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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
षष्ठः स्कन्धः
षष्ठोऽध्यायः

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छद्मेनेन्द्रेण फेनद्‌वारा पराशक्तिस्मरणमूर्वकं वृत्रहननवर्णनम् -
भगवान् विष्णुका इन्द्रको वृत्रासुरसे सन्धिका परामर्श देना, ऋषियोंकी मध्यस्थतासे इन्द्र और वृत्रासुरमें सन्धि, इन्द्रद्वारा छलपूर्वक वृत्रासुरका वध -


व्यास उवाच
एवं प्राप्तवरा देवा ऋषयश्च तपोधनाः ।
(जग्मुः सर्वे च सम्मन्त्र्य वृत्रस्याश्रममुत्तमम् ।)
ददृशुस्तत्र तं वृत्रं ज्वलन्तमिव तेजसा ॥ १ ॥
धक्ष्यन्तमिव लोकांस्त्रीन्ग्रसन्तमिव चामरान् ।
ऋषयोऽथ ततोऽभ्येत्य वृत्रमूचुः प्रियं वचः ॥ २ ॥
देवकार्यार्थसिद्ध्यर्थं सामयुक्तं रसात्मकम् ।
व्यासजी बोले-इस प्रकार वरप्राप्त उन देवता और तपस्वी ऋषिगणोंने (परस्पर मन्त्रणा करके वृत्रासुरके उत्तम आश्रमके लिये प्रस्थान किया) वहाँ तेजसे प्रकाशमान वृत्रासुरको देखा, जो तीनों लोकोंको भस्मसात् करने और देवताओंको निगल जानेके लिये उद्यत प्रतीत होता था । ऋषियोंने वृत्रासुरके समीप जाकर देवताओंकी कार्य-सिद्धिके लिये उससे सामनीतिपूर्ण तथा रसमय प्रिय वचन कहा ॥ १-२.५ ॥

ऋषय ऊचुः
वृत्र वृत्र महाभाग सर्वलोकभयङ्कर ॥ ३ ॥
व्याप्तं त्वयैतत्सकलं ब्रह्माण्डमखिलं किल ।
शक्रेण तव वैरं यत्तत्तु सौख्यविघातकम् ॥ ४ ॥
युवयोर्दुःखदं कामं चिन्तावृद्धिकरं परम् ।
न त्वं स्वपिषि सन्तुष्टो न चापि मघवा तथा ॥ ५ ॥
सुखं स्वपिति चिन्तार्तो द्वयोर्यद्वैरिजं भयम् ।
युवयोर्युध्यतोः कालो व्यतीतस्तु महानिह ॥ ६ ॥
ऋषि बोले-सब लोकोंके लिये भयंकर हे महाभाग वृत्रासुर ! आपने इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्डको व्याप्त कर लिया है, परंतु इन्द्रके साथ आपका वैर आपके सुखको नष्ट करनेवाला है । यह आप दोनोंके लिये दुःखद और चिन्ता बढ़ानेका परम कारण है । न आप सुखसे सो पाते हैं, न ही इन्द्र सन्तुष्ट होकर सोते हैं । क्योंकि आप दोनोंको शत्रु-जन्य भय बना रहता है । आप दोनोंको युद्ध करते हुए भी बहुत समय व्यतीत हो गया है । इससे देवताओं, राक्षसों तथा मनुष्योंसहित समस्त प्रजाको कष्ट हो रहा है ॥ ३-६ ॥

पीड्यन्ते च प्रजाः सर्वाः सदेवासुरमानवाः ।
संसारेऽत्र सुखं ग्राह्यं दुःखं हेयमिति स्थितिः ॥ ७ ॥
न सुखं कृतवैरस्य भवतीति विनिर्णयः ।
संग्रामरसिकाः शूराः प्रशंसन्ति न पण्डिताः ॥ ८ ॥
युद्धं शृङ्गारचतुरा इन्द्रियार्थविघातकम् ।
पुष्पैरपि न योद्धव्यं किं पुनर्निशितैः शरैः ॥ ९ ॥
इस संसारमें सुख ही ग्राह्य है और दुःख सर्वथा त्याज्य है-यही परम्परा है । वैर करनेवालेको सुख नहीं प्राप्त होता, यह निश्चित सिद्धान्त है । इसलिये युद्धप्रेमी वीर इन्द्रिय सुखको नष्ट करनेवाले युद्धकी प्रशंसा करते हैं, किंतु शृंगाररसके प्रेमी विद्वान् उसकी प्रशंसा नहीं करते । पुष्पोंसे भी युद्ध नहीं करना चाहिये, फिर तीक्ष्ण बाणोंकी तो बात ही क्या ? ॥ ७-९ ॥

