ऋषय ऊचुः सूत सूत महाभाग मिष्टं ते वचनामृतम् । न तृप्ताः स्मो वयं पीत्वा द्वैपायनकृतं शुभम् ॥ १ ॥ पुनस्त्वां प्रष्टुमिच्छामः कथां पौराणिकीं शुभाम् । वेदेऽपि कथितां रम्यां प्रसिद्धां पापनाशिनीम् ॥ २ ॥
ऋषिगण बोले-हे महाभाग सूतजी ! आपकी वाणीरूपी अत्यन्त मधुर सुधाका पान करके अभी हम सन्तप्त नहीं हुए हैं । कृष्णद्वैपायन वेदव्यासजीने जिस उत्तम श्रीमद्देवीभागवत महापुराणका प्रणयन किया है । उस पुराणकी मंगलमयी, वेदवर्णित, मनोहर, प्रसिद्ध और पापोंका नाश करनेवाली कथाको हम आपसे पुनः पूछना चाहते हैं ॥ १-२ ॥
वृत्रासुर इति ख्यातो वीर्यवांस्त्वष्टुरात्मजः । स कथं निहतः संख्ये वासवेन महात्मना ॥ ३ ॥ त्वष्टा वै सुरपक्षीयस्तत्पुत्रो बलवत्तरः । शक्रेण घातितः कस्माद्ब्रह्मयोनिर्महाबलः ॥ ४ ॥ देवाः सत्त्वगुणोत्पना मानुषा राजसाः स्मृताः । तिर्यञ्चस्तामसाः प्रोक्ताः पुराणागमवादिभिः ॥ ५ ॥ विरोधोऽत्र महान् भाति नूनं शतमखेन ह । छलेन बलवान् वृत्रः शक्रेण विनिपातितः ॥ ६ ॥ विष्णुः प्रेरयिता तत्र स तु सत्त्वधरः परः । प्रविष्टः पविमध्ये स छद्मना भगवान् प्रभुः ॥ ७ ॥ सन्धिं विधाय स ह्येवं मन्त्रितोऽसौ महाबलः । हरिभ्यां सत्यमुत्सृज्य जलफेनेन शातितः ॥ ८ ॥
त्वष्टाका वृत्रासुर नामसे विख्यात पराक्रमी पुत्र महात्मा इन्द्रके द्वारा क्यों मारा गया ? त्वष्टा तो देवपक्षके थे और उनका पुत्र अत्यन्त बलवान् था, ब्राह्मणवंशमें उत्पन्न उस महाबलीका इन्द्रके द्वारा क्यों वध किया गया ? पुराणों और शास्त्रोंके तत्त्वज्ञलोगोंने देवताओंको सत्त्वगुणसे, मनुष्योंको रजोगुणसे और पशु-पक्षी आदि तिर्यक् योनियोंको तमोगुणसे उत्पन्न कहा है, परंतु यहाँ तो महान् विरोध प्रतीत होता है कि बलवान् वृत्रासुर सौ यज्ञोंके कर्ता इन्द्रके द्वारा छलपूर्वक मारा गया और इसके लिये भगवान् विष्णद्वारा प्रेरणा दी गयी जो कि स्वयं महान् सत्त्वगुणी हैं तथा वे परम प्रभु छलपूर्वक वज्रमें प्रविष्ट हुए ! सन्धि करके उस महाबली वृत्रको पहले आश्वस्त कर दिया गया, किंतु पुनः विष्णु और इन्द्रने सत्य (सन्धिकी बात)-को छोड़कर जलके फेनसे उसे मार डाला ! ॥ ३-८ ॥
कृतमिन्द्रेण हरिणा किमेतत्सूत साहसम् । महान्तोऽपि च मोहेन वञ्चिताः पापबुद्धयः ॥ ९ ॥
हे सूतजी ! इन्द्र और विष्णुके द्वारा ऐसा दुःसाहस क्यों किया गया ? महान् लोग भी मोहमें फैसकर पापबुद्धि हो जाते हैं ॥ ९ ॥
श्रेष्ठ देवगण भी घोर अन्याय-मार्गके अनुगामी हो जाते हैं, जबकि सदाचारके कारण ही देवताओंको विशिष्टता प्राप्त है ॥ १० ॥
