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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
षष्ठः स्कन्धः
प्रथमोऽध्यायः

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त्रिशिरसस्तपोभङ्गाय देवराजेन्द्रद्वारा नानोपायचिन्तनवर्णनम् -
त्रिशिराकी तपस्यासे चिन्तित इन्द्रद्वारा तपभंगहेतु अप्सराओंको भेजना -


ऋषय ऊचुः
सूत सूत महाभाग मिष्टं ते वचनामृतम् ।
न तृप्ताः स्मो वयं पीत्वा द्वैपायनकृतं शुभम् ॥ १ ॥
पुनस्त्वां प्रष्टुमिच्छामः कथां पौराणिकीं शुभाम् ।
वेदेऽपि कथितां रम्यां प्रसिद्धां पापनाशिनीम् ॥ २ ॥
ऋषिगण बोले-हे महाभाग सूतजी ! आपकी वाणीरूपी अत्यन्त मधुर सुधाका पान करके अभी हम सन्तप्त नहीं हुए हैं । कृष्णद्वैपायन वेदव्यासजीने जिस उत्तम श्रीमद्देवीभागवत महापुराणका प्रणयन किया है । उस पुराणकी मंगलमयी, वेदवर्णित, मनोहर, प्रसिद्ध और पापोंका नाश करनेवाली कथाको हम आपसे पुनः पूछना चाहते हैं ॥ १-२ ॥

वृत्रासुर इति ख्यातो वीर्यवांस्त्वष्टुरात्मजः ।
स कथं निहतः संख्ये वासवेन महात्मना ॥ ३ ॥
त्वष्टा वै सुरपक्षीयस्तत्पुत्रो बलवत्तरः ।
शक्रेण घातितः कस्माद्‌ब्रह्मयोनिर्महाबलः ॥ ४ ॥
देवाः सत्त्वगुणोत्पना मानुषा राजसाः स्मृताः ।
तिर्यञ्चस्तामसाः प्रोक्ताः पुराणागमवादिभिः ॥ ५ ॥
विरोधोऽत्र महान् भाति नूनं शतमखेन ह ।
छलेन बलवान् वृत्रः शक्रेण विनिपातितः ॥ ६ ॥
विष्णुः प्रेरयिता तत्र स तु सत्त्वधरः परः ।
प्रविष्टः पविमध्ये स छद्मना भगवान् प्रभुः ॥ ७ ॥
सन्धिं विधाय स ह्येवं मन्त्रितोऽसौ महाबलः ।
हरिभ्यां सत्यमुत्सृज्य जलफेनेन शातितः ॥ ८ ॥
त्वष्टाका वृत्रासुर नामसे विख्यात पराक्रमी पुत्र महात्मा इन्द्रके द्वारा क्यों मारा गया ? त्वष्टा तो देवपक्षके थे और उनका पुत्र अत्यन्त बलवान् था, ब्राह्मणवंशमें उत्पन्न उस महाबलीका इन्द्रके द्वारा क्यों वध किया गया ? पुराणों और शास्त्रोंके तत्त्वज्ञलोगोंने देवताओंको सत्त्वगुणसे, मनुष्योंको रजोगुणसे और पशु-पक्षी आदि तिर्यक् योनियोंको तमोगुणसे उत्पन्न कहा है, परंतु यहाँ तो महान् विरोध प्रतीत होता है कि बलवान् वृत्रासुर सौ यज्ञोंके कर्ता इन्द्रके द्वारा छलपूर्वक मारा गया और इसके लिये भगवान् विष्णद्वारा प्रेरणा दी गयी जो कि स्वयं महान् सत्त्वगुणी हैं तथा वे परम प्रभु छलपूर्वक वज्रमें प्रविष्ट हुए ! सन्धि करके उस महाबली वृत्रको पहले आश्वस्त कर दिया गया, किंतु पुनः विष्णु और इन्द्रने सत्य (सन्धिकी बात)-को छोड़कर जलके फेनसे उसे मार डाला ! ॥ ३-८ ॥

