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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
षष्ठः स्कन्धः
सप्तदशोऽध्यायः

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हैहयानामुत्पत्तिप्रसङ्गे रमाविष्णुसंवादवर्णनम् -
भगवतीकी कृपासे भार्गव-ब्राह्मणीकी जंघासे तेजस्वी बालककी उत्पत्ति, हैहयवंशी क्षत्रियोंकी उत्पत्तिकी कथा -


जनमेजय उवाच
कथं ताश्च स्त्रियः सर्वा भृगूणां दुःखसागरात् ।
मुक्ता वंशः पुनस्तेषां ब्राह्मणानां स्थिरोऽभवत् ॥ १ ॥
जनमेजय बोले-भृगुवंशकी स्त्रियोंका पुन: दुःखरूप समुद्रसे कैसे उद्धार हुआ और उन ब्राह्मणोंकी वंशपरम्परा किस प्रकार स्थिर रही ? ॥ १ ॥

हैहयैः किं कृतं कार्यं हत्वा तान्ब्राह्मणानपि ।
क्षत्रियैर्लोभसंयुक्तैः पापाचारैर्वदस्व तत् ॥ २ ॥
लोभके वशीभूत तथा पापाचारी हैहय क्षत्रियोंने उन ब्राह्मणोंको मारनेके पश्चात् कौन-सा कार्य किया ? उसे आप बताइये ॥ २ ॥

न तृप्तिरस्ति मे ब्रह्मन् पिबतस्ते कथामृतम् ।
पावनं सुखदं नॄणां परलोके फलप्रदम् ॥ ३ ॥
हे ब्रह्मन् ! आपके द्वारा कथित इस पवित्र, लोगोंके लिये सुखदायक तथा परलोकमें फल देनेवाले कथामृतका पान करते हुए मुझे तृप्ति नहीं हो रही है ॥ ३ ॥

व्यास उवाच
शृणु राजन्प्रवक्ष्यामि कथां पापप्रणाशिनीम् ।
यथा स्त्रियस्तु ता मुक्ता दुःखात्तस्माद्दुरत्ययात् ॥ ४ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! सुनिये, वे स्त्रियाँ उस भयावह दुःखसे जिस प्रकार मुक्त हुई, अब मैं उस पापनाशिनी कथाका वर्णन करूँगा ॥ ४ ॥

भृगुपत्‍न्यो यदा राजन् हिमवन्तं गिरिं गताः ।
भयत्रस्ता विभग्नाशा हैहयैः पीडिता भृशम् ॥ ५ ॥
हे राजन् ! जब क्षत्रिय हैहय भृगुकुलकी नारियोंको बहुत पीड़ित करने लगे तब वे भयभीत तथा निराश होकर हिमालयपर्वतपर चली गयीं ॥ ५ ॥

गौरीं तत्र तु संस्थाप्य मृण्मयीं सरितस्तटे ।
उपोषणपराश्चकुर्निश्चयं मरणं प्रति ॥ ६ ॥
उन्होंने वहाँ नदीके तटपर गौरीकी मृण्मयी प्रतिमा स्थापित करके निराहार रहते हुए [उपासनामें लीन होकर] अपने मरणके प्रति पूरा निश्चय कर लिया ॥ ६ ॥

स्वप्ने गत्वा तदा देवी प्राह ताः प्रमदोत्तमाः ।
युष्मासु मध्ये कस्याश्चिद्‌भविता चोरुजः पुमान् ॥ ७ ॥
मदंशशक्तिसम्भिन्नः स वः कार्यं विधास्यति ।
इत्यादिश्य पराम्बा सा पश्चादन्तर्हिताभवत् ॥ ८ ॥
एक समय स्वप्नमें भगवती जगदम्बाने उन उत्तम स्त्रियोंके पास पहुँचकर कहा-तुमलोगोंमेंसे किसीकी जंघासे एक पुरुष उत्पन्न होगा । मेरा अंशभूत वही शक्तिमान् पुरुष तुमलोगोंका कार्य सिद्ध करेगा । ऐसा कहकर पराम्बा भगवती अन्तर्धान हो गयीं । ७-८ ॥

