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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
षष्ठः स्कन्धः
पञ्चदशोऽध्यायः

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देवीमहिम्नि नानाभाववर्णनम् -
भगवतीकी कृपासे निमिको मनुष्योंके नेत्र-पलकोंमें वासस्थान मिलना तथा संसारी प्राणियोंकी त्रिगुणात्मकताका वर्णन -


जनमेजय उवाच
देहप्राप्तिर्वसिष्ठस्य कथिता भवता किल ।
निमिः कथं पुनर्देहं प्राप्तवानिति मे वद ॥ १ ॥
जनमेजय बोले-आपने वसिष्ठकी शरीरप्राप्तिका वर्णन किया; निमिने पुनः किस प्रकार देह प्राप्त की; यह मुझसे कहिये ॥ १ ॥

व्यास उवाच
वसिष्ठेन च सम्प्राप्तः पुनर्देहो नराधिप ।
निमिना न तथा प्राप्तो देहः शापादनन्तरम् ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! वसिष्ठने जिस प्रकार पुनः शरीर प्राप्त किया, उस प्रकार निमिको शापके बाद पुन: देह नहीं मिली ॥ २ ॥

यदा शप्तो वसिष्ठेन तदा ते ब्राह्मणाः क्रतौ
ऋत्विजो ये वृता राज्ञा ते सर्वे समचिन्तयन् ॥ ३ ॥
जब वसिष्ठजीने शाप दिया तो राजाके द्वारा यज्ञमें वरण किये गये ब्राह्मण और ऋत्विज् विचार करने लगे- ॥ ३ ॥

किं कर्तव्यमहोऽस्माभिः शापदग्धो महीपतिः ।
अस्मिन्यज्ञे त्वसम्पूर्णे दीक्षायुक्तश्च धार्मिकः ॥ ४ ॥
किं कर्तव्यं कार्यमेतद्विपरीतमभूत्किल ।
अवश्यम्भाविभावत्वादशक्ताः स्म निवारणे ॥ ५ ॥
अहो, यज्ञमें दीक्षित ये धर्मनिष्ठ राजा शापसे दग्ध हो गये हैं और यज्ञ भी अपूर्ण ही रह गया हैऐसेमें हम सबको क्या करना चाहिये ? अब हम क्या करें ? यह तो विपरीत कार्य हो गया । भवितव्यताके अवश्य होनेके कारण इसका निवारण करने में हम असमर्थ हैं ॥ ४-५ ॥

मन्त्रैर्बहुविधैर्देहं तदा तस्य महात्मनः ।
रक्षितं धारयामासुः किञ्चिच्छ्वसनसंयुतम् ॥ ६ ॥
गन्धैर्माल्यैश्च विविधैः पूज्यमानं मुहुर्मुहुः ।
मन्त्रशक्त्या प्रतिष्टभ्य निर्विकारं सुपूजितम् ॥ ७ ॥
तब उन महात्मा राजाको देहको ऋत्विजोंने अनेक प्रकारके मन्त्रोंसे सुरक्षित रखा; उनकी श्वास मन्द गतिसे चल रही थी । मन्त्रशक्तिसे उनकी निर्विकार आत्माको देहमें प्रतिष्ठित करके ऋत्विजोंने उसे अनेक प्रकारके गन्ध, माल्य आदिसे सुपूजित कर रखा था ॥ ६-७ ॥

