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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
षष्ठः स्कन्धः
षोडशोऽध्यायः

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हैहयैर्धनाहरणेन सह भृगूणां वधवर्णनम् -
हैहयवंशी क्षत्रियोंद्वारा भृगुवंशी ब्राह्मणोंका संहार -


जनमेजय उवाच
कुले कस्य समुत्पन्नाः क्षत्रिया हैहयाश्च ते ।
ब्रह्महत्यामनादृत्य निजघ्नुर्भार्गवांश्च ये ॥ १ ॥
जनमेजय बोले-जिन हैहय क्षत्रियोंने ब्रह्महत्याकी लेशमात्र भी चिन्ता न करके भृगुवंशी ब्राह्मणोंका वध कर दिया, वे किसके कुलमें उत्पन्न हुए थे ? ॥ १ ॥

वैरस्य कारणं तेषां किं मे ब्रूहि पितामह ।
निमित्तेन विना क्रोधं कथं कुर्वन्ति सत्तमाः ॥ २ ॥
हे पितामह ! उनके वैरका क्या कारण था, आप मुझे बतलाइये । श्रेष्ठजन किसी कारणविशेषके बिना क्रोध कैसे कर सकते हैं ? ॥ २ ॥

वैरं पुरोहितैः सार्धं कस्मात्तेषामजायत ।
नाल्पहेतोर्हि तद्वैरं क्षत्रियाणां भविष्यति ॥ ३ ॥
अन्यथा ब्राह्मणान् पूज्यान्कथं जघ्नुरनागसः ।
बाहुजा बलवन्तोऽपि पापभीताः कथं न ते ॥ ४ ॥
अपने ही पुरोहितोंके साथ उनकी शत्रुता किसलिये हो गयी थी ? सम्भवतः उन क्षत्रियोंकी उस शत्रुताके पीछे कोई महान् कारण रहा होगा । अन्यथा पापसे भयभीत रहनेवाले वे पराक्रमी क्षत्रिय निरपराध एवं पूजनीय ब्राह्मणोंकी हत्या क्यों करते ? ॥ ३-४ ॥

स्वल्पेऽपराधे को हन्याद्वाडवान्क्षत्रियर्षभः ।
सन्देहो मे मुनिश्रेष्ठ कारणं वक्तुमर्हसि ॥ ५ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! ऐसा कौन श्रेष्ठ क्षत्रिय होगा, जो अल्प अपराधके कारण ब्राह्मणोंका वध करेगा ? मुझे तो इस विषयमें महान् शंका हो रही है, इसका कारण बतानेकी कृपा करें ॥ ५ ॥

सूत उवाच
इति पृष्टस्तदा तेन राज्ञा सत्यवतीसुतः ।
उवाच परमप्रीतः कथां संस्मृत्य चेतसा ॥ ६ ॥
सूतजी बोले-तब राजा जनमेजयके इस प्रकार पूछनेपर सत्यवतीनन्दन व्यासजी परम प्रसन्न हुए और मनमें उस वृत्तान्तका स्मरण करके कहने लगे ॥ ६ ॥

व्यास उवाच
शृणु पारिक्षिते वार्तां क्षत्रियाणां पुरातनीम् ।
आश्चर्यकारिणीं सम्यग्विदितां च पुरा मया ॥ ७ ॥
व्यासजी बोले-हे जनमेजय ! मेरे द्वारा पूर्वकालमें सम्यक् प्रकारसे ज्ञात, क्षत्रियोंसे सम्बन्ध रखनेवाली इस आश्चर्यजनक प्राचीन कथाको आप सुनिये ? ॥ ७ ॥

कार्तवीर्येति नाम्नाभूद्धैहयः पृथिवीपतिः ।
सहस्रबाहुर्बलवानर्जुनो धर्मतत्परः ॥ ८ ॥
कार्तवीर्य नामक एक हैहयवंशीय राजा हो चुके हैं । सदा धर्ममें तत्पर रहनेवाले उन बलवान् राजाकी हजार भुजाएँ थीं, वे सहस्रार्जुन भी कहे जाते थे ॥ ८ ॥

दत्तात्रेयस्य शिष्योऽभूदवतारो हरेरिव ।
सिद्धः सर्वार्थदः शाक्तो भृगूणां याज्य एव सः ॥ ९ ॥
वे भगवान् विष्णुके अवतारस्वरूप, दत्तात्रेयके शिष्य, भगवतीके उपासक, परम सिद्ध, सब कुछ देनेमें समर्थ तथा भृगुवंशी ब्राह्मणोंके यजमान थे ॥ ९ ॥

