अहो, यज्ञमें दीक्षित ये धर्मनिष्ठ राजा शापसे दग्ध हो गये हैं और यज्ञ भी अपूर्ण ही रह गया हैऐसेमें हम सबको क्या करना चाहिये ? अब हम क्या करें ? यह तो विपरीत कार्य हो गया । भवितव्यताके अवश्य होनेके कारण इसका निवारण करने में हम असमर्थ हैं ॥ ४-५ ॥
तब उन महात्मा राजाको देहको ऋत्विजोंने अनेक प्रकारके मन्त्रोंसे सुरक्षित रखा; उनकी श्वास मन्द गतिसे चल रही थी । मन्त्रशक्तिसे उनकी निर्विकार आत्माको देहमें प्रतिष्ठित करके ऋत्विजोंने उसे अनेक प्रकारके गन्ध, माल्य आदिसे सुपूजित कर रखा था ॥ ६-७ ॥
समाप्ते च क्रतौ तत्र देवाः सर्वे समागताः । ऋत्विग्भिस्तु स्तुताः सर्वे सुप्रीताश्चाभवन्नृप ॥ ८ ॥ विज्ञप्ता मुनिभिः स्तोत्रैर्निर्विण्णात्मानमब्रुवन् । प्रसन्नाः स्म महीपाल वरं वरय सुव्रत ॥ ९ ॥ यज्ञेनानेन राजर्षे वरं जन्म विधीयते । देवदेहं नृदेहं वा यत्ते मनसि वाञ्छितम् ॥ १० ॥
यज्ञके सम्पूर्ण होनेपर वहाँ सभी देवगण आये । हे राजन् ! ऋत्विजोंने उन सबकी स्तुति की, जिससे वे बहुत प्रसन्न हुए । मुनियोंके द्वारा राजाके विषयमें समस्त बातोंको जान लेनेपर स्तोत्रोंसे सन्तुष्ट देवताओंने दुःखी मनवाले राजासे कहा-हे राजन् ! हे सुव्रत ! हम प्रसन्न हैं;वर मागिये । हे राजर्षे ! इस यज्ञके कारण आपको श्रेष्ठ जन्म प्राप्त हो सकता है । देवशरीर, मनुष्यशरीर अथवा आपके मनमें जो इच्छा हो, उसे आप प्राप्त कर सकते हैं । जैसे कि आपके पुरोहित वसिष्ठ गर्वयुक्त होकर मर्त्यलोकमें सुखपूर्वक रह रहे हैं ॥ ८-१० ॥
दृप्तः कामं पुरोधास्ते मृत्युलोके यथासुखम् । एवमुक्तो निमेरात्मा सन्तुष्टस्तानुवाच ह ॥ ११ ॥ न देहे मम वाञ्छास्ति सर्वदैव विनश्वरे । वासो मे सर्वसत्त्वानां दृष्टावस्तु सुरोत्तमाः ॥ १२ ॥ नेत्रेषु सर्वभूतानां वायुभूतश्चराम्यहम् ।
उनके ऐसा कहनेपर निमिकी आत्माने परम सन्तुष्ट होकर उनसे कहा-हे श्रेष्ठ देवगण ! सर्वदा विनष्ट होनेवाली इस देहमें रहनेकी मेरी इच्छा नहीं है, सम्पूर्ण प्राणियोंकी दृष्टिमें मेरा निवास हो, जिससे मैं वायुरूप होकर समस्त प्राणियोंके नेत्रों में विचरण करूँ ॥ ११-१२.५ ॥
एवमुक्ताः सुरास्तत्र निमेरात्मानमब्रुवन् ॥ १३ ॥ प्रार्थय त्वं महाराज देवीं सर्वेश्वरीं शिवाम् । मखेनानेन सन्तुष्टा सा तेऽभीष्टं विधास्यति ॥ १४ ॥
उनसे ऐसा कहे जानेपर देवताओंने निमिकी आत्मासे कहा-हे महाराज ! आप कल्याणकारिणी तथा सबकी ईश्वरी भगवतीकी आराधना करें । आपके इस यज्ञसे प्रसन्न होकर वे आपका अभीष्ट अवश्य पूर्ण करेंगी ॥ १३-१४ ॥
स देवैरेवमुक्तस्तु प्रार्थयामास देवताम् । स्तोत्रैर्नानाविधैर्दिव्यैर्भक्त्या गद्गदया गिरा ॥ १५ ॥
