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हरिश्चन्द्रस्य जलोदरव्याधिपीडावर्णनम् -
पवित्र तीर्थोका वर्णन, चित्तशुद्धिकी प्रधानता तथा इस सम्बन्धमें विश्वामित्र और वसिष्ठके परस्पर वैरकी कथा, राजा हरिश्चन्द्रका वरुणदेवके शापसे जलोदरग्रस्त होना -
राजोवाच तीर्थानि भुवि पुण्यानि ब्रूहि मे मुनिसत्तम । गम्यानि मानवैर्देवैः क्षेत्राणि सरितस्तथा ॥ १ ॥ फलं च यादृशं यत्र तीर्थेषु स्नानदानतः । विधिं तु तीर्थयात्रायां नियमांश्च विशेषतः ॥ २ ॥
राजा बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! अब आप मुझे मनुष्यों और देवताओंके द्वारा सेवनीय इस पृथ्वीपर स्थित पुण्य तीर्थों, क्षेत्रों तथा नदियोंके विषयमें बताइये । उन तीर्थोंमें स्नान तथा दानका जैसा फल मिलता है, उसे और विशेषरूपसे तीर्थयात्राकी विधि तथा नियमोंको भी बताइये ॥ १-२ ॥
व्यास उवाच शृणु राजन् प्रवक्ष्यामि तीर्थानि विविधानि च । येषु तीर्थेषु देवीनां प्रशस्तान्यायनानि च ॥ ३ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! सुनिये, मैं उन विविध तीर्थोंका वर्णन करूँगा, जिन तीर्थों में देवियोंके प्रशस्त मन्दिर विद्यमान हैं ॥ ३ ॥
नदीनां जाह्नवी श्रेष्ठा यमुना च सरस्वती । नर्मदा गण्डकी सिन्धुर्गोमती तमसा तथा ॥ ४ ॥ कावेरी चन्द्रभागा च पुण्या वेत्रवती शुभा । चर्मण्वती च सरयूस्तापी साभ्रमती तथा ॥ ५ ॥ एताश्च कथिता राजन्नन्याश्च शतशः पुनः । तासां समुद्रगाः पुण्याः स्वल्पपुण्या ह्यनब्धिगाः ॥ ६ ॥ समुद्रगानां ताः पुण्याः सर्वदौघवहास्तु याः । मासद्वयं श्रावणादौ ताश्च सर्वा रजस्वलाः ॥ ७ ॥ भवन्ति वृष्टियोगेन ग्राम्यवारिवहास्तथा ।
नदियोंमें गंगा श्रेष्ठ हैं, इसी प्रकार यमुना, सरस्वती, नर्मदा, गण्डकी, सिन्धु गोमती, तमसा, कावेरी, चन्द्रभागा, पुण्या, शुभ वेत्रवती, चर्मण्वती, सरयू, तापी तथा साभ्रमती भी हैं-इन्हें मैंने बतला दिया । हे राजन् ! इनके अतिरिक्त सैकड़ों अन्य नदियाँ भी हैं । उनमेंसे समुद्र में गिरनेवाली नदियाँ पुण्यमयी हैं तथा समुद्रमें न गिरनेवाली नदियाँ अल्प पुण्यवाली हैं । समुद्रगामिनी नदियोंमें वे बहुत पवित्र हैं जो सदा जलपूरित होकर बहती हैं । श्रावण और भाद्रपद-इन दो महीनों में सभी नदियाँ रजस्वला होती हैं । क्योंकि उनमें वर्षाकालमें ग्रामीणजल प्रवाहित होता है ॥ ४-७.५ ॥
पुष्करं च कुरुक्षेत्रं धर्मारण्यं सुपावनम् ॥ ८ ॥ प्रभासं च प्रयागं च नैमिषारण्यमेव च । विश्रुतं चार्बुदारण्यं शैलाश्च पावनास्तथा ॥ ९ ॥ श्रीशैलश्च सुमेरुश्च पर्वतो गन्धमादनः । सरांसि चैव पुण्यानि मानसं सर्वविश्रुतम् ॥ १० ॥
