मनुष्यको सर्वप्रथम विधिपूर्वक स्नान करके पवित्र हो श्वेत वस्त्र धारण कर लेना चाहिये । तत्पश्चात् वह सावधानीपूर्वक आचमन करके पूजास्थानको शुद्ध करनेके बाद लिपी हुई भूमिपर उत्तम आसन बिछाकर उसपर बैठ जाय और प्रसन्न होकर विधिपूर्वक तीन बार आचमन करे । अपनी शक्तिके अनुसार पूजाद्रव्यको सुव्यवस्थित ढंगसे रखकर प्राणायाम कर ले, उसके बाद भूतशुद्धि करके और पुनः मन्त्र पढ़कर समस्त पूजनसामग्रीका प्रोक्षण करके देवीमूर्तिकी प्राणप्रतिष्ठा करनी चाहिये । तत्पश्चात् देशकालका उच्चारणकर विधिपूर्वक न्यास करना चाहिये ॥ ३-६ ॥
शुभे ताम्रमये पात्रे चन्दनेन सितेन च । षट्कोणं विलिखेद्यन्त्रं चाष्टकोणं ततो बहिः ॥ ७ ॥ नवाक्षरस्य मन्त्रस्य बीजानि विलिखेत्ततः । कृत्वा यन्त्रप्रतिष्ठाञ्च वेदोक्ता संविधाय च ॥ ८ ॥ अर्चां वा धातवीं कुर्यात्पूजामन्त्रैः शिवोदितैः । पूजनं पृथिवीपाल भगवत्याः प्रयत्नतः ॥ ९ ॥ कृत्वा वा विधिवत्पूजामागमोक्तां समाहितः । जपेन्नवाक्षरं मन्त्रं सततं ध्यानपूर्वकम् ॥ १० ॥ होमं दशांशतः कुर्याद्दशांशेन च तर्पणम् । भोजनं ब्राह्मणानाञ्च तद्दशांशेन कारयेत् ॥ ११ ॥ चरित्रत्रयपाठञ्च नित्यं कुर्याद्विसर्जयेत् ।
इसके बाद सुन्दर ताम्रपात्रपर श्वेत चन्दनसे षट्कोण यन्त्र तथा उसके बाहर अष्टकोण यन्त्र लिखना चाहिये । तदनन्तर नवाक्षर मन्त्रके आठ बीज अक्षर आठों कोणोंमें लिखना चाहिये और नौवाँ अक्षर यन्त्रको कर्णिका (बीच)-में लिखना चाहिये । तदनन्तर वेदमें बतायी गयी विधिसे यन्त्रकी प्रतिष्ठा करके अथवा हे राजन् ! भगवतीकी धातुमयी प्रतिमा बनाकर शिवतन्त्रोक्त पूजामन्त्रोंसे प्रयत्नपूर्वक पूजन करना चाहिये । अथवा सावधान होकर आगमशास्त्रमें बतायी गयी विधिसे विधानपूर्वक पूजन करके ध्यानपूर्वक नवाक्षरमन्त्रका सतत जप करना चाहिये । जपका दशांश होम करना चाहिये, होमका दशांश तर्पण करना चाहिये और तर्पणका दशांश ब्राह्मणभोजन कराना चाहिये । प्रतिदिन तीनों चरित्रों (प्रथम चरित्र, मध्यम चरित्र तथा उत्तर चरित्र) का पाठ करना चाहिये । इसके बाद विसर्जन करना चाहिये । ७-११.५ ॥
नवरात्रव्रतं चैव विधेयं विधिपूर्वकम् ॥ १२ ॥ आश्विने च तथा चैत्रे शुक्ले पक्षे नराधिप । नवरात्रोपवासो वै कर्तव्यः शुभमिच्छता ॥ १३ ॥
हे राजन् ! कल्याण चाहनेवालेको आश्विन और चैत्र माहके शुक्लपक्षमें विधिपूर्वक नवरात्रव्रत करना चाहिये । इन नवरात्रोंमें उपवास भी करना चाहिये ॥ १२-१३ ॥
होमः सुविपुलः कार्यो जप्यमन्त्रैः सुपायसैः । शर्कराघृतमिश्रैश्च मधुयुक्तैः सुसंस्कृतैः ॥ १४ ॥ छागमांसेन वा कार्यो बिल्वपत्रैस्तथा शुभैः । हयारिकुसुमै रक्तैस्तिलैर्वा शर्करायुतैः ॥ १५ ॥ अष्टम्याञ्च चतुर्दश्यां नवम्याञ्च विशेषतः । कर्तव्यं पूजनं देव्या ब्राह्मणानाञ्च भोजनम् ॥ १६ ॥ निर्धनो धनमाप्नोति रोगी रोगात्प्रमुच्यते । अपुत्रो लभते पुत्राञ्छुभांश्च वशवर्तिनः ॥ १७ ॥ राज्यभ्रष्टो नृपो राज्यं प्राप्नोति सार्वभौमिकम् । शत्रुभिः पीडितो हन्ति रिपुं मायाप्रसादतः ॥ १८ ॥ विद्यार्थी पूजनं यस्तु करोति नियतेन्द्रियः । अनवद्यां शुभा विद्यां विन्दते नात्र संशयः ॥ १९ ॥
