वहाँ पहुँचते ही शंकरजीने लक्ष्मीका कार्य सिद्ध करनेके उद्देश्यसे अपने कार्यकुशल गण चित्ररूपको वैकुण्ठ भेजा ॥ २ ॥
चित्ररूप हरिं गत्वा ब्रूहि त्वं वचनान्मम । यथासौ दुःखितां पत्नीं विशोकां च करिष्यति ॥ ३ ॥
शिवजी बोले-हे चित्ररूप ! तुम विष्णुके पास जाकर मेरे शब्दोंमें यह बात कहो और इस प्रकार यत्न करना, जिससे वे अपनी दुःखी पत्नीको शोकमुक्त कर दें ॥ ३ ॥
इत्युक्तश्चित्ररूपोऽथ निर्जगाम त्वरान्वितः । वैकुण्ठं परमं स्थानं वैष्णवैश्च गणैर्वृतम् ॥ ४ ॥ नानाद्रुमगणाकीर्णं वापीशतविराजितम् । संजुष्टं हंसकारण्डमयूरशुककोकिलैः ॥ ५ ॥ उच्चप्रासादसंयुक्तं पताकाभिरलंकृतम् । नृत्यगीतकलापूर्णं मन्दारद्रुमसंयुतम् ॥ ६ ॥ बकुलाशोकतिलकचम्पकालिविमण्डितम् । कूजितैर्विहगानां तु कर्णाह्लादकरैर्युतम् ॥ ७ ॥ संवीक्ष्य भवनं विष्णोर्द्वास्थौ प्राह प्रणम्य च । जयविजयनामानौ वेत्रपाणी स्थितावुभौ ॥ ८ ॥
भगवान् शंकरके ऐसा कहनेपर वह चित्ररूप वैष्णवगणोंसे घिरे, अनेक प्रकारके वृक्षसमूहोंसे युक्त, सैकड़ों बावलियोंसे सुशोभित, हंस-सारस-मोर, शुक तथा कोकिलोंसे सुसेवित, पताकाओंसे सुशोभित ऊँचे ऊँचे भवनोंवाले, नृत्य तथा गायनकलामें प्रवीण जनोंसे युक्त, मन्दारवृक्षोंसे परिपूर्ण, बकुल-अशोकतिलक-चम्पक आदि वृक्षोंकी पंक्तियोंसे मण्डित तथा पक्षियोंके कर्णप्रिय कलरवोंसे गुंजित परम धाम वैकुण्ठके लिये शीघ्र ही निकल पड़ा । वहाँ भगवान् विष्णुका भवन देखकर हाथमें दण्ड (छड़ी) धारण किये हुए द्वारपर स्थित जय-विजय नामक दो द्वारपालोंको प्रणाम करके चित्ररूपने उनसे कहा- ॥ ४-८ ॥
चित्ररूप बोला-[हे द्वारपालो !] तुमलोग शीघ्र ही भगवान् विष्णुको सूचित कर दो कि शूलपाणि शिवद्वारा भेजा गया उनका दूत यहाँ आया है ॥ ९ ॥
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य जयः परमबुद्धिमान् । गत्वा हरिं प्रणम्याह कृताञ्जलिपुटः पुरः ॥ १० ॥ देवदेव रमाकान्त करुणाकर केशव । द्वारि तिष्ठति दूतोऽत्र शङ्करस्य समागतः ॥ ११ ॥ आज्ञापय प्रवेष्टव्यो न वेति गरुडध्वज । चित्ररूपधरोऽप्यस्ति न जाने कार्यगौरवम् ॥ १२ ॥
उसकी बात सुनकर परम बुद्धिमान् जय श्रीहरिके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर बोला-हे देवदेव ! हे रमाकान्त ! हे करुणाकर ! हे केशव ! भगवान् शंकरका दूत आया हुआ है । वह द्वारपर खड़ा है । हे गरुडध्वज ! आप आदेश दीजिये कि उसे प्रवेश कराया जाय अथवा नहीं । उसका नाम चित्ररूप है । मैं उसके आनेका प्रयोजन नहीं जानता ॥ १०-१२ ॥
