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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
षष्ठः स्कन्धः
त्रयोदशोऽध्यायः

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आडीबकयुद्ध वर्णनसहितं देवीमाहात्म्यवर्णनम् -
राजा हरिश्चन्द्रका शुनःशेपको यज्ञीय पशु बनाकर यज्ञ करना, विश्वामित्रसे प्राप्त वरुणमन्त्रके जपसे शुनःशेपका मुक्त होना, परस्पर शापसे विश्वामित्र और वसिष्ठका बक तथा आडी होना -


इन्द्र उवाच
साहसं कृतवान् राजा पूर्वं यत्कथितो मखः ।
वरुणाय प्रतिज्ञातः पुत्रं कृत्वा पशुं प्रियम् ॥ १ ॥
इन्द्र बोले-पूर्वकालमें राजाने वरुणदेवसे यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं अपने प्रिय पुत्रको यज्ञीय पशु बनाकर यज्ञ करूँगा-यह उन्होंने बड़ा साहस किया था ॥ १ ॥

गते त्वयि पिता पुत्रं बद्ध्वा यूपेऽघृणः पुनः ।
पशुं कृत्वा महाबुद्धे वधिष्यति व्यथातुरः ॥ २ ॥
हे महामते ! तुम्हारे वहाँ जानेपर रोगसे दुःखी तुम्हारे निर्दयी पिता तुम्हें यज्ञीय पशु बनाकर यूपमें बाँधकर मार डालेंगे ॥ २ ॥

इत्थं निषिद्धस्तत्पुत्रः शक्रेणामिततेजसा ।
स्थितस्तत्रैव मायेशीमायया मोहितो भृशम् ॥ ३ ॥
अमित तेजस्वी इन्द्रके द्वारा इस प्रकार रोक दिये जानेपर मायेश्वरीको मायासे अत्यन्त मोहित होकर वह राजपुत्र वहीं रुक गया ॥ ३ ॥

यदा पुनः पुनः श्रुत्वा पितरं रोगपीडितम् ।
गमनाय मतिं चक्रे तदेन्द्रः प्रत्यषेधयत् ॥ ४ ॥
इस प्रकार जब-जब वह पिताको रोगसे पीड़ित सुनकर जानेका विचार करता था, तब-तब इन्द्र उसे रोक देते थे ॥ ४ ॥

हरिश्चन्द्रोऽतिदुःखार्तः पप्रच्छ गुरुमन्तिके ।
स्थितं वसिष्ठमेकान्ते सर्वज्ञं हिततत्परम् ॥ ५ ॥
एक दिन राजा हरिश्चन्द्रने अत्यन्त दु:खी होकर एकान्तमें बैठे हुए सर्वज्ञ और कल्याणकारी गुरु वसिष्ठके पास जाकर पूछा- ॥ ५ ॥

राजोवाच
भगवन् कि करोम्यद्य कातरोऽस्मि व्यथाकुलः ।
त्राहि मां दुःखमनसं महाव्याधिभयातुरम् ॥ ६ ॥
राजा बोले-हे भगवन् ! मैं क्या करूँ ? मैं अत्यन्त भयभीत और कष्टसे पीड़ित हूँ । इस महाव्याधिसे पीड़ित मुझ दुःखितचित्तकी रक्षा कीजिये ॥ ६ ॥

वसिष्ठ उवाच
शृणु राजन्नुपायोऽस्ति रोगनाशं प्रति स्तुतः ।
त्रयोदशविधाः पुत्राः कथिता धर्मसंग्रहे ॥ ७ ॥
वसिष्ठजी बोले-हे राजन् ! सुनिये, रोगनाशका एक प्रशस्त उपाय है । धर्मशास्त्रमें तेरह प्रकारके पुत्र कहे गये हैं ॥ ७ ॥

तस्मात्क्रीतं सुतं कृत्वा यजस्व मखमुत्तमम् ।
द्रव्यं दत्त्वा यथोद्दिष्टमानयस्व द्विजोत्तमम् ॥ ८ ॥
इसलिये किसी ब्राह्मणके उत्तम वालकको उसका मनोभिलषित धन देकर क्रय करके उसे ले आइये और उत्तम यज्ञको सम्पन्न कीजिये ॥ ८ ॥