समाप्ते च क्रतौ तत्र देवाः सर्वे समागताः ।
ऋत्विग्भिस्तु स्तुताः सर्वे सुप्रीताश्चाभवन्नृप ॥ ८ ॥
विज्ञप्ता मुनिभिः स्तोत्रैर्निर्विण्णात्मानमब्रुवन् ।
प्रसन्नाः स्म महीपाल वरं वरय सुव्रत ॥ ९ ॥
यज्ञेनानेन राजर्षे वरं जन्म विधीयते ।
देवदेहं नृदेहं वा यत्ते मनसि वाञ्छितम् ॥ १० ॥
यज्ञके सम्पूर्ण होनेपर वहाँ सभी देवगण आये । हे राजन् ! ऋत्विजोंने उन सबकी स्तुति की, जिससे वे बहुत प्रसन्न हुए । मुनियोंके द्वारा राजाके विषयमें समस्त बातोंको जान लेनेपर स्तोत्रोंसे सन्तुष्ट देवताओंने दुःखी मनवाले राजासे कहा-हे राजन् ! हे सुव्रत ! हम प्रसन्न हैं;वर मागिये । हे राजर्षे ! इस यज्ञके कारण आपको श्रेष्ठ जन्म प्राप्त हो सकता है । देवशरीर, मनुष्यशरीर अथवा आपके मनमें जो इच्छा हो, उसे आप प्राप्त कर सकते हैं । जैसे कि आपके पुरोहित वसिष्ठ गर्वयुक्त होकर मर्त्यलोकमें सुखपूर्वक रह रहे हैं ॥ ८-१० ॥

दृप्तः कामं पुरोधास्ते मृत्युलोके यथासुखम् ।
एवमुक्तो निमेरात्मा सन्तुष्टस्तानुवाच ह ॥ ११ ॥
न देहे मम वाञ्छास्ति सर्वदैव विनश्वरे ।
वासो मे सर्वसत्त्वानां दृष्टावस्तु सुरोत्तमाः ॥ १२ ॥
नेत्रेषु सर्वभूतानां वायुभूतश्चराम्यहम् ।
उनके ऐसा कहनेपर निमिकी आत्माने परम सन्तुष्ट होकर उनसे कहा-हे श्रेष्ठ देवगण ! सर्वदा विनष्ट होनेवाली इस देहमें रहनेकी मेरी इच्छा नहीं है, सम्पूर्ण प्राणियोंकी दृष्टिमें मेरा निवास हो, जिससे मैं वायुरूप होकर समस्त प्राणियोंके नेत्रों में विचरण करूँ ॥ ११-१२.५ ॥

एवमुक्ताः सुरास्तत्र निमेरात्मानमब्रुवन् ॥ १३ ॥
प्रार्थय त्वं महाराज देवीं सर्वेश्वरीं शिवाम् ।
मखेनानेन सन्तुष्टा सा तेऽभीष्टं विधास्यति ॥ १४ ॥
उनसे ऐसा कहे जानेपर देवताओंने निमिकी आत्मासे कहा-हे महाराज ! आप कल्याणकारिणी तथा सबकी ईश्वरी भगवतीकी आराधना करें । आपके इस यज्ञसे प्रसन्न होकर वे आपका अभीष्ट अवश्य पूर्ण करेंगी ॥ १३-१४ ॥

स देवैरेवमुक्तस्तु प्रार्थयामास देवताम् ।
स्तोत्रैर्नानाविधैर्दिव्यैर्भक्त्या गद्‌गदया गिरा ॥ १५ ॥
देवताओंके ऐसा कहनेपर उन्होंने अनेक प्रकारके दिव्य स्तोत्रोंद्वारा भक्तिपूर्वक गद्गद वाणीमें देवीकी प्रार्थना की ॥ १५ ॥

प्रसन्ना सा तदा देवी प्रत्यक्षं दर्शनं ददौ ।
कोटिसूर्यप्रतीकाशं रूपं लावण्यदीपितम् । १६
दृष्ट्वा प्रमुदिताः सर्वे कृतकृत्याश्च चेतसि ।
प्रसन्नायां देवतायां राजा वव्रे वरं नृप ॥ १७ ॥
ज्ञानं तद्विमलं देहि येन मोक्षो भवेदपि ।
नेत्रेषु सर्वभूतानां निवासो मे भवेदिति ॥ १८ ॥
तब प्रसन्न होकर देवीने उन्हें साक्षात् दर्शन दिया । उनके करोड़ों सूर्योकी प्रभाके समान तथा लावण्यसे दीप्तिमान रूपको देखकर सभी कृतकृत्य हो गये और उनके मनमें परम प्रसन्नता हुई । हे राजन् ! देवीके प्रसन्न हो जानेपर राजाने वर माँगा-मुझे वह विमल ज्ञान दीजिये, जिससे मोक्ष प्राप्त हो जाय तथा समस्त प्राणियोंके नेत्रों में मेरा निवास हो जाय ॥ १६-१८ ॥

