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आडीबकयुद्ध वर्णनसहितं देवीमाहात्म्यवर्णनम् -
राजा हरिश्चन्द्रका शुनःशेपको यज्ञीय पशु बनाकर यज्ञ करना, विश्वामित्रसे प्राप्त वरुणमन्त्रके जपसे शुनःशेपका मुक्त होना, परस्पर शापसे विश्वामित्र और वसिष्ठका बक तथा आडी होना -
इन्द्र उवाच साहसं कृतवान् राजा पूर्वं यत्कथितो मखः । वरुणाय प्रतिज्ञातः पुत्रं कृत्वा पशुं प्रियम् ॥ १ ॥
इन्द्र बोले-पूर्वकालमें राजाने वरुणदेवसे यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं अपने प्रिय पुत्रको यज्ञीय पशु बनाकर यज्ञ करूँगा-यह उन्होंने बड़ा साहस किया था ॥ १ ॥
गते त्वयि पिता पुत्रं बद्ध्वा यूपेऽघृणः पुनः । पशुं कृत्वा महाबुद्धे वधिष्यति व्यथातुरः ॥ २ ॥
हे महामते ! तुम्हारे वहाँ जानेपर रोगसे दुःखी तुम्हारे निर्दयी पिता तुम्हें यज्ञीय पशु बनाकर यूपमें बाँधकर मार डालेंगे ॥ २ ॥
हे राजन् ! ऐसा साहस न कीजिये, इस ब्राह्मणबालकको छोड़ दीजिये । हे आयुष्मन् ! मैं प्रार्थना करता हूँ, इससे आपको सुखकी प्राप्ति होगी ॥ २० ॥
क्रन्दत्ययं शुनःशेपः करुणा मां दुनोत्यपि । दयावान्भव राजेन्द्र कुरु मे वचनं नृप ॥ २१ ॥
यह शुन:शेप क्रन्दन कर रहा है, अत: करुणा मुझे बहुत व्यथित कर रही है । हे राजेन्द्र ! मेरी बात मानिये; हे नृप ! दयावान् बनिये ॥ २१ ॥
परदेहस्य रक्षायै स्वदेहं ये दयापराः । ददति क्षत्रियाः पूर्वं स्वर्गकामाः शुचिव्रताः ॥ २२ ॥ त्वं स्वदेहस्य रक्षार्थं हंसि द्विजसुतं बलात् । पापं मा कुरु राजेन्द्र दयावान् भव बालके ॥ २३ ॥
पूर्वकालमें स्वर्गके इच्छुक, पवित्रव्रती तथा दयापरायण जो क्षत्रियगण थे, वे दूसरोंके शरीरकी रक्षाके लिये अपने प्राण दे देते थे और आप अपने शरीरको रक्षाके लिये बलपूर्वक ब्राह्मणपुत्रका वध कर रहे हैं । हे राजेन्द्र ! पाप मत कीजिये और इस बालकपर दयावान् होइए ॥ २२-२३ ॥
सर्वेषां सदृशी प्रीतिर्देहे वेत्सि स्वयं नृप । मुञ्चैनं बालकं तस्मात्प्रमाणं यदि मे वचः ॥ २४ ॥
हे राजन् ! अपने देहके प्रति सभीको एकजैसी प्रीति होती है-यह बात आप स्वयं जानते हैं । यदि आप मेरी बातको प्रमाण मानते हैं तो इस बालकको छोड़ दीजिये ॥ २४ ॥
व्यास क्त्वच अनादृत्य च तद्वाक्यं राजा दुःखातुरो भृशम् । न मुमोच मुनिस्तस्मै चूकोपातीव तापसः ॥ २५ ॥
व्यासजी बोले-दुःखसे अत्यन्त पीड़ित राजाने मुनिकी बातका अनादर करके उस बालकको नहीं छोड़ा; इससे वे तपस्वी मुनि उनके ऊपर अत्यन्त क्रुद्ध हो गये ॥ २५ ॥
वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ उन दयालु विश्वामित्रने शुनःशेपको पाशधारी वरुणदेवके मन्त्रका उपदेश दिया । अपने वधके भयसे व्याकुल शुनःशेप भी वरुणदेवका स्मरण करते हुए उच्च स्वरसे बार-बार मन्त्रका जप करने लगा ॥ २६-२७ ॥
जलचरोंके अधिपति करुणासिन्धु वरुणदेवने वहाँ आकर स्तुति करते हुए उस ब्राह्मणपुत्र शुन:-शेषको छुड़ा दिया और राजाको रोगमुक्त करके वे वरुणदेव अपने लोकको चले गये । विश्वामित्रने उस बालकको मृत्युसे मुक्ति प्रदान कर दी ॥ २८-२९ ॥
न कृतं वचनं राज्ञा कौशिकस्य महात्मनः । रोषं दधार मनसा राजोपरि स गाधिजः ॥ ३० ॥
राजाने महात्मा विश्वामित्रकी बात नहीं मानी, अतः वे गाधिपुत्र विश्वामित्र मन-ही-मन राजाके ऊपर बहुत क्रुद्ध हुए ॥ ३० ॥
एकस्मिन्समये राजा हयारूढो वनं गतः । सूकरं हन्तुकामस्तु मध्याह्ने कौशिकीतटे ॥ ३१ ॥
एक समय राजा घोड़ेपर सवार होकर वनमें गये । वे सूअरको मारनेकी इच्छासे ठीक दोपहरके समय कौशिकी नदीके तटपर पहुँचे ॥ ३१ ॥
जिससे [वसिष्ठके] यजमान राजा हरिश्चन्द्र अत्यन्त कष्ट पाने लगे । एक बार संयोगवश वनमें आये हुए विश्वामित्रसे वसिष्ठने कहा-हे क्षत्रियाधम ! हे दुर्बुद्धे ! तुमने व्यर्थ ही ब्राह्मणका वेश बना रखा है, बगुलेके समान वृत्तिवाले हे दाम्भिक ! तुम व्यर्थमें गर्व क्यों करते हो ? ॥ ३३-३४ ॥
तुम बगुलेके समान ध्यानपरायण हो । अत: तुम 'बक' (बगुला) हो जाओ । वसिष्ठके द्वारा इस प्रकार शापप्राप्त विश्वामित्रने उनसे कहा-हे आयुष्मन् ! जबतक मैं बक रहूँगा, तबतक तुम भी आडी पक्षी बनकर रहोगे ॥ ३६ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार क्रोधसे व्याकुल उन दोनोंने एक-दूसरेको शाप दे दिया और एक सरोवरके समीप वे दोनों मुनि 'आडी' और 'बक' के रूपमें अण्डोंसे उत्पन्न हुए । दिव्य मानसरोवरके तटपर एक वृक्षपर घोंसला बनाकर बकरूपधारी विश्वामित्र और एक दूसरे वृक्षपर उत्तम घोंसला बनाकर आडीरूपधारी वसिष्ठ परस्पर द्वेषपरायण होकर रहने लगे । वे दोनों कोपाविष्ट होकर प्रतिदिन घोर क्रन्दन करते हुए सभी लोगोंके लिये दु:खदायी युद्ध करते थे । वे दोनों चोंच और पंखोंके प्रहार तथा नखोंके आघातसे परस्पर चोट पहुँचाते थे । रक्तसे लथपथ वे दोनों खिले हुए किंशुकके फूल-जैसे प्रतीत होते थे । हे महाराज ! इस प्रकार पक्षीरूपधारी दोनों मुनि शापरूपी पाशमें जकड़े हुए वहाँ बहुत वर्षातक पड़े रहे ॥ ३७-४२.५ ॥
राजोवाच कथं मुक्तौ मुनिश्रेष्ठौ शापाद्वसिष्ठकौशिकौ ॥ ४३ ॥ तन्ममाचक्ष्व विप्रर्षे परं कौतूहलं हि मे ।
राजा बोले-हे विप्रर्षे ! वे दोनों मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ और विश्वामित्र शापसे किस प्रकार मुक्त हुए, यह मुझे बताइये, मुझे बड़ा कौतूहल है ॥ ४३.५ ॥