एवं कृते मखे भूप रोगनाशो भविष्यति ।
वरुणोऽपि प्रसन्नात्मा भविष्यति यथासुखम् ॥ ९ ॥
हे राजन् ! इस प्रकार यज्ञ करनेसे आपका रोग नष्ट हो जायगा और वरुणदेव भी हर्षित होकर प्रसन्नचित्त हो जायेंगे ॥ ९ ॥

व्यास उवाच
इति तस्य वचः श्रुत्वा राजा प्रोवाच मन्त्रिणम् ।
अन्वेषय महाबुद्धे विषयेष्वतियत्‍नतः ॥ १० ॥
व्यासजी बोले-उनकी ऐसी बात सुनकर राजाने मन्त्रीसे कहा-हे महामते ! सभी स्थानोंमें प्रयत्नपूर्वक पता लगाइये ॥ १० ॥

कदाचित्कोऽपि लोभार्थी ददाति स्वसुतं पिता ।
समानय धनं दत्त्वा यावत्प्रार्थयतेऽप्यसौ ॥ ११ ॥
यदि कोई लोभी पिता अपने पुत्रको देता है तो वह जितना धन माँगे, उतना देकर उसे ले आइये ॥ ११ ॥

सर्वथैव समानेयो यज्ञार्थे द्विजबालकः ।
न कार्या कृपणा बुद्धिस्त्वया मत्कार्यहेतवे ॥ १२ ॥
सब प्रकारसे प्रयास करके यज्ञके लिये ब्राह्मणवालक लाना ही चाहिये । मेरे कार्यमें तुम्हें किसी भी प्रकारका बुद्धिशैथिल्य नहीं करना चाहिये ॥ १२ ॥

प्रार्थनीयस्त्वया पुत्रः कस्यचिद्‌द्विजवादिनः ।
द्रव्येण देहि यज्ञार्थं कर्तव्योऽसौ पशुः किल ॥ १३ ॥
तुम्हें प्रत्येक ब्राह्मणसे प्रार्थना करनी चाहिये कि धन लेकर राजाको पुत्र दे दीजिये, उसे यज्ञके लिये यज्ञीय पशु बनाना है ॥ १३ ॥

इति सञ्चोदितस्तेन सचिवः कार्यहेतवे ।
अन्वेषयामास पुरे ग्रामे ग्रामे गृहे गृहे ॥ १४ ॥
उन राजासे यह आदेश प्राप्तकर मन्त्रीने यज्ञकार्यके लिये राज्यके प्रत्येक गाँव तथा घरमें पता लगाया ॥ १४ ॥

एवमन्वेषतस्तस्य विषये कश्चिदातुरः ।
निर्धनस्त्रिसुतश्चासीदजीगर्तेति नामतः ॥ १५ ॥
इस प्रकार राज्यमें पता लगाते हुए उसे अजीगत नामक एक दुःखी और निर्धन ब्राह्मण मिला, जिसके तीन पुत्र थे ॥ १५ ॥

तस्य पुत्रं शुनःशेपं मध्यमं मन्त्रिसत्तमः ।
आनयामास दत्त्वार्थं प्रार्थितं यद्धनं तदा ॥ १६ ॥
उस ब्राह्मणने जितना धन माँगा, उतना देकर वह मन्त्रि श्रेष्ठ उसके मझले पुत्र शुन:शेपको ले आया ॥ १६ ॥

समानीय शुनःशेपं सचिवः कार्यतत्परः ।
राज्ञे निवेदयामास पशुयोग्यं द्विजात्मजम् ॥ १७ ॥
कार्यकुशल मन्त्रीने पशयोग्य ब्राह्मणपुत्र शुनःशेपको लाकर राजाको समर्पित कर दिया ॥ १७ ॥

राजातिमुदितस्तेन विप्रानानीय सर्वतः ।
कारयामास सम्भारान्यज्ञार्थं वेदवित्तमान् ॥ १८ ॥
इससे अत्यन्त प्रसन्न होकर राजाने वेदज्ञ ब्राह्मणोंको बुलाकर यज्ञके लिये सामग्री एकत्र करवायी ॥ १८ ॥