यज्वा परमधर्मिष्ठः सदा दानपरायणः ।
ददौ वित्तं भृगुभ्योऽसौ कृत्वा यज्ञाननेकशः ॥ १० ॥
धनिनस्ते द्विजा जाता भृगवो नृपदानतः ।
हयरत्‍नसमृद्ध्याढ्याः सञ्जाताः प्रथिता भुवि ॥ ११ ॥
वे यज्ञ करनेवाले, धर्मनिष्ठ तथा सदैव दान देने में रुचि रखनेवाले थे । उन्होंने अनेक यज्ञ करके अपनी विपुल सम्पदा भृगुवंशी ब्राह्मणोंको दान कर दी थी । राजाके द्वारा दिये गये दानसे वे भृगुवंशी ब्राह्मण बड़े धनी हो गये । घोड़े तथा रल आदि सम्पदासे युक्त हो जानेके कारण जगत्में वे अतीव प्रसिद्ध हो गये ॥ १०-११ ॥

स्वर्याते नृपशार्दूले कार्तवीर्यार्जुने पुनः ।
हैहया निर्धना जाताः कालेन महता नृप ॥ १२ ॥
हे राजन् ! नृपश्रेष्ठ कार्तवीर्यार्जुनके दीर्घकालतक राज्य करनेके पश्चात् उनके स्वर्ग चले जानेपर हैहयवंशी क्षत्रिय धनहीन हो गये ॥ १२ ॥

धनकार्यं समुत्पन्नं हैहयानां कदाचन ।
याचिष्णवोऽभिजग्मुस्तान्भूगूंस्ते हैहया नृप ॥ १३ ॥
हे राजन् ! किसी समय हैहय क्षत्रियोंको कार्यविशेषके लिये धनकी आवश्यकता पड़ गयी । तब वे धन माँगनेकी इच्छासे भृगुवंशी ब्राह्मणोंके पास गये ॥ १३ ॥

विनयं क्षत्रियाः कृत्वाप्ययाचन्त धनं बहु ।
न ददुस्तेऽतिलोभार्ता नास्ति नास्तीतिवादिनः ॥ १४ ॥
उन क्षत्रियोंने अत्यधिक विनम्रतापूर्वक उन ब्राह्मणोंसे धनकी याचना की, किंतु लोभके वशीभूत उन ब्राह्मणोंने कुछ नहीं दिया और बार-बार कहते रहे-'मेरे पास नहीं है, मेरे पास नहीं है' ॥ १४ ॥

भूमौ च निदधुः केचिद्‌भृगवो धनमुत्तमम् ।
ददुः केचिद्‌द्विजातिभ्यो ज्ञात्वा क्षत्रियतो भयम् ॥ १५ ॥
हैहयवंशी क्षत्रियोंसे भयभीत होकर कुछ भृगुवंशी ब्राह्मणोंने अपनी प्रचुर सम्पत्ति जमीनमें गाड़ दी और कुछने अन्य ब्राह्मणोंको दे दी ॥ १५ ॥

कृत्वा स्थानान्तरे द्रव्यं ब्राह्मणा भयविह्वलाः ।
त्यक्त्वाऽऽश्रमान्ययुः सर्वे भृगवस्तृष्णयान्विताः ॥ १६ ॥
भयाक्रान्त तथा लोभके वशीभूत वे सभी भृगुवंशी ब्राह्मण अपना-अपना धन स्थानान्तरित करके अपने आश्रम छोड़कर अन्यत्र चले गये ॥ १६ ॥

याज्यांश्च दुःखितान्दृष्ट्वा न ददुर्लोभमोहिताः ।
पलायित्वा गताः सर्वे गिरिदुर्गानुपाश्रिताः ॥ १७ ॥
अपने यजमानोंको दुःखित देखकर भी लोभसे विमोहित ब्राह्मणोंने उन्हें कुछ भी नहीं दिया । उन सभीने भागकर पर्वतकी गुफाओंका आश्रय ग्रहण किया ॥ १७ ॥

