यह मुनि निष्पापबुद्धि है; इसे मारनेमें मैं कैसे समर्थ हो सकूँगा ? तपोबलसे अत्यन्त समृद्ध तथा मेरा आसन प्राप्त करनेकी इच्छावाले इस शत्रुकी उपेक्षा भी कैसे करूँ-ऐसा सोचकर देवसंघके स्वामी इन्द्रने अपने तीव्रगामी तथा श्रेष्ठ आयुध वज्रको सूर्य-चन्द्रमाके समान तेजस्वी, तपमें स्थित मुनि त्रिशिराके ऊपर चला दिया ॥ ३-४ ॥
तदभिघातहतः स धरातले किल पपात ममार च तापसः । शिखरिणः शिखरं कुलिशार्दितं निपतितं भुवि चाद्भुतदर्शनम् ॥ ५ ॥
उसके प्रहारसे घायल होकर वे तपस्वी उसी प्रकार पृथ्वीपर गिर पड़े और निष्प्राण हो गये, जैसे वज्रसे विदीर्ण होकर पर्वतोंके शिखर पृथ्वीपर गिर पड़ते हैं । यह घटना देखनेमें बड़ी अद्भुत थी ॥ ५ ॥
तं निहत्य मुदमाप सुरेश- श्चुक्रुशुश्च मुनयस्तु संस्थिताः । हा हतेति भृशमार्तनिःस्वनाः किं कृतं शतमखेन पापिना ॥ ६ ॥
उनको मारकर इन्द्र प्रसन्न हो गये, परंतु वहाँ स्थित अन्य मुनिगण आर्तस्वरमें चिल्लाने लगे कि हाय ! हाय ! सौ यज्ञ करनेवाले पापी इन्द्रने यह क्या कर डाला ! ॥ ६ ॥
मनमें बहुत देरतक विचार करनेके बाद इन्द्रने सामने खड़े तक्षा (बढ़ई)-को देखकर अपने कार्यके अनुरूप बात कही ॥ १० ॥
तक्षंश्छिन्धि शिरांस्यस्य कुरुष्व वचनं मम । मा जीवतु महातेजा भाति जीवन्निव स्वयम् ॥ ११ ॥
हे तक्षन् ! मेरा कहा हुआ करो; इसके सिर काट लो, जिससे यह जीवित न रहे । यह महातेजस्वी जीवित न होते हुए भी जीवितकी भाँति प्रतीत होता है । उनकी यह बात सुनकर तक्षाने धिक्कारते हुए कहा- ॥ ११ ॥
तक्षा बोला-ये अति विशाल कन्धेवाले प्रतीत हो रहे हैं । मेरा परशु इस कन्धेको काट नहीं सकेगा । अतः मैं इस निन्दनीय कार्यको नहीं करूंगा, आपने तो निन्दित और सत्पुरुषोंद्वारा गर्हित कर्म कर डाला है, मैं पापसे डरता हूँ फिर मरे हुएको क्यों मारूँ ? ये मुनि तो मर गये हैं, फिर इनका सिर काटनेसे क्या प्रयोजन ? हे पाकशासन ! कहिये, इनसे आपको क्या भय उत्पन्न हुआ है ? ॥ १२-१४ ॥
तक्षा बोला-हे इन्द्र ! आप लोभके वशीभूत होकर पाप कर रहे हैं । हे विभो ! बतायें, मैं उसके बिना पाप क्यों करूँ ? ॥ १८ ॥
तं विनाहं कथं पापं करोमि वद मे विभो । इन्द्र उवाच मखेषु खलु भागं ते करिष्यामि सदैव हि ॥ १९ ॥ शिरः पशोस्तु ते भागं यज्ञे दास्यन्ति मानवाः । शुल्केनानेन छिन्धि त्वं शिरांस्यस्य कुरु प्रियम् ॥ २० ॥
इन्द्र बोले- मैं सदैवके लिये तुम्हारे यज्ञभागकी व्यवस्था कर दूंगा । मनुष्य यज्ञभागके रूपमें पशुका सिर तुम्हें देंगे । इस शुल्कके बदलेमें तुम इसके सिर काट दो और मेरा प्रिय कार्य कर दो ॥ १९-२० ॥
व्यास उवाच एतच्छ्रुत्वा महेन्द्रस्य वचस्तक्षा मुदान्वितः । कुठारेण शिरांस्यस्य चकर्त सुदृढेन हि ॥ २१ ॥
