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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
षष्ठः स्कन्धः
एकोनविंशोऽध्यायः

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पुत्रजन्मानन्तरं स्वस्वरूपेण वैकुण्ठगमनवर्णनम् -
भगवती लक्ष्मीको अश्वरूपधारी भगवान् विष्णुके दर्शन और उनका वैकुण्ठगमन -


तस्यै दत्त्वा वरं शम्भुः कैलासं त्वरितो ययौ ।
रम्यं देवगणैर्जुष्टमप्सरोभिश्च मण्डितम् ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-उन लक्ष्मीजीको वरदान देकर भगवान् शंकर देवगणोंसे सेवित तथा अप्सराओंसे सुशोभित रमणीक कैलासपर शीघ्र चले गये ॥ १ ॥

तत्र गत्वा चित्ररूपं गणं कार्यविशारदम् ।
प्रेषयामास वैकुण्ठे लक्ष्मीकार्यार्थसिद्धये ॥ २ ॥
वहाँ पहुँचते ही शंकरजीने लक्ष्मीका कार्य सिद्ध करनेके उद्देश्यसे अपने कार्यकुशल गण चित्ररूपको वैकुण्ठ भेजा ॥ २ ॥

चित्ररूप हरिं गत्वा ब्रूहि त्वं वचनान्मम ।
यथासौ दुःखितां पत्‍नीं विशोकां च करिष्यति ॥ ३ ॥
शिवजी बोले-हे चित्ररूप ! तुम विष्णुके पास जाकर मेरे शब्दोंमें यह बात कहो और इस प्रकार यत्न करना, जिससे वे अपनी दुःखी पत्नीको शोकमुक्त कर दें ॥ ३ ॥

इत्युक्तश्चित्ररूपोऽथ निर्जगाम त्वरान्वितः ।
वैकुण्ठं परमं स्थानं वैष्णवैश्च गणैर्वृतम् ॥ ४ ॥
नानाद्रुमगणाकीर्णं वापीशतविराजितम् ।
संजुष्टं हंसकारण्डमयूरशुककोकिलैः ॥ ५ ॥
उच्चप्रासादसंयुक्तं पताकाभिरलंकृतम् ।
नृत्यगीतकलापूर्णं मन्दारद्रुमसंयुतम् ॥ ६ ॥
बकुलाशोकतिलकचम्पकालिविमण्डितम् ।
कूजितैर्विहगानां तु कर्णाह्लादकरैर्युतम् ॥ ७ ॥
संवीक्ष्य भवनं विष्णोर्द्वास्थौ प्राह प्रणम्य च ।
जयविजयनामानौ वेत्रपाणी स्थितावुभौ ॥ ८ ॥
भगवान् शंकरके ऐसा कहनेपर वह चित्ररूप वैष्णवगणोंसे घिरे, अनेक प्रकारके वृक्षसमूहोंसे युक्त, सैकड़ों बावलियोंसे सुशोभित, हंस-सारस-मोर, शुक तथा कोकिलोंसे सुसेवित, पताकाओंसे सुशोभित ऊँचे ऊँचे भवनोंवाले, नृत्य तथा गायनकलामें प्रवीण जनोंसे युक्त, मन्दारवृक्षोंसे परिपूर्ण, बकुल-अशोकतिलक-चम्पक आदि वृक्षोंकी पंक्तियोंसे मण्डित तथा पक्षियोंके कर्णप्रिय कलरवोंसे गुंजित परम धाम वैकुण्ठके लिये शीघ्र ही निकल पड़ा । वहाँ भगवान् विष्णुका भवन देखकर हाथमें दण्ड (छड़ी) धारण किये हुए द्वारपर स्थित जय-विजय नामक दो द्वारपालोंको प्रणाम करके चित्ररूपने उनसे कहा- ॥ ४-८ ॥

