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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
षष्ठः स्कन्धः
द्वादशोऽध्यायः

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हरिश्चन्द्रस्य जलोदरव्याधिपीडावर्णनम् -
पवित्र तीर्थोका वर्णन, चित्तशुद्धिकी प्रधानता तथा इस सम्बन्धमें विश्वामित्र और वसिष्ठके परस्पर वैरकी कथा, राजा हरिश्चन्द्रका वरुणदेवके शापसे जलोदरग्रस्त होना -


राजोवाच
तीर्थानि भुवि पुण्यानि ब्रूहि मे मुनिसत्तम ।
गम्यानि मानवैर्देवैः क्षेत्राणि सरितस्तथा ॥ १ ॥
फलं च यादृशं यत्र तीर्थेषु स्नानदानतः ।
विधिं तु तीर्थयात्रायां नियमांश्च विशेषतः ॥ २ ॥
राजा बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! अब आप मुझे मनुष्यों और देवताओंके द्वारा सेवनीय इस पृथ्वीपर स्थित पुण्य तीर्थों, क्षेत्रों तथा नदियोंके विषयमें बताइये । उन तीर्थोंमें स्नान तथा दानका जैसा फल मिलता है, उसे और विशेषरूपसे तीर्थयात्राकी विधि तथा नियमोंको भी बताइये ॥ १-२ ॥

व्यास उवाच
शृणु राजन् प्रवक्ष्यामि तीर्थानि विविधानि च ।
येषु तीर्थेषु देवीनां प्रशस्तान्यायनानि च ॥ ३ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! सुनिये, मैं उन विविध तीर्थोंका वर्णन करूँगा, जिन तीर्थों में देवियोंके प्रशस्त मन्दिर विद्यमान हैं ॥ ३ ॥

नदीनां जाह्नवी श्रेष्ठा यमुना च सरस्वती ।
नर्मदा गण्डकी सिन्धुर्गोमती तमसा तथा ॥ ४ ॥
कावेरी चन्द्रभागा च पुण्या वेत्रवती शुभा ।
चर्मण्वती च सरयूस्तापी साभ्रमती तथा ॥ ५ ॥
एताश्च कथिता राजन्नन्याश्च शतशः पुनः ।
तासां समुद्रगाः पुण्याः स्वल्पपुण्या ह्यनब्धिगाः ॥ ६ ॥
समुद्रगानां ताः पुण्याः सर्वदौघवहास्तु याः ।
मासद्वयं श्रावणादौ ताश्च सर्वा रजस्वलाः ॥ ७ ॥
भवन्ति वृष्टियोगेन ग्राम्यवारिवहास्तथा ।
नदियोंमें गंगा श्रेष्ठ हैं, इसी प्रकार यमुना, सरस्वती, नर्मदा, गण्डकी, सिन्धु गोमती, तमसा, कावेरी, चन्द्रभागा, पुण्या, शुभ वेत्रवती, चर्मण्वती, सरयू, तापी तथा साभ्रमती भी हैं-इन्हें मैंने बतला दिया । हे राजन् ! इनके अतिरिक्त सैकड़ों अन्य नदियाँ भी हैं । उनमेंसे समुद्र में गिरनेवाली नदियाँ पुण्यमयी हैं तथा समुद्रमें न गिरनेवाली नदियाँ अल्प पुण्यवाली हैं । समुद्रगामिनी नदियोंमें वे बहुत पवित्र हैं जो सदा जलपूरित होकर बहती हैं । श्रावण और भाद्रपद-इन दो महीनों में सभी नदियाँ रजस्वला होती हैं । क्योंकि उनमें वर्षाकालमें ग्रामीणजल प्रवाहित होता है ॥ ४-७.५ ॥