एवं विशिष्टधर्मेण शिष्टत्वं कीदृशं पुनः । हत्वा वृत्रं तु विश्वस्तं शक्रेण छद्मना पुनः ॥ ११ ॥ प्राप्तं पापफलं नो वा ब्रह्महत्यासमुद्भवम् । किं च त्वया पुरा प्रोक्तं वृत्रासुरवधः कृतः ॥ १२ ॥
इन्द्रके द्वारा विश्वासमें लेकर वृत्रासुरकी हत्या कर दी गयी-ऐसे विशिष्ट धर्मके द्वारा उनका सदाचार कहाँ रह गया ? उन्हें इस ब्रह्महत्याजनित पापका फल मिला या नहीं ? आपने पहले कहा था कि वृत्रासुरका वध स्वयं देवीने ही किया था-इससे हमारा चित्त और भी मोहमें पड़ गया है ॥ ११-१२ ॥
श्रीदेव्या इति तच्चापि चित्तं मोहयतीह नः । सूत उवाच शृण्वन्तु मुनयो वृत्तं वृत्रासुरवधाश्रयम् ॥ १३ ॥ यथेन्द्रेण च सम्प्राप्तं दुःखं हत्यासमुद्भवम् । एवमेव पुरा पृष्टो व्यासः सत्यवतीसुतः ॥ १४ ॥ पारीक्षितेन राज्ञापि स यदाह च तद्ब्रुवे ।
सूतजी बोले-हे मुनिगण ! वृत्रासुरके वधसे सम्बन्धित और उस हत्यासे इन्द्रको प्राप्त महान् दुःखकी कथा सुनें । ऐसा ही पूर्वकालमें परीक्षित्पुत्र राजा जनमेजयने सत्यवतीनन्दन व्यासजीसे पूछा था; तब उन्होंने जो कहा, उसे मैं कहता हूँ ॥ १३-१४.५ ॥
जनमेजय उवाच कथं वृत्रासुरः पूर्वं हतो मघवता मुने ॥ १५ ॥ सहायं विष्णुमासाद्य छद्मना सात्त्विकेन ह । कथं च देव्या निहतो दैत्योऽसौ केन हेतुना ॥ १६ ॥ कथमेकवधो द्वाभ्यां कृतः स्यान्मुनिपुङ्गव । तदेतच्छ्रोतुमिच्छामि परं कौतूहलं हि मे ॥ १७ ॥
जनमेजय बोले-हे मुने ! सत्त्वगुणसे सम्पन्न इन्द्रने भगवान् विष्णुकी सहायता लेकर वृत्रासुरको पूर्वकालमें छलपूर्वक क्यों मारा ? देवीके द्वारा उस दैत्यका क्यों और किस प्रकार वध किया गया ? हे मुनिश्रेष्ठ ! एक व्यक्तिका दो लोगोंके द्वारा कैसे वध किया गया-इसे मैं सुनना चाहता हूँ । मुझे महान् कौतूहल है ॥ १५-१७ ॥
महतां चरितं शृण्वन् को विरज्येत मानवः । कथयाम्बावैभवं त्वं वृत्रासुरवधाश्रितम् ॥ १८ ॥
कौन मनुष्य महापुरुषोंके चरित्रको सुननेसे विरत होगा । अतः आप वृत्रासुरके वधपर आधारित जगदम्बाके माहात्म्यको कहिये ॥ १८ ॥
व्यास उवाच धन्योऽसि राजंस्तव बुद्धिरीदृशी जाता पुराणश्रवणेऽतिसादरा । पीत्वामृतं देववरास्तु सर्वथा पाने वितृष्णाः प्रभवन्ति वै पुनः ॥ १९ ॥ दिने दिने तेऽधिकभक्तिभावः कथासु राजन् महनीयकीर्तेः । श्रोता यदैकप्रवणः शृणोति वक्ता तदा प्रीतमना ब्रवीति ॥ २० ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! आप धन्य हैं, जो कि आपकी इस प्रकारको बुद्धि पुराणश्रवणमें अत्यन्त आदरपूर्वक लगी हुई है । श्रेष्ठ देवगण अमृतका पान करके पूर्ण तृप्त हो जाते हैं, परंतु आप इस कथामृतका बार-बार पान करके भी अतृप्त ही हैं । हे राजन् ! महान् कीर्तिवाले आपका भक्तिभाव कथाओंमें दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है । श्रोता जब एकाग्रमनसे सुनता है तब वक्ता भी प्रसन्नमनसे कथा कहता है ॥ १९-२० ॥
