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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
पञ्चमः स्कन्धः
पञ्चत्रिंशोऽध्यायः

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सुरथराजसमाधिवैश्ययोर्देवीभक्त्येष्टप्राप्तिवर्णनम् -
सुरथ और समाधिकी तपस्यासे प्रसन्न भगवतीका प्रकट होना और उन्हें इच्छित वरदान देना -


व्यास उवाच
इति तस्य वचः श्रुत्वा दुःखितौ वैश्यपार्थिवौ ।
प्रणिपत्य मुनिं प्रीत्या प्रश्रयावनतौ भृशम् ॥ १ ॥
हर्षेणोत्फुल्लनयनावूचतुर्वाक्यकोविदौ ।
कृताञ्जलिपुटौ शान्तौ भक्तिप्रवणचेतसौ ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-उनका यह वचन सुनकर दःखित हृदयवाले वैश्य और राजाने प्रसन्नतापूर्वक विनम्रभावसे मुनिके चरणोंमें प्रणाम किया । भक्तिपरायण चित्तवाले, शान्त स्वभाववाले तथा हर्षके कारण खिले हुए नेत्रोंवाले वे दोनों वाक्यविशारद राजा और वैश्य हाथ जोड़कर कहने लगे ॥ १-२ ॥

भगवन्पावितावद्य शान्तौ दीनौ शुचान्वितौ ।
तव सूक्तसरस्वत्या गङ्गयेव भगीरथः ॥ ३ ॥
हे भगवन् ! हम दोनों दःखी जनोंको आपकी सूक्तिरूपिणी वाणीने उसी प्रकार शान्त तथा पवित्र कर दिया, जैसे गंगाने राजा भगीरथको कर दिया ॥ ३ ॥

साधवः सम्भवन्तीह परोपकृतितत्पराः ।
अकृत्रिमगुणारामाः सुखदाः सर्वदेहिनाम् ॥ ४ ॥
पूर्वपुण्यप्रसङ्गेन प्राप्तोऽयमाश्रमः शुभः ।
तवावाभ्यां महाभाग महादुःखविनाशकः ॥ ५ ॥
भवन्ति मानवा भूमौ बहवः स्वार्थतत्पराः ।
परार्थसाधने दक्षाः केचित्क्वापि भवादृशाः ॥ ६ ॥
दुःखितोऽहं मुनिश्रेष्ठ वैश्योऽयं चातिदुःखितः ।
उभौ संसारसन्तप्तौ तवाश्रमपदे मुदा ॥ ७ ॥
दर्शनादेव हे विद्वन् गतं दुःखमिहावयोः ।
देहजं मानसं वाक्यश्रवणादेव साम्प्रतम् ॥ ८ ॥
सज्जन लोग परोपकारपरायण, स्वाभाविक रूपसे गुणोंके भण्डार और सभी प्राणियोंको सुख देनेवाले होते हैं । पूर्वजन्मोंके पुण्यके कारण ही महान् दुःखका नाश करनेवाले आपके इस शुभ आश्रममें हम दोनोंका आना हुआ । पृथ्वीपर बहुतसे स्वार्थी मनुष्य होते हैं, परंतु दूसरोंके हितसाधनमें कुशल आप-जैसे कुछ ही लोग कहींकहीं मिलते हैं । हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं दुःखी हूँ और ये वैश्य अत्यन्त दुःखी हैं । हम दोनों इस संसारसे पीड़ित हैं । हे विद्वन् ! आपके इस आश्रममें आकर प्रसन्नतापूर्वक आपके दर्शन और उपदेशश्रवणसे हमारा शारीरिक तथा मानसिक क्लेश दूर हो गया ॥ ४-८ ॥

धन्यावावां कृतकृत्यौ जातौ सूक्तिसुधारसात् ।
पावितौ भवता ब्रह्मन् कृपया करुणार्णव ॥ ९ ॥
हे ब्रह्मन् ! आपकी अमृतमयी वाणीके रससे हम दोनों धन्य और कृतकृत्य हो गये । हे करुणासागर ! आपने अपनी कृपासे हम दोनोंको पवित्र कर दिया ॥ ९ ॥