हे जनार्दन ! उस बातको बतानेके लिये मैं शंकरजीके द्वारा यहाँ भेजा गया हूँ । हे प्रभो ! शिवजीके कहे गये शब्दोंमें मैं आपसे कह रहा हूँ ॥ २० ॥
तेनोक्तमेतद्देवेश भार्या ते कमलालया । तपस्तपति कालिन्दीतमसासङ्गमे विभो ॥ २१ ॥
हे देवेश ! उन्होंने कहा है कि 'हे विभो ! आपकी भार्या लक्ष्मीजी यमुना और तमसा नदीके संगमपर तपस्या कर रही हैं ॥ २१ ॥
हयीरूपधरा देवी सर्वार्थसिद्धिदायिनी । ध्यातुं योग्यामरगणैर्मानवैर्यक्षकिन्नरैः ॥ २२ ॥
देवगण, मानव, यक्ष तथा किन्नरोंके द्वारा आराधनाके योग्य एवं समस्त मनोरथ पूर्ण करनेवाली वे देवी घोड़ीका रूप धारण किये हैं ॥ २२ ॥
विना तया नरः कोऽपिसुखभागी भवेन्न हि । तां त्यक्त्वा पुण्डरीकाक्ष प्राप्नोषि किं सुखं हरे ॥ २३ ॥
उन देवीके बिना इस जगत्का कोई भी प्राणी सुखी नहीं रह सकता । हे पुण्डरीकाक्ष ! हे हरे ! उनका परित्याग करके आप कौन-सा सुख प्राप्त कर रहे हैं ? ॥ २३ ॥
दुर्बलोऽपि स्त्रियं पाति निर्धनोऽपि जगत्पते । विनापराधं च विभो किं त्यक्ता जगदीश्वरी ॥ २४ ॥
हे जगत्पते ! दुर्बल तथा निर्धन व्यक्ति भी अपनी भार्याकी रक्षा करता है । तब हे विभो ! आपने बिना अपराधके ही उन जगदीश्वरीका त्याग क्यों कर दिया है ? ॥ २४ ॥
हे जगद्गुरो ! जिसकी भार्या संसारमें दुःख प्राप्त करती है, उसके जीवनको धिक्कार है । ऐसा व्यक्ति शत्रुसमुदायमें निन्दित होता है ॥ २५ ॥
सकामा रिपवस्तेऽद्य दृष्ट्वा तां दुःखिता भृशम् । त्वां वियुक्तं च रमया हसिष्यन्ति दिवानिशम् ॥ २६ ॥
आपके स्वार्थी शत्रु इस समय लक्ष्मीजीको अत्यन्त दुःखित तथा आपको उनसे विलग देखकर दिन-रात हँसते होंगे ॥ २६ ॥
रमां रमय देवेश त्वदुत्सङ्गगतां कुरु । सर्वलक्षणसम्पन्नां सुशीलां च सुरूपिणीम् ॥ २७ ॥
हे देवेश ! आप सभी लक्षणोंसे सम्पन्न, सुशीला तथा सुन्दर रूपवाली लक्ष्मीजीको अपने अंकमें विराजमान कीजिये और उनके साथ आनन्द प्राप्त कीजिये । सुन्दर मुसकानवाली प्रिया लक्ष्मीको प्राप्तकर आप सुखी हो जाइये ॥ २७ ॥
सुखितो भव तां प्राप्य वल्लभां चारुहासिनीम् । कान्ताविरहजं दुःखं स्मराम्यहमनातुरः ॥ २८ ॥ मम भार्या मृता विष्णो दक्षयज्ञे सती यदा । तदाहं दुःसहं दुःखं भुक्तवानम्बुजेक्षण ॥ २९ ॥ संसारेऽस्मिन्नरः कोऽपि माभून्मत्सदृशोऽपरः । मनसाकरवं शोकं तस्या विरहपीडितः ॥ ३० ॥ कालेन महता प्राप्ता मया गिरिसुता पुनः । तपस्तप्त्वातिदुःसाध्यं या दग्धा तु रुषाध्वरे ॥ ३१ ॥
