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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
षष्ठः स्कन्धः
एकादशोऽध्यायः

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युगधर्मव्यवस्थावर्णनम् -
युगधर्म एवं तत्सम्बन्धी व्यवस्थाका वर्णन -


जनमेजय उवाच
भारावतारणार्थाय कथितं जन्म कृष्णयोः ।
संशयोऽयं द्विजश्रेष्ठ हृदये मम तिष्ठति ॥ १ ॥
जनमेजय बोले-हे द्विज श्रेष्ठ ! पृथ्वीका भार उतारनेके लिये बलराम और श्रीकृष्णके अवतारकी बात आपने कही, किंतु मेरे मनमें एक संशय है ॥ १ ॥

पृथिवी गोस्वरूपेण ब्रह्माणं शरणं गता ।
द्वापरान्तेऽतिदीनार्ता गुरुभारप्रपीडिता ॥ २ ॥
द्वापरयुगके अन्तमें अत्यन्त दीन तथा आतुर होकर भारी बोझसे दबी हुई पृथ्वी गौका रूप धारण करके ब्रह्माजीकी शरणमें गयी ॥ २ ॥

वेधसा प्रार्थितो विष्णुः कमलापतिरीश्वरः ।
भूभारोत्तारणार्थाय साधूनां रक्षणाय च ॥ ३ ॥
भगवन् भारते खण्डे देवैः सह जनार्दन ।
अवतारं गृहाणाशु वसुदेवगृहे विभो ॥ ४ ॥
तब ब्रह्माजीने लक्ष्मीपति भगवान् विष्णुसे प्रार्थना की-'हे भगवन् ! हे विभो ! हे जनार्दन ! पृथ्वीका भार उतारनेके लिये और साधुजनोंकी रक्षाके लिये आप देवताओंके साथ भारतवर्ष में वसुदेवके घरमें शीघ्र ही अवतार लीजिये' ॥ ३-४ ॥

एवं सम्प्रार्थितो धात्रा भगवान्देवकीसुतः ।
बभूव सह रामेण भूभारोत्तारणाय वै ॥ ५ ॥
कियानुत्तारितो भारो हत्वा दुष्टाननेकशः ।
ज्ञात्वा सर्वान्दुराचारान्पापबुद्धिनृपानिह ॥ ६ ॥
ब्रह्माजीके द्वारा इस प्रकार प्रार्थना किये जानेपर भगवान् पृथ्वीका भार उतारनेके लिये बलरामके साथ देवकीके पुत्र हुए; तब उन्होंने अनेक दुष्टों तथा सभी दुराचारी और पापबुद्धि राजाओंको ज्ञात करके उन्हें मारकर पृथ्वीका कितना भार उतारा ? ॥ ५-६ ॥

हतो भीष्मो हतो द्रोणो विराटो द्रुपदस्तथा ।
बाह्लीकः सोमदत्तश्च कर्णो वैकर्तनस्तथा ॥ ७ ॥
यैर्लुण्ठितं धनं सर्वं हृताश्च हरियोषितः ।
कथं न नाशिता दुष्टा ये स्थिताः पृथिवीतले ॥ ८ ॥
आभीराश्च शका म्लेच्छा निषादाः कोटिशस्तथा ।
भारावतरणं किं तत्कृतं कृष्णेन धीमता ॥ ९ ॥
सन्देहोऽयं महाभाग न निवर्तति चित्ततः ।
कलावस्मिन्मजाः सर्वाः पश्यतः पापनिश्चयाः ॥ १० ॥
भीष्म मारे गये, द्रोणाचार्य मारे गये; इसी प्रकार विराट, द्रुपद, बाहीक, सोमदत्त और सूर्यपुत्र कर्ण मारे गये । परंतु जिन्होंने कृष्णकी पत्नियोंका हरण किया और उनका सारा धन लूट लिया, उन दुष्टोंको तथा जो करोड़ों आभीर, शक, म्लेच्छ और निषाद पृथ्वीतलपर स्थित थे-उन सबको उन्होंने नष्ट क्यों नहीं कर दिया ? तब उन बुद्धिमान् श्रीकृष्णने पृथ्वीका कौन-सा भार उतार दिया ! हे महाभाग ! मेरे चित्तसे यह सन्देह नहीं हटता है; इस कलियुगमें तो समस्त प्रजा पापपरायण ही दिखायी देती है ॥ ७-१० ॥