जागृतास्तु ततः सर्वा मुदमापुर्वराङ्गनाः ।
काचित्तासां भयोद्विग्ना कामिनी चतुरा भृशम् ॥ ९ ॥
दधार चोरुणैकेन गर्भं सा कुलवृद्धये ।
जागनेपर वे सभी स्त्रियाँ बहुत प्रसन्न हुई । उनमेंसे किसी चतुर, कामिनी स्त्रीने जो भयसे त्रस्त थी; वंशवृद्धिहेतु अपनी एक जंघामें गर्भ धारण किया ॥ ९.५ ॥

पलायनपरा दृष्टा क्षत्रियैर्ब्राह्मणी यदा ॥ १० ॥
जब उन हैहय क्षत्रियोंने व्याकुल तथा तेजयुक्त उस स्त्रीको भागती हुई देखा तब वे उसके पीछे दौड़ पड़े ॥ १० ॥

विह्वला तेजसा युक्ता तदा ते दुद्रुवुर्भृशम् ।
गृह्यतां वध्यतां नारी सगर्भा याति सत्वरा ॥ ११ ॥
'यह गर्भ धारण करके वेगपूर्वक भागी जा रही है, इसे पकड़ लो और मार डालो'-इस प्रकार कहते हुए हाथमें तलवार लेकरवे उस स्त्रीके पास पहुंच गये ॥ ११ ॥

इति ब्रुवन्तः सम्प्राप्ताः कामिनीं खड्गपाणयः ।
सा भयार्ता तु तान्दृष्ट्वा रुरोद समुपागतान् ॥ १२ ॥
भयसे घबरायी हुई वह स्त्री अपने समीप आये हुए उन क्षत्रियोंको देखकर रोने लगी और पुनः गर्भरक्षाके लिये भयसे विहल होकर जोर-जोरसे विलाप करने लगी ॥ १२ ॥

गर्भस्य रक्षणार्थं सा चुक्रोशातिभयातुरा ।
रुदतीं मातरं श्रुत्वा दीनां प्राणविवर्जिताम् ॥ १३ ॥
निराधारां क्रन्दमानां क्षत्रियैर्भृशतापिताम् ।
गृहीतामिव सिंहेन सगर्भां हरिणीं यथा ॥ १४ ॥
साश्रुनेत्रां वेपमानां सङ्क्रुध्य बालकस्तदा ।
भित्त्वोरुं निर्जगामाशु गर्भः सूर्य इवापरः ॥ १५ ॥
तब दयनीय दशावाली, प्राणहीन-सी प्रतीत हो रही, आश्रयहीन, क्षत्रियोंसे पीडित होनेके कारण क्रन्दन करती हुई, सिंहके द्वारा पकड़ी गयी गर्भवती हिरनीके समान प्रतीत होनेवाली, आँसूभरे नेत्रोंवाली तथा थर-थर काँपती हुई माताका रुदन सुनकर वह सुन्दर गर्भस्थ बालक कुपित होकर अपने तेजसे क्षत्रियोंकी नेत्र-ज्योतिका हरण करता हुआ जंघाका भेदन करके दूसरे सूर्यकी भाँति शीघ्र ही बाहर निकल आया ॥ १३-१५ ॥

मुष्णन्दृष्टीः क्षत्रियाणां तेजसा बालकः शुभः ।
दर्शनाद्‌बालकस्याशु सर्वे जाता विलोचनाः ॥ १६ ॥
बभ्रमुर्गिरिदुर्गेषु जन्मान्धा इव क्षत्रियाः ।
चिन्तितं मनसा सर्वैः किमेतदिति साम्प्रतम् ॥ १७ ॥
सर्वे चक्षुर्विहीना यज्जाता स्म बालदर्शनात् ।
ब्राह्मण्यास्तु प्रभावोऽयं सतीव्रतबलं महत् ॥ १८ ॥
उस बालककी ओर देखते ही वे सभी दृष्टिहीन हो गये । तत्पश्चात् वे क्षत्रिय जन्मान्धकी भाँति पर्वतकी गुफाओंमें इधर-उधर भटकने लगे । सभी क्षत्रिय मनमें विचार करने लगे कि इस समय यह क्या हो गया है कि हम सभी लोग बालकको देखनेमात्रसे चक्षुहीन हो गये । ऐसा प्रतीत होता है कि इसी ब्राह्मणीका यह प्रभाव है; क्योंकि सतीव्रत एक महान् बल है । अमोघ संकल्पवाली दुःखित स्त्रियाँ क्षणभरमें न जाने क्या कर डालेंगी ! ॥ १६-१८ ॥