पुष्कर, कुरुक्षेत्र, धर्मारण्य, प्रभास, प्रयाग, नैमिषारण्य और विख्यात अर्बुदारण्य-ये अत्यन्त पवित्र तीर्थ हैं । इसी प्रकार श्रीशैल, सुमेरु और गन्धमादन पवित्र पर्वत हैं । सरोवरों में सर्वविख्यात मानसरोवर, श्रेष्ठ बिन्दुसर और पवित्र अच्छोदसरोवर पुण्य सरोवर हैं ॥ ८-१० ॥
तथा बिन्दुसरः श्रेष्ठमच्छोदं नाम पावनम् । आश्रमास्तु तथा पुण्या मुनीनां भावितात्मनाम् ॥ ११ ॥ विश्रुतस्तु सदा पुण्यः ख्यातो बदरिकाश्रमः । नरनारायणौ यत्र तेपाते तौ मुनी तपः ॥ १२ ॥ वामनाश्रम आख्यातः शतयूपाश्रमस्तथा । येन यत्र तपस्तप्तं तस्य नाम्नातिविश्रुतः ॥ १३ ॥
इसी प्रकार शुद्ध मनवाले मुनियोंके आश्रम भी पुण्यस्थल हैं । विख्यात बदरिकाश्रम सदैव पुण्यशाली आश्रमके रूपमें कहा गया है जहाँ नर-नारायण नामके दो मुनियोंने तपस्या की थी । ऐसे ही वामनाश्रम और शतयूपाश्रम भी विख्यात हैं । जिस ऋषिने जहाँ तपस्या की वह आश्रम उसीके नामसे प्रसिद्ध हो गया ॥ ११-१३ ॥
एवं पुण्यानि स्थानानि ह्यसंख्यातानि भूतले । मुनिभिः परिगीतानि पावनानि महीपते ॥ १४ ॥ एषु स्थानेषु सर्वत्र देवीस्थानानि भूपते । दर्शनात्पापहारीणि वसन्ति नियमेन च ॥ १५ ॥
हे राजन् ! इस प्रकार इस भूतलपर असंख्य पवित्र पुण्यस्थल हैं, जो मुनियोंद्वारा पवित्र कहे गये हैं । हे राजन् ! इन सभी स्थानोंमें देवीके मन्दिर हैं, जो दर्शन कर लेने मात्रसे पापका हरण करते हैं, वहाँ बहुत-से भक्त नियमपूर्वक वास करते हैं । उन कतिपय स्थानोंका वर्णन आगे करूँगा ॥ १४-१५ ॥
कथयिष्यामि तान्यग्रे प्रसङ्गेन च कानिचित् । तीर्थानि नृप दानानि व्रतानि च मखास्तथा ॥ १६ ॥ तपांसि पुण्यकर्माणि सापेक्षाणि महीपते । द्रव्यशुद्धिं क्रियाशुद्धिं मनःशुद्धिमपेक्ष्य च ॥ १७ ॥ पावनानि हि तीर्थानि तपांसि च व्रतानि च । कदाचिद्द्रव्यशुद्धिः स्यात्क्रियाशुद्धिः कदाचन ॥ १८ ॥ दुर्लभा मनसः शुद्धिः सर्वेषां सर्वदा नृप । मनस्तु चञ्चलं राजन्ननेकविषयाश्रितम् ॥ १९ ॥
हे राजन् ! तीर्थ, दान, व्रत, यज्ञ, तपस्या और सभी पुण्यकर्म शुद्धिसापेक्ष हैं । द्रव्यशुद्धि, क्रियाशुद्धि और मानसिक शुद्धिके आधारपर ही तीर्थ, तप और व्रत पवित्र होते हैं । कभी द्रव्यशुद्धि और कभी क्रियाशुद्धि हो पाती है, लेकिन हे राजन् ! मानसिक शुद्धि सबके लिये सदा ही दुर्लभ होती है । क्योंकि हे नृप ! मन बड़ा चंचल है और अनेक विषयोंमें भटकता रहता है । तब हे राजन् ! विविध विषयोंके आश्रित रहनेवाला मन कैसे शुद्ध रह सकता है ? ॥ १६-१९ ॥
