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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
षष्ठः स्कन्धः
अष्टमोऽध्यायः

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इन्द्राण्या शक्रदर्शनम् -
इन्द्राणीको बृहस्पतिकी शरणमें जानकर नहुषका क्रुद्ध होना, देवताओंका नहुषको समझाना, बृहस्पतिके परामर्शसे इन्द्राणीका नहुषसे समय माँगना, देवताओंका भगवान् विष्णुके पास जाना और विष्णका उन्हें देवीको प्रसन्न करनेके लिये अश्वमेधयज्ञ करनेको कहना, बृहस्पतिका शचीको भगवतीकी आराधना करनेको कहना, शचीकी आराधनासे प्रसन्न होकर देवीका प्रकट होना और शचीको इन्द्रका दर्शन होना -


व्यास उवाच
नहुषस्त्वथ तां श्रुत्वा गुरोस्तु शरणं गताम् ।
चुक्रोध स्मरबाणार्तस्तमाङ्‌गिरसमाशु वै ॥ १ ॥
देवानाहाङ्‌गिरासूनुर्हन्तव्योऽयं मया किल ।
इतीन्द्राणीं गृहे मूढो रक्षतीति मया श्रुतम् ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-वे शची देवगुरुकी शरणमें चली गयी हैं-ऐसा सुनकर कामबाणसे आहत नहुष अंगिरापुत्र बृहस्पतिपर बहुत कुपित हुआ और उसने देवताओंसे कहा-यह अंगिरापुत्र बृहस्पति आज मेरेद्वारा निश्चय ही मारा जायगा; क्योंकि मैंने ऐसा सुना है कि उस मूर्खने इन्द्राणीको अपने घरमें रखा है ॥ १-२ ॥

इति तं कुपितं दृष्ट्वा देवाः सर्षिपुरोगमाः ।
अब्रुवन्नहुषं घोरं सामपूर्वं वचस्तदा ॥ ३ ॥
इस प्रकार नहुषको क्रुद्ध देखकर प्रधान ऋषियोसहित देवतागण उस दुष्टसे सामनीतियुक्त वचन बोले- ॥ ३ ॥

क्रोधं संहर राजेन्द्र त्यज पापमतिं प्रभो ।
निन्दन्ति धर्मशास्त्रेषु परदाराभिमर्शनम् ॥ ४ ॥
हे राजेन्द्र ! क्रोध दूर करो और पापकारिणी बुद्धिका त्याग करो । हे प्रभो ! [मनीषियोंने] धर्मशास्त्रोंमें परस्त्रीगमनकी निन्दा की है ॥ ४ ॥

शक्रपत्‍नी सदा साध्वी जीवमाने पतौ पुनः ।
कथमन्ये पतिं कुर्यात्सुभगातिपतिव्रता ॥ ५ ॥
इन्द्रकी पत्नी शची सदासे अत्यन्त साध्वी, सौभाग्यवती और पतिव्रता हैं । फिर अपने पतिके जीवित रहते वे कैसे दूसरेको पति बना सकती हैं ? ॥ ५ ॥

त्रिलोकीशस्त्वमधुना शास्ता धर्मस्य वै विभो ।
त्वादृशोऽधर्ममातिष्ठेत्तदा नश्येत्प्रजा ध्रुवम् ॥ ६ ॥
हे विभो ! आज इस समय आप तीनों लोकोंके स्वामी तथा धर्मके रक्षक हैं । आप जैसा राजा अधर्ममें स्थित हो जाय तब तो निश्चितरूपसे प्रजाका नाश हो जायगा ॥ ६ ॥

सर्वथा प्रभुणा कार्यं शिष्टाचारस्य रक्षणम् ।
वारमुख्याश्च शतशो वर्तन्तेऽत्र शचीसमाः ॥ ७ ॥
राजाको सब प्रकारसे सदाचारकी रक्षा करनी चाहिये । यहाँ स्वर्गमें तो शचीके सदृश सैकड़ों प्रमुख अप्सराएँ हैं ॥ ७ ॥