कृतमिन्द्रेण हरिणा किमेतत्सूत साहसम् ।
महान्तोऽपि च मोहेन वञ्चिताः पापबुद्धयः ॥ ९ ॥
हे सूतजी ! इन्द्र और विष्णुके द्वारा ऐसा दुःसाहस क्यों किया गया ? महान् लोग भी मोहमें फैसकर पापबुद्धि हो जाते हैं ॥ ९ ॥

अन्यायवर्तिनोऽत्यर्थं भवन्ति सुरसत्तमाः ।
सदाचारेण युक्तेन देवाः शिष्टत्वमागताः ॥ १० ॥
श्रेष्ठ देवगण भी घोर अन्याय-मार्गके अनुगामी हो जाते हैं, जबकि सदाचारके कारण ही देवताओंको विशिष्टता प्राप्त है ॥ १० ॥

एवं विशिष्टधर्मेण शिष्टत्वं कीदृशं पुनः ।
हत्वा वृत्रं तु विश्वस्तं शक्रेण छद्मना पुनः ॥ ११ ॥
प्राप्तं पापफलं नो वा ब्रह्महत्यासमुद्‌भवम् ।
किं च त्वया पुरा प्रोक्तं वृत्रासुरवधः कृतः ॥ १२ ॥
इन्द्रके द्वारा विश्वासमें लेकर वृत्रासुरकी हत्या कर दी गयी-ऐसे विशिष्ट धर्मके द्वारा उनका सदाचार कहाँ रह गया ? उन्हें इस ब्रह्महत्याजनित पापका फल मिला या नहीं ? आपने पहले कहा था कि वृत्रासुरका वध स्वयं देवीने ही किया था-इससे हमारा चित्त और भी मोहमें पड़ गया है ॥ ११-१२ ॥

श्रीदेव्या इति तच्चापि चित्तं मोहयतीह नः ।
सूत उवाच
शृण्वन्तु मुनयो वृत्तं वृत्रासुरवधाश्रयम् ॥ १३ ॥
यथेन्द्रेण च सम्प्राप्तं दुःखं हत्यासमुद्‌भवम् ।
एवमेव पुरा पृष्टो व्यासः सत्यवतीसुतः ॥ १४ ॥
पारीक्षितेन राज्ञापि स यदाह च तद्‌ब्रुवे ।
सूतजी बोले-हे मुनिगण ! वृत्रासुरके वधसे सम्बन्धित और उस हत्यासे इन्द्रको प्राप्त महान् दुःखकी कथा सुनें । ऐसा ही पूर्वकालमें परीक्षित्पुत्र राजा जनमेजयने सत्यवतीनन्दन व्यासजीसे पूछा था; तब उन्होंने जो कहा, उसे मैं कहता हूँ ॥ १३-१४.५ ॥

जनमेजय उवाच
कथं वृत्रासुरः पूर्वं हतो मघवता मुने ॥ १५ ॥
सहायं विष्णुमासाद्य छद्मना सात्त्विकेन ह ।
कथं च देव्या निहतो दैत्योऽसौ केन हेतुना ॥ १६ ॥
कथमेकवधो द्वाभ्यां कृतः स्यान्मुनिपुङ्गव ।
तदेतच्छ्रोतुमिच्छामि परं कौतूहलं हि मे ॥ १७ ॥
जनमेजय बोले-हे मुने ! सत्त्वगुणसे सम्पन्न इन्द्रने भगवान् विष्णुकी सहायता लेकर वृत्रासुरको पूर्वकालमें छलपूर्वक क्यों मारा ? देवीके द्वारा उस दैत्यका क्यों और किस प्रकार वध किया गया ? हे मुनिश्रेष्ठ ! एक व्यक्तिका दो लोगोंके द्वारा कैसे वध किया गया-इसे मैं सुनना चाहता हूँ । मुझे महान् कौतूहल है ॥ १५-१७ ॥

महतां चरितं शृण्वन् को विरज्येत मानवः ।
कथयाम्बावैभवं त्वं वृत्रासुरवधाश्रितम् ॥ १८ ॥
कौन मनुष्य महापुरुषोंके चरित्रको सुननेसे विरत होगा । अतः आप वृत्रासुरके वधपर आधारित जगदम्बाके माहात्म्यको कहिये ॥ १८ ॥