गृहाणास्मत्करौ साधो नय पारं भवार्णवे ।
मग्नौ श्रान्ताविति ज्ञात्वा मन्त्रदानेन साम्प्रतम् ॥ १० ॥
हे साधो ! हम दोनों थककर इस संसाररूपी महासागरमें डूब रहे हैं-यह जानकर अब आप हम दोनोंका हाथ पकड़िये और मन्त्रदान देकर भवसागरसे पार कर दीजिये ॥ १० ॥

तपः कृत्वातिविपुलं समाराध्य सुखप्रदाम् ।
सम्प्राप्य दर्शनं भूयो यास्यावो निजमन्दिरम् ॥ ११ ॥
अब अत्यन्त कठोर तपस्या करके हम दोनों सुख प्रदान करनेवाली जगदम्बाका आराधन करके उनका दर्शन प्राप्तकर अपने-अपने घरोंको वापस जायेंगे ॥ ११ ॥

वदनात्तव सम्प्राप्य देवीमन्त्रं नवाक्षरम् ।
स्मरणञ्ज करिष्यावो निराहारौ धृतव्रतौ ॥ १२ ॥
आपके मुखसे देवीका नवाक्षरमन्त्र ग्रहण करके हम दोनों निराहार रहकर व्रत करेंगे और उस मन्त्रका जप करेंगे ॥ १२ ॥

व्यास उवाच
इति संचोदितस्ताभ्यां सुमेधा मुनिसत्तमः ।
ददौ मन्त्रं शुभं ताभ्यां ध्यानबीजपुरःसरम् ॥ १३ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार उन दोनोंके आग्रह करनेपर मुनिश्रेष्ठ सुमेधाने उन्हें ध्यान-बीजसहित देवीका मंगलकारी नवाक्षरमन्त्र प्रदान किया ॥ १३ ॥

तौ च प्राप्य मुनेर्मन्त्रं सम्मन्त्र्य गुरुदैवतौ ।
जग्मतुर्वैश्यराजानौ नदीतीरमनुत्तमम् ॥ १४ ॥
वे दोनों वैश्य और राजा मुनिसे मन्त्र और उसके ऋषि, छंद, देवताका ज्ञान प्राप्त करके तथा उनसे आज्ञा लेकर नदीके अत्युत्तम तटपर चले गये ॥ १४ ॥

एकान्ते विजने स्थाने कृत्वाऽऽसनपरिग्रहम् ।
उपविष्टौ स्थिरप्रज्ञौ तावतीव कृशोदरौ ॥ १५ ॥
अत्यन्त कृशकाय वे दोनों एकान्तमें निर्जन स्थानपर आसन लगाकर स्थिरचित्त होकर बैठ गये ॥ १५ ॥

मन्त्रजाप्यरतौ शान्तौ चरित्रत्रयपाठकौ ।
निन्यतुर्मासमेकं तु तत्र ध्यानपरायणौ ॥ १६ ॥
उन दोनोंने शान्तचित्त तथा ध्यानपरायण होकर मन्त्रजप और भगवतीके तीनों चरित्रोंका पाठ करते हुए एक मासका समय व्यतीत कर दिया ॥ १६ ॥

तयोर्मासव्रतेनैव जाता प्रीतिरनुत्तमा ।
पादाम्बुजे भवान्यास्तु स्थिरा बुद्धिस्तथाप्यलम् ॥ १७ ॥
उनके एक मासके व्रतसे ही उनमें भगवती भवानीके चरणकमलमें उत्तम प्रीति उत्पन्न हो गयी और उनकी बुद्धि स्थिर हो गयी ॥ १७ ॥

