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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
षष्ठः स्कन्धः
पञ्चमोऽध्यायः

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देवीसमाराधनाय देवकृतस्तुतिवर्णनम् -
भगवान् विष्णुकी प्रेरणासे देवताओंका भगवतीकी स्तुति करना और प्रसन्न होकर भगवतीका वरदान देना -


व्यास उवाच
तथा चिन्तातुरान्वीक्ष्य सर्वान्मर्वार्थतत्त्ववित् ।
प्राह प्रेमभरोद्‌भ्रान्तान्माधवो मेदिनीपते ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! तब सभी तत्त्वोंके ज्ञाता माधव भगवान् विष्णु समस्त देवताओंको चिन्तासे व्याकुल तथा अत्यन्त प्रेमविह्वल देखकर कहने लगे ॥ १ ॥

विष्णुरुवाच
किं मौनमाश्रिता यूयं ब्रुवन्तु कारणं सुराः ।
सदसद्वापि यच्छ्रुत्वा यतिष्ये तन्निवारणे ॥ २ ॥
विष्णु बोले-हे देवगण ! आप सबने मौन धारण क्यों कर रखा है ? आप सब अपने दुःखका सत्-असत् जो भी कारण हो बतायें, जिसे सुनकर मैं उसे दूर करनेका उपाय करूँगा ॥ २ ॥

देवा ऊचुः
किमज्ञातं तव विभो त्रिषु लोकेषु वर्तते ।
सर्वं वेद भवान्कार्यं किं पृच्छसि पुनः पुनः ॥ ३ ॥
देवता बोले-हे विभो ! तीनों लोकोंमें कौनसी वस्तु आपसे अज्ञात है, आप हमारा सारा कार्य [भली प्रकारसे] जानते हैं । तो क्यों बार-बार पूछ रहे हैं ? ॥ ३ ॥

त्वया पूर्वं बलिर्बद्धः शक्रो देवाधिपः कृतः ।
वामनं वपुरास्थाय क्रान्तं त्रिभुवनं पदैः ॥ ४ ॥
पूर्वकालमें आपने बलिको बाँध लिया था और इन्द्रको देवताओंका राजा बनाया था; आपने वामनशरीर धारणकर तीनों लोकोंको अपने चरणोंसे नाप लिया था ॥ ४ ॥

अमृतं त्वाहृतं विष्णो दैत्याश्च विनिपातिताः ।
त्वं प्रभुः सर्वदेवानां सर्वापद्विनिवारणे ॥ ५ ॥

हे विष्णो ! आपने ही अमृत छीनकर दैत्योंका नाश किया था; आप सभी देवताओंकी समस्त विपत्तियोंको दूर करनेमें समर्थ हैं ॥ ५ ॥

विष्णुरुवाच
न भेतव्यं सुरवरा वेद्म्युपायं सुसम्मतम् ।
तद्वधाय प्रवक्ष्यामि येन सौख्यं भविष्यति ॥ ६ ॥
विष्णु बोले-हे श्रेष्ठ देवताओ ! आपलोग भयभीत न हों । मैं उस वृत्रासुरके वधका सुसंगत उपाय जानता हूँ, उसे मैं बताऊँगा, जिससे आपलोगोंको सुख होगा ॥ ६ ॥

अवश्यं करणीयं मे भवतां हितमात्मना ।
बुद्ध्या बलेन चार्थेन येन केनच्छलेन वा ॥ ७ ॥
अपनी बुद्धिसे, बलसे, धनसे या जिस किसी भी उपायसे मुझे आपलोगोंका हित अवश्य करना है ॥ ७ ॥

उपायाः खलु चत्वारः कथितास्तत्त्वदर्शिभिः ।
सामादयः सुहृत्स्वेव दुर्हृदेषु विशेषतः ॥ ८ ॥
मित्रों और विशेषरूपसे शत्रुओंके प्रति [प्रयोगहेतु] तत्त्वदर्शियोंने साम, दान, दण्ड, भेद-ये चार उपाय बताये हैं ॥ ८ ॥