प्रारब्धे तु मखे तत्र विश्वामित्रो महामुनिः ।
बद्धं दृष्ट्वा शुनःशेपं निषिषेध नृपं तदा ॥ १९ ॥
यज्ञके प्रारम्भ होनेपर महामुनि विश्वामित्रने वहाँ शुन:-शेपको बँधा देखकर राजाको मना करते हुए कहा- ॥ १९ ॥

राजन्मा साहसं कार्षीर्मुञ्चैनं द्विजबालकम् ।
प्रार्थयाम्यहमायुष्मन् सुखं तेऽद्य भविष्यति ॥ २० ॥
हे राजन् ! ऐसा साहस न कीजिये, इस ब्राह्मणबालकको छोड़ दीजिये । हे आयुष्मन् ! मैं प्रार्थना करता हूँ, इससे आपको सुखकी प्राप्ति होगी ॥ २० ॥

क्रन्दत्ययं शुनःशेपः करुणा मां दुनोत्यपि ।
दयावान्भव राजेन्द्र कुरु मे वचनं नृप ॥ २१ ॥
यह शुन:शेप क्रन्दन कर रहा है, अत: करुणा मुझे बहुत व्यथित कर रही है । हे राजेन्द्र ! मेरी बात मानिये; हे नृप ! दयावान् बनिये ॥ २१ ॥

परदेहस्य रक्षायै स्वदेहं ये दयापराः ।
ददति क्षत्रियाः पूर्वं स्वर्गकामाः शुचिव्रताः ॥ २२ ॥
त्वं स्वदेहस्य रक्षार्थं हंसि द्विजसुतं बलात् ।
पापं मा कुरु राजेन्द्र दयावान् भव बालके ॥ २३ ॥
पूर्वकालमें स्वर्गके इच्छुक, पवित्रव्रती तथा दयापरायण जो क्षत्रियगण थे, वे दूसरोंके शरीरकी रक्षाके लिये अपने प्राण दे देते थे और आप अपने शरीरको रक्षाके लिये बलपूर्वक ब्राह्मणपुत्रका वध कर रहे हैं । हे राजेन्द्र ! पाप मत कीजिये और इस बालकपर दयावान् होइए ॥ २२-२३ ॥

सर्वेषां सदृशी प्रीतिर्देहे वेत्सि स्वयं नृप ।
मुञ्चैनं बालकं तस्मात्प्रमाणं यदि मे वचः ॥ २४ ॥
हे राजन् ! अपने देहके प्रति सभीको एकजैसी प्रीति होती है-यह बात आप स्वयं जानते हैं । यदि आप मेरी बातको प्रमाण मानते हैं तो इस बालकको छोड़ दीजिये ॥ २४ ॥

व्यास क्त्वच
अनादृत्य च तद्वाक्यं राजा दुःखातुरो भृशम् ।
न मुमोच मुनिस्तस्मै चूकोपातीव तापसः ॥ २५ ॥
व्यासजी बोले-दुःखसे अत्यन्त पीड़ित राजाने मुनिकी बातका अनादर करके उस बालकको नहीं छोड़ा; इससे वे तपस्वी मुनि उनके ऊपर अत्यन्त क्रुद्ध हो गये ॥ २५ ॥

उपदेशं ददौ तस्मै शुनःशेपाय कौशिकः ।
मन्त्रं पाशधरस्याथ दयावान्वेदवित्तमः ॥ २६ ॥
शुनःशेपोऽपि तं मन्त्रमसकृद्वधकर्शितः ।
स्तुतस्वरेण चुक्रोश संस्मरन्वरुणं भृशम् ॥ २७ ॥
वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ उन दयालु विश्वामित्रने शुनःशेपको पाशधारी वरुणदेवके मन्त्रका उपदेश दिया । अपने वधके भयसे व्याकुल शुनःशेप भी वरुणदेवका स्मरण करते हुए उच्च स्वरसे बार-बार मन्त्रका जप करने लगा ॥ २६-२७ ॥

