विष्णु बोले-हे देवगण ! आप सबने मौन धारण क्यों कर रखा है ? आप सब अपने दुःखका सत्-असत् जो भी कारण हो बतायें, जिसे सुनकर मैं उसे दूर करनेका उपाय करूँगा ॥ २ ॥
देवा ऊचुः किमज्ञातं तव विभो त्रिषु लोकेषु वर्तते । सर्वं वेद भवान्कार्यं किं पृच्छसि पुनः पुनः ॥ ३ ॥
देवता बोले-हे विभो ! तीनों लोकोंमें कौनसी वस्तु आपसे अज्ञात है, आप हमारा सारा कार्य [भली प्रकारसे] जानते हैं । तो क्यों बार-बार पूछ रहे हैं ? ॥ ३ ॥
हे विष्णो ! आपने ही अमृत छीनकर दैत्योंका नाश किया था; आप सभी देवताओंकी समस्त विपत्तियोंको दूर करनेमें समर्थ हैं ॥ ५ ॥
विष्णुरुवाच न भेतव्यं सुरवरा वेद्म्युपायं सुसम्मतम् । तद्वधाय प्रवक्ष्यामि येन सौख्यं भविष्यति ॥ ६ ॥
विष्णु बोले-हे श्रेष्ठ देवताओ ! आपलोग भयभीत न हों । मैं उस वृत्रासुरके वधका सुसंगत उपाय जानता हूँ, उसे मैं बताऊँगा, जिससे आपलोगोंको सुख होगा ॥ ६ ॥
अवश्यं करणीयं मे भवतां हितमात्मना । बुद्ध्या बलेन चार्थेन येन केनच्छलेन वा ॥ ७ ॥
अपनी बुद्धिसे, बलसे, धनसे या जिस किसी भी उपायसे मुझे आपलोगोंका हित अवश्य करना है ॥ ७ ॥
उपायाः खलु चत्वारः कथितास्तत्त्वदर्शिभिः । सामादयः सुहृत्स्वेव दुर्हृदेषु विशेषतः ॥ ८ ॥
मित्रों और विशेषरूपसे शत्रुओंके प्रति [प्रयोगहेतु] तत्त्वदर्शियोंने साम, दान, दण्ड, भेद-ये चार उपाय बताये हैं ॥ ८ ॥
ब्रह्मणास्य वरो दत्तस्तपसाऽऽराधितेन च । दुर्जयत्वं च सम्प्राप्तं वरदानप्रभावतः ॥ ९ ॥
वृत्रासुरकी तपस्यासे प्रसन्न होकर ब्रह्माजीने इसे वरदान दिया है और उस वरदानके प्रभावसे यह दुर्जय हो गया है ॥ ९ ॥
अजेयः सर्वभूतानां त्वष्ट्रा समुपपादितः । ततो बलेन वृद्धिं स प्राप्तः परपुरञ्जयः ॥ १० ॥
त्वष्टाके द्वारा उत्पन्न किया गया यह वृत्रासुर समस्त प्राणियोंके लिये अजेय हो गया है । शत्रुओंके राज्यको जीत लेनेवाला वह अपनी शक्तिसे अधिक प्रबल हो गया है ॥ १० ॥
हे देवताओ ! बिना सामनीतिके प्रयोगके वह वृत्रासुर देवताओंके लिये दुःसाध्य है, अत: पहले इसे प्रलोभन देकर वशमें करना चाहिये, तत्पश्चात् मार डालना चाहिये ॥ ११ ॥
हे गन्धर्वगण ! तुमलोग वेष बदलकर ऋषियोंके साथ उसके पास जाओ और वचनबद्धतापूर्वक इन्द्रके साथ उसकी मित्रता करा दो ॥ १६ ॥
यथा स याति विश्वासं तथा कार्यं प्रतारणम् । गुप्तोऽहं सम्प्रवेक्ष्यामि पविं सञ्छादितं दृढम् ॥ १७ ॥
जिस प्रकारसे उसका विश्वास दृढ़ हो जाय, वैसा ही आप सबको करना चाहिये । मैं सुदृढ़ तथा आवरणयुक्त वामें गुप्तरूपसे प्रवेश कर जाऊँगा ॥ १७ ॥
