भगवती लक्ष्मीद्वारा घोड़ीका रूप धारणकर तपस्या करना -
जनमेजय उवाच इति शप्ता भगवता सिन्धुजा कोपयोगतः । कथं सा वडवा जाता रेवन्तेन च किं कृतम् ॥ १ ॥
जनमेजय बोले-[हे मुने !] इस प्रकार कोप करके भगवान्के द्वारा शापित लक्ष्मीजीने घोड़ीके रूपमें किस प्रकार जन्म लिया और इसके बाद रेवन्तने क्या किया ? ॥ १ ॥
कस्मिन्देशेऽब्धिजा देवी वडवारूपधारिणी । संस्थितैकाकिनी बाला परोषित्पतिका यथा ॥ २ ॥
अपने पतिके प्रवासमें रहनेके कारण उसके वियोगमें एकाकिनी समय व्यतीत करनेवाली नारीकी भाँति लक्ष्मीजीने घोडीका रूप धारण करके किस देशमें समय व्यतीत किया ? ॥ २ ॥
कालं कियन्तमायुष्मन् वियुक्ता पतिना रमा । संस्थिता विजनेऽरण्ये किं कृतं च तया पुनः ॥ ३ ॥
हे आयुष्मन् ! पतिसे वियुक्त रहते हुए लक्ष्मीजीने कितना समय बिताया और पुनः उस निर्जन वनमें रहती हुई उन्होंने क्या किया ? ॥ ३ ॥
समागमं कदा प्राप्ता वासुदेवस्य सिन्धुजा । पुत्रः कथं तया प्राप्तो नारायणवियुक्तया ॥ ४ ॥
समुद्रतनया लक्ष्मीको पुनः भगवान् विष्णुका समागम कब प्राप्त हुआ तथा विष्णुसे अलग रहते हुए उन्होंने किस प्रकार पुत्र प्राप्त किया ? ॥ ४ ॥
एतद्वृत्तान्तमार्येश कथयस्व सविस्तरम् । श्रोतुकामोऽस्मि विप्रेन्द्र कथाख्यानमनुत्तमम् ॥ ५ ॥
हे आर्येश ! इस वृत्तान्तका वर्णन विस्तारके साथ कीजिये । हे विप्रवर ! मैं इस अत्युत्तम पौराणिक आख्यानको सुनना चाहता हूँ ॥ ५ ॥
कामिनी रमाको विष्णुद्वारा शापित की गयी देखकर रेवन्त भयके कारण जगत्पति वासुदेवको दूरसे ही प्रणाम करके चले गये ॥ ८ ॥
पितुः सकाशं त्वरितो वीक्ष्य कोपं जगत्पतेः । निवेदयामास कथां भास्कराय स शापजाम् ॥ ९ ॥
जगन्नाथ विष्णुका यह क्रोध देखकर वे तत्काल अपने पिताके पास गये और उन सूर्यसे शापसे सम्बन्धित कथा बतायी ॥ ९ ॥
दुःखिता सा रमा देवी प्रणम्य जगदीश्वरम् । आज्ञप्ता मानुषं लोकं प्राप्ता कमललोचना ॥ १० ॥ सूर्यपत्न्या तपस्तप्तं यत्र पूर्वं सुदारुणम् । तत्रैव सा ययावाशु वडवारूपधारिणी ॥ ११ ॥ कालिन्दीतमसासङ्गे सुपर्णाक्षस्य चोत्तरे । सर्वकामप्रदे स्थाने सुरम्यवनमण्डिते ॥ १२ ॥
इसके बाद कमलके समान नेत्रोंवाली वे दुःखित लक्ष्मीजी जगदीश्वर विष्णुजीसे आज्ञा लेकर उन्हें प्रणाम करके मृत्युलोकमें आ गयौं । सूर्यकी पत्नीने पूर्वकालमें सुपर्णाक्षकी उत्तरदिशामें यमुना-तमसा नदीके संगमपर सभी मनोरथ पूर्ण करनेवाले तथा सुन्दर वनोंसे सुशोभित जिस स्थानपर कठोर तपस्या की थी, वहीं वडवारूपधारिणी वे लक्ष्मीजी शीघ्र पहुँच गयीं ॥ १०-१२ ॥
