जनमेजय उवाच कुले कस्य समुत्पन्नाः क्षत्रिया हैहयाश्च ते । ब्रह्महत्यामनादृत्य निजघ्नुर्भार्गवांश्च ये ॥ १ ॥
जनमेजय बोले-जिन हैहय क्षत्रियोंने ब्रह्महत्याकी लेशमात्र भी चिन्ता न करके भृगुवंशी ब्राह्मणोंका वध कर दिया, वे किसके कुलमें उत्पन्न हुए थे ? ॥ १ ॥
वैरस्य कारणं तेषां किं मे ब्रूहि पितामह । निमित्तेन विना क्रोधं कथं कुर्वन्ति सत्तमाः ॥ २ ॥
हे पितामह ! उनके वैरका क्या कारण था, आप मुझे बतलाइये । श्रेष्ठजन किसी कारणविशेषके बिना क्रोध कैसे कर सकते हैं ? ॥ २ ॥
वैरं पुरोहितैः सार्धं कस्मात्तेषामजायत । नाल्पहेतोर्हि तद्वैरं क्षत्रियाणां भविष्यति ॥ ३ ॥ अन्यथा ब्राह्मणान् पूज्यान्कथं जघ्नुरनागसः । बाहुजा बलवन्तोऽपि पापभीताः कथं न ते ॥ ४ ॥
अपने ही पुरोहितोंके साथ उनकी शत्रुता किसलिये हो गयी थी ? सम्भवतः उन क्षत्रियोंकी उस शत्रुताके पीछे कोई महान् कारण रहा होगा । अन्यथा पापसे भयभीत रहनेवाले वे पराक्रमी क्षत्रिय निरपराध एवं पूजनीय ब्राह्मणोंकी हत्या क्यों करते ? ॥ ३-४ ॥
स्वल्पेऽपराधे को हन्याद्वाडवान्क्षत्रियर्षभः । सन्देहो मे मुनिश्रेष्ठ कारणं वक्तुमर्हसि ॥ ५ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! ऐसा कौन श्रेष्ठ क्षत्रिय होगा, जो अल्प अपराधके कारण ब्राह्मणोंका वध करेगा ? मुझे तो इस विषयमें महान् शंका हो रही है, इसका कारण बतानेकी कृपा करें ॥ ५ ॥
वे भगवान् विष्णुके अवतारस्वरूप, दत्तात्रेयके शिष्य, भगवतीके उपासक, परम सिद्ध, सब कुछ देनेमें समर्थ तथा भृगुवंशी ब्राह्मणोंके यजमान थे ॥ ९ ॥
यज्वा परमधर्मिष्ठः सदा दानपरायणः । ददौ वित्तं भृगुभ्योऽसौ कृत्वा यज्ञाननेकशः ॥ १० ॥ धनिनस्ते द्विजा जाता भृगवो नृपदानतः । हयरत्नसमृद्ध्याढ्याः सञ्जाताः प्रथिता भुवि ॥ ११ ॥
वे यज्ञ करनेवाले, धर्मनिष्ठ तथा सदैव दान देने में रुचि रखनेवाले थे । उन्होंने अनेक यज्ञ करके अपनी विपुल सम्पदा भृगुवंशी ब्राह्मणोंको दान कर दी थी । राजाके द्वारा दिये गये दानसे वे भृगुवंशी ब्राह्मण बड़े धनी हो गये । घोड़े तथा रल आदि सम्पदासे युक्त हो जानेके कारण जगत्में वे अतीव प्रसिद्ध हो गये ॥ १०-११ ॥
स्वर्याते नृपशार्दूले कार्तवीर्यार्जुने पुनः । हैहया निर्धना जाताः कालेन महता नृप ॥ १२ ॥
हे राजन् ! नृपश्रेष्ठ कार्तवीर्यार्जुनके दीर्घकालतक राज्य करनेके पश्चात् उनके स्वर्ग चले जानेपर हैहयवंशी क्षत्रिय धनहीन हो गये ॥ १२ ॥
हे राजन् ! किसी समय हैहय क्षत्रियोंको कार्यविशेषके लिये धनकी आवश्यकता पड़ गयी । तब वे धन माँगनेकी इच्छासे भृगुवंशी ब्राह्मणोंके पास गये ॥ १३ ॥
विनयं क्षत्रियाः कृत्वाप्ययाचन्त धनं बहु । न ददुस्तेऽतिलोभार्ता नास्ति नास्तीतिवादिनः ॥ १४ ॥
उन क्षत्रियोंने अत्यधिक विनम्रतापूर्वक उन ब्राह्मणोंसे धनकी याचना की, किंतु लोभके वशीभूत उन ब्राह्मणोंने कुछ नहीं दिया और बार-बार कहते रहे-'मेरे पास नहीं है, मेरे पास नहीं है' ॥ १४ ॥
भूमौ च निदधुः केचिद्भृगवो धनमुत्तमम् । ददुः केचिद्द्विजातिभ्यो ज्ञात्वा क्षत्रियतो भयम् ॥ १५ ॥
