तपस्यासे प्रसन्न होकर ब्रह्माजीका वृत्रासुरको वरदान देना, त्वष्टाकी प्रेरणासे वृत्रासुरका स्वर्गपर आक्रमण करके अपने अधिकारमें कर लेना, इन्द्रका पितामह ब्रह्मा और भगवान् शंकरके साथ वैकुण्ठधाम जाना -
व्यास उवाच निर्गतास्ते परावृत्तास्तपोविघ्नकराः सुराः । निराशाः कार्यसंसिद्ध्यै तं दृष्ट्वा दृढचेतसम् ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-उस वृत्रासुरको दृढप्रतिज्ञ देखकर तपमें विघ्न डालनेके लिये गये हुए देवगण अपने कार्यकी सिद्धिसे निराश होकर वापस लौट आये ॥ १ ॥
जाते वर्षशते पूर्णे ब्रह्मा लोकपितामहः । तत्राजगाम तरसा हंसारूढश्चतुर्मुखः ॥ २ ॥
सौ वर्ष पूर्ण होनेपर लोकपितामह चतुर्मुख ब्रह्मा हंसपर आरूढ़ हो शीघ्रतापूर्वक उसके पास आये ॥ २ ॥
आकर उन्होंने उससे यह कहा-हे त्वष्टाके पुत्र ! तुम सुखी होओ, ध्यानका त्यागकर वरदान माँगो, मैं तुम्हारा इच्छित वर दूंगा ॥ ३ ॥
तपसा तेऽद्य तुष्टोऽस्मि त्वां दृष्ट्वा चातिकर्शितम् । वरं वरय भद्रं ते मनोऽभिलषितं तव ॥ ४ ॥
तुम्हें तपस्यासे अत्यन्त कृशकाय देखकर मैं प्रसन्न हूँ । तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम अपना मनोभिलषित वर माँग लो ॥ ४ ॥
व्यास उवाच वृत्रस्तदातिविशदां पुरतो निशम्य वाचं सुधासमरसां जगदेककर्तुः । सन्त्यज्य योगकलनां सहसोदतिष्ठ- त्सञ्जातहर्षनयनाश्रुकलाकलापः ॥ ५ ॥
व्यासजी बोले-अपने समक्ष खड़े जगत्के एकमात्र स्रष्टा [ब्रह्माजी]-की अत्यन्त गम्भीर और अमृतरसतुल्य वाणी सुनकर वह वृत्रासुर योग-ध्यान त्यागकर सहसा उठ खड़ा हुआ । हर्षातिरेकसे उसके नेत्रोंसे अश्रुधारा बहने लगी ॥ ५ ॥
प्रेमपूर्वक विधाता ब्रह्माजीके चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर वह उनके समक्ष स्थित हो गया और तपस्यासे प्रसन्न तथा उत्तम वर देनेवाले ब्रह्माजीसे विनयावनत होकर प्रेमपूर्ण गद्गद वाणीमें कहने लगा- ॥ ६ ॥
हे प्रभो ! मैंने आज समस्त देवताओंका पद प्राप्त कर लिया जो कि मुझे शीघ्र ही आपका अत्यन्त दुर्लभ दर्शन प्राप्त हो गया । हे नाथ ! हे कमलासन ! आप सबके मनके भाव जानते हैं, फिर भी मेरे भक्तिपूर्ण मनमें एक दुर्लभ अभिलाषा है, उसे मैं आपसे कह रहा हूँ ॥ ७ ॥
मृत्युश्च मा भवतु मे किल लोहकाष्ठ- शुष्कार्द्रवंशनिचयैरपरैश्च शस्त्रैः । वृद्धि प्रयातु मम वीर्यमतीव युद्धे यस्माद्भवामि सबलैरमरैरजेयः ॥ ८ ॥
लोहे, काष्ठ, सूखे या गीले बाँसद्वारा निर्मित तथा अन्य किसी शस्त्रसे मेरी कभी मृत्यु न हो । मेरा पराक्रम अत्यन्त बढ़ जाय, जिससे युद्ध में मैं उन बलवान् देवताओंसे अजेय हो जाऊँ ॥ ८ ॥
व्यास उवाच इत्थं सम्प्रार्थितो ब्रह्मा तमाह प्रहसन्निव । उत्तिष्ठ गच्छ भद्रं ते वाञ्छितं सफलं सदा ॥ ९ ॥
व्यासजी बोले-उसके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर ब्रह्माजी उससे हँसते हुए बोले-[हे वत्स !] उठो और [घर] जाओ, तुम्हारा मनोरथ निश्चय ही पूर्ण होगा । तुम्हारा कल्याण हो ॥ ९ ॥
न शुष्केण न चार्द्रेण न पाषाणेन दारुणा । भविष्यति च ते मृत्युरिति सत्यं ब्रवीम्यहम् ॥ १० ॥
न सूखी, न गीली वस्तुसे, न तो पत्थर या लकड़ीद्वारा निर्मित शस्त्रसे ही तुम्हारी मृत्यु होगीयह मैं सत्य कह रहा हूँ ॥ १० ॥
जीवित [अवस्थामें] पिताकी आज्ञाका पालन करने, मृत्युतिथिपर पर्याप्त भोजन कराने तथा गयामें पिण्डदान करने-इन तीनोंसे ही पुत्रका पुत्रत्व सार्थक होता है ॥ १५ ॥
अतः हे पुत्र ! तुम मेरे बहुत बड़े दुःखको दूर करने में समर्थ हो; त्रिशिरा मेरे चित्तसे कभी हटता नहीं है ॥ १६ ॥
सुशीलः सत्यवादी च तापसो वेदवित्तमः । अपराधं विना तेन निहतः पापबुद्धिना ॥ १७ ॥
उस सुशील, सत्यवादी, तपस्वी और वेदवेत्ताको बिना किसी अपराधके ही पापबुद्धिवाले उस इन्द्रने मार डाला ॥ १७ ॥
व्यास उवाच इति तस्य वचः श्रुत्वा वृत्रः परमदुर्जयः । रथमारुह्य तरसा निर्जगाम पितुर्गृहात् ॥ १८ ॥ रणदुन्दुभिनिर्घोषं शङ्खनादं महाबलम् । कारयित्वा प्रयाणं स चकार मदगर्वितः ॥ १९ ॥
व्यासजी बोले-उनकी ऐसी बात सुनकर परम दुर्जय वृत्रासुर स्थपर सवार हो शीघ्र ही [अपने] पिताके घरसे निकल पड़ा । रणभेरियोंकी ध्वनि तथा महान् शंखनाद कराकर उस मदोन्मत्तने प्रस्थान किया ॥ १८-१९ ॥
हे भारत ! देवगण अपने कल्याणके लिये मुनियोंके साथ विचार-विमर्श करने लगे कि इस स्थितिके प्राप्त होनेपर अब हमें क्या करना चाहियेऐसा विचार करके भयमोहित वे देवगण इन्द्र के साथ कैलासपर्वतपर गये और वहाँ देवाधिदेव भगवान् शंकरको प्रणाम करके विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर कहने लगे- ॥ ४९-५० ॥