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वसिष्ठस्य मैत्रावरुणिरितिनामवर्णनम् -
राजा निमि और वसिष्ठका एक-दूसरेको शाप देना, वसिष्ठका मित्रावरुणके पुत्रके रूपमें जन्म लेना -
जनमेजय उवाच मैत्रावरुणिरित्युक्तं नाम तस्य मुनेः कथम् । वसिष्ठस्य महाभाग ब्रह्मणस्तनुजस्य ह ॥ १ ॥ किमसौ कर्मतो नाम प्राप्तवान् गुणतस्तथा । ब्रूहि मे वदतांश्रेष्ठ कारणं तस्य नामजम् ॥ २ ॥
जनमेजय बोले-हे महाभाग ! ब्रह्माके पुत्र मुनि वसिष्ठका 'मैत्रावरुणि'-यह नाम कैसे पड़ा ? हे वक्ताओंमें श्रेष्ठ ! किस कर्म अथवा गुणके कारण उन्होंने यह नाम प्राप्त किया । उनके नाम पड़नेका कारण मुझे बताइये ॥ १-२ ॥
व्यास उवाच निबोध नृपतिश्रेष्ठ वसिष्ठो ब्रह्मणः सुतः । निमिशापात्तनुं त्यक्त्वा पुनर्जातो महाद्युतिः ॥ ३ ॥
व्यासजी बोले-हे नृपश्रेष्ठ ! सुनिये, वसिष्ठजी ब्रह्माके पुत्र हैं, उन महातेजस्वीने निमिके शापसे वह शरीर त्यागकर पुनः जन्म लिया ॥ ३ ॥
मित्रावरुणयोर्यस्मात्तस्मात्तन्नाम विश्रुतम् । मैत्रावरुणिरित्यस्मिँल्लोके सर्वत्र पार्थिव ॥ ४ ॥
हे राजन् ! उनका जन्म मित्र और वरुणके यहाँ हुआ था, इसीलिये इस संसारमें सर्वत्र उनका 'मैत्रावरुणि'-यह नाम विख्यात हुआ ॥ ४ ॥
राजोवाच कस्माच्छप्तः स धर्मात्मा राज्ञा ब्रह्मात्मजो मुनिः । चित्रमेतन्मुनिं लग्नो राज्ञः शापोऽतिदारुणः ॥ ५ ॥
राजा बोले-राजा निमिने ब्रह्माजीके पुत्र धर्मात्मा वसिष्ठको शाप क्यों दिया ? राजाका वह दारुण शाप मुनिको लग गया-यह तो आश्चर्य है ! ॥ ५ ॥
अनागसं मुनिं राजा किमसौ शप्तवान्मुने । कारणं वद धर्मज्ञ तस्य शापस्य मूलतः ॥ ६ ॥
हे मुने ! निरपराध मुनिको राजाने क्यों शाप दे दिया; हे धर्मज्ञ ! उस शापका कारण यथार्थरूपमें बताइये ? ॥ ६ ॥
व्यास उवाच कारणं तु मया प्रोक्तं तव पूर्वं विनिश्चितम् । संसारोऽयं त्रिभिर्व्याप्तो राजन्मायागुणैः किल ॥ ७ ॥
व्यासजी बोले-इसका सम्यक् रूपसे निर्णीत कारण तो मैं आपको पहले ही बता चुका हूँ । हे राजन् ! यह संसार मायाके तीनों गुणोंसे व्याप्त है ॥ ७ ॥
इक्ष्वाकुवंशमें उत्पन्न निमि नामके एक राजा थे । वे रूपवान, गुणवान्, धर्मज्ञ, प्रजावत्सल सत्यवादी, दानशील, यज्ञ-कर्ता, ज्ञानी और पुण्यात्मा थे । वे बुद्धिमान् और प्रजापालक राजा निमि इक्ष्वाकुके बारहवें पुत्र थे ॥ १७-१८ ॥
तब राजाने यज्ञकार्यके लिये अपने पिता इक्ष्वाकुसे आज्ञा लेकर महात्माओंके कथनानुसार समस्त यज्ञीय सामग्री एकत्र करायी ॥ २१ ॥
भृगुमङ्गिरसं चैव वामदेवं च गौतमम् । वसिष्ठं च पुलस्त्यं च ऋचीकं पुलहं क्रतुम् ॥ २२ ॥ मुनीनामन्त्रयामास सर्वज्ञान्वेदपारगान् । यज्ञविद्याप्रवीणांश्च तापसान्वेदवित्तमान् ॥ २३ ॥
