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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
षष्ठः स्कन्धः
चतुर्थोऽध्यायः

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ब्रह्मनेतृत्वे सेन्द्रैः सुरैर्विष्णोः शरणगमनवर्णनम् -
तपस्यासे प्रसन्न होकर ब्रह्माजीका वृत्रासुरको वरदान देना, त्वष्टाकी प्रेरणासे वृत्रासुरका स्वर्गपर आक्रमण करके अपने अधिकारमें कर लेना, इन्द्रका पितामह ब्रह्मा और भगवान् शंकरके साथ वैकुण्ठधाम जाना -


व्यास उवाच
निर्गतास्ते परावृत्तास्तपोविघ्नकराः सुराः ।
निराशाः कार्यसंसिद्ध्यै तं दृष्ट्वा दृढचेतसम् ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-उस वृत्रासुरको दृढप्रतिज्ञ देखकर तपमें विघ्न डालनेके लिये गये हुए देवगण अपने कार्यकी सिद्धिसे निराश होकर वापस लौट आये ॥ १ ॥

जाते वर्षशते पूर्णे ब्रह्मा लोकपितामहः ।
तत्राजगाम तरसा हंसारूढश्चतुर्मुखः ॥ २ ॥
सौ वर्ष पूर्ण होनेपर लोकपितामह चतुर्मुख ब्रह्मा हंसपर आरूढ़ हो शीघ्रतापूर्वक उसके पास आये ॥ २ ॥

आगत्य तमुवाचेदं त्वष्ट्टपुत्र सुखी भव ।
त्यक्त्वा ध्यानं वरं ब्रूहि ददामि तव वाञ्छितम् ॥ ३ ॥
आकर उन्होंने उससे यह कहा-हे त्वष्टाके पुत्र ! तुम सुखी होओ, ध्यानका त्यागकर वरदान माँगो, मैं तुम्हारा इच्छित वर दूंगा ॥ ३ ॥

तपसा तेऽद्य तुष्टोऽस्मि त्वां दृष्ट्वा चातिकर्शितम् ।
वरं वरय भद्रं ते मनोऽभिलषितं तव ॥ ४ ॥
तुम्हें तपस्यासे अत्यन्त कृशकाय देखकर मैं प्रसन्न हूँ । तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम अपना मनोभिलषित वर माँग लो ॥ ४ ॥

व्यास उवाच
वृत्रस्तदातिविशदां पुरतो निशम्य
    वाचं सुधासमरसां जगदेककर्तुः ।
सन्त्यज्य योगकलनां सहसोदतिष्ठ-
    त्सञ्जातहर्षनयनाश्रुकलाकलापः ॥ ५ ॥
व्यासजी बोले-अपने समक्ष खड़े जगत्के एकमात्र स्रष्टा [ब्रह्माजी]-की अत्यन्त गम्भीर और अमृतरसतुल्य वाणी सुनकर वह वृत्रासुर योग-ध्यान त्यागकर सहसा उठ खड़ा हुआ । हर्षातिरेकसे उसके नेत्रोंसे अश्रुधारा बहने लगी ॥ ५ ॥

पादौ प्रणम्य शिरसा प्रणयाद्विधातु-
    र्बद्धाञ्जलिः पुरत एव समाससाद ।
प्रोवाच तं सुवरदं तपसा प्रसन्नं
    प्रेम्णातिगद्‌गदगिरा विनयेन नम्रः ॥ ६ ॥
प्रेमपूर्वक विधाता ब्रह्माजीके चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर वह उनके समक्ष स्थित हो गया और तपस्यासे प्रसन्न तथा उत्तम वर देनेवाले ब्रह्माजीसे विनयावनत होकर प्रेमपूर्ण गद्गद वाणीमें कहने लगा- ॥ ६ ॥

प्राप्तं मया सकलदेवपदं प्रभोऽद्य
    यद्दर्शनं तव सुदुर्लभमाशु जातम् ।
वाञ्छास्ति नाथ मनसि प्रवणे दुरापा
    तां प्रब्रवीमि कमलासन वेत्सि भावम् ॥ ७ ॥
हे प्रभो ! मैंने आज समस्त देवताओंका पद प्राप्त कर लिया जो कि मुझे शीघ्र ही आपका अत्यन्त दुर्लभ दर्शन प्राप्त हो गया । हे नाथ ! हे कमलासन ! आप सबके मनके भाव जानते हैं, फिर भी मेरे भक्तिपूर्ण मनमें एक दुर्लभ अभिलाषा है, उसे मैं आपसे कह रहा हूँ ॥ ७ ॥