विश्वस्तं मघवा शत्रुं हनिष्यति न चान्यथा । विश्वासस्य कृते पापं कृत्वा शक्रस्तु पृष्ठतः ॥ १८ ॥ मत्सहायोऽथ वज्रेण शातयिष्यति पापिनम् । न दोषोऽत्र शठे शत्रौ शाठ्यमेव प्रकुर्वतः ॥ १९ ॥ नान्यथा बलवान्वध्यः शूरधर्मेण जायते । वामनं रूपमाधाय मयायं वञ्चितो बलिः ॥ २० ॥ कृत्वा च मोहिनीवेषं दैत्याः सर्वेऽपिवञ्चिताः ।
जब वृत्रासुरको पूर्ण विश्वास हो जाय तभी इन्द्र उस शत्रुका वध करेंगे । उसके वधका अन्य कोई उपाय नहीं है । वे इन्द्र विश्वासघात करके मेरी सहायतासे वज्रद्वारा पीछेसे उस पापीको मार डालेंगे । इस दुष्ट शत्रुके साथ शठता करने में दोष नहीं है । अन्यथा वह बलवान् वीरधर्मसे नहीं मारा जा सकेगा । पूर्वकालमें मैंने भी वामनरूप धारणकर बलिको वंचित किया था और मोहिनीरूप धारणकर सभी दैत्योंको छला था ॥ १८-२०.५ ॥
हे देवताओ ! अब आप सब लोग एक साथ देवी भगवती शिवाकी शरणमें जायँ और भावपूर्वक स्तोत्रों और मन्त्रोंसे उनकी स्तुति करें । वे भगवती योगमाया आपलोगोंकी सहायता करेंगी ॥ २१-२२ ॥
वन्दामहे सदा देवीं सात्त्विकीं प्रकृतिं पराम् । सिद्धिदां कामदां कामां दुरापामकृतात्मभिः ॥ २३ ॥
हम सभी उन सात्त्विकी, परा प्रकृति, सिद्धिदात्री, कामनास्वरूपिणी, भक्तोंकी कामना पूर्ण करनेवाली और दुराचारियोंके लिये दुर्लभ देवीकी सदा वन्दना करते हैं ॥ २३ ॥
इन्द्र भी उनकी आराधना करके युद्ध में शत्रुको मार डालेंगे । वे मोहिनी महामाया उस दानव वृत्रासुरको मोहित कर देंगी । तब मायासे मोहित वृत्रासुर सुगमतापूर्वक मारा जा सकेगा । उन पराम्बाके प्रसन्न होनेपर सब कुछ साध्य हो जायगा । अन्यथा किसीकी भी कामनाकी पूर्ति नहीं होगी । वे भगवती सबकी अन्तर्यामिस्वरूपिणी और सभी कारणोंकी भी कारण हैं । इसलिये हे श्रेष्ठ देवगण ! शत्रुके विनाशके लिये सात्त्विक भावोंसे युक्त होकर उन प्रकृतिस्वरूपा जगज्जननीका परम आदरपूर्वक भजन कीजिये ॥ २४-२७ ॥
पुरा मयापि संग्रामं कृत्वा परमदारुणम् । पञ्चवर्षसहस्राणि निहतौ मधुकैटभौ ॥ २८ ॥ स्तुता मया तदात्यर्थं प्रसन्ना प्रकृतिः परा । मोहितौ तौ तदा दैत्यौ छलेन च मया हतौ ॥ २९ ॥ विप्रलब्धौ महाबाहू दानवौ मदगर्वितौ । तथा कुरुध्वं प्रकृतेर्भजनं भावसंयुताः ॥ ३० ॥ सर्वथा कार्यसिद्धिं सा करिष्यति सुरोत्तमाः ।
पूर्वकालमें मैंने भी पाँच हजार वर्षों तक अत्यन्त भीषण युद्ध करके मधु कैटभका वध किया था । उस समय मैंने उन पराप्रकृतिकी स्तुति की थी, तब वे अत्यन्त प्रसन्न हो गयी थीं । तत्पश्चात् उनके द्वारा मोहित दोनों दैत्योंको मैंने छलपूर्वक मार डाला था । मोहित किये गये विशाल भुजाओंवाले वे दोनों दानव अत्यन्त मदोन्मत्त थे । इसीलिये आपलोग भी उसी प्रकार भावपूर्वक उन पराप्रकृतिका भजन कीजिये । हे देवगण ! वे सब प्रकारसे कार्यकी सिद्धि करेंगी ॥ २८-३०.५ ॥