भो निवेदयत शीघ्रं हरये परमात्मने ।
दूतं प्राप्यं हरस्यात्र प्रेरितं शूलपाणिना ॥ ९ ॥
चित्ररूप बोला-[हे द्वारपालो !] तुमलोग शीघ्र ही भगवान् विष्णुको सूचित कर दो कि शूलपाणि शिवद्वारा भेजा गया उनका दूत यहाँ आया है ॥ ९ ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य जयः परमबुद्धिमान् ।
गत्वा हरिं प्रणम्याह कृताञ्जलिपुटः पुरः ॥ १० ॥
देवदेव रमाकान्त करुणाकर केशव ।
द्वारि तिष्ठति दूतोऽत्र शङ्करस्य समागतः ॥ ११ ॥
आज्ञापय प्रवेष्टव्यो न वेति गरुडध्वज ।
चित्ररूपधरोऽप्यस्ति न जाने कार्यगौरवम् ॥ १२ ॥
उसकी बात सुनकर परम बुद्धिमान् जय श्रीहरिके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर बोला-हे देवदेव ! हे रमाकान्त ! हे करुणाकर ! हे केशव ! भगवान् शंकरका दूत आया हुआ है । वह द्वारपर खड़ा है । हे गरुडध्वज ! आप आदेश दीजिये कि उसे प्रवेश कराया जाय अथवा नहीं । उसका नाम चित्ररूप है । मैं उसके आनेका प्रयोजन नहीं जानता ॥ १०-१२ ॥

इत्याकर्ण्य हरिः प्राह जयं प्रज्ञातकारणः ।
प्रवेशयात्र रुद्रस्य भृत्यं समयसंस्थितम् ॥ १३ ॥
ऐसा सुनकर दूतके आनेका कारण पहलेसे ही जाननेवाले भगवान् विष्णुने जयसे कहा-द्वारपर रुके हुए शंकरके भृत्यको यहाँ ले आओ ॥ १३ ॥

इत्याकर्ण्य जयस्तूर्णं गत्वा तं परमाद्‌भुतम् ।
एहीत्याकारयामास जयः शङ्करसेवकम् ॥ १४ ॥
यह सुनकर शीघ्रतापूर्वक जाकर 'अंदर आइये'-ऐसा उस शंकरसेवक परम अद्भुत चित्ररूपसे जयने कहा ॥ १४ ॥

प्रवेशितो जयेनाथ चित्ररूपस्तथाकृतिः ।
प्रणम्य दण्डवद्विष्णुं कृताञ्जलिपुटः स्थितः ॥ १५ ॥
अपने चित्ररूप नामके समान ही आकृतिबाले उसको जयने प्रवेश कराया । तब विष्णुको साष्टांग प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर वहाँ उनके समक्ष वह खड़ा हो गया ॥ १५ ॥

दृष्ट्वा तं विस्मयं प्राप भगवान् गरुडध्वजः ।
चित्ररूपधरं शम्भोः सेवकं विनयान्वितम् ॥ १६ ॥
विनयसे युक्त तथा विचित्र रूप धारण करनेवाले उस शम्भुसेवकको देखकर गरुडध्वज भगवान् विष्णु विस्मयमें पड़ गये ॥ १६ ॥

पप्रच्छ तं स्मितं कृत्वा चित्ररूपं रमापतिः ।
कुशलं देवदेवस्य सकुटुम्बस्य चानघ ॥ १७ ॥
तत्पश्चात् रमापति विष्णुने मुसकराकर उस चित्ररूपसे पूछा-हे पुण्यात्मन् ! सपरिवार देवाधिदेव शंकरजीका कुशल तो है ॥ १७ ॥

कस्मात्त्वं प्रेषितोऽस्यत्र ब्रूहिकार्यं हरस्य किम् ।
अथवा देवतानां च किञ्चित्कार्यं समुत्थितम् ॥ १८ ॥
तुम यहाँ किसलिये भेजे गये हो, शंकरजीका कौन-सा कार्य है अथवा देवताओंका कोई काम तो नहीं आ पड़ा, मुझे बताओ ॥ १८ ॥

किमज्ञातं तवास्तीह संसारे गरुडध्वज ।
वर्तमानं त्रिकालज्ञ यदहं प्रब्रवीमि वै ॥ १९ ॥
दूत बोला-हे गरुडध्वज ! हे त्रिकालज्ञ ! इस संसारकी कौन-सी बात आपको विदित नहीं है; तथापि इस समय जो बात है, उसे मैं आपसे कह रहा हूँ ॥ १९ ॥