अनुष्ठानमें जपे गये मन्त्रोंके द्वारा शर्करा, घी और मधुमिश्रित पवित्र खीरसे विस्तारपूर्वक हवन करना चाहिये अथवा उत्तम बिल्वपत्रों, लाल कनैलके पुष्पों अथवा शर्करामिश्रित तिलोंसे हवन करना चाहिये । अष्टमी, नवमी एवं चतुर्दशीको विशेषरूपसे देवीपूजन करना चाहिये और इस अवसरपर ब्राह्मणभोजन भी कराना चाहिये । ऐसा करनेसे निर्धनको धनकी प्राप्ति होती है, रोगी रोगमुक्त हो जाता है, पुत्रहीन व्यक्ति सुन्दर और आज्ञाकारी पुत्रोंको प्राप्त करता है और राज्यच्युत राजाको सार्वभौम राज्य प्राप्त हो जाता है । देवी महामायाकी कृपासे शत्रुओंसे पीड़ित मनुष्य अपने शत्रुओंका नाश कर देता है । जो विद्यार्थी इन्द्रियोंको वशमें करके इस पूजनको करता है, वह शीघ्र ही पुण्यमयी उत्तम विद्या प्राप्त कर लेता है; इसमें सन्देह नहीं है ॥ १४-१९ ॥
ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रो वा भक्तिसंयुतः । पूजयेज्जगतां धात्रीं स सर्वसुखभाग्भवेत् ॥ २० ॥ नवरात्रव्रतं कुर्यान्नरनारीगणश्च यः । वाञ्छितं फलमाप्नोति सर्वदा भक्तितत्परः ॥ २१ ॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र-जो भी भक्तिपरायण होकर जगज्जननी जगदम्बाकी पूजा करता है, वह सब प्रकारके सुखका भागी हो जाता है । जो स्त्री अथवा पुरुष भक्तितत्पर होकर नवरात्रव्रत करता है, वह सदा मनोवांछित फल प्राप्त करता है ॥ २०-२१ ॥
अत्यन्त सुन्दर यन्त्रका निर्माण करके उसे कलशके ऊपर स्थापित कर देना चाहिये । तत्पश्चात् कलशके चारों ओर परिष्कृत तथा उत्तम जौका वपन करके पूजा-स्थानके ऊपर पुष्पमालासे अलंकृत चाँदनी लगाकर देवीका मण्डप बनाना चाहिये तथा उसे सदा धूप-दीपसे सम्पन्न रखना चाहिये ॥ २४-२५ ॥
त्रिकालं तत्र कर्तव्या पूजा शक्त्यनुसारतः । वित्तशाठ्यं न कर्तव्यं चण्डिकायाश्च पूजने ॥ २६ ॥ धूपैर्दीपैः सुनैवेद्यैः फलपुष्पैरनेकशः । गीतवाद्यैः स्तोत्रपाठैर्वेदपारायणैस्तथा ॥ २७ ॥ उत्सवस्तत्र कर्तव्यो नानावादित्रसंयुतैः । कन्यकानां पूजनञ्च विधेयं विधिपूर्वकम् ॥ २८ ॥ चन्दनैर्भूषणैर्वस्त्रैर्भक्ष्यैश्च विविधैस्तथा । सुगन्धतैलमाल्यैश्च मनसो रुचिकारकैः ॥ २९ ॥ एवं संपूजनं कृत्वा होमं मन्त्रविधानतः । अष्टम्यां वा नवम्यां वा कारयेद्विधिपूर्वकम् ॥ ३० ॥ ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चात्पारणं दशमीदिने । कर्तव्यं शक्तितो दानं देयं भक्तिपरैर्नृपैः ॥ ३१ ॥
