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कर्मणां गहनगतिवर्णनम् -
कर्मकी गहन गतिका वर्णन तथा इस सम्बन्धमें भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनका उदाहरण -
जनमेजय उवाच कथितं चरितं ब्रह्मञ्छक्रस्याद्भुतकर्मणः । स्थानभ्रंशस्तथा दुःखप्राप्तिरुक्ता विशेषतः ॥ १ ॥ यत्र देवाधिदेव्याश्च महिमातीव वर्णितः ।
जनमेजय बोले-हे ब्रह्मन् ! आपने अद्भुत कर्म करनेवाले इन्द्रका आख्यान कहा, जिसमें उनके पदच्युत होने और दुःख प्राप्त करनेका विशेषरूपसे वर्णन किया गया है तथा जिसमें देवताओंकी भी अधीश्वरी देवी भगवतीकी महिमा विस्तारसे वर्णित हुई है ॥ १.५ ॥
सन्देहोऽत्र ममाप्यस्ति यच्छक्रोऽपि महातपाः ॥ २ ॥ देवाधिपत्यमासाद्य दुःसहं दुःखमन्वभूत् । मखानां तु शतं कृत्वा प्राप्तं स्थानमनुत्तमम् ॥ ३ ॥
मुझे महान् सन्देह है कि महान् तपस्वी इन्द्रको देवाधिपतिका पद प्राप्त होनेपर भी दारुण दुःख प्राप्त हुआ । सौ यज्ञ करके उन्होंने अतिश्रेष्ठ स्थान प्राप्त किया; और देवताओंके स्वामीका पद प्राप्त करके भी वे अपने स्थानसे कैसे च्युत हो गये ? ॥ २-३ ॥
देवेशत्वं च सम्प्राप्य भ्रष्टः स्थानादसौ कथम् । एतत्सर्वं समाचक्ष्व कारणं करुणानिधे ॥ ४ ॥ सर्वज्ञोऽसि मुनिश्रेष्ठ पुराणानां प्रवर्तकः । नावाच्यं महतां किञ्चिच्छिष्ये च श्रद्धयान्विते ॥ ५ ॥ तस्मात्कुरु महाभाग मत्सन्देहापनोदनम् ।
हे दयानिधे ! इस सबका कारण सम्यक् रूपसे बताइये । हे मुनिश्रेष्ठ ! आप सब कुछ जाननेवाले और पुराणोंके प्रवर्तक हैं, महापुरुषोंके लिये अपने श्रद्धालु शिष्यसे कुछ भी अकथ्य नहीं होता, इसलिये है महाभाग ! मेरे सन्देहका निवारण कीजिये ॥ ४-५.५ ॥
सूत उवाच इति पृष्टः स राज्ञा वै तदा सत्यवतीसुतः ॥ ६ ॥ तमाहातिप्रसन्नात्मा यथानुक्रममुत्तरम् ।
सूतजी बोले-तब राजाके ऐसा पूछनेपर सत्यवतीपुत्र वेदव्यासजी प्रसन्नतापूर्वक उनके प्रश्नोंका क्रमसे उत्तर देने लगे ॥ ६.५ ॥
व्यास उवाच निबोध नृपतिश्रेष्ठ कारणं परमाद्भुतम् ॥ ७ ॥ कर्मणस्तु त्रिधा प्रोक्ता गतिस्तत्त्वविदां वरैः । सञ्चितं वर्तमानं च प्रारब्धमिति भेदतः ॥ ८ ॥ अनेकजन्मसञ्जातं प्राक्तनं सञ्चितं स्मृतम् । सात्त्विकं राजसं कर्म तामसं त्रिविधं पुनः ॥ ९ ॥
व्यासजी बोले-हे नृपश्रेष्ठ ! इसका अत्यन्त अद्भुत कारण सुनो । श्रेष्ठ तत्त्वज्ञानियोंने संचित, वर्तमान और प्रारब्धके भेदसे कर्मकी तीन गतियाँ बतलायी हैं । अनेक जन्मोंका संचित प्राक्तन कर्म संचित कर्म कहा गया है । फिर वे कर्म भी सात्त्विक, राजस और तामस-तीन प्रकारके होते हैं ॥ ७-९ ॥
शुभं वाप्यशुभं भूप सञ्चितं बहुकालिकम् । अवश्यमेव भोक्तव्यं सुकृतं दुष्कृतं तथा ॥ १० ॥ जन्मजन्मनि जीवानां सञ्चितानां च कर्मणाम् । निःशेषस्तु क्षयो नाभूत्कल्पकोटिशतैरपि ॥ ११ ॥
हे राजन् ! बहुत समयके संचित शुभ या अशुभ कर्म पुण्य या पापके रूपमें अवश्य ही भोगने पड़ते हैं । जीवोंके प्रत्येक जन्मके संचित कर्म बिना भोग किये करोड़ों कल्पोंमें भी नहीं नष्ट होते ॥ १०-११ ॥