स्तुवन्तं मुनिपुत्रं तं ज्ञात्वा वै यादसां पतिः ।
तत्रागत्य शुनःशेपं मुमोच करुणार्णवः ॥ २८ ॥
रोगहीनं नृपं कृत्वा वरुणः स्वगृहं ययौ ।
विश्वामित्रस्तु तं पुत्रं कृतवान्मोचितं मृतेः ॥ २९ ॥
जलचरोंके अधिपति करुणासिन्धु वरुणदेवने वहाँ आकर स्तुति करते हुए उस ब्राह्मणपुत्र शुन:-शेषको छुड़ा दिया और राजाको रोगमुक्त करके वे वरुणदेव अपने लोकको चले गये । विश्वामित्रने उस बालकको मृत्युसे मुक्ति प्रदान कर दी ॥ २८-२९ ॥

न कृतं वचनं राज्ञा कौशिकस्य महात्मनः ।
रोषं दधार मनसा राजोपरि स गाधिजः ॥ ३० ॥
राजाने महात्मा विश्वामित्रकी बात नहीं मानी, अतः वे गाधिपुत्र विश्वामित्र मन-ही-मन राजाके ऊपर बहुत क्रुद्ध हुए ॥ ३० ॥

एकस्मिन्समये राजा हयारूढो वनं गतः ।
सूकरं हन्तुकामस्तु मध्याह्ने कौशिकीतटे ॥ ३१ ॥
एक समय राजा घोड़ेपर सवार होकर वनमें गये । वे सूअरको मारनेकी इच्छासे ठीक दोपहरके समय कौशिकी नदीके तटपर पहुँचे ॥ ३१ ॥

वृद्धब्राह्मणवेषेण विश्वामित्रेण वञ्चितः ।
सर्वस्वं प्रार्थितं तस्य गृहीतं राज्यमद्‌‍भुतम् ॥ ३२ ॥
वहाँ विश्वामित्रने वृद्ध ब्राह्मणका वेश धारण करके छलपूर्वक उनका सर्वस्व माँग लिया और उनके महान् राज्यपर अपना अधिकार कर लिया ॥ ३२ ॥

पीडितोऽसौ हरिश्चन्द्रो यजमानो यतो भृशम् ।
वसिष्ठः कौशिकं प्राह वने प्राप्तं यदृच्छया ॥ ३३ ॥
क्षत्रियाधम दुर्बुद्धे वृथा ब्राह्मणवेषभृत् ।
बकधर्म वृथा किं त्वं गर्वं वहसि दाम्भिक ॥ ३४ ॥
जिससे [वसिष्ठके] यजमान राजा हरिश्चन्द्र अत्यन्त कष्ट पाने लगे । एक बार संयोगवश वनमें आये हुए विश्वामित्रसे वसिष्ठने कहा-हे क्षत्रियाधम ! हे दुर्बुद्धे ! तुमने व्यर्थ ही ब्राह्मणका वेश बना रखा है, बगुलेके समान वृत्तिवाले हे दाम्भिक ! तुम व्यर्थमें गर्व क्यों करते हो ? ॥ ३३-३४ ॥

कस्मात्त्वया नृपश्रेष्ठो यजमानो ममाप्यसौ ।
अपराधं विना जाल्म गमितो दुःखमद्‌भुतम् ॥ ३५ ॥
हे जाल्म ! तुमने मेरे यजमान नृपश्रेष्ठ हरिश्चन्द्रको बिना अपराधके महान् कष्टमें क्यों डाल दिया ? ॥ ३५ ॥

बकध्यानपरो यस्मात्तस्मात्त्वं वै बको भव ।
इति शप्तो वसिष्ठेन कौशिकः प्राह तं पुनः ॥ ३६ ॥
तुम बगुलेके समान ध्यानपरायण हो । अत: तुम 'बक' (बगुला) हो जाओ । वसिष्ठके द्वारा इस प्रकार शापप्राप्त विश्वामित्रने उनसे कहा-हे आयुष्मन् ! जबतक मैं बक रहूँगा, तबतक तुम भी आडी पक्षी बनकर रहोगे ॥ ३६ ॥

