त्वष्टाका वृत्रासुरकी पारलौकिक क्रिया करके इन्द्रको शाप देना, इन्द्रको ब्रह्महत्या लगना, नहुषका स्वर्गाधिपति बनना और इन्द्राणीपर आसक्त होना -
व्यास उवाच अथ तं पतितं दृष्ट्वा विष्णुर्विष्णुपुरीं ययौ । मनसा शङ्कमानस्तु तस्य हत्याकृतं भयम् ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार उसे गिरा हुआ देखकर मन-ही-मन हत्याके भयसे सशंकित भगवान् विष्णु वैकुण्ठलोकको चले गये ॥ १ ॥
इन्द्रोऽपि भयसंत्रस्तो ययाविन्द्रपुरीं ततः । मुनयो भयसंविग्ना ह्यभवन्निहते रिपौ ॥ २ ॥ किमस्माभिः कृतं पापं यदसौ वञ्चितः किल । मुनिशब्दो वृथा जातः सुरेशस्य च सङ्गमात् ॥ ३ ॥
तत्पश्चात् इन्द्र भी भयभीत होकर इन्द्रपुरीको चल दिये । उस शत्रु (वृत्रासुर)-के मारे जानेपर मुनिगण भी भयग्रस्त हो गये कि हमने छलपूर्ण यह कैसा पापकृत्य कर डाला । इन्द्रका साथ देनेसे हमारा 'मुनि' नाम व्यर्थ हो गया ॥ २-३ ॥
अस्माकं वचनाद्वृत्रो विश्वासमगमत्किल । विश्वासघातिनः सङ्गाद्वयं विश्वासघातकाः ॥ ४ ॥
हमारी ही बातोंसे वृत्रासुरको विश्वास आया; विश्वासघातीके संगसे हम सब भी विश्वासघाती हो गये ॥ ४ ॥
धिगियं ममता पापमूलमेवमनर्थकृत् । यदस्माभिश्छलं कृत्वा शपथैर्वञ्चितोऽसुरः ॥ ५ ॥
पापकी जड़ और अनर्थकारी इस ममताको धिक्कार है, जिसके कारण हमलोगोंने छलपूर्वक शपथ ली और उस असुर (वृत्रासुर)-को धोखा दिया ॥ ५ ॥
मन्त्रकृद्बुद्धिदाता च प्रेरकः पापकारिणाम् । पापभाक्स भवेन्नूनं पक्षकर्ता तथैव च ॥ ६ ॥
पाप करनेका परामर्श देनेवाला, पाप करनेके लिये बुद्धि देनेवाला, पापकी प्रेरणा देनेवाला तथा पाप करनेवालोंका पक्ष लेनेवाला भी निश्चय ही पापकर्ताक समान पापभाजन होता है ॥ ६ ॥
चार पदार्थों (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष)-मेंसे दो ही रह गये हैं और दो समाप्त हो गये हैं । उनमें भी प्रथम पदार्थ धर्म और चतुर्थ पदार्थ मोक्ष दोनों त्रिलोकमें दुर्लभ ही हो गये हैं ॥ ९ ॥
तदनन्तर जहाँ वह (वृत्र) गिरा पड़ा था, वहाँ जाकर उसे उस स्थितिमें देखकर त्वष्टाने विधिपूर्वक उसका पारलौकिक संस्कार कराया ॥ १३ ॥
स्नात्वास्य सलिलं दत्त्वा कृत्वा चैवौर्ध्वदैहिकम् । शशापेन्द्रं स शोकार्तः पापिष्ठं मित्रघातकम् ॥ १४ ॥ यथा मे निहतः पुत्रः प्रलोभ्य शपथैर्भृशम् । तथेन्द्रोऽपि महद्दुःखं प्राप्नोतु विधिनिर्मितम् ॥ १५ ॥
तत्पश्चात् स्नान करके, जलाञ्जलि देकर उसका औज़दैहिक कर्म सम्पन्न करनेके पश्चात् उन शोकसन्तप्त त्वष्टाने पापी और मित्रघाती इन्द्रको इस प्रकार शाप दे दिया कि जिस प्रकार शपथोंसे प्रलोभितकर इन्द्रने मेरे पुत्रको मार डाला है, उसी प्रकार वह भी विधाताद्वारा दिये हुए महान् दुःख प्राप्त करे ॥ १४-१५ ॥