कथं शुद्धं भवेद्राजन्नानाभावसमाश्रितम् । कामक्रोधौ तथा लोभो ह्यहङ्कारो मदस्तथा ॥ २० ॥ सर्वविघ्नकरा ह्येते तपस्तीर्थव्रतेषु च । अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ॥ २१ ॥ स्वधर्मपालनं राजन् सर्वतीर्थफलप्रदम् । नित्यकर्मपरित्यागान्मार्गे संसर्गदोषतः ॥ २२ ॥ व्यर्थं तीर्थाधिगमनं पापमेवावशिष्यते ।
काम, क्रोध, लोभ, अहंकार तथा मद-ये सभी तपस्या, तीर्थसेवन और व्रतोंमें विघ्नकारी होते हैं । हे राजन् ! अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह और अपने धर्मका पालन-समस्त तीर्थोंका फल प्रदान करते हैं । नित्यकर्मके परित्याग और मार्गमें संसर्गदोषसे तीर्थमें जाना व्यर्थ हो जाता है, केवल पाप ही लगता है । २०-२२.५ ॥
क्षालयन्ति हि तीर्थानि सर्वथा देहजं मलम् ॥ २३ ॥ मानसं क्षालितुं तानि न समर्थानि वै नृप । शक्तानि यदि चेत्तानि गङ्गातीरनिवासिनः ॥ २४ ॥ मुनयो द्रोहसंयुक्ताः कथं स्युर्भावितेश्वराः । वसिष्ठसदृशाः प्रह्वा विश्वामित्रादयः किल ॥ २५ ॥ रागद्वेषरताः सर्वे कामक्रोधाकुलाः सदा । चित्तशुद्धिमयं तीर्थं गङ्गादिभ्योऽतिपावनम् ॥ २६ ॥
है राजन् ! तीर्थ तो केवल शरीरजन्य मलको ही धोते हैं, वे अन्तःकरणको धोनेमें समर्थ नहीं होते । यदि वे तीर्थ [मनको शुद्ध करनेमें] समर्थ होते तो गंगाके तटपर रहनेवाले विश्वामित्र और वसिष्ठसदृश ईश्वर-चिन्तनपरायण भक्त मुनि द्रोहभावसे युक्त क्यों होते ? इस प्रकार तीथोंमें रहनेवाले लोग भी सदैव राग-द्वेषपरायण तथा काम-क्रोधसे व्याकुल रहते हैं । अत: चित्तशुद्धिरूपी तीर्थ गंगा आदि तीर्थोंसे भी अधिक पवित्र है ॥ २३-२६ ॥
यदि स्याद्दैवयोगेन क्षालयत्यान्तरं मलम् । विशेषेण तु सत्सङ्गो ज्ञाननिष्ठस्य भूपते ॥ २७ ॥ न वेदा न च शास्त्राणि न व्रतानि तपांसि न । न मखा न च दानानि चित्तशुद्धेस्तु कारणम् ॥ २८ ॥
हे राजन् ! यदि दैवयोगसे ज्ञाननिष्ठ पुरुषका सत्संग प्राप्त हो जाय तो वह आन्तरिक मैलको धो देता है । हे राजन् ! वेद, शास्त्र, व्रत, तप, यज्ञ तथा दान-ये चित्तकी शुद्धिके कारण नहीं हैं ॥ २७-२८ ॥
ब्रह्माजीके पुत्र वसिष्ठ वेदविद्यामें पारंगत थे और गंगाजीके तटपर रहते थे, फिर भी वे राग-द्वेषसे युक्त हो गये । विश्वामित्र और वसिष्ठके मध्य देवताओंको भी विस्मयमें डाल देनेवाला आडीबक नामक महायुद्ध हुआ, जो द्वेषके कारण व्यर्थ ही हुआ था । उस युद्ध में परम तपस्वी विश्वामित्र बक हुए थे, उन्हें वसिष्ठने हरिश्चन्द्रके कारण