कदाचित्पादयोर्गत्वा मुनेस्तस्य महात्मनः ।
कृतप्रणामावागत्य तस्थतुश्च कुशासने ॥ १८ ॥
नान्यकार्यपरौ क्वापि बभूवतुः कदाचन ।
देवीध्यानपरौ नित्यं जपमन्त्ररतौ सदा ॥ १९ ॥
वे दोनों नित्य जाकर एक बार महात्मा [सुमेधा] मुनिके चरणों में प्रणाम करते थे और वहाँसे लौटकर फिर अपने कशासनपर बैठ जाते थे । वे दोनों अन्य कोई भी कार्य नहीं करते थे और सदैव देवीके ध्यान तथा मन्त्रजपमें संलग्न रहते थे ॥ १८-१९ ॥

एवं जाते तदा पूर्णे तत्र संवत्सरे नृप ।
बभूवतुः फलाहारं त्यक्त्वा पर्णाशनौ नृप ॥ २० ॥
वर्षमेकं तपस्तत्र चक्रतुर्वैश्यपार्थिवौ ।
शुष्कपर्णाशनौ दान्तौ जपध्यानपरायणौ ॥ २१ ॥
हे राजन् ! इस प्रकार एक वर्ष पूर्ण होनेपर वे फलाहारका त्याग करके पत्तेके आहारपर रहने लगे । हे नृप ! उन दोनों-वैश्य और राजाने एक वर्षतक सूखे पत्ते खाकर इन्द्रियोंको वशमें करके जप और ध्यानमें रत रहते हुए तप किया ॥ २०-२१ ॥

पूर्णे वर्षद्वये जाते कदाचिद्दर्शनञ्च तौ ।
प्रापतुः स्वप्नमध्ये तु भगवत्या मनोहरम् ॥ २२ ॥
रक्ताम्बरधरां देवीं चारुभूषणभूषिताम् ।
कदाचिनॄपतिः स्वप्नेऽप्यपश्यज्जगदम्बिकाम् ॥ २३ ॥
इस प्रकार दो वर्ष व्यतीत होनेपर उन दोनोंको किसी समय स्वप्नमें भगवतीका मनोहारी दर्शन प्राप्त हुआ । राजाने स्वजमें देवी जगदम्बिकाको लाल वस्त्र धारण किये हुए तथा सुन्दर आभूषणोंसे अलंकृत देखा ॥ २२-२३ ॥

वीक्ष्य स्वप्ने च तौ देवीं प्रीतियुक्तौ बभूवतुः ।
जलाहारैस्तृतीये तु स्थितौ संवत्सरे तु तौ ॥ २४ ॥
स्वप्नमें देवीका दर्शन प्राप्तकर दोनों प्रेमभावसे परिपूर्ण हो गये । अब वे दोनों तीसरे वर्षमें मात्र जलके आहारपर रहने लगे ॥ २४ ॥

एवं वर्षत्रयं कृत्वा ततस्तौ वैश्यपार्थिवौ ।
चक्रतुस्तौ तदा चिन्तां चित्ते दर्शनलालसौ ॥ २५ ॥
इस प्रकार तीन वर्षतक तपस्या करनेके पश्चात् वे दोनों राजा और वैश्य मनमें देवीके साक्षात् दर्शनकी लालसासे चिन्तित हो उठे ॥ २५ ॥

प्रत्यक्षं दर्शनं देव्या न प्राप्तं शान्तिदं नृणाम् ।
देहत्यागं करिष्यावो दुःखितौ भृशमातुरौ ॥ २६ ॥
अत्यन्त दुःखी तथा व्याकुल होकर उन दोनोंने निश्चय किया कि मनुष्योंको शान्ति प्रदान करनेवाली देवीका प्रत्यक्ष दर्शन नहीं प्राप्त हुआ, अतः अब हम शरीरका त्याग कर देंगे ॥ २६ ॥