प्रेषितोऽस्मि भवेनात्र विज्ञस्तु त्वां जनार्दन ।
हरस्य वचनाद्वाक्यं प्रब्रवीमि त्वयि प्रभो ॥ २० ॥
हे जनार्दन ! उस बातको बतानेके लिये मैं शंकरजीके द्वारा यहाँ भेजा गया हूँ । हे प्रभो ! शिवजीके कहे गये शब्दोंमें मैं आपसे कह रहा हूँ ॥ २० ॥

तेनोक्तमेतद्देवेश भार्या ते कमलालया ।
तपस्तपति कालिन्दीतमसासङ्गमे विभो ॥ २१ ॥
हे देवेश ! उन्होंने कहा है कि 'हे विभो ! आपकी भार्या लक्ष्मीजी यमुना और तमसा नदीके संगमपर तपस्या कर रही हैं ॥ २१ ॥

हयीरूपधरा देवी सर्वार्थसिद्धिदायिनी ।
ध्यातुं योग्यामरगणैर्मानवैर्यक्षकिन्नरैः ॥ २२ ॥
देवगण, मानव, यक्ष तथा किन्नरोंके द्वारा आराधनाके योग्य एवं समस्त मनोरथ पूर्ण करनेवाली वे देवी घोड़ीका रूप धारण किये हैं ॥ २२ ॥

विना तया नरः कोऽपिसुखभागी भवेन्न हि ।
तां त्यक्त्वा पुण्डरीकाक्ष प्राप्नोषि किं सुखं हरे ॥ २३ ॥
उन देवीके बिना इस जगत्का कोई भी प्राणी सुखी नहीं रह सकता । हे पुण्डरीकाक्ष ! हे हरे ! उनका परित्याग करके आप कौन-सा सुख प्राप्त कर रहे हैं ? ॥ २३ ॥

दुर्बलोऽपि स्त्रियं पाति निर्धनोऽपि जगत्पते ।
विनापराधं च विभो किं त्यक्ता जगदीश्वरी ॥ २४ ॥
हे जगत्पते ! दुर्बल तथा निर्धन व्यक्ति भी अपनी भार्याकी रक्षा करता है । तब हे विभो ! आपने बिना अपराधके ही उन जगदीश्वरीका त्याग क्यों कर दिया है ? ॥ २४ ॥

दुःखं प्राप्नोति संसारे यस्य भार्या जगद्‌गुरो ।
धिक्तस्य जीवितं लोके निन्दितं त्वरिमण्डले ॥ २५ ॥
हे जगद्गुरो ! जिसकी भार्या संसारमें दुःख प्राप्त करती है, उसके जीवनको धिक्कार है । ऐसा व्यक्ति शत्रुसमुदायमें निन्दित होता है ॥ २५ ॥

सकामा रिपवस्तेऽद्य दृष्ट्वा तां दुःखिता भृशम् ।
त्वां वियुक्तं च रमया हसिष्यन्ति दिवानिशम् ॥ २६ ॥
आपके स्वार्थी शत्रु इस समय लक्ष्मीजीको अत्यन्त दुःखित तथा आपको उनसे विलग देखकर दिन-रात हँसते होंगे ॥ २६ ॥

रमां रमय देवेश त्वदुत्सङ्गगतां कुरु ।
सर्वलक्षणसम्पन्नां सुशीलां च सुरूपिणीम् ॥ २७ ॥
हे देवेश ! आप सभी लक्षणोंसे सम्पन्न, सुशीला तथा सुन्दर रूपवाली लक्ष्मीजीको अपने अंकमें विराजमान कीजिये और उनके साथ आनन्द प्राप्त कीजिये । सुन्दर मुसकानवाली प्रिया लक्ष्मीको प्राप्तकर आप सुखी हो जाइये ॥ २७ ॥

