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नहुषस्वर्गच्युतिवर्णनम् -
शचीका इन्द्रसे अपना दुःख कहना, इन्द्रका शचीको सलाह देना कि वह नहुषसे ऋषियोंद्वारा वहन की जा रही पालकीमें आनेको कहे, नहुषका ऋषियोंद्वारा वहन की जा रही पालकीमें सवार होना और शापित होकर सर्प होना तथा इन्द्रका पुनः स्वर्गाधिपति बनना -
व्यास उवाच तां वीक्ष्य विपुलापाङ्गीं रहः शोकसमन्विताम् । आखण्डलः प्रियां भार्यां विस्मितश्चाब्रवीत्तदा ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-विशाल नेत्रोंवाली अपनी शोकाकुल प्रिय पत्नीको वहाँ एकान्तमें देखकर इन्द्र आश्चर्यचकित हो गये और बोले- ॥ १ ॥
कथमत्रागता कान्ते कथं ज्ञातस्त्वया ह्यहम् । दुर्ज्ञेयः सर्वभूतानां संस्थितोऽस्मि शुभानने ॥ २ ॥
हे प्रिये ! तुम यहाँ कैसे आयी ? तुम्हें कैसे ज्ञात हुआ कि मैं यहाँ हूँ ? हे शुभानने ! मैं सभी प्राणियोंसे अज्ञात रहते हुए यहाँ निवास कर रहा हूँ ॥ २ ॥
शच्युवाच देव देव्याः प्रसादेन ज्ञातोऽस्यद्य भवानिह । पुनस्तस्याः प्रसादेन प्राप्तास्मि त्वां दिवस्पते ॥ ३ ॥
शची बोली-हे देव ! देवी भगवतीकी कृपासे आप आज मुझे यहाँ ज्ञात हुए हैं । हे देवेन्द्र ! उन्हींकी कृपासे मैं आपको पुनः प्राप्त कर सकी हूँ ॥ ३ ॥
नहुषो नाम राजर्षिः स्थापितो भवदासने । त्रिदशैर्मुनिभिश्चैव स मां बाधति नित्यशः ॥ ४ ॥ पतिं मां कुरु चार्वङ्गि: तुरासाहं सुराधिपम् । एवं वदति मां पाप्मा किं करोमि बलार्दन ॥ ५ ॥
देवताओं और मुनियोंने नहुष नामक राजर्षिको आपके आसनपर बैठा दिया है; वह मुझे नित्य कष्ट देता है । वह पापी मुझसे इस प्रकार कहता है-हे सुन्दरि ! मुझ देवराज इन्द्रको अपना पति बना लो । हे बलार्दन ! अब मैं क्या करूँ ? ॥ ४-५ ॥
इन्द्र उवाच कालाकाङ्क्षी वरारोहे संस्थितोऽस्मि यदृच्छया । तथा त्वमपि कल्याणि सुस्थिरं स्वमनः कुरु ॥ ६ ॥
इन्द्र बोले-हे वरारोहे ! हे कल्याणि ! जिस प्रकार मैं [अनुकूल] समयकी प्रतीक्षा करते हुए प्रारब्धवश यहाँ रह रहा हूँ, वैसे ही तुम भी अपने मनको पूर्णरूपसे स्थिर करो ॥ ६ ॥
व्यास उवाच इत्युक्ता तेन सा देवी पतिनातिप्रशंसिना । निःश्वसन्त्याह तं शक्रं वेपमानातिदुःखिता ॥ ७ ॥
व्यासजी बोले-अपने परम आदरणीय पतिके ऐसा कहनेपर लम्बी साँसें खींचती तथा काँपती हुई वे शची अत्यन्त दुःखित होकर इन्द्रसे कहने लगीं- ॥ ७ ॥
कथं तिष्ठे महाभाग पापात्मा मां वशानुगाम् । करिष्यति मदोन्मत्तो वरदानेन गर्वितः ॥ ८ ॥ देवाश्च मुनयः सर्वे मामूचुस्तद्भयाकुलाः । तं भजस्व वरारोहे देवराजं स्मरातुरम् ॥ ९ ॥