रतिस्तु कारणं प्रोक्तं शृङ्गारस्य महात्मभिः ।
रसहानिर्बलात्कारे कृते सति तु जायते ॥ ८ ॥
महात्माओंने रतिको ही श्रृंगारका कारण बताया है, बलप्रयोग किये जानेपर तो रसकी हानि ही होती है ॥ ८ ॥

उभयोः सदृशं प्रेम यदि पार्थिवसत्तम ।
तदा वै सुखसम्पत्तिरुभयोरुपजायते ॥ ९ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! जब [स्त्री-पुरुष] दोनोंमें एक समान प्रेम रहता है, तभी उन दोनोंको अधिक सुख प्राप्त होता है ॥ ९ ॥

तस्माद्‌भावमिमं मुञ्च परदाराभिमर्शने ।
सद्‌भावं कुरु देवेन्द्र पदं प्राप्तोऽस्यनुत्तमम् ॥ १० ॥
अतः हे देवेन्द्र ! परस्त्रीगमनकी यह भावना छोड़ दीजिये और श्रेष्ठ आचरण कीजिये; क्योंकि आपको इन्द्र-जैसा अतिश्रेष्ठ पद प्राप्त है ॥ १० ॥

ऋद्धिक्षयस्तु पापेन पुण्येनातिविवर्धनम् ।
तस्मात्पापं परित्यज्य सन्मतिं कुरु पार्थिव ॥ ११ ॥
हे राजन् ! पापसे सम्पत्तिका क्षय होता है और पुण्यसे महान् वृद्धि होती है, इसलिये पापकर्म छोड़कर सात्त्विक बुद्धिका आश्रय लीजिये ॥ ११ ॥

नहुष उवाच
गौतमस्य यदा भुक्ता दाराः शक्रेण देवताः ।
वाचस्पतेस्तु सोमेन क्व यूयं संस्थितास्तदा ॥ १२ ॥
नहुषने कहा-हे देवताओ ! जब देवराज इन्द्रने गौतमकी पत्नीके साथ और चन्द्रमाने बृहस्पतिकी पत्नीके साथ अनाचार किया था, तब तुमलोग कहाँ थे ? ॥ १२ ॥

परोपदेशे कुशला प्रभवन्ति नराः किल ।
कर्ता चैवोपदेष्टा च दुर्लभः पुरुषो भवेत् ॥ १३ ॥
लोग दूसरोंको उपदेश देने में बहुत कुशल होते हैं, परंतु उपदेश देनेवाला तथा उसका पालन करनेवाला पुरुष दुर्लभ होता है ॥ १३ ॥

मामागच्छतु सा देवी हितं स्यादद्‌भुतं हि वः ।
एतस्याः परमं देवाः सुखमेव भविष्यति ॥ १४ ॥
हे देवताओ ! वह शची मेरे पास आ जाय, इसीमें आप सबका परम कल्याण है; इससे उसको भी अत्यन्त सुख मिलेगा ॥ १४ ॥

अन्यथा न हि तुष्येऽहं सत्यमेतद्‌ब्रवीमि वः ।
विनयाद्वा बलाद्वापि तामाशु प्रापयन्त्विह ॥ १५ ॥
अन्य किसी भी प्रकारसे मैं सन्तुष्ट नहीं होऊँगा, यह मैं तुमलोगोंसे कह रहा हूँ । इसलिये विनयसे या बलपूर्वक तुमलोग उसे शीघ्र ही मुझे प्राप्त कराओ ॥ १५ ॥

इति तस्य वचः श्रुत्वा देवाश्च मुनयस्तथा ।
तमूचुश्चातिसन्त्रस्ता नहुषं मदनातुरम् ॥ १६ ॥
इन्द्राणीमानयिष्यामः सामपूर्वं तवान्तिकम् ।
इत्युक्त्वा ते तदा जग्मुर्बृहस्पतिनिकेतनम् ॥ १७ ॥
उसकी यह बात सुनकर भयभीत देवताओं और मुनियोंने उस कामातुर नहुषसे कहा-हमलोग सामनीतिसे इन्द्राणीको आपके पास लायेंगे-ऐसा कहकर वे लोग बृहस्पतिके निवासपर चले गये ॥ १६-१७ ॥