मृत्युश्च मा भवतु मे किल लोहकाष्ठ-
    शुष्कार्द्रवंशनिचयैरपरैश्च शस्त्रैः ।
वृद्धि प्रयातु मम वीर्यमतीव युद्धे
    यस्माद्‌भवामि सबलैरमरैरजेयः ॥ ८ ॥
लोहे, काष्ठ, सूखे या गीले बाँसद्वारा निर्मित तथा अन्य किसी शस्त्रसे मेरी कभी मृत्यु न हो । मेरा पराक्रम अत्यन्त बढ़ जाय, जिससे युद्ध में मैं उन बलवान् देवताओंसे अजेय हो जाऊँ ॥ ८ ॥

व्यास उवाच
इत्थं सम्प्रार्थितो ब्रह्मा तमाह प्रहसन्निव ।
उत्तिष्ठ गच्छ भद्रं ते वाञ्छितं सफलं सदा ॥ ९ ॥
व्यासजी बोले-उसके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर ब्रह्माजी उससे हँसते हुए बोले-[हे वत्स !] उठो और [घर] जाओ, तुम्हारा मनोरथ निश्चय ही पूर्ण होगा । तुम्हारा कल्याण हो ॥ ९ ॥

न शुष्केण न चार्द्रेण न पाषाणेन दारुणा ।
भविष्यति च ते मृत्युरिति सत्यं ब्रवीम्यहम् ॥ १० ॥
न सूखी, न गीली वस्तुसे, न तो पत्थर या लकड़ीद्वारा निर्मित शस्त्रसे ही तुम्हारी मृत्यु होगीयह मैं सत्य कह रहा हूँ ॥ १० ॥

इति दत्त्वा वरं ब्रह्मा जगाम भुवनं परम् ।
वृत्रस्तु तं वरं लब्धा मुदितः स्वगृहं ययौ ॥ ११ ॥
ऐसा वरदान देकर ब्रह्माजी अपने दिव्य लोकको चले गये और वृत्रासुर भी वरदान प्राप्तकर प्रसन्नतापूर्वक अपने घर चला गया ॥ ११ ॥

शशंस पितुरग्रे तद्वरदानं महामतिः ।
त्वष्टा तु मुदितः प्राप्तं पुत्रं प्राप्तवरं तदा ॥ १२ ॥
महाबुद्धिमान् वृत्रासुरने पिताके सम्मुख उस वरदानको सुनाया, तब त्वष्टा भी पुत्रके वरदान प्राप्त करनेसे अत्यन्त प्रसन्न हो गये ॥ १२ ॥

स्वस्ति तेऽस्तु महाभाग जहि शक्रं रिपुं मम ।
हत्वागच्छ त्रिशिरसो हन्तारं पापसंयुतम् ॥ १३ ॥
उन्होंने कहा-हे महाभाग ! तुम्हारा कल्याण हो, मेरे शत्रु और त्रिशिराके हत्यारे पापी इन्द्रको मार डालो; उसे मारकर आ जाओ ॥ १३ ॥

भव त्वं त्रिदशाधीशः सम्प्राप्य विजयं रणे ।
ममाधिं छिन्धि विपुलं पुत्रनाशसमुद्‌भवम् ॥ १४ ॥
युद्ध में विजय प्राप्तकर तुम देवताओंके अधिपति बनो । पुत्रहत्यासे उत्पन्न मेरे महान् मानसिक सन्तापको तुम दूर करो ॥ १४ ॥

जीवतो वाक्यकरणात्क्षयाहे भूरिभोजनात् ।
गयायां पिण्डदानाच्च त्रिभिः पुत्रस्य पुत्रता ॥ १५ ॥
जीवित [अवस्थामें] पिताकी आज्ञाका पालन करने, मृत्युतिथिपर पर्याप्त भोजन कराने तथा गयामें पिण्डदान करने-इन तीनोंसे ही पुत्रका पुत्रत्व सार्थक होता है ॥ १५ ॥