युद्धे विजयसन्देहो निश्चयं बाणताडनम् ।
दैवाधीनमिदं विश्वं तथा जयपराजयौ ॥ १० ॥
दैवाधीनाविति ज्ञात्वा न योद्धव्यं कदाचन ।
कालेऽथ भोजनं स्नानं शय्यायां शयनं तथा ॥ ११ ॥
परिचर्यापरा भार्या संसारे सुखसाधनम् ।
किं सुखं युध्यतः संख्ये बाणवृष्टिभयङ्करे ॥ १२ ॥
खड्गपातातिरौद्रे च तथारातिसुखप्रदे ।
युद्धमें विजय ही हो-यह सन्देहास्पद है, परंतु उसमें बाणोंसे शरीरको पीड़ा प्राप्त होना निश्चित है । यह समस्त विश्व दैवके अधीन है, उसी प्रकार जय-पराजय भी उसीके अधीन हैं । अतः इन्हें दैवाधीन जानकर युद्ध कभी नहीं करना चाहिये । समयपर स्नान, भोजन, शय्यापर शयन और सेवापरायण पत्नी-ये ही संसारमें सुखके साधन हैं । बाणवर्षांसे भयंकर, खड्ग-प्रहारसे अत्यन्त रौद्र तथा शत्रुको सुख प्रदान करनेवाले संग्राममें युद्ध करनेसे क्या सुख प्राप्त हो सकता है ? ॥ १०-१२.५ ॥

संग्रामे मरणात्स्वर्गसुखप्राप्तिरिति स्फुटम् ॥ १३ ॥
प्रलोभनपरं वाक्यं नोदनार्थं निरर्थकम् ।
छित्त्वा देहं व्यथां प्राप्य शृगालकरटादिभिः ॥ १४ ॥
ऐसा स्पष्ट कथन है कि युद्धमें मरनेसे स्वर्गसुखकी प्राप्ति होती है-यह तो प्रलोभन और प्रेरणा देनेवाला तथा निरर्थक वचन है । ऐसा कौन मन्दबुद्धि है जो शरीरको अस्त्र-शस्त्रोंसे घायल कराकर सियार और कौओंसे नोचवाकर स्वर्गसुखकी प्राप्तिकी कामना करेगा ! ॥ १३-१४ ॥

पश्चात्स्वर्गसुखावाप्तिं को वा वाञ्छति मन्दधीः ।
सख्यं भवतु ते वृत्र शक्रेण सह नित्यदा ॥ १५ ॥
अवाप्स्यसि सुखं त्वं च शक्रश्चापि निरन्तरम् ।
वयं च तापसाः सर्वे गन्धर्वाश्च निजाश्रमे ॥ १६ ॥
सुखवासं गमिष्यामः शान्ते वैरेऽधुनैव वाम् ।
संग्रामे युवयोर्धीर वर्तमाने दिवानिशम् ॥ १७ ॥
पीड्यन्ते मुनयः सर्वे गन्धर्वाः किन्नरा नराः ।
सर्वेषां शान्तिकामानां सख्यमिच्छामहे वयम् ॥ १८ ॥
हे वृत्र ! इन्द्रके साथ तुम्हारी स्थायी मैत्री हो जाय, जिससे तुम्हें और इन्द्र-दोनोंको निरन्तर सुखकी प्राप्ति हो । आप दोनोंका वैर शान्त हो जानेसे हम सब तपस्वी और गन्धर्वगण भी अपने-अपने आश्रमोंमें सुखपूर्वक रह सकेंगे । हे धीर ! आप दोनोंके दिन-रातके युद्ध में हम सभी मुनियों, गन्धों, किन्नरों और मनुष्योंको कष्ट प्राप्त होता है । सभी लोगोंको शान्ति प्राप्त हो सके-इस कामनासे हम सब आप दोनोंमें मैत्री कराना चाहते हैं ॥ १५-१८ ॥