व्यास उवाच
ते गत्वाङ्‌गिरसः पुत्रं प्रोचुः प्राञ्जलयः सुराः ।
जानीमः शरणं प्राप्तामिन्द्राणीं तव वेश्मनि ॥ १८ ॥
सा देया नहुषायाद्य वासवोऽसौ कृतो यतः ।
वृणोत्वियं वरारोहा पतित्वे वरवर्णिनी ॥ १९ ॥
व्यासजी बोले-तदनन्तर वे देवगण अंगिराके पुत्र बृहस्पतिके पास जाकर हाथ जोड़कर उनसे बोले-हमें ज्ञात हुआ है कि इन्द्राणीको आपके घरमें शरण प्राप्त है, उन्हें आज ही नहुषको देना है; क्योंकि वह इन्द्र बना दिया गया है । यह सुलक्षणा सुन्दरी उन्हें पतिके रूपमें वरण कर ले ॥ १८-१९ ॥

बृहस्पतिः सुरानाह तच्छ्रुत्वा दारुणं वचः ।
नाहं त्यक्ष्ये तु पौलोमीं सतीं च शरणागताम् ॥ २० ॥
यह दारुण वचन सुनकर बृहस्पतिने देवताओंसे कहा-मैं शरणमें आयी हुई इस पतिव्रता शचीका त्याग नहीं करूँगा ॥ २० ॥

देवा ऊचुः
उपायोऽन्यः प्रकर्तव्यो येन सोऽद्य प्रसीदति ।
अन्यथा कोपसंयुक्तो दुराराध्यो भविष्यति ॥ २१ ॥
देवगण बोले-तब दूसरा कोई उपाय करना चाहिये, जिससे वह आज प्रसन्न हो जाय, अन्यथा क्रुद्ध होनेपर वह दुराराध्य हो जायगा । ॥ २१ ॥

गुरुरुवाच
तत्र गत्वा शची भूपं प्रलोभ्य वचसा भृशम् ।
करोतु समयं बाला पतिं ज्ञात्वा मृतं भजे ॥ २२ ॥
इन्द्रे जीवति मे कान्ते कथमन्यं करोम्यहम् ।
अन्वेषणार्थं गन्तव्यं मया तस्य महात्मनः ॥ २३ ॥
इति सा समयं कृत्वा वञ्चयित्वा च भूपतिम् ।
भर्तुरानयने यत्‍नं करोतु मम वाक्यतः ॥ २४ ॥
देवगुरु बोले-सुन्दरी शची वहाँ जाकर राजाको अपनी बातसे अत्यन्त मोहित करके यह शपथ ले कि 'अपने पतिको मृत जाननेके बाद ही मैं आपको अंगीकार करूँगी । अपने पति इन्द्रके जीवित रहते मैं किसी दूसरेको पति कैसे बना लूँ ? इसलिये उन महाभागकी खोजके लिये मुझे जाना पड़ेगा । ' इस प्रकार वह मेरे कथनके अनुसार शपथ लेकर और राजाको छलकर अपने पतिको लानेका प्रयत्न करे ॥ २२-२४ ॥

इति सञ्चिन्त्य मे सर्वे बृहस्पतिपुरोगमाः ।
नहुषं सहिता जग्मुरिन्द्रपत्‍न्या दिवौकसः ॥ २५ ॥
ऐसा विचार करके सभी देवता बृहस्पतिको आगे करके इन्द्रपत्नी शचीके साथ नहुषके पास गये ॥ २५ ॥