इस प्रकार देवराज इन्द्रको शाप देकर सन्तप्त त्वष्टा सुमेरुपर्वतके शिखरका आश्रय लेकर अत्यन्त कठोर तपस्या करने लगे ॥ १६ ॥
जनमेजय उवाच हत्वा त्वाष्ट्रं सुरेशोऽथ कामवस्थामवाप्तवान् । सुखं वा दुःखमेवाग्रे तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १७ ॥
जनमेजय बोले-हे पितामह ! वृत्रासुरको मारनेके बाद इन्द्रकी क्या दशा हुई ? उन्हें बादमें सुख मिला या दु:ख, इसे मुझे बताइये ॥ १७ ॥
व्यास उवाच किं पृच्छसि महाभाग सन्देहः कीदृशस्तव । अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥ १८ ॥ बलिष्ठैर्दुर्बलैर्वापि स्वल्पं वा बहु वा कृतम् । सर्वथैव हि भोक्तव्यं सदेवासुरमानुषैः ॥ १९ ॥
व्यासजी बोले-हे महाभाग ! तुम क्या पूछ रहे हो, [इस विषयमें] तुम्हें क्या सन्देह है ? किये गये शुभ-अशुभ कर्मका फल तो अवश्य ही भोगना पड़ता है । देवता, राक्षस और मनुष्यसहित बलवान् या दुर्बल कोई भी हो-सभीको अपने द्वारा किये गये अत्यन्त अल्प या अधिक कर्मका फल सर्वथा भोगना ही पड़ता है ॥ १८-१९ ॥
शक्रायेत्थं मतिर्दत्ता हरिणा वृत्रघातिने । प्रविष्टोऽथ पविं विष्णुः सहायः प्रत्यपद्यत ॥ २० ॥ न चापदि सहायोऽभूद्वासुदेवः कथञ्चन । समये स्वजनः सर्वः संसारेऽस्मिन्नराधिप ॥ २१ ॥ दैवे विमुखतां प्राप्ते न कोऽप्यस्ति सहायवान् । पिता माता तथा भार्या भ्राता वाथ सहोदरः ॥ २२ ॥ सेवको वापि मित्रं वा पुत्रश्चैव तथौरसः । प्रतिकूले गते दैवे न कोऽप्येति सहायताम् ॥ २३ ॥
भगवान् विष्णुने वृत्रघाती इन्द्रको इस प्रकारकी मति प्रदान की थी । वे विष्णु उनके वज़में प्रविष्ट हए थे तथा उनके सहायक बने थे; परंतु विपत्तिमें उन्होंने किसी भी तरह सहायता नहीं की । हे राजन् ! इस संसारमें अच्छे समयमें सभी लोग अपने बन जाते हैं, किंतु दैवके प्रतिकूल होनेपर कोई भी सहायक नहीं होता । पिता, माता, पत्नी, सहोदर भाई, सेवक, मित्र एवं औरस पुत्र-कोई भी दैवके प्रतिकूल हो जानेपर सहायता नहीं करता । पाप या पुण्य करनेवाला ही उसका भागी होता है । २०-२३ ॥