क्रियमाणं च यत्कर्म वर्तमानं तदुच्यते । देहं प्राप्य शुभं वापि ह्यशुभं वा समाचरेत् ॥ १२ ॥ सञ्चितानां पुनर्मध्यात्समाहृत्य कियान्किल । देहारम्भे च समये कालः प्रेरयतीव तत् ॥ १३ ॥
जो कर्म किया जा रहा है, उसे वर्तमान कहा जाता है, जीव देह प्राप्तकर शुभ या अशुभ कार्यमें प्रवृत्त होता है । संचित कर्मोके कारण देह प्राप्त होनेपर काल जीवको पुनः कर्मके लिये प्रेरित करता है ॥ १२-१३ ॥
प्रारब्धं कर्म विज्ञेयं भोगात्तस्य क्षयः स्मृतः । प्राणिभिः खलु भोक्तव्यं प्रारब्धं नात्र संशयः ॥ १४ ॥ पुरा कृतानि राजेन्द्र ह्यशुभानि शुभानि च । अवश्यमेव कर्माणि भोक्तव्यानीति निश्चयः ॥ १५ ॥ देवैर्मनुष्यैरसुरैर्यक्षगन्धर्वकिन्नरैः । कर्मैव हि महाराज देहारम्भस्य कारणम् ॥ १६ ॥ कर्मक्षये जन्मनाशः प्राणिनां नात्र संशयः ।
प्रारब्ध कर्म उसे जानना चाहिये, जिसका भोगसे क्षय हो जाता है । प्राणियोंको यहाँ प्रारब्ध कर्म अवश्य भोगना पड़ता है । इसमें सन्देह नहीं है । हे राजेन्द्र ! देवता, मनुष्य, असुर, यक्ष, गन्धर्व और किन्नर-इन सभीको पूर्वकालमें किये गये शुभअशुभ कमौका फल भोगना पड़ता है-यह निश्चित है । हे महाराज ! सबके देह-धारणका कारण उनका कर्म ही होता है । कर्मके समाप्त हो जानेपर प्राणियोंका जन्म लेना भी समाप्त हो जाता हैइसमें सन्देह नहीं है ॥ १४-१६.५ ॥
ब्रह्मा विष्णुस्तथा रुद्र इन्द्राद्याश्च सुरास्तथा ॥ १७ ॥ दानवा यक्षगन्धर्वाः सर्वे कर्मवशा किल । अन्यथा देहसम्बन्धः कथं भवति भूपते ॥ १८ ॥ कारणं यस्तु भोगस्य देहिनः सुखदुःखयोः । तस्मादनेकजन्मोत्थसञ्चितानां च कर्मणाम् ॥ १९ ॥ मध्ये वेगः समायाति कस्यचित्कालपाकतः । तत्प्रारब्धवशात्पुण्यं करोति च यथा तथा ॥ २० ॥ पापं करोति मनुजस्तथा देवादयोऽपि च ।
हे राजन् ! ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, इन्द्र आदि देवता, दानव, यक्ष और गन्धर्व-ये सभी कर्मके वशीभूत हैं, अन्यथा जीवके सुख-दुःखमें भोगका जो कारणरूप देहसम्बन्ध है वह कैसे होता ? इसीलिये किसी कालविपाकके योगसे यथासमय अनेक जन्मोंमें किये हुए संचित कर्मोका प्रभाव प्रकट हो जाता है । उसी प्रारब्धकर्मके वशमें होकर ही मनुष्य पुण्य या पाप करता है, उसी प्रकार देवता आदि भी करते हैं ॥ १७-२०.५ ॥
तथा नारायणो राजन्नरश्च धर्मजावुभौ ॥ २१ ॥ जातौ कृष्णार्जुनौ काममंशौ नारायणस्य तौ । पुराणपीठिकेयं वै मुनिभिः परिकीर्तिता ॥ २२ ॥
हे राजन् ! भगवान् विष्णुके अंशसे धर्मपुत्र नर और नारायण ही कृष्ण और अर्जनके रूपमें प्रकट हुए । मुनियोंके द्वारा इस पौराणिक आख्यानका विवेचन किया गया है ॥ २१-२२ ॥
देवांशः स तु विज्ञेयो यो भवेद्विभवाधिकः । नानृषिः कुरुते काव्यं नारुद्रो रुद्रमर्चते ॥ २३ ॥ नादेवांशो ददात्यन्नं नाविष्णुः पृथिवीपतिः । इन्द्रादग्नेर्यमाद्विष्णोर्धनदादिति भूपते ॥ २४ ॥ प्रभुत्वं च प्रभावं च कोपं चैव पराक्रमम् । आदाय क्रियते नूनं शरीरमिति निश्चयः ॥ २५ ॥