वहाँ रहकर वे लक्ष्मीजी समस्त कामनाएँ पूर्ण करनेवाले, त्रिशूलधारी, चन्द्रशेखर, पाँच मुखोंवाले, दस भुजाओंवाले, गौरीके शरीरका अर्ध भाग धारण करनेवाले, कर्पूरके समान गौर शरीरवाले, नीले कण्ठसे सुशोभित, तीन नेत्रोंवाले, व्याघ्रचर्म धारण करनेवाले, हाथीके चर्मका उत्तरीय धारण करनेवाले, गलेमें नरमण्डकी मालासे मण्डित तथा सर्पका यज्ञोपवीत धारण करनेवाले महादेव शंकरका एकाग्रमनसे ध्यान करने लगीं ॥ १३-१५ ॥
हे राजन् ! महादेव शंकरका ध्यान करते-करते लक्ष्मीजीके मनमें वैराग्यका प्रादुर्भाव हो गया । इस प्रकार [उनको तप करते हुए एक हजार दिव्य वर्ष बीत गये ॥ १७ ॥
ततस्तुष्टो महादेवो वृषारूढस्त्रिलोचनः । प्रत्यक्षोऽभून्महेशानः पार्वतीसहितः प्रभुः ॥ १८ ॥
तदनन्तर प्रसन्न होकर त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकरने वृषभपर सवार होकर पार्वतीजीके साथ उन्हें साक्षात् दर्शन दिया ॥ १८ ॥
तत्रैत्य सगणः शम्भुस्तामाह हरिवल्लभाम् । तपस्यन्तीं महाभागामश्विनीरूपधारिणीम् ॥ १९ ॥
भगवान् शंकरने अपने गणोंसहित वहाँ आकर तप करती हुई वडवारूपधारिणी महाभागा विष्णुप्रिया लक्ष्मीजीसे कहा- ॥ १९ ॥
किं तपस्यसि कल्याणि जगन्मातर्वदस्व मे । सर्वार्थदः पतिस्तेऽस्ति सर्वलोकविधायकः ॥ २० ॥
हे कल्याणि ! हे जगजननि ! आप तपस्या क्यों कर रही हैं ? मुझे इसका कारण बतायें । आपके पति विष्णु तो स्वयं सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण करनेवाले तथा सभी लोकोंका विधान करनेवाले हैं ॥ २० ॥
हे देवि ! भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाले जगत्पति वासुदेव जगन्नाथ विष्णुको छोड़कर इस समय आप मेरी आराधना किसलिये कर रही हैं ? ॥ २१ ॥
वेदोक्तं वचनं कार्यं नारीणां देवता पतिः । नान्यस्मिन्सर्वथा भावः कर्तव्यः कर्हिचित्क्वचित् ॥ २२ ॥
स्त्रियोंके लिये पति ही उनका देवता होता हैइस वेदोक्त वचनका उन्हें पालन करना चाहिये । किसी दूसरेमें कभी कहीं भी भावना नहीं करनी चाहिये ॥ २२ ॥
पतिशुश्रूषणं स्त्रीणां धर्म एव सनातनः । यादृशस्तादृशः सेव्यः सर्वथा शुभकाम्यया ॥ २३ ॥
पतिकी सेवा-शुश्रूषा ही स्त्रियोंका सनातन धर्म है । पति चाहे जैसा भी हो, कल्याणकी इच्छा रखनेवाली स्त्रीको निरन्तर उसकी सेवा करनी चाहिये ॥ २३ ॥
नारायणस्तु सर्वेषां सेव्यो योग्यः सदैव हि । तं त्यक्त्वा देवदेवेशं किं मां ध्यायसि सिन्धुजे ॥ २४ ॥
भगवान् विष्णु तो सर्वदा सभी प्राणियोंकी आराधनाके योग्य हैं । अतएव हे सिन्धुजे ! उन देवाधिदेवको छोड़कर आप मेरा ध्यान क्यों कर रही हैं ? ॥ २४ ॥
लक्ष्मीरुवाच आशुतोष महेशान शप्ताहं पतिना शिव । मां समुद्धर देवेश शापादस्माद्दयानिधे ॥ २५ ॥
लक्ष्मी बोलीं-हे आशुतोष ! हे महेशान ! हे शिव ! हे देवेश ! हे दयानिधान ! मेरे पतिने मुझे शाप दे दिया है; अतएव इस शापसे आप मेरा उद्धार कीजिये ॥ २५ ॥