भोक्ता पापस्य पुण्यस्य कर्ता भवति सर्वथा । वृत्रं हत्वा गताः सर्वे निस्तेजस्कः शचीपतिः ॥ २४ ॥ शेपुस्तं त्रिदशाः सर्वे ब्रह्महेत्यब्रुवञ्छनैः । को नाम शपथान्कृत्वा सत्यं दत्त्वा वचः पुनः ॥ २५ ॥ जिघांसति सुविश्वस्तं मुनिं मित्रत्वमागतम् । देवगोष्ठ्यां सुरोद्याने गन्धर्वाणां समागमे ॥ २६ ॥ सर्वत्रैव कथा तस्य विस्तारमगमत्किल । किं कृतं दुष्कृतं कर्म शक्रेणाद्य जिघांसता ॥ २७ ॥ वृत्रं छलेन विश्वस्तं मुनिभिश्च प्रतारितम् । वेदप्रमाणमुत्सृज्य स्वीकृतं सौगतं मतम् ॥ २८ ॥ यदयं निहतः शनुर्वञ्चयित्वातिसाहसात् । को नाम वचनं दत्त्वा विपरीतमथाचरेत् ॥ २९ ॥ विना शक्रं हरिं वापि यथायं विनिपातितः । एवंविधाः कथाश्चान्याः समाजेष्वभवन्भृशम् ॥ ३० ॥
वृत्रके मारे जानेपर अन्य सभी लोग चले गये; इन्द्र तेजहीन हो गये । सभी देवता उसकी निन्दा करने लगे और 'यह ब्रह्महत्यारा है'-ऐसा मन्द स्वरमें कहने लगे । कौन ऐसा होगा जो शपथ खाकर और वचन देकर अत्यन्त विश्वासमें आये हुए तथा मित्रताको प्राप्त मुनिको मारनेकी इच्छा करेगा ! उसकी यह बात देवताओंकी सभा, देवोद्यान में तथा गन्धक समाजमें सर्वत्र फैल गयी । हत्या करनेकी इच्छावाले इन्द्रने आज यह कैसा दुष्कृत कर्म कर डाला ! मुनियों के द्वारा विश्वास दिलाये गये वृत्रासुरको छलपूर्वक मार करके (मानो) इन्द्रने वेदोंकी प्रामाणिकताका त्यागकर सौगतोंका मत स्वीकार कर लिया । इन्द्रने छल करके अत्यन्त साहससे शत्रुको मार डाला । वचन देकर भी जिस प्रकार [छलपूर्वक] यह वृत्रासुर मारा गया, वैसा विपरीत आचरण इन्द्र और विष्णुके अतिरिक्त कौन होगा, जो कर सकता है ! इस प्रकारकी कथाएँ तथा और भी बातें लोगोंमें व्यापक रूपसे होने लगीं ॥ २४-३० ॥
इन्द्र भी अपनी कीर्ति नष्ट करनेवाली तरहतरहकी बातें सुनते रहे । संसारमें जिसकी कीर्ति नष्ट हो गयी, उसके कलुषित जीवनको धिक्कार है । रास्तेमें जाते हुए ऐसे व्यक्तिको देखकर शत्रु हँस पड़ता है । राजर्षि इन्द्रद्युम्नने कोई पाप नहीं किया था फिर भी कीर्ति नष्ट हो जानेसे वे स्वर्गसे गिर गये थे; तब पाप करनेवाला कैसे नहीं गिरेगा ? राजा ययातिका बहुत थोड़ेसे अपराधपर पतन हो गया था । इसी प्रकार एक राजाको अठारह युगोंतक केकड़ेकी योनिमें रहना पड़ा था । भृगुकी पत्नीका मस्तक काटनेके कारण अच्युत भगवान् श्रीहरिको ब्रह्मशापसे मकर आदि रूपोंमें पशुयोनिमें जन्म लेना पड़ा । विष्णुको भी वामन होकर याचनाके लिये बलिके घर जाना पड़ा; तब यदि कुकर्मी मनुष्य दुःख पाये तो क्या आश्चर्य है ! हे भारत ! श्रीरामचन्द्रजीको भी भृगुके शापसे वनवासकालमें सीतासे वियोगका महान् कष्ट उठाना पड़ा । उसी प्रकार इन्द्रको भी ब्रह्महत्याजनित महान् भय प्राप्त करके समस्त सिद्धियोंसे युक्त भवनमें भी सुख नहीं प्राप्त होता था । उन्हें दीर्घ श्वास लेते, भयग्रस्त, चेतनारहित, खिन्नमनस्क और सभामें न जाते देखकर शचीने पूछा-हे प्रभो ! आजकल आप भयभीत क्यों रहते हैं, आपका भयंकर शत्रु तो मर गया है । हे कान्त ! हे शत्रुहन्ता ! आपको क्या चिन्ता है ? हे लोकेश ! साधारण मनुष्यकी भाँति लम्बीलम्बी साँसें लेते हुए आप शोक क्यों करते हैं ? आपका कोई बलवान् शत्रु भी तो नहीं है, जिससे आप चिन्ताकुल हों ॥ ३१-४०.५ ॥