जो अधिक वैभवशाली होता है उसे देवांश जानना चाहिये । जो ऋषि नहीं है वह काव्यकी रचना नहीं कर सकता; जो रुद्र नहीं है वह रुद्रकी अर्चना नहीं कर सकता । जिसमें देवांश नहीं है वह अन्नदान नहीं कर सकता और जिसमें विष्णुका अंश नहीं है वह राजा नहीं हो सकता । हे राजन् ! विष्णु, इन्द्र, अग्नि, यम और कुबेरसे प्रभूत्व, प्रभाव, कोप और पराक्रम प्राप्त करके ही निश्चितरूपसे यह शरीर बनता है ॥ २३-२५ ॥
यः कश्चिद्बलवाँल्लोके भाग्यवानथ भोगवान् । विद्यावान्दानवान्वापि स देवांशः प्रपढ्यते ॥ २६ ॥
इस संसारमें जो कोई बलवान, भाग्यवान, भोगवान्, विद्यावान् या दानशील है, उसे देवांश कहा जाता है ॥ २६ ॥
दैववश ही पाण्डव वन गये और पुन: उन्होंने अपना राज्य प्राप्त किया । तत्पश्चात् उन्होंने अपने बाहुबलसे राजसूय नामक उत्तम यज्ञ किया और बादमें अत्यन्त दु:खदायक वनवास उन्हें पुनः प्राप्त हुआ । वहाँ अर्जुनने अजितेन्द्रिय पुरुषोंके लिये दुष्कर तपस्या की । तब [उस तपस्यासे] सन्तुष्ट होकर देवताओंने उन्हें कल्याणकारी वरदान दिया । उस वनवास और नरावतारमें किया गया पुण्य कहाँ गया ? नरावतारमें उन्होंने बदरिकाश्रममें उग्र तपस्या की थी, परंतु अर्जुनके रूपमें उन्हें उस तपस्याका फल नहीं मिला ! ॥ ३०-३३ ॥
प्राणिनां देहसम्बन्धे गहना कर्मणो गतिः । दुर्ज्ञेया सर्वथा देवैर्मानवानां तु का कथा ॥ ३४ ॥
प्राणियोंके देह-सम्बन्धी कर्मोंकी गति अत्यन्त गहन है; यह देवताओंके लिये भी दुर्जेय है तो मनुष्योंकी क्या बात ! ॥ ३४ ॥
वासुदेवोऽपि सञ्जातः कारागारेऽतिसङ्कटे । नीतोऽसौ वसुदेवेन नन्दगोपस्य गोकुलम् ॥ ३५ ॥ एकादशैव वर्षाणि संस्थितस्तत्र भारत । पुनः स मथुरां गत्वा जघानोग्रसुतं बलात् ॥ ३६ ॥ मोचयामास पितरौ बन्धनाद्भृशदुःखितौ । उग्रसेनं च राजानञ्चकार मधुरापुरे ॥ ३७ ॥ जगाम द्वारवत्यां स म्लेच्छराजभयात्पुनः । सर्वं भाविवशात्कृष्णः कृतवान्पौरुषं महत् ॥ ३८ ॥
वासुदेव श्रीकृष्ण भी अत्यन्त संकटमय कारागारमें उत्पन्न हुए और वसुदेवके द्वारा गोकुलमें नन्दगोपके घर ले जाये गये । हे भारत ! वे वहाँ ग्यारह वर्षतक रहे और पुनः मथुरा जाकर उन्होंने बलपूर्वक उग्रसेनके पुत्र कंसका वध किया । तदनन्तर अत्यन्त दुःखित मातापिताको बन्धनसे मुक्त किया तथा उग्रसेनको मथुरापुरीका राजा नियुक्त किया । पुनः वे म्लेच्छराज कालयवनके भयसे द्वारका चले गये । श्रीकृष्णने यह सब महान् पराक्रम दैवके अधीन होकर ही किया ॥ ३५-३८ ॥
वे जनार्दन श्रीकृष्ण द्वारकामें अनेक कार्य करके और प्रभासक्षेत्रमें देहका परित्यागकर अपने कुटुम्बसहित स्वर्ग चले गये । विप्रशापके कारण समस्त यादवगण पुत्रों, पौत्रों, मित्रों, भाइयों और बहनोंसहित प्रभासक्षेत्रमें नष्ट हो गये और वासुदेव श्रीकृष्ण भी व्याधके बाणसे निधनको प्राप्त हुए । हे राजन् ! इस प्रकार मैंने आपसे कर्मकी गहन गतिका वर्णन कर दिया ॥ ३९-४१ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे कर्मणां गहनगतिवर्णनं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