इसके बाद राजाने भृगु, अंगिरा, वामदेव गौतम, वसिष्ठ, पुलस्त्य, ऋचीक, पुलह और क्रतु-इन सर्वज्ञ, वेदमें पारंगत, यज्ञविद्याओंमें कुशल एवं वेदज्ञ मुनियों और तपस्वियोंको आमन्त्रित किया ॥ २२-२३ ॥
राजा सम्भृतसम्भारः सम्पूज्य गुरुमात्मनः । वसिष्ठं प्राह धर्मज्ञो विनयेन समन्वितः ॥ २४ ॥
समस्त सामग्री एकत्र कर धर्मज्ञ राजाने अपने गुरु वसिष्ठकी पूजा करके विनयसे युक्त होकर उनसे कहा- ॥ २४ ॥
यजेयं मुनिशार्दूल याजयस्व कृपानिधे । गुरुस्त्वं सर्ववेत्तासि कार्यं मे कुरु साम्प्रतम् ॥ २५ ॥
. हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं यज्ञ करना चाहता हूँ । अत: यज्ञ करानेकी कृपा करें । हे कृपानिधे ! आप सर्वज्ञ हैं और मेरे गुरु हैं; इस समय आप मेरा कार्य सम्पन्न कीजिये ॥ २५ ॥
यज्ञोपकरणं सर्वं समानीतं सुसंस्कृतम् । पञ्चवर्षसहस्रं तु दीक्षां कर्तुं मतिश्च मे ॥ २६ ॥
मैंने समस्त यज्ञीय सामग्री मँगवा ली है और उसका संस्कार भी करा लिया है । मेरा विचार है कि मैं पाँच हजार वर्षके लिये यज्ञ-दीक्षा ग्रहण कर लूँ ॥ २६ ॥
यस्मिन्यज्ञे समाराध्या देवी श्रीजगदम्बिका । तत्प्रीत्यर्थमहं यज्ञं करोमि विधिपूर्वकम् ॥ २७ ॥
जिस यज्ञमें भगवती जगदम्बाकी आराधना होती हो, उस यज्ञको मैं उनकी प्रसन्नताके लिये विधिपूर्वक करना चाहता हूँ ॥ २७ ॥
तच्छ्रुत्वासौ निमेर्वाक्यं वसिष्ठः प्राह भूपतिम् । इन्द्रेणाहं वृतः पूर्वं यज्ञार्थं नृपसत्तम ॥ २८ ॥ पराशक्तिमखं कर्तुमुद्युक्तः पाकशासनः । स दीक्षां गमितो देवः पञ्चवर्षशतात्मिकाम् ॥ २९ ॥ तस्मात्त्वमन्तरं तावत्प्रतिपालय पार्थिव । इन्द्रयज्ञे समाप्तेऽत्र कृत्वा कार्यं दिवस्पतेः ॥ ३० ॥
निमिकी वह बात सुनकर वसिष्ठजीने राजासे कहा-हे नृपश्रेष्ठ ! मैं इन्द्रके द्वारा यज्ञके लिये पहले ही वरण कर लिया गया हूँ । इन्द्र पराशक्तिके प्रीत्यर्थ यज्ञ करनेके लिये तत्पर हैं और देवेन्द्रने पाँच सौ वर्षतक चलनेवाले यज्ञकी दीक्षा ले ली है । अतः हे राजन् ! तबतक आप यज्ञ-सामग्रियोंकी रक्षा करें, इन्द्रके यज्ञके पूर्ण हो जानेपर उन देवराजका कार्य सम्पन्न करके मैं आ जाऊँगा । हे राजन् ! तबतक आप समयकी प्रतीक्षा करें । २८-३० ॥
आगमिष्याम्यहं राजंस्तावत्त्वं प्रतिपालय । राजोवाच मया निमन्त्रिताश्चान्ये मुनयो यज्ञकारणात् ॥ ३१ ॥ सम्भाराः सम्भृताः सर्वे पालयामि कथं गुरो । इक्ष्वाकूणां कुले ब्रह्मन्गुरुस्त्वं वेदवित्तमः ॥ ३२ ॥ कथं त्यक्त्वाद्य मे कार्यमुद्यतो गन्तुमाशु वै । न ते युक्तं द्विजश्रेष्ठ यदुत्सृज्य मखं मम ॥ ३३ ॥
राजा बोले-हे गुरुदेव ! मैंने यज्ञके लिये दूसरे बहुत-से मुनियोंको निमन्त्रित कर दिया है तथा समस्त यज्ञीय सामग्रियाँ भी एकत्र कर ली हैं, मैं इन सबको [इतने समयतक] कैसे सुरक्षित रखूगा ? हे ब्रह्मन् ! आप इक्ष्वाकुवंशके वेदवेत्ता गुरु हैं, आज मेरा कार्य छोड़कर आप अन्यत्र जानेके लिये क्यों उद्यत हैं ? हे द्विजश्रेष्ठ ! यह आपके लिये उचित नहीं है जो कि लोभसे व्याकुलचित्तवाले आप मेरा यज्ञ छोड़कर अन्यत्र जा रहे हैं ॥ ३१-३३ ॥