ब्रह्मणास्य वरो दत्तस्तपसाऽऽराधितेन च ।
दुर्जयत्वं च सम्प्राप्तं वरदानप्रभावतः ॥ ९ ॥
वृत्रासुरकी तपस्यासे प्रसन्न होकर ब्रह्माजीने इसे वरदान दिया है और उस वरदानके प्रभावसे यह दुर्जय हो गया है ॥ ९ ॥

अजेयः सर्वभूतानां त्वष्ट्रा समुपपादितः ।
ततो बलेन वृद्धिं स प्राप्तः परपुरञ्जयः ॥ १० ॥
त्वष्टाके द्वारा उत्पन्न किया गया यह वृत्रासुर समस्त प्राणियोंके लिये अजेय हो गया है । शत्रुओंके राज्यको जीत लेनेवाला वह अपनी शक्तिसे अधिक प्रबल हो गया है ॥ १० ॥

दुःसाध्योऽसौ सुराः शत्रुर्विना सामप्रतारणम् ।
प्रलोभ्य वशमानेयो हन्तव्यस्तु ततः परम् ॥ ११ ॥
हे देवताओ ! बिना सामनीतिके प्रयोगके वह वृत्रासुर देवताओंके लिये दुःसाध्य है, अत: पहले इसे प्रलोभन देकर वशमें करना चाहिये, तत्पश्चात् मार डालना चाहिये ॥ ११ ॥

गच्छध्वं सर्वगन्धर्वा यत्रास्ति बलवत्तरः ।
साम तस्य प्रयुञ्जध्वं तत एनं विजेष्यथ ॥ १२ ॥
हे गन्धर्वगण ! जहाँ वह बलवान् वृत्रासुर रहता है, वहाँ तुमलोग जाओ और उसपर सामनीतिका प्रयोग करो; तभी उसपर विजय प्राप्त कर सकोगे ॥ १२ ॥

सङ्गम्य शपथात्कृत्वा विश्वास्य समयेन हि ।
मित्रत्वं च समाधाय हन्तव्यः प्रबलो रिपुः ॥ १३ ॥
वहाँ जाकर अनेक शपथे खाकर सन्धिके द्वारा उसे विश्वासमें ले करके और पुनः मित्रताकर बादमें उस प्रबल शत्रुको मार डालना चाहिये ॥ १३ ॥

अदृश्यः सम्प्रवेक्ष्यामि वज्रमस्य वरायुधम् ।
साहाय्यं च करिष्यामि शक्रस्याहं सुरोत्तमाः ॥ १४ ॥
हे श्रेष्ठ देवगण ! मैं अदृश्य रूपमें इन्द्रके श्रेष्ठ आयुध बज्रमें प्रवेश कर जाऊँगा और उनकी सहायता करूँगा ॥ १४ ॥

समयं च प्रतीक्षध्वं सर्वथैवायुषः क्षये ।
मरणं विबुधास्तस्य नान्यथा सम्भविष्यति ॥ १५ ॥
हे देवताओ ! अब आपलोग समयकी प्रतीक्षा करें, वृत्रासुरको आयुके क्षीण होनेपर ही उसकी मृत्यु होगी, अन्य किसी भी प्रकारसे नहीं ॥ १५ ॥

गच्छध्वमृषिभिः सार्धं गन्धर्वाः कपटावृताः ।
इन्द्रेण सह मित्रत्वं कुरुध्वं वाक्यदानतः ॥ १६ ॥
हे गन्धर्वगण ! तुमलोग वेष बदलकर ऋषियोंके साथ उसके पास जाओ और वचनबद्धतापूर्वक इन्द्रके साथ उसकी मित्रता करा दो ॥ १६ ॥

यथा स याति विश्वासं तथा कार्यं प्रतारणम् ।
गुप्तोऽहं सम्प्रवेक्ष्यामि पविं सञ्छादितं दृढम् ॥ १७ ॥
जिस प्रकारसे उसका विश्वास दृढ़ हो जाय, वैसा ही आप सबको करना चाहिये । मैं सुदृढ़ तथा आवरणयुक्त वामें गुप्तरूपसे प्रवेश कर जाऊँगा ॥ १७ ॥

