Menus in CSS Css3Menu.com



श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
षष्ठः स्कन्धः
तृतीयोऽध्यायः

[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]


ब्रह्मणः समाराधनाय त्वष्ट्रा वृत्रोपदेशवर्णनम् -
वृत्रासुरका देवलोकपर आक्रमण, बृहस्पतिद्वारा इन्द्रकी भर्त्सना करना और वृत्रासुरको अजेय बतलाना, इन्द्रकी पराजय, त्वष्टाके निर्देशसे वृत्रासुरका ब्रह्माजीको प्रसन्न करनेके लिये तपस्यारत होना -


व्यास उवाच
कृतस्वस्त्ययनो वृत्रो ब्राह्मणैर्वेदपारगैः ।
निर्जगाम रथारूढो हन्तुं शक्रं महाबलः ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् । वेदोंमें पारंगत ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन कराकर महाबली वृत्रासुर रथपर सवार हो इन्द्रको मारनेके लिये चला ॥ १ ॥

तदैव राक्षसाः क्रूराः पुरा देवपराजिताः ।
समाजग्मुश्च सेवार्थं वृत्रं ज्ञात्वा महाबलम् ॥ २ ॥
उस समय बहुत-से क्रूर राक्षस जो पहले देवताओंसे पराजित हो गये थे, वृत्रासुरको महान् बलशाली जानकर उसकी सेवाके लिये आ गये ॥ २ ॥

इन्द्रदूतास्तु तं दृष्ट्वा युद्धाय तु समागतम् ।
वेगादागत्य वृत्तान्तं शशंसुस्तस्य चेष्टितम् ॥ ३ ॥
इन्द्रके दूत उसे युद्धके लिये आया देखकर शीघ्रतापूर्वक [इन्द्रके पास] आकर सम्पूर्ण वृत्तान्त और उसकी गतिविधि बताने लगे ॥ ३ ॥

दूता ऊचुः
स्वामिञ्छीघ्रमिहायाति वृत्रो नाम रिपुस्तव ।
बलवान्स्यन्दने रूढस्त्वष्ट्रा चोत्पादितः किल ॥ ४ ॥
अविचारेण नाशार्थं तव क्रोधान्वितेन वै ।
पुत्रघाताभितप्तेन दुःसहो राक्षसैर्युतः ॥ ५ ॥
दूत बोले-हे स्वामिन् ! वृत्र नामका आपका बलवान् और दुर्धर्ष शत्रु रथपर आरूढ़ होकर राक्षसोंके साथ शीघ्र ही यहाँ आ रहा है । पुत्रशोकसे सन्तप्त और क्रोधाभिभूत त्वष्टाने आपके नाशके लिये अभिचारकर्मसे उसे उत्पन्न किया है ॥ ४-५ ॥

यत्‍नं कुरु महाभाग शीघ्रमायाति साम्प्रतम् ।
मेरुमन्दरसंकाशो घोरशब्दोऽतिदारुणः ॥ ६ ॥
हे महाभाग ! शीघ्र ही [रक्षाका] उपाय कीजिये । सुमेरु और मन्दराचलके समान अत्यन्त भयंकर प्रतीत होनेवाला वह (वृत्रासुर) घोर गर्जन करता हुआ अब शीघ्र यहाँ आ रहा है ॥ ६ ॥

एतस्मिन्नन्तरे तत्र भीता देवगणा भृशम् ।
आगत्योचुः सुरपतिं शृण्वन्तं दूतभाषितम् ॥ ७ ॥
इसी बीच अत्यन्त भयभीत देवगण वहाँ आ करके दूतोंकी बात सुन रहे देवराज इन्द्रसे इस प्रकार कहने लगे ॥ ७ ॥

