सुरथ और समाधिकी तपस्यासे प्रसन्न भगवतीका प्रकट होना और उन्हें इच्छित वरदान देना -
व्यास उवाच इति तस्य वचः श्रुत्वा दुःखितौ वैश्यपार्थिवौ । प्रणिपत्य मुनिं प्रीत्या प्रश्रयावनतौ भृशम् ॥ १ ॥ हर्षेणोत्फुल्लनयनावूचतुर्वाक्यकोविदौ । कृताञ्जलिपुटौ शान्तौ भक्तिप्रवणचेतसौ ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-उनका यह वचन सुनकर दःखित हृदयवाले वैश्य और राजाने प्रसन्नतापूर्वक विनम्रभावसे मुनिके चरणोंमें प्रणाम किया । भक्तिपरायण चित्तवाले, शान्त स्वभाववाले तथा हर्षके कारण खिले हुए नेत्रोंवाले वे दोनों वाक्यविशारद राजा और वैश्य हाथ जोड़कर कहने लगे ॥ १-२ ॥
हे भगवन् ! हम दोनों दःखी जनोंको आपकी सूक्तिरूपिणी वाणीने उसी प्रकार शान्त तथा पवित्र कर दिया, जैसे गंगाने राजा भगीरथको कर दिया ॥ ३ ॥
साधवः सम्भवन्तीह परोपकृतितत्पराः । अकृत्रिमगुणारामाः सुखदाः सर्वदेहिनाम् ॥ ४ ॥ पूर्वपुण्यप्रसङ्गेन प्राप्तोऽयमाश्रमः शुभः । तवावाभ्यां महाभाग महादुःखविनाशकः ॥ ५ ॥ भवन्ति मानवा भूमौ बहवः स्वार्थतत्पराः । परार्थसाधने दक्षाः केचित्क्वापि भवादृशाः ॥ ६ ॥ दुःखितोऽहं मुनिश्रेष्ठ वैश्योऽयं चातिदुःखितः । उभौ संसारसन्तप्तौ तवाश्रमपदे मुदा ॥ ७ ॥ दर्शनादेव हे विद्वन् गतं दुःखमिहावयोः । देहजं मानसं वाक्यश्रवणादेव साम्प्रतम् ॥ ८ ॥
सज्जन लोग परोपकारपरायण, स्वाभाविक रूपसे गुणोंके भण्डार और सभी प्राणियोंको सुख देनेवाले होते हैं । पूर्वजन्मोंके पुण्यके कारण ही महान् दुःखका नाश करनेवाले आपके इस शुभ आश्रममें हम दोनोंका आना हुआ । पृथ्वीपर बहुतसे स्वार्थी मनुष्य होते हैं, परंतु दूसरोंके हितसाधनमें कुशल आप-जैसे कुछ ही लोग कहींकहीं मिलते हैं । हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं दुःखी हूँ और ये वैश्य अत्यन्त दुःखी हैं । हम दोनों इस संसारसे पीड़ित हैं । हे विद्वन् ! आपके इस आश्रममें आकर प्रसन्नतापूर्वक आपके दर्शन और उपदेशश्रवणसे हमारा शारीरिक तथा मानसिक क्लेश दूर हो गया ॥ ४-८ ॥
उन दोनोंने शान्तचित्त तथा ध्यानपरायण होकर मन्त्रजप और भगवतीके तीनों चरित्रोंका पाठ करते हुए एक मासका समय व्यतीत कर दिया ॥ १६ ॥
तयोर्मासव्रतेनैव जाता प्रीतिरनुत्तमा । पादाम्बुजे भवान्यास्तु स्थिरा बुद्धिस्तथाप्यलम् ॥ १७ ॥
उनके एक मासके व्रतसे ही उनमें भगवती भवानीके चरणकमलमें उत्तम प्रीति उत्पन्न हो गयी और उनकी बुद्धि स्थिर हो गयी ॥ १७ ॥