व्यास उवाच
धन्योऽसि राजंस्तव बुद्धिरीदृशी
    जाता पुराणश्रवणेऽतिसादरा ।
पीत्वामृतं देववरास्तु सर्वथा
    पाने वितृष्णाः प्रभवन्ति वै पुनः ॥ १९ ॥
दिने दिने तेऽधिकभक्तिभावः
    कथासु राजन् महनीयकीर्तेः ।
श्रोता यदैकप्रवणः शृणोति
    वक्ता तदा प्रीतमना ब्रवीति ॥ २० ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! आप धन्य हैं, जो कि आपकी इस प्रकारको बुद्धि पुराणश्रवणमें अत्यन्त आदरपूर्वक लगी हुई है । श्रेष्ठ देवगण अमृतका पान करके पूर्ण तृप्त हो जाते हैं, परंतु आप इस कथामृतका बार-बार पान करके भी अतृप्त ही हैं । हे राजन् ! महान् कीर्तिवाले आपका भक्तिभाव कथाओंमें दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है । श्रोता जब एकाग्रमनसे सुनता है तब वक्ता भी प्रसन्नमनसे कथा कहता है ॥ १९-२० ॥

युद्धं पुरा वासववृत्रयोर्यद्‌
    वेदे प्रसिद्धं च तथा पुराणे ।
दुःखं सुरेन्द्रेण तथैव लब्धं
    हत्वा रिपुं त्वाष्ट्रमपापमेव ॥ २१ ॥
पूर्वकालमें इन्द्र तथा वृत्रासुरका जो युद्ध हुआ था और निरपराध शत्रु वृत्रासुरका वध करके देवराज इन्द्रको जो दुःख प्राप्त हुआ था, वह वेद और पुराणमें प्रसिद्ध है ॥ २१ ॥

चित्रं किमत्र नृपते हरिवज्रभृद्‌भ्यां
    यच्छद्मना विनिहतस्त्रिशिरोऽथ वृत्रः ।
मायाबलेन मुनयोऽपि विमोहितास्ते
    चक्रुश्च निन्द्यमनिशं किल पापभीताः ॥ २२ ॥
जब मायाके बलसे मुनिगण भी मोहमें पड़ जाते हैं और वे पापभीरु होकर निरन्तर निन्दनीय कर्म करने लग जाते हैं तब हे राजन् ! विष्णु और वज़धारी इन्द्रने छलसे त्रिशिरा और वृत्रासुरका वध कर दिया तो इसमें आश्चर्यकी क्या बात है ? ॥ २२ ॥

विष्णुः सदैव कपटेन जघान दैत्यान्
    सत्त्वात्ममूर्तिरपि मोहमवाप्य कामम् ।
कोऽन्योऽस्ति तां भगवतीं मनसापि जेतुं
    शक्तः समस्तजनमोहकरीं भवानीम् ॥ २३ ॥
सत्त्वगुणके मूर्तिमान् विग्रह होते हुए भी भगवान् विष्णुने जिनकी मायासे मोहित होकर सदैव छलपूर्वक दैत्योंका संहार किया तब भला ऐसा कौन प्राणी होगा जो सब लोगोंको मोहमें डाल देनेवाली उन भगवती भवानीको अपने मनोबलसे जीतनेमें सक्षम हो सके ! ॥ २३ ॥

मत्स्यादियोनिषु सहस्रयुगेषु सद्यः
    साक्षाद्‌भवत्यपि यया विनियोजितोऽत्र ।
नारायणो नरसखो भगवाननन्तः
    कार्यं करोति विहिताविहितं कदाचित् ॥ २४ ॥
भगवतीकी ही प्रेरणासे नरऋषिके सखा नारायण भगवान् अनन्त हजारों युगोंमें मत्स्यादि योनियोंमें अवतार लेते हैं और कभी अनुकूल तथा कभी प्रतिकूल कार्य करते हैं ॥ २४ ॥