सुखितो भव तां प्राप्य वल्लभां चारुहासिनीम् ।
कान्ताविरहजं दुःखं स्मराम्यहमनातुरः ॥ २८ ॥
मम भार्या मृता विष्णो दक्षयज्ञे सती यदा ।
तदाहं दुःसहं दुःखं भुक्तवानम्बुजेक्षण ॥ २९ ॥
संसारेऽस्मिन्नरः कोऽपि माभून्मत्सदृशोऽपरः ।
मनसाकरवं शोकं तस्या विरहपीडितः ॥ ३० ॥
कालेन महता प्राप्ता मया गिरिसुता पुनः ।
तपस्तप्त्वातिदुःसाध्यं या दग्धा तु रुषाध्वरे ॥ ३१ ॥
उदास रहता हुआ मैं ही स्त्रीवियोगसे उत्पन्न दुःखको समझता हूँ । हे विष्णो ! हे कमलनयन ! जब मेरी भार्या सती दक्षके यज्ञमें मृत हो गयी थी तब मुझे असहनीय दुःख भोगना पड़ा था । उसके विरहसे पीडित होकर मैं मनमें यह शोक करता था कि इस संसारमें मेरे जैसा कोई अन्य व्यक्ति न हो । जो सती क्रोधवश दक्षके यज्ञमें जलकर भस्म हो गयी थी, उसे मैंने बहुत समयतक कठोर तपस्या करके गिरिजाके रूपमें पुनः प्राप्त किया था । २८-३१ ॥

हरे किं सुखमापन्नं त्वया सन्त्यज्य कामिनीम् ।
एकाकी तिष्ठता कालं सहस्रवत्सरात्मकम् ॥ ३२ ॥
हे हरे ! आपने अपनी भार्याको छोड़कर एक हजार वर्षकी अवधितक अकेले रहते हुए कौन-सा सुख प्राप्त कर लिया ? ॥ ३२ ॥

गत्वाश्वास्य महाभागां समानय निजालयम् ।
माभूत्कोऽपीह संसारे विमुक्तो रमया तया ॥ ३३ ॥
अतः आप महाभागा लक्ष्मीके पास जायें और उन्हें आश्वासन देकर अपने घर ले आयें । इस संसारमें कोई भी प्राणी उन रमा (लक्ष्मी)-से विमुक्त न होने पाये ॥ ३३ ॥

कृत्वा तुरगरूपं त्वं भज तां कमलालयाम् ।
उत्पाद्य पुत्रमायुष्मंस्तामानय शुचिस्मिताम् ॥ ३४ ॥
हे आयुष्मन् ! आप अभी अश्वरूप धारण करके पवित्र मुसकानवाली लक्ष्मीके पास जाइये और पुत्र उत्पन्न करके उन्हें [वैकुण्ठ] ले आइये ॥ ३४ ॥

व्यास उवाच
हरिराकर्ण्य तद्वाक्यं चित्ररूपस्य भारत ।
तथेत्युक्त्वा तु तं दूतं प्रेषयामास शङ्करम् ॥ ३५ ॥
व्यासजी बोले-हे भारत ! चित्ररूपकी वह बात सुनकर भगवान् विष्णुने 'ठीक है'-ऐसा कहकर उस दूतको शंकरजीके पास भेज दिया ॥ ३५ ॥

गते दूतेऽथ भगवान्वैकुण्ठात्कामसंयुतः ।
जगाम धृत्वा तत्राशु वाजिरूपं मनोहरम् ॥ ३६ ॥
यत्र सा वडवारूपं कृत्वा तपति सिन्धुजा ।
विष्णुस्तं देशमासाद्य तामपश्यद्धयीं स्थिताम् ॥ ३७ ॥
सापि तं वीक्ष्य गोविन्दं हयरूपधरं पतिम् ।
ज्ञात्वा वीक्ष्य स्थिता साध्वी विस्मिता साश्रुलोचना ॥ ३८ ॥
तत्पश्चात् दूतके चले जानेपर भगवान् विष्णु मनोहर अश्वरूप धारणकर कामयुक्त होकर शीघ्र ही वैकुण्ठसे वहींपर पहुँचे जहाँ घोड़ीका रूप धारणकर सिन्धुतनया लक्ष्मीजी तपस्या कर रही थीं । विष्णुजीने उस स्थानपर पहुँचकर हयरूपधारिणी लक्ष्मीजीको विराजमान देखा । अश्वका रूप धारण किये हुए अपने पति गोविन्दको देखते ही लक्ष्मीजीने भी उन्हें पहचान लिया और वे साध्वी विस्मयमें पड़कर अश्रुपूरित नेत्रोंसे देखती हुई वहीं खड़ी रहीं ॥ ३६-३८ ॥

