॥
राजा बोले-हे मुने ! ये वैश्य हैं, आज ही वनमें इनसे मेरी मित्रता हुई है । पत्नी और पुत्रोंने इन्हें निकाल दिया है और अब यहाँ इन्हें मेरा साथ प्राप्त हुआ है ॥ १ ॥
(कुटुम्बविरहेणासौ दुःखितोऽतीव दुर्मनाः । न शान्तिमुपयात्येष तथापि मम साम्प्रतम् । गतराज्यस्य दुःखेन शोकार्तोऽस्मि महामते ।) निष्कारणञ्च मे चिन्ता हृदयान्न निवर्तते । हया मे दुर्बलाः स्युः किं गजाः शत्रुवशं गताः ॥ २ ॥ भृत्यवर्गस्तथा दुःखी जातः स्यात्तु मया विना । कोशक्षयं करिष्यन्ति रिपवोऽतिबलात्क्षणात् ॥ ३ ॥
(परिवारके वियोगसे ये अत्यन्त दुःखी और विक्षुब्ध हैं । इन्हें शान्ति नहीं मिल पा रही है और इस समय मेरी भी ऐसी ही स्थिति है । हे महामते ! राज्य चले जानेके दुःखसे मैं शोकसन्तप्त हूँ । ) व्यर्थकी यह चिन्ता मेरे हृदयसे निकल नहीं रही है-मेरे घोड़े दुर्बल हो गये होंगे और हाथी शत्रुओंके अधीन हो गये होंगे । उसी प्रकार सेवकगण भी मेरे बिना दुःखी रहते होंगे । शत्रुगण राजकोशको क्षणभरमें बलपूर्वक रिक्त कर देंगे ॥ २-३ ॥
इत्येवं चिन्तयानस्य न मे निद्रा तनौ सुखम् । जानामीदं जगन्मिथ्या स्वप्नवत्सर्वमेव हि ॥ ४ ॥ जानतोऽपि मनो भ्रान्तं न स्थिरं भवति प्रभो । कोऽहं केऽश्वा गजाः केऽमी न ते मे च सहोदराः ॥ ५ ॥ न पुत्रा न च मित्राणि येषां दुःखं दुनोति माम् । भ्रमोऽयमिति जानामि तथापि मम मानसः ॥ ६ ॥ मोहो नैवापसरति किं तत्कारणमद्भुतम् । स्वामिंस्त्वमसि सर्वज्ञः सर्वसंशयनाशकृत् ॥ ७ ॥ कारणं ब्रूहि मोहस्य ममास्य च दयानिधे ।
इस प्रकार चिन्ता करते हुए मुझे न निद्रा आती है और न मेरे शरीरको सुख मिलता है । मैं जानता हूँ कि यह सम्पूर्ण जगत् स्वप्नकी भाँति मिथ्या है, किंतु हे प्रभो ! यह जानते हुए भी मेरा भ्रमित मन स्थिर नहीं होता । मैं कौन हूँ ? ये हाथी-घोड़े कौन हैं ? ये मेरे कोई सगे-सम्बन्धी भी नहीं हैं । न ये मेरे पुत्र हैं, और न मेरे मित्र हैं, जिनका दुःख मुझे पीड़ित कर रहा है । मैं जानता हूँ कि यह भ्रम है, फिर भी मेरे मनसे सम्बन्ध रखनेवाला मोह दूर नहीं होता, यह बड़ा ही अद्भुत कारण है ! हे स्वामिन् ! आप सर्वज्ञ और सभी संशयोंका नाश करनेवाले हैं, अतः हे दयानिधे ! मेरे इस मोहका कारण बतायें ॥ ४-७.५ ॥
व्यास उवाच इति पृष्टस्तदा राज्ञा सुमेधा मुनिसत्तमः ॥ ८ ॥
व्यासजी बोले-तब राजाके ऐसा पूछनेपर मुनिश्रेष्ठ सुमेधा उनसे शोक और मोहका नाश करनेवाले परम ज्ञानका वर्णन करने लगे ॥ ८ ॥
