हे राजन् ! जब क्षत्रिय हैहय भृगुकुलकी नारियोंको बहुत पीड़ित करने लगे तब वे भयभीत तथा निराश होकर हिमालयपर्वतपर चली गयीं ॥ ५ ॥
गौरीं तत्र तु संस्थाप्य मृण्मयीं सरितस्तटे । उपोषणपराश्चकुर्निश्चयं मरणं प्रति ॥ ६ ॥
उन्होंने वहाँ नदीके तटपर गौरीकी मृण्मयी प्रतिमा स्थापित करके निराहार रहते हुए [उपासनामें लीन होकर] अपने मरणके प्रति पूरा निश्चय कर लिया ॥ ६ ॥
स्वप्ने गत्वा तदा देवी प्राह ताः प्रमदोत्तमाः । युष्मासु मध्ये कस्याश्चिद्भविता चोरुजः पुमान् ॥ ७ ॥ मदंशशक्तिसम्भिन्नः स वः कार्यं विधास्यति । इत्यादिश्य पराम्बा सा पश्चादन्तर्हिताभवत् ॥ ८ ॥
एक समय स्वप्नमें भगवती जगदम्बाने उन उत्तम स्त्रियोंके पास पहुँचकर कहा-तुमलोगोंमेंसे किसीकी जंघासे एक पुरुष उत्पन्न होगा । मेरा अंशभूत वही शक्तिमान् पुरुष तुमलोगोंका कार्य सिद्ध करेगा । ऐसा कहकर पराम्बा भगवती अन्तर्धान हो गयीं । ७-८ ॥
भयसे घबरायी हुई वह स्त्री अपने समीप आये हुए उन क्षत्रियोंको देखकर रोने लगी और पुनः गर्भरक्षाके लिये भयसे विहल होकर जोर-जोरसे विलाप करने लगी ॥ १२ ॥
गर्भस्य रक्षणार्थं सा चुक्रोशातिभयातुरा । रुदतीं मातरं श्रुत्वा दीनां प्राणविवर्जिताम् ॥ १३ ॥ निराधारां क्रन्दमानां क्षत्रियैर्भृशतापिताम् । गृहीतामिव सिंहेन सगर्भां हरिणीं यथा ॥ १४ ॥ साश्रुनेत्रां वेपमानां सङ्क्रुध्य बालकस्तदा । भित्त्वोरुं निर्जगामाशु गर्भः सूर्य इवापरः ॥ १५ ॥
तब दयनीय दशावाली, प्राणहीन-सी प्रतीत हो रही, आश्रयहीन, क्षत्रियोंसे पीडित होनेके कारण क्रन्दन करती हुई, सिंहके द्वारा पकड़ी गयी गर्भवती हिरनीके समान प्रतीत होनेवाली, आँसूभरे नेत्रोंवाली तथा थर-थर काँपती हुई माताका रुदन सुनकर वह सुन्दर गर्भस्थ बालक कुपित होकर अपने तेजसे क्षत्रियोंकी नेत्र-ज्योतिका हरण करता हुआ जंघाका भेदन करके दूसरे सूर्यकी भाँति शीघ्र ही बाहर निकल आया ॥ १३-१५ ॥
मुष्णन्दृष्टीः क्षत्रियाणां तेजसा बालकः शुभः । दर्शनाद्बालकस्याशु सर्वे जाता विलोचनाः ॥ १६ ॥ बभ्रमुर्गिरिदुर्गेषु जन्मान्धा इव क्षत्रियाः । चिन्तितं मनसा सर्वैः किमेतदिति साम्प्रतम् ॥ १७ ॥ सर्वे चक्षुर्विहीना यज्जाता स्म बालदर्शनात् । ब्राह्मण्यास्तु प्रभावोऽयं सतीव्रतबलं महत् ॥ १८ ॥