मुनयस्त्वं च शक्रश्च प्राप्नुवन्तु सुखं किल ।
मध्यस्थाश्च वयं वृत्र युवयोः सख्यकारणे ॥ १९ ॥
शपथं कारयित्वात्र योजयामो मिथः प्रियम् ।
शक्रस्तु शपथान्कृत्वा यथोक्तांश्च तवाग्रतः ॥ २० ॥
चित्तं ते प्रीतिसंयुक्तं करिष्यति तु साम्प्रतम् ।
सत्याधारा धरा नूनं सत्येन च दिवाकरः ॥ २१ ॥
तपत्ययं यथाकालं वायुः सत्येन वात्यथ ।
उदन्वानपि मर्यादां सत्येनैव न मुञ्चति ॥ २२ ॥
तस्मात्सत्येन सख्यं वा भवत्वद्य यथासुखम् ।
एकत्र शयनं क्रीडा जलकेलिं सुखासनम् ॥ २३ ॥
युवाभ्यां सर्वथा कार्यं कर्तव्यं सख्यमेत्य च ।
हे वृत्र ! मुनिगण, तुम्हें और इन्द्रको सुख प्राप्त हो । हमलोग तुम दोनोंकी मित्रता करानेमें मध्यस्थ बनेंगे । हम शपथ कराकर आप दोनोंको एक-दूसरेका प्रिय मित्र बना देंगे । आप जैसा कहेंगे, वैसे ही इन्द्र भी आपके सम्मुख शपथ लेकर आपके मनको प्रेमसे परिपूर्ण कर देंगे । सत्यके आधारपर ही यह पृथ्वी स्थित है, सत्यसे ही भगवान् सूर्य नित्य तपते हैं, सत्यसे ही समयके अनुसार वायु बहती है और सत्यके कारण ही समुद्र भी अपनी मर्यादाका परित्याग नहीं करता । इसलिये सत्यके आधारपर ही आज आप दोनोंमें मित्रता हो जाय, जिससे आपलोग सुखपूर्वक साथ-साथ शयन, क्रीडा, जलकेलि कर सकें और बैठ सकें । इसलिये आप दोनोंको एकत्रित होकर अवश्य ही मित्रता कर लेनी चाहिये ॥ १९-२३.५ ॥

व्यास उवाच
महर्षिवचनं श्रुत्वा तानुवाच महामतिः ॥ २४ ॥
अवश्यं भगवन्तो मे माननीयास्तपस्विनः ।
भवन्तो मुनयः क्वापि न मिथ्यावादिनो भृशम् ॥ २५ ॥
सदाचाराः सुशान्ताश्च न विदुश्छलकारणम् ।
कृतवैरे शठे स्तब्धे कामुके च गतत्विषि ॥ २६ ॥
निर्लज्जे नैव कर्तव्यं सख्यं मतिमता सदा ।
निर्लज्जोऽयं दुराचारो ब्रह्महा लम्पटः शठः ॥ २७ ॥
न विश्वासस्तु कर्तव्यः सर्वथैवेदृशे जने ।
भवन्तो निपुणाः सर्वे न द्रोहमतयः सदा ॥ २८ ॥
व्यासजी बोले-उन महर्षियोंका वचन सुनकर अत्यन्त बुद्धिमान् वृत्रासुरने कहा-हे भगवन् ! आप सभी तपस्वीगण मेरे मान्य हैं । आप मुनिगण कभी असत्य भाषण नहीं करते । आपलोग सदाचारी तथा अति शान्त स्वभाववाले हैं और छल करना नहीं जानते । किंतु वैरी, मूर्ख, जड़, कामी, कलंकित और निर्लजसे बुद्धिमानको मित्रता नहीं करनी चाहिये । यह (इन्द्र) निर्लज, दुराचारी, ब्राह्मणघाती, लम्पट और मूर्ख हैइस प्रकारके व्यक्तिका विश्वास नहीं करना चाहिये । आप सभी लोग कुशल हैं, किंतु द्रोह-बुद्धिवाले कभी नहीं हैं । आप सब शान्तचित्त होनेके कारण अतिवादियोंके मनकी बात नहीं जानते ॥ २४-२८ ॥