गणाः ऊचुः
मघवन् दुर्निमित्तानि भवन्ति त्रिदशालये ।
बहूनि भयशंसीनि पक्षिणां विरुतानि च ॥ ८ ॥
काकगृध्रास्तथा श्येनाः कङ्काद्या दारुणाः खगाः ।
रुदन्ति विकृतैः शब्दैरुत्कारैर्भवनोपरि ॥ ९ ॥
चीचीकूचीति निनदान् कुर्वन्ति विहगा भृशम् ।
वाहनानां च नेत्रेभ्यो जलधाराः पतन्त्यधः ॥ १० ॥
श्रूयतेऽतिमहाञ्छब्दो रुदतीनां निशासु च ।
राक्षसीनां महाभाग भवनोपरि दारुणः ॥ ११ ॥
प्रपतन्ति ध्वजास्तूर्णं विना वातेन मानद ।
प्रभवन्ति महोत्पाता दिवि भूम्यन्तरिक्षजाः ॥ १२ ॥
कृष्णाम्बरधरा नार्यो भ्रमन्ति च गृहे गृहे ।
यान्तु यान्तु गृहात्तूर्णं कुर्वन्त्यो विकृताननाः ॥ १३ ॥
रात्रौ स्वप्नेषु कान्तानां सुप्तानां निजमन्दिरे ।
केशाँल्लुनन्ति राक्षस्यो भीषयन्त्यो भृशातुराः ॥ १४ ॥
गण बोले-हे इन्द्र ! इस समय स्वर्गमें अनेक प्रकारके अपशकुन हो रहे हैं । पक्षियोंके बहुत ही डरावने शब्द हो रहे हैं । कौए, गिद्ध, बाज और चील आदि क्रूर पक्षी भवनोंके ऊपर बैठकर भयानक स्वरोंमें रोते हैं और अन्य पक्षी भी बार-बार चीचीकची-ऐसे शब्द कर रहे हैं । [हाथी, घोड़े आदि] वाहनोंकी आँखोंसे लगातार जल (अश्रु) की धाराएँ नीचे गिर रही हैं । हे महाभाग ! भवनोंके ऊपरी भागमें रातमें रोती हुई राक्षसियोंका महाभयानक शब्द सुनायी देता है । हे मानद ! हवाके बिना ही ध्वजाएँ टूटटूटकर गिर पड़ती हैं । स्वर्ग, पृथ्वी और आकाशमें महान् उत्पात हो रहे हैं । काले वस्त्र धारण की हुई भयानक मुखवाली स्त्रियाँ निकल जाओ; घरसे शीघ्र निकल जाओ'-ऐसा कहती हुई घर-घरमें घूमती हैं । रातमें अपने घरमें सोयी हुई स्त्रियोंको भयभीत करती हुई भयानक राक्षसियाँ स्वप्नोंमें उनके बाल नोचती हैं ॥ ८-१४ ॥

एवंविधानि देवेश भूकम्पोल्कादयस्तथा ।
गोमायवो रुदन्ति स्म निशायां भवनाङ्गणे ॥ १५ ॥
सरटानां च जालानि प्रभवन्ति गृहे गृहे ।
अङ्गप्रस्फुरणादीनि दुर्निमित्तानि सर्वशः ॥ १६ ॥
हे देवेन्द्र ! इसी प्रकार भूकम्प और उल्कापात आदि उपद्रव भी हो रहे हैं, रात्रिमें हमारे भवनोंके आँगनमें सियार रुदन करते हैं । गिरगिटोंके समूह घरघरमें उत्पन्न हो रहे हैं, सर्वथा अनिष्टके सूचक अंग-प्रस्फुरण आदि भी होते हैं ॥ १५-१६ ॥

व्यास उवाच
इति तेषां वचः श्रुत्वा चिन्तामाप सुरेश्वरः ।
बृहस्पतिं समाहूय पप्रच्छ च मनोगतम् ॥ १७ ॥
व्यासजी बोले-उन लोगोंका यह वचन सुनकर इन्द्र चिन्तित हो उठे और बृहस्पतिको बुलाकर उन्होंने अपनी मनोगत बात पूछी ॥ १७ ॥

इन्द्र उवाच
ब्रह्मन् किमुत घोराणि निमित्तानि भवन्ति वै ।
वाताश्च दारुणा वान्ति प्रपतन्त्युलकाः खतः ॥ १८ ॥
सर्वज्ञोऽसि महाभाग समर्थो विघ्ननाशने ।
बुद्धिमाञ्छास्त्रतत्त्वज्ञो देवतानां गुरुस्तथा ॥ १९ ॥
कुरु शान्तिं विधानज्ञ शत्रुक्षयविधायिनीम् ।
यथा मे न भवेद्दुःखं तथा कार्यं विधीयताम् ॥ २० ॥
इन्द्र बोले-हे ब्रह्मन् ! ये भयानक अपशकुन क्यों हो रहे हैं ? भयानक आँधयाँ चलती हैं और आकाशसे उल्कापात होते हैं । हे महाभाग ! आप सर्वज्ञ, विघ्नका नाश करनेमें समर्थ, बुद्धिमान्, शास्त्रोंके तत्त्वोंको जाननेवाले और देवताओंके गुरु हैं । इसलिये हे विधानज्ञ ! आप हमारी शान्तिके लिये शत्रुओंका नाश करनेवाला कोई शान्तिकर्म कीजिये । जिस प्रकार मुझे दुःख न हो, आप वैसा कार्य कीजिये ॥ १८-२० ॥