पुष्करं च कुरुक्षेत्रं धर्मारण्यं सुपावनम् ॥ ८ ॥
प्रभासं च प्रयागं च नैमिषारण्यमेव च ।
विश्रुतं चार्बुदारण्यं शैलाश्च पावनास्तथा ॥ ९ ॥
श्रीशैलश्च सुमेरुश्च पर्वतो गन्धमादनः ।
सरांसि चैव पुण्यानि मानसं सर्वविश्रुतम् ॥ १० ॥
पुष्कर, कुरुक्षेत्र, धर्मारण्य, प्रभास, प्रयाग, नैमिषारण्य और विख्यात अर्बुदारण्य-ये अत्यन्त पवित्र तीर्थ हैं । इसी प्रकार श्रीशैल, सुमेरु और गन्धमादन पवित्र पर्वत हैं । सरोवरों में सर्वविख्यात मानसरोवर, श्रेष्ठ बिन्दुसर और पवित्र अच्छोदसरोवर पुण्य सरोवर हैं ॥ ८-१० ॥

तथा बिन्दुसरः श्रेष्ठमच्छोदं नाम पावनम् ।
आश्रमास्तु तथा पुण्या मुनीनां भावितात्मनाम् ॥ ११ ॥
विश्रुतस्तु सदा पुण्यः ख्यातो बदरिकाश्रमः ।
नरनारायणौ यत्र तेपाते तौ मुनी तपः ॥ १२ ॥
वामनाश्रम आख्यातः शतयूपाश्रमस्तथा ।
येन यत्र तपस्तप्तं तस्य नाम्नातिविश्रुतः ॥ १३ ॥
इसी प्रकार शुद्ध मनवाले मुनियोंके आश्रम भी पुण्यस्थल हैं । विख्यात बदरिकाश्रम सदैव पुण्यशाली आश्रमके रूपमें कहा गया है जहाँ नर-नारायण नामके दो मुनियोंने तपस्या की थी । ऐसे ही वामनाश्रम और शतयूपाश्रम भी विख्यात हैं । जिस ऋषिने जहाँ तपस्या की वह आश्रम उसीके नामसे प्रसिद्ध हो गया ॥ ११-१३ ॥

एवं पुण्यानि स्थानानि ह्यसंख्यातानि भूतले ।
मुनिभिः परिगीतानि पावनानि महीपते ॥ १४ ॥
एषु स्थानेषु सर्वत्र देवीस्थानानि भूपते ।
दर्शनात्पापहारीणि वसन्ति नियमेन च ॥ १५ ॥
हे राजन् ! इस प्रकार इस भूतलपर असंख्य पवित्र पुण्यस्थल हैं, जो मुनियोंद्वारा पवित्र कहे गये हैं । हे राजन् ! इन सभी स्थानोंमें देवीके मन्दिर हैं, जो दर्शन कर लेने मात्रसे पापका हरण करते हैं, वहाँ बहुत-से भक्त नियमपूर्वक वास करते हैं । उन कतिपय स्थानोंका वर्णन आगे करूँगा ॥ १४-१५ ॥

कथयिष्यामि तान्यग्रे प्रसङ्गेन च कानिचित् ।
तीर्थानि नृप दानानि व्रतानि च मखास्तथा ॥ १६ ॥
तपांसि पुण्यकर्माणि सापेक्षाणि महीपते ।
द्रव्यशुद्धिं क्रियाशुद्धिं मनःशुद्धिमपेक्ष्य च ॥ १७ ॥
पावनानि हि तीर्थानि तपांसि च व्रतानि च ।
कदाचिद्द्रव्यशुद्धिः स्यात्क्रियाशुद्धिः कदाचन ॥ १८ ॥
दुर्लभा मनसः शुद्धिः सर्वेषां सर्वदा नृप ।
मनस्तु चञ्चलं राजन्ननेकविषयाश्रितम् ॥ १९ ॥
हे राजन् ! तीर्थ, दान, व्रत, यज्ञ, तपस्या और सभी पुण्यकर्म शुद्धिसापेक्ष हैं । द्रव्यशुद्धि, क्रियाशुद्धि और मानसिक शुद्धिके आधारपर ही तीर्थ, तप और व्रत पवित्र होते हैं । कभी द्रव्यशुद्धि और कभी क्रियाशुद्धि हो पाती है, लेकिन हे राजन् ! मानसिक शुद्धि सबके लिये सदा ही दुर्लभ होती है । क्योंकि हे नृप ! मन बड़ा चंचल है और अनेक विषयोंमें भटकता रहता है । तब हे राजन् ! विविध विषयोंके आश्रित रहनेवाला मन कैसे शुद्ध रह सकता है ? ॥ १६-१९ ॥