विश्वस्तं मघवा शत्रुं हनिष्यति न चान्यथा ।
विश्वासस्य कृते पापं कृत्वा शक्रस्तु पृष्ठतः ॥ १८ ॥
मत्सहायोऽथ वज्रेण शातयिष्यति पापिनम् ।
न दोषोऽत्र शठे शत्रौ शाठ्यमेव प्रकुर्वतः ॥ १९ ॥
नान्यथा बलवान्वध्यः शूरधर्मेण जायते ।
वामनं रूपमाधाय मयायं वञ्चितो बलिः ॥ २० ॥
कृत्वा च मोहिनीवेषं दैत्याः सर्वेऽपिवञ्चिताः ।
जब वृत्रासुरको पूर्ण विश्वास हो जाय तभी इन्द्र उस शत्रुका वध करेंगे । उसके वधका अन्य कोई उपाय नहीं है । वे इन्द्र विश्वासघात करके मेरी सहायतासे वज्रद्वारा पीछेसे उस पापीको मार डालेंगे । इस दुष्ट शत्रुके साथ शठता करने में दोष नहीं है । अन्यथा वह बलवान् वीरधर्मसे नहीं मारा जा सकेगा । पूर्वकालमें मैंने भी वामनरूप धारणकर बलिको वंचित किया था और मोहिनीरूप धारणकर सभी दैत्योंको छला था ॥ १८-२०.५ ॥

भवन्तः सहिताः सर्वे देवीं भगवतीं शिवाम् ॥ २१ ॥
गच्छध्वं शरणं भावैः स्तोत्रमन्त्रैः सुरोत्तमाः ।
साहाय्यं सा योगमाया भवतां संविधास्यति ॥ २२ ॥
हे देवताओ ! अब आप सब लोग एक साथ देवी भगवती शिवाकी शरणमें जायँ और भावपूर्वक स्तोत्रों और मन्त्रोंसे उनकी स्तुति करें । वे भगवती योगमाया आपलोगोंकी सहायता करेंगी ॥ २१-२२ ॥

वन्दामहे सदा देवीं सात्त्विकीं प्रकृतिं पराम् ।
सिद्धिदां कामदां कामां दुरापामकृतात्मभिः ॥ २३ ॥
हम सभी उन सात्त्विकी, परा प्रकृति, सिद्धिदात्री, कामनास्वरूपिणी, भक्तोंकी कामना पूर्ण करनेवाली और दुराचारियोंके लिये दुर्लभ देवीकी सदा वन्दना करते हैं ॥ २३ ॥

इन्द्रोऽपि तां समाराध्य हनिष्यति रिपुं रणे ।
मोहिनी सा महामाया मोहयिष्यति दानवम् ॥ २४ ॥
मोहितो मायया वृत्रः सुखसाध्यो भविष्यति ।
प्रसन्नायां पराम्बायां सर्वं साध्यं भविष्यति ॥ २५ ॥
नोचेन्मनोरथावाप्तिर्न कस्यापि भविष्यति ।
अन्तर्यामिस्वरूपा सा सर्वकारणकारणा ॥ २६ ॥
तस्मात्तां विश्वजननीं प्रकृतिं परमादृताः ।
भजध्वं सात्त्विकैर्भावैः शत्रुनाशाय सत्तमाः ॥ २७ ॥
इन्द्र भी उनकी आराधना करके युद्ध में शत्रुको मार डालेंगे । वे मोहिनी महामाया उस दानव वृत्रासुरको मोहित कर देंगी । तब मायासे मोहित वृत्रासुर सुगमतापूर्वक मारा जा सकेगा । उन पराम्बाके प्रसन्न होनेपर सब कुछ साध्य हो जायगा । अन्यथा किसीकी भी कामनाकी पूर्ति नहीं होगी । वे भगवती सबकी अन्तर्यामिस्वरूपिणी और सभी कारणोंकी भी कारण हैं । इसलिये हे श्रेष्ठ देवगण ! शत्रुके विनाशके लिये सात्त्विक भावोंसे युक्त होकर उन प्रकृतिस्वरूपा जगज्जननीका परम आदरपूर्वक भजन कीजिये ॥ २४-२७ ॥