तयोस्तु सङ्गमस्तत्र प्रवृत्तो मन्मथार्तयोः ।
कालिन्दीतमसासङ्गे पावने लोकविश्रुते ॥ ३९ ॥
यमुना और तमसाके लोकप्रसिद्ध पवित्र संगमपर कामात उन दोनोंका समागम हुआ ॥ ३९ ॥

सगर्भा सा तदा जाता वडवा हरिवल्लभा ।
सुषुवे सुन्दरं बालं तत्रैव सुगुणोत्तरम् ॥ ४० ॥
इस प्रकार बडवारूपधारिणी वे विष्णुप्रिया गर्भवती हो गयी और वहींपर उन्होंने सदगुणोंसे सम्पन्न तथा सुन्दर पुत्रको जन्म दिया ॥ ४० ॥

तामाह भगवान्वाक्यं प्रहस्य समयाश्रितम् ।
त्यजाद्य वाडवं देहं पूर्वदेहा भवाधुना ॥ ४१ ॥
भगवान् विष्णुने हँसकर उनसे यह समयोचित बात कही-तुम अब अपना यह अश्वीरूप छोड़ दो और पहले जैसा शरीर धारण कर लो ॥ ४१ ॥

गमिष्यावः स्ववैकुण्ठमावां कृत्वा निजं वपुः ।
तिष्ठत्वत्र कुमारोऽयं त्वया जातः सुलोचने ॥ ४२ ॥
हे सुलोचने ! हम दोनों अपनी दिव्य देह धारण करके अपने वैकुण्ठधाम चलेंगे और तुमसे उत्पन्न यह कुमार अब यहीं रहे ॥ ४२ ॥

लक्ष्मीरुवाच
स्वदेहसम्भवं पुत्रं कथं हित्वा व्रजाम्यहम् ।
स्नेहः सुदुस्त्यजः कामं स्वात्मजस्य सुरर्षभ ॥ ४३ ॥
- लक्ष्मीजी बोलीं-हे देवश्रेष्ठ ! अपने शरीरसे उत्पन्न पुत्रको छोड़कर मैं कैसे जाऊँ ? अपने पुत्रके प्रति स्नेहका त्याग अत्यन्त ही कठिन है ॥ ४३ ॥

का गतिः स्यादमेयात्मन् बालस्यास्य नदीतटे ।
अनाथस्यासमर्थस्य विजनेऽल्पतनोरिह ॥ ४४ ॥
हे अमेयात्मन् ! इस निर्जन नदीतटपर इस लघुकाय, अनाथ तथा असमर्थ बालककी क्या गति होगी ? ॥ ४४ ॥

अनाश्रयं सुतं त्यक्त्वा कथं गन्तुं मनो मम ।
समर्थं सदयं स्वामिन् भवेदम्बुजलोचन ॥ ४५ ॥
हे कमलनयन ! हे स्वामिन् ! इस आश्रयहीन पुत्रको छोड़कर मेरा दयालु मन यहाँसे जानेके लिये भला कैसे तैयार हो सकता है ? ॥ ४५ ॥

दिव्यदेहौ ततो जातौ लक्ष्मीनारायणावुभौ ।
विमानवरसंविष्टौ स्तूयमानौ सुरैर्दिवि ॥ ४६ ॥
तत्पश्चात् लक्ष्मीजी तथा भगवान् विष्णु दोनों दिव्य शरीर धारणकर उत्तम विमानपर विराजमान हुए: देवगण अन्तरिक्षमें उनकी स्तुति करने लगे ॥ ४६ ॥