देहं धनं गृहमिदं स्वजना मदीयं
    पुत्राः कलत्रमिति मोहमुपेत्य सर्वः ।
पुण्यं करोत्यथ च पापचयं करोति
    मायागुणैरतिबलैर्विकलीकृतो यत् ॥ २५ ॥
यह मेरा शरीर है, यह मेरा धन है, यह मेरा घर है, ये मेरे स्त्री-पुत्र और बन्धु-बान्धव हैं-इस मोहमें पड़कर सभी प्राणी पुण्य तथा पापकर्म करते रहते हैं । क्योंकि अत्यन्त बलशाली मायागुणोंसे वे मोहित कर दिये गये हैं ॥ २५ ॥

न जातु मोहं क्षपितुं नरः क्षमः
    कश्चिद्‌भवेद्‌भूप परावरार्थवित् ।
विमोहितस्तैस्त्रिभिरेव मूलतो
    वशीकृतात्मा जगतीतले भृशम् ॥ २६ ॥
हे राजन् ! इस पृथ्वीपर कार्य और कारणका विज्ञ कोई भी व्यक्ति [उन जगदम्बाकी मायाके] मोहसे छुटकारा नहीं पा सकता; क्योंकि भगवती महामायाके तीनों गुणोंसे मोहित होकर वह पूर्णरूपसे सदा उनके अधीन रहता है ॥ २६ ॥

अथ तौ मायया विष्णुवासवौ मोहितौ भृशम् ।
जघ्नतुश्छद्मना वृत्रं स्वार्थसाधनतत्परौ ॥ २७ ॥
तदहं सम्प्रवक्ष्यामि वृत्तान्तमवनीपते ।
कारणं पूर्ववैरस्य वृत्रवासवयोर्मिथः ॥ २८ ॥
इसलिये [उन्हीं देवीकी] मायासे मोहित होकर अपना स्वार्थ साधनेमें तत्पर रहनेवाले विष्णु और इन्द्रने छलपूर्वक वृत्रासुरको मार डाला । हे पृथ्वीपते ! अब मैं वृत्रासुर और इन्द्रके पारस्परिक पूर्ववैरके कारणकी कथा बताता हूँ ॥ २७-२८ ॥

त्वष्टा प्रजापतिर्ह्यासीद्देवश्रेष्ठो महातपाः ।
देवानां कार्यकर्ता च निपुणो ब्राह्मणप्रियः ॥ २९ ॥
देवताओंमें श्रेष्ठ त्वष्टा नामके एक प्रजापति थे । वे महान् तपस्वी, देवताओंका कार्य करनेवाले, अति कुशल तथा ब्राह्मणोंके प्रिय थे ॥ २९ ॥

स पुत्रं वै त्रिशिरसमिन्द्रद्वेषात्किलासृजत् ।
विश्वरूपेति विख्यातं नाम्ना रूपेण मोहनम् ॥ ३० ॥
उन्होंने इन्द्रसे द्वेषके कारण तीन मस्तकोंसे सम्पन्न एक पुत्र उत्पन्न किया, जो विश्वरूप नामसे विख्यात हुआ । वह परम मनोहर रूपवाला था ॥ ३० ॥

त्रिभिः स वदनैः श्रेष्ठैर्व्यरोचत मनोहरैः ।
त्रिभिर्भिन्नानि कार्याणि मुखैः समकरोन्मुनिः ॥ ३१ ॥
वेदानेकेन सोऽधीते सुरां चैकेन सोऽपिबत् ।
तृतीयेन दिशः सर्वा युगपच्च निरीक्षते ॥ ३२ ॥
अपने तीन श्रेष्ठ तथा मनोहर मुखोंके कारण वह अत्यन्त शोभासम्पन्न दिखायी देता था । वह मुनि अपने तीन मुखोंसे तीन भिन्न-भिन्न कार्य करता था । वह एक मुखसे वेदाध्ययन करता था, एक मुखसे मधुपान करता था और तीसरे मुखसे सब दिशाओंका एक साथ निरीक्षण करता था ॥ ३१-३२ ॥