ततः प्रसन्ना देवेशी प्रोवाच जगदम्बिका ।
ज्ञानं ते विमलं भूयात्प्रारब्धस्यावशेषतः ॥ १९ ॥
नेत्रेषु सर्वभूतानां निवासोऽपि भविष्यति ।
निमिषं यान्ति चक्षूंषि त्वत्कृतेनैव देहिनाम् ॥ २० ॥
तव वासात्सनिमिषा मानवाः पशवस्तथा ।
पतङ्गाश्च भविष्यन्ति पुनश्चानिमिषाः सुराः ॥ २१ ॥
तब प्रसन्न हुई देवेश्वरी जगदम्बाने कहा-तुम्हें विमल ज्ञान प्राप्त होगा, परंतु अभी तुम्हारा प्रारब्ध शेष है । समस्त प्राणियोंके नेत्रोंमें तुम्हारा निवास भी होगा । तुम्हारे कारण ही प्राणियोंके नेत्रोंमें पलक गिरानेकी शक्ति होगी । तुम्हारे निवासके कारण ही मनुष्य, पशु तथा पक्षी 'निमिष' (पलक गिरानेवाले) तथा देवता 'अनिमिष' (पलक न गिरानेवाले) होंगे ॥ १९-२१ ॥

इति दत्त्वा वरं तस्मै तदा श्रीवरदेवता ।
आमन्त्र्य च मुनीन्सर्वांस्तत्रैवान्तर्हिताभवत् ॥ २२ ॥
इस प्रकार उन राजाको वर देकर और सब मुनियोंको बुलाकर वे श्रीवरदायिनी भगवती वहीं अन्तर्धान हो गयीं ॥ २२ ॥

अन्तर्हितायां देव्यां तु मुनयस्तत्र संस्थिताः ।
विचिन्त्य विथिवत्सर्वे निमेर्देहं समाहरन् ॥ २३ ॥
अरणिं तत्र संस्थाप्य ममन्धुर्मन्त्रवत्तदा ।
मन्त्रहोमैर्महात्मानः पुत्रहेतोर्निमेरथ ॥ २४ ॥
देवीके अन्तर्धान हो जानेपर वहाँ उपस्थित मुनिगण विधिवत् विचार करके निमिके शरीरको ले आये और पुत्रप्राप्तिके लिये उसपर अरणिकाष्ठ रखकर वे महात्मा मन्त्र पढ़कर मन्त्रहोमके द्वारा निमिके देहका मन्थन करने लगे ॥ २३-२४ ॥

अरण्यां मथ्यमानायां पुत्रः प्रादुरभूत्तदा ।
सर्वलक्षणसम्पन्नः साक्षान्निमिरिवापरः ॥ २५ ॥
अरण्या मथनाज्जातस्तस्मान्मिथिरिति स्मृतः ।
येनायं जनकाज्जातस्तेनासौ जनकोऽभवत् ॥ २६ ॥
विदेहस्तु निमिर्जातो यस्मात्तस्मात्तदन्वये ।
समुद्‌भूतास्तु राजानो विदेहा इति कीर्तिताः ॥ २७ ॥
तब अरणिके मन्थनसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो समस्त लक्षणोंसे सम्पन्न और साक्षात् दूसरे निमिकी भाँति था । अरणिके मन्थनसे इसका जन्म हुआ था, अत: यह 'मिथि'-ऐसा कहा गया और जनकसे जन्म होनेके कारण 'जनक' यह नामवाला हुआ । राजा निमि विदेह हुए, अत: उनके कुलमें उत्पन्न सभी राजा 'विदेह' ऐसा कहे गये ॥ २५-२७ ॥

एवं निमिसुतो राजा प्रथितो जनकोऽभवत् ।
नगरी निर्मिता तेन गङ्गातीरे मनोहरा ॥ २८ ॥
मिथिलेति सुविख्याता गोपुराट्टालसंयुता ।
धनधान्यसमायुक्ता हट्टशालाविराजिता ॥ २९ ॥
इस प्रकार निमिके पुत्र राजा जनक प्रसिद्ध हए । उन्होंने गंगाके तटपर एक सुन्दर नगरीका निर्माण कराया, जो मिथिला नामसे विख्यात है । यह गोपुरों, अट्टालिकाओं तथा धन-धान्यसे सम्पन्न और बाजारोंसे सुशोभित है ॥ २८-२९ ॥