बृहस्पतिरुवाच
किं करोमि सहस्राक्ष त्वयाद्य दुष्कृतं कृतम् ।
अनागसं मुनिं हत्वा किं फलं समुपार्जितम् ॥ २१ ॥
बृहस्पति बोले-हे सहस्र नेत्रोंवाले इन्द्र ! मैं क्या करूँ ? तुमने बहुत बड़ा पाप कर डाला है । निरपराध मुनिको मारकर तुमने क्या लाभ प्राप्त कर लिया ? ॥ २१ ॥

अत्युग्रं पुण्यपापानां फलं भवति सत्वरम् ।
विचार्य खलु कर्तव्यं कार्यं तद्‌भूतिमिच्छता ॥ २२ ॥
परोपतापनं कर्म न कर्तव्यं कदाचन ।
न सुखं विन्दते प्राणी परपीडापरायणः ॥ २३ ॥
पुण्य और पापका अत्यन्त उग्र फल शीघ्र ही प्राप्त होता है, इसलिये ऐश्वर्यकी इच्छा रखनेवालोंको विचारपूर्वक कार्य करना चाहिये । दूसरेको कष्ट पहुँचानेका कृत्य कभी नहीं करना चाहिये । दूसरेको कष्ट देनेमें संलग्न प्राणी कभी सुख नहीं पाता ॥ २२-२३ ॥

मोहाल्लोभाद्‌ब्रह्महत्या कृता शक्र त्वयाधुना ।
तस्य पापस्य सहसा फलमेतदुपागतम् ॥ २४ ॥
हे इन्द्र ! तुमने मोह और लोभके वशीभूत होकर ब्रह्महत्या कर डाली, उसी पापका यह फल आज सहसा उपस्थित हो गया है ॥ २४ ॥

अवध्यः सर्वदेवानां जातोऽसौ वृत्रसंज्ञकः ।
हन्तुं त्वां स समायाति दानवैर्बहुभिर्वृतः ॥ २५ ॥
वृत्र नामवाला यह असुर जन्मसे ही देवताओंसे अवध्य है । बहुत-से दानवोंसे घिरा हुआ वह तुम्हें मारनेके लिये चला आ रहा है ॥ २५ ॥

आयुधानि च सर्वाणि वज्रतुल्यानि वासव ।
त्वष्ट्रा दत्तानि दिव्यानि गृहीत्वा समुपस्थितः ॥ २६ ॥
हे इन्द्र ! त्वष्टाके द्वारा दिये हुए उन सभी वातुल्य तथा दिव्य आयुधोंको लेकर वह उपस्थित हो रहा है ॥ २६ ॥

समागच्छति दुर्धर्षो रथारूढः प्रतापवान् ।
देवेन्द्र प्रलयं कुर्वन्नास्य मृत्युर्भविष्यति ॥ २७ ॥
दुर्धर्ष तथा प्रतापी वह रथपर आरूढ़ होकर प्रलय मचाते हुए चला आ रहा है । हे देवेन्द्र ! उसकी मृत्यु नहीं होगी ॥ २७ ॥

कोलाहलस्तदा जातस्तथा ब्रुवति वाक्पतौ ।
गन्धर्वाः किन्नरा यक्षा मुनयश्च तपोधनाः ॥ २८ ॥
सदनानि विहायैवामराः सर्वे पलायिताः ।
तद्‌दृष्ट्वा महदाश्चर्यं शक्रश्चिन्तापरायणः ॥ २९ ॥
बृहस्पति ऐसा कह ही रहे थे कि वहाँ कोलाहल मच गया । गन्धर्व, किन्नर, यक्ष, मुनि, तपस्वी और सभी देवता अपने-अपने भवन छोड़कर भाग चले । उस महान् आश्चर्यको देखकर इन्द्र चिन्तित हो उठे ॥ २८-२९ ॥

