जनमेजय बोले-हे मुनिवर !] मुझे इस विषयमें यह महान् संशय हो रहा है कि भगवान्ने उत्पन्न होते ही उस बालकका त्याग कर दिया । निर्जन वनमें उस असहाय बालककी देखभाल किसने की ? ॥ १ ॥
का गतिस्तस्य बालस्य जाता सत्यवतीसुत । व्याघ्रसिंहादिभिर्हिंस्रैर्गृहीतो नातिबालकः ॥ २ ॥
हे सत्यवतीनन्दन ! उस बालककी क्या गति हुई ? बाघ, सिंह आदि हिंसक जानवर उस छोटे-से बालकको उठा तो नहीं ले गये ॥ २ ॥
व्यास उवाच लक्ष्मीनारायणौ तस्मात्स्थानाच्च चलितौ यदा । तदैव तत्र चम्पाख्यः प्राप्तो विद्याधरः किल ॥ ३ ॥ विमानवरमारूढः कामिन्या सहितो नृप । मदनालसया कामं क्रीडमानो यदृच्छया ॥ ४ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! जब भगवान् विष्णु तथा लक्ष्मीजी उस स्थानसे चले गये, उसी समय चम्पक नामक विद्याधर उत्तम विमानपर आरूढ़ होकर अपनी प्रेयसी मदनालसाके साथ इच्छापूर्वक विहार करते हुए संयोगवश वहाँ आ पहुँचा ॥ ३-४ ॥
विलोक्य तं शिशुं भूमावेकाकिनमनुत्तमम् । देवपुत्रप्रतीकाशं रममाणं यथासुखम् ॥ ५ ॥ विमानात्तरसोत्तीर्य चम्पकस्तं शिशु जवात् । जग्राह च मुदं प्राप निधिं प्राप्य यथाधनः ॥ ६ ॥
देवपुत्र-तुल्य उस उत्तम शिशुको पृथ्वीपर सुखपूर्वक अकेले खेलते हुए देखकर चम्पकने शीघ्रतापूर्वक विमानसे उतरकर झटसे उस बालकको उठा लिया और वह उसी प्रकार आनन्दित हो गया, जिस प्रकार कोई धनहीन व्यक्ति धनका खजाना पाकर आनन्दित हो जाता है ॥ ५-६ ॥
उस बालकको लेते ही प्रेमसे रोमांचित तथा विस्मित मदनालसा हृदयसे लगाकर उस बालकका मुख चूमने लगी ॥ ८ ॥
आलिङ्गितश्चुम्बितश्च तयासौ प्रीतिपूर्वकम् । उत्सङ्गे च कृतस्तन्व्या पुत्रभावेन भारत ॥ ९ ॥
हे भारत ! प्रीतिपूर्वक हृदयसे लगाने तथा चूमनेके पश्चात् उस तन्वंगी मदनालसाने उसे अपना पुत्र समझकर गोदमें ले लिया ॥ ९ ॥
कृत्वाङ्के तौ समारूढौ विमानं दम्पती मुदा । पतिं पप्रच्छ चार्वङ्गी प्रहस्य मदनालसा ॥ १० ॥ कस्यायं बालकः कान्त त्यक्तः केन च कानने । पुत्रोऽयं मम देवेन दत्तस्त्र्यम्बकपाणिना ॥ ११ ॥
उसे गोदमें लेकर पति-पत्नी प्रसन्नतापूर्वक विमानपर आरूढ़ हो गये । तब कमनीय अंगोंवाली मदनालसाने हँसकर अपने पतिसे पूछा-हे कान्त ! बालक किसका है तथा किसने इसे निर्जन वनमें छोड़ दिया है ? त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकरने इसे मुझे पुत्ररूपमें दिया है ॥ १०-११ ॥
चम्पक उवाच प्रिये गत्वाद्य पृच्छेयं शक्रं सर्वज्ञमाशु वै । देवो वा दानवो वापि गन्धर्वो वा शिशुः किल ॥ १२ ॥ तेनाज्ञप्तः करिष्यामि पुत्रं प्राप्तं वनादमुम् । अपृष्ट्वा नैव कर्तव्यं कार्यं किञ्चिन्मया ध्रुवम् ॥ १३ ॥
चम्पक बोला-हे प्रिये ! मैं आज ही सब कुछ जाननेवाले इन्द्रके पास जाकर पूछंगा कि यह बालक देवता है, दानव है अथवा गन्धर्व है । उनसे आदेश प्राप्त करनेके बाद ही मैं वनमें प्राप्त इस बालकको अपना पुत्र बनाऊँगा; बिना उनसे पूछे मुझे कोई भी कार्य निश्चितरूपसे नहीं करना चाहिये ॥ १२-१३ ॥