अपनी शक्तिके अनुसार वहाँ [प्रातः, मध्याहन तथा सायंकाल] तीनों समय पूजा करनी चाहिये । देवीकी पूजामें धनकी कृपणता नहीं करनी चाहिये । धूप, दीप, उत्तम नैवेद्य, अनेक प्रकारके फल-पुष्प, गीत, वाद्य, स्तोत्रपाठ तथा वेदपारायण-इनके द्वारा भगवतीकी पूजा होनी चाहिये । नानाविध वाद्य बजाकर उत्सव मनाना चाहिये । इस अवसरपर चन्दन, आभूषण, वस्त्र, विविध प्रकारके व्यंजन, सुगन्धित तेल, हारमनको प्रसन्न करनेवाले इन पदार्थोंसे विधिपूर्वक कन्याओंका पूजन करना चाहिये । इस प्रकार पूजन सम्पन्न करके अष्टमी या नवमीको मन्त्रोच्चारपूर्वक विधिवत् हवन करना चाहिये । तत्पश्चात् ब्राह्मणभोजन कराना चाहिये । इसके बाद दशमीको पारण करना चाहिये । भक्तिनिष्ठ राजाओंको यथाशक्ति दान भी करना चाहिये । २६-३१ ॥
इस प्रकार पुरुष अथवा पतिव्रता सधवा या विधवा स्त्री जो कोई भी भक्तिपूर्वक नवरात्रव्रत करता है, वह इस लोकमें सुख तथा मनोभिलषित भोगोंको प्राप्त करता है और वह व्रतपरायण व्यक्ति देह-त्याग होनेपर परम दिव्य देवीलोकको प्राप्त करता है ॥ ३२-३३ ॥
हे राजन् ! इस विधिसे भगवती चण्डिकाकी आराधना कीजिये, इससे शत्रुओंको जीतकर आप अपना उत्तम राज्य पुनः प्राप्त कर लेंगे और हे भूप ! अपनी स्त्री-पुत्र आदि स्वजनोंको प्राप्तकर आप अपने भवनमें परम उत्तम सुखका इसी शरीरसे उपभोग करेंगे । इसमें सन्देह नहीं है । ३६-३७ ॥
वैश्योत्तम त्वमेवाद्य समाराधय कामदाम् । देवीं विश्वेश्वरीं मायां सृष्टिसंहारकारिणीम् ॥ ३८ ॥ स्वजनानां च मान्यस्त्वं भविष्यसि गृहे गतः । सुखं सांसारिकं प्राप्य यथाभिलषितं पुनः ॥ ३९ ॥ देवीलोके शुभे वासो भविता ते न संशयः ।
हे वैश्यश्रेष्ठ ! आप भी आजसे समस्त कामनाओंको देनेवाली, सृष्टि और संहारकी कारणभूता विश्वेश्वरी देवी महामायाकी आराधना कीजिये । इससे आप अपने घर जानेपर अपने लोगोंमें मान्य हो जायेंगे और मनोभिलषित सांसारिक सुख प्राप्त करके अन्तमें शुभ देवीलोकमें वास करेंगे-इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३८-३९.५ ॥
हे राजन् ! जो मनुष्य भगवतीकी आराधना नहीं करते, वे नरकके भागी होते हैं । वे इस लोकमें अत्यन्त दुःखी, विविध व्याधियोंसे पीड़ित, शत्रुओंद्वारा पराजित, स्त्री-पुत्रसे हीन, तृष्णाग्रस्त और बुद्धिभ्रष्ट होते हैं । ४०-४१.५ ॥
बिल्वपत्रोंसे तथा कनैल, कमल और चम्पाके फूलोंसे जो जगज्जननीकी आराधना करते हैं, शक्तिस्वरूपा भगवतीकी भक्तिमें रत वे पुण्यशाली लोग विविध प्रकारके सुख प्राप्त करते हैं । ४२-४३ ॥
[हे नृपश्रेष्ठ !] जो लोग वेदोक्त मन्त्रोंसे भवानीका पूजन करते हैं, वे मानव इस संसारमें सब प्रकारके धन, वैभव तथा सुखसे परिपूर्ण, समस्त गुणाके आगार, माननीय, विद्वान् और राजाओंके शिरोमणि होते हैं ॥ ४४ ॥
संहितायां पञ्चमस्कन्धे भगवत्याः पूजाराधनविधिवर्णनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३४ ॥