इति सञ्चिन्त्य मनसा राजा कुण्डं चकार ह ।
त्रिकोणं सुस्थिरं सौम्यं हस्तमात्रप्रमाणतः ॥ २७ ॥
संस्थाप्य पावकं राजा तथा वैश्योऽतिभक्तिमान् ।
जुहावासौ निजं मांसं छित्त्वा छित्त्वा पुनः पुनः ॥ २८ ॥
तथा वैश्योऽपि दीप्तेऽग्नौ स्वमांसं प्राक्षिपत्तदा ।
रुधिरेण बलिं चास्यै ददतुस्तौ कृतोद्यमौ ॥ २९ ॥
तदा भगवती दत्त्वा प्रत्यक्षं दर्शनं तयोः ।
प्राह प्रीतिभरोद्‌भ्रान्तौ दृष्ट्वा तौ दुःखितौ भृशम् ॥ ३० ॥
ऐसा मनमें विचारकर राजाने एक हाथ प्रमाणका त्रिभुजाकार, सुन्दर तथा सुस्थिर अग्निकुण्ड बनाया । उसमें अग्निकी स्थापना करके राजा अपना मांस काट-काटकर बार-बार हवन करने लगे । साथ ही अत्यन्त भक्तिमान् वह वैश्य भी प्रदीप्त अग्निमें अपना मांस डालने लगा । तत्पश्चात् वे दोनों जब अपने रुधिरसे इन देवीको बलि देनेके लिये उद्यत हुए तब भगवती उन दोनोंको प्रेम-भक्तिमें तन्मय और अत्यन्त दुःखी देखकर उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन देकर उनसे कहने लगीं- ॥ २७-३० ॥

देव्युवाच
वरं वरय भो राजन् यत्ते मनसि वाञ्छितम् ।
तुष्टाहं तपसा तेऽद्य भक्तोऽसि त्वं मतो मम ॥ ३१ ॥
वैश्यं प्राह तदा देवी प्रसन्नाहं महामते ।
किं तेऽभीष्टं ददाम्यद्य प्रार्थयाशु मनोगतम् ॥ ३२ ॥
देवी बोलीं-हे राजन् ! अपना मनोभिलषित वर माँगो, मैं आज तुम्हारी तपस्यासे सन्तुष्ट हूँ । अब मैंने समझ लिया कि तुम मेरे भक्त हो । उसके बाद देवीने वैश्यसे कहा-हे महामते ! मैं प्रसन्न हूँ । तुम्हारा अभीष्ट क्या है ? तुम्हारे मनमें जो भी हो माँग लो, मैं उसे दूंगी ॥ ३१-३२ ॥

व्यास उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं राजा तामुवाच मुदान्वितः ।
देहि मेऽद्य निजं राज्यं हतशत्रुबलं बलात् ॥ ३३ ॥
व्यासजी बोले-उनके इस वचनको सुनकर प्रसन्न मनवाले राजाने उनसे कहा कि बलपूर्वक मैं शत्रुओंका नाशकर अपना राज्य प्राप्त करूं-मुझे आज यह वरदान दीजिये ॥ ३३ ॥

तमुवाच तदा देवी गच्छ राजन् निजं गृहम् ।
शत्रवः क्षीणसत्त्वास्ते गमिष्यन्ति पराजिताः ॥ ३४ ॥
मन्त्रिणस्ते समागम्य ते पतिष्यन्ति पादयोः ।
कुरु राज्यं महाभाग नगरे स्वं यथासुखम् ॥ ३५ ॥
कृत्वा राज्यं सुविपुलं वर्षाणामयुतं नृप ।
देहान्ते जन्म सम्प्राप्य सूर्याच्च भविता मनुः ॥ ३६ ॥
तब देवीने उनसे कहा-हे राजन् ! अपने घरको जाओ, तुम्हारे शत्रु शीघ्र ही क्षीण बलवाले होकर पराजित हो जायेंगे । हे महाभाग ! तुम्हारे मन्त्रिगण आकर तुम्हारे पैरोंपर गिरेंगे । अब आप अपने नगरमें सुखपूर्वक राज्य करें । हे राजन् ! अपने विस्तृत साम्राज्यका दस हजार वर्षांतक शासन करके देहत्यागके बाद सूर्यसे जन्म प्राप्त करके तुम [सावर्णि] मनु होओगे ॥ ३४-३६ ॥