तमुवाच परं ज्ञानं शोकमोहविनाशनम् । ऋषिरुवाच शृणु राजन् प्रवक्ष्यामि कारणं बन्धमोक्षयोः ॥ ९ ॥ महामायेति विख्याता सर्वेषां प्राणिनामिह । ब्रह्मा विष्णुस्तथेशानस्तुराषाड् वरुणोऽनिलः ॥ १० ॥ सर्वे देवा मनुष्याश्च गन्धर्वोरगराक्षसाः । वृक्षाश्च विविधा वल्ल्यः पशवो मृगपक्षिणः ॥ ११ ॥ मायाधीनाश्च ते सर्वे भाजनं बन्धमोक्षयोः । तया सृष्टमिदं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् ॥ १२ ॥ तद्वशे वर्तते नूनं मोहजालेन यन्त्रितम् । त्वं कियान्मानुषेष्वेकः क्षत्रियो रजसाविलः ॥ १३ ॥
ऋषि बोले-हे राजन् ! सुनिये, मैं बताता हूँ । महामायाके नामसे विख्यात वे भगवती ही सभी प्राणियों के बन्धन और मोक्षकी कारण हैं । ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र, वरुण, पवन आदि सभी देवता, मनुष्य, गन्धर्व, सर्प, राक्षस, वृक्ष, विविध लताएँ, पशु, मृग और पक्षी-ये सब मायाके आधीन हैं और बन्धन तथा मोक्षके भाजन हैं । उन महामायाने ही इस जड़-चेतनमय सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि की है । जब यह जगत् सदा उन्हींके अधीन रहता है और मोहजालमें जकड़ा हुआ है, तब आप किस गणनामें हैं ? आप तो मनुष्योंमें रजोगुणसे युक्त एक क्षत्रियमात्र हैं ॥ ९-१३ ॥
ज्ञानिनामपि चेतांसि मोहयत्यनिशं हि सा । ब्रह्मेशवासुदेवाद्या ज्ञाने सत्यपि शेषतः ॥ १४ ॥ तेऽपि रागवशाल्लोके भ्रमन्ति परिमोहिताः ।
वे महामाया ज्ञानियोंकी बुद्धिको भी सदा मोहित किये रहती हैं । ब्रह्मा, विष्णु और महेश आदि परम ज्ञानी होते हुए भी रागके वशीभूत होकर व्यामोहमें पड़ जाते हैं और संसारमें चक्कर काटा करते हैं ॥ १४.५ ॥
पुरा सत्ययुगे राजन् विष्णुर्नारायणः स्वयम् ॥ १५ ॥ श्वेतद्वीपं समासाद्य चकार विपुलं तपः । वर्षाणामयुतं यावद् ब्रह्मविद्याप्रसक्तये ॥ १६ ॥ अनश्वरसुखायासौ चिन्तयानस्ततः परम् । एकस्मिन्निर्जने देशे ब्रह्मापि परमाद्भुते ॥ १७ ॥ स्थितस्तपसि राजेन्द्र मोहस्य विनिवृत्तये ।
हे राजन् ! प्राचीन कालमें स्वयं उन भगवान् नारायणने ब्रह्मविद्याकी प्राप्ति तथा अविनाशी सुखके लिये श्वेतद्वीपमें जाकर ध्यान करते हुए दस हजार वर्षांतक घोर तपस्या की थी । हे राजेन्द्र ! इसके साथ ही मोहकी निवृत्तिके लिये एक निर्जन प्रदेशमें ब्रह्माजी भी परम अद्भुत तपस्यामें संलग्न हो गये ॥ १५-१७.५ ॥
हे राजेन्द्र ! किसी समय वासुदेव भगवान् श्रीहरिने दूसरे स्थानपर जानेका विचार किया और वे उस स्थानसे उठकर अन्य स्थलको देखनेकी इच्छासे चल दिये । ब्रह्माजी भी उसी प्रकार अपने स्थानसे निकल पड़े । चतुर्मुख ब्रह्माजी और चतुर्भुज भगवान् विष्णु मार्गमें मिल गये । तब वे दोनों एक-दूसरेसे पूछने लगे-तुम कौन हो, तुम कौन हो ? ॥ १८-२० ॥
ब्रह्मा प्रोवाच तं देवं कर्ताहं जगतः किल । विष्णस्तमाह भो मूर्ख जगत्कर्ताहमच्युतः ॥ २१ ॥ त्वं कियान्बलहीनोऽसि रजोगुणसमाश्रितः । सत्त्वाश्रितं हि मां विद्धि वासुदेवं सनातनम् ॥ २२ ॥