तस्मात्पुत्र ममात्यर्थं दुःखं नाशितुमर्हसि ।
त्रिशिरा मम चित्तात्तु नापसर्पति कर्हिचित् ॥ १६ ॥
अतः हे पुत्र ! तुम मेरे बहुत बड़े दुःखको दूर करने में समर्थ हो; त्रिशिरा मेरे चित्तसे कभी हटता नहीं है ॥ १६ ॥

सुशीलः सत्यवादी च तापसो वेदवित्तमः ।
अपराधं विना तेन निहतः पापबुद्धिना ॥ १७ ॥

उस सुशील, सत्यवादी, तपस्वी और वेदवेत्ताको बिना किसी अपराधके ही पापबुद्धिवाले उस इन्द्रने मार डाला ॥ १७ ॥

व्यास उवाच
इति तस्य वचः श्रुत्वा वृत्रः परमदुर्जयः ।
रथमारुह्य तरसा निर्जगाम पितुर्गृहात् ॥ १८ ॥
रणदुन्दुभिनिर्घोषं शङ्खनादं महाबलम् ।
कारयित्वा प्रयाणं स चकार मदगर्वितः ॥ १९ ॥
व्यासजी बोले-उनकी ऐसी बात सुनकर परम दुर्जय वृत्रासुर स्थपर सवार हो शीघ्र ही [अपने] पिताके घरसे निकल पड़ा । रणभेरियोंकी ध्वनि तथा महान् शंखनाद कराकर उस मदोन्मत्तने प्रस्थान किया ॥ १८-१९ ॥

निर्ययौ नयसंयुक्तः सेवकानिति संवदन् ।
हत्वा शक्रं ग्रहीष्यामि सुरराज्यमकण्टकम् ॥ २० ॥
'इन्द्रको मारकर निष्कण्टक देव-राज्य अधिकृत कर लँगा'-ऐसा सेवकोंसे कहते हुए वह नीतिवान् वृत्र निकल पड़ा ॥ २० ॥

इत्युक्त्वा निर्जगामाशु स्वसैन्यपरिवारितः ।
महता सैन्यनादेन भीषयन्नमरावतीम् ॥ २१ ॥
ऐसा कहकर सैनिकोंके महान् घोषसे अमरावती (इन्द्रपुरी)-को भयभीत करता हुआ वह अपनी सेनाके साथ शीघ्रतापूर्वक निकला ॥ २१ ॥

तमागच्छन्तमाज्ञाय तुराषाडपि सत्वरः ।
सेनोद्योगं भयत्रस्तः कारयामास भारत ॥ २२ ॥
हे भारत ! उसे आता हुआ जानकर भयभीत इन्द्र भी शीघ्रतापूर्वक सेनाकी तैयारी कराने लगे ॥ २२ ॥

सर्वानाहूय तरसा लोकपालानरिन्दमः ।
युद्धार्थं प्रेरयन्सर्वान्व्यरोचत महाद्युतिः ॥ २३ ॥
उन शत्रुदमन इन्द्रने शीघ्र ही सभी लोकपालोंको बुलाकर उन्हें युद्धकी तैयारी करनेके लिये प्रेरित किया, उस समय वे अत्यन्त कान्तिमान् लग रहे थे ॥ २३ ॥

गृध्रन्व्यूहं ततः कृत्वा संस्थितः पाकशासनः ।
तत्राजगाम वेगात्तु वृत्रः परबलार्दनः ॥ २४ ॥
तत्पश्चात् गृध्रव्यूहका निर्माण करके इन्द्र युद्धके लिये डट गये; उसी समय शत्रुसेनाका विध्वंस कर डालनेवाला वृत्रासुर भी वहाँ वेगपूर्वक आ पहुँचा ॥ २४ ॥

देवदानवयोस्तावत्संग्रामस्तुमुलोऽभवत् ।
वृत्रवासवयोः संख्ये मनसा विजयैषिणोः ॥ २५ ॥
तब युद्धक्षेत्रमें अपने-अपने मनमें विजयकी इच्छा रखनेवाले इन्द्र तथा वृत्रासुरकी देव-दानव सेनाओंमें भीषण संग्राम होने लगा ॥ २५ ॥