शाप दे दिया था । विश्वामित्रने भी वसिष्ठको शाप देकर आडी पक्षीके देहवाला बना दिया । इस प्रकार निर्मल कान्तिवाले वे दोनों मुनि शापके कारण आडी और बक पक्षीके रूपमें हो गये । वे मानसरोवरके तटपर रहने लगे और वहाँ नखों और चोंचके प्रहारसे भयंकर युद्ध करते रहे । वे दोनों ऋषि मदोन्मत्त सिंहोंके समान रोषयुक्त होकर दस हजार वर्षांतक आपसमें युद्ध करते रहे ॥ २९-३४ ॥
राजा बोले-श्रेष्ठ तपस्वी और धर्मपरायण वे दोनों मुनिश्रेष्ठ किस कारण परस्पर वैरपरायण हुए ? उन दोनों बुद्धिमान् ऋषियोंने किस कारणसे एकदूसरेको शाप दिया ? जो मनुष्योंके लिये कष्टकारक और दुःखदायक सिद्ध हुए ॥ ३५-३६ ॥
व्यास उवाच हरिश्चन्द्रो नृपश्रेष्ठस्त्रिशंकुतनयः पुरा । बभूव रविवंशीयो रामचन्द्रस्य पूर्वजः ॥ ३७ ॥
व्यासजी बोले-पूर्वकालमें सूर्यवंशमें त्रिशंकुके पुत्र हरिश्चन्द्र नामक एक श्रेष्ठ राजा हुए, जो रामचन्द्रजीके पूर्वज थे ॥ ३७ ॥
वे राजर्षि सन्तानहीन थे, अतः पुत्रकी कामनासे वरुणदेवकी प्रसन्नताके लिये उन्होंने 'नरमेध' नामक दुष्कर महायज्ञ करनेकी प्रतिज्ञा की । उस यज्ञका व्रत लेनेसे वरुणदेव उनपर प्रसन्न हो गये और राजाकी परम रूपवती भार्याने गर्भ धारण किया ॥ ३८-३९ ॥
राजा बभूव सन्तुष्टो दृष्ट्वा भार्यां सदोहदाम् । चकार विधिवत्कर्म गर्भसंस्कारकारकम् ॥ ४० ॥
रानीको गर्भवती देखकर राजा प्रसन्न हुए और उन्होंने विधिपूर्वक गर्भको संस्कारित करनेवाला कर्म सम्पन्न कराया ॥ ४० ॥
हे राजन् ! रानीने समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न पुत्रको जन्म दिया । पुत्रके उत्पन्न होनेपर राजा बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने जातकर्म आदि संस्कारकी उत्तम विधि सम्पन्न की । ब्राह्मणोंको विशेषरूपसे स्वर्ण और पयस्विनी गौएँ प्रदान की ॥ ४१-४२ ॥
हे महाराज ! जब घरमें जन्मोत्सव धूमधामसे मनाया जा रहा था । उसी समय ब्राह्मणका वेश धारण करके वरुणदेव आये, आसन प्रदान करके राजाने विधिवत् उनकी पूजा की । आगमनके विषयमें पूछे जानेपर 'मैं वरुण हूँ'-यह वाक्य उन्होंने राजासे कहा । हे राजेन्द्र ! जैसा आपने संकल्प किया था, अब अपने पुत्रको बलिपशु बनाकर परम पवित्र यज्ञ कीजिये और सत्यवादी बनिये ॥ ४३-४५ ॥
उनकी यह बात सुनकर राजा व्यथासे व्याकुल तथा विह्वल हो गये । पुनः अपनी मनोव्यथाको शान्त करके उन्होंने श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़कर वरुणदेवसे कहा-हे स्वामिन् ! मैंने जिस यज्ञका संकल्प लिया है, उस यज्ञको मैं विधिपूर्वक करूँगा और सत्यवादी होऊँगा ॥ ४६-४७ ॥