कथं शुद्धं भवेद्‌राजन्नानाभावसमाश्रितम् ।
कामक्रोधौ तथा लोभो ह्यहङ्कारो मदस्तथा ॥ २० ॥
सर्वविघ्नकरा ह्येते तपस्तीर्थव्रतेषु च ।
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ॥ २१ ॥
स्वधर्मपालनं राजन् सर्वतीर्थफलप्रदम् ।
नित्यकर्मपरित्यागान्मार्गे संसर्गदोषतः ॥ २२ ॥
व्यर्थं तीर्थाधिगमनं पापमेवावशिष्यते ।
काम, क्रोध, लोभ, अहंकार तथा मद-ये सभी तपस्या, तीर्थसेवन और व्रतोंमें विघ्नकारी होते हैं । हे राजन् ! अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह और अपने धर्मका पालन-समस्त तीर्थोंका फल प्रदान करते हैं । नित्यकर्मके परित्याग और मार्गमें संसर्गदोषसे तीर्थमें जाना व्यर्थ हो जाता है, केवल पाप ही लगता है । २०-२२.५ ॥

क्षालयन्ति हि तीर्थानि सर्वथा देहजं मलम् ॥ २३ ॥
मानसं क्षालितुं तानि न समर्थानि वै नृप ।
शक्तानि यदि चेत्तानि गङ्गातीरनिवासिनः ॥ २४ ॥
मुनयो द्रोहसंयुक्ताः कथं स्युर्भावितेश्वराः ।
वसिष्ठसदृशाः प्रह्वा विश्वामित्रादयः किल ॥ २५ ॥
रागद्वेषरताः सर्वे कामक्रोधाकुलाः सदा ।
चित्तशुद्धिमयं तीर्थं गङ्गादिभ्योऽतिपावनम् ॥ २६ ॥
है राजन् ! तीर्थ तो केवल शरीरजन्य मलको ही धोते हैं, वे अन्तःकरणको धोनेमें समर्थ नहीं होते । यदि वे तीर्थ [मनको शुद्ध करनेमें] समर्थ होते तो गंगाके तटपर रहनेवाले विश्वामित्र और वसिष्ठसदृश ईश्वर-चिन्तनपरायण भक्त मुनि द्रोहभावसे युक्त क्यों होते ? इस प्रकार तीथोंमें रहनेवाले लोग भी सदैव राग-द्वेषपरायण तथा काम-क्रोधसे व्याकुल रहते हैं । अत: चित्तशुद्धिरूपी तीर्थ गंगा आदि तीर्थोंसे भी अधिक पवित्र है ॥ २३-२६ ॥

यदि स्याद्दैवयोगेन क्षालयत्यान्तरं मलम् ।
विशेषेण तु सत्सङ्गो ज्ञाननिष्ठस्य भूपते ॥ २७ ॥
न वेदा न च शास्त्राणि न व्रतानि तपांसि न ।
न मखा न च दानानि चित्तशुद्धेस्तु कारणम् ॥ २८ ॥
हे राजन् ! यदि दैवयोगसे ज्ञाननिष्ठ पुरुषका सत्संग प्राप्त हो जाय तो वह आन्तरिक मैलको धो देता है । हे राजन् ! वेद, शास्त्र, व्रत, तप, यज्ञ तथा दान-ये चित्तकी शुद्धिके कारण नहीं हैं ॥ २७-२८ ॥