तानागतान्ममीक्ष्याह तदा कृत्रिमवासवः ।
जहर्ष च मुदायुक्तस्तां वीक्ष्य मुदितोऽब्रवीत् ॥ २६ ॥
अद्यास्मि वासवः कान्ते भज मां चारुलोचने ।
पतित्वे सर्वलोकस्य पूज्योऽहं विहितः सुरैः ॥ २७ ॥
उन सभीको आया हुआ देखकर वह कृत्रिम इन्द्र नहुष हर्षित हुआ । उस शचीको देखकर वह आनन्दित हो गया और प्रसन्नतापूर्वक बोला-हे प्रिये ! आज मैं इन्द्र हूँ, हे सुन्दर नेत्रोंवाली ! मुझे पतिरूपमें अंगीकार करो । मैं देवताओंके द्वारा सम्पूर्ण लोकका पूज्य बना दिया गया हूँ ॥ २६-२७ ॥

इत्युक्ता सा नृपं प्राह वेपमाना त्रपायुता ।
वरमिच्छाम्यहं राजंस्त्वत्तः प्राप्तं सुरेश्वर ॥ २८ ॥
किञ्चित्कालं प्रतीक्षस्व यावत्कुर्वे विनिर्णयम् ।
इन्द्रोऽस्तीति न वास्तीति सन्देहो मे हृदि स्थितः ॥ २९ ॥
ततस्त्वां समुपस्थास्ये कृत्वा निश्चयमात्मनि ।
तावत्क्षमस्व राजेन्द्र सत्यमेतद्‌ब्रवीमि ते ॥ ३० ॥
न हि विज्ञायते शक्रो नष्टः किं वा क्व वा गतः ।
नहुषके ऐसा कहनेपर शचीने लज्जित होकर काँपते हुए कहा-हे राजन् ! हे सुरेश्वर ! मैं आपसे एक वरप्राप्तिकी इच्छा करती हूँ । आप कुछ समयतक प्रतीक्षा करें, जबतक मैं यह निर्णय कर लूँ कि मेरे पति इन्द्र जीवित हैं या नहीं; क्योंकि इस बातका मेरे मनमें सन्देह है । मनमें इसका निश्चय करनेके अनन्तर मैं आपकी सेवामें उपस्थित होऊँगी । हे राजेन्द्र ! तबतकके लिये क्षमा कीजिये; यह मैं सत्य कह रहीं हूँ । अभी यह ज्ञात नहीं है कि इन्द्र नष्ट हो गये हैं या कहीं चले गये हैं ॥ २८-३०.५ ॥

एवमुक्तः स चेन्द्राण्या नहुषः प्रीतिमानभूत् ॥ ३१ ॥
व्यसर्जयत्स तां देवीं तथेत्युक्त्वा मुदान्वितः ।
सा विसृष्टा नृपेणाशु गत्वा प्राह सुरान्सती ॥ ३२ ॥
इन्द्रस्यागमने यत्‍नं कुरुताद्य कृतोद्यमाः ।
इन्द्राणीके ऐसा कहनेपर नहुष प्रसन्न हो गया और 'ऐसा ही हो'-यह कहकर उसने उन देवी शचीको प्रसन्नतापूर्वक विदा किया । राजासे मुक्ति पाकर वह पतिव्रता शची शीघ्रतापूर्वक देवताओंके पास जाकर बोली-आपलोग उद्यमशील होकर इन्द्रको ले आनेका प्रयास करें ॥ ३१-३२.५ ॥

श्रुत्वा तद्वचनं देवा इन्द्राण्या रसवच्छुचि ॥ ३३ ॥
मन्त्रयामासुरेकाग्राः शक्रार्थं नृपसत्तम ।
ते गत्वा वैष्णवं धाम तुष्टुवुः परमेश्वरम् ॥ ३४ ॥
आदिदेवं जगन्नाथं शरणागतवत्सलम् ।
ऊचुश्चैनं समुद्विग्ना वाक्यं वाक्यविशारदाः ॥ ३५ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! इन्द्राणीका पवित्र और मधुर वचन सुनकर सभी देवताओंने एकाग्न होकर इन्द्रके विषयमें विचार-विमर्श किया । तदनन्तर वे वैकुण्ठलोक जाकर शरणागतवत्सल आदिदेव भगवान जगन्नाथकी स्तुति करने लगे । उन वाक्पटुविशारद देवताओंने उद्विग्न होकर इस प्रकार कहा- ॥ ३३-३५ ॥