ब्रह्माजी भगवान् विष्णुसे बोले-मैं जगत्का स्रष्टा हूँ । तब विष्णुने उनसे कहा-हे मूर्ख ! अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाला मैं विष्णु ही जगत्का कर्ता हूँ । तुम कितने शक्तिशाली हो ? तुम तो रजोगुणयुक्त और बलहीन हो ! मुझे सत्त्वगुणसम्पन्न सनातन नारायण जानो ॥ २१-२२ ॥
मया त्वं रक्षितोऽद्यैव कृत्वा युद्धं सुदारुणम् । शरणं मे समायातो दानवाभ्यां प्रपीडितः ॥ २३ ॥ मया तौ निहतौ कामं दानवौ मधुकैटभौ । कथं गर्वायसे मन्द मोहोऽयं त्यज साम्प्रतम् ॥ २४ ॥ न मत्तोऽप्यधिकः कश्चित्संसारेऽस्मिन्प्रसारिते ।
दोनों दानवों (मधु-कैटभ)-के द्वारा पीड़ित किये जानेपर तुम मेरी ही शरणमें आये थे, उस समय अत्यन्त भीषण युद्ध करके मैंने तुम्हारी रक्षा की । मैंने ही उन मधु-कैटभ दानवोंका वध किया है, अत: हे मन्दबुद्धि ! तुम क्यों गर्व करते हो ? यह तुम्हारा अज्ञान है, इसका शीघ्र त्याग कर दो; क्योंकि इस सम्पूर्ण संसारमें मुझसे बढ़कर कोई नहीं है ॥ २३-२४.५ ॥
ऋषिरुवाच एवं प्रवदमानौ तौ ब्रह्मविष्णू परस्परम् ॥ २५ ॥ स्फुरदोष्ठौ वेपमानौ लोहिताक्षौ बभूवतुः । प्रादुर्बभूव सहसा तयोर्विवदमानयोः ॥ २६ ॥ मध्ये लिङ्गं सुधाश्वेतं विपुलं दीर्घमद्भुतम् । आकाशे तरसा तत्र वागुवाचाशरीरिणी ॥ २७ ॥ तौ सम्बोध्य महाभागौ विवदन्तौ परस्परम् । ब्रह्मन् विष्णो विवादं मा कुरुतां वां परस्परम् ॥ २८ ॥
ऋषि बोले-इस प्रकार परस्पर विवाद करते हुए उन दोनों-ब्रह्मा-विष्णुके ओठ फड़कने लगे, वे क्रोध काँपने लगे और उनकी आँखें रक्तवर्ण हो गयीं । तभी विवादरत उन दोनोंके मध्य अचानक एक श्वेतवर्ण, अत्यन्त विशाल तथा अद्भुत लिंग प्रकट हो गया । तदनन्तर विवाद करते हुए उन दोनों महानुभावोंको सम्बोधित करके आकाशवाणी हुई-हे ब्रह्मन् ! हे विष्णो ! तुम दोनों परस्पर विवाद मत करो ॥ २५-२८ ॥
लिङ्गस्यास्य परं पारमधस्तादुपरि धुवम् । यो याति युवयोर्मध्ये स श्रेष्ठो वां सदैव हि ॥ २९ ॥ एकः प्रयातु पातालमाकाशमपरोऽधुना । प्रमाणं मे वचः कार्यं त्यक्त्वा वादं निरर्थकम् ॥ ३० ॥ मध्यस्थः सर्वदा कार्यो विवादेऽस्मिन्द्वयोरिह ।
- इस लिंगके ऊपरी या निचले छोरका आप दोनोंमेंसे जो पता लगा लेगा, आप दोनोंमें वह सदैवके लिये श्रेष्ठ हो जायगा । इसलिये मेरी वाणीको प्रमाण मानकर तथा इस निरर्थक विवादका त्यागकर आपलोगोंमेंसे एक आकाश और दूसरा पातालकी ओर अभी जाय । इस विवादमें आप दोनोंको एक मध्यस्थ भी अवश्य कर लेना चाहिये ॥ २९-३०.५ ॥