पुरा मयापि संग्रामं कृत्वा परमदारुणम् ।
पञ्चवर्षसहस्राणि निहतौ मधुकैटभौ ॥ २८ ॥
स्तुता मया तदात्यर्थं प्रसन्ना प्रकृतिः परा ।
मोहितौ तौ तदा दैत्यौ छलेन च मया हतौ ॥ २९ ॥
विप्रलब्धौ महाबाहू दानवौ मदगर्वितौ ।
तथा कुरुध्वं प्रकृतेर्भजनं भावसंयुताः ॥ ३० ॥
सर्वथा कार्यसिद्धिं सा करिष्यति सुरोत्तमाः ।
पूर्वकालमें मैंने भी पाँच हजार वर्षों तक अत्यन्त भीषण युद्ध करके मधु कैटभका वध किया था । उस समय मैंने उन पराप्रकृतिकी स्तुति की थी, तब वे अत्यन्त प्रसन्न हो गयी थीं । तत्पश्चात् उनके द्वारा मोहित दोनों दैत्योंको मैंने छलपूर्वक मार डाला था । मोहित किये गये विशाल भुजाओंवाले वे दोनों दानव अत्यन्त मदोन्मत्त थे । इसीलिये आपलोग भी उसी प्रकार भावपूर्वक उन पराप्रकृतिका भजन कीजिये । हे देवगण ! वे सब प्रकारसे कार्यकी सिद्धि करेंगी ॥ २८-३०.५ ॥

एवं ते दत्तमतयो विष्णुना प्रभविष्णुना ॥ ३१ ॥
जग्मुस्ते मेरुशिखरं मन्दारद्रुममण्डितम् ।
एकान्ते संस्थिता देवाः कृत्वा ध्यानं जपं तपः ॥ ३२ ॥
तुष्टुवुर्जगतां धात्रीं सृष्टिसंहारकारिणीम् ।
भक्तकामदुघामम्बां संसारक्लेशनाशिनीम् ॥ ३३ ॥
इस प्रकार भगवान् विष्णुसे परामर्श प्राप्त करके वे मन्दार वृक्षोंसे सुशोभित सुमेरुपर्वतके शिखरपर चले गये । वे देवता वहाँ एकान्त में बैठकर ध्यान, जप और तप करके जगत्का सृजन-पालन-संहार करनेवाली, भक्तोंके लिये कामधेनुस्वरूपा एवं संसारके क्लेशोंका नाश करनेवाली पराम्बा भगवतीकी इस प्रकार स्तुति करने लगे ॥ ३१-३३ ॥

देवा ऊचुः
देवि प्रसीद परिपाहि सुरान्प्रतप्तान्
    वृत्रासुरेण समरे परिपीडितांश्च ।
दीनार्तिनाशनपरे परमार्थतत्त्वे
    प्राप्तांस्त्वदङ्‌घ्रिकमलं शरणं सदैव ॥ ३४ ॥
देवता बोले-हे देवि ! हे दीनोंके कष्ट दूर करनेवाली ! हे परमार्थतत्त्वस्वरूपिणि ! हमपर प्रसन्न हों, वृत्रासुरके द्वारा सताये गये, युद्ध में अत्यन्त पीड़ित किये गये तथा आपके चरणकमलकी शरणमें सदासे पड़े हुए हम देवताओंकी रक्षा कीजिये ॥ ३४ ॥