आज्ञापयामास तदा सेनोद्योगाय सेवकान् ।
आनयध्वं वसून् रुद्रानश्विनौ च दिवाकरान् ॥ ३० ॥
पूषणं च भगं वायुं कुबेरं वरुणं यमम् ।
विमानेषु समारुह्य सायुधाः सुरसत्तमाः ॥ ३१ ॥
समागच्छन्तु तरसा शत्रुरायाति साम्प्रतम् ।
इत्याज्ञाप्य सुरपतिः समारुह्य गजोत्तमम् ॥ ३२ ॥
बृहस्पतिं पुरोधाय निर्गतो निजमन्दिरात् ।
तब उन्होंने सेवकोंको सेना तैयार करनेका आदेश दिया । वसुओं, रुद्रों, अश्विनीकुमारों, आदित्यों, पूषा, भग, वायु, कुबेर, वरुण और यमको बुलाओ । सभी श्रेष्ठ देवता आयुधोंके साथ विमानोंपर आरूढ़ होकर यहाँ शीघ्र आ जायें; क्योंकि अब शत्रु आने ही वाला है'-ऐसी आज्ञा देकर देवराज अपने श्रेष्ठ गजराज ऐरावतपर सवार होकर बृहस्पतिको आगे करके अपने भवनसे बाहर निकले ॥ ३०-३२.५ ॥

तथैव त्रिदशाः सर्वे स्वं स्वं वाहनमास्थिताः ॥ ३३ ॥
युद्धाय कृतसंकल्पा निर्ययुः शस्त्रपाणयः ।
वृत्रोऽथ दानवैर्युक्तः सम्प्राप्तो मानसोत्तरम् ॥ ३४ ॥
पर्वतं देवतावासं रम्यं पादपशोभितम् ।
इन्द्रोऽप्यागत्य संग्रामं चकार मानसोत्तरे ॥ ३५ ॥
पर्वते देवतायुक्तो वाचस्पतिपुरःसरः ।
वैसे ही अन्य सभी देवता भी हाथोंमें शस्त्र लेकर अपने-अपने वाहनोंपर सवार होकर युद्धका संकल्प करके चल पड़े । उधर वृत्रासुर भी विशाल दानवी सेनाके साथ वृक्षोंसे सुशोभित, रमणीय तथा देवताओंसे सेवित मानसरोवरके उत्तरवर्ती पर्वतपर आ गया । बृहस्पतिको आगे करके सभी देवताओंके साथ इन्द्रने भी उस मानसोत्तर पर्वतपर आकर संग्राम किया ॥ ३३-३५.५ ॥

तत्राभूद्दारुणं युद्धं वृत्रवासवयोस्तदा ॥ ३६ ॥
गदासिपरिघैः पाशैर्बाणैः शक्तिपरश्वधैः ।
मानुषेण प्रमाणेन संग्रामः शरदां शतम् ॥ ३७ ॥
बभूव भयदो नॄणामृषीणां भावितात्मनाम् ।
तब गदा, तलवार, परिघ, पाश, बाण, शक्ति और परशु आदि युद्धास्त्रोंके द्वारा वृत्रासुर और इन्द्रमें भयानक युद्ध हुआ । मनुष्यों और विशुद्ध हृदयवाले ऋषियोंके लिये अत्यन्त भयकारी वह युद्ध मानववर्षकी गणनासे सौ वर्षोंतक चला ॥ ३६-३७.५ ॥

वरुणः प्रथमं भग्नस्ततो वायुगणः किल ॥ ३८ ॥
यमो विभावसुः शक्रः सर्वे ते निर्गता रणात् ।
पलायनपरान् दृष्ट्वा देवानिन्द्रपुरोगमान् ॥ ३९ ॥
वृत्रोऽपि पितरं प्रागादाश्रमस्थं मुदान्वितम् ।
प्रणम्य प्राह त्वष्टारं पितः कार्यं मया कृतम् ॥ ४० ॥
उस युद्धमें सबसे पहले वरुण और उसके बाद मरुद्गण पलायन कर गये । इसी प्रकार यम, अग्नि, इन्द्र-जो भी थे वे सभी युद्धसे निकल भागे । इन्द्र आदि प्रमुख देवताओंको भागकर जाते देखकर वृत्रासुर भी प्रसन्नतापूर्वक आश्रमस्थित अपने पिताके पास गया और उन्हें प्रणाम करके बोला-हे पिताजी ! मैंने [आपका] कार्य कर दिया ॥ ३८-४० ॥