वंशेऽस्मिन्येऽपि राजानस्ते सर्वे जनकास्तथा ।
विख्याता ज्ञानिनः सर्वे विदेहाः परिकीर्तिताः ॥ ३० ॥
इस वंशमें जो अन्य राजा हुए, वे सभी जनक कहे गये; वे सभी विख्यात ज्ञानी और विदेह कहे जाते थे ॥ ३० ॥

एतत्ते कथितं राजन्निमेराख्यानमुत्तमम् ।
शापाद्यस्य विदेहत्वं विस्तरादुदितं मया ॥ ३१ ॥

हे राजन् ! इस प्रकार निमिकी उत्तम कथाका मैंने आपसे वर्णन किया, शापके कारण उनके विदेह होनेको भी मैंने विस्तारसे कह दिया ॥ ३१ ॥

राजोवाच
भगवन्भवता प्रोक्तं निमिशापस्य कारणम् ।
श्रुत्वा सन्देहमापन्नं मनो मेऽतीव चञ्चलम् ॥ ३२ ॥
राजा बोले-हे भगवन् ! आपने निमिके शापका कारण बताया, इसे सुनकर मेरा मन संशयग्रस्त और अत्यन्त चंचल हो गया है ॥ ३२ ॥

वसिष्ठो ब्राह्मणः श्रेष्ठो राज्ञश्चैव पुरोहितः ।
पुत्रः पङ्कजयोनेस्तु राज्ञा शप्तः कथं मुनिः ॥ ३३ ॥
गुरुं च ब्राह्मणं ज्ञात्वा निमिना न कृता क्षमा ।
यज्ञकर्म शुभं कृत्वा कथं क्रोधमुपागतः ॥ ३४ ॥
ज्ञात्वा धर्मस्य विज्ञानं कथमिक्ष्वाकुसम्भवः ।
क्रोधस्य वशमापन्तः शप्तवान्ब्राह्मणं गुरुम् ॥ ३५ ॥
वसिष्ठजी श्रेष्ठ ब्राह्मण थे, राजाके पुरोहित थे और वे कमलयोनि ब्रह्माजीके पुत्र थे, तब राजा निमिने उन मुनिको कैसे शाप दिया ? निमिने उन्हें गुरु और ब्राह्मण जानकर क्षमा क्यों नहीं किया । यज्ञजैसा शुभ कार्य करनेपर भी उन्हें क्रोध कैसे आ गया ? धर्मका रहस्य जान करके भी इक्ष्वाकुवंशमें उत्पन्न राजाने क्रोधके वशीभूत होकर अपने ब्राहाण गुरुको शाप क्यों दिया ? ॥ ३३-३५ ॥

व्यास उवाच
क्षमातिदुर्लभा राजन्प्राणिभिरजितात्मभिः ।
क्षमावान्दुर्लभो लोके सुसमर्थो विशेषतः ॥ ३६ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! अजितेन्द्रिय प्राणियोंके लिये क्षमा अत्यन्त दुर्लभ है, विशेषरूपसे सामर्थ्यशाली व्यक्तिका क्षमाशील होना इस संसारमें दुर्लभ है ॥ ३६ ॥

सर्वसङ्गपरित्यागी मुनिर्भवतु तापसः ।
निद्राक्षुधोर्विजेता च योगाभ्यासे सुनिष्ठितः ॥ ३७ ॥
मुनिको चाहिये कि वह सभी आसक्तियोंका परित्याग करनेवाला, तपस्वी, निद्रा तथा भूखपर विजय प्राप्त करनेवाला और योगाभ्यासमें सम्यक् रूपसे निष्ठा रखनेवाला हो ॥ ३७ ॥