त्वं सर्वविश्वजननी परिपालयास्मान्
    पुत्रानिवातिपतितान् रिपुसङ्कटेऽस्मिन् ।
मातर्न तेऽस्त्यविदितं भुवनत्रयेऽपि
    कस्मादुपेक्षसि सुरानसुरप्रतप्तान् ॥ ३५ ॥
हे माता ! आप समस्त विश्वकी जननी हैं, शत्रुद्वारा उपस्थित किये गये इस संकटमें पड़े हुए हम सबका आप पुत्रोंके समान परिपालन कीजिये । आपसे तीनों लोकोंमें कुछ भी अज्ञात नहीं है, तो आप असुरोंके द्वारा पीड़ित देवताओंकी उपेक्षा क्यों कर रही हैं ? ॥ ३५ ॥

त्रैलोक्यमेतदखिलं विहितं त्वयैव
    ब्रह्मा हरिः पशुपतिस्तव वासनोत्थाः ।
कुर्वन्ति कार्यमखिलं स्ववशा न ते ते
    भ्रूभङ्गचालनवशाद्विहरन्ति कामम् ॥ ३६ ॥
आपने ही इस सम्पूर्ण त्रिलोकीकी रचना की है । ब्रह्मा, विष्णु और शिव आपके ही संकल्पसे उत्पन्न हुए हैं । आपके भृकुटि-विलासमात्रसे वे [सृजन, पालन तथा संहार] समस्त कार्य करते हैं और यथेच्छ विहार करते हैं; वे भी स्वतन्त्र नहीं हैं ॥ ३६ ॥

माता सुतान्परिभवात्परिपाति दीनान्
    रीतिस्त्वयैव रचिता प्रकटापराधान् ।
कस्मान्न पालयसि देवि विनापराधा-
    नस्मांस्त्वदङ्‌घ्रिशरणान्करुणारसाब्धे ॥ ३७ ॥
हे देवि ! माता प्रत्यक्ष अपराधवाले अपने दुःखी पुत्रोंकी भी कष्टसे सब प्रकारसे रक्षा करती है-यह रीति आपके ही द्वारा निर्मित है; तब हे करुणरसकी समुद्रस्वरूपिणि ! आप अपने चरणोंकी शरणमें पड़े हुए हम निरपराध देवताओंका पालन क्यों नहीं कर रही हैं ? ॥ ३७ ॥

नूनं मदङ्‌घ्रिभजनाप्तपदाः किलैते
    भक्तिं विहाय विभवे सुखभोगलुब्धाः ।
नेमे कटाक्षविषया इति चेन्न चैषा
    रीतिः सुते जननकर्तरि चापि दृष्टा ॥ ३८ ॥
हे जननि ! यदि आप सोचती हों कि मेरे चरणकमलोंकी आराधनासे राज्य प्राप्त करके देवता मेरी भक्ति छोड़कर वैभव-सुखोंके भोगमें आसक्त हो जायेंगे और इन्हें मेरे कृपाकटाक्षकी आवश्यकता नहीं रह जायगी तो ऐसा सामान्यतः होता ही है, फिर भी जन्म देनेवाली माता अपने पुत्रके प्रति ऐसी भावना रखे-यह रीति कहीं देखी नहीं गयी ॥ ३८ ॥

दोषो न नोऽत्र जननि प्रतिभाति चित्ते
    यत्ते विहाय भजनं विभवे निमग्नाः ।
मोहस्त्वया विरचितः प्रभवत्यसौ न-
    स्तस्मात्स्वभावकरुणे दयसे कथं न ॥ ३९ ॥
हे जननि ! आपका भजन त्यागकर हमलोग जो भोगमें निमग्न हैं-इसमें हमारे चित्तमें अपना दोष नहीं प्रतीत होता; क्योंकि मोहकी रचना आपने ही की है और वह हमलोगोंको मोहित कर देता है । ऐसी परिस्थितिमें हे करुणामय स्वभाववाली ! आप हमपर दया क्यों नहीं करती ? ॥ ३९ ॥