वसिष्ठो ब्रह्मणः पुत्रो वेदविद्याविशारदः ।
रागद्वेषान्वितः कामं गङ्गातीरसमाश्रितः ॥ २९ ॥
आडीबकं महायुद्धं विश्वामित्रवसिष्ठयोः ।
जातं निरर्थकं द्वेषाद्देवानां विस्मयप्रदम् ॥ ३० ॥
विश्वामित्रो बकस्तत्र जातः परमतापसः ।
शप्तः स तु वसिष्ठेन हरिश्चन्द्रस्य कारणात् ॥ ३१ ॥
कौशिकेन वसिष्ठोऽपि शस्त्वाडीदेहभाक्कृतः ।
शापादाडीबकौ जातौ तौ मुनी विशदप्रभौ ॥ ३२ ॥
निवासं प्रापतुस्तीरे सरसो मानसस्य च ।
चक्रतुर्दारुणं युद्धं नखचञ्चुप्रताडनैः ॥ ३३ ॥
वर्षाणामयुतं यावत्तावृषी रोषसंयुतौ ।
युयुधाते मदोन्मत्तौ सिंहाविव परस्परम् ॥ ३४ ॥
ब्रह्माजीके पुत्र वसिष्ठ वेदविद्यामें पारंगत थे और गंगाजीके तटपर रहते थे, फिर भी वे राग-द्वेषसे युक्त हो गये । विश्वामित्र और वसिष्ठके मध्य देवताओंको भी विस्मयमें डाल देनेवाला आडीबक नामक महायुद्ध हुआ, जो द्वेषके कारण व्यर्थ ही हुआ था । उस युद्ध में परम तपस्वी विश्वामित्र बक हुए थे, उन्हें वसिष्ठने हरिश्चन्द्रके कारण शाप दे दिया था । विश्वामित्रने भी वसिष्ठको शाप देकर आडी पक्षीके देहवाला बना दिया । इस प्रकार निर्मल कान्तिवाले वे दोनों मुनि शापके कारण आडी और बक पक्षीके रूपमें हो गये । वे मानसरोवरके तटपर रहने लगे और वहाँ नखों और चोंचके प्रहारसे भयंकर युद्ध करते रहे । वे दोनों ऋषि मदोन्मत्त सिंहोंके समान रोषयुक्त होकर दस हजार वर्षांतक आपसमें युद्ध करते रहे ॥ २९-३४ ॥

राजोवाच
कथं तौ मुनिशार्दूलौ तापसौ धर्मतत्परौ ।
परस्परं वैरपरौ सञ्जातौ केन हेतुना ॥ ३५ ॥
शापं परस्परं केन कारणेन महामती ।
दत्तवन्तौ मिथः क्लेशकारकौ दुःखदौ नृणाम् ॥ ३६ ॥
राजा बोले-श्रेष्ठ तपस्वी और धर्मपरायण वे दोनों मुनिश्रेष्ठ किस कारण परस्पर वैरपरायण हुए ? उन दोनों बुद्धिमान् ऋषियोंने किस कारणसे एकदूसरेको शाप दिया ? जो मनुष्योंके लिये कष्टकारक और दुःखदायक सिद्ध हुए ॥ ३५-३६ ॥

व्यास उवाच
हरिश्चन्द्रो नृपश्रेष्ठस्त्रिशंकुतनयः पुरा ।
बभूव रविवंशीयो रामचन्द्रस्य पूर्वजः ॥ ३७ ॥
व्यासजी बोले-पूर्वकालमें सूर्यवंशमें त्रिशंकुके पुत्र हरिश्चन्द्र नामक एक श्रेष्ठ राजा हुए, जो रामचन्द्रजीके पूर्वज थे ॥ ३७ ॥