क्षणाद्वामोघसङ्कल्पाः किं करिष्यन्तिदुःखिताः ।
इति सञ्चिन्त्य मनसा नेत्रहीना निराश्रयाः ॥ १९ ॥
ब्राह्मणीं शरणं जग्मुर्हैहया गतचेतसः ।
प्रणेमुस्तां भयत्रस्तां कृताञ्जलिपुटाश्च ते ॥ २० ॥
ऐसा मनमें सोचकर नेत्रहीन, निराश्रय तथा चेतनारहित हैहयवंशी क्षत्रिय उस ब्राह्मणीकी शरणमें गये और उन्होंने भयसे त्रस्त उस स्त्रीको दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया । वे श्रेष्ठ क्षत्रिय अपनी नेत्रज्योतिके लिये इस भयाकुल ब्राहाणीसे कहने लगे- ॥ १९-२० ॥

ऊचुश्चैनां भयोद्विग्नां दृष्ट्यर्थं क्षत्रियर्षभाः ।
प्रसीद सुभगे मातः सेवकास्ते वयं किल ॥ २१ ॥
कृतापराधा रम्भोरु क्षत्रियाः पापबुद्धयः ।
दर्शनात्तव तन्वङ्‌गि जाताः सर्वे विलोचनाः ॥ २२ ॥
मुखं ते नैव पश्यामो जन्मान्धा इव भामिनि ।
अद्‌भुतं ते तपो वीर्यं किं कुर्मः पापकारिणः ॥ २३ ॥
शरणं ते प्रपन्नाः स्मो देहि चक्षूंषि मानदे ।
अन्धत्वं मरणादुग्रं कृपां कर्तुं त्वमर्हसि ॥ २४ ॥
पुनर्दृष्टिप्रदानेन सेवकान्क्षत्रियान्कुरु ।
उपरम्य च गच्छेम सहिताः पापकर्मणः ॥ २५ ॥
अतः परं न कर्तव्यमीदृशं कर्म कर्हिचित् ।
भार्गवाणां तु सर्वेषां सेवकाः स्मो वयं किल ॥ २६ ॥
अज्ञानाद्यत्कृतं पापं क्षन्तव्यं तत्त्वयाधुना ।
वैरं नातः परं क्वापि भृगुभिः क्षत्रियैः सह ॥ २७ ॥
कर्तव्यं शपथैः सम्यग्वर्तितव्यं तु हैहयैः ।
सपुत्रा भव सुश्रोणि प्रणताः स्मो वयं च ते ॥ २८ ॥
प्रसादं कुरु कल्याणि न द्विष्यामः कदाचन ।
हे सुभगे ! हे माता ! हम सब आपके सेवक हैं । अब आप हमारे ऊपर प्रसन्न हो जाइये । हे रम्भोरु ! पाप बुद्धिवाले हम क्षत्रियोंने अपराध किया है । हे तन्वंगि ! इसीलिये आपको देखते ही हम सब चक्षुविहीन हो गये । हे भामिनि ! जन्मसे अन्धे व्यक्तिकी भाँति हम आपका मुखदर्शन कर पानेमें समर्थ नहीं हैं । आपका तप तथा पराक्रम अद्भुत है; हम पापपरायण कर ही क्या सकते हैं ? हे मानदे ! हम आपकी शरणमें हैं । हमें नेत्र दीजिये; क्योंकि नेत्रज्योतिसे विहीन हो जाना मृत्युसे भी कष्टकारक होता है । आप हमारे ऊपर कृपा कीजिये । फिरसे नेत्रज्योति देकर इन समस्त क्षत्रियोंको अपना सेवक बना लीजिये । इसके बाद पापकर्मसे रहित होकर हमलोग साथ-साथ चले जायेंगे । अब हमलोग इस प्रकारका कर्म कभी नहीं करेंगे । अब हम सभी भार्गव ब्राह्मणोंके सेवक हो गये । हमलोगोंने अज्ञानवश जो भी पाप किया है उसे आप क्षमा करें । हम हैहय क्षत्रिय शपथपूर्वक कहते हैं कि आजसे कभी भी भृगुवंशी ब्राह्मणोंके साथ हमें वैरभाव नहीं रखना चाहिये और यथोचित व्यवहार करना चाहिये । हे सुश्रोणि ! आप पुत्रवती होवें । हम आपकी शरणमें हैं । हे कल्याणि ! आप कृपा करें; हमलोग अब कभी भी द्वेषभाव नहीं रखेंगे ॥ २१-२८.५ ॥