पूर्वं त्वया जननि दैत्यपतिर्बलिष्ठो
    व्यापादितो महिषरूपधरः किलाजौ ।
अस्मत्कृते सकललोकभयावहोऽसौ
    वृत्रं कथं न भयदं विधुनोषि मातः ॥ ४० ॥
हे जननि ! पूर्वकालमें आपने हमलोगोंके कल्याणार्थ सभीके लिये भयकारी महिषरूप धारण करनेवाले बलवान् दैत्यराजका वध किया था । हे माता ! भय प्रदान करनेवाले वृत्रासुरका भी वध आप क्यों नहीं करतीं ? ॥ ४० ॥

शुम्भस्तथातिबलवाननुजो निशुम्भ-
    स्तौ भ्रातरौ तदनुगा निहता हतौ च ।
वृत्रं तथा जहि खलं प्रबलं दयार्द्रे
    मत्तं विमोहय तथा न भवेद्यथासौ ॥ ४१ ॥
त्वं पालयाद्य विबुधानसुरेण मातः
    सन्तापितानतितरां भयविह्वलांश्च ।
नान्योऽस्ति कोऽपि भुवनेषु सुरार्तिहन्ता
    यः क्लेशजालमखिलं निदहेत्स्वशक्त्या ॥ ४२ ॥
शुम्भ और उसके बलवान् भाई निशुम्भ-उन दोनों भाइयोंको आपने मार डाला था और उनके अनुचरोंका भी वध कर दिया था । उसी प्रकार हे दयासे आर्द्रहृदयवाली ! अत्यन्त बलशाली, उन्मत्त तथा दुष्ट वृत्रासुरको भी मार डालिये । आप इसे विमोहित कर दें, जिससे यह भी उनकी तरह न हो सके । हे माता ! असुरोंके द्वारा अत्यधिक पीड़ित किये गये तथा भयसे व्याकुल हम देवताओंका अब आप ही पालन कीजिये; क्योंकि तीनों लोकोंमें ऐसा कोई नहीं है जो देवताओंका दुःख दूर कर सके और अपनी शक्तिसे सम्पूर्ण कष्टके समूहको नष्ट कर सके ॥ ४१-४२ ॥

वृत्रे दया तव यदि प्रथिता तथापि
    जह्येनमाशु जनदुःखकरं खलं च ।
पापात्समुद्धर भवानि शरैः पुनाना
    नोचेत्प्रयास्यति तमो ननु दुष्टबुद्धिः ॥ ४३ ॥
यदि वृत्रासुरपर आपकी अत्यधिक दया हो तो भी आप हमलोगोंके लिये संतापकारक इस दुष्टको शीघ्र ही मार डालिये । हे भवानि ! अपने बाणोंसे इसको पवित्र करती हुई आप पापसे इसका उद्धार कर दीजिये, अन्यथा यह दुष्टबुद्धि वृत्रासुर नरक प्राप्त करेगा ॥ ४३ ॥

ते प्रापिताः सुरवनं विबुधारयो ये
    हत्वा रणेऽपि विशिखैः किल पावितास्ते ।
त्राता न किं निरयपातभयाद्दयार्द्रे
    यच्छत्रवोऽपि न हि किं विनिहंसि वृत्रम् ॥ ४४ ॥
जिन दानवोंको युद्धमें आपने बाणोंद्वारा मारकर पवित्र बना दिया, वे नन्दनवनको प्राप्त हो गये । हे दयार्द्र स्वभाववाली ! क्या आपने नरकमें गिरनेके भयसे उन शत्रुओंकी रक्षा नहीं की ? तो फिर आप वृत्रासुरको क्यों नहीं मारती हैं ॥ ४४ ॥

जानीमहे रिपुरसौ तव सेवको न
    प्रायेण पीडयति नः किल पापबुद्धिः ।
यस्तावकस्त्विह भवेदमरानसौ किं
    त्वत्पादपङ्कजरतान्ननु पीडयेद्वा ॥ ४५ ॥
हम यह जानते हैं कि वह आपका सेवक नहीं, शत्र ही है । क्योंकि वह दृष्ट पापबुद्धि हम सबको सदैव सताया करता है । आपके चरणकमलोंकी भक्तिमें रत हम देवताओंको पीडित करनेवाला वह (वृत्रासुर) आपका भक्त कैसे हो सकता है ? ॥ ४५ ॥