एवं परस्परं युद्धे सन्दीप्ते भयदे भृशम् ।
आकूतं देवताः प्रापुर्दैत्याश्च परमां मुदम् ॥ २६ ॥
इस प्रकार परस्पर युद्धके उग्र और भयंकर हो जानेपर देवगण व्याकुल और दानव अत्यन्त प्रसन्न हो गये ॥ २६ ॥

तोमरैर्भिन्दिपालैश्च खड्गैः परशुपट्टिशैः ।
जघ्नुः परस्परं देवदैत्या स्वस्ववरायुधैः ॥ २७ ॥
उस युद्ध में तोमर, भिन्दिपाल, तलवार, परशु और पट्टिश-इन अपने-अपने श्रेष्ठ आयुधोंसे देवता और दैत्य एक-दूसरेपर प्रहार कर रहे थे ॥ २७ ॥

एवं युद्धे वर्तमाने दारुणे लोमहर्षणे ।
शक्रं जग्राह सहसा वृत्रः क्रोधसमन्वितः ॥ २८ ॥
इस प्रकारके हो रहे रोमांचकारी और भयंकर संग्राममें क्रोधाभिभूत वृत्रासुरने अचानक इन्द्रको पकड़ लिया । २८ ॥

अपावृत्य मुखे क्षिप्त्वा स्थितो वृत्रः शतक्रतुम् ।
मुदितोऽभून्महाराज पूर्ववैरमनुस्मरन् ॥ २९ ॥
हे महाराज ! वृत्रासुर इन्द्रको कवच-वस्त्र आदिसे रहित करके अपने मुख में डालकर स्थित हो गया और पूर्ववैरका स्मरण करते हुए वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ ॥ २९ ॥

शक्रे ग्रस्तेऽथ वृत्रेण संभ्रान्ता निर्जरास्तदा ।
चुक्रुशः परमार्तास्ते हा शक्रेति मुहुर्मुहुः ॥ ३० ॥
वृत्रासुरके द्वारा इन्द्रको निगला गया देखकर देवता विस्मित हो गये और अत्यन्त दु:खी होकर 'हा इन्द्र ! हा इन्द्र !' कहकर चिल्लाने लगे ॥ ३० ॥

अपावृतं मुखे शक्रं ज्ञात्वा सर्वे दिवौकसः ।
बृहस्पतिं प्रणम्योचुर्दीना व्यथितचेतसः ॥ ३१ ॥
जब देवताओंको यह ज्ञात हुआ कि इन्द्रको वृत्रने मुखमें रखकर छिपा लिया है तो वे अत्यन्त दुःखित होकर बृहस्पतिके पास गये और उनसे दीन वाणीमें बोले- ॥ ३१ ॥

किं कर्तव्यं द्विजश्रेष्ठ त्वमस्माकं गुरुः परः ।
शक्रो ग्रस्तस्तु वृत्रेण रक्षितो देवतान्तरैः ॥ ३२ ॥
हे द्विजश्रेष्ठ ! देवसेनासे सुरक्षित इन्द्रको वृत्रासुरने अपने मुखमें रख लिया है । अब हम क्या करें ? आप हमारे परम गुरु हैं ॥ ३२ ॥

विना शक्रेण किं कुर्मः सर्वे हीनपराक्रमाः ।
अभिचारं कुरु विभो सत्वरः शक्रमुक्तये ॥ ३३ ॥
इन्द्रके बिना हमलोग क्या करें, हम सब पराक्रमहीन हो गये हैं । हे विभो ! इन्द्रकी मुक्तिके लिये आप शीघ्र ही अभिचार-क्रिया कीजिये ॥ ३३ ॥

बृहस्पतिरुवाच
किं कर्तव्यं सुराः क्षिप्तो मुखमध्येऽस्ति वासवः ।
वृत्रेणोत्सादितो जीवन्नस्ति कोष्ठान्तरे रिपोः ॥ ३४ ॥
बृहस्पति बोले-हे देवताओ ! क्या किया जाय ? उसने इन्द्रको मुखमें रख लिया है, वृत्रासुरके द्वारा पीड़ित वे इन्द्र उस शत्रुके मुखमें भी जीवित हैं ॥ ३४ ॥