हे महाभाग ! मैं कैसे रहूँ ? वरदानके द्वारा मदोन्मत्त और अहंकारी बना हुआ वह पापात्मा मुझे अपने वशमें कर लेगा । उससे भयभीत सभी देवताओं और मुनियोंने मुझसे कहा-हे वरारोहे ! तुम उस कामातुर देवराजको अंगीकार कर लो ॥ ८-९ ॥
बृहस्पतिस्तु शत्रुघ्न वाडवो बलवर्जितः । कथं मां रक्षितुं शक्तो भवेद्देवानुगः सदा ॥ १० ॥
हे शत्रुसूदन ! बृहस्पति भी निर्बल ब्राह्मण हैं; वे मेरी रक्षा करनेमें कैसे समर्थ हो सकते हैं । क्योंकि वे भी तो सदा देवताओंके ही अनुगामी हैं ॥ १० ॥
अतः हे विभो ! मैं वशवर्तिनी नारी हूँ, मुझे यह महान् चिन्ता है कि भाग्यकी इस विपरीत अवस्थामें मैं अनाथ क्या करूँगी ? ॥ ११ ॥
नार्यस्म्यहं न कुलटा त्वच्चित्तातिपतिव्रता । नास्ति मे शरणं तत्र यो मां रक्षति दुःखिताम् ॥ १२ ॥
मैं कुलटा नहीं हूँ अपितु आपका ही ध्यान करनेवाली पतिव्रता स्त्री हूँ । वहाँ मेरे लिये ऐसा कोई शरण नहीं है, जो मुझ दुःखितकी रक्षा करे ॥ १२ ॥
इन्द्र उवाच उपायं प्रब्रवीम्यद्य तं कुरुष्व वरानने । शीलं ते दुःखिते काले परित्रातं भविष्यति ॥ १३ ॥
इन्द्र बोले-हे वरानने ! मैं एक उपाय बताता हूँ, तुम उसे इस समय करो । इससे दुःखके समयमें तुम्हारे शीलकी रक्षा हो जायगी ॥ १३ ॥
परेण रक्षिता नारी न भवेच्च पतिव्रता । उपायैः कोटिभिः कामभिन्नचित्तातिचञ्चला ॥ १४ ॥
करोड़ों उपाय करनेपर भी दूसरेके द्वारा रक्षित स्त्री पतिव्रता नहीं रह सकती; क्योंकि वह कामर्स विचलित मनवाली तथा अत्यन्त चंचल होती है ॥ १४ ॥
शीलमेव हि नारीणां सदा रक्षति पापतः । तस्मात्त्वं शीलमास्थाय स्थिरा भव शुचिस्मिते ॥ १५ ॥
स्त्रियोंका शील ही पापसे इनकी रक्षा करता है । इसलिये हे पवित्र मुसकानवाली ! तुम शीलका आश्रय लेकर धैर्य धारण करो ॥ १५ ॥
यदा त्वां नहुषो राजा बलादाकर्षयेत्खलः । तदा त्वं समयं कृत्वा गजं वञ्चय भूपतिम् ॥ १६ ॥ एकान्ते तत्समीपे त्वं गत्वा वद मदालसे । ऋषियानेन दिव्येन मामुपैहि जगत्पते ॥ १७ ॥ एवं तव वशे प्रीता भविष्यामीति मे ततम् । इति तं वद सुश्रोणि तदा तु परिमोहितः ॥ १८ ॥ कामान्धः स मुनीन् याने योजयिष्यति पार्थिवः । अवश्यं तापसो भूपं शापदग्धं करिष्यति ॥ १९ ॥
जब दुष्ट राजा नहुष तुम्हें बलपूर्वक प्राप्त करनेकी चेष्टा करे तब तुम गुप्त प्रतिज्ञा करके राजाको धोखेमें डाल देना । हे मदालसे ! तुम एकान्तमें उसके समीप जाकर कहो-हे जगत्पते ! आप ऋषियोंके द्वारा वहन किये जानेवाले दिव्य वाहनसे मेरे पास आयें, ऐसा होनेपर मैं प्रेमपूर्वक आपके वशमें हो जाऊँगी-यह मेरी प्रतिज्ञा है । हे सुश्रोणि ! तुम उससे ऐसा बोलना. तब मोहित और कामान्ध वह राजा मुनियोंको अपने वाहनमें लगायेगा; इससे तपस्वी अवश्य ही नहषको शापसे दग्ध कर देंगे ॥ १६-१९ ॥