इन्द्र उवाच नारातिर्बलवान्मेऽस्ति न शान्तिर्न सुखं तथा ॥ ४१ ॥ ब्रह्महत्याभयाद्राज्ञि बिभेमि सततं गृहे । न नन्दनं सुखकरं नामृतं न गृहं वनम् ॥ ४२ ॥ गन्धर्वाणां तथा गेयं नृत्यमप्सरसां पुनः । न त्वं सुखकरा नारी नाना च सुरयोषितः ॥ ४३ ॥ न तथा कामधेनुश्च देववृक्षः सुखप्रदः । किं करोमि क्व गच्छामि क्व शर्म मम जायते ॥ ४४ ॥ इति चिन्तापरः कान्ते न लभे सुखमात्मनि ।
इन्द्र बोले-हे राज्ञि ! यद्यपि अब मेरा कोई बलवान् शत्रु नहीं है तथापि ब्रहाहत्याके भयसे मैं निरन्तर डरता रहता हूँ । घरमें रहते हुए भी मुझे न सुख है और न शान्ति । नन्दनवन, अमृत, घर तथा वन-कुछ भी मुझे सुखकर नहीं लगता । गन्धर्वोका गान और अप्सराओंका नृत्य तथा यहाँतक कि तुम और अन्य देवांगनाएँ भी मुझे सुखकर नहीं लगतीं । न कामधेनु और न ही कल्पवृक्ष मुझे सुख प्रदान करते हैं । मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, मुझे शान्ति कहाँ मिलेगी ? हे प्रिये ! इसी चिन्तामें पड़ा हुआ मैं अपने मनमें शान्ति नहीं प्राप्त कर पा रहा हूँ ॥ ४१-४४.५ ॥
व्यासजी बोले-अत्यन्त घबरायी हुई अपनी प्रिय पत्नीसे ऐसा कहकर मूढ इन्द्र घरसे निकल पड़े और उत्तम मानसरोवरको चले गये । भयसे पीडित और शोकसन्तप्त होकर वे एक कमलनालमें प्रविष्ट हो गये । पापकर्मोंसे पराभूत हुए देवराज इन्द्रको कोई जान नहीं सका । वे सर्पके समान चेष्टा करते हुए जलमें छिपकर रह रहे थे । उस समय वे इन्द्र असहाय, चिन्तित और व्याकुल इन्द्रियोंवाले हो गये ॥ ४५-४७.५ ॥
ततः प्रनष्टे देवेन्द्रे ब्रह्महत्याभयार्दिते ॥ ४८ ॥ सुराश्चिन्तातुराश्चासन्नुत्पाताश्चाभवन्नथ । ऋषयः सिद्धगन्धर्वा भयार्ताश्चाभवन्भृशम् ॥ ४९ ॥ अराजकं जगत्सर्वमभिभूतमुपद्रवैः । अवर्षणं तदा जातं पृथिवी क्षीणवैभवा ॥ ५० ॥ विच्छिन्नस्रोतसो नद्यः सरांस्यनुदकानि वै । एवं त्वराजके जाते देवता मुनयस्तथा ॥ ५१ ॥