तदोक्तं हरिणा शम्भो शापानुग्रहकारणम् । विज्ञप्तेन मया कामं दयायुक्तेन विष्णुना ॥ २६ ॥ यदा ते भविता पुत्रस्तदा शापस्य मोक्षणम् । भविष्यति च वैकुण्ठवासस्ते कमलालये ॥ २७ ॥
हे शम्भो ! उस समय मेरे बहुत पूछनेपर दयालु भगवान् विष्णुने शापसे मुक्तिका यह उपाय भी बतला दिया था-'हे कमलालये ! जब तुम्हें एक पुत्र उत्पन्न हो जायगा तब तुम शापसे मुक्त हो जाओगी और वैकुण्ठधाममें पुन: तुम्हारा वास होगा' ॥ २६-२७ ॥
इत्युक्ताहं तपस्तप्तुमागतास्मि तपोवने । आराधितो मया देव त्वं सर्वार्थप्रदायकः ॥ २८ ॥
हे देव ! श्रीविष्णुके इस प्रकार कहनेपर मैं तपस्या करनेके लिये इस तपोवनमें आ गयी और सम्पूर्ण कामनाओंकी पूर्ति करनेवाले आप परमेश्वरकी आराधना करने लगी ॥ २८ ॥
पतिसङ्गं विना पुत्रं देवदेव लभे कथम् । स तु तिष्ठति वैकुण्ठे त्यक्त्वा वामामनागसम् ॥ २९ ॥
हे देवदेव ! मुझ निरपराध पत्नीको छोड़कर वे विष्णु तो वैकुण्ठमें विराजमान हैं; अतएव पतिके सांनिध्यके बिना मैं पुत्र कैसे प्राप्त कर सकती हूँ ? ॥ २९ ॥
वरं मे देहि देवेश यदि तुष्टोऽसि शङ्कर । तव तस्य द्विधा भावो नास्ति नूनं कदाचन ॥ ३० ॥
हे देवेश ! हे शंकर ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे वर दीजिये । आप तथा श्रीहरिमें निश्चितरूपसे कोई भेद नहीं है ॥ ३० ॥
मयैतद्गिरिजाकान्त ज्ञातं पत्युः पुरो हर । यस्त्वं योऽसौ पुनर्योऽसौ स त्वं नास्त्यत्र संशयः ॥ ३१ ॥
हे गिरिजाकान्त ! हे हर ! जब मैं पतिदेवके पास थी तभीसे मुझे यह ज्ञात है कि जो आप हैं, वही वे हैं तथा जो वे हैं, वही आप हैं । इसमें संशय नहीं है ॥ ३१ ॥
एकत्वं च मया ज्ञात्वा मया ते स्मरणं कृतम् । अन्यथा मम दोषस्त्वामाश्रयन्त्या भवेच्छिव ॥ ३२ ॥
[आप तथा श्रीविष्णुमें] एकत्व जानकर ही मैंने आपका स्मरण किया है, अन्यथा हे शिव ! आपका आश्रय लेनेसे मुझे दोष ही लगता ॥ ३२ ॥
शिव उवाच कथं ज्ञातस्त्वया देवि मम तस्य च सुन्दरि । ऐक्यभावो हरेर्नूनं सत्यं मे वद सिन्धुजे ॥ ३३ ॥
शिव बोले-हे देवि ! हे सुन्दरि ! मेरे तथा उन विष्णुके एकत्वका ज्ञान तुम्हें किस प्रकार हुआ ? हे सिन्धुजे ! मुझे सच-सच बताओ ॥ ३३ ॥
एकत्वं च न जानन्ति देवाश्च मुनयस्तथा । ज्ञानिनो वेदतत्त्वज्ञाः कुतर्कोपहताः किल ॥ ३४ ॥
देवता, मुनि, ज्ञानी तथा वेदोंके तत्वदर्शी विद्वान् भी तरह-तरहके कुतर्कोसे ग्रस्त पड़े रहनेके कारण इस ऐक्यभावको नहीं जानते ॥ ३४ ॥
मेरे बहुत-से भक्त वासुदेव श्रीविष्णुके निन्दक हैं तथा श्रीविष्णुके बहुत-से भक्त मेरी निन्दामें लगे रहते हैं । हे देवि कालभेदके कारण कलियामें ऐसे लोग विशेषरूपसे होंगे । हे भद्रे ! दूषित आत्मावाले लोगोंद्वारा दुर्जेय इस एकत्वको आप कैसे जान गयीं ? मेरे तथा श्रीविष्णुका ऐक्यभाव जान पाना सर्वथा दुर्लभ है ॥ ३५-३६.५ ॥