इस प्रकार भगवान् विष्णुसे परामर्श प्राप्त करके वे मन्दार वृक्षोंसे सुशोभित सुमेरुपर्वतके शिखरपर चले गये । वे देवता वहाँ एकान्त में बैठकर ध्यान, जप और तप करके जगत्का सृजन-पालन-संहार करनेवाली, भक्तोंके लिये कामधेनुस्वरूपा एवं संसारके क्लेशोंका नाश करनेवाली पराम्बा भगवतीकी इस प्रकार स्तुति करने लगे ॥ ३१-३३ ॥
देवता बोले-हे देवि ! हे दीनोंके कष्ट दूर करनेवाली ! हे परमार्थतत्त्वस्वरूपिणि ! हमपर प्रसन्न हों, वृत्रासुरके द्वारा सताये गये, युद्ध में अत्यन्त पीड़ित किये गये तथा आपके चरणकमलकी शरणमें सदासे पड़े हुए हम देवताओंकी रक्षा कीजिये ॥ ३४ ॥
हे माता ! आप समस्त विश्वकी जननी हैं, शत्रुद्वारा उपस्थित किये गये इस संकटमें पड़े हुए हम सबका आप पुत्रोंके समान परिपालन कीजिये । आपसे तीनों लोकोंमें कुछ भी अज्ञात नहीं है, तो आप असुरोंके द्वारा पीड़ित देवताओंकी उपेक्षा क्यों कर रही हैं ? ॥ ३५ ॥
त्रैलोक्यमेतदखिलं विहितं त्वयैव ब्रह्मा हरिः पशुपतिस्तव वासनोत्थाः । कुर्वन्ति कार्यमखिलं स्ववशा न ते ते भ्रूभङ्गचालनवशाद्विहरन्ति कामम् ॥ ३६ ॥
आपने ही इस सम्पूर्ण त्रिलोकीकी रचना की है । ब्रह्मा, विष्णु और शिव आपके ही संकल्पसे उत्पन्न हुए हैं । आपके भृकुटि-विलासमात्रसे वे [सृजन, पालन तथा संहार] समस्त कार्य करते हैं और यथेच्छ विहार करते हैं; वे भी स्वतन्त्र नहीं हैं ॥ ३६ ॥
हे देवि ! माता प्रत्यक्ष अपराधवाले अपने दुःखी पुत्रोंकी भी कष्टसे सब प्रकारसे रक्षा करती है-यह रीति आपके ही द्वारा निर्मित है; तब हे करुणरसकी समुद्रस्वरूपिणि ! आप अपने चरणोंकी शरणमें पड़े हुए हम निरपराध देवताओंका पालन क्यों नहीं कर रही हैं ? ॥ ३७ ॥
हे जननि ! यदि आप सोचती हों कि मेरे चरणकमलोंकी आराधनासे राज्य प्राप्त करके देवता मेरी भक्ति छोड़कर वैभव-सुखोंके भोगमें आसक्त हो जायेंगे और इन्हें मेरे कृपाकटाक्षकी आवश्यकता नहीं रह जायगी तो ऐसा सामान्यतः होता ही है, फिर भी जन्म देनेवाली माता अपने पुत्रके प्रति ऐसी भावना रखे-यह रीति कहीं देखी नहीं गयी ॥ ३८ ॥
दोषो न नोऽत्र जननि प्रतिभाति चित्ते यत्ते विहाय भजनं विभवे निमग्नाः । मोहस्त्वया विरचितः प्रभवत्यसौ न- स्तस्मात्स्वभावकरुणे दयसे कथं न ॥ ३९ ॥