कदाचित्पादयोर्गत्वा मुनेस्तस्य महात्मनः । कृतप्रणामावागत्य तस्थतुश्च कुशासने ॥ १८ ॥ नान्यकार्यपरौ क्वापि बभूवतुः कदाचन । देवीध्यानपरौ नित्यं जपमन्त्ररतौ सदा ॥ १९ ॥
वे दोनों नित्य जाकर एक बार महात्मा [सुमेधा] मुनिके चरणों में प्रणाम करते थे और वहाँसे लौटकर फिर अपने कशासनपर बैठ जाते थे । वे दोनों अन्य कोई भी कार्य नहीं करते थे और सदैव देवीके ध्यान तथा मन्त्रजपमें संलग्न रहते थे ॥ १८-१९ ॥
एवं जाते तदा पूर्णे तत्र संवत्सरे नृप । बभूवतुः फलाहारं त्यक्त्वा पर्णाशनौ नृप ॥ २० ॥ वर्षमेकं तपस्तत्र चक्रतुर्वैश्यपार्थिवौ । शुष्कपर्णाशनौ दान्तौ जपध्यानपरायणौ ॥ २१ ॥
हे राजन् ! इस प्रकार एक वर्ष पूर्ण होनेपर वे फलाहारका त्याग करके पत्तेके आहारपर रहने लगे । हे नृप ! उन दोनों-वैश्य और राजाने एक वर्षतक सूखे पत्ते खाकर इन्द्रियोंको वशमें करके जप और ध्यानमें रत रहते हुए तप किया ॥ २०-२१ ॥
पूर्णे वर्षद्वये जाते कदाचिद्दर्शनञ्च तौ । प्रापतुः स्वप्नमध्ये तु भगवत्या मनोहरम् ॥ २२ ॥ रक्ताम्बरधरां देवीं चारुभूषणभूषिताम् । कदाचिनॄपतिः स्वप्नेऽप्यपश्यज्जगदम्बिकाम् ॥ २३ ॥
इस प्रकार दो वर्ष व्यतीत होनेपर उन दोनोंको किसी समय स्वप्नमें भगवतीका मनोहारी दर्शन प्राप्त हुआ । राजाने स्वजमें देवी जगदम्बिकाको लाल वस्त्र धारण किये हुए तथा सुन्दर आभूषणोंसे अलंकृत देखा ॥ २२-२३ ॥
वीक्ष्य स्वप्ने च तौ देवीं प्रीतियुक्तौ बभूवतुः । जलाहारैस्तृतीये तु स्थितौ संवत्सरे तु तौ ॥ २४ ॥
स्वप्नमें देवीका दर्शन प्राप्तकर दोनों प्रेमभावसे परिपूर्ण हो गये । अब वे दोनों तीसरे वर्षमें मात्र जलके आहारपर रहने लगे ॥ २४ ॥
एवं वर्षत्रयं कृत्वा ततस्तौ वैश्यपार्थिवौ । चक्रतुस्तौ तदा चिन्तां चित्ते दर्शनलालसौ ॥ २५ ॥
इस प्रकार तीन वर्षतक तपस्या करनेके पश्चात् वे दोनों राजा और वैश्य मनमें देवीके साक्षात् दर्शनकी लालसासे चिन्तित हो उठे ॥ २५ ॥
प्रत्यक्षं दर्शनं देव्या न प्राप्तं शान्तिदं नृणाम् । देहत्यागं करिष्यावो दुःखितौ भृशमातुरौ ॥ २६ ॥
अत्यन्त दुःखी तथा व्याकुल होकर उन दोनोंने निश्चय किया कि मनुष्योंको शान्ति प्रदान करनेवाली देवीका प्रत्यक्ष दर्शन नहीं प्राप्त हुआ, अतः अब हम शरीरका त्याग कर देंगे ॥ २६ ॥
इति सञ्चिन्त्य मनसा राजा कुण्डं चकार ह । त्रिकोणं सुस्थिरं सौम्यं हस्तमात्रप्रमाणतः ॥ २७ ॥ संस्थाप्य पावकं राजा तथा वैश्योऽतिभक्तिमान् । जुहावासौ निजं मांसं छित्त्वा छित्त्वा पुनः पुनः ॥ २८ ॥ तथा वैश्योऽपि दीप्तेऽग्नौ स्वमांसं प्राक्षिपत्तदा । रुधिरेण बलिं चास्यै ददतुस्तौ कृतोद्यमौ ॥ २९ ॥ तदा भगवती दत्त्वा प्रत्यक्षं दर्शनं तयोः । प्राह प्रीतिभरोद्भ्रान्तौ दृष्ट्वा तौ दुःखितौ भृशम् ॥ ३० ॥
