इन्द्रके दूत उसे युद्धके लिये आया देखकर शीघ्रतापूर्वक [इन्द्रके पास] आकर सम्पूर्ण वृत्तान्त और उसकी गतिविधि बताने लगे ॥ ३ ॥
दूता ऊचुः स्वामिञ्छीघ्रमिहायाति वृत्रो नाम रिपुस्तव । बलवान्स्यन्दने रूढस्त्वष्ट्रा चोत्पादितः किल ॥ ४ ॥ अविचारेण नाशार्थं तव क्रोधान्वितेन वै । पुत्रघाताभितप्तेन दुःसहो राक्षसैर्युतः ॥ ५ ॥
दूत बोले-हे स्वामिन् ! वृत्र नामका आपका बलवान् और दुर्धर्ष शत्रु रथपर आरूढ़ होकर राक्षसोंके साथ शीघ्र ही यहाँ आ रहा है । पुत्रशोकसे सन्तप्त और क्रोधाभिभूत त्वष्टाने आपके नाशके लिये अभिचारकर्मसे उसे उत्पन्न किया है ॥ ४-५ ॥
हे महाभाग ! शीघ्र ही [रक्षाका] उपाय कीजिये । सुमेरु और मन्दराचलके समान अत्यन्त भयंकर प्रतीत होनेवाला वह (वृत्रासुर) घोर गर्जन करता हुआ अब शीघ्र यहाँ आ रहा है ॥ ६ ॥
इसी बीच अत्यन्त भयभीत देवगण वहाँ आ करके दूतोंकी बात सुन रहे देवराज इन्द्रसे इस प्रकार कहने लगे ॥ ७ ॥
गणाः ऊचुः मघवन् दुर्निमित्तानि भवन्ति त्रिदशालये । बहूनि भयशंसीनि पक्षिणां विरुतानि च ॥ ८ ॥ काकगृध्रास्तथा श्येनाः कङ्काद्या दारुणाः खगाः । रुदन्ति विकृतैः शब्दैरुत्कारैर्भवनोपरि ॥ ९ ॥ चीचीकूचीति निनदान् कुर्वन्ति विहगा भृशम् । वाहनानां च नेत्रेभ्यो जलधाराः पतन्त्यधः ॥ १० ॥ श्रूयतेऽतिमहाञ्छब्दो रुदतीनां निशासु च । राक्षसीनां महाभाग भवनोपरि दारुणः ॥ ११ ॥ प्रपतन्ति ध्वजास्तूर्णं विना वातेन मानद । प्रभवन्ति महोत्पाता दिवि भूम्यन्तरिक्षजाः ॥ १२ ॥ कृष्णाम्बरधरा नार्यो भ्रमन्ति च गृहे गृहे । यान्तु यान्तु गृहात्तूर्णं कुर्वन्त्यो विकृताननाः ॥ १३ ॥ रात्रौ स्वप्नेषु कान्तानां सुप्तानां निजमन्दिरे । केशाँल्लुनन्ति राक्षस्यो भीषयन्त्यो भृशातुराः ॥ १४ ॥
गण बोले-हे इन्द्र ! इस समय स्वर्गमें अनेक प्रकारके अपशकुन हो रहे हैं । पक्षियोंके बहुत ही डरावने शब्द हो रहे हैं । कौए, गिद्ध, बाज और चील आदि क्रूर पक्षी भवनोंके ऊपर बैठकर भयानक स्वरोंमें रोते हैं और अन्य पक्षी भी बार-बार चीचीकची-ऐसे शब्द कर रहे हैं । [हाथी, घोड़े आदि] वाहनोंकी आँखोंसे लगातार जल (अश्रु) की धाराएँ नीचे गिर रही हैं । हे महाभाग ! भवनोंके ऊपरी भागमें रातमें रोती हुई राक्षसियोंका महाभयानक शब्द सुनायी देता है । हे मानद ! हवाके बिना ही ध्वजाएँ टूटटूटकर गिर पड़ती हैं । स्वर्ग, पृथ्वी और आकाशमें महान् उत्पात हो रहे हैं । काले वस्त्र धारण की हुई भयानक मुखवाली स्त्रियाँ निकल जाओ; घरसे शीघ्र निकल जाओ'-ऐसा कहती हुई घर-घरमें घूमती हैं । रातमें अपने घरमें सोयी हुई स्त्रियोंको भयभीत करती हुई भयानक राक्षसियाँ स्वप्नोंमें उनके बाल नोचती हैं ॥ ८-१४ ॥