व्यास उवाच
देवाश्चिन्तातुराः सर्वे तुरासाहं तथाकृतम् ।
दृष्ट्वा विमृश्य तरसा चक्रुर्यत्‍नं विमुक्तये ॥ ३५ ॥
व्यासजी बोले-इन्द्रको उस स्थितिमें प्राप्त देखकर चिन्तित देवताओंने भलीभाँति सोचकर उनकी मुक्तिके लिये शीघ्र ही एक उपाय किया ॥ ३५ ॥

असृजन्त महासत्त्वां जृम्भिकां रिपुनाशिनीम् ।
ततो विजृम्भमाणः स व्यावृतास्यो बभूव ह ॥ ३६ ॥
उन्होंने अत्यन्त शक्तिशालिनी और शत्रुनाशिनी जम्हाईका सृजन किया; इससे उसे जम्हाई आते ही उस वृत्रासुरका मुख खुल गया ॥ ३६ ॥

विजृम्भमाणस्य ततो वृत्रस्यास्यादवापतत् ।
स्वान्यङ्गान्यपि संक्षिप्य निष्क्रान्तो बलसूदनः ॥ ३७ ॥
तत्पश्चात् जम्हाई लेते हुए वृत्रासुरके मुखसे बल नामक दैत्यका नाश करनेवाले इन्द्र अपने अंगोंको संकुचित करके बाहर निकल आये ॥ ३७ ॥

ततः प्रभृति लोकेषु जृम्भिका प्राणिसंस्थिता ।
जहृषुश्च सुराः सर्वे शक्रं दृष्ट्वा विनिर्गतम् ॥ ३८ ॥
उसी समयसे संसारके सभी प्राणियोंके शरीरमें जम्हाई विद्यमान रहने लगी । इन्द्रको बाहर निकला हुआ देखकर सभी देवता हर्षित हो उठे ॥ ३८ ॥

ततः प्रववृते युद्धं तयोर्लोकभयप्रदम् ।
वर्षाणामयुतं यावद्दारुणं लोमहर्षणम् ॥ ३९ ॥
तब उन दोनोंमें तीनों लोकोंके लिये भयदायक, रोमांचकारी और भीषण युद्ध प्रारम्भ हो गया, जो दस हजार वर्षांतक चला ॥ ३९ ॥

एकतश्च सुराः सर्वे युद्धाय समुपस्थिताः ।
एकतो बलवांस्त्वाष्ट्रः संग्रामे समवर्तत ॥ ४० ॥
युद्ध करनेके लिये संग्राममें एक ओर सभी देवता उपस्थित थे तो दूसरी ओर त्वष्टाका बलशाली पुत्र वृत्रासुर डटा हुआ था ॥ ४० ॥

यदा व्यवर्धत रणे वृत्रो वरमदावृतः ।
पराजितस्तदा शक्रस्तेजसा तस्य धर्षितः ॥ ४१ ॥
वरदानके अहंकारसे उन्मत्त वृत्रासुरका उत्कर्ष जब रणमें प्रबल हो गया, तब उसके तेजसे पराक्रमहीन इन्द्र पराजित हो गये ॥ ४१ ॥

विव्यथे मघवा युद्धे ततः प्राप्य पराजयम् ।
विषादमगमन्देवा दृष्ट्वा शक्रं पराजितम् ॥ ४२ ॥
उससे युद्धमें पराजय प्राप्त करके इन्द्रको बहुत व्यथा हुई और उन्हें पराजित देखकर देवगण भी विषादग्रस्त हो गये ॥ ४२ ॥

जग्मुस्त्यक्त्वा रणं सर्वे देवा इन्द्रपुरोगमाः ।
गृहीतं देवसदनं वृत्रेणागत्य रंहसा ॥ ४३ ॥
तब इन्द्र आदि समस्त देवता युद्ध छोड़कर भाग गये और वृत्रासुरने शीघ्रतापूर्वक आकर अमरावतीपर अधिकार कर लिया ॥ ४३ ॥

देवोद्यानानिसर्वाणि भुङ्क्तेऽसौ दानवो बलात् ।
ऐरावतोऽपि दैत्येन गृहीतोऽसौ गजोत्तमः ॥ ४४ ॥
अब वह दानव समस्त देवोद्यानोंका बलपूर्वक उपभोग करने लगा । उस दैत्य वृत्रासुरके द्वारा गजश्रेष्ठ ऐरावत भी अधिकारमें कर लिया गया ॥ ४४ ॥