त्रिशिरा भोगमुत्सृज्य तपश्चक्रे सुदुष्करम् ।
तपस्वी स मृदुर्दान्तो धर्ममेव समाश्रितः ॥ ३३ ॥
वह त्रिशिरा भोगका त्याग करके मृदु, संयमी और धर्मपरायण तपस्वी होकर अत्यन्त कठोर तप करने लगा ॥ ३३ ॥

पञ्चाग्निसाधनं काले पादपाग्रे निवेशनम् ।
जलमध्ये निवासं च हेमन्ते शिशिरे तथा ॥ ३४ ॥
निराहारो जितात्मासौ त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।
तपश्चचार मेधावी दुष्करं मन्दबुद्धिभिः ॥ ३५ ॥
ग्रीष्मकालमें पंचाग्नि तापते, वृक्षकी डालीमें पैरके बल अधोमुख लटके रहते एवं हेमन्त और शिशिर ऋतुमें जलमें स्थित रहते थे । सब कुछ त्याग करके जितेन्द्रिय भावसे निराहार रहकर उस बुद्धिमान् [त्रिशिरा]-ने मन्दबुद्धि प्राणियोंके लिये अत्यन्त दुष्कर तपस्या आरम्भ कर दी ॥ ३४-३५ ॥

तं च दृष्ट्वा तपस्यन्तं खेदमाप शचीपतिः ।
विषादमगमत्तत्र शक्रोऽयं मास्मभूदिति ॥ ३६ ॥
उसको तप करते देखकर शचीपति इन्द्र दुःखित हुए । उन्हें यह विषाद हुआ कि कहीं यह इन्द्र न बन जाय ॥ ३६ ॥

दृष्ट्वा तस्य तपो वीर्यं सत्यं चामिततेजसः ।
चिन्तां च महतीं प्राप ह्यनिशं पाकशासनः ॥ ३७ ॥
विवर्धमानस्त्रिशिरा मामयं शातयिष्यति ।
नोपेक्ष्यः सर्वथा शत्रुर्वर्धमानबलो बुधैः ॥ ३८ ॥
तस्मादुपायः कर्तव्यस्तपोनाशाय साम्प्रतम् ।
कामस्तु तपसां शत्रुः कामान्नश्यति वै तपः ॥ ३९ ॥
उस अत्यन्त तेजस्वी [विश्वरूप]-का तप, पराक्रम और सत्य देखकर इन्द्र निरन्तर इस प्रकार चिन्तित रहने लगे-उत्तरोत्तर वृद्धिको प्राप्त होता हुआ यह त्रिशिरा मुझे ही समाप्त कर देगा, इसीलिये बुद्धिमानोंने कहा है कि बढ़ते हुए पराक्रमवाले शत्रुकी कभी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये । इसलिये इसके तपके नाशका उपाय इसी समय करना चाहिये । कामदेव तपस्वियोंका शत्रु है, कामसे ही तपका नाश होता है । अतः मुझे वैसा ही करना चाहिये, जिससे यह भोगोंमें आसक्त हो जाय ॥ ३७-३९ ॥

तथैवाद्य प्रकर्तव्यं भोगासक्तो भवेद्यथा ।
इति सञ्चिन्त्य मनसा बुद्धिमान्बलमर्दनः ॥ ४० ॥
आज्ञापयत्सोऽप्सरसस्त्वाष्ट्रपुत्रप्रलोभने ।
उर्वशीं मेनकां रम्भां घृताचीं च तिलोत्तमाम् ॥ ४१ ॥
समाहूयाब्रवीच्छक्रस्तास्तदा रूपगर्विताः ।
प्रियं कुरुध्वं मे सर्वाः कार्येऽद्य समुपस्थिते ॥ ४२ ॥
ऐसा मनमें विचारकर बल नामक दैत्यका नाश करनेवाले उन बुद्धिमान् इन्द्रने त्वष्टाके पुत्र त्रिशिराको प्रलोभनमें डालनेके लिये अप्सराओंको आज्ञा दी । उन्होंने उर्वशी, मेनका, रम्भा, घृताची, तिलोत्तमा आदिको बुलाकर कहा-अपने रूपपर गर्व करनेवाली हे अप्सराओ ! आज मेरा कार्य आ पड़ा है, तुम सब मेरे उस प्रिय कार्यको सम्पन्न करो ॥ ४०-४२ ॥