व्यास उवाच
इति तेषां वचः श्रुत्वा ब्राह्मणी विस्मयान्विता ॥ २९ ॥
तानाह प्रणतान्दुःस्थानाश्वास्य गतलोचनान् ।
गृहीता न मया दृष्टिर्युष्माकं क्षत्रियाः किल ॥ ३० ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] उन क्षत्रियोंकी यह बात सुनकर ब्राह्मणी विस्मयमें पड़ गयी और उसने शरणागत तथा दुर्गतिको प्राप्त उन नेत्रहीन क्षत्रियोंको आश्वासन देकर कहा-हे क्षत्रियो ! आपलोग निश्चितरूपसे जान लें कि मैंने आप सबकी दृष्टिका हरण नहीं किया है ॥ २९-३० ॥

नाहं रुषान्विता सत्यं कारणं शृणुताद्य यत् ।
अयं च भार्गवो नूनमूरुजः कुपितोऽद्य वः ॥ ३१ ॥
चक्षूंषि तेन युष्माकं स्तम्भितानि रुषावता ।
स्वबन्धून्निहताञ्ज्ञात्वा गर्भस्थानपि क्षत्रियैः ॥ ३२ ॥
मैं आपलोगोंपर कुपित नहीं हूँ । अब मैं वास्तविक कारण बता रही हूँ, आपलोग सुनिये । मेरी जंघासे उत्पन्न यह भृगुवंशी बालक आज आपलोगोंपर कुपित है । क्षत्रियोंके द्वारा अपने बान्धवों और यहाँतक कि गर्भस्थित बालकोंका वध किये जानेकी बात जानकर कोपाविष्ट इसी बालकने आपलोगोंके नेत्र स्तम्भित कर दिये हैं ॥ ३१-३२ ॥

अनागसो धर्मपरांस्तापसान्धनकाम्यया ।
गर्भानपि यदा यूयं भृगूनघ्नंस्तु पुत्रकाः ॥ ३३ ॥
तदायमूरुणा गर्भो मया वर्षशतं धृतः ।
षडङ्गश्चाखिलो वेदो गृहीतोऽनेन चाञ्जसा ॥ ३४ ॥
गर्भस्थेनापि बालेन भृगुवंशविवृद्धये ।
सोऽपि पितृवधान्नूनं क्रोथेद्धो हन्तुमिच्छति ॥ ३५ ॥
हे वत्सगण ! जब आपलोग निरपराध, धर्मनिष्ठ तथा तपस्वी भार्गव ब्राह्मणों और गर्भस्थ बालकोंको भी धन-लोलपतामें पडकर मार रहे थे तभी मैंने इसे अपनी जंघामें गर्भरूपसे एक सौ वर्षतक धारण किये रखा । भृगुवंशकी वृद्धिके लिये इस गर्भस्थ बालकने छहों अंगोंसहित सम्पूर्ण वेदोंका बड़े सहजभावसे अध्ययन कर लिया है और अब यह अपने पितृजनोंके वधसे अत्यन्त कुपित होकर आपलोगोंका संहार करना चाहता है ॥ ३३-३५ ॥