देवदेव सुरपतिर्ब्रह्महत्याप्रपीडितः ।
अदृश्यः सर्वभूतानां क्वापि तिष्ठति वासवः ॥ ३६ ॥
त्वद्धिया निहते विप्रे ब्रह्महत्या कुतः प्रभो ।
त्वं गतिस्तस्य भगवन्नस्माकं च तथैव हि ॥ ३७ ॥
त्राहि नः परमापन्नान्मोक्षं तस्य विनिर्दिश ।
हे देवाधिदेव ! ब्रह्महत्यासे पीड़ित देवराज इन्द्र सभी प्राणियोंसे अदृश्य होकर कहीं रह रहे हैं । हे प्रभो ! आपके परामर्शसे ही उन्होंने ब्राह्मण वृत्रासुरका वध किया था । तब ब्रह्महत्या कहाँ हुई ? हे भगवन् ! आप ही उनकी और हम सबकी एकमात्र गति हैं । इस महान् कष्टमें पड़े हुए हम सबकी रक्षा कीजिये और उन इन्द्रके ब्रह्महत्यासे छूटनेका उपाय बताइये ॥ । ३६-३७.५ ॥

देवानां वचनं श्रुत्वा कातरं विष्णुरब्रवीत् ॥ ३८ ॥
यजतामश्वमेधेन शक्रपापनिवृत्तये ।
पुण्येन हयमेधेन पावितः पाकशासनः ॥ ३९ ॥
पुनरेष्यति देवानामिन्द्रत्वमकुतोभयः ।
हयमेधेन सन्तुष्टा देवी श्रीजगदम्बिका ॥ ४० ॥
ब्रह्महत्यादिपापानि नाशयिष्यत्यसंशयम् ।
यस्याः स्मरणमात्रेण पापजालं विनश्यति ॥ ४१ ॥
किं पुनर्वाजिमेधेन तत्प्रीत्यर्थं कृतेन च ।
इन्द्राणी कुरुतान्नित्यं भगवत्याः प्रपूजनम् ॥ ४२ ॥
आराधनं शिवायास्तु सुखकारि भविष्यति ।
नहुषोऽपि जगन्मातुर्मायया मोहितः किल ॥ ४३ ॥
विनाशं स्वकृतेनाशु गमिष्यत्येनसा सुराः ।
पावितश्चाश्वमेधेन तुराषाडपि वैभवम् ॥ ४४ ॥
देवताओंका करुण वचन सुनकर भगवान् विष्णु बोले-इन्द्रके पापकी निवृत्तिके लिये अश्वमेधयज्ञ कीजिये; अश्वमेध करनेसे प्राप्त पुण्यसे इन्द्र पवित्र हो जायेंगे । इससे वे पुनः देवताओंके इन्द्रत्वको पा जायेंगे, फिर कोई भय नहीं रहेगा । अश्वमेधयज्ञसे भगवती श्रीजगदम्बिका प्रसन्न होकर ब्रह्महत्या आदि पाप निश्चितरूपसे नष्ट कर देंगी । जिनके स्मरणमात्रसे पापोंका समूह नष्ट हो जाता है, उन जगदम्बाकी प्रसन्नताके लिये किये गये अश्वमेधयज्ञका क्या कहना ! इन्द्राणी भी नित्य भगवती जगदम्बाकी पूजा करें; भगवती शिवाकी आराधना सुखकारी होगी । हे देवताओ ! नहुष भी जगदम्बिकाकी मायासे मोहित होकर शीघ्र ही अपने किये हुए पापसे अवश्य विनष्ट हो जायगा । अश्वमेधयज्ञसे पवित्र होकर इन्द्र भी शीघ्र ही अपने उत्तम इन्द्रपद और वैभवको प्राप्त करेंगे ॥ ३८-४४ ॥