यत्तो मेऽद्य महाञ्छत्रुस्तपस्तपति दुर्जयः ।
कार्यं कुरुत गच्छध्वं प्रलोभयत माचिरम् ॥ ४३ ॥
मेरा एक महान दुर्धर्ष शत्रु संयत होकर तपस्या कर रहा है । शीघ्र ही उसके पास जाओ और उसे प्रलोभित करो; इस प्रकार शीघ्र ही मेरा कार्य करो ॥ ४३ ॥

शृङ्गारवेषैर्विविधैर्हावैर्देहसमुद्‌भवैः ।
प्रलोभयत भद्रं वः शमयध्वं ज्वरं मम ॥ ४४ ॥
अनेक प्रकारके श्रृंगार-वेषों तथा शरीरके हावभावोंसे उसे प्रलोभित करो और मेरे मानसिक सन्तापको शान्त करो; तुमलोगोंका कल्याण हो ॥ ४४ ॥

अस्वस्थोऽहं महाभागास्तस्य ज्ञात्वा तपोबलम् ।
बलवानासनं मेऽद्य ग्रहीष्यत्यविलम्बितः ॥ ४५ ॥
हे महाभागा अप्सराओ ! उसके तपोबलको जानकर मैं व्याकुल हो गया हूँ, वह बलवान् शीघ्र ही मेरा पद छीन लेगा ॥ ४५ ॥

भयं मे समुपायातं क्षिप्रं नाशयताबलाः ।
उपकुर्वन्तु सहिताः कार्येऽद्य समुपस्थिते ॥ ४६ ॥
हे अबलाओ ! मेरे सामने यह भय आ गया है, तुमलोग शीघ्र ही इसका नाश कर दो । इस कार्यके आ पड़नेपर तुम सब मिलकर आज मेरा उपकार करो ॥ ४६ ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं नार्य ऊचुस्तं प्रणताः पुरः ।
मा भयं कुरु देवेश यतिष्यामः प्रलोभने ॥ ४७ ॥
उनके इस वचनको सुनकर नारियों (अप्सराओं)ने उन्हें नमन करते हुए कहा-हे देवराज ! आप भय न करें, हम उसे प्रलोभनमें डालनेका प्रयत्न करेंगी ॥ ४७ ॥

यथा न स्याद्‌भयं तस्मात्तथा कार्यं महाद्युते ।
नृत्यगीतविहारैश्च मुनेस्तस्य प्रलोभने ॥ ४८ ॥
कटाक्षैरङ्गभेदैश्च मोहयित्वा मुनिं विभो ।
लोलुपं वशमस्माकं करिष्यामो नियन्त्रितम् ॥ ४९ ॥
हे महातेजस्विन् ! जिस प्रकारसे आपको भय न हो, हम वैसा ही करेंगी । उस मुनिको लुभानेके लिये हम नृत्य, गीत और विहार करेंगी । हे विभो ! कटाक्षों और अंगोंकी विविध भंगिमाओंसे मुनिको मोहित करके उन्हें लोलुप, अपने वशीभूत तथा नियन्त्रणमें कर लेंगी ॥ ४८-४९ ॥

व्यास उवाच
इत्याभाष्य हरिं नार्यो ययुस्त्रिशिरसोऽन्तिकम् ।
कुर्वन्त्यो विविधान्भावान्कामशास्त्रोचितानपि ॥ ५० ॥
व्यासजी बोले-इन्द्रसे ऐसा कहकर वे अप्सराएँ त्रिशिराके समीप गयीं और कामशास्त्रमें कहे गये विभिन्न प्रकारके हाव-भावका प्रदर्शन करने लगीं ॥ ५० ॥

गायन्त्यस्तालभेदैस्ता नृत्यन्त्यः पुरतो मुनेः ।
तं प्रलोभयितुं चक्रुर्नानाभावान्वराङ्गनाः ॥ ५१ ॥
वे अप्सराएँ मुनिके सम्मुख अनेक प्रकारके तालोंमें गाती और नाचती हुई उन्हें मोहित करनेके लिये विविध प्रकारके हाव-भाव करती थीं ॥ ५१ ॥