भगवत्याः प्रसादेन जातोऽयं मम बालकः ।
तेजसा यस्य दिव्येन चक्षूंषि मुषितानि वः ॥ ३६ ॥
मेरा यह पुत्र भगवतीकी कृपासे उत्पन्न हुआ है, जिसके अलौकिक तेजने आपलोगोंके नेत्र हर लिये हैं ॥ ३६ ॥

तस्मादौर्वं सुतं मेऽद्य याचध्वं विनयान्विताः ।
प्रणिपातेन तुष्टोऽसौ दृष्टिं वः प्रतिमोक्ष्यति ॥ ३७ ॥
अतएव आपलोग इसी समय मेरी जंघासे उत्पन्न इस बालकसे विनम्रतापूर्वक याचना कीजिये । चरणोंमें गिरनेसे प्रसन्न होकर यह बालक आपलोगोंकी नेत्रज्योति मुक्त कर देगा ॥ ३७ ॥

व्यास उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्या हैहयास्तुष्टुवुश्च तम् ।
प्रणेमुर्विनयोपेता ऊरुजं मुनिसत्तमम् ॥ ३८ ॥
व्यासजी बोले-उस ब्राह्मणीका वचन सुनकर हैहयोंने जंघासे उत्पन्न बालकरूप मुनि श्रेष्ठको प्रणाम किया और वे विनयसे युक्त होकर उसकी स्तुति करने लगे ॥ ३८ ॥

स सन्तुष्टो बभूवाथ तानुवाच विचक्षुषः ।
गच्छध्वं स्वगृहान्भूपा ममाख्यानकृतं वचः ॥ ३९ ॥
तत्पश्चात् प्रसन्न होकर उस बालकने उन नेत्रहीन क्षत्रियोंसे कहा-हे राजाओ ! अब तुमलोग मेरी कही हुई बातपर विश्वास करके अपने घर लौट जाओ ॥ ३९ ॥

अवश्यम्भाविभावास्ते भवन्ति देवनिर्मिताः ।
नात्र शोकस्तु कर्तव्यः पुरुषेण विजानता ॥ ४० ॥
दैवने जो विधान सुनिश्चित कर दिये हैं, वे अवश्य होकर रहते हैं; ज्ञानी व्यक्तिको इस विषयमें चिन्ता नहीं करनी चाहिये ॥ ४० ॥

पूर्ववदृषयः सर्वे प्राप्नुवन्तु यथासुखम् ।
व्रजन्तु विगतक्रोधा भवनानि यथासुखम् ॥ ४१ ॥
सभी ऋषिगण पूर्वकी भाँति सुख प्राप्त करें तथा सभी क्षत्रिय भी अब क्रोधरहित होकर सुखपूर्वक अपने-अपने घरोंके लिये प्रस्थान करें ॥ ४१ ॥

इति तेन समादिष्टा हैहयाः प्राप्तलोचनाः ।
और्वमामन्त्र्य जग्मुस्ते सदनानि यथारुचि ॥ ४२ ॥
इस प्रकार उसके कहनेपर उन हैहयवंशी क्षत्रियोंको दृष्टि प्राप्त हो गयी और वे और्व (ऊरुसे उत्पन्न) उस बालकसे आज्ञा लेकर आनन्दपूर्वक अपने-अपने घर चले गये ॥ ४२ ॥

ब्राह्मणी तं सुतं दिव्यं गृहीत्वा स्वाश्रमं गता ।
पालयामास भूपाल तेजस्विनमतन्द्रिता ॥ ४३ ॥
हे राजन् ! वह ब्राह्मणी भी उस तेजस्वी तथा अलौकिक बालकको लेकर अपने आश्रम चली गयी और बड़ी सावधानीपूर्वक उसका पालन-पोषण करने लगी ॥ ४३ ॥