हैहयवंशी क्षत्रियोंसे भयभीत होकर कुछ भृगुवंशी ब्राह्मणोंने अपनी प्रचुर सम्पत्ति जमीनमें गाड़ दी और कुछने अन्य ब्राह्मणोंको दे दी ॥ १५ ॥
अपने-अपने आश्रमको सुनसान छोड़कर भृगुवंशी ब्राह्मणोंको बाहर गया हुआ देखकर वे हैहय क्षत्रिय धनके लिये वहाँकी जमीन खोदने लगे ॥ १९ ॥
खनताधिगतं वित्तं केनचिद्भृगुवेश्मनि । ददृशुः क्षत्रियाः सर्वे तद्वित्तं श्रमकर्शिताः ॥ २० ॥ यत्र यत्र समुत्पन्नं भूरि द्रव्यं महीतलात् । तदा ते पार्श्वभागस्थब्राह्मणानां गृहाण्यपि ॥ २१ ॥ निर्भिद्य हैहया द्रव्यं ददृशुर्धनलिप्सया । ब्राह्मणाश्चुकुशः सर्वे भीताश्च शरणं गताः ॥ २२ ॥
तत्पश्चात् किसी ब्राह्मणके घरमें जमीन खोद रहे किसी क्षत्रियने कुछ पाया । अब परिश्रमके कारण क्षीणकाय सभी क्षत्रियोंने उस धनको देख लिया । उस समयसे जहाँ-जहाँ भी पता चलता, वे जमीन खोदकर समस्त धन ले लेते थे । धनके लोभसे आसपास रहनेवाले ब्राह्मणोंके भी घरोंको खोदनेपर उन क्षत्रियोंको पर्याप्त धन दिखलायी पड़ा । इसपर सभी ब्राह्मण रोने-चिल्लाने लगे और भयभीत होकर क्षत्रियोंके शरणागत हो गये ॥ २०-२२ ॥
अतिचिन्वत्सु विप्राणां भवनान्निःसृतं बहु । निजघ्नुस्ताञ्छरैः कोपाद्वाडवाञ्छरणागतान् ॥ २३ ॥
बार-बार खोजते रहनेपर उन ब्राह्मणोंके घरसे प्राय: सभी धन निकल चुका था । फिर भी वे क्षत्रिय उन शरणागत ब्राह्मणोंपर कोप करके बाणोंसे प्रहार करते रहे ॥ २३ ॥
इसके पश्चात् वे उन पर्वतकी गुफाओंमें पहुँच गये, जहाँ भृगुवंशी ब्राह्मण स्थित थे । इस प्रकार गर्भस्थ शिशुओंसहित ब्राह्मणोंको नष्ट करते हुए क्षत्रिय इस पृथ्वीमण्डलपर घूमने लगे ॥ २४ ॥
प्राप्तान्प्राप्तान्भृगून्सर्वान्निजघ्नुर्निशितैः शरैः । आबालवृद्धानपरानवमन्य च पातकम् ॥ २५ ॥
उन्हें जहाँ कहीं भृगुवंशी बालक, वृद्ध तथा अन्य भी मिल जाते थे, वे पापकी परवा किये बिना उन सभीको तीक्ष्ण बाणोंसे मार डालते थे ॥ २५ ॥
इस प्रकार इधर-उधर सभी भृगुवंशी ब्राह्मणोंके मार दिये जानेपर उन हैहय क्षत्रियोंने स्त्रियोंको पकड़-पकड़कर उनका गर्भ नष्ट कर डाला । पापकृत्यपर तुले हुए क्षत्रियोंके द्वारा जिन स्त्रियोंके गर्भ नष्ट कर दिये जाते थे, वे बेचारी अत्यन्त दुःखित होकर कुररी पक्षीकी भाँति विलाप करने लगती थीं ॥ २६-२७ ॥
तब अन्य तीर्थवासी मुनियोंने भी अभिमानमें चूर उन हैहयवंशी क्षत्रियोंसे कहा-हे क्षत्रियो ! तुमलोग ब्राह्मणोंपर ऐसा भयंकर क्रोध करना छोड़ दो । हे श्रेष्ठ क्षत्रियो ! तुमलोगोंने तो अत्यन्त निन्दनीय तथा अनुचित कार्य आरम्भ कर दिया है जो कि तुमलोग भृगुवंशी ब्राह्मणोंकी पत्नियोंका गर्भोच्छेद कर रहे हो । अत्यन्त उन पाप अथवा पुण्यका फल इसी लोकमें प्राप्त हो जाता है । इसलिये कल्याणकी इच्छा रखनेवाले प्राणीको गर्हित कर्मका परित्याग कर देना चाहिये ॥ २८-३० ॥
छल-छाको जाननेवाले इन ब्राहाणोंने कपट करके हमारे महात्मा पूर्वजोंका सारा धन उसी प्रकार छीन लिया था जैसे कोई लुटेरा किसी पथिकका धन छीन लेता है ॥ ३२ ॥