व्यास उवाच
वैश्यस्तामप्युवाचेदं कृताञ्जलिपुटः शुचिः ।
न मे गृहेण कार्यं वै न पुत्रेण धनेन वा ॥ ३७ ॥
सर्वं बन्धकरं मातः स्वप्नवन्नश्वरं स्फुटम् ।
ज्ञानं मे देहि विशदं मोक्षदं बन्धनाशनम् ॥ ३८ ॥
असारेऽस्मिंश्च संसारे मूढा मज्जन्ति पामराः ।
पण्डिताः सन्तरन्तीह तस्मान्नेच्छन्ति संसृतिम् ॥ ३९ ॥
व्यासजी बोले-शुद्धहदय वैश्यने हाथ जोड़कर कहा-अब मुझे न घरकी आवश्यकता है, न धनकी और न पुत्रकी ही । हे माता ! ये सभी बन्धनमें डालनेवाले और स्वप्नकी भाँति नश्वर हैं, अत: आप मुझे बन्धनका नाश करनेवाला और मोक्ष देनेवाला दिव्य ज्ञान प्रदान करें । इस असार संसारमें अज्ञानी डूब जाते हैं और ज्ञानी पार उतर जाते हैं, इसलिये वे संसारकी इच्छा नहीं करते ॥ ३७-३९ ॥

व्यास उवाच
तदाकर्ण्य महामाया वैश्यं प्राह पुरःस्थितम् ।
वैश्यवर्य तव ज्ञानं भविष्यति न संशयः ॥ ४० ॥
व्यासजी बोले-तब अपने समक्ष खड़े वैश्यकी बात सुनकर देवी महामायाने कहा-हे वैश्य श्रेष्ठ ! तुम्हें ज्ञान प्राप्त होगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४० ॥

इति दत्त्वा वरं ताभ्यां तत्रैवान्तरधीयत ।
अदर्शनं गतायां तु राजा तं मुनिसत्तमम् ॥ ४१ ॥
प्रणम्य हयमारुह्य गमनाय मनो दधे ।
तदैव तस्य सचिवास्तत्रागत्य नृपं प्रजाः ॥ ४२ ॥
प्रणेमुर्विनयोपेतास्तमूचुः प्राञ्जलिस्थिताः ।
राजंस्ते शत्रवः सर्वे पापाच्च निहता रणे ॥ ४३ ॥
राज्यं निष्कण्टकं भूप कुरुष्व पुरमास्थितः ।
इस प्रकार उन दोनोंको वरदान देकर देवी वहीं अन्तर्धान हो गयीं । तब भगवतीके अन्तर्धान हो जानेपर राजा सुरथने उन मुनिश्रेष्ठको प्रणाम करके घोडेपर चढ़कर चलनेका निश्चय किया, तभी उनके प्रजाजनों और मन्त्रिगणोंने वहाँ आकर प्रणाम किया; वे हाथ जोड़कर खड़े हो गये तथा विनम्र होकर राजासे कहने लगे-हे राजन् ! आपके शत्रुगण अपने पापके कारण युद्धमें मारे गये । हे भूप ! अब आप अपने नगरमें निवास करके निष्कण्टक राज्य कीजिये ॥ ४१-४३.५ ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं राजा नत्वा तं मुनिसत्तमम् ॥ ४४ ॥
आपूच्छ्य निर्ययौ तत्र मन्त्रिभिः परिवारितः ।
सम्प्राप्य च निजं राज्यं दारान्स्वजनबान्धवान् ॥ ४५ ॥
बुभुजे पृथिवीं सर्वां ततः सागरमेखलाम् ।
उनकी बात सुनकर राजा मुनिश्रेष्ठको प्रणाम करके उनसे आज्ञा लेकर मन्त्रियोंके साथ चल दिये । वे अपने राज्य, स्त्री और बन्धु-बान्धवोंको पाकर समुद्रपर्यन्त सम्पूर्ण पृथ्वीका राज्य भोगने लगे ॥ ४४-४५.५ ॥