अनभिज्ञास्तु शान्तत्वाच्चित्तानामतिवादिनाम् ।
मुनय ऊचुः
जन्तुः कृतस्य भोक्ता वै शुभस्य त्वशुभस्य च ॥ २९ ॥
द्रोहं कृत्वा कुतः शान्तिमाप्नुयान्नष्टचेतनः ।
विश्वासघातकर्तारो नरकं यान्ति निश्चयम् ॥ ३० ॥
दुःखं च समवाप्नोति नूनं विश्वासघातकः ।
निष्कृतिर्ब्रह्महन्तॄणां सुरापानां च निष्कृतिः ॥ ३१ ॥
विश्वासघातिनां नैव मित्रद्रोहकृतामपि ।
समयं ब्रूहि सर्वज्ञ यथा ते चेतसि ध्रुवम् ॥ ३२ ॥
तेनैव समयेनाद्य सन्धिः स्यादुभयोः किल ।
मुनि बोले-प्रत्येक प्राणी अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मोंका फल भोगता है । जिसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी हो, वह द्रोह करके भी क्या शान्ति प्राप्त कर सकता है ? विश्वासघात करनेवाले निश्चय ही नरकमें जाते हैं । विश्वासघाती निश्चितरूपसे दुःख प्राप्त करता है । ब्राह्मणकी हत्या करनेवालों और मद्यपान करनेवालोंके लिये तो प्रायश्चित्त है, परंतु विश्वासघातियों और मित्रद्रोहियोंके लिये कोई प्रायश्चित्त नहीं है । अतः हे सर्वज्ञ ! आपने मनमें जो शर्त निश्चय कर रखी हो, उसे बताइये; जिससे उस शर्तके अनुसार आज ही आप दोनोंमें सन्धि हो जाय ॥ २९-३२.५ ॥

वृत्र उवाच
न शुष्केण न चार्द्रेण नाश्मना न च दारुणा ॥ ३३ ॥
न वज्रेण महाभाग न दिवा निशि नैव च ।
वध्यो भवेयं विप्रेन्द्राः शक्रस्य सह दैवतैः ॥ ३४ ॥
एवं मे रोचते सन्धिः शक्रेण सह नान्यथा ।
वृत्रासुर बोला-हे महाभाग ! सभी देवताओंसहित इन्द्र न शुष्क या गीली वस्तुसे, न पत्थरसे, न काष्ठसे, न वज्रसे, न दिनमें और न रातमें मेरा वध कर सकें । हे विप्रेन्द्रो ! इसी शर्तपर मैं इन्द्रसे सन्धि करना चाहता हूँ, अन्यथा नहीं । ३३-३४.५ ॥

व्यास उवाच
ऋषयस्तं तदा प्राहुर्बाढमित्येव चादृताः ॥ ३५ ॥
समयं श्रावयामासुस्तत्रानीय सुरेश्वरम् ।
इन्द्रोऽपि शपथांस्तत्र चकार विगतज्वरः ॥ ३६ ॥
साक्षिणं पावकं कृत्वा मुनीनां सन्निधौ किल ।
वृत्रस्तु वचनैस्तस्य विश्वासमगमत्तदा ॥ ३७ ॥
बभूव मित्रवच्छक्रे सहचर्यापरायणः ।
व्यासजी बोले-ऋषियोंने उससे आदरपूर्वक कहा-'ठीक है' और तत्पश्चात् देवराज इन्द्रको वहाँ बुलाकर उन्हें वह शर्त सुना दी । इन्द्रने भी मुनियोंकी उपस्थितिमें अग्निको साक्षी करके शपथें ली और वे सन्तापसे मुक्त हो गये । वृत्रासुर भी उनकी बातोंसे विश्वासमें आ गया और इन्द्रके साथ मित्रकी भाँति व्यवहारपरायण हो गया ॥ ३५-३७.५ ॥