देवा विनिर्जिताः सर्वे सेन्द्राः समरसंस्थिताः ।
विद्रुतास्ते गताः स्थानं यथा सिंहान्मृगा गजाः ॥ ४१ ॥
इन्द्रः पदातिरगमन्मयानीतो गजोत्तमः ।
ऐरावतोऽयं भगवन् गृहाण द्विरदोत्तमम् ॥ ४२ ॥
युद्धभूमिमें आये हुए इन्द्रसहित सभी देवता मुझसे पराजित हो गये । वे सब उसी प्रकार भयभीत होकर अपने स्थानोंको भाग गये, जैसे सिंहसे डरकर हाथी और मग भाग जाते हैं । इन्द्र तो पैदल ही भाग गये: मैं हाथियोंमें श्रेष्ठ इस ऐरावतको ले आया हूँ । हे भगवन् ! आप इस गजश्रेष्ठको ग्रहण करें ॥ ४१-४२ ॥

न हतास्ते मया यस्मादयुक्तं भीतमारणम् ।
आज्ञापय पुनस्तात किं करोमि तवेप्सितम् ॥ ४३ ॥
मैंने उन सबको इसलिये नहीं मारा; क्योंकि डरे हुएको मारना अनुचित होता है । हे तात ! आप पुनः आज्ञा कीजिये कि मैं आपका कौन-सा इच्छित कार्य करूँ ? ॥ ४३ ॥

निर्जरा निर्गताः सर्वे भयभीता श्रमातुराः ।
इन्द्रोऽप्यैरावतं त्यक्त्वा भयभीतः पलायितः ॥ ४४ ॥
सभी देवता भयभीत और युद्धश्रमसे क्लान्त होकर भाग गये; भयभीत इन्द्र भी ऐरावत छोड़कर भाग गया ॥ ४४ ॥

व्यास उवाच
इति पुत्रवचः श्रुत्वा त्वष्टा प्राह मुदान्वितः ।
पुत्रवानद्य जातोऽस्मि सफलं मम जीवितम् ॥ ४५ ॥
व्यासजी बोले-पुत्रका यह वचन सुनकर त्वष्टाने प्रसन्न होकर कहा-आज मैं पुत्रवान् हो गया हूँ; मेरा जीवन सफल हो गया ॥ ४५ ॥

त्वयाहं पावितः पुत्र गतो मे मानसो ज्वरः ।
निश्चलं मे मनो जातं दृष्ट्वा वीर्यं तवाद्‌भुतम् ॥ ४६ ॥
हे पुत्र ! तुमने आज मुझे पवित्र कर दिया; मेरा मानसिक सन्ताप चला गया । तुम्हारे अद्भुत पराक्रमको देखकर मेरा मन शान्त हो गया ॥ ४६ ॥

शृणु वक्ष्याम्यहं पुत्र हितं तेऽद्य निशामय ।
तपः कुरु महाभाग सावधानः स्थिरासनः ॥ ४७ ॥
हे पुत्र ! सुनो, अब मैं तुम्हारे हितकी बात कह रहा हूँ । हे महाभाग ! अब तुम दृढ़तापूर्वक आसनपर बैठकर सावधान होकर तपस्या करो ॥ ४७ ॥

विश्वासो नैव कर्तव्यः केषाञ्चित्पाकशासनः ।
शत्रुस्ते छलकर्तास्ति नानाभेदविशारदः ॥ ४८ ॥
किसीका भी विश्वास मत करना । वह तुम्हारा शत्रु इन्द्र छल करनेवाला तथा अनेक प्रकारकी भेदनीतिमें निपुण है ॥ ४८ ॥

तपसा प्राप्यते लक्ष्मीस्तपसा राज्यमुत्तमम् ।
तपसा बलवृद्धिः स्यात्संग्रामे विजयस्तथा ॥ ४९ ॥
तपसे लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है, तपसे उत्तम राज्यकी प्राप्ति होती है । तपसे बलकी वृद्धि होती है और संग्राममें विजयकी प्राप्ति होती है ॥ ४९ ॥

आराध्य द्रुहिणं देवं लब्ध्वा वरमनुत्तमम् ।
जहि शक्रं दुराचारं ब्रह्महत्यासमावृतम् ॥ ५० ॥
भगवान् ब्रह्माकी आराधना करके उनसे उत्तम वर प्राप्तकर तुम उस दुराचारी और ब्राह्मणके हत्यारे इन्द्रको मार डालो ॥ ५० ॥