एवंविधानि देवेश भूकम्पोल्कादयस्तथा । गोमायवो रुदन्ति स्म निशायां भवनाङ्गणे ॥ १५ ॥ सरटानां च जालानि प्रभवन्ति गृहे गृहे । अङ्गप्रस्फुरणादीनि दुर्निमित्तानि सर्वशः ॥ १६ ॥
हे देवेन्द्र ! इसी प्रकार भूकम्प और उल्कापात आदि उपद्रव भी हो रहे हैं, रात्रिमें हमारे भवनोंके आँगनमें सियार रुदन करते हैं । गिरगिटोंके समूह घरघरमें उत्पन्न हो रहे हैं, सर्वथा अनिष्टके सूचक अंग-प्रस्फुरण आदि भी होते हैं ॥ १५-१६ ॥
व्यास उवाच इति तेषां वचः श्रुत्वा चिन्तामाप सुरेश्वरः । बृहस्पतिं समाहूय पप्रच्छ च मनोगतम् ॥ १७ ॥
व्यासजी बोले-उन लोगोंका यह वचन सुनकर इन्द्र चिन्तित हो उठे और बृहस्पतिको बुलाकर उन्होंने अपनी मनोगत बात पूछी ॥ १७ ॥
इन्द्र उवाच ब्रह्मन् किमुत घोराणि निमित्तानि भवन्ति वै । वाताश्च दारुणा वान्ति प्रपतन्त्युलकाः खतः ॥ १८ ॥ सर्वज्ञोऽसि महाभाग समर्थो विघ्ननाशने । बुद्धिमाञ्छास्त्रतत्त्वज्ञो देवतानां गुरुस्तथा ॥ १९ ॥ कुरु शान्तिं विधानज्ञ शत्रुक्षयविधायिनीम् । यथा मे न भवेद्दुःखं तथा कार्यं विधीयताम् ॥ २० ॥
इन्द्र बोले-हे ब्रह्मन् ! ये भयानक अपशकुन क्यों हो रहे हैं ? भयानक आँधयाँ चलती हैं और आकाशसे उल्कापात होते हैं । हे महाभाग ! आप सर्वज्ञ, विघ्नका नाश करनेमें समर्थ, बुद्धिमान्, शास्त्रोंके तत्त्वोंको जाननेवाले और देवताओंके गुरु हैं । इसलिये हे विधानज्ञ ! आप हमारी शान्तिके लिये शत्रुओंका नाश करनेवाला कोई शान्तिकर्म कीजिये । जिस प्रकार मुझे दुःख न हो, आप वैसा कार्य कीजिये ॥ १८-२० ॥
बृहस्पति बोले-हे सहस्र नेत्रोंवाले इन्द्र ! मैं क्या करूँ ? तुमने बहुत बड़ा पाप कर डाला है । निरपराध मुनिको मारकर तुमने क्या लाभ प्राप्त कर लिया ? ॥ २१ ॥
अत्युग्रं पुण्यपापानां फलं भवति सत्वरम् । विचार्य खलु कर्तव्यं कार्यं तद्भूतिमिच्छता ॥ २२ ॥ परोपतापनं कर्म न कर्तव्यं कदाचन । न सुखं विन्दते प्राणी परपीडापरायणः ॥ २३ ॥
पुण्य और पापका अत्यन्त उग्र फल शीघ्र ही प्राप्त होता है, इसलिये ऐश्वर्यकी इच्छा रखनेवालोंको विचारपूर्वक कार्य करना चाहिये । दूसरेको कष्ट पहुँचानेका कृत्य कभी नहीं करना चाहिये । दूसरेको कष्ट देनेमें संलग्न प्राणी कभी सुख नहीं पाता ॥ २२-२३ ॥
मोहाल्लोभाद्ब्रह्महत्या कृता शक्र त्वयाधुना । तस्य पापस्य सहसा फलमेतदुपागतम् ॥ २४ ॥
हे इन्द्र ! तुमने मोह और लोभके वशीभूत होकर ब्रह्महत्या कर डाली, उसी पापका यह फल आज सहसा उपस्थित हो गया है ॥ २४ ॥
अवध्यः सर्वदेवानां जातोऽसौ वृत्रसंज्ञकः । हन्तुं त्वां स समायाति दानवैर्बहुभिर्वृतः ॥ २५ ॥
वृत्र नामवाला यह असुर जन्मसे ही देवताओंसे अवध्य है । बहुत-से दानवोंसे घिरा हुआ वह तुम्हें मारनेके लिये चला आ रहा है ॥ २५ ॥
आयुधानि च सर्वाणि वज्रतुल्यानि वासव । त्वष्ट्रा दत्तानि दिव्यानि गृहीत्वा समुपस्थितः ॥ २६ ॥