व्यास उवाच
राजन् यस्मिन्युगे यादृक्प्रजा भवति कालतः ।
नान्यथा तद्‌भवेन्नूनं युगधर्मोऽत्र कारणम् ॥ ११ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! जैसा युग होता है, कालप्रभावसे प्रजा भी वैसी ही होती है, इसके विपरीत नहीं होता; इसमें युगधर्म ही कारण है ॥ ११ ॥

ये धर्मरसिका जीवास्ते वै सत्ययुगेऽभवन् ।
धर्मार्थरसिका ये तु ते वै त्रेतायुगेऽभवन् ॥ १२ ॥
धर्मार्थकामरसिका द्वापरे चाभवन्युगे ।
अर्थकामपराः सर्वे कलावस्मिन्भवन्ति हि ॥ १३ ॥
जो धर्मानुरागी जीव हैं, वे सत्ययुगमें हुए; जो धर्म और अर्थसे प्रेम रखनेवाले प्राणी हैं, वे त्रेतायुगमें हुए; धर्म, अर्थ और कामके रसिक प्राणी द्वापरयुगमें हुए और अर्थ तथा काममें आसक्ति रखनेवाले सभी प्राणी इस कलियुगमें होते हैं । १२-१३ ॥

युगधर्मस्तु राजेन्द्र न याति व्यत्ययं पुनः ।
कालः कर्तास्ति धर्मस्य ह्यधर्मस्य च वै पुनः ॥ १४ ॥
हे राजेन्द्र ! युगधर्मका प्रभाव विपरीत नहीं होता है; काल ही धर्म और अधर्मका कर्ता है ॥ १४ ॥

राजोवाच
ये तु सत्ययुगे जीवा भवन्ति धर्मतत्पराः ।
कुत्र तेऽद्य महाभाग तिष्ठन्ति पुण्यभागिनः ॥ १५ ॥
त्रेतायुगे द्वापरे वा ये दानव्रतकारकाः ।
वर्तन्ते मुनयः श्रेष्ठाः कुत्र ब्रूहि पितामह ॥ १६ ॥
कलावद्य दुराचारा येऽत्र सन्ति गतत्रपाः ।
आद्ये युगे क्व यास्यन्ति पापिष्ठा देवनिन्दकाः ॥ १७ ॥
एतत्सर्वं समाचक्ष्व विस्तरेण महामते ।
सर्वथा श्रोतुकामोऽस्मि यदेतद्धर्मनिर्णयम् ॥ १८ ॥
राजा बोले-हे महाभाग ! सत्ययुगमें जो धर्मपरायण प्राणी हुए हैं, वे पुण्यशाली लोग इस समय कहाँ स्थित हैं ? हे पितामह ! त्रेतायुग या द्वापरमें जो दान तथा व्रत करनेवाले श्रेष्ठ मुनि हुए हैं, वे अब कहाँ विद्यमान हैं; मुझे बतायें । इस कलियुगमें जो दुराचारी, निर्लज्ज, देवनिन्दक और पापी लोग विद्यमान हैं, वे सत्ययुगमें कहाँ जायेंगे ? हे महामते ! यह सब विस्तारपूर्वक कहिये; मैं इस धर्मनिर्णयके विषयमें सब कुछ सुनना चाहता हूँ ॥ १५-१८ ॥

व्यास उवाच
ये वै कृतयुगे राजन् सम्भवन्तीह मानवाः ।
कृत्वा ते पुण्यकर्माणि देवलोकान्व्रजन्ति वै ॥ १९ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! जो मनुष्य सत्ययुगमें उत्पन्न होते हैं, वे अपने पुण्यकार्योंके कारण देवलोकको चले जाते हैं ॥ १९ ॥

ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च नृपसत्तम ।
स्वधर्मनिरता यान्ति लोकान्कर्मजितान्किल ॥ २० ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! अपने-अपने वर्णाश्रमधर्मों में संलग्न रहनेवाले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र अपने कर्मोंसे अर्जित लोकोंमें चले जाते हैं ॥ २० ॥

सत्यं दया तथा दानं स्वदारगमनं तथा ।
अद्रोहः सर्वभूतेषु समता सर्वजन्तुषु ॥ २१ ॥
एतत्साधारणं धर्मं कृत्वा सत्ययुगे पुनः ।
स्वर्गं यान्तीतरे वर्णा धर्मतो रजकादयः ॥ २२ ॥
तथा त्रेतायुगे राजन् द्वापरेऽथ युगे तथा ।
कलावस्मिन्युगे पापा नरकं यान्ति मानवाः ॥ २३ ॥
तावत्तिष्ठन्ति ते तत्र यावत्स्याद्युगपर्ययः ।
पुनश्च मानुषे लोके भवन्ति भुवि मानवाः ॥ २४ ॥
सत्य, दया, दान, एकपत्नीव्रत, सभी प्राणियोंमें अद्रोहभाव तथा सभी जीवोंमें समभाव रखनायह सत्ययुगका साधारण धर्म है । सत्ययुगमें इसका धर्मपूर्वक पालन करके रजक आदि इतर वर्णके लोग भी स्वर्ग चले जाते हैं । हे राजन् ! त्रेता और द्वापरयुगमें यही स्थिति रहती है, किंतु इस कलियुगमें पापी मनुष्य नरक जाते हैं और वे वहाँ तबतक रहते हैं जबतक युगका परिवर्तन नहीं होता, उसके बाद मनुष्यके रूपमें पुनः पृथ्वीपर जन्म लेते हैं । २१-२४ ॥

यदा सत्ययुगस्यादिः कलेरन्तश्च पार्थिव ।
तदा स्वर्गात्पुण्यकृतो जायन्ते किल मानवाः ॥ २५ ॥
हे राजन् ! जब कलियुगका अन्त और सत्ययुगका आरम्भ होता है, तब पुण्यशाली लोग स्वर्गसे पुनः मनुष्यके रूपमें जन्म लेते हैं ॥ २५ ॥

यदा कलियुगस्यादिर्द्वापरस्य क्षयस्तथा ।
नरकात्पापिनः सर्वे भवन्ति भुवि मानवाः ॥ २६ ॥
जब द्वापरका अन्त और कलियुगका प्रारम्भ होता है, तब नरकके सभी पापी पृथ्वीपर मनुष्यके रूपमें उत्पन्न होते हैं ॥ २६ ॥

एवं कालसमाचारो नान्यथाभूत्कदाचन ।
तस्मात्कलिरसत्कर्ता तस्मिंस्तु तादृशी प्रजा ॥ २७ ॥
कदाचिद्दैवयोगात्तु प्राणिनां व्यत्ययो भवेत् ।
कलौ ये साधवः केचिद्‌द्वापरे सम्भवन्ति ते ॥ २८ ॥
तथा त्रेतायुगे केचित्केचित्सत्ययुगे तथा ।
दुष्टाः सत्ययुगे ये तु ते भवन्ति कलावपि ॥ २९ ॥
कृतकर्मप्रभावेण प्राप्नुवन्त्यसुखानि च ।
पुनश्च तादृशं कर्म कुर्वन्ति युगभावतः ॥ ३० ॥
इस प्रकार युगके अनुरूप ही आचार होता है, उसके विपरीत कभी नहीं । कलियुग असत्-प्रधान होता है, इसलिये उसमें प्रजा भी वैसी ही होती है । दैवयोगसे कभी-कभी इन प्राणियोंके जन्म लेनेमें व्यतिक्रम भी हो जाता है । कलियुगमें कुछ जो साधुजन हैं, वे द्वापरके मनुष्य हैं । उसी प्रकार द्वापरके मनुष्य कभी-कभी त्रेतामें और त्रेताके मनुष्य सत्ययुगमें जन्म लेते हैं । जो सत्ययुगमें दुराचारी मनुष्य होते हैं, वे कलियुगके हैं । वे अपने किये हुए कर्मके प्रभावसे दुःख पाते हैं और पुनः युगप्रभावसे वे वैसा ही कर्म करते हैं ॥ २७-३० ॥