प्राप्स्यत्यचिरकालेन स्वमासनमनुत्तमम् ।
ते तु श्रुत्वा शुभां वाणीं विष्णोरमिततेजसः ॥ ४५ ॥
जग्मुस्तं देशमनिशं यत्रास्ते पाकशासनः ।
तमाश्वास्य सुराः शक्रं बृहस्पतिपुरोगमाः ॥ ४६ ॥
कारयामासुरखिलं हयमेधं महाक्रतुम् ।
अमित तेजवाले भगवान् विष्णुकी इस शुभ वाणीको सुनकर वे देवगण उस स्थानको चल दिये जहाँ इन्द्र रह रहे थे । बृहस्पतिके नेतृत्वमें देवताओंने इन्द्रको आश्वासन देकर सम्पूर्ण अश्वमेध महायज्ञ सम्पन्न कराया ॥ ४५-४६.५ ॥

विभज्य ब्रह्महत्यां तु वृक्षेषु च नदीषु च ॥ ४७ ॥
पर्वतेषु पृथिव्यां च स्त्रीषु चैवाक्षिपद्विभुः ।
तां विसृज्य च भूतेषु विपापः पाकशासनः ॥ ४८ ॥
विज्वरः समभूद्‌भूयः कालाकाङ्क्षी स्थितो जले ।
अदृश्यः सर्वभूतानां पद्मनाले व्यतिष्ठत ॥ ४९ ॥
तत्पश्चात् भगवान् विष्णुने ब्रह्महत्याको विभाजितकर वृक्षों, नदियों, पर्वतों, पृथ्वी और स्वियोंपर फेंक दिया । इस प्रकार उसको प्राणि-पदार्थोंमें विसर्जित करके इन्द्र पापरहित हो गये । सन्तापरहित होनेपर भी इन्द्र अच्छे समयकी प्रतीक्षा करते हुए जलमें ही ठहरे रहे । वहाँ सभी प्राणियोंसे अदृश्य रहते हुए जलमें वे एक कमलनालमें स्थित रहे ॥ ४७-४९ ॥

देवास्तु निर्गताः स्थाने कृत्वा कार्यं तदद्‌भुतम् ।
पौलोमी तु गुरुं प्राह दुःखिता विरहाकुला ॥ ५० ॥
कृतयज्ञोऽपि मे भर्ता किमदृश्यः पुरन्दरः ।
कथं द्रक्ष्ये प्रियं स्वामिंस्तमुपायं वदस्व मे ॥ ५१ ॥
देवगण उस अद्भुत कार्यको करके अपने स्थानको चले गये । तब शचीने दुःख और वियोगसे व्याकुल होकर देवगुरु बृहस्पतिसे कहा-यज्ञ करनेपर भी मेरे स्वामी इन्द्र क्यों अदृश्य हैं ? हे स्वामिन् ! मैं अपने प्रियको कैसे देख सकूँगी; आप मुझे उस उपायको बतायें ॥ ५०-५१ ॥

बृहस्पतिरुवाच
त्वमाराधय पौलोमि देवीं भगवतीं शिवाम् ।
दर्शयिष्यति ते नाथं देवी विगतकल्मषम् ॥ ५२ ॥
आराधिता जगद्धात्री नहुषं वारयिष्यति ।
मोहयित्वा नृपं स्थानात्पातयिष्यति चाम्बिका ॥ ५३ ॥
बृहस्पति बोले-हे पौलोमि ! तुम देवी भगवती शिवाकी आराधना करो । वे देवी तुम्हारे पापरहित पतिका तुम्हें दर्शन करायेंगी । आराधना करनेपर जगत्का पालन करनेवाली वे भगवती नहषको शक्तिहीन कर देंगी । वे अम्बिका राजाको मोहित करके उसे उसके स्थानसे गिरा देंगी ॥ ५२-५३ ॥

इत्युक्ता सा तदा तेन पुलोमतनया नृप ।
जग्राह मन्त्रं विधिवद्‌गुरोर्देव्याः ससाधनम् ॥ ५४ ॥
हे राजन् ! बृहस्पतिजीके ऐसा कहनेपर पुलोमापुत्री शचीने देवगुरुसे पूजाविधिसहित देवीका मन्त्र विधिवत् प्राप्त कर लिया ॥ ५४ ॥