ऋषि बोले-उस दिव्य वाणीको सुनकर वे दोनों चेष्टापूर्वक उद्यम करनेके लिये तैयार हो गये और अपने समक्ष स्थित उस देखने में अद्भुत लिंगको मापनेके लिये चल पड़े । अपने-अपने महत्त्वकी वृद्धिके लिये उस महालिंगको नापनेहेतु विष्णु पातालकी ओर और ब्रह्मा आकाशकी ओर गये ॥ ३१-३२.५ ॥
कुछ दूरतक जानेपर विष्णु पूर्णरूपसे थक गये । वे लिंगका अन्त नहीं प्राप्त कर सके और तब उसी स्थलपर वापस लौट आये । ब्रह्माजी ऊपरकी ओर गये और शिवके मस्तकसे गिरे हुए केतकी पुष्पको लेकर वे भी प्रसन्न हो लौट आये ॥ ३३-३४.५ ॥
तब अहंकारसे मोहित ब्रह्मा शीघ्रतापूर्वक आकर विष्णुको केतकी पुष्प दिखाकर यह झूठ बोलने लगे कि मैंने यह केतकी पुष्प इस लिंगके मस्तकसे प्राप्त किया है । आपके चित्तकी शान्तिके लिये पहचानचिहलके रूपमें मैं इसे लेता आया हूँ ॥ ३५-३६ ॥
ब्रह्माजीके उस वचनको सुनकर और केतकी पुष्पको देखकर विष्णुने उनसे कहा-इसका साक्षी कौन है, बताइये । किसी विवादके उपस्थित होनेपर किसी सत्यवादी, बुद्धिमान, सदाचारी, पवित्र और निष्पक्ष व्यक्तिको साक्षी बनाया जाता है ॥ ३७-३८.५ ॥
ऐसा कहकर ब्रह्माजीने केतकीको [साक्ष्यके लिये] प्रेरित किया । तब उसने शीघ्रतापूर्वक विष्णुको सम्बोधित करते हुए कहा कि शिव (लिंग)-के मस्तकपर स्थित मुझे ब्रह्माजी वहाँसे लेकर आये हैं । हे विष्णो ! इसमें आपको किसी प्रकारका सन्देह नहीं करना चाहिये । ब्रह्माजी इस लिंगके पार गये हैं और शिवभक्तोंके द्वारा समर्पित की गयी मुझको लेकर आये हैं-यह मेरा कथन ही प्रमाण है । ४०-४२.५ ॥
ऋषि बोले-तब विष्णुकी बात सुनकर सनातन भगवान् महादेवने क्रुद्ध होकर केतकीसे कहाअसत्यभाषिणि ! ऐसा मत बोलो । मेरे मस्तकसे गिर हुई तुझे ब्रह्मा बीचमें ही पा गये थे । तुमने झूठ बोल है, इसलिये अब मैंने सदैवके लिये तुम्हारा त्याग कर दिया । तब ब्रह्माजीने लज्जित होकर भगवान् विष्णुको नमस्कार किया । उसी दिनसे शिवद्वारा पुष्पोंमेंसे केतकीका त्याग कर दिया गया ॥ ४४-४६.५ ॥
हे राजन् ! आप यह जान लीजिये कि मायाक बल ज्ञानियोंको भी मोहमें डाल देता है, तब दुर्गा प्राणियोंके मोहित हो जानेकी क्या बात ? स्वयं देवाधिदेव लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु देवताओंके कार्य सिद्धिके लिये पापका भय छोड़कर दैत्योंके साथ हुण करते रहते हैं । वे ऐश्वर्यसम्पन्न भगवान माधव अप सुख और आनन्दको त्यागकर विविध योनियंअवतार लेकर दैत्योंके साथ युद्ध करते हैं । देवता कार्यहेतु अंशावतार ग्रहण करनेवाले सर्वज्ञ न जगद्गुरु भगवान् विष्णुमें भी यह मायाशक्ति अपना प्रभाव डालती है, तब हे राजन् ! अन्यकी क्या बात ! हे राजन् ! वे परम प्रकृतिस्वरूपा महामाया ज्ञानियोंके मनको भी बलपूर्वक आकृष्ट करके मोहित कर देती हैं, जिन भगवतीके द्वारा स्थावरजंगमात्मक यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है; वे ही ज्ञानदायिनी, मोहदायिनी तथा बन्धन एवं मोक्ष प्रदान करनेवाली हैं । ४७-५२.५ ॥