एवं ते कथितं राजन् भृगूणां तु विनाशनम् ।
लोभाविष्टैः क्षत्रियैश्च यत्कृतं पातकं किल ॥ ४४ ॥
हे राजन् ! इस प्रकार भृगुवंशके विनाश तथा लोभके वशीभूत हैहय क्षत्रियोंने जो पापकर्म किया था; उसके विषयमें मैंने आपसे कहा ॥ ४४ ॥

जनमेजय उवाच
श्रुतं मया महत्कर्म क्षत्रियाणाञ्च दारुणम् ।
कारणं लोभ एवात्र दुःखदश्चोभयोस्तु सः ॥ ४५ ॥
जनमेजय बोले-हे मुने ! मैंने क्षत्रियोंके अत्यन्त दारुण कर्मक विषयमें सुन लिया । इहलोक तथा परलोकमें दुःख देनेवाला वह लोभ ही इसमें मूल कारण है ॥ ४५ ॥

किञ्चित्प्रष्टुमिहेच्छामि संशयं वासवीसुत ।
हैहयास्ते कथं नाम्ना ख्याता भुवि नृपात्मजाः ॥ ४६ ॥
हे सत्यवतीनन्दन ! मैं संशयग्रस्त हूँ; [इस विषयमें] आपसे कुछ पूछना चाहता हूँ । ये क्षत्रिय राजकुमार इस जगत्में हैहय नामसे क्यों प्रसिद्ध हुए ? ॥ ४६ ॥

यदोस्तु यादवाः कामं भरताद्‌भारतास्तथा ।
हैहयः कोऽपि राजाभूत्तेषां वंशे प्रतिष्ठितः ॥ ४७ ॥
यदुसे यादव हुए तथा भरतसे भारत हुए । उसी प्रकार क्या उन क्षत्रियोंके वंशमें 'हैहय' नामधारी कोई प्रतिष्ठित राजा हुआ था ? ॥ ४७ ॥

तदहं श्रोतुमिच्छामि कारणं करुणानिधे ।
हैहयास्ते कथं जाताः क्षत्रियाः केन कर्मणा ॥ ४८ ॥
हे करुणानिधान ! उन हैहय क्षत्रियोंकी उत्पत्ति कैसे हुई तथा किस कर्मसे उनका यह नाम पड़ा ? वह कारण मैं सुनना चाहता हूँ ॥ ४८ ॥

व्यास उवाच
हैहयानां समुत्पत्तिं शृणु भूप सविस्तराम् ।
पुरातनीं सुपुण्यां च कथां पापप्रणाशिनीम् ॥ ४९ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! अब मैं हैहयोंकी उत्पत्तिसे सम्बन्धित अति प्राचीन, पुण्यदायिनी तथा पापनाशिनी कथाका विस्तारपूर्वक वर्णन कर रहा हूँ, आप इसे सुनिये ॥ ४९ ॥

कस्मिंश्चित्समये भूप सूर्यपुत्रः सुशोभनः ।
रेवन्तेति च विख्यातो रूपवानमितप्रभः ॥ ५० ॥
उच्चैःश्रवसमारुह्य हयरत्‍नं मनोहरम् ।
जगाम विष्णुसदनं वैकुण्ठं भास्करात्मजः ॥ ५१ ॥
हे महाराज ! किसी समय अत्यन्त सुन्दर, रूपवान् तथा अपरिमित तेजवाले सूर्यपुत्र जो 'रेवन्त' नामसे विख्यात थे, अपने मनोहर अश्वरत्न उच्चैःश्रवापर आरूढ़ होकर भगवान् विष्णुके निवासस्थान वैकुण्ठलोक गये ॥ ५०-५१ ॥

भगवद्दर्शनाकांक्षी हयारूढो यदागतः ।
हयस्थस्तु तदा दृष्टो लक्ष्म्यासौ रविनन्दनः ॥ ५२ ॥
विष्णुके दर्शनके आकांक्षी वे भास्करनन्दन घोड़ेपर सवार होकर जब वहाँ पहुँचे तब लक्ष्मीजीकी दृष्टि अश्वपर विराजमान रेवन्तपर पड़ गयी ॥ ५२ ॥