ततस्ते हैहयास्तात दुःखिताः कार्यगौरवात् ।
भृगूणामाश्रमाञ्जग्मुर्द्रव्यार्थं क्षत्रियर्षभाः ॥ १८ ॥
हे तात ! तत्पश्चात् कष्ट झेल रहे अनेक हैहय क्षत्रियप्रमुख विशेष कार्यवश द्रव्यप्राप्तिके लिये भृगुवंशी ब्राह्मणोंके आश्रमोंपर पहुँचे ॥ १८ ॥

भृगूंस्तु निर्गतान्वीक्ष्य शून्यांस्त्यक्त्या गृहानथ ।
चखनुर्भूतलं तत्र द्रव्यार्थं हैहया भृशम् ॥ १९ ॥
अपने-अपने आश्रमको सुनसान छोड़कर भृगुवंशी ब्राह्मणोंको बाहर गया हुआ देखकर वे हैहय क्षत्रिय धनके लिये वहाँकी जमीन खोदने लगे ॥ १९ ॥

खनताधिगतं वित्तं केनचिद्‌भृगुवेश्मनि ।
ददृशुः क्षत्रियाः सर्वे तद्वित्तं श्रमकर्शिताः ॥ २० ॥
यत्र यत्र समुत्पन्नं भूरि द्रव्यं महीतलात् ।
तदा ते पार्श्वभागस्थब्राह्मणानां गृहाण्यपि ॥ २१ ॥
निर्भिद्य हैहया द्रव्यं ददृशुर्धनलिप्सया ।
ब्राह्मणाश्चुकुशः सर्वे भीताश्च शरणं गताः ॥ २२ ॥
तत्पश्चात् किसी ब्राह्मणके घरमें जमीन खोद रहे किसी क्षत्रियने कुछ पाया । अब परिश्रमके कारण क्षीणकाय सभी क्षत्रियोंने उस धनको देख लिया । उस समयसे जहाँ-जहाँ भी पता चलता, वे जमीन खोदकर समस्त धन ले लेते थे । धनके लोभसे आसपास रहनेवाले ब्राह्मणोंके भी घरोंको खोदनेपर उन क्षत्रियोंको पर्याप्त धन दिखलायी पड़ा । इसपर सभी ब्राह्मण रोने-चिल्लाने लगे और भयभीत होकर क्षत्रियोंके शरणागत हो गये ॥ २०-२२ ॥

अतिचिन्वत्सु विप्राणां भवनान्निःसृतं बहु ।
निजघ्नुस्ताञ्छरैः कोपाद्वाडवाञ्छरणागतान् ॥ २३ ॥
बार-बार खोजते रहनेपर उन ब्राह्मणोंके घरसे प्राय: सभी धन निकल चुका था । फिर भी वे क्षत्रिय उन शरणागत ब्राह्मणोंपर कोप करके बाणोंसे प्रहार करते रहे ॥ २३ ॥

ययुस्ते गिरिदुर्गांश्च यत्र वै भृगवः स्थिताः ।
आगर्भादनुकृन्तन्तश्चेरुश्चैव महीमिमाम् ॥ २४ ॥
इसके पश्चात् वे उन पर्वतकी गुफाओंमें पहुँच गये, जहाँ भृगुवंशी ब्राह्मण स्थित थे । इस प्रकार गर्भस्थ शिशुओंसहित ब्राह्मणोंको नष्ट करते हुए क्षत्रिय इस पृथ्वीमण्डलपर घूमने लगे ॥ २४ ॥

प्राप्तान्प्राप्तान्भृगून्सर्वान्निजघ्नुर्निशितैः शरैः ।
आबालवृद्धानपरानवमन्य च पातकम् ॥ २५ ॥
उन्हें जहाँ कहीं भृगुवंशी बालक, वृद्ध तथा अन्य भी मिल जाते थे, वे पापकी परवा किये बिना उन सभीको तीक्ष्ण बाणोंसे मार डालते थे ॥ २५ ॥

एवमुत्पाट्यमानेषु भार्गवेषु यतस्ततः ।
हन्युर्गर्भांश्च नारीणां गृहीत्वा हैहया भृशम् ॥ २६ ॥
रुरुदुस्ताः स्त्रियः कामं कुरर्य इव दुःखिताः ।
गर्भाश्च कृन्तिता यासां क्षत्रियैः पापनिश्चयैः ॥ २७ ॥
इस प्रकार इधर-उधर सभी भृगुवंशी ब्राह्मणोंके मार दिये जानेपर उन हैहय क्षत्रियोंने स्त्रियोंको पकड़-पकड़कर उनका गर्भ नष्ट कर डाला । पापकृत्यपर तुले हुए क्षत्रियोंके द्वारा जिन स्त्रियोंके गर्भ नष्ट कर दिये जाते थे, वे बेचारी अत्यन्त दुःखित होकर कुररी पक्षीकी भाँति विलाप करने लगती थीं ॥ २६-२७ ॥