विमानानि च सर्वाणि गृहीतानि विशाम्पते ।
उच्चैःश्रवा हयवरो जातस्तस्य वशे तदा ॥ ४५ ॥
हे राजन् ! तत्पश्चात् उसने समस्त विमानोंको ग्रहण कर लिया और अश्वश्रेष्ठ उच्चैःश्रवाको भी अपने अधीन कर लिया ॥ ४५ ॥

कामधेनुः पारिजातो गणश्चाप्सरसां तथा ।
गृहीतं रत्‍नमात्रं तु तेन त्वष्ट्टसुतेन ह ॥ ४६ ॥
उसी प्रकार कामधेनु, कल्पवृक्ष, अप्सराओंका समूह तथा रत्न आदि जो कुछ था; वह सब उस त्वष्टापुत्र वृत्रने अपने अधिकारमें कर लिया ॥ ४६ ॥

स्थानभ्रष्टाः सुराः सर्वे गिरिदुर्गेषु संस्थिताः ।
दुःखमापुः परिभ्रष्टा यज्ञभागात्सुरालयात् ॥ ४७ ॥
अब राज्यच्युत होकर सभी देवता पर्वतोंकी कन्दराओंमें रहकर अत्यन्त दुःख प्राप्त करने लगे । वे यज्ञभाग और देवसदन-दोनोंसे वंचित हो गये ॥ ४७ ॥

वृत्रः सुरपदं प्राप्य बभूव मदगर्वितः ।
त्वष्टातीव सुखं प्राप्य मुमोद सुतसंयुतः ॥ ४८ ॥
वृत्रासुर देव-राज्य पाकर मदोन्मत्त हो गया । त्वष्टा भी अत्यन्त सुख प्राप्तकर पुत्रके साथ आनन्दपूर्वक रहने लगे ॥ ४८ ॥

अमन्त्रयन्हितं देवा मुनिभिः सह भारत ।
किं कर्तव्यमिति प्राप्ते विचिन्त्य भयमोहिताः ॥ ४९ ॥
जग्मुः कैलासमचलं सुराः शक्रसमन्विताः ।
महादेवं प्रणम्योचुः प्रह्वाः प्राञ्जलयो भृशम् ॥ ५० ॥
हे भारत ! देवगण अपने कल्याणके लिये मुनियोंके साथ विचार-विमर्श करने लगे कि इस स्थितिके प्राप्त होनेपर अब हमें क्या करना चाहियेऐसा विचार करके भयमोहित वे देवगण इन्द्र के साथ कैलासपर्वतपर गये और वहाँ देवाधिदेव भगवान् शंकरको प्रणाम करके विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर कहने लगे- ॥ ४९-५० ॥

देवदेव महादेव कृपासिन्धो महेश्वर ।
रक्षास्मान्भयभीतांस्तु वृत्रेणातिपराजितान् ॥ ५१ ॥
हे देव ! हे महादेव ! हे कृपासागर ! हे महेश्वर ! वृत्रासुरसे पूर्णतः पराजित हम भयभीत देवताओंकी रक्षा कीजिये ॥ ५१ ॥

गृहीतं देवसदनं तेन देव बलीयसा ।
किं कर्तव्यमतः शम्भो ब्रूहि सत्यं शिवाद्य नः ॥ ५२ ॥
हे देव ! उस महाबलीने देवलोकपर अधिकार कर लिया है । हे शम्भो ! हे शिव ! अब हमें क्या करना चाहिये, आप हमें सही-सही बताइये ॥ ५२ ॥

किं कुर्मः क्व च गच्छामः स्थानभ्रष्टा महेश्वर ।
दुःखस्य नाधिगच्छामो विनाशोपायमीश्वर ॥ ५३ ॥
हे महेश्वर ! हम राज्यभ्रष्ट क्या करें और कहाँ जायें ? हे ईश्वर ! हम इस दुःखके विनाशके लिये कोई भी उपाय नहीं जान पा रहे हैं ॥ ५३ ॥