सावधानः स्थिरो भूत्वा दातारं भज शङ्करम् ।
वाञ्छितं स वरं दद्यात्सन्तुष्टश्चतुराननः ॥ ५१ ॥
तुम सावधान और स्थिर होकर कल्याणकारी तथा वरदाता ब्रह्माजीकी आराधना करो । प्रसन्न होनेपर चार मुखवाले वे ब्रह्माजी तुम्हें अभीष्ट वरदान देंगे ॥ ५१ ॥

तोषयित्वा विश्वयोनिं ब्रह्माणममितौजसम् ।
अविनाशित्वमासाद्य जहि शक्रं कृतागसम् ॥ ५२ ॥
विश्वकी सृष्टि करनेवाले अमिततेजस्वी ब्रह्माजीको प्रसन्न करके अमरत्व प्राप्तकर तुम अपराधी इन्द्रको मार डालो ॥ ५२ ॥

वैरं मनसि मे पुत्र वर्तते सुतघातजम् ।
न शान्तिमनुगच्छामि न स्वपामि सुखेन ह ॥ ५३ ॥
हे पुत्र ! मेरे मनमें उस पुत्रघातीके प्रति वैर बना हुआ है, न मुझे शान्ति प्राप्त होती है और न ही मैं सुखसे सो पाता हूँ ॥ ५३ ॥

तापसो मे हतः पुत्रो निरागाः पाप्मना यतः ।
न विन्दामि सुखं वृत्र त्वं मामुद्धर दुःखितम् ॥ ५४ ॥
उस पापीने मेरे निर्दोष तपस्वी पुत्रको मार डाला है, इसलिये मुझे शान्ति नहीं मिलती । हे वृत्र ! तुम मुझ दुःखीका उद्धार करो ॥ ५४ ॥

व्यास उवाच
तदाकर्ण्य पितुर्वाक्यं वृत्रः क्रोधयुतस्तदा ।
आज्ञामादाय च पितुर्जगाम तपसे मुदा ॥ ५५ ॥
व्यासजी बोले-तब पिताका वचन सुनकर वृत्रासुर कुपित हो उठा । पितासे आज्ञा लेकर वह प्रसन्नतापूर्वक तपस्या करनेके लिये चला गया ॥ ५५ ॥

गन्धमादनमासाद्य पुण्यां देवधुनीं शुभाम् ।
स्नात्वा कुशासनं कृत्वा संस्थितश्च स्थिरासनः ॥ ५६ ॥
गन्धमादनपर्वतपर पहुँचकर पवित्र और मंगलकारिणी देवनदी गंगाजीमें स्नान करके कुशका आसन बिछाकर वह दृढ़तापूर्वक बैठ गया ॥ ५६ ॥

त्यक्त्वान्नं वारिपानं च योगाभ्यासपरायणः ।
ध्यायन्विश्वसृजं चित्ते सोपविष्टः स्थिरासने ॥ ५७ ॥
अन्न और जलका त्याग करके योगाभ्यासमें तत्पर होकर मनमें विश्वस्रष्टा ब्रह्माजीका ध्यान करता हुआ वह दृढ़भावसे आसनपर बैठा रहा ॥ ५७ ॥

मघवा तं तपस्यन्तं ज्ञात्वा चिन्तातुरो ह्यभूत् ।
गन्धर्वान्प्रेषयामास विघ्नार्थं पाकशासनः ॥ ५८ ॥
यक्षांश्च पन्नगान्सर्पान्किन्नरानमितौजसः ।
विद्याधरानप्सरसो देवदूताननेकशः ॥ ५९ ॥
उपायास्तैः कृताः सम्यक् तपोविघ्नाय मायिभिः ।
न चचाल ततो ध्यानात्त्वाष्ट्रः परमतापसः ॥ ६० ॥
उसे तपस्या करता हुआ जानकर इन्द्र चिन्तासे व्यग्र हो उठे । तब [उसके तपमें] विघ्न डालनेके लिये इन्द्रने गन्धर्वो, अत्यन्त ओजस्वी यक्षों, नागों, सपों, किन्नरों, विद्याधरों, अप्सराओं और अनेक देवदूतोंको भेजा । उन मायावियोंद्वारा तपमें विघ्नके लिये भलीभाँति उपाय किये गये, किंतु परम तपस्वी त्वष्टापुत्र वृत्र ध्यानसे विचलित नहीं हुआ ॥ ५८-६० ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्या
संहितायां षष्ठस्कन्धे ब्रह्मणः समाराधनाय
त्वष्ट्रा वृत्रोपदेशवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
अध्याय तिसरा समाप्त ॥ ३ ॥


GO TOP