जनमेजय उवाच
युगधर्मान्महाभाग ब्रूहि सर्वानशेषतः ।
यस्मिन्वै यादृशो धर्मो ज्ञातुमिच्छामि तं तथा ॥ ३१ ॥
जनमेजय बोले-हे महाभाग ! आप समस्त युगधर्मोका पूर्णरूपसे वर्णन करें; जिस युगमें जैसा धर्म होता है, उसे मैं जानना चाहता हूँ ॥ ३१ ॥

व्यास उवाच
निबोध नृपशार्दूल दृष्टान्तं ते ब्रवीम्यहम् ।
साधूनामपि चेतांसि युगभावाद्‌भ्रमन्ति हि ॥ ३२ ॥
व्यासजी बोले-है नृपशार्दूल ! ध्यानपूर्वक सुनिये, इस सम्बन्धमें मैं एक दृष्टान्त कहता हूँ । साधुजनोंके मन भी युगधर्मसे प्रभावित होते हैं ॥ ३२ ॥

पितुर्यथा ते राजेन्द्र वुद्धिर्विप्रावहेलने ।
कृता वै कलिना राजन् धर्मज्ञस्य महात्मनः ॥ ३३ ॥
अन्यथा क्षत्रियो राजा ययातिकुलसम्भवः ।
तापसस्य गले सर्पं मृतं कस्मादयोजयत् ॥ ३४ ॥
हे राजेन्द्र ! आपके महात्मा और धर्मज्ञ पिताकी भी बुद्धि कलियुगने विप्रका अपमान करनेकी ओर प्रेरित कर दी थी; अन्यथा ययातिके कुलमें पैदा हुए क्षत्रिय राजा परीक्षित् एक तपस्वीके गले में मरा हुआ सर्प क्यों डालते ? ॥ ३३-३४ ॥

सर्वं युगबलं राजन्वेदितव्यं विजानता ।
प्रयत्‍नेन हि कर्तव्यं धर्मकर्म विशेषतः ॥ ३५ ॥
हे राजन् ! विद्वानको इसे युगका ही प्रभाव समझना चाहिये । इसलिये विशेषरूपसे धर्माचरण ही प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये ॥ ३५ ॥

नूनं सत्ययुगे राजन् ब्राह्मणा वेदपारगाः ।
पराशक्त्यर्चनरता देवीदर्शनलालसाः ॥ ३६ ॥
गायत्रीप्रणवासक्ता गायत्रीध्यानकारिणः ।
गायत्रीजपसंसक्ता मायाबीजैकजापिनः ॥ ३७ ॥
ग्रामे ग्रामे पराम्बायाः प्रासादकरणोत्सुकाः ।
स्वकर्मनिरताः सर्वे सत्यशौचदयान्विताः ॥ ३८ ॥
त्रय्युक्तकर्मनिरतास्तत्त्वज्ञानविशारदाः ।
अभवन्क्षत्रियास्तत्र प्रजाभरणतत्पराः ॥ ३९ ॥
वैश्यास्तु कृषिवाणिज्यगोसेवानिरतास्तथा ।
शूद्राः सेवापरास्तत्र पुण्ये सत्ययुगे नृप ॥ ४० ॥
हे राजन् ! सत्ययुगमें सभी ब्राह्मण वेदके ज्ञाता, पराशक्तिकी पूजामें तत्पर रहनेवाले, देवीदर्शनकी लालसासे युक्त, गायत्री और प्रणवमन्त्रमें अनुरक्त, गायत्रीका ध्यान करनेवाले, गायत्रीजपपरायण, एकमात्र मायाबीजमन्त्रका जप करनेवाले, प्रत्येक गाँवमें भगवती पराम्बाका मन्दिर बनानेके लिये उत्सुक रहनेवाले, अपने-अपने कर्मोमें निरत रहनेवाले, सत्य-पवित्रतादयासे समन्वित, वेदत्रयी कर्ममें संलग्न रहनेवाले और तत्त्वज्ञान में पूर्ण निष्णात होते थे । क्षत्रिय प्रजाओंके भरण-पोषणमें संलग्न रहते थे । हे राजन् ! उस पुण्यमय सत्ययुगमें वैश्यलोग कृषि, व्यापार और गो-पालन करते थे तथा शूद्र सेवापरायण रहते थे ॥ ३६-४० ॥