कदाचिन्नन्दने चोभौ कदाचिद्‌गन्धमादने ॥ ३८ ॥
कदाचिदुदधेस्तीरे मोदमानौ विचेरतुः ।
एवं कृते च सन्धाने वृत्रः प्रमुदितोऽभवत् ॥ ३९ ॥
शक्रोऽपि वधकामस्तु तदुपायानचिन्तयत् ।
रन्ध्रान्वेषी समुद्विग्नस्तदासीन्मघवा भृशम् ॥ ४० ॥
वे दोनों कभी नन्दनवनमें, कभी गन्धमादनपर्वतपर और कभी समुद्रके तटपर आनन्दपूर्वक विचरण करते थे । इस प्रकार सन्धि हो जानेपर वृत्रासुर बहुत प्रसन्न रहता था । लेकिन वधकी इच्छावाले इन्द्र उसके वधके उपाय सोचा करते थे । इन्द्र उसकी कमजोरी ढूँढ़नेके लिये सदा उद्विग्न रहते थे ॥ ३८-४० ॥

एवं चिन्तयतस्तस्य कालः समभिवर्तत ।
विश्वासं परमं प्राप वृत्रः शक्रेऽतिदारुणे ॥ ४१ ॥
एवं कतिचिदब्दानि गतानि समये कृते ।
वृत्रस्य मरणोपायान्मनसीन्द्रोऽप्यचिन्तयत् ॥ ४२ ॥
इन्द्रके इस प्रकार विचार करते हुए कुछ समय बीत गया । वृत्रासुरको अत्यन्त क्रूर इन्द्रपर अत्यधिक विश्वास हो गया । इस प्रकार सन्धिके कुछ वर्ष बीत जानेपर इन्द्रने मन-ही-मन वृत्रासुरके मरणका उपाय सोच लिया ॥ ४१-४२ ॥

त्वष्टैकदा सुतं प्राह विश्वस्तं पाकशासने ।
पुत्र वृत्र महाभाग शृणु मे वचनं हितम् ॥ ४३ ॥
न विश्वासस्तु कर्तव्यः कृतवैरे कथञ्चन ।
मघवा कृतवैरस्ते सदासूयापरः परैः ॥ ४४ ॥
एक बार त्वष्टाने इन्द्रपर बहुत अधिक विश्वास करनेवाले पुत्रसे कहा-हे पुत्र वृत्रासुर ! हे महाभाग ! मेरी हितकर बात सुनो, जिसके साथ शत्रुता हो चुकी हो, उसका विश्वास कभी नहीं करना चाहिये । इन्द्र तुम्हारा शत्रु है, वह दूसरोंके द्वारा तुम्हारे गुणोंमें सदा दोष ढूँढा करता है ॥ ४३-४४ ॥

लोभान्मत्तो द्वेषरतः परदुःखोत्सवान्वितः ।
परदारलम्पटः स पापबुद्धिः प्रतारकः ॥ ४५ ॥
रन्ध्रान्वेषी द्रोहपरो मायावी मदगर्वितः ।
यः प्रविश्योदरे मातुर्गर्भच्छेदं चकार ह ॥ ४६ ॥
सप्तकृत्वः सप्तकृत्वः क्रन्दमानमनातुरः ।
तस्मात्पुत्र न कर्तव्यो विश्वासस्तु कथञ्चन ॥ ४७ ॥
कृतपापस्य का लज्जा पुनः पुत्र प्रकुर्वतः ।
वह सदा लोभसे उन्मत्त रहनेवाला, सबसे द्वेष रखनेवाला, दूसरोंका दुःख देखकर सुखी रहनेवाला, परस्त्रीगामी, पापबुद्धि, कपटी, छिद्रान्वेषी, दूसरोंसे द्रोह करनेवाला, मायावी और अहंकारी है, जिसने कि एक बार माताके उदरमें प्रवेश करके उसके गर्भको सात भागोंमें काट डाला । तब उन्हें रोते देखकर उस निर्दयीने उनके भी पृथक्-पृथक् सात भाग कर दिये । * इसलिये हे पुत्र ! उसपर किसी प्रकार भी विश्वास नहीं करना चाहिये । हे पुत्र ! पाप करनेवालेको दुबारा पाप करनेमें क्या लज्जा ! ॥ ४५-४७.५ ॥

व्यास उवाच
एवं प्रबोधितः पित्रा वचनैर्हेतुसंयुतैः ॥ ४८ ॥
न बुबोध तदा वृत्र आसन्नमरणः किल ।
व्यासजी बोले-इस प्रकार पिताद्वारा कल्याणकारी वचनोंसे समझाये जानेपर भी आसन्न-मृत्यु वृत्रासुरको कुछ भी चेत नहीं हुआ ॥ ४८.५ ॥