हे जननि ! आपका भजन त्यागकर हमलोग जो भोगमें निमग्न हैं-इसमें हमारे चित्तमें अपना दोष नहीं प्रतीत होता; क्योंकि मोहकी रचना आपने ही की है और वह हमलोगोंको मोहित कर देता है । ऐसी परिस्थितिमें हे करुणामय स्वभाववाली ! आप हमपर दया क्यों नहीं करती ? ॥ ३९ ॥
पूर्वं त्वया जननि दैत्यपतिर्बलिष्ठो व्यापादितो महिषरूपधरः किलाजौ । अस्मत्कृते सकललोकभयावहोऽसौ वृत्रं कथं न भयदं विधुनोषि मातः ॥ ४० ॥
हे जननि ! पूर्वकालमें आपने हमलोगोंके कल्याणार्थ सभीके लिये भयकारी महिषरूप धारण करनेवाले बलवान् दैत्यराजका वध किया था । हे माता ! भय प्रदान करनेवाले वृत्रासुरका भी वध आप क्यों नहीं करतीं ? ॥ ४० ॥
शुम्भस्तथातिबलवाननुजो निशुम्भ- स्तौ भ्रातरौ तदनुगा निहता हतौ च । वृत्रं तथा जहि खलं प्रबलं दयार्द्रे मत्तं विमोहय तथा न भवेद्यथासौ ॥ ४१ ॥ त्वं पालयाद्य विबुधानसुरेण मातः सन्तापितानतितरां भयविह्वलांश्च । नान्योऽस्ति कोऽपि भुवनेषु सुरार्तिहन्ता यः क्लेशजालमखिलं निदहेत्स्वशक्त्या ॥ ४२ ॥
शुम्भ और उसके बलवान् भाई निशुम्भ-उन दोनों भाइयोंको आपने मार डाला था और उनके अनुचरोंका भी वध कर दिया था । उसी प्रकार हे दयासे आर्द्रहृदयवाली ! अत्यन्त बलशाली, उन्मत्त तथा दुष्ट वृत्रासुरको भी मार डालिये । आप इसे विमोहित कर दें, जिससे यह भी उनकी तरह न हो सके । हे माता ! असुरोंके द्वारा अत्यधिक पीड़ित किये गये तथा भयसे व्याकुल हम देवताओंका अब आप ही पालन कीजिये; क्योंकि तीनों लोकोंमें ऐसा कोई नहीं है जो देवताओंका दुःख दूर कर सके और अपनी शक्तिसे सम्पूर्ण कष्टके समूहको नष्ट कर सके ॥ ४१-४२ ॥
यदि वृत्रासुरपर आपकी अत्यधिक दया हो तो भी आप हमलोगोंके लिये संतापकारक इस दुष्टको शीघ्र ही मार डालिये । हे भवानि ! अपने बाणोंसे इसको पवित्र करती हुई आप पापसे इसका उद्धार कर दीजिये, अन्यथा यह दुष्टबुद्धि वृत्रासुर नरक प्राप्त करेगा ॥ ४३ ॥
ते प्रापिताः सुरवनं विबुधारयो ये हत्वा रणेऽपि विशिखैः किल पावितास्ते । त्राता न किं निरयपातभयाद्दयार्द्रे यच्छत्रवोऽपि न हि किं विनिहंसि वृत्रम् ॥ ४४ ॥
जिन दानवोंको युद्धमें आपने बाणोंद्वारा मारकर पवित्र बना दिया, वे नन्दनवनको प्राप्त हो गये । हे दयार्द्र स्वभाववाली ! क्या आपने नरकमें गिरनेके भयसे उन शत्रुओंकी रक्षा नहीं की ? तो फिर आप वृत्रासुरको क्यों नहीं मारती हैं ॥ ४४ ॥
हम यह जानते हैं कि वह आपका सेवक नहीं, शत्र ही है । क्योंकि वह दृष्ट पापबुद्धि हम सबको सदैव सताया करता है । आपके चरणकमलोंकी भक्तिमें रत हम देवताओंको पीडित करनेवाला वह (वृत्रासुर) आपका भक्त कैसे हो सकता है ? ॥ ४५ ॥