पराम्बापूजनासक्ताः सर्वे वर्णाः परे युगे ।
तथा त्रेतायुगे किञ्चिन्न्यूना धर्मस्य संस्थितिः ॥ ४१ ॥
द्वापरे च विशेषेण न्यूना सत्ययुगस्थितिः ।
पूर्वं ये राक्षसा राजन् ते कलौ ब्राह्मणाः स्मृताः ॥ ४२ ॥
उस सत्ययुगमें सभी वर्गोंके लोग भगवती पराम्बाके पूजनमें आसक्त रहते थे । उसके बाद त्रेतायुगमें धर्मकी स्थिति कुछ कम हो गयी । सत्ययुगमें जो धर्मकी स्थिति थी, वह द्वापरमें विशेषरूपसे कम हो गयी । हे राजन् ! पूर्वयुगोंमें जो राक्षस समझे जाते थे, वे ही कलियुगमें ब्राह्मण माने जाते हैं ॥ ४१-४२ ॥

पाखण्डनिरताः प्रायो भवन्ति जनवञ्चकाः ।
असत्यवादिनः सर्वे वेदधर्मविवर्जिताः ॥ ४३ ॥
दाम्भिका लोकचतुरा मानिनो वेदवर्जिताः ।
शूद्रसेवापराः केचिन्नानाधर्मप्रवर्तकाः ॥ ४४ ॥
वेदनिन्दाकराः क्रूरा धर्मभ्रष्टातिवादुकाः ।
यथा यथा कलिर्वृद्धिं याति राजंस्तथा तथा ॥ ४५ ॥
धर्मस्य सत्यमूलस्य क्षयः सर्वात्मना भवेत् ।
तथैव क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च धर्मवर्जिताः ॥ ४६ ॥
असत्यवादिनः पापास्तथा वर्णेतराः कलौ ।
शूद्रधर्मरता विप्राः प्रतिग्रहपरायणाः ॥ ४७ ॥
वे प्रायः पाखण्डी, लोगोंको ठगनेवाले, झूठ बोलनेवाले तथा वेद और धर्मसे दूर रहनेवाले होते हैं । उनमेंसे कुछ तो दम्भी, लोकव्यवहारमें चालाक, अभिमानी, वेदप्रतिपादित मार्गसे हटकर चलनेवाले, शूद्रोंकी सेवा करनेवाले, विभिन्न धर्मोका प्रवर्तन करनेवाले, वेदनिन्दक, क्रूर, धर्मभ्रष्ट और व्यर्थ वाद-विवादमें लगे रहनेवाले होते हैं । हे राजन् ! जैसे-जैसे कलियुगकी वृद्धि होती है, वैसे-वैसे सत्यमूलक धर्मका सर्वथा क्षय होता जाता है और वैसे ही क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और इतर वर्गों के लोग भी धर्महीन, मिथ्यावादी तथा पापी होते हैं । ब्राह्मण शूद्रधर्ममें संलग्न और प्रतिग्रहपरायण हो जाते हैं ॥ ४३-४७ ॥