ब्रह्महत्याके भयसे दुःखी होकर देवराज इन्द्रके अदृश्य हो जानेपर देवगण चिन्तातुर हो उठे तथा अनेक प्रकारके उत्पात होने लगे । ऋषि, सिद्ध और गन्धर्वगण भी अत्यन्त भयभीत हो गये । उपद्रवोंके होनेसे सम्पूर्ण जगत् अराजकतासे ग्रस्त हो गया । उस समय अनावृष्टि उपस्थित हो गयी और पृथ्वी वैभवशून्य हो गयी, नदियोंके स्रोत सूख गये और तालाब बिना जलके हो गये इस प्रकारकी अराजकताको देखकर स्वर्गके देवताओं और मुनियोंने विचार करके नहुषको इन्द्र बना दिया ॥ ४८-५१ ॥
राज्य प्राप्त करनेपर राजा नहुप धर्मात्मा होते हुए भी राजसी वृत्तिके कारण कामबाणसे आहत हो विषयासक्त हो गये । हे भारत ! देवोद्यानों में क्रीडारत रहते हुए वे सदा अप्सराओंसे घिरे रहते थे ॥ ५२-५३ ॥
उस राजा नहुषके मनमें इन्द्राणी शचीके गुणोंको सुनकर उन्हें प्राप्त करनेकी इच्छा हुई । उसने ऋषियोंसे कहा-मेरे पास इन्द्राणी क्यों नहीं आती ? आपलोग और देवताओंने मुझे इन्द्र बनाया, इसलिये हे देवताओ ! शचीको मेरी सेवाके लिये भेजिये । हे मुनियो तथा देवताओ ! आपलोगोंको मेरा प्रिय कार्य अवश्य करना चाहिये । इस समय मैं देवताओंका इन्द्र और समस्त लोकोंका स्वामी हूँ: शची शीघ्र ही आज मेरे भवनमें आ जायें ॥ ५४-५६ ॥
उसकी यह बात सुनकर चिन्तासे व्याकुल देवता तथा ऋषिगण शचीके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके कहने लगे-हे इन्द्रपलि ! दुराचारी नहुष इस समय आपकी कामना करता है । उसने क्रुद्ध होकर हमसे यह बात कही है 'शचीको यहाँ भेज दीजिये । ' हम उसके अधीन हैं, अत: कर ही क्या सकते हैं । क्योंकि उसे इन्द्र बना दिया गया है । ५७-५९ ॥
तच्छ्रुत्वा दुर्मना देवी बृहस्पतिमुवाच ह । रक्ष मां नहुषाद्ब्रह्मंस्तवास्मि शरणं गता ॥ ६० ॥
यह सुनकर दुःखितमन शचीने बृहस्पतिसे कहा'हे ब्रह्मन् ! नहुषसे मेरी रक्षा कीजिये; मैं आपकी शरणमें हूँ' ॥ ६० ॥
बृहस्पतिरुवाच न भेतव्यं त्वया देवि नहुषात्पापमोहितात् । न त्वां दास्याम्यहं वत्से त्यक्त्वा धर्मं सनातनम् ॥ ६१ ॥
बृहस्पति बोले-हे देवि ! पापसे मोहित नहषसे तुम्हें भय नहीं करना चाहिये । हे पुत्रि ! मैं सनातनधर्मका त्यागकर तुम्हें उसको नहीं दूंगा ॥ ६१ ॥
शरणागतमार्तं च यो ददाति नराधमः । स एव नरकं याति यावदाभूतसंप्लवम् । स्वस्था भव पृथुश्रोणि न त्यक्ष्ये त्वां कदाचन ॥ ६२ ॥
जो अधम मनुष्य शरणमें आये हुए तथा दुःखी प्राणीको दूसरोंको सौंप देता है वह प्रलयपर्यन्त नरकमें वास करता है । अतः हे पृथुश्रोणि ! तुम निश्चिन्त रहो, मैं तुम्हारा त्याग कभी नहीं करूँगा ॥ ६२ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्या संहितायां षष्ठस्कन्धे इन्द्रस्य पद्मनालप्रवेशानन्तरं नहुषस्य देवेन्द्रपदेऽभिषेकवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