उस बालककी ओर देखते ही वे सभी दृष्टिहीन हो गये । तत्पश्चात् वे क्षत्रिय जन्मान्धकी भाँति पर्वतकी गुफाओंमें इधर-उधर भटकने लगे । सभी क्षत्रिय मनमें विचार करने लगे कि इस समय यह क्या हो गया है कि हम सभी लोग बालकको देखनेमात्रसे चक्षुहीन हो गये । ऐसा प्रतीत होता है कि इसी ब्राह्मणीका यह प्रभाव है; क्योंकि सतीव्रत एक महान् बल है । अमोघ संकल्पवाली दुःखित स्त्रियाँ क्षणभरमें न जाने क्या कर डालेंगी ! ॥ १६-१८ ॥
क्षणाद्वामोघसङ्कल्पाः किं करिष्यन्तिदुःखिताः । इति सञ्चिन्त्य मनसा नेत्रहीना निराश्रयाः ॥ १९ ॥ ब्राह्मणीं शरणं जग्मुर्हैहया गतचेतसः । प्रणेमुस्तां भयत्रस्तां कृताञ्जलिपुटाश्च ते ॥ २० ॥
ऐसा मनमें सोचकर नेत्रहीन, निराश्रय तथा चेतनारहित हैहयवंशी क्षत्रिय उस ब्राह्मणीकी शरणमें गये और उन्होंने भयसे त्रस्त उस स्त्रीको दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया । वे श्रेष्ठ क्षत्रिय अपनी नेत्रज्योतिके लिये इस भयाकुल ब्राहाणीसे कहने लगे- ॥ १९-२० ॥
ऊचुश्चैनां भयोद्विग्नां दृष्ट्यर्थं क्षत्रियर्षभाः । प्रसीद सुभगे मातः सेवकास्ते वयं किल ॥ २१ ॥ कृतापराधा रम्भोरु क्षत्रियाः पापबुद्धयः । दर्शनात्तव तन्वङ्गि जाताः सर्वे विलोचनाः ॥ २२ ॥ मुखं ते नैव पश्यामो जन्मान्धा इव भामिनि । अद्भुतं ते तपो वीर्यं किं कुर्मः पापकारिणः ॥ २३ ॥ शरणं ते प्रपन्नाः स्मो देहि चक्षूंषि मानदे । अन्धत्वं मरणादुग्रं कृपां कर्तुं त्वमर्हसि ॥ २४ ॥ पुनर्दृष्टिप्रदानेन सेवकान्क्षत्रियान्कुरु । उपरम्य च गच्छेम सहिताः पापकर्मणः ॥ २५ ॥ अतः परं न कर्तव्यमीदृशं कर्म कर्हिचित् । भार्गवाणां तु सर्वेषां सेवकाः स्मो वयं किल ॥ २६ ॥ अज्ञानाद्यत्कृतं पापं क्षन्तव्यं तत्त्वयाधुना । वैरं नातः परं क्वापि भृगुभिः क्षत्रियैः सह ॥ २७ ॥ कर्तव्यं शपथैः सम्यग्वर्तितव्यं तु हैहयैः । सपुत्रा भव सुश्रोणि प्रणताः स्मो वयं च ते ॥ २८ ॥ प्रसादं कुरु कल्याणि न द्विष्यामः कदाचन ।
हे सुभगे ! हे माता ! हम सब आपके सेवक हैं । अब आप हमारे ऊपर प्रसन्न हो जाइये । हे रम्भोरु ! पाप बुद्धिवाले हम क्षत्रियोंने अपराध किया है । हे तन्वंगि ! इसीलिये आपको देखते ही हम सब चक्षुविहीन हो गये । हे भामिनि ! जन्मसे अन्धे व्यक्तिकी भाँति हम आपका मुखदर्शन कर पानेमें समर्थ नहीं हैं । आपका तप तथा पराक्रम अद्भुत है; हम पापपरायण कर ही क्या सकते हैं ? हे मानदे ! हम आपकी शरणमें हैं । हमें नेत्र दीजिये; क्योंकि नेत्रज्योतिसे विहीन हो जाना मृत्युसे भी कष्टकारक होता है । आप हमारे ऊपर कृपा कीजिये । फिरसे नेत्रज्योति देकर इन समस्त क्षत्रियोंको अपना सेवक बना लीजिये । इसके बाद