राजाके इस प्रकार रोकनेपर भी वे गुरु वसिष्ठ इन्द्रके यज्ञमें चले गये । राजाने भी उदास होकर [अपना आचार्य बनाकर] गौतमऋषिका पूजन किया । उन्होंने हिमालयके पार्श्वभागमें समुद्रके निकट यज्ञ किया और उस यज्ञकर्ममें ब्राह्मणोंको बहुत दक्षिणा दी । हे राजन् ! निमिने उस पाँच हजार वर्षवाले यज्ञकी दीक्षा ली और ऋत्विजोंको उनके इच्छानुसार धन और गौएँ प्रदान करके उनकी पूजा की, जिससे वे बहुत प्रसन्न हुए ॥ ३४-३६ ॥
उस समय राजा निमि सोये हुए थे और उन्हें गहरी नींद आ गयी थी । सेवकोंने उन्हें नहीं जगाया, जिससे वे राजा मुनिके पास न आ सके । तब अपमानके कारण वसिष्ठजीको क्रोध आ गया । मिलनेके लिये निमिकेन आनेसे मुनिश्रेष्ठ कुपित हो उठे । क्रोधके वशीभूत हुए उन मुनिने राजाको शाप दे दिया–'हे मूर्ख पार्थिव ! मेरे द्वारा मना किये जानेपर भी तुम मुझ गुरुका त्याग करके दूसरेको अपना गुरु बनाकर शक्तिके अभिमानमें मेरी अवहेलना करके यज्ञमें दीक्षित हो गये हो, उससे तुम विदेह हो जाओगे । हे राजन् ! तुम्हारा यह शरीर नष्ट हो जाय और तुम विदेह हो जाओ' ॥ ३९-४२.५ ॥
व्यास उवाच इति तद्व्याहृतं श्रुत्वा राज्ञस्तु परिचारकाः ॥ ४३ ॥ सद्यः प्रबोधयामासुर्मुनिमाहुः प्रकोपितम् । कुपितं तं समागत्य राजा विगतकल्मषः ॥ ४४ ॥ उवाच वचनं श्लक्ष्णं हेतुगर्भं च युक्तिमत् ।
व्यासजी बोले-उनका यह शापवचन सुनकर राजाके सेवकोंने शीघ्रतासे जाकर राजाको जगाया और उन्हें बताया कि मुनि वसिष्ठ बहुत क्रोधित हो गये हैं, तब उन कुपित मुनिके पास आकर निष्पाप राजाने मधुर शब्दोंमें युक्तिपूर्ण तथा सारगर्भित वचन कहा- ॥ ४३-४४.५ ॥
हे धर्मज्ञ ! इसमें मेरा दोष नहीं है, आप ही लोभके वशीभूत होकर मेरे बार-बार अनुरोध करनेपर भी मुझ यजमानको छोड़कर चले गये । हे विप्रवर ! हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! ब्राह्मणको सदा सन्तोष रखना चाहिये-धर्मके इस सिद्धान्तको जानते हुए भी ऐसा निन्दित कर्म करके आपको लज्जा नहीं आ रही है । आप तो साक्षात् ब्रह्माजीके पुत्र और वेद-वेदांगोंके सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता हैं तो भी आप ब्राह्मणधर्मकी अत्यन्त कठिन और सूक्ष्म गतिको नहीं जानते । अपना दोष मुझमें आरोपित करके आप मुझे व्यर्थ ही शाप देना चाहते हैं । सजनोंको चाहिये कि क्रोधका त्याग कर दें; क्योंकि यह चण्डालसे भी अधिक दूषित है; क्रोधके वशीभूत होकर आपने मुझे व्यर्थ ही शाप दे दिया है । अतः आपकी भी यह क्रोधयुक्त देह आज ही नष्ट हो जाय ॥ ४५-४९.५ ॥