हे जननि ! हे अम्ब ! हम आज आपकी पूजा कैसे करें; क्योंकि पुष्मादि [पूजोपचार] तो आपके द्वारा ही बनाये गये हैं । मन्त्र, हमलोग तथा अन्य सब कुछ आपकी पराशक्तिके ही रूप हैं, अतः हे भवानि ! हम केवल आपके चरणोंकी शरण ले सकते हैं ॥ ४६ ॥
वे ही मनुष्य धन्य हैं, जो भवसागरसे पार उतारनेवाले पोतसदृश आपके चरणकमलका निरन्तर भक्तिभावसे भजन करते हैं और राग, मोह आदि विकारोंसे रहित मोक्षकामी योगी भी मनसे जिसका निरन्तर स्मरण करते हैं ॥ ४७ ॥
समस्त वेदोंमें पारंगत वे यज्ञकर्ता भी निश्चय ही धन्य हैं, जो हवनके समय देवताओंको तृप्ति देनेवाली स्वाहा और पितरोंको तृप्ति देनेवाली स्वधाके रूपमें आपका निरन्तर स्मरण करते हैं ॥ ४८ ॥
आप ही मेधा हैं, आप ही कान्ति हैं, आप ही शान्ति हैं और मनुष्योंका महान् मनोरथ पूर्ण करनेवाली प्रख्यात बुद्धि भी आप ही हैं । समस्त ऐश्वर्यकी रचना करके आप इस त्रिलोकीमें कृपा करके अपनी आराधना करनेवालेको वैभव प्रदान करती रहती हैं ॥ ४९ ॥
व्यास उवाच एवं स्तुता सुरैर्देवी प्रत्यक्षा साभवत्तदा । चारुरूपधरा तन्वी सर्वाभरणभूषिता ॥ ५० ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार देवताओंके स्तुति करनेपर वे भगवती प्रकट हो गयीं । उन्होंने सुन्दर रूप धारण कर रखा था, वे कोमल विग्रहवाली थी और समस्त आभूषणोंसे सुसज्जित थीं ॥ ५० ॥
उन कान्तिमयी भगवतीकी ध्वनि कोयलके समान थी, उनके हाथोंके कंकण और चरणोंके नूपुर बज रहे थे । उनके मस्तकपर अर्धचन्द्रसे मण्डित रत्नमुकुट सुशोभित हो रहा था ॥ ५२ ॥
वे मन्द-मन्द मुसकरा रही थीं, उनका मुख कमलके समान सुशोभित हो रहा था, वे तीन नेत्रोंसे विभूषित थीं तथा पारिजातके पुष्प-नालकी भाँति उनके शरीरकी कान्ति रक्तवर्ण थी ॥ ५३ ॥
वे लाल रंगके वस्त्र धारण किये हुए थीं और उनके शरीरपर रक्त चन्दन अनुलिप्त था । करुणारसकी सागर वे भगवती प्रसन्न मुख-मण्डलसे शोभा पा रही थीं । वे समस्त शृंगार-वेषसे विभूषित थीं । वे देवी द्वैतभावके लिये अरणीस्वरूपा, परा, सब कुछ जाननेवाली, सबकी रचना करनेवाली, सबकी अधिष्ठानस्वरूपा, सभी वेदान्तोंद्वारा प्रतिपादित और सच्चिदानन्दरूपिणी हैं । उन देवीको अपने सम्मुख स्थित देखकर देवताओंने उन्हें प्रणाम किया । तब उन प्रणत देवताओंसे भगवती अम्बिकाने कहा-आपलोग मुझे अपना कार्य बतायें ॥ ५४-५६ ॥
देवता बोले-आप देवताओंके लिये अत्यन्त दुःखदायी इस शत्रु वृत्रासुरको विमोहित कर दीजिये । उसे आप ऐसा विमोहित कर दें, जिससे वह देवताओंपर विश्वास करने लगे और हमारे आयुधमें इतनी शक्ति भर दीजिये, जिससे यह शत्रु मारा जा सके ॥ ५७-५८ ॥