ऐसा कहकर उस मदनालसा तथा पुत्रको लेकर हर्षातिरेकके कारण उत्फुल्ल नेत्रोंवाले उस चम्पकने तुरंत विमानसे इन्द्रपुरीके लिये प्रस्थान किया । [वहाँ पहुँचकर] प्रेमपूर्वक इन्द्रके चरणों में प्रणामकर उस बालकको उन्हें समर्पित करके दोनों हाथ जोड़कर चम्पक खड़ा हो गया और बोला- ॥ १४-१५ ॥
हे देवदेव ! कामदेवके समान प्रभावाला यह बालक मुझे परम पवित्र तीर्थ यमुना तथा तमसा नदीके संगम-स्थलपर प्राप्त हुआ था ॥ १६ ॥
कस्यायं बालकः कान्तः कथं त्यक्तः शचीपते । आज्ञा चेत्तव देवेश कुर्वेऽहं बालकं सुतम् ॥ १७ ॥
हे शचीपते ! कान्तिसे सम्पन्न यह बालक किसका है; इसका त्याग क्यों कर दिया गया है ? हे देवेश ! यदि आपका आदेश हो तो मैं इस बालकको अपना पुत्र बना लूँ ॥ १७ ॥
इन्द्र बोले-यह अश्वरूपधारी भगवान् विष्णुका पुत्र है । हे महाभाग ! हैहयसंज्ञक यह परम तपस्वी बालक लक्ष्मीजीसे उत्पन्न हुआ है ॥ १९ ॥
उत्पादितो भगवता कार्यार्थं किल बालकः । दातुं नृपतये नूनं ययातितनयाय च ॥ २० ॥
भगवान् विष्णुने ययातिके पुत्र राजा हरिवर्माको अर्पित करनेके उद्देश्यसे इस बालकको उत्पन्न किया है ॥ २० ॥
हरिणा प्रेरितः सोऽद्य राजा परमधार्मिकः । आगमिष्यति पुत्रार्थं तीर्थे तस्मिन्मनोरमे ॥ २१ ॥ तावत्त्वं गच्छ तत्रैव गृहीत्वा बालकं शुभम् । यावन्न याति नृपतिर्ग्रहीतुं हरिणेरितः ॥ २२ ॥
परम धार्मिक राजा हरिवर्मा भगवान् विष्णुसे प्रेरणा प्राप्तकर पुत्रके लिये आज ही उस पावन तीर्थमें पहुँचेंगे । अतएव जबतक भगवान् विष्णुके द्वारा प्रेरित होकर वे राजा उसे लेनेहेतु वहाँ पहुँच नहीं जाते, उससे पूर्व तुम इस सुन्दर बालकको लेकर वहींपर पहुँच जाओ ॥ २१-२२ ॥
गत्वा तत्र विमुञ्चैनं विलम्बं मा कृथा वर । अदृष्ट्वा बालकं राजा दुःखितश्च भविष्यति ॥ २३ ॥
हे श्रेष्ठ ! वहाँ जाकर इस बालकको छोड़ दो, विलम्ब मत करो; क्योंकि राजा हरिवर्मा [तुमसे पहले पहुँच गये तो] बालकको वहाँ न देखकर अत्यन्त दु:खी होंगे ॥ २३ ॥
तस्माच्चम्पक मुञ्चैनं राजा प्राप्नोतु पुत्रकम् । एकवीरेति नाम्नायं ख्यातः स्यात् पृथिवीतले ॥ २४ ॥
अतएव हे चम्पक ! इस बालकको छोड़ आओ, जिससे राजा पुत्र प्राप्त कर लें । यह पृथ्वीलोकमें 'एकवीर'-इस नामसे प्रसिद्ध होगा ॥ २४ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! इन्द्रकी यह बात सुनकर चम्पक शीघ्रतापूर्वक उस बालकको लेकर उस स्थानपर पहुँच गया । बालक पहले जहाँ पड़ा हुआ था, वहींपर उसने बालकको रख दिया और अपने विमानपर चढ़कर अपने स्थानको लौट गया ॥ २५-२६ ॥
तदैव कमलाकान्तो लक्ष्म्या सह जगद्गुरुः । विमानवरमारूढो जगाम नृपतिं प्रति ॥ २७ ॥
इसके तुरंत बाद कमलाकान्त जगद्गुरु भगवान् विष्णु लक्ष्मीजीके साथ श्रेष्ठ विमानपर आरूढ़ होकर राजाके यहाँ पहुँचे ॥ २७ ॥