पापकर्मसे रहित होकर हमलोग साथ-साथ चले जायेंगे । अब हमलोग इस प्रकारका कर्म कभी नहीं करेंगे । अब हम सभी भार्गव ब्राह्मणोंके सेवक हो गये । हमलोगोंने अज्ञानवश जो भी पाप किया है उसे आप क्षमा करें । हम हैहय क्षत्रिय शपथपूर्वक कहते हैं कि आजसे कभी भी भृगुवंशी ब्राह्मणोंके साथ हमें वैरभाव नहीं रखना चाहिये और यथोचित व्यवहार करना चाहिये । हे सुश्रोणि ! आप पुत्रवती होवें । हम आपकी शरणमें हैं । हे कल्याणि ! आप कृपा करें; हमलोग अब कभी भी द्वेषभाव नहीं रखेंगे ॥ २१-२८.५ ॥
व्यास उवाच इति तेषां वचः श्रुत्वा ब्राह्मणी विस्मयान्विता ॥ २९ ॥ तानाह प्रणतान्दुःस्थानाश्वास्य गतलोचनान् । गृहीता न मया दृष्टिर्युष्माकं क्षत्रियाः किल ॥ ३० ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] उन क्षत्रियोंकी यह बात सुनकर ब्राह्मणी विस्मयमें पड़ गयी और उसने शरणागत तथा दुर्गतिको प्राप्त उन नेत्रहीन क्षत्रियोंको आश्वासन देकर कहा-हे क्षत्रियो ! आपलोग निश्चितरूपसे जान लें कि मैंने आप सबकी दृष्टिका हरण नहीं किया है ॥ २९-३० ॥
मैं आपलोगोंपर कुपित नहीं हूँ । अब मैं वास्तविक कारण बता रही हूँ, आपलोग सुनिये । मेरी जंघासे उत्पन्न यह भृगुवंशी बालक आज आपलोगोंपर कुपित है । क्षत्रियोंके द्वारा अपने बान्धवों और यहाँतक कि गर्भस्थित बालकोंका वध किये जानेकी बात जानकर कोपाविष्ट इसी बालकने आपलोगोंके नेत्र स्तम्भित कर दिये हैं ॥ ३१-३२ ॥
हे वत्सगण ! जब आपलोग निरपराध, धर्मनिष्ठ तथा तपस्वी भार्गव ब्राह्मणों और गर्भस्थ बालकोंको भी धन-लोलपतामें पडकर मार रहे थे तभी मैंने इसे अपनी जंघामें गर्भरूपसे एक सौ वर्षतक धारण किये रखा । भृगुवंशकी वृद्धिके लिये इस गर्भस्थ बालकने छहों अंगोंसहित सम्पूर्ण वेदोंका बड़े सहजभावसे अध्ययन कर लिया है और अब यह अपने पितृजनोंके वधसे अत्यन्त कुपित होकर आपलोगोंका संहार करना चाहता है ॥ ३३-३५ ॥
अतएव आपलोग इसी समय मेरी जंघासे उत्पन्न इस बालकसे विनम्रतापूर्वक याचना कीजिये । चरणोंमें गिरनेसे प्रसन्न होकर यह बालक आपलोगोंकी नेत्रज्योति मुक्त कर देगा ॥ ३७ ॥
इस प्रकार उसके कहनेपर उन हैहयवंशी क्षत्रियोंको दृष्टि प्राप्त हो गयी और वे और्व (ऊरुसे उत्पन्न) उस बालकसे आज्ञा लेकर आनन्दपूर्वक अपने-अपने घर चले गये ॥ ४२ ॥
हे करुणानिधान ! उन हैहय क्षत्रियोंकी उत्पत्ति कैसे हुई तथा किस कर्मसे उनका यह नाम पड़ा ? वह कारण मैं सुनना चाहता हूँ ॥ ४८ ॥