साहाय्यं जगदम्बा ते करिष्यति न संशयः । जगदम्बापदस्मर्तुः सङ्कटं न कदाचन ॥ २० ॥ यदि जायेत तच्चापि ज्ञेयं तत्स्वस्तये किल । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन मणिद्वीपाधिवासिनीम् ॥ २१ ॥
भगवती जगदम्बा तुम्हारी सहायता करेंगी । इसमें सन्देह नहीं है । भगवती जगदम्बाके चरणोंका स्मरण करनेवालेको कभी संकट नहीं होता । यदि संकट उत्पन्न भी हो जाय तो उसे भी अपने कल्याणके लिये ही समझना चाहिये । अतः तुम गुरु बृहस्पतिके कथनानुसार पूर्ण प्रयत्नसे मणिद्वीपवासिनी भगवती भुवनेश्वरीका भजन करो ॥ २०-२१ ॥
भज त्वं भुवनेशानीं गुरुवाक्यानुसारतः । व्यास उवाच इत्याख्याता शची तेन जगाम नहुषं प्रति ॥ २२ ॥ तथेत्युक्त्वातिविश्वस्ता भाविकार्ये कृतोद्यमा । नहुषस्तां समालोक्य मुदितो वाक्यमब्रवीत् ॥ २३ ॥ स्वागतं सत्यवचनैस्त्वदधीनोऽस्मि कामिनि । दासोऽहं तव सत्येन पालितं वचनं त्वया ॥ २४ ॥ यदागता समीपे मे तुष्टोऽस्मि मितभाषिणि । न च व्रीडा त्वया कार्या भक्तं मां भज सुस्मिते ॥ २५ ॥
व्यासजी बोले-उनके ऐसा कहनेपर 'वैसा ही होगा'- यह कहकर अत्यन्त विश्वस्त तथा भावी कार्यके प्रति प्रयत्नशील शची नहुषके पास गयीं । नहुष उन्हें देखकर प्रसन्न होता हुआ यह वचन बोला-हे कामिनि ! तुम्हारा स्वागत है, मैं तुम्हारे सत्य वचनोंके कारण तुम्हारे अधीन हूँ । तुमने अपने वचनका सत्यतापूर्वक पालन किया, इसलिये मैं तुम्हारा दास हो गया हूँ । हे मितभाषिणि ! तुम जब मेरे समीप आ गयी हो तो मैं सन्तुष्ट हो गया हूँ । तुम्हें अब लज्जा नहीं करनी चाहिये । हे सुन्दर मुसकानवाली ! मुझ अनुरक्तको अंगीकार करो । हे विशाल नेत्रोंवाली ! अपना कार्य बताओ; मैं तुम्हारा प्रिय करूंगा ॥ २२-२५ ॥
कार्यं वद विशालाक्षि करिष्यामि तव प्रियम् । शच्युवाच सर्वं कृतं त्वया कार्यं मम कृत्रिमवासव ॥ २६ ॥ मनोरथोऽस्ति मे देव शृणु चित्तेऽधुना विभो । वाञ्छितं कुरु कल्याण त्वद्वशाहमतः परम् ॥ २७ ॥ ब्रवीमि मानसोत्साहं त्वं तं कर्तुमिहार्हसि ।
शची बोलीं-हे कृत्रिम वासव ! आपने मेरा सम्पूर्ण कार्य कर दिया है । हे देव ! हे विभो ! इस समय मेरे मनमें एक अभिलाषा है, उसे आप सुनें । हे कल्याण ! मेरा मनोरथ पूर्ण कर दीजिये; इसके बाद मैं आपकी वशवर्तिनी हो जाऊँगी, मैं बड़े उत्साहसे अपना मनोरथ कह रही हूँ, आप उसे पूरा करने में समर्थ हैं ॥ २६-२७.५ ॥
नहुष बोला-हे चन्द्रमुखि ! तुम अपना कार्य बताओ, मैं तुम्हारा अभिलषित कार्य करता हूँ । हे सुभ्र ! यदि अलभ्य वस्तु होगी तो भी मैं तुम्हें दूंगा; मुझे बताओ ॥ २८.५ ॥