गन्तुकामं पतिं प्राह कमला कमलापतिम् ।
गृहाणेमं सुतं नाथ नाहं शक्तास्मि हापितुम् ॥ ४७ ॥
प्राणप्रियोऽस्ति मे पुत्रः कान्त्या त्वत्सदृशः प्रभो ।
गृहीत्वैनं गमिष्यावो वैकुण्ठं मधुसूदन ॥ ४८ ॥
वैकुण्ठके लिये प्रस्थान करनेके इच्छुक भगवान् विष्णुसे लक्ष्मीजीने कहा-हे नाथ ! मैं इस पुत्रका त्याग नहीं कर सकती, अतएव इसे भी साथ ले लीजिये । हे प्रभो ! मेरा यह प्राणके समान प्रिय पुत्र कान्तिमें आपहीके सदश है । हे मधुसूदन ! इसे लेकर हम दोनों वैकुण्ठ चलेंगे ॥ ४७-४८ ॥

हरिरुवाच
मा विषादं प्रिये कर्तुं त्वमर्हसि वरानने ।
तिष्ठत्वयं सुखेनात्र रक्षा मे विहिता त्विह ॥ ४९ ॥
हरि बोले-हे प्रिये ! हे वरानने ! इस पुत्रके विषयमें शोक करना तुम्हारे लिये उचित नहीं है । यह सुखपूर्वक यहीं रहे; मैंने इसकी रक्षाका उपाय कर दिया है ॥ ४९ ॥

कार्यं किमपि वामोरु वर्तते महदद्‌भुतम् ।
निबोध कथयाम्यद्य सुतस्यात्र विमोचने ॥ ५० ॥
हे वामोरु ! इस पुत्रके यहाँ छोड़नेके पीछे कोई महान् तथा आश्चर्यजनक कारण छिपा है । मैं उसे बता रहा हूँ: तुम जान लो ॥ ५० ॥

तुर्वसुर्नाम विख्यातो ययातितनुजो भुवि ।
हरिवर्मेति पित्रास्य कृतं नाम सुविश्रुतम् ॥ ५१ ॥
स राजा पुत्रकामोऽद्य तपस्तपति पावने ।
तीर्थे वर्षशतं जातं तस्य वै कुर्वतस्तपः ॥ ५२ ॥
तस्यार्थे निर्मितः पुत्रो मयायं कमलालये ।
तत्र गत्वा नृपं सुभ्रु प्रेरयिष्यामि साम्प्रतम् ॥ ५३ ॥
तस्मै दास्याम्यहं पुत्रं पुत्रकामाय कामिनि ।
गृहीत्वा स्वगृहं राजा प्रापयिष्यति बालकम् ॥ ५४ ॥
इस पृथ्वीपर ययातिके पुत्र तुर्वसु नामक एक प्रसिद्ध राजा हैं । उनके पिताने उनका लोकप्रसिद्ध हरिवर्मा-यह नाम रखा था । इस समय पुत्रकी कामनावाले वे नरेश एक पवित्र तीर्थमें तपस्या कर रहे हैं । उन्हें तप करते हुए पूरे एक सौ वर्ष बीत चुके हैं । हे कमलालये ! उन्हींके लिये मैंने यह पुत्र उत्पन्न किया है । हे सुभु ! वहाँ राजाके पास जाकर मैं उन्हें इसी समय भेज दूंगा । हे प्रिये ! पुत्रके अभिलाषी उन्हीं राजाको मैं यह पुत्र दे दूंगा और वे इस बालकको लेकर अपने घर चले जायेंगे ॥ ५१-५४ ॥

व्यास उवाच
इत्याश्वास्य प्रियां पद्मां कृत्वा रक्षां च बालके ।
विमानवरमारुह्य प्रययौ प्रियया सह ॥ ५५ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार अपनी प्रिय भार्याको आश्वासन देकर तथा बालककी रक्षाका प्रबन्ध करके भगवान् विष्णु उत्तम विमानपर आरूढ़ होकर अपनी प्रियाके साथ चले गये ॥ ५५ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां षष्ठस्कन्धे पुत्रजन्मानन्तरं स्वस्वरूपेण
वैकुण्ठगमनवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
अध्याय उन्निसवाँ समाप्त ॥ १९ ॥


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