स कदाचित्समुद्रान्ते तमपश्यन्महासुरम् ॥ ४९ ॥
सन्ध्याकाल उपावृत्ते मुहूर्तेऽतीव दारुणे ।
ततः सञ्चिन्त्य मघवा वरदानं महात्मनाम् ॥ ५० ॥
सन्ध्येयं वर्तते रौद्रा न रात्रिर्दिवसो न च ।
हन्तव्योऽयं मया चाद्य बलेनैव न संशयः ॥ ५१ ॥
एक दिन उन्होंने (इन्द्रने) उस महान् दैत्यको समुद्रके तटपर देखा । उस समय संध्याकालका अत्यन्त भयंकर मुहूर्त उपस्थित था । तब इन्द्रने महात्मा मुनियोंद्वारा निर्धारित शर्त-वरदानपर यह विचार करके कि यह भयंकर संध्याकाल है, इस समय न दिन है, न रात है, अत: मुझे आज ही इसे अपनी शक्तिसे मार डालना चाहिये । इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४९-५१ ॥

एकाकी विजने चात्र सम्प्राप्तः समयोचितः ।
एवं विचार्य मनसा सस्मार हरिमव्ययम् ॥ ५२ ॥
तत्राजगाम भगवानदृश्यः पुरुषोत्तमः ।
वज्रमध्ये प्रविश्यासौ संस्थितो भगवान्हरिः ॥ ५३ ॥
यहाँ एकान्त है और यह अकेला है तथा समय भी अनुकूल है-ऐसा विचारकर उन्होंने अपने मनमें अविनाशी भगवान् श्रीहरिका स्मरण किया । [स्मरण करते ही] पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु वहाँ अदृश्यरूपसे आ गये और वे प्रभु श्रीहरि इन्द्रके वज़में प्रविष्ट होकर विराजमान हो गये ॥ ५२-५३ ॥

इन्द्रो बुद्धिं चकाराशु तदा वृत्रवधं प्रति ।
इति सञ्चिन्त्य मनसा कथं हन्यां रिपुं रणे ॥ ५४ ॥
अजेयं सर्वथा सर्वदेवैश्च दानवैस्तथा ।
यदि वृत्रं न हन्म्यद्य वञ्चयित्वा महाबलम् ॥ ५५ ॥
न श्रेयो मम नूनं स्यात्सर्वथा रिपुरक्षणात् ।
अपां फेनं तदापश्यत्समुद्रे पर्वतोपमम् ॥ ५६ ॥
तब इन्द्र वृत्रासुरको मारनेकी युक्ति सोचने लगे कि सभी देवताओं तथा दानवोंसे सर्वथा अजेय इस शत्रुको युद्धमें कैसे मा ? यदि छल करके इस महाबलीको आज नहीं मारता तो इस शत्रुके जीवित रहते किसी भी प्रकार कल्याण नहीं है । इन्द्र ऐसा विचार कर ही रहे थे तभी उन्होंने समुद्र में पर्वतके समान जलफेनको देखा ॥ ५४-५६ ॥

नायं शुष्को न चार्द्रोऽयं न च शस्त्रमिदं तथा ।
अपां फेनं तदा शक्रो जग्राह किल लीलया ॥ ५७ ॥
यह न सूखा है, न गीला है और यह न तो कोई शस्त्र है, ऐसा विचारकर] इन्द्रने उस समुद्रफेनको लीलापूर्वक उठा लिया ॥ ५७ ॥ ।

परां शक्तिं च सस्मार भक्त्या परमया युतः ।
स्मृतमात्रा तदा देवी स्वांशं फेने न्यधापयत् ॥ ५८ ॥
तदनन्तर उन्होंने परम भक्तिपूर्वक, पराशक्ति जगदम्बाका स्मरण किया, तब स्मरण करते ही देवीने अपना अंश उस फेनमें स्थापित कर दिया ॥ ५८ ॥