शच्युवाच कथं ब्रवीमि राजेन्द्र प्रत्ययो नास्ति मे तव ॥ २९ ॥ शपथं कुरु राजेन्द्र यत्करोमि प्रियं तव । राजानः सत्यवचसो दुर्लभा एव भूतले ॥ ३० ॥ पश्चाद्ब्रवीम्यहं राजन् ज्ञात्वा सत्येन यन्त्रितम् । कृते चेद्वाञ्छिते भूप सदा ते वशवर्तिनी ॥ ३१ ॥ भविष्यामि तुराषाड् वै सत्यमेतद्वचो मम ।
शची बोलीं-हे राजेन्द्र ! मैं कैसे बताऊँ, मुझे आपका विश्वास नहीं है । हे राजेन्द्र ! आप शपथ लें कि मैं तुम्हारा प्रिय करूँगा; क्योंकि पृथ्वीतलपर सत्यवादी राजा दुर्लभ हैं । हे राजन् ! आपको सत्यसे बँधा जाननेके बाद ही मैं अपना अभिलषित बताऊँगी । हे राजन् ! मेरी उस अभिलाषाको पूर्ण कर देनेपर मैं सदाके लिये आपकी वशवर्तिनी हो जाऊँगी । हे इन्द्र ! यह मेरा सत्यवचन है ॥ २९-३१.५ ॥
शची बोलीं-इन्द्रके वाहन अश्व, गज और रथ हैं । भगवान् विष्णुका वाहन गरुड़, यमराजका वाहन महिष, शिवका वाहन वृषभ, ब्रह्माका वाहन हंस, कार्तिकेयका वाहन मयूर और गजाननका वाहन मूषक है । हे सुराधिप ! मैं चाहती हूँ कि आपका वाहन ऐसा विलक्षण हो जो विष्णु, रुद्र, असुरों तथा राक्षसोंके भी पास न हो ॥ ३३-३५ ॥
हे महाराज ! अपने व्रतमें अटल रहनेवाले समस्त मुनिगण शिबिका (पालकी)-में आपको ढोयें-हे राजन् ! यही मेरी इच्छा है । हे पृथ्वीपते ! मैं आपको सभी देवताओंसे महान् समझती हैं । इसीलिये मैं सावधान रहती हुई आपके तेजकी वृद्धि चाहती हूँ ॥ ३६-३७.५ ॥
व्यासजी बोले-उनकी यह बात सुनकर महादेवीद्वारा प्रकट किये गये मोहसे मोहित हुआ बुद्धिहीन राजा नहुष हँसकर इन्द्रप्रिया शचीको सन्तुष्ट करते हुए यह वचन कहने लगा- ॥ ३८-३९ ॥
नहुष बोला-हे तन्वंगि ! तुमने सत्य ही कहा है, यह वाहन मुझे भी रुचिकर है । हे सुन्दर केशपाशवाली ! मैं तुम्हारे वचनोंका सम्यक् रूपसे पालन करूँगा ॥ ४० ॥
न ह्यल्पवीर्यो भवति यो वाहान्कुरुते मुनीन् । अहमारुह्य यानेन त्वामेष्यामि शुचिस्मिते ॥ ४१ ॥
हे पवित्र मुसकानवाली ! जो अल्प पराक्रमवाला होता है, वही ऋषियोंको पालकी ढोनेमें नहीं लगा सकता; मैं [तुम्हारी इच्छाके अनुसार] वाहनपर आरूढ़ होकर तुम्हारे पास आऊँगा ॥ ४१ ॥
नहुष बोला-हे विप्रगण ! मैं आज सर्वशक्तिसम्पन्न इन्द्र हूँ । आपलोग गवरहित होकर मेरा कार्य करें ॥ ४४ ॥
इन्द्रासनं मया प्राप्तं नेन्द्राणी मामुपैति च । आकारिता च मां सूते प्रेमपूर्वमिदं वचः ॥ ४५ ॥ मुनियानेन देवेन्द्र मामुपैहि सुराधिप । देवदेव महाराज मत्प्रियं कुरु मानद ॥ ४६ ॥
इन्द्रपद मुझे प्राप्त हो गया है, परंतु इन्द्राणी अभी मुझे नहीं प्राप्त हो सकी हैं । उन्होंने मेरे पास आकर प्रेमपूर्वक यह बात कही है-'हे सुरेन्द्र ! हे सुराधिप ! मुनियोंद्वारा ढोयी जानेवाली पालकीसे आप मेरे पास आयें । हे देवाधिदेव ! हे महाराज ! हे मानद ! आप मेरा यह प्रिय कार्य करें' ॥ ४५-४६ ॥