राजोवाच भगवन्ब्रूहि मे तस्याः स्वरूपं बलमुत्तमम् ॥ ५३ ॥ उत्पत्तिकारणं वापि स्थानं परमकं च यत् ।
राजा बोले-हे भगवन् ! मुझे उनके स्वरूप, उत्तम बल, उनकी उत्पत्तिका कारण और उनके परम धामके विषयमें बताइये ॥ ५३.५ ॥
ऋषिरुवाच न चोत्पत्तिरनादित्वान्नृप तस्याः कदाचन ॥ ५४ ॥ नित्यैव सा परा देवी कारणानां च कारणम् । वर्तते सर्वभूतेषु शक्तिः सर्वात्मना नृप ॥ ५५ ॥ शववच्छक्तिहीनस्तु प्राणी भवति सर्वथा । चिच्छक्तिः सर्वभूतेषु रूपं तस्यास्तदेव हि ॥ ५६ ॥ आविर्भावतिरोभावौ देवानां कार्यसिद्धये ।
ऋषि बोले-हे राजन् ! अनादि होनेके कारण उनकी कभी उत्पत्ति नहीं होती । नित्य और सर्वोपरि वे देवी समस्त कारणोंकी भी कारण हैं । हे नृप ! वे शक्तिस्वरूपा भगवती सभी प्राणियोंमें सर्वात्मारूपसे विद्यमान रहती हैं । यदि प्राणी शक्तिसे रहित हो जाय तो वह प्राणी शवतुल्य हो जाता है; क्योंकि सभी प्राणियोंमें जो चैतन्य शक्ति है, वह इन्हींका रूप है । देवताओंकी कार्यसिद्धिके लिये ही उनका प्राकट्य और तिरोधान होता है ॥ ५४-५६.५ ॥
हे राजन् ! जब देवता या मनुष्य उनकी स्तुति करते हैं, तब प्राणियोंके दुःखका नाश करनेके लिये ये भगवती जगदम्बा प्रकट होती हैं, वे देवी परमेश्वरी अनेक रूप धारण करके अनेक प्रकारकी शक्तियोंसे सम्पन्न होकर कार्य सिद्ध करनेके लिये स्वेच्छापूर्वक आविर्भूत होती हैं । हे राजन् ! अन्य देवताओंकी भाँति वे भगवती दैवके अधीन नहीं हैं । सदा पुरुषार्थका प्रवर्तन करनेवाली वे देवी कालके वशमें नहीं हैं ॥ ५७-५९ ॥
यह सम्पूर्ण जगत् दृश्य है, परमपुरुष इसका द्रष्टा है, वह कर्ता नहीं है । वे सत्-असत्स्वरूपा देवी ही इस दृश्यमान जगत्की जननी हैं, वे स्वयं अकेले इस ब्रह्माण्डकी रचना करके परमपुरुषको आनन्दित करती हैं और उन परमपुरुषका मनोरंजन हो जानेके बाद वे भगवती शीघ्र ही सम्पूर्ण सृष्टि-प्रपंचका संहार भी कर देती हैं । वे ब्रह्मा, विष्णु और महेश तो निमित्तमात्र हैं । वे भगवती ही अपनी लीलासे उनकी रचना करती हैं और उन्हें अपने-अपने कार्यों (जगत्का सृजन, पालन और संहार)-में प्रवृत्त करती हैं । वे (देवी) उनमें अपने अंश (शक्ति)-का आरोपणकर उन्हें बलवान् बनाती हैं । उन्होंने सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वतीके रूपमें उन्हें अपनी शक्तियाँ दी हैं । अतः वे त्रिदेव उन्हीं पराम्बाको सृजन, पालन और संहार करनेवाली जानकर प्रसन्नतापूर्वक उनका ध्यान और पूजन करते हैं ॥ ६०-६४.५ ॥