वज्रं तदावृतं तत्र चकार हरिसंयुतम् ।
फेनावृतं पविं तत्र शक्रश्चिक्षेप तं प्रति ॥ ५९ ॥
इन्द्रने भगवान् श्रीहरिसे युक्त वज्रको उस फेनसे आवृत कर दिया और उस फेनसे आवृत वज्रको वृत्रासुरके ऊपर फेंका ॥ ५९ ॥

सहसा निपपाताशु वज्राहत इवाचलः ।
वासवस्तु प्रहृष्टात्मा बभूव निहते तदा ॥ ६० ॥
ऋषयश्च महेन्द्रं तमस्तुवन्विविधैः स्तवैः ।
हतशत्रुः प्रहृष्टात्मा वासवः सह दैवतैः ॥ ६१ ॥
देवीं सम्पूजयामास यत्प्रसादाद्धतो रिपुः ।
प्रसादयामास तदा स्तोत्रैर्नानाविधैरपि ॥ ६२ ॥
उस वजके अचानक प्रहारसे वह पर्वतकी भाँति गिर पड़ा । तब उसके मर जानेपर इन्द्र अत्यन्त प्रसन्नचित्त हो उठे और ऋषिगण विविध स्तोत्रोंसे देवराज इन्द्रकी स्तुति करने लगे । उस शत्रुके मारे जानेसे प्रसन्नचित्त इन्द्रने देवताओंके साथ उन भगवतीकी पूजा की तथा विविध स्तोत्रोंसे उन्हें प्रसन्न किया, जिनकी कृपासे शत्रु मारा गया ॥ ६०-६२ ॥

देवोद्याने पराशक्तेः प्रासादमकरोद्धरिः ।
पद्मरागमयीं मूर्तिं स्थापयामास वासवः ॥ ६३ ॥
त्रिकालं महतीं पूजां चक्रुः सर्वेऽपि निर्जराः ।
तदाप्रभृति देवानां श्रीदेवी कुलदैवतम् ॥ ६४ ॥
तत्पश्चात् इन्द्रने देवोद्यान नन्दनवनमें पराशक्ति भगवतीका मन्दिर बनवाया और उसमें पद्मराग मणियोंसे निर्मित मूर्तिकी स्थापना की और सभी देवता भी तीनों समय उनकी महती पूजा करने लगे । तभीसे श्रीदेवी ही उन देवताओंकी कुलदेवी हो गयीं ॥ ६३-६४ ॥

विष्णुं त्रिभुवनश्रेष्ठं पूजयामास वासवः ।
ततो हते महावीर्ये वृत्रे देवभयङ्करे ॥ ६५ ॥
प्रववौ च शिवो वायुर्जहृषुर्देवतास्तथा ।
हते तस्मिन्सगन्धर्वा यक्षराक्षसकिन्नराः ॥ ६६ ॥
तब महापराक्रमी और देवताओंके लिये भयंकर वृत्रके मारे जानेपर इन्द्रने तीनों लोकोंमें श्रेष्ठ भगवान् विष्णुकी पूजा की । उस वृत्रासुरके मर जानेपर कल्याणकारी वायु बहने लगी तथा देवता, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नरगण हर्षित हो उठे ॥ ६५-६६ ॥

इत्थं वृत्रः पराशक्तिप्रवेशयुतफेनतः ।
तया कृतविमोहाच्च शक्रेण सहसा हतः ॥ ६७ ॥
ततो वृत्रनिहन्त्रीति देवी लोकेषु गीयते ।
शक्रेण निहतत्वाच्च शक्रेण हत उच्यते ॥ ६८ ॥
इस प्रकार भगवती पराशक्तिके समुद्रफेनसे संयुक्त होने और उनके द्वारा ही विमोहित किये जानेके कारण वृत्रासुर सहसा इन्द्रके द्वारा मारा गया । इसलिये वे भगवती देवी संसारमें 'वृत्रनिहन्त्री' इस नामसे विख्यात हुई और वह वृत्रासुर चूँकि प्रकटरूपसे इन्द्रके द्वारा मारा गया था, इसलिये उसे इन्द्रके द्वारा मारा गया, ऐसा कहा जाता है ॥ ६७-६८ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्या
संहितायां षष्ठस्कन्धे छद्मेनेन्द्रेण फेनद्‌वारा पराशक्ति-
स्मरणमूर्वकं वृत्रहननवर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
छ्ठा अध्याय समाप्त ॥ ६ ॥


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