व्यास उवाच हैहयानां समुत्पत्तिं शृणु भूप सविस्तराम् । पुरातनीं सुपुण्यां च कथां पापप्रणाशिनीम् ॥ ४९ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! अब मैं हैहयोंकी उत्पत्तिसे सम्बन्धित अति प्राचीन, पुण्यदायिनी तथा पापनाशिनी कथाका विस्तारपूर्वक वर्णन कर रहा हूँ, आप इसे सुनिये ॥ ४९ ॥
हे महाराज ! किसी समय अत्यन्त सुन्दर, रूपवान् तथा अपरिमित तेजवाले सूर्यपुत्र जो 'रेवन्त' नामसे विख्यात थे, अपने मनोहर अश्वरत्न उच्चैःश्रवापर आरूढ़ होकर भगवान् विष्णुके निवासस्थान वैकुण्ठलोक गये ॥ ५०-५१ ॥
भगवान् विष्णुने उस मनोहर रेवन्तको घोड़ेपर बैठकर आता हुआ देखकर लक्ष्मीजीसे प्रेमपूर्वक पूछा-हे सुन्दर अंगोंवाली ! हे प्रिये ! दूसरे कामदेवके समान तेजोमय शरीरवाला यह कौन है जो घोड़ेपर सवार होकर तीनों लोकोंको मोहित करता हुआ इधर चला आ रहा है ॥ ५४-५५ ॥
प्रेक्षमाणा तदा लक्ष्मीस्तच्चित्ता दैवयोगतः । नोवाच वचनं किञ्चित्पृष्टापि च पुनः पुनः ॥ ५६ ॥
उस समय घोड़ेको एकटक देखते रहनेसे दैववशात् उसीमें चित्तयोग हो जानेके कारण भगवान् विष्णुके बार-बार पूछनेपर भी लक्ष्मीजीने कुछ नहीं कहा ॥ ५६ ॥
व्यास उवाच अश्वासक्तमतिं वीक्ष्य कामिनीमतिमोहिताम् । पश्यन्तीं परमप्रेम्णा चञ्चलाक्षीं च चञ्चलाम् ॥ ५७ ॥ तामाह भगवान्कुद्धः किं पश्यसि सुलोचने । मोहिता च हरिं दृष्ट्वा पृष्टा नैवाभिभाषसे ॥ ५८ ॥
व्यासजी बोले-भगवान् विष्णु कामिनी, चपल नेत्रोंवाली तथा चंचला लक्ष्मीको अत्यन्त मोहित होकर अत्यधिक प्रेमके साथ निहारती हुई तथा उस अश्वमें अनुरक्त बुद्धिवाली देखकर क्रोधित हो उठे और उनसे बोले-हे सुलोचने ! तुम क्या देख रही हो ? इस घोड़ेको देखकर मोहित हुई तुम मेरे पूछनेपर भी उत्तर नहीं दे रही हो ॥ ५७-५८ ॥
सर्वत्र रमसे यस्माद्रमा तस्माद्भविष्यसि । चञ्चलत्वाच्चलेत्येवं सर्वथैव न संशयः ॥ ५९ ॥
क्योंकि तुम्हारा चित्त सभी ओर रमण करता है अतएव 'रमा' और तुम्हारी चंचलताके कारण तुम 'चला' कही जाओगी; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५९ ॥
प्राकृता च यथा नारी नूनं भवति चञ्चला । तथा त्वमपि कल्याणि स्थिरा नैव कदाचन ॥ ६० ॥
जिस प्रकार सामान्य नारी चंचल होती है, उसी प्रकार हे कल्याणि ! तुम भी कभी स्थिर स्वभाववाली नहीं रहोगी ॥ ६० ॥
हे गोविन्द ! मैं इसी समय आपके देखते-देखते आपके सामने प्राण त्याग दूंगी; क्योंकि आपसे वियुक्त होकर विरहाग्निमें जलती हुई मैं कैसे जीवित रह सकूँगी ? ॥ ६७ ॥