हे श्रेष्ठ मुनिगण ! मेरा यह कार्य अत्यन्त दुष्कर है, परंतु आप सब दयालुओंको मेरा यह कार्य अवश्य करना चाहिये । इन्द्रपत्नी शचीमें अत्यन्त आसक्त मेरे मनको काम जला रहा है, मैं आप सबकी शरणमें हूँ । अतः मेरे इस महान् कार्यको सम्पन्न करें ॥ ४७-४८ ॥
वह तुरंत एक सुन्दर पालकीपर चढ़कर उसमें बैठ गया और दिव्य मुनियोंको उसे ढोनेके लिये नियुक्तकर उन्हें 'सर्प-सर्प' (शीघ्र चलो-शीघ्र चलो) ऐसा कहने लगा ॥ ५१ ॥
उस कामातुर मूर्खने मुनि अगस्तिके मस्तकका पैरसे स्पर्श कर दिया । कामबाणसे आहत तथा इन्द्राणीके द्वारा आकृष्टचित्तवाले उस राजा नहुषने शीघ्र चलो-ऐसा कहते हुए वातापि नामक राक्षसका भक्षण करनेवाले तथा समुद्रको भी पी जानेवाले उन तपस्विश्रेष्ठ लोपामुद्रापति मुनि अगस्तिपर कोड़ेसे प्रहार भी किया ॥ ५२-५३.५ ॥
तब उस कोड़ेके आघातका स्मरण करते हुए मुनिने उसे यह शाप दे दिया । हे दुराचारी ! तुम वनमें भयंकर शरीरवाले विशाल सर्प हो जाओ, जहाँ तुम्हें हजारों वर्षोंतक बहुत कष्ट भोगते हुए विचरण करना पड़ेगा और अपने प्रभावसे तुम पुनः स्वर्ग प्राप्त करोगे । युधिष्ठिर नामवाले धर्मपुत्रका दर्शनकर और उनके मुखसे अपने प्रश्नोंके उत्तर सुनकर तुम्हारी मुक्ति हो जायगी ॥ ५४-५६ ॥
प्रश्नानामुत्तरं श्रुत्वा धर्मपुत्रमुखात्ततः । व्यास उवाच एवं शप्तः स राजर्षिः स्तुत्वा तं मुनिसत्तमम् ॥ ५७ ॥ स्वर्गात्पपात सहसा सर्परूपधरोऽभवत् ।
व्यासजी बोले-इस प्रकार शाप प्राप्तकर राजर्षि नहुष उन मुनिश्रेष्ठकी स्तुति करके अचानक स्वर्गसे गिर पड़ा और सर्परूपधारी हो गया ॥ ५७.५ ॥
तब बृहस्पतिने शीघ्रतापूर्वक मानसरोवर जाकर इन्द्रसे सारा वृत्तान्त विस्तारपूर्वक कहा । हे महाराज (जनमेजय) ! राजा नहुषके स्वर्गसे पतन आदिको बात सुनकर इन्द्र बहुत प्रसन्न हुए । वे इन्द्र अब भी वहींपर स्थित रहे । सभी देवता और मुनि नहुषको पृथ्वीपर गिरा देखकर उसी सरोवरके पास गये, जहाँ इन्द्र रहते थे ॥ ५८-६०.५ ॥
तत्पश्चात् उन शचीपति इन्द्रको आश्वासन देकर मुनियोंसहित सभी देवता उन्हें सम्मानपूर्वक स्वर्ग ले आये । तदनन्तर वापस आये हुए उन इन्द्रको सभी मुनियों और देवताओंने आसनपर स्थापित करके उनका पवित्र अभिषेक किया । इन्द्र भी अपने पदको प्राप्तकर प्रेमयुक्त शचीके साथ देवप्रासाद और मनोहर नन्दनवनमें क्रीड़ा करने लगे ॥ ६१-६३.५ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! इस प्रकार इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले महामुनि विश्वरूप और वृत्रासुरको मारनेके कारण इन्द्रको अत्यन्त भीषण दुःख प्राप्त हुआ और देवीकी कृपासे उन्होंने पुनः अपना स्थान प्राप्त कर लिया ॥ ६४-६५ ॥