वैश्योऽपि ज्ञानमासाद्य मुक्तसङ्गः समन्ततः ॥ ४६ ॥
कालातिवाहनं तत्र मुक्तबन्धश्चकार ह ।
तीर्थेषु विचरन्गायन्भगवत्या गुणानथ ॥ ४७ ॥
वैश्य भी ज्ञान प्राप्त करके सर्वथा आसक्तिरहित और बन्धनसे मुक्त होकर तीथोंमें भ्रमण करता हुआ तथा भगवतीके गुणोंका गान करता हुआ समय व्यतीत करने लगा ॥ ४६-४७ ॥

एतत्ते कथितं देव्याश्चरितं परमाद्‌भुतम् ।
आराधनफलप्राप्तिर्यथावद्‌भूपवैश्ययोः ॥ ४८ ॥
दैत्यानां हननं प्रोक्तं प्रादुर्भावस्तथा शुभः ।
एवंप्रभावा सा देवी भक्तानामभयप्रदा ॥ ४९ ॥
इस प्रकार देवीकी परम अद्भुत लीला तथा राजा और वैश्यद्वारा की गयी उनकी आराधना एवं फलप्राप्तिको मैंने यथार्थ रूपसे आपसे कहा । देवीके शुभ आविर्भाव और उनके द्वारा दैत्योंके विनाशकी कथा भी मैंने आपसे कही । भक्तोंको अभय प्रदान करनेवाली वे भगवती ऐसे प्रभाववाली हैं ! ॥ ४८-४९ ॥

यः शृणोति नरो नित्यमेतदाख्यानमुत्तमम् ।
सम्प्राप्नोति नरः सत्यं संसारसुखमद्‌भुतम् ॥ ५० ॥
ज्ञानदं मोक्षदं चैव कीर्तिदं सुखदं तथा ।
पावनं श्रवणान्नूनमेतदाख्यानमद्‌भुतम् ॥ ५१ ॥
अखिलार्थप्रदं न्नॄणां सर्वधर्मसमावृतम् ।
धर्मार्थकाममोक्षाणां कारणं परमं मतम् ॥ ५२ ॥
जो मनुष्य उनके इस उत्तम आख्यानको नित्य सुनता है, वह संसारमें अद्भुत सुख प्राप्त करता है, यह सत्य है । इस पवित्र और अद्भुत आख्यानका श्रवण करनेसे यह ज्ञान, मोक्ष, कीर्ति और सुख प्रदान करता है । यह मनुष्योंकी सभी कामनाओंकी पूर्ति करनेवाला तथा समस्त धर्मोका सार और धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी प्राप्तिका परम कारण बताया गया है ॥ ५०-५२ ॥

सूत उवाच
जनमेजयेन राज्ञासौ पृष्टः सत्यवतीसुतः ।
उवाच संहितां दिव्यां व्यासः सर्वार्थतत्त्ववित् ॥ ५३ ॥
चरितं चण्डिकायास्तु शुम्भदैत्यवधाश्रितम् ।
कथयामास भगवान्कृष्णः कारुणिको मुनिः ।
इति वः कथितः सारः पुराणानां मुनीश्वराः ॥ ५४ ॥
सूतजी बोले-राजा जनमेजयके पूछनेपर सभी अर्थ-तत्त्वोंको जाननेवाले सत्यवतीपुत्र व्यासने उनसे यह दिव्य देवीभागवतसंहिता कही । परम दयालु भगवान् कृष्णद्वैपायन मुनि व्यासने शुम्भदैत्यके वधकी कथापर आधारित देवी चण्डिकाके चरित्रका वर्णन किया था । हे मुनीश्वरो ! समस्त पुराणोंका सारस्वरूप यह इतिहास मैंने आपलोगोंसे कह दिया ॥ ५३-५४ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां पञ्चमस्कन्धे सुरथराजसमाधिवैश्ययोर्देवी-
भक्त्येष्टप्राप्तिवर्णनं नाम पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३५ ॥
॥ पंचमः स्कन्धः समाप्तः ॥
अध्याय पैंतीसवाँ समाप्त ॥ ३५ ॥ ॥ पंचमः स्कन्धः समाप्तः ॥


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