व्यासजी बोले-लोकपितामह ब्रह्माजी उन दोनोंको युद्ध करते देखकर समस्त दयापरायण देवताओंके साथ वहाँ आये । सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीने उन दोनोंको समझाकर युद्धसे विरत करके परस्पर दिये गये शापसे भी मुक्त कर दिया ॥ ४४-४५.५ ॥
इसके बाद सभी देवगण अपने-अपने लोकोंको चले गये, कमलयोनि प्रतापी ब्रह्माजी शीघ्र हंसपर आरूढ़ होकर सत्यलोकको चले गये और प्रजापतिके उपदेशसे परस्पर स्नेह करके विश्वामित्र तथा वसिष्ठजी भी अपनेअपने आश्रमोंको शीघ्र चले गये । हे राजन् ! इस प्रकार मैत्रावरुणि वसिष्ठने भी अकारण ही विश्वामित्रके साथ परस्पर दुःखप्रद युद्ध किया था ॥ ४६-४८ ॥
कौशिकेन समं भूप दुःखदं च परस्परम् । को नाम मानवो लोके देवो वा दानवोऽपि वा ॥ ४९ ॥ अहङ्कारजयं कृत्वा सर्वदा सुखभाग्भवेत् । तस्माद्राजंश्चित्तशुद्धिर्महतामपि दुर्लभा ॥ ५० ॥ यत्नेन साधनीया सा तद्विहीनं निरर्थकम् । तीर्थं दानं तपः सत्यं यत्किञ्चिद्धर्मसाधनम् ॥ ५१ ॥
इस संसारमें मनुष्य, देवता या दैत्य-कौन ऐसा है, जो अहंकारपर विजय प्राप्तकर सदा सुखी रह सके । अत: हे राजन् ! चित्तकी शुद्धि महापुरुषोंके लिये भी दुर्लभ है । उसे प्रयत्नपूर्वक शुद्ध करना चाहिये । उसके बिना तीर्थयात्रा, दान, तपस्या, सत्य आदि जो कुछ भी धर्मसाधन है; वह सब निरर्थक है ॥ ४९-५१ ॥
(सबके देहोंमें तथा प्राणियोंके धर्मकर्मोंमें सात्त्विकी, राजसी और तामसी-यह तीन प्रकारकी श्रद्धा कही गयी है । इनमें यथोक्त फल देनेवाली सात्त्विकी श्रद्धा जगतमें सदा दुर्लभ होती है । विधिविधानसे युक्त राजसी श्रद्धा उसका आधा फल देनेवाली कही गयी है । हे राजन् ! काम-क्रोधके वशीभूत पुरुषोंकी श्रद्धा तामसी होती है । हे नृपश्रेष्ठ ! वह फलविहीन होती है और कीर्ति करनेवाली भी नहीं होती । ) कलियुगके दोषोंसे भयभीत व्यक्तिको कथाश्रवण आदिके द्वारा चित्तको वासनारहित करके देवीकी पूजामें तत्पर रहते हुए, वाणीसे देवीके नामोंको ग्रहण करते हुए, उनके गुणोंका कीर्तन करते हुए तथा उनके चरण-कमलका ध्यान करते हुए तीर्थ आदिमें नित्य वास करना चाहिये ॥ ५२-५३ ॥
एवं तु कुर्वतस्तस्य न कदाचित्कलेर्भयम् । अनायासेन संसारान्मुच्यते पातकी जनः ॥ ५४ ॥
ऐसा करनेसे उसे कभी कलियुगका भय नहीं होगा, इससे पापी प्राणी भी अनायास ही संसारसे मुक्त हो जाता है ॥ ५४ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादलसाहस्र्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे आडीबकयुद्ध वर्णनसहितं देवीमाहात्म्यवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