अनपत्यः स राजर्षिर्वरुणाय महाक्रतुम् ।
प्रतिजज्ञे पुत्रकामो नरमेधं दुरासदम् ॥ ३८ ॥
वरुणस्तस्य सन्तुष्टो यज्ञस्य नियमे कृते ।
दधार गर्भं राज्ञस्तु भार्या परमसुन्दरी ॥ ३९ ॥
वे राजर्षि सन्तानहीन थे, अतः पुत्रकी कामनासे वरुणदेवकी प्रसन्नताके लिये उन्होंने 'नरमेध' नामक दुष्कर महायज्ञ करनेकी प्रतिज्ञा की । उस यज्ञका व्रत लेनेसे वरुणदेव उनपर प्रसन्न हो गये और राजाकी परम रूपवती भार्याने गर्भ धारण किया ॥ ३८-३९ ॥

राजा बभूव सन्तुष्टो दृष्ट्वा भार्यां सदोहदाम् ।
चकार विधिवत्कर्म गर्भसंस्कारकारकम् ॥ ४० ॥
रानीको गर्भवती देखकर राजा प्रसन्न हुए और उन्होंने विधिपूर्वक गर्भको संस्कारित करनेवाला कर्म सम्पन्न कराया ॥ ४० ॥

सुषुवे तनयं नारी सर्वलक्षणसंयुतम् ।
मुदं प्राप नृपस्तत्र पुत्रे जाते विशाम्पते ॥ ४१ ॥
कृतवाञ्जातकर्मादिसंस्कारविधिमुत्तमम् ।
ददौ हिरण्यं गा दोग्धीर्ब्राह्मणेभ्यो विशेषतः ॥ ४२ ॥
हे राजन् ! रानीने समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न पुत्रको जन्म दिया । पुत्रके उत्पन्न होनेपर राजा बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने जातकर्म आदि संस्कारकी उत्तम विधि सम्पन्न की । ब्राह्मणोंको विशेषरूपसे स्वर्ण और पयस्विनी गौएँ प्रदान की ॥ ४१-४२ ॥

जन्मोत्सवेऽतिसंवृत्ते गेहे वै यादसाम्पतिः ।
आजगाम महाराज विप्रवेषधरस्तथा ॥ ४३ ॥
पूजितः पार्थिवेनाथ दत्त्वा विधिवदासनम् ।
कार्ये पृष्टेऽब्रवीद्वाक्यं वरुणोऽस्मीति भूपतिम् ॥ ४४ ॥
कुरु यज्ञं सुतं कृत्वा पशुं परमपावनम् ।
सत्यवाग्भव राजेन्द्र संकल्पस्तु त्वया कृतः ॥ ४५ ॥
हे महाराज ! जब घरमें जन्मोत्सव धूमधामसे मनाया जा रहा था । उसी समय ब्राह्मणका वेश धारण करके वरुणदेव आये, आसन प्रदान करके राजाने विधिवत् उनकी पूजा की । आगमनके विषयमें पूछे जानेपर 'मैं वरुण हूँ'-यह वाक्य उन्होंने राजासे कहा । हे राजेन्द्र ! जैसा आपने संकल्प किया था, अब अपने पुत्रको बलिपशु बनाकर परम पवित्र यज्ञ कीजिये और सत्यवादी बनिये ॥ ४३-४५ ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं राजा विह्वलोऽतिव्यथाकुलः ।
संस्तभ्याधिं नृपः प्राह वरुणं सत्कृताञ्जलिः ॥ ४६ ॥
स्वामिन्करोमि तं यज्ञं सर्वथा विधिपूर्वकम् ।
मया ते यत्प्रतिज्ञातं भवामि सत्यवागहम् ॥ ४७ ॥
उनकी यह बात सुनकर राजा व्यथासे व्याकुल तथा विह्वल हो गये । पुनः अपनी मनोव्यथाको शान्त करके उन्होंने श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़कर वरुणदेवसे कहा-हे स्वामिन् ! मैंने जिस यज्ञका संकल्प लिया है, उस यज्ञको मैं विधिपूर्वक करूँगा और सत्यवादी होऊँगा ॥ ४६-४७ ॥