कामः क्रोधस्तथा लोभो ह्यहङ्कारश्चतुर्थकः ।
दुर्ज्ञेया देहमध्यस्था रिपवस्तेन सर्वथा ॥ ३८ ॥
न भूतपूर्वः संसारे न चैव वर्ततेऽधुना ।
भविता न पुमान्कश्चिद्यो जयेत रिपूनिमान् ॥ ३९ ॥
काम, क्रोध, लोभ और चौथा अहंकार-येशत्रु शरीरमें सदा विद्यमान रहते हैं जो सर्वथा दुर्जेय होते हैं । संसारमें न पहले कोई व्यक्ति हुआ है, न इस समय है और न तो आगे होगा जो इन शत्रुओंको जीत सके ॥ ३८-३९ ॥

न स्वर्गे न च भूलोके ब्रह्मलोके हरेः पदे ।
कैलासे नेदृशः कश्चिद्यो जयेत रिपूनिमान् ॥ ४० ॥
न स्वर्गमें, न पृथ्वीलोकमें, न ब्रह्मलोकमें, न विष्णुलोकमें और न तो कैलासमें भी ऐसा कोई व्यक्ति है, जो इन शत्रुओंको जीत सके ॥ ४० ॥

मुनयो ब्रह्मपुत्राश्च तथान्ये तापसोत्तमाः ।
तेऽपि गुणत्रयाविद्धाः किं पुनर्मानवा भुवि ॥ ४१ ॥
जो मुनिगण, ब्रह्माजीके सभी पुत्र तथा अन्य श्रेष्ठ तपस्वीलोग हैं, वे भी तीनों गुणोंसे बंधे रहते हैं, तो मर्त्यलोकके मनुष्योंकी बात ही क्या ? ॥ ४१ ॥

कपिलः सांख्यवेत्ता च योगाभ्यासरतः शुचिः ।
तेनापि दैवयोगाद्धि प्रदग्धाः सगरात्मजाः ॥ ४२ ॥
कपिलमुनि सांख्यशास्त्रके ज्ञाता, योगाभ्यासपरायण और शुद्ध चित्तवाले थे, किंतु उन्होंने भी दैववश सगर-पुत्रोंको भस्म कर दिया ॥ ४२ ॥

तस्माद्राजन्नहङ्कारात्सञ्जातं भुवनत्रयम् ।
कार्यकारणभावात्तु तद्वियुक्तं कथं भवेत् ॥ ४३ ॥
अतः हे राजन् ! कार्य-कारणस्वरूप अहंकारसे ही यह त्रिलोक उत्पन्न हुआ है, तो फिर मनुष्य उससे वियुक्त कैसे रह सकता है ? ॥ ४३ ॥

ब्रह्मा गुणत्रयाविष्टो विष्णुश्चैवाथ शङ्करः ।
प्रभवन्ति शरीरेषु तेषां भावाः पृथक्पृथक् ॥ ४४ ॥
मानवानां च का वार्ता सत्त्वैकान्तव्यवस्थितौ ।
गुणानां सङ्करो राजन्सर्वत्र समवस्थितः ॥ ४५ ॥
कदाचित्सत्त्ववृद्धिः स्यात्कदाचिद्‌रजसः किल ।
कदाचित्तमसो वृद्धिः समभावः कदाचन ॥ ४६ ॥
ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी त्रिगुणसे बँधे हुए हैं; उनके भी शरीरोंमें गुणोंके पृथक्-पृथक् भाव उत्पन्न होते हैं । जब एकमात्र सत्त्वप्रधान देवताओंकी भी यह स्थिति है तो फिर मनुष्योंकी क्या बात ? हे राजन् ! गुणोंका संकर (मेल) सर्वत्र विद्यमान है । कभी सत्त्वगुणकी वृद्धि होती है, कभी रजोगुणकी वृद्धि होती है, कभी तमोगुणकी वृद्धि हो जाती है और कभी तीनों गुण बराबर हो जाते हैं ॥ ४४-४६ ॥