एवं शप्तो मुनी राज्ञा राजा च मुनिना तथा ॥ ५० ॥ परस्परं प्राप्य शापं दुःखितौ तौ बभूवतुः । वसिष्ठस्त्वतिचिन्तार्तो ब्रह्माणं शरणं गतः ॥ ५१ ॥ निवेदयामास तथा शापं भूपकृतं महत् ।
इस प्रकार राजाके द्वारा मुनि और मुनिके द्वारा राजा शापित हो गये और दोनों एक-दूसरेसे शाप पाकर बहुत दु:खी हुए । तब वसिष्ठजी अत्यधिक चिन्तातुर होकर ब्रह्माजीकी शरणमें गये और उन्होंने राजाके द्वारा प्रदत्त कठिन शापके विषयमें उनसे निवेदन किया ॥ ५०-५१.५ ॥
वसिष्ठजी बोले-हे पिताजी ! राजा निमिने मुझे शाप दे दिया है कि तुम्हारा यह शरीर आज ही नष्ट हो जाय । अत: शरीर नष्ट होनेसे प्राप्त कष्टके लिये मैं क्या करूँ ? इस समय आप मुझे यह बतायें कि दूसरे शरीरकी प्राप्तिमें मेरे पिता कौन होंगे ? हे पिताजी ! दूसरे देहसे सम्बन्ध होनेपर भी मेरी स्थिति पूर्ववत् ही रहे । इस शरीरमें जैसा ज्ञान है, वैसा ही उस शरीरमें भी रहे । हे महाराज ! आप समर्थ हैं; मुझपर कृपा करने योग्य हैं ॥ ५२-५४ ॥
वसिष्ठकी बात सुनकर ब्रह्माजी अपने उस पुत्रसे बोले-तुम मित्रावरुणके तेज हो, अतः इन्हीं में प्रवेश करके स्थिर हो जाओ । कुछ समय बाद तुम उन्हींसे अयोनिज पुत्रके रूपमें प्रकट होओगे; इसमें सन्देह नहीं है । इस प्रकार पुनः शरीर प्राप्त करके तुम धर्मनिष्ठ, प्राणियोंके सुहृद, वेदवेत्ता, सर्वज्ञ और सबके द्वारा पूजित होओगे ॥ ५५-५७ ॥
पिताके ऐसा कहनेपर वसिष्ठजी प्रसन्नतापूर्वक पितामह ब्रह्माजीकी परिक्रमा करके और उन्हें प्रणाम करके वरुणके वासस्थानको चले गये । वसिष्ठजीने अपने उत्तम देहका त्याग करके मित्र और वरुणके शरीरमें जीवांशरूपसे प्रवेश किया ॥ ५८-५९ ॥
कदाचित्तूर्वशी राजन्नागता वरुणालयम् । यदृच्छया वरारोहा सखीगणसमावृता ॥ ६० ॥
हे राजन् ! किसी समय परम सुन्दरी अप्सरा उर्वशी अपनी सखियोंके साथ स्वेच्छापूर्वक मित्रावरुणके स्थानपर आयी ॥ ६० ॥
हे राजन् ! उस रूपयौवनसे सम्पन्न दिव्य अप्सराको देखकर वे दोनों देवता कामातर हो गये और समस्त सुन्दर अंगोंवाली उस मनोरम देवकन्यासे कहने लगेहे प्रशस्त अंगोंवाली ! विवश तथा व्याकुल हम दोनोंका तुम वरण कर लो और हे वरवर्णिनि ! तुम अपनी इच्छाके अनुसार इस स्थानपर विहार करो । उनके इस प्रकार कहनेपर वह देवी उर्वशी मन स्थिर करके मित्रावरुणके घरमें उन दोनोंके साथ विवश होकर रहने लगी । प्रिय दर्शनवाली वह अप्सरा उन दोनोंके भावोंको समझकर वहीं रहने लगी ॥ ६१-६४ ॥
दैववशात् वहाँ रखे हुए एक आवरणरहित कुम्भमें दोनोंका वीर्य स्खलित हो गया; और हे राजन् ! उसमेंसे दो अत्यन्त सुन्दर मुनिकुमारोंने जन्म लिया । उनमें पहले अगस्ति थे और दूसरे वसिष्ठ थे । इस प्रकार मित्र और वरुणके तेजसे वे दोनों ऋषि श्रेष्ठ तपस्वी प्रकट हुए । ६५-६६ ॥