हे सुर श्रेष्ठ ! एक माह पूर्ण होनेपर मेरी धर्मपत्नी [जननाशौचसे] शुद्ध हो जायँगी, पत्नीके शुद्ध हो जायेगी । पत्नी के शुद्ध हो जानेपर मैं उसुयज्ञ को करूंगा ॥ ४८ ॥
व्यास उवाच इत्युक्ते वचने राज्ञा वरुणः स्वगृहं गतः । राजा बभूव सन्तुष्टः किञ्चिच्चिन्तातुरस्तथा ॥ ४९ ॥
व्यासजी बोले-राजाके यह कहनेपर वरुणदेव अपने घर चले गये । अब राजा सन्तुष्ट हो गये, किंतु कुछ-कुछ चिन्तातुर रहने लगे ॥ ४९ ॥
पूर्णे मासि पुनः पाशी परीक्षार्थं नृपालये । आजगाम द्विजो भूत्वा सुवेषः सुष्ठुभाषकः ॥ ५० ॥
एक माह पूर्ण होनेपर वरुणदेव सुन्दर और मृदुभाषी ब्राह्मणका वेश बनाकर परीक्षा लेनेके लिये पुनः राजमहलमें आये ॥ ५० ॥
वरुण बोले-हे राजन् ! आप समयको आगे बढ़ाकर धोखा दे रहे हैं; नि:सन्तान होनेके कारण आपका पुत्रस्नेह छोड़ना दुष्कर है-इसे मैं जानता हूँ । हे राजेन्द्र ! आपकी मधुर वाणी सुनकर मैं घर जा रहा हूँ, कुछ समयतक प्रतीक्षा करके मैं पुनः आपके घर आऊँगा । हे तात ! उस समय आपको अपनी बातको सत्य सिद्ध करना होगा, अन्यथा मैं क्रुद्ध होकर आपको शाप दे दूंगा ॥ ५४-५६ ॥
राजाकी यह बात सुनकर जलचरोंके अधिपति वरुणदेवने क्रुद्ध होकर असत्यवादी राजाको शाप दे दिया-कपटविशारद हे राजन् ! तुमने प्रतिज्ञा करके मुझे धोखा दिया है, अतः तुम्हारे शरीरमें जलोदर नामक रोग हो जाय ॥ ६४-६५ ॥
हे कुपुत्र ! तुम्हारे इस शरीरसे तुम्हारे जन्म लेनेका क्या लाभ है, जो तुम अपने पिताको दुःखी करके यहाँ रह रहे हो ? ॥ ७० ॥
प्राणास्त्याज्याः पितुः कार्ये सत्पुत्रेणेति निश्चयः । त्वदर्थे दुःखितो राजा क्रन्दति व्याधिपीडितः ॥ ७१ ॥
राजा हरिश्चन्द्र तुम्हारे लिये दु:खी और व्याधिसे पीड़ित होकर विलाप कर रहे हैं । पिताके लिये सत्पुत्रको प्राणोंतकका त्याग कर देना चाहिये-यह सिद्धान्त है । ॥ ७१ ॥
व्यासजी बोले-तब पथिककी धर्मसंगत बात सुनकर जैसे ही रोहितने पीडाग्रस्त अपने पिताको देखनेके लिये जानेका विचार किया, वैसे ही ब्राह्मणका रूप धारण करके इन्द्र वहाँ आ गये । हे भारत ! उन्होंने दयालुकी भाँति एकान्तमें हितकी यह बात कही-हे राजकुमार ! तुम मूर्ख हो, जो वहाँ जानेका व्यर्थ विचार कर रहे हो । तुम नहीं जानते कि तुम्हारे पिता तुम्हारे लिये क्यों दु:खी हैं ? ॥ ७२-७४ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्या संहितायां षष्ठस्कन्धे हरिश्चन्द्रस्य जलोदरव्याधिपीडावर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