पूर्णे मासे विशुध्येत धर्मपत्‍नी सुरोत्तम ।
विशुद्धायां तु भार्यायां कर्तव्यः स पशोर्मखः ॥ ४८ ॥
हे सुर श्रेष्ठ ! एक माह पूर्ण होनेपर मेरी धर्मपत्नी [जननाशौचसे] शुद्ध हो जायँगी, पत्नीके शुद्ध हो जायेगी । पत्‍नी के शुद्ध हो जानेपर मैं उसुयज्ञ को करूंगा ॥ ४८ ॥

व्यास उवाच
इत्युक्ते वचने राज्ञा वरुणः स्वगृहं गतः ।
राजा बभूव सन्तुष्टः किञ्चिच्चिन्तातुरस्तथा ॥ ४९ ॥
व्यासजी बोले-राजाके यह कहनेपर वरुणदेव अपने घर चले गये । अब राजा सन्तुष्ट हो गये, किंतु कुछ-कुछ चिन्तातुर रहने लगे ॥ ४९ ॥

पूर्णे मासि पुनः पाशी परीक्षार्थं नृपालये ।
आजगाम द्विजो भूत्वा सुवेषः सुष्ठुभाषकः ॥ ५० ॥
एक माह पूर्ण होनेपर वरुणदेव सुन्दर और मृदुभाषी ब्राह्मणका वेश बनाकर परीक्षा लेनेके लिये पुनः राजमहलमें आये ॥ ५० ॥

कृतार्हणं सुखासीनं भूपतिस्तं सुरोत्तमम् ।
उवाच विनयोपेतो हेतुगर्भं वचस्तदा ॥ ५१ ॥
तब सम्यक् रूपसे पूजित होकर सुखदायी आसनपर विराजमान उन सुरश्रेष्ठ वरुणसे राजाने विनयपूर्वक उद्देश्यपरक यह बात कही- ॥ ५१ ॥

असंस्कृतं सुतं स्वामिन्यूपे बध्नामि तं कथम् ।
संस्कत्य क्षत्रियं कृत्वा यजेऽहं यज्ञमुत्तमम् ॥ ५२ ॥
हे स्वामिन् ! पुत्र तो अभी संस्काररहित है, उसे यूपमें कैसे बाँधूं ? संस्कार करके उसे क्षत्रिय बनाकर मैं उस उत्तम यज्ञको सम्पन्न करूंगा ॥ ५२ ॥

दयसे यदि देव त्वं ज्ञात्वा दीनं स्वसेवकम् ।
असंस्कृतस्य बालस्य नाधिकारोऽस्ति कुत्रचित् ॥ ५३ ॥
हे देव ! संस्कारहीन बालकका कहीं भी अधिकार नहीं होता है, अतः यदि मुझपर दया करें तो मुझे अपना सेवक और दीन जानकर कुछ समय और दे दीजिये ॥ ५३ ॥

वरुण उवाच
प्रतारयसि राजेन्द्र कृत्वा समयमग्रतः ।
दुस्त्यजस्तव जानामि सुतस्नेहो ह्यपुत्रिणः ॥ ५४ ॥
गृहं व्रजामि भूपाल वचनात्तव कोमलात् ।
कियत्कालं प्रतीक्ष्याहमागमिष्यामि ते गृहम् ॥ ५५ ॥
भवितव्यं त्वया तात तदा सत्यवचोऽन्वितम् ।
अन्यथा त्वयि मुञ्चामि कोपं शापसमन्वितम् ॥ ५६ ॥
वरुण बोले-हे राजन् ! आप समयको आगे बढ़ाकर धोखा दे रहे हैं; नि:सन्तान होनेके कारण आपका पुत्रस्नेह छोड़ना दुष्कर है-इसे मैं जानता हूँ । हे राजेन्द्र ! आपकी मधुर वाणी सुनकर मैं घर जा रहा हूँ, कुछ समयतक प्रतीक्षा करके मैं पुनः आपके घर आऊँगा । हे तात ! उस समय आपको अपनी बातको सत्य सिद्ध करना होगा, अन्यथा मैं क्रुद्ध होकर आपको शाप दे दूंगा ॥ ५४-५६ ॥