एते प्रतारका दम्भास्तादृशा बकवृत्तयः । उत्पन्ने च महाकार्ये प्रार्थिता विनयेन ते ॥ ३३ ॥ न ददुः प्रार्थितं विप्राः पादवृद्ध्यापि याचिताः । नास्तीतिवादिनः स्तब्धाः दुःखितान्वीक्ष्य याज्यकान् ॥ ३४ ॥
ये सभी ठग, दम्भी तथा बकवृत्तिवाले (पाखण्डी) हैं । आवश्यक कार्य पड़नेपर हमने विनम्रतापूर्वक इनसे धनकी याचना की थी, किंतु इन्होंने नहीं दिया । यहाँतक कि चतुर्थांशवृद्धिपर भी धन माँगनेपर हम याचकोंको अत्यन्त दुःखित देखकर इन निष्ठुर ब्राह्मणोंने 'हमारे पास नहीं है'-ऐसा कहा ॥ ३३-३४ ॥
हम सबने बड़ी विनम्रताके साथ इन लोगोंसे चतुर्थांशवृद्धिपर धन माँगा था, फिर भी लोभके कारण संशयमें पड़े हुए पुरोहितोंने हमें धन नहीं दिया ॥ ३९ ॥
दानं भोगस्तथा नाशो धनस्य गतिरीदृशी । दानभोगौ कृतीनां च नाशः पापात्मनां किल ॥ ४० ॥ न दाता न च यो भोक्ता कृपणो गुप्तितत्परः । राज्ञासौ सर्वथा दण्ड्यो वञ्चको दुःखभाङ्नरः ॥ ४१ ॥
दान, भोग तथा नाश-धनकी इस प्रकारकी गति होती है । पुण्यशाली प्राणियोंके धनकी गति दान तथा भोग है और दुष्ट आत्मावाले प्राणियोंके धनकी गति नाश है । जो कृपण व्यक्ति न दान करता है और न धनका उपभोग करता है, अपितु केवल धनके संग्रहमें लगा रहता है, वह वंचक प्राणी राजाके द्वारा सर्वथा दण्डनीय है और दुःखका भागी होता है ॥ ४०-४१ ॥
लोभ मनुष्योंके देहमें रहनेवाला सबसे बड़ा शत्रु है । यह समस्त दुःखोंका आगार, दु:खदायी तथा प्राणोंका नाश करनेवाला कहा गया है ॥ ४६ ॥
सर्वपापस्य मूलं हि सर्वदा तृष्णयान्वितः । विरोधकृत्त्रिवर्णानां सर्वार्तेः कारणं तथा ॥ ४७ ॥
यह लोभ सम्पूर्ण पापोंकी जड़ तथा सभी दु:खोंका कारण है । लोभसे युक्त प्राणी सदा तीनों वर्गों के लोगोंसे विरोध रखनेवाला होता है ॥ ४७ ॥
लोभात्त्यजन्ति धर्मं वै कुलधर्मं तथैव हि । मातरं भ्रातरं हन्ति पितरं बान्धवं तथा ॥ ४८ ॥ गुरुं मित्रं तथा भार्यां पुत्रं च भगिनीं तथा । लोभाविष्टो न किं कुर्यादकृत्यं पापमोहितः ॥ ४९ ॥
लोभके वशीभूत प्राणी अपने सदाचार तथा कुलधर्मका भी परित्याग कर देते हैं । वे अपने माता, पिता, भाई, बान्धव, गुरु, मित्र, पत्नी, पुत्र तथा बहनतकका वध कर देते हैं । इस प्रकार लोभके वशीभूत मनुष्य पापसे विमोहित होकर कौन-सा दुष्कर्म नहीं कर डालता ॥ ४८-४९ ॥
क्रोधात्कामादहङ्काराल्लोभ एव महारिपुः । प्राणांस्त्यजति लोभेन किं पुनः स्यादनावृतम् ॥ ५० ॥
क्रोध, काम तथा अहंकारसे भी बढ़कर लोभ महान् शत्रु है । लोभमें पड़कर मनुष्य अपने प्राणतक गँवा देता है; फिर इसके विषयमें और क्या कहा जाय ! ॥ ५० ॥
हे महाराज ! आपके पूर्वज धर्मज्ञ तथा सत्पथपर चलनेवाले थे, किंतु वे पाण्डव तथा कौरव लोभके कारण ही मारे गये । जहाँ भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, बाहीक, भीमसेन, धर्मपुत्र युधिष्ठिर, अर्जुन तथा श्रीकृष्ण थे, फिर भी लोभके वशीभूत उन्होंने आपसमें भीषण युद्ध किया और अपने कुटुम्बका महाविनाश कर डाला । उस युद्धमें द्रोण, भीष्म, पाण्डवोंके पुत्र, भाई, पिता, पुत्र सभी मारे गये ॥ ५१-५४ ॥