अन्येऽप्याहुश्च तान्दृप्तान्मुनयस्तीर्थवासिनः ।
मुञ्चन्तु क्षत्रियाः क्रोधं ब्राह्मणेषु भयावहम् ॥ २८ ॥
अयुक्तमेतदारब्धं भवद्‌भिः कर्म गर्हितम् ।
यद्‌गर्भान्भृगुपत्‍नीनां निहन्युः क्षत्रियर्षभाः ॥ २९ ॥
अत्युग्रपुण्यपापानामिहैव फलमाप्नुयात् ।
तस्माज्जुगुप्सितं कर्म त्यक्तव्यं भूतिमिच्छता ॥ ३० ॥
तब अन्य तीर्थवासी मुनियोंने भी अभिमानमें चूर उन हैहयवंशी क्षत्रियोंसे कहा-हे क्षत्रियो ! तुमलोग ब्राह्मणोंपर ऐसा भयंकर क्रोध करना छोड़ दो । हे श्रेष्ठ क्षत्रियो ! तुमलोगोंने तो अत्यन्त निन्दनीय तथा अनुचित कार्य आरम्भ कर दिया है जो कि तुमलोग भृगुवंशी ब्राह्मणोंकी पत्नियोंका गर्भोच्छेद कर रहे हो । अत्यन्त उन पाप अथवा पुण्यका फल इसी लोकमें प्राप्त हो जाता है । इसलिये कल्याणकी इच्छा रखनेवाले प्राणीको गर्हित कर्मका परित्याग कर देना चाहिये ॥ २८-३० ॥

तानाहुर्हैहयाः क्रुद्धा मुनीनथ दयापरान् ।
भवन्तः साधवः सर्वे नार्थज्ञाः पापकर्मणाम् ॥ ३१ ॥
तत्पश्चात् क्रोधमें भरे हुए उन हैहय क्षत्रियोंने उन परम दयालु मुनियोंसे कहा-आप सभी लोग साधु हैं, अत: पापकर्मोका रहस्य नहीं जानते ॥ ३१ ॥

एभिर्हृतं धनं सर्वं पूर्वजानां महात्मनाम् ।
वञ्चयित्वा छलाभिज्ञैर्मार्गे पाटच्चरैरिव ॥ ३२ ॥
छल-छाको जाननेवाले इन ब्राहाणोंने कपट करके हमारे महात्मा पूर्वजोंका सारा धन उसी प्रकार छीन लिया था जैसे कोई लुटेरा किसी पथिकका धन छीन लेता है ॥ ३२ ॥

एते प्रतारका दम्भास्तादृशा बकवृत्तयः ।
उत्पन्ने च महाकार्ये प्रार्थिता विनयेन ते ॥ ३३ ॥
न ददुः प्रार्थितं विप्राः पादवृद्ध्यापि याचिताः ।
नास्तीतिवादिनः स्तब्धाः दुःखितान्वीक्ष्य याज्यकान् ॥ ३४ ॥
ये सभी ठग, दम्भी तथा बकवृत्तिवाले (पाखण्डी) हैं । आवश्यक कार्य पड़नेपर हमने विनम्रतापूर्वक इनसे धनकी याचना की थी, किंतु इन्होंने नहीं दिया । यहाँतक कि चतुर्थांशवृद्धिपर भी धन माँगनेपर हम याचकोंको अत्यन्त दुःखित देखकर इन निष्ठुर ब्राह्मणोंने 'हमारे पास नहीं है'-ऐसा कहा ॥ ३३-३४ ॥

धनं प्राप्तं कार्तवीर्याद्‌रक्षितं केन हेतुना ।
न कृताः क्रतवः किं तैर्दानं चार्थिषु भूरिशः ॥ ३५ ॥
महाराज कार्तवीर्यसे धन प्राप्त करके इन्होंने किस प्रयोजनसे धनकी रक्षा की ? इन्होंने न तो यज्ञ किये और न तो याचकोंको ही प्रचुर दान दिया ॥ ३५ ॥