विद्यां प्राप्य गुरोर्देवी देवीं श्रीभुवनेश्वरीम् ।
सम्यगाराधयामास बलिपुष्पार्चनैः शुभै ॥ ५५ ॥
गुरुसे मन्त्रविद्या प्राप्त करके देवी शचीने बलि, पुष्प आदि शुभ अर्चनोंसे भगवती श्रीभुवनेश्वरीकी सम्यक् आराधना की ॥ ५५ ॥

त्यक्तान्यभोगसम्भारा तापसीवेषधारिणी ।
चकार पूजनं देव्याः प्रियदर्शनलालसा ॥ ५६ ॥
अपने प्रिय पतिके दर्शनकी लालसासे युक्त शची समस्त भोगोंका त्यागकर तपस्विनीका वेश धारणकर देवीका पूजन करने लगीं ॥ ५६ ॥

कालेन कियता तुष्टा प्रत्यक्षं दर्शनं ददौ ।
सौम्यरूपधरा देवी वरदा हंसवाहिनी ॥ ५७ ॥
सूर्यकोटिप्रतीकाशा चन्द्रकोटिसुशीतला ।
विद्युत्कोटिसमानाभा चतुर्वेदसमन्विता ॥ ५८ ॥
पाशांकुशाभयवरान्दधती निजबाहुभिः ।
आपादलम्बिनीं स्वच्छां मुक्तामालां च बिभ्रती ॥ ५९ ॥
प्रसन्तस्मेरवदना लोचनत्रयभूषिता ।
आब्रह्मकीटजननी करुणामृतसागरा ॥ ६० ॥
अनन्तकोटिब्रह्माण्डनायिका परमेश्वरी ।
सौम्यानन्तरसैर्युक्तस्तनद्वयविराजिता ॥ ६१ ॥
सर्वेश्वरी च सर्वज्ञा कूटस्थाक्षररूपिणी ।
तामुवाच प्रसन्ना सा शक्रपत्‍नीं कृतोद्यमाम् ॥ ६२ ॥
मेघगम्भीरशब्देन मुदमाददती भृशम् ।
[आराधना करनेपर] कुछ समय बाद प्रसन्न होकर भगवतीने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया । वे वरदायिनी देवी सौम्य रूप धारण किये हुए हंसपर सवार थीं । वे करोड़ों सूर्योके समान प्रकाशमान, करोड़ों चन्द्रमाओंके समान शीतल, करोड़ों विद्युत्के समान प्रभासे युक्त और चारों वेदोंसे समन्वित थीं । उन्होंने अपनी भुजाओंमें पाश, अंकुश, अभय तथा वर-मुद्राएँ धारण कर रखी थीं, वे चरणोंतक लटकती हुई स्वच्छ मोतियोंकी माला पहने हुए थीं । उनके मुखपर मधुर मुसकान थी और वे तीन नेत्रोंसे सुशोभित थीं । ब्रह्मासे लेकर कीटपर्यन्त सभी प्राणियोंकी जननी, करुणारूपी अमृतकी सागरस्वरूपा तथा अनन्तकोटि ब्रह्माण्डोंकी अधीश्वरी वे परमेश्वरी सौम्य थीं तथा अनन्त रसोंसे आपूरित स्तनयुगलसे सुशोभित हो रही थीं । सबकी अधीश्वरी, सब कुछ जाननेवाली, कूटस्थ और बीजाक्षरस्वरूपिणी वे भगवती उद्यमशील इन्द्रपत्नी शचीसे प्रसन्न होकर मेषके समान अत्यन्त गम्भीर वाणीके द्वारा उन्हें परम हर्षित करती हुई कहने लगीं ॥ ५७-६२.५ ॥