देवताओंके ऐसा कहनेपर उन्होंने अनेक प्रकारके दिव्य स्तोत्रोंद्वारा भक्तिपूर्वक गद्गद वाणीमें देवीकी प्रार्थना की ॥ १५ ॥
प्रसन्ना सा तदा देवी प्रत्यक्षं दर्शनं ददौ । कोटिसूर्यप्रतीकाशं रूपं लावण्यदीपितम् । १६ दृष्ट्वा प्रमुदिताः सर्वे कृतकृत्याश्च चेतसि । प्रसन्नायां देवतायां राजा वव्रे वरं नृप ॥ १७ ॥ ज्ञानं तद्विमलं देहि येन मोक्षो भवेदपि । नेत्रेषु सर्वभूतानां निवासो मे भवेदिति ॥ १८ ॥
तब प्रसन्न होकर देवीने उन्हें साक्षात् दर्शन दिया । उनके करोड़ों सूर्योकी प्रभाके समान तथा लावण्यसे दीप्तिमान रूपको देखकर सभी कृतकृत्य हो गये और उनके मनमें परम प्रसन्नता हुई । हे राजन् ! देवीके प्रसन्न हो जानेपर राजाने वर माँगा-मुझे वह विमल ज्ञान दीजिये, जिससे मोक्ष प्राप्त हो जाय तथा समस्त प्राणियोंके नेत्रों में मेरा निवास हो जाय ॥ १६-१८ ॥
ततः प्रसन्ना देवेशी प्रोवाच जगदम्बिका । ज्ञानं ते विमलं भूयात्प्रारब्धस्यावशेषतः ॥ १९ ॥ नेत्रेषु सर्वभूतानां निवासोऽपि भविष्यति । निमिषं यान्ति चक्षूंषि त्वत्कृतेनैव देहिनाम् ॥ २० ॥ तव वासात्सनिमिषा मानवाः पशवस्तथा । पतङ्गाश्च भविष्यन्ति पुनश्चानिमिषाः सुराः ॥ २१ ॥
तब प्रसन्न हुई देवेश्वरी जगदम्बाने कहा-तुम्हें विमल ज्ञान प्राप्त होगा, परंतु अभी तुम्हारा प्रारब्ध शेष है । समस्त प्राणियोंके नेत्रोंमें तुम्हारा निवास भी होगा । तुम्हारे कारण ही प्राणियोंके नेत्रोंमें पलक गिरानेकी शक्ति होगी । तुम्हारे निवासके कारण ही मनुष्य, पशु तथा पक्षी 'निमिष' (पलक गिरानेवाले) तथा देवता 'अनिमिष' (पलक न गिरानेवाले) होंगे ॥ १९-२१ ॥
इति दत्त्वा वरं तस्मै तदा श्रीवरदेवता । आमन्त्र्य च मुनीन्सर्वांस्तत्रैवान्तर्हिताभवत् ॥ २२ ॥
इस प्रकार उन राजाको वर देकर और सब मुनियोंको बुलाकर वे श्रीवरदायिनी भगवती वहीं अन्तर्धान हो गयीं ॥ २२ ॥
देवीके अन्तर्धान हो जानेपर वहाँ उपस्थित मुनिगण विधिवत् विचार करके निमिके शरीरको ले आये और पुत्रप्राप्तिके लिये उसपर अरणिकाष्ठ रखकर वे महात्मा मन्त्र पढ़कर मन्त्रहोमके द्वारा निमिके देहका मन्थन करने लगे ॥ २३-२४ ॥
तब अरणिके मन्थनसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो समस्त लक्षणोंसे सम्पन्न और साक्षात् दूसरे निमिकी भाँति था । अरणिके मन्थनसे इसका जन्म हुआ था, अत: यह 'मिथि'-ऐसा कहा गया और जनकसे जन्म होनेके कारण 'जनक' यह नामवाला हुआ । राजा निमि विदेह हुए, अत: उनके कुलमें उत्पन्न सभी राजा 'विदेह' ऐसा कहे गये ॥ २५-२७ ॥
एवं निमिसुतो राजा प्रथितो जनकोऽभवत् । नगरी निर्मिता तेन गङ्गातीरे मनोहरा ॥ २८ ॥ मिथिलेति सुविख्याता गोपुराट्टालसंयुता । धनधान्यसमायुक्ता हट्टशालाविराजिता ॥ २९ ॥