न सञ्चितव्यं विप्रैस्तु धनं चापि कदाचन ।
यष्टव्यं विधिवद्देयं भोक्तव्यं च यथासुखम् ॥ ३६ ॥
ब्राह्मणोंको कभी भी धनका संग्रह नहीं करना चाहिये । यज्ञ करने, दान देने तथा सुखोपभोगमें यथेच्छ धनका उपयोग करना चाहिये ॥ ३६ ॥

द्रव्ये चौरभयं प्रोक्तं तथा राजभयं द्विजाः ।
वह्नेर्भयं महाघोरं तथा धूर्तभयं महत् ॥ ३७ ॥
हे विप्रो ! पासमें धन रहनेपर चोर, राजा, अग्नि तथा धूतोंसे महान् भय कहा गया है ॥ ३७ ॥

येन केनाप्युपायेन धनं त्यजति रक्षकम् ।
अथवासौ मृतो याति द्रव्यं त्यक्त्वा ह्यसद्‌गतिम् ॥ ३८ ॥
जिस किसी भी उपायसे अपनी ही रक्षा करनेवालेको धन छोड़ देता है अथवा वह व्यक्ति धन छोड़कर स्वयं मर जाता है और दुर्गतिको प्राप्त होता है ॥ ३८ ॥

पादवृद्ध्या तथास्माभिः प्रार्थितं विनयान्वितैः ।
तथापि लोभसन्दिग्धैर्न दत्तं नः पुरोहितैः ॥ ३९ ॥
हम सबने बड़ी विनम्रताके साथ इन लोगोंसे चतुर्थांशवृद्धिपर धन माँगा था, फिर भी लोभके कारण संशयमें पड़े हुए पुरोहितोंने हमें धन नहीं दिया ॥ ३९ ॥

दानं भोगस्तथा नाशो धनस्य गतिरीदृशी ।
दानभोगौ कृतीनां च नाशः पापात्मनां किल ॥ ४० ॥
न दाता न च यो भोक्ता कृपणो गुप्तितत्परः ।
राज्ञासौ सर्वथा दण्ड्यो वञ्चको दुःखभाङ्नरः ॥ ४१ ॥
दान, भोग तथा नाश-धनकी इस प्रकारकी गति होती है । पुण्यशाली प्राणियोंके धनकी गति दान तथा भोग है और दुष्ट आत्मावाले प्राणियोंके धनकी गति नाश है । जो कृपण व्यक्ति न दान करता है और न धनका उपभोग करता है, अपितु केवल धनके संग्रहमें लगा रहता है, वह वंचक प्राणी राजाके द्वारा सर्वथा दण्डनीय है और दुःखका भागी होता है ॥ ४०-४१ ॥

तस्माद्वयं गुरूनेतान्वञ्चकान्ब्राह्मणाधमान् ।
हन्तुं समुद्यताः सर्वे न क्रोधव्यं महात्मभिः ॥ ४२ ॥
इसीलिये इन वंचक गुरुओं तथा अधम ब्राह्मणोंको मारनेके लिये हम सभी उद्यत हुए हैं । आप महात्माजन इसके लिये हमपर कोप न करें ॥ ४२ ॥

व्यास उवाच
इत्युक्त्वा हेतुमद्वाक्यं तानाश्वास्य मुनीनथ ।
विचेरुश्च विचिन्वाना भृगुदाराननेकशः ॥ ४३ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार सहेतुक वचन कहकर उन मुनियोंको पूर्ण आश्वस्त करनेके बाद वे पुनः भृगुकुलकी स्त्रियोंको खोजते हुए भ्रमण करने लगे ॥ ४३ ॥

भयार्ता भृगुपत्‍न्यस्तु हिमवन्तं धराधरम् ।
प्रपेदिरे रुदन्त्यश्च वेपमानाः कृशा भृशम् ॥ ४४ ॥
भयार्त तथा अत्यन्त कृश शरीरवाली भृगुवंशीय पत्नियाँ हिमवान् पर्वतपर रोती तथा काँपती हुई पहुची ॥ ४४ ॥

एवं ते हैहयैर्विप्राः पीडिता धनकामुकैः ।
निहताश्च यथाकामं संरब्धैः पापकर्मभिः ॥ ४५ ॥
इस प्रकार धनलोलुप तथा पापकर्मोसे अभिभूत हैहयोंने उन ब्राह्मणोंको बहुत पीड़ित किया तथा उनका संहार किया ॥ ४५ ॥