युद्धं पुरा वासववृत्रयोर्यद् वेदे प्रसिद्धं च तथा पुराणे । दुःखं सुरेन्द्रेण तथैव लब्धं हत्वा रिपुं त्वाष्ट्रमपापमेव ॥ २१ ॥
पूर्वकालमें इन्द्र तथा वृत्रासुरका जो युद्ध हुआ था और निरपराध शत्रु वृत्रासुरका वध करके देवराज इन्द्रको जो दुःख प्राप्त हुआ था, वह वेद और पुराणमें प्रसिद्ध है ॥ २१ ॥
जब मायाके बलसे मुनिगण भी मोहमें पड़ जाते हैं और वे पापभीरु होकर निरन्तर निन्दनीय कर्म करने लग जाते हैं तब हे राजन् ! विष्णु और वज़धारी इन्द्रने छलसे त्रिशिरा और वृत्रासुरका वध कर दिया तो इसमें आश्चर्यकी क्या बात है ? ॥ २२ ॥
सत्त्वगुणके मूर्तिमान् विग्रह होते हुए भी भगवान् विष्णुने जिनकी मायासे मोहित होकर सदैव छलपूर्वक दैत्योंका संहार किया तब भला ऐसा कौन प्राणी होगा जो सब लोगोंको मोहमें डाल देनेवाली उन भगवती भवानीको अपने मनोबलसे जीतनेमें सक्षम हो सके ! ॥ २३ ॥
भगवतीकी ही प्रेरणासे नरऋषिके सखा नारायण भगवान् अनन्त हजारों युगोंमें मत्स्यादि योनियोंमें अवतार लेते हैं और कभी अनुकूल तथा कभी प्रतिकूल कार्य करते हैं ॥ २४ ॥
देहं धनं गृहमिदं स्वजना मदीयं पुत्राः कलत्रमिति मोहमुपेत्य सर्वः । पुण्यं करोत्यथ च पापचयं करोति मायागुणैरतिबलैर्विकलीकृतो यत् ॥ २५ ॥
यह मेरा शरीर है, यह मेरा धन है, यह मेरा घर है, ये मेरे स्त्री-पुत्र और बन्धु-बान्धव हैं-इस मोहमें पड़कर सभी प्राणी पुण्य तथा पापकर्म करते रहते हैं । क्योंकि अत्यन्त बलशाली मायागुणोंसे वे मोहित कर दिये गये हैं ॥ २५ ॥
न जातु मोहं क्षपितुं नरः क्षमः कश्चिद्भवेद्भूप परावरार्थवित् । विमोहितस्तैस्त्रिभिरेव मूलतो वशीकृतात्मा जगतीतले भृशम् ॥ २६ ॥
हे राजन् ! इस पृथ्वीपर कार्य और कारणका विज्ञ कोई भी व्यक्ति [उन जगदम्बाकी मायाके] मोहसे छुटकारा नहीं पा सकता; क्योंकि भगवती महामायाके तीनों गुणोंसे मोहित होकर वह पूर्णरूपसे सदा उनके अधीन रहता है ॥ २६ ॥
इसलिये [उन्हीं देवीकी] मायासे मोहित होकर अपना स्वार्थ साधनेमें तत्पर रहनेवाले विष्णु और इन्द्रने छलपूर्वक वृत्रासुरको मार डाला । हे पृथ्वीपते ! अब मैं वृत्रासुर और इन्द्रके पारस्परिक पूर्ववैरके कारणकी कथा बताता हूँ ॥ २७-२८ ॥
त्वष्टा प्रजापतिर्ह्यासीद्देवश्रेष्ठो महातपाः । देवानां कार्यकर्ता च निपुणो ब्राह्मणप्रियः ॥ २९ ॥