त्वमप्याडिर्भवायुष्मन् बकोऽहं यावदेव हि ।
व्यास उवाच
एवं परस्परं दत्त्वा शापं तौ क्रोधपीडितौ ॥ ३७ ॥
अण्डजौ तरसा जातौ सरस्याडीबकौ मुनी ।
एकस्मिन्पादपे नीडं कृत्वासौ बकरूपभाक् ॥ ३८ ॥
विश्वामित्रः स्थितस्तत्र दिव्ये सरसि मानसे ।
अन्यस्मित्पादपे कृत्वा वसिष्ठो नीडमुत्तमम् ॥ ३९ ॥
आडीरूपधरस्तस्थावन्योन्यं द्वेषतत्परौ ।
दिने दिने तौ संग्रामं चक्रतुः क्रोधसंयुतौ ॥ ४० ॥
दुःखदं सर्वलोकानां क्रन्दमानावुभौ भृशम् ।
चञ्चुपक्षप्रहारैस्तु नखाघातैः परस्परम् ॥ ४१ ॥
जघ्नतू रुधिरक्लिनौ पुष्पिताविव किंशुकौ ।
एवं बहूनि वर्षाणि पक्षिरूपधरौ मुनी ॥ ४२ ॥
स्थितौ तत्र महाराज शापपाशेन यन्त्रितौ ।
व्यासजी बोले-इस प्रकार क्रोधसे व्याकुल उन दोनोंने एक-दूसरेको शाप दे दिया और एक सरोवरके समीप वे दोनों मुनि 'आडी' और 'बक' के रूपमें अण्डोंसे उत्पन्न हुए । दिव्य मानसरोवरके तटपर एक वृक्षपर घोंसला बनाकर बकरूपधारी विश्वामित्र और एक दूसरे वृक्षपर उत्तम घोंसला बनाकर आडीरूपधारी वसिष्ठ परस्पर द्वेषपरायण होकर रहने लगे । वे दोनों कोपाविष्ट होकर प्रतिदिन घोर क्रन्दन करते हुए सभी लोगोंके लिये दु:खदायी युद्ध करते थे । वे दोनों चोंच और पंखोंके प्रहार तथा नखोंके आघातसे परस्पर चोट पहुँचाते थे । रक्तसे लथपथ वे दोनों खिले हुए किंशुकके फूल-जैसे प्रतीत होते थे । हे महाराज ! इस प्रकार पक्षीरूपधारी दोनों मुनि शापरूपी पाशमें जकड़े हुए वहाँ बहुत वर्षातक पड़े रहे ॥ ३७-४२.५ ॥

राजोवाच
कथं मुक्तौ मुनिश्रेष्ठौ शापाद्वसिष्ठकौशिकौ ॥ ४३ ॥
तन्ममाचक्ष्व विप्रर्षे परं कौतूहलं हि मे ।
राजा बोले-हे विप्रर्षे ! वे दोनों मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ और विश्वामित्र शापसे किस प्रकार मुक्त हुए, यह मुझे बताइये, मुझे बड़ा कौतूहल है ॥ ४३.५ ॥

व्यास उवाच
युध्यमानाब्वुभौ दृष्ट्वा ब्रह्मा लोकपितामहः ॥ ४४ ॥
तत्राजगामानिमिषैर्वृतः सर्वैर्दयापरैः ।
तावाश्वास्य जगत्कर्ता युद्धतो विनिवार्य च ॥ ४५ ॥
शापं संमोचयामास तयोः क्षिप्तं परस्परम् ।
व्यासजी बोले-लोकपितामह ब्रह्माजी उन दोनोंको युद्ध करते देखकर समस्त दयापरायण देवताओंके साथ वहाँ आये । सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीने उन दोनोंको समझाकर युद्धसे विरत करके परस्पर दिये गये शापसे भी मुक्त कर दिया ॥ ४४-४५.५ ॥

ततो जग्मुः सुराः सर्वे स्वानि धिष्ण्यानि पद्मभूः ॥ ४६ ॥
सत्यलोकं जगामाशु हंसारूढः प्रतापवान् ।
विश्वामित्रोऽप्यगात्तूर्णं वसिष्ठः स्वाश्रमं गतः ॥ ४७ ॥
मिथः स्नेहं ततः कृत्वा प्रजापत्युपदेशतः ।
मैत्रावरुणिनाप्येवं कृतं युद्धमकारणम् ॥ ४८ ॥
इसके बाद सभी देवगण अपने-अपने लोकोंको चले गये, कमलयोनि प्रतापी ब्रह्माजी शीघ्र हंसपर आरूढ़ होकर सत्यलोकको चले गये और प्रजापतिके उपदेशसे परस्पर स्नेह करके विश्वामित्र तथा वसिष्ठजी भी अपनेअपने आश्रमोंको शीघ्र चले गये । हे राजन् ! इस प्रकार मैत्रावरुणि वसिष्ठने भी अकारण ही विश्वामित्रके साथ परस्पर दुःखप्रद युद्ध किया था ॥ ४६-४८ ॥