कुर्मः कथं जननि पूजनमद्य तेऽम्ब
    पुष्पादिकं तव विनिर्मितमेव यस्मात् ।
मन्त्रा वयं च सकलं परशक्तिरूपं
    तस्माद्‌भवानि चरणे प्रणताः स्म नूनम् ॥ ४६ ॥
हे जननि ! हे अम्ब ! हम आज आपकी पूजा कैसे करें; क्योंकि पुष्मादि [पूजोपचार] तो आपके द्वारा ही बनाये गये हैं । मन्त्र, हमलोग तथा अन्य सब कुछ आपकी पराशक्तिके ही रूप हैं, अतः हे भवानि ! हम केवल आपके चरणोंकी शरण ले सकते हैं ॥ ४६ ॥

धन्यास्त एव मनुजा हि भजन्ति भक्त्या
    पादाम्बुजं तव भवाब्धिजलेषु पोतम् ।
यं योगिनोऽपि मनसा सततं स्मरन्ति
    मोक्षार्थिनो विगतरागविकारमोहाः ॥ ४७ ॥
वे ही मनुष्य धन्य हैं, जो भवसागरसे पार उतारनेवाले पोतसदृश आपके चरणकमलका निरन्तर भक्तिभावसे भजन करते हैं और राग, मोह आदि विकारोंसे रहित मोक्षकामी योगी भी मनसे जिसका निरन्तर स्मरण करते हैं ॥ ४७ ॥

ये याज्ञिकाः सकलवेदविदोऽपि नूनं
    त्वां संस्मरन्ति सततं किल होमकाले ।
स्वाहां तु तृप्तिजननीममरेश्वराणां
    भूयः स्वधां पितृगणस्य च तृप्तिहेतुम् ॥ ४८ ॥
समस्त वेदोंमें पारंगत वे यज्ञकर्ता भी निश्चय ही धन्य हैं, जो हवनके समय देवताओंको तृप्ति देनेवाली स्वाहा और पितरोंको तृप्ति देनेवाली स्वधाके रूपमें आपका निरन्तर स्मरण करते हैं ॥ ४८ ॥

मेधासि कान्तिरसि शान्तिरपि प्रसिद्धा
    बुद्धिस्त्वमेव विशदार्थकरी नराणाम् ।
सर्वं त्वमेव विभवं भुवनत्रयेऽस्मि-
    न्कृत्वा ददासि भजतां कृपया सदैव ॥ ४९ ॥
आप ही मेधा हैं, आप ही कान्ति हैं, आप ही शान्ति हैं और मनुष्योंका महान् मनोरथ पूर्ण करनेवाली प्रख्यात बुद्धि भी आप ही हैं । समस्त ऐश्वर्यकी रचना करके आप इस त्रिलोकीमें कृपा करके अपनी आराधना करनेवालेको वैभव प्रदान करती रहती हैं ॥ ४९ ॥

व्यास उवाच
एवं स्तुता सुरैर्देवी प्रत्यक्षा साभवत्तदा ।
चारुरूपधरा तन्वी सर्वाभरणभूषिता ॥ ५० ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार देवताओंके स्तुति करनेपर वे भगवती प्रकट हो गयीं । उन्होंने सुन्दर रूप धारण कर रखा था, वे कोमल विग्रहवाली थी और समस्त आभूषणोंसे सुसज्जित थीं ॥ ५० ॥

पाशांकुशवराभीतिलसद्‌बाहुचतुष्टया ।
रणत्किङ्‌किणिकाजालरसनाबद्धसत्कटिः ॥ ५१ ॥
वे पाश, अंकुश, वर और अभयमुद्रासे सुशोभित चार भुजाओंसे युक्त थीं, उनकी कमरमें बँधी हुई करधनीके धुंधरू बज रहे थे ॥ ५१ ॥