निर्गुणः परमात्मासौ निर्लेपः परमोऽव्ययः ।
अलक्ष्यः सर्वसत्त्वानामप्रमेयः सनातनः ॥ ४७ ॥
तथैव परमा शक्तिर्निर्गुणा ब्रह्मसंस्थिता ।
दुर्ज्ञेया चाल्पमतिभिः सर्वभूतव्यवस्थितिः ॥ ४८ ॥
परात्मनस्तथा शक्तेस्तयोरैक्यं सदैव हि ।
अभिन्नं तद्वपुर्ज्ञात्वा मुच्यते सर्वदोषतः ॥ ४९ ॥
तज्ज्ञानादेव मोक्षः स्यादिति वेदान्तडिण्डिमः ।
यो वेद स विमुक्तोऽस्मिन्संसारे त्रिगुणात्मके ॥ ५० ॥
वे परमात्मा निर्गुण, निर्लेप, परम अविनाशी, सभी प्राणियोंसे अलक्ष्य, अप्रमेय और सनातन हैं । उसी प्रकार वे परमा शक्ति भी निर्गुण, ब्रह्ममें स्थित, अल्पबुद्धि प्राणियोंके द्वारा दुर्जेय, समस्त प्राणियोंकी आश्रय हैं । परमात्मा और पराशक्ति-उन दोनोंमें सदासे ऐक्य है । उनका स्वरूप अभिन्न है-यह जानकर प्राणी समस्त दोषोंसे मुक्त हो जाता है । इस ज्ञानसे मुक्ति हो जाती है-यह वेदान्तका डिंडिमघोष है । जो यह जान लेता है, वह इस त्रिगुणात्मक संसारसे मुक्त हो जाता है ॥ ४७-५० ॥

ज्ञानं तु द्विविधं प्रोक्तं शाब्दिकं प्रथमं स्मृतम् ।
वेदशास्त्रार्थविज्ञानात्तद्‌भवेद्‌बुद्धियोगतः ॥ ५१ ॥
विकल्पास्तत्र बहवो भवन्ति मतिकल्पिताः ।
(कुतर्ककल्पिताः केचित्सतर्ककल्पिताः परे ।
वितर्कैर्विभ्रमोत्पत्तिर्विभ्रमाद्‌बुद्धिभ्रंशता ।
बुद्धिभ्रंशाज्ज्ञाननाशः प्राणिनां परिकीर्तितः । )
अनुभवाख्यं द्वितीयं तु ज्ञानं तद्‌दुर्लभं नृप ॥ ५२ ॥
तत्तदा प्राप्यते तस्य वेत्तुः सङ्गो यदा भवेत् ।
शब्दज्ञानान्न कार्यस्य सिद्धिर्भवति भारत ॥ ५३ ॥
तस्मान्नानुभवज्ञानं सम्भवत्यतिमानुषम् ।
अन्तर्गतं तमश्छेत्तुं शाब्दबोधो हि न क्षमः ॥ ५४ ॥
यथा न नश्यति तमः कृतया दीपवार्तया ।
ज्ञान भी दो प्रकारका कहा गया है । प्रथम शाब्दिक ज्ञान बताया गया है । वह ज्ञान बुद्धिकी सहायतासे वेद और शास्त्रके अर्थविज्ञानद्वारा प्राप्त हो जाता है । बुद्धिवैभिन्न्यके अनुसार इस ज्ञानके भी बहुत-से भेद हो जाते हैं । (इनमेंसे कुछ ज्ञान कतर्कसे और कुछ सुतकसे कल्पित होते हैं । कुतर्कोसे भ्रान्तिकी उत्पत्ति होती है और विभ्रमसे बुद्धिनाश हो जाता है । बुद्धिनाशसे प्राणियोंका ज्ञान नष्ट हो जाना कहा गया है । ) हे राजन् ! अनुभव नामक वह दूसरा ज्ञान तो दुर्लभ होता है । वह ज्ञान तब प्राप्त होता है, जब उसके जाननेवालेका संग हो जाय । हे भारत ! शब्दज्ञानसे कार्यकी सिद्धि नहीं होती, इसलिये अनुभवज्ञान अत्यन्त अलौकिक होता है । शब्दज्ञान अन्त:करणके अन्धकारको दूर करनेमें उसी प्रकार समर्थ नहीं है जैसे दीपकसम्बन्धी वार्ता करनेसे अन्धकार नष्ट नहीं होता ॥ ५१-५४.५ ॥

तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये ॥ ५५ ॥
आयासायापरं कर्म विद्यान्या शिल्पनैपुणम् ।
शीलं परहितत्वं च कोपाभावः क्षमा धृतिः ॥ ५६ ॥
सन्तोषश्चेति विद्यायाः परिपाकोज्ज्वलं फलम् ।
विद्यया तपसा वापि योगाभ्यासेन भूपते ॥ ५७ ॥
विना कामादिशत्रूणां नैव नाशः कदाचन ।
(मनस्तु चञ्चलं रास्वभावादतिदुर्ग्रहम् ।
तद्वशः सर्वथा प्राणी त्रिविधो भुवनत्रये । )
कामक्रोधादयो भावाश्चित्तजाः परिकीर्तिताः ॥ ५८ ॥
ते तदा न भवन्त्येव यदा वै निर्जितं मनः ।
तस्मात्तु निमिना राजन्न क्षमा विहिता मुनौ ॥ ५९ ॥
यथा ययातिना पूर्वं कृता शुक्रे कृतागसि ।
भृगुपुत्रेण शप्तोऽपि ययातिर्नृपसत्तमः ॥ ६० ॥
कर्म वही है, जो बन्धन न करे और विद्या वही है जो मुक्तिके लिये हो । अन्य कर्म तो मात्र परिश्रमके लिये होता है तथा दूसरी विद्या तो मात्र शिल्पसम्बन्धी कौशल है । शील, परोपकार, क्रोधका अभाव, क्षमा, धैर्य और सन्तोष-यह सब विद्याका अत्यन्त उत्तम फल है । हे भूपते ! विद्या, तपस्या अथवा योगाभ्यासके बिना काम आदि शत्रुओंका नाश कभी नहीं हो सकता । (हे राजन् ! मन चंचल और स्वभावतः अति दुर्ग्रह होता है, तीनों लोकोंमें तीनों प्रकारके प्राणी उसी मनके वशमें रहते हैं) काम-क्रोध आदि भाव चित्तजन्य कहे गये हैं । ये सब उस समय नहीं उत्पन्न होते, जब मनपर विजय पा ली जाती है । हे राजन् ! इसीलिये निमिने मुनिको उस प्रकार क्षमा नहीं किया, जिस प्रकार ययातिने अपराध करनेपर भी शुक्राचार्यको क्षमा कर दिया था । पूर्वकालमें भृगुपुत्र शुक्राचार्यने नृपश्रेष्ठ ययातिको शाप दे दिया था, लेकिन राजाने क्रोधित होकर मुनिको शाप नहीं दिया और स्वयं वृद्धावस्थाको स्वीकार कर लिया था ॥ ५५-६० ॥

न शशाप मुनिं क्रोधाज्जरां राजा गृहीतवान् ।
कश्चित्सौम्यो भवेत्कश्चित्क्रूरो भवति पार्थिवः ॥ ६१ ॥
स्वभावभेदान्नृपते कस्य दोषोऽत्र कल्प्यते ।
हैहया भार्गवान्पूर्वं धनलोभात्पुरोहितान् ॥ ६२ ॥
ब्राह्मणान्मूलतः सर्वांश्चिच्छिदुः क्रोधमूर्च्छिताः ।
पातकं पृष्ठतः कृत्वा ब्रह्महत्यासमुद्‌भवम् ॥ ६३ ॥
हे राजन् ! कोई राजा शान्तस्वभाव और कोई क्रूर होता है । स्वभावमें भेद होनेके कारण इसमें किसका दोष कहा जाय ? पूर्वकालमें हैहयवंशी क्षत्रियोंने ब्रह्महत्याजनित पापकी उपेक्षा करके धनके लोभसे भृगुवंशी ब्राह्मण पुरोहितोंका कोपाविष्ट होकर समूलोच्छेद कर दिया था । ६१-६३ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां षष्ठस्कन्धे देवीमहिम्नि
नानाभाववर्णनं नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
अध्याय पंद्रहवाँ समाप्त ॥ १५ ॥


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