राजोवाच
समावर्तनकर्मान्ते सर्वथा यादसांपते ।
कृत्वा पुत्रपशुं यज्ञे यजिष्ये विधिपूर्वकम् ॥ ५७ ॥
राजा बोले-हे जलाधिनाथ ! मैं समावर्तनसंस्कार हो जानेपर पुत्रको यज्ञ-पशु बनाकर विधिपूर्वक यज्ञ करूँगा ॥ ५७ ॥

व्यास उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं राज्ञो वरुणः प्रीतमानसः ।
तथेत्युक्त्वा ययौ तूर्णं नृपस्तु सुस्थितोऽभवत् ॥ ५८ ॥
व्यासजी बोले-राजाका यह वचन सुनकर वरुणदेव प्रसन्न होकर 'ठीक है'-ऐसा कहकर तुरंत चले गये और राजा भी स्वस्थचित्त हो गये ॥ ५८ ॥

रोहिताख्य इति ख्यातः सुतस्तस्य विवृद्धिमान् ।
सञ्जातश्चतुरः सर्वविद्यानां च विशारदः ॥ ५९ ॥
इधर राजाका रोहित नामका वह पुत्र बड़ा हो गया; वह बुद्धिमान् और समस्त विद्याओंमें पारंगत हो गया ॥ ५९ ॥

यज्ञस्य कारणं तेन ज्ञातं सर्वं सविस्तरम् ।
भयभीतस्ततः सोऽपि मत्वा मरणमात्मनः ॥ ६० ॥
उसे यज्ञका सब कारण विस्तारपूर्वक ज्ञात हो गया । तब वह अपनी मृत्यु जानकर अत्यन्त भयभीत हो गया । ६० ॥

कृत्वा पलायनं वीरो गतोऽसौ गिरिगह्वरे ।
अगम्ये नृपतिस्थाने स्थितस्तत्र भयातुरः ॥ ६१ ॥
[एक दिन] वह बालक राजमहलसे भागकर एक अगम्य पर्वतकी गुफामें चला गया और भयग्रस्त होकर वहाँ रहने लगा । ६१ ॥

प्राप्ते कालेऽथ वरुणो यज्ञार्थी नृपतेर्गृहम् ।
गत्वा तमाह भूपालं कुरु यज्ञं विशांपते ॥ ६२ ॥
समय आनेपर वरुणदेव यज्ञकी अभिलाषासे राजमहलमें पहुँचकर उन राजासे बोले-हे राजन् ! यज्ञ कीजिये ॥ ६२ ॥

प्रम्लानवदनो राजा तमाह व्यथितेन्द्रियः ।
किं करोमि गतः क्वापि सुतो मे सुरसत्तम ॥ ६३ ॥
यह सुनकर उदास मुखवाले राजाने व्यथित होकर उनसे कहा-हे सुर श्रेष्ठ ! मैं क्या करूँ ? मेरा पुत्र कहीं चला गया है । ६३ ॥

श्रुत्वा तद्वचनं राज्ञः कुपितो यादसांपतिः ।
शशाप तं नृपं कोपादसत्यवादिनं भृशम् ॥ ६४ ॥
जलोदराभिधो व्याधिर्देहे भवतु ते नृप ।
यतः प्रतारितश्चाहं कृत्वा कपटपण्डित ॥ ६५ ॥
राजाकी यह बात सुनकर जलचरोंके अधिपति वरुणदेवने क्रुद्ध होकर असत्यवादी राजाको शाप दे दिया-कपटविशारद हे राजन् ! तुमने प्रतिज्ञा करके मुझे धोखा दिया है, अतः तुम्हारे शरीरमें जलोदर नामक रोग हो जाय ॥ ६४-६५ ॥

इति शप्त्वा ययौ धाम स्वकं पाशधरस्तदा ।
राजा चिन्तातुरस्तस्थौ भवने व्याधिपीडितः ॥ ६६ ॥
ऐसा शाप देकर पाशधारी वरुणदेव अपने लोकको चले गये और रोगसे पीड़ित होकर राजा अपने महलमें चिन्तित रहने लगे ॥ ६६ ॥