ऐसा मनमें विचारकर राजाने एक हाथ प्रमाणका त्रिभुजाकार, सुन्दर तथा सुस्थिर अग्निकुण्ड बनाया । उसमें अग्निकी स्थापना करके राजा अपना मांस काट-काटकर बार-बार हवन करने लगे । साथ ही अत्यन्त भक्तिमान् वह वैश्य भी प्रदीप्त अग्निमें अपना मांस डालने लगा । तत्पश्चात् वे दोनों जब अपने रुधिरसे इन देवीको बलि देनेके लिये उद्यत हुए तब भगवती उन दोनोंको प्रेम-भक्तिमें तन्मय और अत्यन्त दुःखी देखकर उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन देकर उनसे कहने लगीं- ॥ २७-३० ॥
देवी बोलीं-हे राजन् ! अपना मनोभिलषित वर माँगो, मैं आज तुम्हारी तपस्यासे सन्तुष्ट हूँ । अब मैंने समझ लिया कि तुम मेरे भक्त हो । उसके बाद देवीने वैश्यसे कहा-हे महामते ! मैं प्रसन्न हूँ । तुम्हारा अभीष्ट क्या है ? तुम्हारे मनमें जो भी हो माँग लो, मैं उसे दूंगी ॥ ३१-३२ ॥
व्यास उवाच तच्छ्रुत्वा वचनं राजा तामुवाच मुदान्वितः । देहि मेऽद्य निजं राज्यं हतशत्रुबलं बलात् ॥ ३३ ॥
व्यासजी बोले-उनके इस वचनको सुनकर प्रसन्न मनवाले राजाने उनसे कहा कि बलपूर्वक मैं शत्रुओंका नाशकर अपना राज्य प्राप्त करूं-मुझे आज यह वरदान दीजिये ॥ ३३ ॥
तब देवीने उनसे कहा-हे राजन् ! अपने घरको जाओ, तुम्हारे शत्रु शीघ्र ही क्षीण बलवाले होकर पराजित हो जायेंगे । हे महाभाग ! तुम्हारे मन्त्रिगण आकर तुम्हारे पैरोंपर गिरेंगे । अब आप अपने नगरमें सुखपूर्वक राज्य करें । हे राजन् ! अपने विस्तृत साम्राज्यका दस हजार वर्षांतक शासन करके देहत्यागके बाद सूर्यसे जन्म प्राप्त करके तुम [सावर्णि] मनु होओगे ॥ ३४-३६ ॥
व्यास उवाच वैश्यस्तामप्युवाचेदं कृताञ्जलिपुटः शुचिः । न मे गृहेण कार्यं वै न पुत्रेण धनेन वा ॥ ३७ ॥ सर्वं बन्धकरं मातः स्वप्नवन्नश्वरं स्फुटम् । ज्ञानं मे देहि विशदं मोक्षदं बन्धनाशनम् ॥ ३८ ॥ असारेऽस्मिंश्च संसारे मूढा मज्जन्ति पामराः । पण्डिताः सन्तरन्तीह तस्मान्नेच्छन्ति संसृतिम् ॥ ३९ ॥
व्यासजी बोले-शुद्धहदय वैश्यने हाथ जोड़कर कहा-अब मुझे न घरकी आवश्यकता है, न धनकी और न पुत्रकी ही । हे माता ! ये सभी बन्धनमें डालनेवाले और स्वप्नकी भाँति नश्वर हैं, अत: आप मुझे बन्धनका नाश करनेवाला और मोक्ष देनेवाला दिव्य ज्ञान प्रदान करें । इस असार संसारमें अज्ञानी डूब जाते हैं और ज्ञानी पार उतर जाते हैं, इसलिये वे संसारकी इच्छा नहीं करते ॥ ३७-३९ ॥