व्यासजी बोले-देवराज इन्द्रका यह वचन सुनकर प्रसन्न हो बढ़ईने अपने सुदृढ़ कुठारसे उसके सिर काट डाले ॥ २१ ॥
छिन्नानि त्रीणि शीर्षाणि पतितानि यदा भुवि । तेभ्यस्तु पक्षिणः क्षिप्रं विनिष्पेतुः सहस्रशः ॥ २२ ॥ कलविङ्कास्तित्तिरयस्तथैव च कपिञ्जलाः । पृथक्पृथग्विनिष्पेतुर्मुखतस्तरसा तदा ॥ २३ ॥
कटे हुए तीनों सिर जब भूमिपर गिरे तब उनमेंसे हजारों पक्षी शीघ्रतापूर्वक निकल पड़े । तब गौरैया, तित्तिर और कपिंजल पक्षी शीघ्रतापूर्वक उसके अलग-अलग मुखोंसे निकले ॥ २२-२३ ॥
येन वेदानधीते स्म सोमं च पिबते तथा । तस्माद्वक्त्रात्किलोत्पेतुः सद्य एव कपिञ्जलाः ॥ २४ ॥ येन सर्वा दिशः कामं पिबन्निव निरीक्षते । तस्मात्तु तित्तिरास्तत्र निःसृतास्तिग्मतेजसः ॥ २५ ॥ यत्सुरापं तु तद्वक्त्रं तस्मात्तु चटकाः किल । विनिष्पेतुस्त्रिशिरस एवं ते विहगा नृप ॥ २६ ॥
जिस मुखसे वह वेदपाठ और सोमपान करता था, उस मुखसे तत्काल बहुत-से कपिंजल पक्षी निकले; जिससे वह सभी दिशाओंका निरीक्षण करता था, उससे अत्यन्त तेजस्वी तित्तिर निकले और हे राजन् ! जिससे वह मधुपान करता था, उस मुखसे गौरैया पक्षी निकले । इस प्रकार त्रिशिरासे वे पक्षी निकले ॥ २४-२६ ॥
एवंविनिःसृतान्दृष्ट्वा तेभ्यः शक्रस्तदाण्डजान् । मुमोद मनसा राजन् जगाम त्रिदिवं पुनः ॥ २७ ॥
हे राजन् ! इस प्रकार उन मुखोंसे पक्षियोंको निकला हुआ देखकर इन्द्रके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई । वे पुनः स्वर्गको चल दिये ॥ २७ ॥
गते शक्रे तु तक्षापि स्वगृहं तरसा ययौ । यज्ञभागं परं लब्ध्वा मुदमाप महीपते ॥ २८ ॥
हे पृथ्वीपते ! इन्द्रके चले जानेपर तक्षा भी शीघ्र ही अपने घर चल दिया । श्रेष्ठ यज्ञभाग पाकर वह बहुत प्रसन्न था ॥ २८ ॥
इन्द्रने भी अपने महाबली शत्रुको मारकर अपने भवन जा करके ब्रह्महत्याकी चिन्ता न करते हुए अपनेको कृतकृत्य मान लिया ॥ २९ ॥
तं श्रुत्वा निहतं त्वष्टा पुत्रं परमधार्मिकम् । चुकोपातीव मनसा वचनं चेदमब्रवीत् ॥ ३० ॥ अनागसं मुनिं यस्मात्पुत्रं निहतवान्मम । तस्मादुत्पादयिष्यामि तद्वधार्थं सुतं पुनः ॥ ३१ ॥ सुराः पश्यन्तु मे वीर्यं तपसश्च बलं तथा । जानातु सर्वं पापात्मा स्वकृतस्य फलं महत् ॥ ३२ ॥
उस परम धार्मिक पुत्रको मारा गया सुनकर त्वष्टाने मनमें अत्यन्त क्रोधित हो यह वचन कहाजिसने मेरे निरपराध मुनिवृत्तिवाले पुत्रको मार डाला है, उसके वधके लिये मैं पुनः पुत्र उत्पन्न करूँगा । देवतालोग मेरे पराक्रम और तपोबलको देख लें; वह पापात्मा भी अपनी करनीका महान् फल जान ले ॥ ३०-३२ ॥
क्रोधसे जाञ्चल्यमान त्वष्टाके ऐसा कहते ही अग्निके समान कान्तिवाला वह पुत्र धुलोकको स्तब्ध करता हुआ बड़ा होने लगा ॥ ३७ ॥