यदातिव्याधितो राजा रोगेण शापजेन ह ।
तदा शुश्राव पुत्रोऽपि पितरं व्याधिपीडितम् ॥ ६७ ॥
जब शापजन्य रोगसे राजा बहुत व्यथित हो गये तब उनके पुत्रने भी पिताके रोग-पीड़ित होनेकी बात सुनी ॥ ६७ ॥

पान्थिकः प्राह पुत्रं हि पिता ते भृशदुःखितः ।
जलोदरविकारेण शापजेन नृपात्मज ॥ ६८ ॥
किसी पथिकने उससे कहा-हे राजपुत्र ! शापके कारण जलोदर रोगसे ग्रस्त तुम्हारे पिता बहुत अधिक दुःखी हैं ॥ ६८ ॥

विनष्टं जीवितं तेऽद्य वृथा जातस्य दुर्मते ।
यत्त्यक्त्वा पितरं दुःस्थं प्राप्तोऽसि गिरिगह्वरम् ॥ ६९ ॥
हे दुर्बुद्धि ! तुम्हारा जीवन नष्ट हो गया, तुम्हारा जन्म लेना व्यर्थ है; क्योंकि तुम अपने पिताको दुःखी अवस्थामें छोड़कर पर्वतकी गुफामें छिपे हो ॥ ६९ ॥

किमनेन शरीरेण प्राप्तं ते जन्मनः फलम् ।
देहदं दुःखितं कृत्वा स्थितोऽस्यत्र सुताधम ॥ ७० ॥
हे कुपुत्र ! तुम्हारे इस शरीरसे तुम्हारे जन्म लेनेका क्या लाभ है, जो तुम अपने पिताको दुःखी करके यहाँ रह रहे हो ? ॥ ७० ॥

प्राणास्त्याज्याः पितुः कार्ये सत्पुत्रेणेति निश्चयः ।
त्वदर्थे दुःखितो राजा क्रन्दति व्याधिपीडितः ॥ ७१ ॥
राजा हरिश्चन्द्र तुम्हारे लिये दु:खी और व्याधिसे पीड़ित होकर विलाप कर रहे हैं । पिताके लिये सत्पुत्रको प्राणोंतकका त्याग कर देना चाहिये-यह सिद्धान्त है । ॥ ७१ ॥

व्यास उवाच
तदाकर्ण्य वचस्तथ्यं पान्थिकाद्धर्मसंयुतम् ।
यदा चक्रे मनो गन्तुं द्रष्टुं तातं व्यथातुरम् ॥ ७२ ॥
तदा विप्रवपुर्भूत्वा वासवस्तमुपागमत् ।
रहः प्राह हितं वाक्यं दयावानिव भारत ॥ ७३ ॥
मूर्खोऽसि राजपुत्र त्वं गमनाय मतिं वृथा ।
करोषि पितरं त्वद्य न जानासि व्यथायुतम् ॥ ७४ ॥
व्यासजी बोले-तब पथिककी धर्मसंगत बात सुनकर जैसे ही रोहितने पीडाग्रस्त अपने पिताको देखनेके लिये जानेका विचार किया, वैसे ही ब्राह्मणका रूप धारण करके इन्द्र वहाँ आ गये । हे भारत ! उन्होंने दयालुकी भाँति एकान्तमें हितकी यह बात कही-हे राजकुमार ! तुम मूर्ख हो, जो वहाँ जानेका व्यर्थ विचार कर रहे हो । तुम नहीं जानते कि तुम्हारे पिता तुम्हारे लिये क्यों दु:खी हैं ? ॥ ७२-७४ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्या
संहितायां षष्ठस्कन्धे हरिश्चन्द्रस्य
जलोदरव्याधिपीडावर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
अध्याय बारहवाँ समाप्त ॥ १२ ॥


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