व्यास उवाच तदाकर्ण्य महामाया वैश्यं प्राह पुरःस्थितम् । वैश्यवर्य तव ज्ञानं भविष्यति न संशयः ॥ ४० ॥
व्यासजी बोले-तब अपने समक्ष खड़े वैश्यकी बात सुनकर देवी महामायाने कहा-हे वैश्य श्रेष्ठ ! तुम्हें ज्ञान प्राप्त होगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४० ॥
इस प्रकार उन दोनोंको वरदान देकर देवी वहीं अन्तर्धान हो गयीं । तब भगवतीके अन्तर्धान हो जानेपर राजा सुरथने उन मुनिश्रेष्ठको प्रणाम करके घोडेपर चढ़कर चलनेका निश्चय किया, तभी उनके प्रजाजनों और मन्त्रिगणोंने वहाँ आकर प्रणाम किया; वे हाथ जोड़कर खड़े हो गये तथा विनम्र होकर राजासे कहने लगे-हे राजन् ! आपके शत्रुगण अपने पापके कारण युद्धमें मारे गये । हे भूप ! अब आप अपने नगरमें निवास करके निष्कण्टक राज्य कीजिये ॥ ४१-४३.५ ॥
उनकी बात सुनकर राजा मुनिश्रेष्ठको प्रणाम करके उनसे आज्ञा लेकर मन्त्रियोंके साथ चल दिये । वे अपने राज्य, स्त्री और बन्धु-बान्धवोंको पाकर समुद्रपर्यन्त सम्पूर्ण पृथ्वीका राज्य भोगने लगे ॥ ४४-४५.५ ॥
वैश्य भी ज्ञान प्राप्त करके सर्वथा आसक्तिरहित और बन्धनसे मुक्त होकर तीथोंमें भ्रमण करता हुआ तथा भगवतीके गुणोंका गान करता हुआ समय व्यतीत करने लगा ॥ ४६-४७ ॥
इस प्रकार देवीकी परम अद्भुत लीला तथा राजा और वैश्यद्वारा की गयी उनकी आराधना एवं फलप्राप्तिको मैंने यथार्थ रूपसे आपसे कहा । देवीके शुभ आविर्भाव और उनके द्वारा दैत्योंके विनाशकी कथा भी मैंने आपसे कही । भक्तोंको अभय प्रदान करनेवाली वे भगवती ऐसे प्रभाववाली हैं ! ॥ ४८-४९ ॥
जो मनुष्य उनके इस उत्तम आख्यानको नित्य सुनता है, वह संसारमें अद्भुत सुख प्राप्त करता है, यह सत्य है । इस पवित्र और अद्भुत आख्यानका श्रवण करनेसे यह ज्ञान, मोक्ष, कीर्ति और सुख प्रदान करता है । यह मनुष्योंकी सभी कामनाओंकी पूर्ति करनेवाला तथा समस्त धर्मोका सार और धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी प्राप्तिका परम कारण बताया गया है ॥ ५०-५२ ॥
सूतजी बोले-राजा जनमेजयके पूछनेपर सभी अर्थ-तत्त्वोंको जाननेवाले सत्यवतीपुत्र व्यासने उनसे यह दिव्य देवीभागवतसंहिता कही । परम दयालु भगवान् कृष्णद्वैपायन मुनि व्यासने शुम्भदैत्यके वधकी कथापर आधारित देवी चण्डिकाके चरित्रका वर्णन किया था । हे मुनीश्वरो ! समस्त पुराणोंका सारस्वरूप यह इतिहास मैंने आपलोगोंसे कह दिया ॥ ५३-५४ ॥