देव्युवाच
वरं वरय सुश्रोणि वाञ्छितं शक्रवल्लभे ॥ ६३ ॥
ददाम्यद्य प्रसन्नास्मि पूजिता सुभृशं त्वया ।
वरदाहं समायाता दर्शनं सहजं न मे ॥ ६४ ॥
अनेककोटिजन्मोत्थपुण्यपुञ्जैर्हि लभ्यते ।
देवी बोलीं-हे सुन्दर कटिप्रदेशवाली इन्द्रप्रिये ! अपना अभिलषित वर माँगो, तुम्हारे द्वारा सम्यक् प्रकारसे पूजित मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ, मैं तुम्हें आज वरदान दूंगी । मैं चर प्रदान करनेके लिये आयी हूँ; मेरा दर्शन सहज सुलभ नहीं है । करोड़ों जन्मोंकी संचित पुण्यराशिसे ही यह प्राप्त होता है । ६३-६४.५ ॥

इत्युक्ता सा तदा देवी तामाह प्रणता पुरः ॥ ६५ ॥
शक्रपत्‍नी भगवतीं प्रसन्नां परमेश्वरीम् ।
वाञ्छामि दर्शनं मातः पत्युः परमदुर्लभम् ॥ ६६ ॥
उनके ऐसा कहनेपर इन्द्रपत्नी देवी शचीने सम्मुख स्थित होकर उन प्रसन्न भगवती परमेश्वरीसे विनतभावसे कहा-हे माता ! मैं अपने पतिका अत्यन्त दुर्लभ दर्शन, नहुषसे उत्पन्न भयका नाश और अपने पदकी पुनः प्राप्ति चाहती हूँ ॥ ६५-६६ ॥

नहुषाद्‌भयनाशं च स्वपदप्रापणं तथा ।
देव्युवाच
गच्छ त्वमनया दूत्या सार्धं श्रीमानसं सरः ॥ ६७ ॥
यत्र मे मूर्तिरचला विश्वकामाभिधा मता ।
तत्र पश्यसि शक्रं त्वं दुःखितं भयविह्वलम् ॥ ६८ ॥
मोहयिष्यामि राजानं कालेन कियता पुनः ।
स्वस्था भव विशालाक्षि करोमि तव चेप्सितम् ॥ ६९ ॥
भ्रंशयिष्यामि भूपालं मोहितं त्रिदशासनात् ।
देवी बोलीं-तुम [मेरी] इस दूतीके साथ मानसरोवर चली जाओ, जहाँ मेरी विश्वकामा नामक अचल मूर्ति प्रतिष्ठित है, वहीं तुम्हें भयभीत और दु:खी इन्द्रके दर्शन हो जायेंगे । कुछ समय बाद मैं पुनः राजाको मोहित करूँगी । हे विशालाक्षि ! तुम शान्तचित्त हो जाओ, मैं तुम्हारा अभिलषित कार्य करूँगी । मैं मोहग्रस्त राजा [नहुष]-को इन्द्रपदसे गिरा दूंगी ॥ ६७-६९.५ ॥

व्यास उवाच
देवीदूती तां गृहीत्वा शक्रपत्‍नीं त्वरान्विता ॥ ७० ॥
प्रापयामास सान्निध्यं स्वपत्युः परमेश्वरीम् ।
सा दृष्ट्वा तं पतिं बाला सुरेशं गुप्तसंस्थितम् ।
मुदिताभूद्वरं वीक्ष्य बहुकालाभिवाञ्छितम् ॥ ७१ ॥
व्यासजी बोले-तदनन्तर परमेश्वरी इन्द्रपत्नीको ले जाकर देवीकी दूतीने शीघ्रतापूर्वक उनके पति इन्द्रके पास पहुँचा दिया । गुप्तरूपसे रहते हुए अपने पति उन देवराज इन्द्रको देखकर और इस प्रकार चिरकालसे वांछित अपने वरकी प्राप्ति करके वे शची अत्यन्त प्रसन्न हुई ॥ ७०-७१ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्या संहितायां
षष्ठस्कन्धे इन्द्राण्या शक्रदर्शनं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
अध्याय आठवाँ समाप्त ॥ ८ ॥


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