व्यासजी बोले- प्रसन्न हुए भगवान् शंकरके इस प्रकार पूछनेपर अत्यन्त प्रसन्नमुखवाली हरिप्रिया लक्ष्मीजीने [उस एकत्वसे सम्बन्धित] ज्ञात प्रसंगको शिवजीसे कहना प्रारम्भ किया ॥ ३७-३८ ॥
लक्ष्मीरुवाच एकदा देवदेवेश विष्णुर्ध्यानपरो रहः । दृष्टो मया तपः कुर्वन्पद्मासनगतो यदा ॥ ३९ ॥ तदाहं विस्मिता देवं तमपृच्छं पतिं किल । प्रबुद्धं सुप्रसन्नं च ज्ञात्वा विनयपूर्वकम् ॥ ४० ॥
लक्ष्मीजी बोलीं-हे देवदेवेश ! एक बार भगवान् विष्णुको एकान्तमें पद्मासन लगाकर ध्यानस्थ हो तपस्या करते हुए जब मैंने देखा तब मुझे महान् विस्मय हुआ; और पुनः समाधिसे जगनेपर उन्हें अति प्रसन्न जानकर मैंने पतिदेवसे विनयपूर्वक पूछा- ॥ ३९-४० ॥
हे देवदेव ! हे जगन्नाथ ! हे प्रभो ! जिस समय ब्रह्मा आदि सभी देवताओं तथा दैत्योंके द्वारा मथे जा रहे समुद्रसे मैं निकली, उस समय पतिकी इच्छासे मैंने सभीकी ओर देखा, सभी देवताओंकी अपेक्षा आप ही श्रेष्ठ हैं-ऐसा निश्चय करके मैंने आपका ही वरण किया था । अत: हे सर्वेश ! आप किसका ध्यान कर रहे हैं ? मुझे यह महान् सन्देह है । हे कैटभारे ! आप मेरे प्रिय हैं । अतः अपने मनकी बात मुझे बतायें ॥ ४१-४३ ॥
हे गिरिजावल्लभ ! एकान्तमें मेरे पूछनेपर सर्वसमर्थ देवदेव भगवान् विष्णुने ऐसा बताया था । अतएव आपको विष्णुका परम प्रिय जानकर मैंने आपका ध्यान किया । हे महेशान ! अब जैसे मुझे पतिसांनिध्य प्राप्त हो जाय, वैसा आप कीजिये ॥ ४८-४९ ॥
व्यास उवाच इति श्रियो वचः श्रुत्वा प्रत्युवाच महेश्वरः । तामाश्वास्य प्रियैर्वाक्यैर्यथार्थं वाक्यकोविदः ॥ ५० ॥ स्वस्था भव पृथुश्रोणि तुष्टोऽहं तपसा तव । समागमस्ते पतिना भविष्यति न संशयः ॥ ५१ ॥
व्यासजी बोले-लक्ष्मीजीका यह वचन सुनकर वाणीविशारद भगवान् शंकरने मधुर वचनोंसे उन्हें आश्वासन देकर कहा-हे पृथुश्रोणि ! धैर्य रखो । मैं तुम्हारी तपस्यासे प्रसन्न हूँ । पतिसे तुम्हारा मिलन अवश्य होगा । इसमें सन्देह नहीं है । ५०-५१ ॥
किंतु मदान्ध एवं मदचित्त होकर तुमने हृदयमें सदा विराजमान रहनेवाली परमेश्वरी जगदम्बाका विस्मरण कर दिया है, उसीसे तुम्हें ऐसा फल मिला है । अतः हे सिन्धुपुत्रि ! उस दोषके शमनके लिये तुम हृदयमें विराजमान रहनेवाली परम देवीकी शरणमें सर्वात्मभावसे जाओ; यदि तुम्हारा मन भगवतीमें लगा होता तो उत्तम घोड़ेपर क्यों जाता ? ॥ ५७-५८.५ ॥
सुन्दर अंगोंवाली वे लक्ष्मीजी वहीं स्थित रहकर भगवती जगदम्बाके देवासुरोंके शिरोरत्न (मुकुट)-से घर्षित नखमण्डलवाले परम सुन्दर चरणकमलका ध्यान करने लगीं और अपने पति श्रीहरिके अश्वरूप धारण करके आनेकी प्रतीक्षा करती हुई प्रेमयुक्त गद्गद वाणीसे बार-बार उनकी स्तुति करती रहीं ॥ ६०-६२ ॥