जातः स पर्वताकारः कालमृत्युसमः स्वराट् । किं करोमीति तं प्राह पितरं परमातुरम् ॥ ३८ ॥ कुरु मे नामकं नाथ कार्यं कथय सुव्रत । चिन्तातुरोऽसि कस्मात्त्वं ब्रूहि मे शोककारणम् ॥ ३९ ॥ नाशयाम्यद्य ते शोकमिति मे व्रतमाहितम् । तेन जातेन किं भूयः पिता भवति दुःखितः ॥ ४० ॥ पिबामि सागरं सद्यश्चूर्णयामि धराधरान् । उद्यन्तं वारयाम्यद्य तरणिं तिग्मतेजसम् ॥ ४१ ॥ हन्मीन्द्रं ससुरं सद्यो यमं वा देवतान्तरम् । क्षिपामि सागरे सर्वान्समुत्पाट्य च मेदिनीम् ॥ ४२ ॥
बढ़ते-बढ़ते वह पर्वताकार विशाल और काल पुरुषके समान भयानक हो गया । उसने अत्यन्त दःखित अपने पितासे कहा-मैं क्या करूँ ? हे नाथ ! मेरा नामकरण कीजिये । हे सुव्रत ! मुझे कार्य बताइये, आप चिन्तित क्यों हैं ? मुझे अपने दुःखका कारण बताइये । मैं आज ही आपके शोकका नाश कर दूंगा-ऐसा मेरा दृढ़ संकल्प है । जिस पुत्रके रहते पिता दुःखी हो, उस पुत्रसे क्या लाभ ! मैं शीघ्र ही समुद्रको पी जाऊँगा, पर्वतोंको चूर-चूर कर दूंगा और उगते हुए प्रचण्ड तेजस्वी सूर्यको रोक दूंगा । मैं देवताओंसहित इन्द्रको तथा यमको अथवा अन्य किसी भी देवताको मार डालूँगा । इन सबको तथा पृथ्वीको भी उखाड़कर समुद्र में फेंक दूंगा ॥ ३८-४२ ॥
हे पुत्र ! तुम अभी वृजिन (कष्ट)-से त्राण दिलाने में समर्थ हो, इसलिये तुम्हारा 'वृत्र'-यह नाम प्रसिद्ध होगा । हे महाभाग ! तुम्हारा त्रिशिरा नामका एक तपस्वी भाई था । उसके अत्यन्त शक्तिशाली तीन सिर थे । वह वेद-वेदांगोंके तत्त्वको जाननेवाला, सभी विद्याओंमें निपुण और तीनों लोकोंको आश्चर्यमें डाल देनेवाली तपस्यामें रत था । इन्द्रने वजका प्रहार करके उस निरपराधको मार डाला और उसके मस्तक काट डाले । इसलिये हे पुरुषसिंह ! तुम उस ब्रह्महत्यारे, पापी, निर्लज्ज, दुष्टबुद्धि तथा मूर्ख इन्द्रको मार डालो ॥ ४४-४८ ॥
ऐसा कहकर पुत्रशोकसे व्याकुल त्वष्टाने विविध प्रकारके दिव्य तथा प्रबल आयुधोंका निर्माण किया और इन्द्रका वध करनेके लिये उस महाबली (वृत्र)-को दे दिया । उनमें खड्ग, शूल, गदा, शक्ति, तोमर, शार्ङ्गधनुष, बाण, परिघ, पट्टिश, सुदर्शन चक्रके समान कान्तिमान् हजार अरोंवाला दिव्य चक्र, दो दिव्य तथा अक्षय तरकस और अत्यन्त सुन्दर कवच एवं मेघके समान श्याम आभावाला, सुदृढ़, भार सहनेमें समर्थ और तीव्रगामी रथ था । इस प्रकार हे राजन् ! समस्त युद्धसामग्री तैयार करके क्रोधसे व्याकुल त्वष्टाने अपने पुत्रको देकर उसे भेज दिया ॥ ४९-५३ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादलसाहक्त्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे त्रिशिरवधानन्तरं वृत्रोत्पत्तिवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