भविष्यन्ति कलौ राजन् युगे वृद्धिं गताः किल ।
कामचाराः स्त्रियः कामलोभमोहसमन्विताः ॥ ४८ ॥
पापा मिथ्याभिवादिन्यः सदा क्लेशरता नृप ।
स्वभर्तृवञ्जका नित्यं धर्मभाषणपण्डिताः ॥ ४९ ॥
हे राजन् ! कलियुगका प्रभाव और बढ़नेपर स्त्रियाँ स्वेच्छाचारिणी तथा काम, लोभ और मोहसे युक्त हो जायेंगी । हे राजन् ! वे पापाचारिणी, झूठ बोलनेवाली, सदा कलह करनेवाली, अपने पतिको ठगनेवाली और नित्य धर्मका भाषण करनेमें निपुण होंगी । कलियुगमें इस प्रकारकी पापपरायण स्त्रियाँ होती हैं ॥ ४८-४९ ॥

भवन्त्येवंविधा नार्यः पापिष्ठाश्च कलौ युगे ।
आहारशुद्ध्या नृपते चित्तशुद्धिस्तु जायते ॥ ५० ॥
शुद्धे चित्ते प्रकाशः स्याद्धर्मस्य नृपसत्तम ।
वृत्तसङ्करदोषेण जायते धर्मसङ्करः ॥ ५१ ॥
धर्मस्य सङ्करे जाते नूनं स्याद्वर्णसङ्करः ।
एवं कलियुगे भूप सर्वधर्मविवर्जिते ॥ ५२ ॥
स्ववर्णधर्मवार्तैषा न कुत्राप्युपलभ्यते ।
महान्तोऽपि च धर्मज्ञा अधर्मं कुर्वते नृप ॥ ५३ ॥
कलिस्वभाव एवैष परिहार्यो न केनचित् ।
तस्मादत्र मनुष्याणां स्वभावात्पापकारिणाम् ॥ ५४ ॥
हे राजन् ! आहारकी शुद्धिसे ही अन्तःकरणकी शुद्धि होती है और हे नृपश्रेष्ठ ! चित्त शुद्ध होनेपर ही धर्मका प्रकाश होता है । आचारसंकरता (दूसरे वों के अनुसार आचरण)-दोषसे धर्ममें व्यतिक्रम (विकार) उत्पन्न होता है और धर्ममें विकृति होनेपर वर्णसंकरता उत्पन्न होती है । हे राजन् ! इस प्रकार सभी धर्मोसे हीन कलियुगमें अपने-अपने वर्णाश्रमधर्मकी चर्चा भी कहीं नहीं सुनायी देती । हे राजन् ! धर्मज्ञ और श्रेष्ठजन भी अधर्म करने लग जाते हैं । यह कलियुगका स्वभाव ही है; किसीके भी द्वारा इसका प्रतीकार नहीं किया जा सकता । अत: है राजेन्द्र ! इस कालमें स्वभावसे ही पाप करनेवाले मनुष्योंकी निष्कृति सामान्य उपायसे नहीं हो सकती ॥ ५०-५४ ॥

निष्कृतिर्न हि राजेन्द्र सामान्योपायतो भवेत् ।

जनमेजय उवाच
भगवन्सर्वधर्मज्ञ सर्वशास्त्रविशारद ॥ ५५ ॥
कलावधर्मबहुले नराणां का गतिर्भवेत् ।
यद्यस्ति तदुपायश्चेद्दयया तं वदस्व मे ॥ ५६ ॥
जनमेजय बोले-हे भगवन् ! हे समस्त धर्मोके जाता ! हे समस्त शास्त्रोंमें निपुण ! अधर्मके बाहुल्यवाले कलियुगमें मनुष्योंकी क्या गति होती है ? यदि उससे निस्तारका कोई उपाय हो तो उसे दयापूर्वक मुझे बतलाइये ॥ ५५-५६ ॥