कौशिकेन समं भूप दुःखदं च परस्परम् ।
को नाम मानवो लोके देवो वा दानवोऽपि वा ॥ ४९ ॥
अहङ्कारजयं कृत्वा सर्वदा सुखभाग्भवेत् ।
तस्माद्‌राजंश्चित्तशुद्धिर्महतामपि दुर्लभा ॥ ५० ॥
यत्‍नेन साधनीया सा तद्विहीनं निरर्थकम् ।
तीर्थं दानं तपः सत्यं यत्किञ्चिद्धर्मसाधनम् ॥ ५१ ॥
इस संसारमें मनुष्य, देवता या दैत्य-कौन ऐसा है, जो अहंकारपर विजय प्राप्तकर सदा सुखी रह सके । अत: हे राजन् ! चित्तकी शुद्धि महापुरुषोंके लिये भी दुर्लभ है । उसे प्रयत्नपूर्वक शुद्ध करना चाहिये । उसके बिना तीर्थयात्रा, दान, तपस्या, सत्य आदि जो कुछ भी धर्मसाधन है; वह सब निरर्थक है ॥ ४९-५१ ॥

(श्रद्धात्र त्रिविधा प्रोक्ता सात्त्विकी राजसी तथा ।
तामसी सर्वदेहेषु देहिनां धर्मकर्मसु ॥
सात्त्विकी दुर्लभा लोके यथोक्तफलदा सदा ।
तदर्धफलदा प्रोक्ता राजसी विधिसंयुता ॥
तामसी त्वफला राजन्न तु कीर्तिकरी पुनः ।
कामक्रोधाभिभूतानां जनानां नृपसत्तम ॥)
वासनारहितं कृत्वा तच्चित्तं श्रवणादिना ।
तीर्थादिषु वसेन्नित्यं देवीपूजनतत्परः ॥ ५२ ॥
देवीनामानि वचसा गृह्णंस्तस्या गुणान्स्तुवन् ।
ध्यायंस्तस्याः पदाम्भोजं कलिदोषभयार्दितः ॥ ५३ ॥
(सबके देहोंमें तथा प्राणियोंके धर्मकर्मोंमें सात्त्विकी, राजसी और तामसी-यह तीन प्रकारकी श्रद्धा कही गयी है । इनमें यथोक्त फल देनेवाली सात्त्विकी श्रद्धा जगतमें सदा दुर्लभ होती है । विधिविधानसे युक्त राजसी श्रद्धा उसका आधा फल देनेवाली कही गयी है । हे राजन् ! काम-क्रोधके वशीभूत पुरुषोंकी श्रद्धा तामसी होती है । हे नृपश्रेष्ठ ! वह फलविहीन होती है और कीर्ति करनेवाली भी नहीं होती । ) कलियुगके दोषोंसे भयभीत व्यक्तिको कथाश्रवण आदिके द्वारा चित्तको वासनारहित करके देवीकी पूजामें तत्पर रहते हुए, वाणीसे देवीके नामोंको ग्रहण करते हुए, उनके गुणोंका कीर्तन करते हुए तथा उनके चरण-कमलका ध्यान करते हुए तीर्थ आदिमें नित्य वास करना चाहिये ॥ ५२-५३ ॥

एवं तु कुर्वतस्तस्य न कदाचित्कलेर्भयम् ।
अनायासेन संसारान्मुच्यते पातकी जनः ॥ ५४ ॥
ऐसा करनेसे उसे कभी कलियुगका भय नहीं होगा, इससे पापी प्राणी भी अनायास ही संसारसे मुक्त हो जाता है ॥ ५४ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादलसाहस्र्यां
संहितायां षष्ठस्कन्धे आडीबकयुद्ध वर्णनसहितं
देवीमाहात्म्यवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
अध्याय तेहरवाँ समाप्त ॥ १३ ॥


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