देवताओंमें श्रेष्ठ त्वष्टा नामके एक प्रजापति थे । वे महान् तपस्वी, देवताओंका कार्य करनेवाले, अति कुशल तथा ब्राह्मणोंके प्रिय थे ॥ २९ ॥
स पुत्रं वै त्रिशिरसमिन्द्रद्वेषात्किलासृजत् । विश्वरूपेति विख्यातं नाम्ना रूपेण मोहनम् ॥ ३० ॥
उन्होंने इन्द्रसे द्वेषके कारण तीन मस्तकोंसे सम्पन्न एक पुत्र उत्पन्न किया, जो विश्वरूप नामसे विख्यात हुआ । वह परम मनोहर रूपवाला था ॥ ३० ॥
अपने तीन श्रेष्ठ तथा मनोहर मुखोंके कारण वह अत्यन्त शोभासम्पन्न दिखायी देता था । वह मुनि अपने तीन मुखोंसे तीन भिन्न-भिन्न कार्य करता था । वह एक मुखसे वेदाध्ययन करता था, एक मुखसे मधुपान करता था और तीसरे मुखसे सब दिशाओंका एक साथ निरीक्षण करता था ॥ ३१-३२ ॥
ग्रीष्मकालमें पंचाग्नि तापते, वृक्षकी डालीमें पैरके बल अधोमुख लटके रहते एवं हेमन्त और शिशिर ऋतुमें जलमें स्थित रहते थे । सब कुछ त्याग करके जितेन्द्रिय भावसे निराहार रहकर उस बुद्धिमान् [त्रिशिरा]-ने मन्दबुद्धि प्राणियोंके लिये अत्यन्त दुष्कर तपस्या आरम्भ कर दी ॥ ३४-३५ ॥
उस अत्यन्त तेजस्वी [विश्वरूप]-का तप, पराक्रम और सत्य देखकर इन्द्र निरन्तर इस प्रकार चिन्तित रहने लगे-उत्तरोत्तर वृद्धिको प्राप्त होता हुआ यह त्रिशिरा मुझे ही समाप्त कर देगा, इसीलिये बुद्धिमानोंने कहा है कि बढ़ते हुए पराक्रमवाले शत्रुकी कभी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये । इसलिये इसके तपके नाशका उपाय इसी समय करना चाहिये । कामदेव तपस्वियोंका शत्रु है, कामसे ही तपका नाश होता है । अतः मुझे वैसा ही करना चाहिये, जिससे यह भोगोंमें आसक्त हो जाय ॥ ३७-३९ ॥
ऐसा मनमें विचारकर बल नामक दैत्यका नाश करनेवाले उन बुद्धिमान् इन्द्रने त्वष्टाके पुत्र त्रिशिराको प्रलोभनमें डालनेके लिये अप्सराओंको आज्ञा दी । उन्होंने उर्वशी, मेनका, रम्भा, घृताची, तिलोत्तमा आदिको बुलाकर कहा-अपने रूपपर गर्व करनेवाली हे अप्सराओ ! आज मेरा कार्य आ पड़ा है, तुम सब मेरे उस प्रिय कार्यको सम्पन्न करो ॥ ४०-४२ ॥
हे महातेजस्विन् ! जिस प्रकारसे आपको भय न हो, हम वैसा ही करेंगी । उस मुनिको लुभानेके लिये हम नृत्य, गीत और विहार करेंगी । हे विभो ! कटाक्षों और अंगोंकी विविध भंगिमाओंसे मुनिको मोहित करके उन्हें लोलुप, अपने वशीभूत तथा नियन्त्रणमें कर लेंगी ॥ ४८-४९ ॥
व्यास उवाच इत्याभाष्य हरिं नार्यो ययुस्त्रिशिरसोऽन्तिकम् । कुर्वन्त्यो विविधान्भावान्कामशास्त्रोचितानपि ॥ ५० ॥
व्यासजी बोले-इन्द्रसे ऐसा कहकर वे अप्सराएँ त्रिशिराके समीप गयीं और कामशास्त्रमें कहे गये विभिन्न प्रकारके हाव-भावका प्रदर्शन करने लगीं ॥ ५० ॥