इस प्रकार निमिके पुत्र राजा जनक प्रसिद्ध हए । उन्होंने गंगाके तटपर एक सुन्दर नगरीका निर्माण कराया, जो मिथिला नामसे विख्यात है । यह गोपुरों, अट्टालिकाओं तथा धन-धान्यसे सम्पन्न और बाजारोंसे सुशोभित है ॥ २८-२९ ॥
वसिष्ठजी श्रेष्ठ ब्राह्मण थे, राजाके पुरोहित थे और वे कमलयोनि ब्रह्माजीके पुत्र थे, तब राजा निमिने उन मुनिको कैसे शाप दिया ? निमिने उन्हें गुरु और ब्राह्मण जानकर क्षमा क्यों नहीं किया । यज्ञजैसा शुभ कार्य करनेपर भी उन्हें क्रोध कैसे आ गया ? धर्मका रहस्य जान करके भी इक्ष्वाकुवंशमें उत्पन्न राजाने क्रोधके वशीभूत होकर अपने ब्राहाण गुरुको शाप क्यों दिया ? ॥ ३३-३५ ॥
व्यास उवाच क्षमातिदुर्लभा राजन्प्राणिभिरजितात्मभिः । क्षमावान्दुर्लभो लोके सुसमर्थो विशेषतः ॥ ३६ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! अजितेन्द्रिय प्राणियोंके लिये क्षमा अत्यन्त दुर्लभ है, विशेषरूपसे सामर्थ्यशाली व्यक्तिका क्षमाशील होना इस संसारमें दुर्लभ है ॥ ३६ ॥
मुनिको चाहिये कि वह सभी आसक्तियोंका परित्याग करनेवाला, तपस्वी, निद्रा तथा भूखपर विजय प्राप्त करनेवाला और योगाभ्यासमें सम्यक् रूपसे निष्ठा रखनेवाला हो ॥ ३७ ॥
कामः क्रोधस्तथा लोभो ह्यहङ्कारश्चतुर्थकः । दुर्ज्ञेया देहमध्यस्था रिपवस्तेन सर्वथा ॥ ३८ ॥ न भूतपूर्वः संसारे न चैव वर्ततेऽधुना । भविता न पुमान्कश्चिद्यो जयेत रिपूनिमान् ॥ ३९ ॥
काम, क्रोध, लोभ और चौथा अहंकार-येशत्रु शरीरमें सदा विद्यमान रहते हैं जो सर्वथा दुर्जेय होते हैं । संसारमें न पहले कोई व्यक्ति हुआ है, न इस समय है और न तो आगे होगा जो इन शत्रुओंको जीत सके ॥ ३८-३९ ॥
न स्वर्गे न च भूलोके ब्रह्मलोके हरेः पदे । कैलासे नेदृशः कश्चिद्यो जयेत रिपूनिमान् ॥ ४० ॥
न स्वर्गमें, न पृथ्वीलोकमें, न ब्रह्मलोकमें, न विष्णुलोकमें और न तो कैलासमें भी ऐसा कोई व्यक्ति है, जो इन शत्रुओंको जीत सके ॥ ४० ॥
ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी त्रिगुणसे बँधे हुए हैं; उनके भी शरीरोंमें गुणोंके पृथक्-पृथक् भाव उत्पन्न होते हैं । जब एकमात्र सत्त्वप्रधान देवताओंकी भी यह स्थिति है तो फिर मनुष्योंकी क्या बात ? हे राजन् ! गुणोंका संकर (मेल) सर्वत्र विद्यमान है । कभी सत्त्वगुणकी वृद्धि होती है, कभी रजोगुणकी वृद्धि होती है, कभी तमोगुणकी वृद्धि हो जाती है और कभी तीनों गुण बराबर हो जाते हैं ॥ ४४-४६ ॥
वे परमात्मा निर्गुण, निर्लेप, परम अविनाशी, सभी प्राणियोंसे अलक्ष्य, अप्रमेय और सनातन हैं । उसी प्रकार वे परमा शक्ति भी निर्गुण, ब्रह्ममें स्थित, अल्पबुद्धि प्राणियोंके द्वारा दुर्जेय, समस्त प्राणियोंकी आश्रय हैं । परमात्मा और पराशक्ति-उन दोनोंमें सदासे ऐक्य है । उनका स्वरूप अभिन्न है-यह जानकर प्राणी समस्त दोषोंसे मुक्त हो जाता है । इस ज्ञानसे मुक्ति हो जाती है-यह वेदान्तका डिंडिमघोष है । जो यह जान लेता है, वह इस त्रिगुणात्मक संसारसे मुक्त हो जाता है ॥ ४७-५० ॥