साहाय्यं कुरु भूतेश व्यथिताः स्म कृपानिधे ।
वृत्रं जहि मदोत्सिक्तं वरदानबलाद्विभो ॥ ५४ ॥
हे भूतेश ! हमारी सहायता कीजिये । हे कृपानिधान ! हम सब बहुत दु:खी हैं । हे विभो ! वरदानके प्रभावसे मदोन्मत्त वृत्रासुरका वध कीजिये ॥ ५४ ॥

शिव उवाच
ब्रह्माणं पुरतः कृत्वा वयं सर्वे हरेः क्षयम् ।
गत्वा समेत्य तं विष्णुं चिन्तयामो वधोद्यमम् ॥ ५५ ॥
शिवजी बोले-ब्रह्माजीको आगे करके हमलोग विष्णुलोक चल करके वहाँ उन श्रीहरिके पास जाकर उस वृत्रासुरके वधके उपायपर विचार करेंगे ॥ ५५ ॥

स शक्तश्च छलज्ञश्च बलवान्बुद्धिमत्तरः ।
शरण्यश्च दयाब्धिश्च वासुदेवो जनार्दनः ॥ ५६ ॥
वे जनार्दन भगवान् विष्णु शक्तिशाली, छलकार्यमें निपुण, बलवान्, सबसे बुद्धिमान्, शरणदाता और दयाके सागर हैं ॥ ५६ ॥

विना तं देवदेवेशं नार्थसिद्धिर्भविष्यति ।
तस्मात्तत्र च गन्तव्यं सर्वकार्यार्थसिद्धये ॥ ५७ ॥
उन देवदेवेशके बिना हमारा प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा, इसलिये सभी कार्योंकी सिद्धिके लिये हमें वहीं चलना चाहिये ॥ ५७ ॥

व्यास उवाच
इति सञ्चिन्त्य ते सर्वे ब्रह्मा शक्रः सशङ्करः ।
जग्मुर्विष्णोः क्षयं देवाः शरण्यं भक्तवत्सलम् ॥ ५८ ॥
व्यासजी बोले-ऐसा विचारकर ब्रह्मा, शिव तथा इन्द्र आदि सभी देवता शरणदाता और भक्तवत्सल भगवान् विष्णुके लोक गये ॥ ५८ ॥

गत्वा विष्णुपदं देवास्तुष्टुवुः परमेश्वरम् ।
हरिं पुरुषसूक्तेन वेदोक्तेन जगद्‌गुरुम् ॥ ५९ ॥
वैकुण्ठधाममें पहुँचकर वे देवता वेदोक्त पुरुषसूक्तसे उन परमेश्वर जगद्गुरु श्रीहरिकी स्तुति करने लगे ॥ ५९ ॥

प्रत्यक्षोऽभूज्जगन्नाथस्तेषां स कमलापतिः ।
सम्मान्य च सुरान्सर्वानित्युवाच पुरःस्थितः ॥ ६० ॥
तब भगवान् जगन्नाथ कमलापति विष्णु उनके सम्मुख उपस्थित हो गये और सभी देवताओंका सम्मान करके उनसे बोले- ॥ ६ ॥

किमागताः स्म लोकेशा हरब्रह्मसमन्विताः ।
कारणं कथयध्वं वः सर्वेषां सुरसत्तमाः ॥ ६१ ॥
हे लोकपालगण ! आपलोग ब्रह्मा और शिवजीके साथ यहाँ क्यों आये हैं ? हे श्रेष्ठ देवताओ ! आप सभी अपने आगमनका कारण बतायें ॥ ६१ ॥

व्यास उवाच
इति श्रुत्वा हरेर्वाक्यं नोचुर्देवा रमापतिम् ।
चिन्ताविष्टाः स्थिताः प्रायः सर्वेप्राञ्जलयस्तथा ॥ ६२ ॥
व्यासजी बोले-भगवान् विष्णुका यह वचन सुनकर भी देवगण उन रमापतिसे कुछ बोल न सके और वे चिन्तातुर होकर हाथ जोड़े खड़े ही रहे ॥ ६२ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्या
संहितायां षष्ठस्कन्धे ब्रह्मनेतृत्वे सेन्द्रैः सुरैर्विष्णोः
शरणगमनवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
अध्याय चौथा समाप्त ॥ ४ ॥


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