कलकण्ठीरवा कान्ता क्वणत्कङ्कणनूपुरा ।
चन्द्रखण्डसमाबद्धरत्‍नमौलिविराजिता ॥ ५२ ॥
उन कान्तिमयी भगवतीकी ध्वनि कोयलके समान थी, उनके हाथोंके कंकण और चरणोंके नूपुर बज रहे थे । उनके मस्तकपर अर्धचन्द्रसे मण्डित रत्नमुकुट सुशोभित हो रहा था ॥ ५२ ॥

मन्दस्मितारविन्दास्या नेत्रत्रयविभूषिता ।
पारिजातप्रसूनाच्छनालवर्णसमप्रभा ॥ ५३ ॥
वे मन्द-मन्द मुसकरा रही थीं, उनका मुख कमलके समान सुशोभित हो रहा था, वे तीन नेत्रोंसे विभूषित थीं तथा पारिजातके पुष्प-नालकी भाँति उनके शरीरकी कान्ति रक्तवर्ण थी ॥ ५३ ॥

रक्ताम्बरपरीधाना रक्तचन्दनचर्चिता ।
प्रसादसुमुखी देवी करुणारससागरा ॥ ५४ ॥
सर्वशृङ्गारवेषाढ्या सर्वद्वैतारणिः परा ।
सर्वज्ञा सर्वकर्त्री च सर्वाधिष्ठानरूपिणी ॥ ५५ ॥
सर्ववेदान्तसंसिद्धा सच्चिदानन्दरूपिणी ।
प्रणेमुस्तां समालोक्य सुरा देवीं पुरःस्थिताम् ॥ ५६ ॥
वे लाल रंगके वस्त्र धारण किये हुए थीं और उनके शरीरपर रक्त चन्दन अनुलिप्त था । करुणारसकी सागर वे भगवती प्रसन्न मुख-मण्डलसे शोभा पा रही थीं । वे समस्त शृंगार-वेषसे विभूषित थीं । वे देवी द्वैतभावके लिये अरणीस्वरूपा, परा, सब कुछ जाननेवाली, सबकी रचना करनेवाली, सबकी अधिष्ठानस्वरूपा, सभी वेदान्तोंद्वारा प्रतिपादित और सच्चिदानन्दरूपिणी हैं । उन देवीको अपने सम्मुख स्थित देखकर देवताओंने उन्हें प्रणाम किया । तब उन प्रणत देवताओंसे भगवती अम्बिकाने कहा-आपलोग मुझे अपना कार्य बतायें ॥ ५४-५६ ॥

तानाह प्रणतानम्बा किं वः कार्यं ब्रुवन्तु माम् ।
देवा ऊचुः
मोहयैनं रिपुं वृत्रं देवानामतिदुःखदम् ॥ ५७ ॥
यथा विश्वसते देवांस्तथा कुरु विमोहितम् ।
आयुधे च बलं देहि हतः स्याद्येन वा रिपुः ॥ ५८ ॥
देवता बोले-आप देवताओंके लिये अत्यन्त दुःखदायी इस शत्रु वृत्रासुरको विमोहित कर दीजिये । उसे आप ऐसा विमोहित कर दें, जिससे वह देवताओंपर विश्वास करने लगे और हमारे आयुधमें इतनी शक्ति भर दीजिये, जिससे यह शत्रु मारा जा सके ॥ ५७-५८ ॥

व्यास उवाच
तथेत्युक्त्वा भगवती तत्रैवान्तरधीयत ।
स्वानि स्वानि निकेतानि जग्मुर्देवा मुदान्विताः ॥ ५९ ॥
व्यासजी बोले-तब 'तथास्तु'-ऐसा कहकर भगवती वहीं अन्तर्धान हो गयीं और देवता भी प्रसन्न होकर अपने-अपने भवनोंको चले गये ॥ ५९ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां षष्ठस्कन्धे देवीसमाराधनाय
देवकृतस्तुतिवर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
अध्याय पांचवाँ समाप्त ॥ ५ ॥


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