ज्ञान भी दो प्रकारका कहा गया है । प्रथम शाब्दिक ज्ञान बताया गया है । वह ज्ञान बुद्धिकी सहायतासे वेद और शास्त्रके अर्थविज्ञानद्वारा प्राप्त हो जाता है । बुद्धिवैभिन्न्यके अनुसार इस ज्ञानके भी बहुत-से भेद हो जाते हैं । (इनमेंसे कुछ ज्ञान कतर्कसे और कुछ सुतकसे कल्पित होते हैं । कुतर्कोसे भ्रान्तिकी उत्पत्ति होती है और विभ्रमसे बुद्धिनाश हो जाता है । बुद्धिनाशसे प्राणियोंका ज्ञान नष्ट हो जाना कहा गया है । ) हे राजन् ! अनुभव नामक वह दूसरा ज्ञान तो दुर्लभ होता है । वह ज्ञान तब प्राप्त होता है, जब उसके जाननेवालेका संग हो जाय । हे भारत ! शब्दज्ञानसे कार्यकी सिद्धि नहीं होती, इसलिये अनुभवज्ञान अत्यन्त अलौकिक होता है । शब्दज्ञान अन्त:करणके अन्धकारको दूर करनेमें उसी प्रकार समर्थ नहीं है जैसे दीपकसम्बन्धी वार्ता करनेसे अन्धकार नष्ट नहीं होता ॥ ५१-५४.५ ॥
कर्म वही है, जो बन्धन न करे और विद्या वही है जो मुक्तिके लिये हो । अन्य कर्म तो मात्र परिश्रमके लिये होता है तथा दूसरी विद्या तो मात्र शिल्पसम्बन्धी कौशल है । शील, परोपकार, क्रोधका अभाव, क्षमा, धैर्य और सन्तोष-यह सब विद्याका अत्यन्त उत्तम फल है । हे भूपते ! विद्या, तपस्या अथवा योगाभ्यासके बिना काम आदि शत्रुओंका नाश कभी नहीं हो सकता । (हे राजन् ! मन चंचल और स्वभावतः अति दुर्ग्रह होता है, तीनों लोकोंमें तीनों प्रकारके प्राणी उसी मनके वशमें रहते हैं) काम-क्रोध आदि भाव चित्तजन्य कहे गये हैं । ये सब उस समय नहीं उत्पन्न होते, जब मनपर विजय पा ली जाती है । हे राजन् ! इसीलिये निमिने मुनिको उस प्रकार क्षमा नहीं किया, जिस प्रकार ययातिने अपराध करनेपर भी शुक्राचार्यको क्षमा कर दिया था । पूर्वकालमें भृगुपुत्र शुक्राचार्यने नृपश्रेष्ठ ययातिको शाप दे दिया था, लेकिन राजाने क्रोधित होकर मुनिको शाप नहीं दिया और स्वयं वृद्धावस्थाको स्वीकार कर लिया था ॥ ५५-६० ॥
हे राजन् ! कोई राजा शान्तस्वभाव और कोई क्रूर होता है । स्वभावमें भेद होनेके कारण इसमें किसका दोष कहा जाय ? पूर्वकालमें हैहयवंशी क्षत्रियोंने ब्रह्महत्याजनित पापकी उपेक्षा करके धनके लोभसे भृगुवंशी ब्राह्मण पुरोहितोंका कोपाविष्ट होकर समूलोच्छेद कर दिया था । ६१-६३ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे देवीमहिम्नि नानाभाववर्णनं नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