नापश्यत्स तपोराशिरङ्गनानां विडम्बनम् ।
इन्द्रियाणि वशे कृत्वा मूकान्धबधिरः स्थितः ॥ ५२ ॥
किंतु उन तपस्वीने अप्सराओंकी चेष्टाको देखातक नहीं और इन्द्रियोंको वशमें करके वे गूंगे, अन्चे और बहरेकी तरह बैठे रहे । ॥ ५२ ॥

दिनानि कतिचित्तस्थुर्नार्यस्तस्याश्रमे वरे ।
कुर्वन्त्यो गाननृत्यादिप्रपञ्चानतिमोहदान् ॥ ५३ ॥
वे अप्सराएँ गान, नृत्य आदि मोहित करनेवाले प्रपंच करती हुई कुछ दिनोंतक उनके श्रेष्ठ आश्रममें रहीं ॥ ५३ ॥

न चचाल यदा कामं ध्यानाच्च त्रिशिरा मुनिः ।
परावृत्य तदा देव्यः पुनः शक्रमुपस्थिताः ॥ ५४ ॥
जब उनकी कामचेष्टाओंसे मुनि त्रिशिराका ध्यान विचलित नहीं हुआ, तब वे अप्सराएँ पुनः लौटकर इन्द्रके सम्मुख उपस्थित हुई ॥ ५४ ॥

कृताञ्जलिपुटाः सर्वा देवराजमथाब्रुवन् ।
श्रान्ता दीना भयत्रस्ता विवर्णवदना भृशम् ॥ ५५ ॥
अत्यन्त थकी हुई, दीन अवस्थावाली, भयभीत और उदास मुखवाली उन सबने हाथ जोड़कर देवराजसे इस प्रकार कहा- ॥ ५५ ॥

देवदेव महाराज यत्‍नश्च परमः कृतः ।
न स शक्यो दुराधर्षो धैर्याच्चालयितुं विभो ॥ ५६ ॥
हे देवदेव ! हे महाराज ! हे विभो ! हमने महान् प्रयत्न किया, परंतु हम उस दुर्धर्ष मुनिको धैर्यसे विचलित करनेमें समर्थ नहीं हो पायीं ॥ ५६ ॥

उपायोऽन्यः प्रकर्तव्यः सर्वथा पाकशासन ।
नास्माकं बलमेतस्मिंस्तापसे विजितेन्द्रिये ॥ ५७ ॥
हे पाकशासन ! आपको कोई दूसरा ही उपाय करना चाहिये, उन जितेन्द्रिय तपस्वीपर हमारा कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ सकता ॥ ५७ ॥

दिष्ट्या वयं न शप्ताः स्म यदनेन महात्मना ।
मुनिना वह्नितुल्येन तपसा द्योतितेन हि ॥ ५८ ॥
हमारा बड़ा भाग्य है कि तपस्यासे अग्निके समान प्रकाशित होनेवाले उन महात्मा मुनिने हमें शाप नहीं दिया ॥ ५८ ॥

विसृज्याप्सरसः शक्रश्चिन्तयामास मन्दधीः ।
तस्यैव च वधोपायं पापबुद्धिरसाम्प्रतम् ॥ ५९ ॥
अप्सराओंको विदा करके क्षुद्रबुद्धि तथा पापबुद्धि इन्द्र उसके ही वधका अनुचित उपाय सोचने लगे ॥ ५९ ॥

विसृज्य लोकलज्जां स तथा पापभयं भृशम् ।
चकार पापबुद्धिं तु तद्वधाय महीपते ॥ ६० ॥
हे राजन् ! लोक-लजा और महान् पापके भयको छोड़कर उन्होंने उसके वधके लिये अपनी बुद्धिको पापमय बना दिया ॥ ६० ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां षष्ठस्कन्धे त्रिशिरसस्तपोभङ्गाय देवराजेन्द्रद्वारा
नानोपायचिन्तनवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
अध्याय पहला समाप्त ॥ १ ॥


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