रमा वीक्ष्य हयं दिव्यं भ्रातरं सागरोद्‌भवम् ।
रूपेण विस्मिता तस्य तस्थौ स्तम्भितलोचना ॥ ५३ ॥
समुद्रसे प्रादुर्भूत अपने भाई अलौकिक उच्चैः अवा घोड़ेको देखकर वे महान् विस्मयमें पड़ गयीं और उसके रूपको स्थिर नेत्रोंसे देखती रह गयीं ॥ ५३ ॥

भगवानपि तं दृष्ट्वा हयारूढं मनोहरम् ।
आगच्छन्तं रमां विष्णुः पप्रच्छ प्रणयात्प्रभुः ॥ ५४ ॥
कोऽयमायाति चार्वङ्‌गि हयारूढ इवापरः ।
स्मरतेजस्तनुः कान्ते मोहयन्भुवनत्रयम् ॥ ५५ ॥
भगवान् विष्णुने उस मनोहर रेवन्तको घोड़ेपर बैठकर आता हुआ देखकर लक्ष्मीजीसे प्रेमपूर्वक पूछा-हे सुन्दर अंगोंवाली ! हे प्रिये ! दूसरे कामदेवके समान तेजोमय शरीरवाला यह कौन है जो घोड़ेपर सवार होकर तीनों लोकोंको मोहित करता हुआ इधर चला आ रहा है ॥ ५४-५५ ॥

प्रेक्षमाणा तदा लक्ष्मीस्तच्चित्ता दैवयोगतः ।
नोवाच वचनं किञ्चित्पृष्टापि च पुनः पुनः ॥ ५६ ॥
उस समय घोड़ेको एकटक देखते रहनेसे दैववशात् उसीमें चित्तयोग हो जानेके कारण भगवान् विष्णुके बार-बार पूछनेपर भी लक्ष्मीजीने कुछ नहीं कहा ॥ ५६ ॥

व्यास उवाच
अश्वासक्तमतिं वीक्ष्य कामिनीमतिमोहिताम् ।
पश्यन्तीं परमप्रेम्णा चञ्चलाक्षीं च चञ्चलाम् ॥ ५७ ॥
तामाह भगवान्कुद्धः किं पश्यसि सुलोचने ।
मोहिता च हरिं दृष्ट्वा पृष्टा नैवाभिभाषसे ॥ ५८ ॥
व्यासजी बोले-भगवान् विष्णु कामिनी, चपल नेत्रोंवाली तथा चंचला लक्ष्मीको अत्यन्त मोहित होकर अत्यधिक प्रेमके साथ निहारती हुई तथा उस अश्वमें अनुरक्त बुद्धिवाली देखकर क्रोधित हो उठे और उनसे बोले-हे सुलोचने ! तुम क्या देख रही हो ? इस घोड़ेको देखकर मोहित हुई तुम मेरे पूछनेपर भी उत्तर नहीं दे रही हो ॥ ५७-५८ ॥

सर्वत्र रमसे यस्माद्रमा तस्माद्‌भविष्यसि ।
चञ्चलत्वाच्चलेत्येवं सर्वथैव न संशयः ॥ ५९ ॥
क्योंकि तुम्हारा चित्त सभी ओर रमण करता है अतएव 'रमा' और तुम्हारी चंचलताके कारण तुम 'चला' कही जाओगी; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५९ ॥

प्राकृता च यथा नारी नूनं भवति चञ्चला ।
तथा त्वमपि कल्याणि स्थिरा नैव कदाचन ॥ ६० ॥
जिस प्रकार सामान्य नारी चंचल होती है, उसी प्रकार हे कल्याणि ! तुम भी कभी स्थिर स्वभाववाली नहीं रहोगी ॥ ६० ॥

त्वं हयं मत्समीपस्था समीक्ष्य यदि मोहिता ।
वडवा भव वामोरु मर्त्यलोकेऽतिदारुणे ॥ ६१ ॥
मेरे पास रहनेपर भी तुम यदि एक अश्वको देखकर मोहित हो गयी हो तो हे वामोरु ! तुम अत्यन्त दारुण मर्त्यलोकमें घोड़ीके रूप में जन्म ग्रहण करो ॥ ६१ ॥