हे इन्द्र ! त्वष्टाके द्वारा दिये हुए उन सभी वातुल्य तथा दिव्य आयुधोंको लेकर वह उपस्थित हो रहा है ॥ २६ ॥
बृहस्पति ऐसा कह ही रहे थे कि वहाँ कोलाहल मच गया । गन्धर्व, किन्नर, यक्ष, मुनि, तपस्वी और सभी देवता अपने-अपने भवन छोड़कर भाग चले । उस महान् आश्चर्यको देखकर इन्द्र चिन्तित हो उठे ॥ २८-२९ ॥
तब उन्होंने सेवकोंको सेना तैयार करनेका आदेश दिया । वसुओं, रुद्रों, अश्विनीकुमारों, आदित्यों, पूषा, भग, वायु, कुबेर, वरुण और यमको बुलाओ । सभी श्रेष्ठ देवता आयुधोंके साथ विमानोंपर आरूढ़ होकर यहाँ शीघ्र आ जायें; क्योंकि अब शत्रु आने ही वाला है'-ऐसी आज्ञा देकर देवराज अपने श्रेष्ठ गजराज ऐरावतपर सवार होकर बृहस्पतिको आगे करके अपने भवनसे बाहर निकले ॥ ३०-३२.५ ॥
वैसे ही अन्य सभी देवता भी हाथोंमें शस्त्र लेकर अपने-अपने वाहनोंपर सवार होकर युद्धका संकल्प करके चल पड़े । उधर वृत्रासुर भी विशाल दानवी सेनाके साथ वृक्षोंसे सुशोभित, रमणीय तथा देवताओंसे सेवित मानसरोवरके उत्तरवर्ती पर्वतपर आ गया । बृहस्पतिको आगे करके सभी देवताओंके साथ इन्द्रने भी उस मानसोत्तर पर्वतपर आकर संग्राम किया ॥ ३३-३५.५ ॥
तब गदा, तलवार, परिघ, पाश, बाण, शक्ति और परशु आदि युद्धास्त्रोंके द्वारा वृत्रासुर और इन्द्रमें भयानक युद्ध हुआ । मनुष्यों और विशुद्ध हृदयवाले ऋषियोंके लिये अत्यन्त भयकारी वह युद्ध मानववर्षकी गणनासे सौ वर्षोंतक चला ॥ ३६-३७.५ ॥
उस युद्धमें सबसे पहले वरुण और उसके बाद मरुद्गण पलायन कर गये । इसी प्रकार यम, अग्नि, इन्द्र-जो भी थे वे सभी युद्धसे निकल भागे । इन्द्र आदि प्रमुख देवताओंको भागकर जाते देखकर वृत्रासुर भी प्रसन्नतापूर्वक आश्रमस्थित अपने पिताके पास गया और उन्हें प्रणाम करके बोला-हे पिताजी ! मैंने [आपका] कार्य कर दिया ॥ ३८-४० ॥
युद्धभूमिमें आये हुए इन्द्रसहित सभी देवता मुझसे पराजित हो गये । वे सब उसी प्रकार भयभीत होकर अपने स्थानोंको भाग गये, जैसे सिंहसे डरकर हाथी और मग भाग जाते हैं । इन्द्र तो पैदल ही भाग गये: मैं हाथियोंमें श्रेष्ठ इस ऐरावतको ले आया हूँ । हे भगवन् ! आप इस गजश्रेष्ठको ग्रहण करें ॥ ४१-४२ ॥
उसे तपस्या करता हुआ जानकर इन्द्र चिन्तासे व्यग्र हो उठे । तब [उसके तपमें] विघ्न डालनेके लिये इन्द्रने गन्धर्वो, अत्यन्त ओजस्वी यक्षों, नागों, सपों, किन्नरों, विद्याधरों, अप्सराओं और अनेक देवदूतोंको भेजा । उन मायावियोंद्वारा तपमें विघ्नके लिये भलीभाँति उपाय किये गये, किंतु परम तपस्वी त्वष्टापुत्र वृत्र ध्यानसे विचलित नहीं हुआ ॥ ५८-६० ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्या संहितायां षष्ठस्कन्धे ब्रह्मणः समाराधनाय त्वष्ट्रा वृत्रोपदेशवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