उदास रहता हुआ मैं ही स्त्रीवियोगसे उत्पन्न दुःखको समझता हूँ । हे विष्णो ! हे कमलनयन ! जब मेरी भार्या सती दक्षके यज्ञमें मृत हो गयी थी तब मुझे असहनीय दुःख भोगना पड़ा था । उसके विरहसे पीडित होकर मैं मनमें यह शोक करता था कि इस संसारमें मेरे जैसा कोई अन्य व्यक्ति न हो । जो सती क्रोधवश दक्षके यज्ञमें जलकर भस्म हो गयी थी, उसे मैंने बहुत समयतक कठोर तपस्या करके गिरिजाके रूपमें पुनः प्राप्त किया था । २८-३१ ॥
तत्पश्चात् दूतके चले जानेपर भगवान् विष्णु मनोहर अश्वरूप धारणकर कामयुक्त होकर शीघ्र ही वैकुण्ठसे वहींपर पहुँचे जहाँ घोड़ीका रूप धारणकर सिन्धुतनया लक्ष्मीजी तपस्या कर रही थीं । विष्णुजीने उस स्थानपर पहुँचकर हयरूपधारिणी लक्ष्मीजीको विराजमान देखा । अश्वका रूप धारण किये हुए अपने पति गोविन्दको देखते ही लक्ष्मीजीने भी उन्हें पहचान लिया और वे साध्वी विस्मयमें पड़कर अश्रुपूरित नेत्रोंसे देखती हुई वहीं खड़ी रहीं ॥ ३६-३८ ॥
वैकुण्ठके लिये प्रस्थान करनेके इच्छुक भगवान् विष्णुसे लक्ष्मीजीने कहा-हे नाथ ! मैं इस पुत्रका त्याग नहीं कर सकती, अतएव इसे भी साथ ले लीजिये । हे प्रभो ! मेरा यह प्राणके समान प्रिय पुत्र कान्तिमें आपहीके सदश है । हे मधुसूदन ! इसे लेकर हम दोनों वैकुण्ठ चलेंगे ॥ ४७-४८ ॥
हरिरुवाच मा विषादं प्रिये कर्तुं त्वमर्हसि वरानने । तिष्ठत्वयं सुखेनात्र रक्षा मे विहिता त्विह ॥ ४९ ॥
हरि बोले-हे प्रिये ! हे वरानने ! इस पुत्रके विषयमें शोक करना तुम्हारे लिये उचित नहीं है । यह सुखपूर्वक यहीं रहे; मैंने इसकी रक्षाका उपाय कर दिया है ॥ ४९ ॥
इस पृथ्वीपर ययातिके पुत्र तुर्वसु नामक एक प्रसिद्ध राजा हैं । उनके पिताने उनका लोकप्रसिद्ध हरिवर्मा-यह नाम रखा था । इस समय पुत्रकी कामनावाले वे नरेश एक पवित्र तीर्थमें तपस्या कर रहे हैं । उन्हें तप करते हुए पूरे एक सौ वर्ष बीत चुके हैं । हे कमलालये ! उन्हींके लिये मैंने यह पुत्र उत्पन्न किया है । हे सुभु ! वहाँ राजाके पास जाकर मैं उन्हें इसी समय भेज दूंगा । हे प्रिये ! पुत्रके अभिलाषी उन्हीं राजाको मैं यह पुत्र दे दूंगा और वे इस बालकको लेकर अपने घर चले जायेंगे ॥ ५१-५४ ॥
व्यास उवाच इत्याश्वास्य प्रियां पद्मां कृत्वा रक्षां च बालके । विमानवरमारुह्य प्रययौ प्रियया सह ॥ ५५ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार अपनी प्रिय भार्याको आश्वासन देकर तथा बालककी रक्षाका प्रबन्ध करके भगवान् विष्णु उत्तम विमानपर आरूढ़ होकर अपनी प्रियाके साथ चले गये ॥ ५५ ॥