व्यास उवाच
एक एव महाराज तत्रोपायोऽस्ति नापरः ।
सर्वदोषनिरासार्थं ध्यायेद्देवीपदाम्बुजम् ॥ ५७ ॥
न सन्त्यघानि तावन्ति यावती शक्तिरस्ति हि ।
नास्ति देव्याः पापदाहे तस्माद्‌भीतिः कुतो नृप ॥ ५८ ॥
अवशेनापि यन्नाम लीलयोच्चारितं यदि ।
किं किं ददाति तज्ज्ञातुं समर्था न हरादयः ॥ ५९ ॥
व्यासजी बोले-हे महाराज ! इसका एक ही उपाय है दूसरा नहीं है; समस्त पापोंके शमनके लिये देवीके चरणकमलका ध्यान करना चाहिये । हे राजन् ! देवीके पापदाहक नाममें जितनी शक्ति है, उतने पाप तो हैं ही नहीं । इसलिये भयकी क्या आवश्यकता ? यदि विवशतापूर्वक भी भगवतीके नामका उच्चारण हो जाय, तो वे क्या-क्या दे देती हैं, उसे जानने में भगवान् शंकर आदि भी समर्थ नहीं हैं ! ॥ ५७-५९ ॥

प्रायश्चित्तं तु पापानां श्रीदेवीनामसंस्मृतिः ।
तस्मात्कलिभयाद्‌राजन् पुण्यक्षेत्रे वसेन्नरः ॥ ६० ॥
निरन्तरं पराम्बाया नामसंस्मरणं चरेत् ।
छित्त्वा भित्त्वा च भूतानि हत्वा सर्वमिदं जगत् ॥ ६१ ॥
भगवती देवीके नामका स्मरण ही समस्त पापोंका प्रायश्चित्त है, इसलिये हे राजन् ! मनुष्यको कलिके भयसे पुण्यक्षेत्रमें निवास करना चाहिये और पराम्बाके नामका निरन्तर स्मरण करना चाहिये । जो देवीको भक्तिभावसे नमस्कार करता है, वह प्राणियोंका छेदन-भेदन और सारे संसारको पीड़ित करके भी उन पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ६०-६१ ॥

देवीं नमति भक्त्या यो न स पापैर्विलिप्यते ।
रहस्यं सर्वशास्त्राणां मया राजन्नुदीरितम् ॥ ६२ ॥
विमृश्यैतदशेषेण भज देवीपदाम्बुजम् ।
अजपां नाम गायत्रीं जपन्ति निखिला जनाः ॥ ६३ ॥
महिमानं न जानन्ति मायाया वैभवं महत् ।
गायत्रीं ब्राह्मणाः सर्वे जपन्ति हृदयान्तरे ॥ ६४ ॥
महिमानं न जानन्ति मायाया वैभवं महत् ।
एतत्सर्वं समाख्यातं यत्पृष्टं तत्त्वया नृप ।
युगधर्मव्यवस्थायां किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ६५ ॥
हे राजन् ! यह मैंने आपसे सम्पूर्ण शास्त्रोंके रहस्यको कह दिया, इसपर भलीभाँति विचारकर आप देवीके चरणकमलकी आराधना करें । [वैसे तो] सभी लोग 'अजपा' नामक गायत्रीका जप करते हैं, लेकिन वे [मायासे मोहित होनेके कारण] उन महामायाकी महिमा और महान् वैभवको नहीं जानते । सभी ब्राह्मण अपने हृदयमें गायत्रीका जप करते हैं, परंतु वे भी उन महामायाकी महिमा और उनके महान् वैभवको नहीं जानते । हे राजन् ! युगधर्मकी व्यवस्थाके विषयमें आपने जो कुछ पूछा था, यह सब मैंने कह दिया, अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ६२-६५ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्या
संहितायां षष्ठस्कन्धे
युगधर्मव्यवस्थावर्णनं नामकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
अध्याय ग्यारहवाँ समाप्त ॥ ११ ॥


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