लोभ एव मनुष्याणां देहसंस्थो महारिपुः ।
सर्वदुःखाकरः प्रोक्तो दुःखदः प्राणनाशकः ॥ ४६ ॥
लोभ मनुष्योंके देहमें रहनेवाला सबसे बड़ा शत्रु है । यह समस्त दुःखोंका आगार, दु:खदायी तथा प्राणोंका नाश करनेवाला कहा गया है ॥ ४६ ॥

सर्वपापस्य मूलं हि सर्वदा तृष्णयान्वितः ।
विरोधकृत्त्रिवर्णानां सर्वार्तेः कारणं तथा ॥ ४७ ॥
यह लोभ सम्पूर्ण पापोंकी जड़ तथा सभी दु:खोंका कारण है । लोभसे युक्त प्राणी सदा तीनों वर्गों के लोगोंसे विरोध रखनेवाला होता है ॥ ४७ ॥

लोभात्त्यजन्ति धर्मं वै कुलधर्मं तथैव हि ।
मातरं भ्रातरं हन्ति पितरं बान्धवं तथा ॥ ४८ ॥
गुरुं मित्रं तथा भार्यां पुत्रं च भगिनीं तथा ।
लोभाविष्टो न किं कुर्यादकृत्यं पापमोहितः ॥ ४९ ॥
लोभके वशीभूत प्राणी अपने सदाचार तथा कुलधर्मका भी परित्याग कर देते हैं । वे अपने माता, पिता, भाई, बान्धव, गुरु, मित्र, पत्नी, पुत्र तथा बहनतकका वध कर देते हैं । इस प्रकार लोभके वशीभूत मनुष्य पापसे विमोहित होकर कौन-सा दुष्कर्म नहीं कर डालता ॥ ४८-४९ ॥

क्रोधात्कामादहङ्काराल्लोभ एव महारिपुः ।
प्राणांस्त्यजति लोभेन किं पुनः स्यादनावृतम् ॥ ५० ॥
क्रोध, काम तथा अहंकारसे भी बढ़कर लोभ महान् शत्रु है । लोभमें पड़कर मनुष्य अपने प्राणतक गँवा देता है; फिर इसके विषयमें और क्या कहा जाय ! ॥ ५० ॥

पूर्वजास्ते महाराज धर्मज्ञाः सत्पथे स्थिताः ।
पाण्डवाः कौरवाश्चैव लोभेन निधनं गताः ॥ ५१ ॥
यत्र भीष्मश्च द्रोणश्च कृपः कर्णश्च बाह्लिकः ।
भीमसेनो धर्भपुत्रस्तथैवार्जुनकेशवौ ॥ ५२ ॥
तथापि युद्धमत्युग्रं कृतं तैश्च परस्परम् ।
कुटुम्बकदनं भूरि कृतं लोभातुरैरिह ॥ ५३ ॥
हतो द्रोणो हतो भीष्मस्तथैव पाण्डवात्मजाः ।
भ्रातरः पितरः पुत्राः सर्वे वै निहता रणे ॥ ५४ ॥
हे महाराज ! आपके पूर्वज धर्मज्ञ तथा सत्पथपर चलनेवाले थे, किंतु वे पाण्डव तथा कौरव लोभके कारण ही मारे गये । जहाँ भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, बाहीक, भीमसेन, धर्मपुत्र युधिष्ठिर, अर्जुन तथा श्रीकृष्ण थे, फिर भी लोभके वशीभूत उन्होंने आपसमें भीषण युद्ध किया और अपने कुटुम्बका महाविनाश कर डाला । उस युद्धमें द्रोण, भीष्म, पाण्डवोंके पुत्र, भाई, पिता, पुत्र सभी मारे गये ॥ ५१-५४ ॥

तस्माल्लोभाभिभूतस्तु किं न कुर्यान्नरः किल ।
हैहयैर्निहताः सर्वे भृगवः पापबुद्धिभिः ॥ ५५ ॥
अतएव लोभपरायण मनुष्य क्या नहीं कर डालता ?[लोभके कारण ही] पापबुद्धि हैहयवंशी क्षत्रियोंने भृगुकुलके समस्त ब्राह्मणोंको मार डाला था ॥ ५५ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां षष्ठस्कन्धे हैहयैर्धनाहरणेन सह
भृगूणां वधवर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥
अध्याय सोलहवाँ समाप्त ॥ १६ ॥


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