इति शप्ता रमा देवी हरिणा दैवयोगतः ।
रुरोद वेपमाना सा भयभीतातिदुःखिता ॥ ६२ ॥
दैवयोगसे भगवान् विष्णुने जब देवी लक्ष्मीको ऐसा शाप दे दिया तब वे अत्यन्त भयभीत तथा दुःखी होकर काँपती हुई रोने लगीं ॥ ६२ ॥

तमुवाच रमानाथ शङ्‌किता चारुहासिनी ।
प्रणम्य शिरसा देवं स्वपतिं विनयान्विता ॥ ६३ ॥
सुन्दर मुसकानवाली लक्ष्मीजी दुविधामें पड़ गयीं और अपने पति भगवान् विष्णुको विनयसे युक्त होकर मस्तक झुकाकर प्रणाम करके उनसे कहने लगीं- ॥ ६३ ॥

देवदेव जगन्नाथ करुणाकर केशव ।
स्वल्पेऽपराधे गोविन्द कस्माच्छापं ददासि मे ॥ ६४ ॥
हे देवदेव ! हे जगदीश्वर ! हे करुणानिधान ! हे केशव ! हे गोविन्द ! एक छोटेसे अपराधके लिये आपने मुझे ऐसा शाप क्यों दे दिया ? ॥ ६४ ॥

न कदाचिन्मया दृष्टः क्रोधस्ते हीदृशः प्रभो ।
क्व गतस्ते मयि स्नेहः सहजो न तु नश्वरः ॥ ६५ ॥
हे प्रभो ! मैंने आपका ऐसा क्रोध पहले कभी नहीं देखा । मेरे प्रति आपका वह सहज तथा शाश्वत प्रेम कहाँ चला गया ? ॥ ६५ ॥

वज्रपातस्तु शत्रौ वै कर्तव्यो न सुहृज्जने ।
सदाहं वरयोग्या ते शापयोग्या कथं कृता ॥ ६६ ॥
आपको वज्रपात शत्रुपर करना चाहिये न कि अपने स्नेहीजनपर । आपसे सदा वर पानेयोग्य मैं आज शापके योग्य कैसे हो गयी ? ॥ ६६ ॥

प्राणांस्त्यक्ष्यामि गोविन्द पश्यतोऽद्य तवाग्रतः ।
कथं जीवे त्वया हीना विरहानलतापिता ॥ ६७ ॥
हे गोविन्द ! मैं इसी समय आपके देखते-देखते आपके सामने प्राण त्याग दूंगी; क्योंकि आपसे वियुक्त होकर विरहाग्निमें जलती हुई मैं कैसे जीवित रह सकूँगी ? ॥ ६७ ॥

प्रसादं कुरु देवेश शापादस्मात्सुदारुणात् ।
कदा मुक्ता समीपं ते प्राप्नोमि सुखदं विभौ ॥ ६८ ॥
हे देवेश ! मेरे ऊपर कृपा कीजिये । हे विभो ! अब में इस दारुण शापसे मुक्त होकर आपका सुखदायी सांनिध्य कब प्राप्त करूँगी ? ॥ ६८ ॥

हरिरुवाच
यदा ते भविता पुत्रः पृथिव्यां मत्समः प्रिये ।
तदा मां प्राप्य तन्वङ्‌गि सुखिता त्वं भविष्यसि ॥ ६९ ॥
हरि बोले-हे प्रिये ! हे तन्वंगि ! जब पृथ्वीलोकमें तुम्हें मेरे समान एक पुत्रकी प्राप्ति हो जायगी तब पुनः मुझे प्राप्त करके तुम सुखी हो जाओगी ॥ ६९ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां षष्ठस्कन्धे हैहयानामुत्पत्तिप्रसङ्गे
रमाविष्णुसंवादवर्णनं नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥
अध्याय सत्रहवाँ समाप्त ॥ १७ ॥


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