दृष्टस्तदा तेन नृपेण विष्णुः समुत्तरंस्तत्र विमानमुख्यात् । जहर्ष राजा हरिदर्शनेन पपात भूमौ खलु दण्डवच्च ॥ २८ ॥
उस समय राजा हरिवर्माने भगवान् विष्णुको उत्तम विमानसे उतरते हुए देखा । भगवान्के दर्शनसे राजा अत्यन्त हर्षित हुए और दण्डकी भाँति उनके समक्ष पृथ्वीपर गिर पड़े ॥ २८ ॥
'हे वत्स ! उठो'-ऐसा कहकर भगवान् विष्णुने भूमिपर पड़े हुए अपने भक्तको आश्वासन दिया । इसके बाद राजा हरिवर्मा भी उल्लसित होकर अपने सामने खड़े वासुदेवकी भक्तिपूर्वक स्पष्ट वाणीमें स्तुति करने लगे- ॥ २९ ॥
देवाधिदेवाखिललोकनाथ कृपानिधे लोकगुरो रमेश । मन्दस्य मे ते किल दर्शनं य- त्सुदुर्लभं योगिजनैरलभ्यम् ॥ ३० ॥
हे देवाधिदेव ! हे अखिललोकनाथ ! हे कृपानिधे ! हे लोकगुरो ! हे रमेश ! आपका जो दर्शन योगिजनोंके लिये भी अलभ्य है, वह मुझ अज्ञानीके लिये तो अत्यन्त ही दुर्लभ था ॥ ३० ॥
ये निःस्पृहास्ते विषयैरपेता- स्तेषां त्वदीयं खलु दर्शनं स्यात् । आशापरोऽहं भगवन्ननन्त योग्यो न ते दर्शने देवदेव ॥ ३१ ॥
जो लोग कामनारहित तथा विषयोंसे मुक्त हैं, उन्हें ही आपका दर्शन हो सकता है । हे भगवन् ! हे अनन्त ! हे देवदेव ! केवल आशापरायण मैं वास्तवमें आपके दर्शनके योग्य नहीं था ॥ ३१ ॥
तत्पश्चात् राजाने अपने सामने स्थित विष्णुके चरणोंमें सिर झुकाकर उनसे कहा-हे मुरारे ! मैंने पुत्रप्राप्तिके लिये तपस्या की है । अतएव आप मुझे अपने ही सदृश पुत्र दीजिये ॥ ३३ ॥
राजाकी प्रार्थना सुनकर आदिदेव भगवान् विष्णुने राजासे सार्थक वचन कहा-हे ययातिनन्दन ! तुम इसी समय यमुना तथा तमसा नदीके उस पावन संगम तीर्थपर चले जाओ । हे राजन् ! आप जैसा पुत्र चाहते हैं, वैसा ही पत्र मैंने वहाँ रख दिया है । मेरे तेजसे प्रादुर्भूत वह पुत्र अमित प्रभाववाला है तथा लक्ष्मीजीने उसे उत्पन्न किया है । तुम्हारे लिये ही उसकी उत्पत्ति की गयी है, अत: तुम उसे ग्रहण करो ॥ ३४-३५ ॥
भगवान् विष्णुको अत्यन्त मधुर वाणी सुनकर राजाके मनमें प्रसन्नता हुई । राजाको यह वरदान देकर भगवान् विष्णु लक्ष्मीजीके साथ वैकुण्ठ चले गये ॥ ३६ ॥
गते हरौ सोऽथ ययातिसूनु- र्ययावनुद्धातरथेन राजा । प्रेमान्वितस्तत्र सुतोऽस्ति यत्र वचो निशम्येति जनार्दनस्य ॥ ३७ ॥
भगवान् विष्णुके चले जानेपर उन जनार्दनकी बात सुनकर आनन्दविभोर ययातिनन्दन राजा हरिवर्मा एक अप्रतिहत गति वाले रथपर आरूढ़ होकर उस स्थानपर गये, जहाँ बालक स्थित था ॥ ३७ ॥
लक्ष्मीजीसे उत्पन्न भगवान् विष्णुके अंशस्वरूप तथा उन्हींके समान प्रभावशाली एवं कामदेवके सदृश रूपवान् उस पुत्रको देखकर राजा हरिवर्माका मुखारविन्द हर्षसे खिल उठा । उस बालकको अपने करकमलोंसे बड़ी तेजीसे उठाते हुए राजा हरिवर्मा प्रेमसागरमें मग्न हो गये । प्रसन्नतापूर्वक उसका मस्तक सूंघकर उन राजाने पत्रका आलिंगन किया और अत्यन्त आनन्द प्राप्त किया ॥ ३९-४० ॥
मुखं समीक्ष्यातिमनोहरं त- मुवाच नेत्राम्बुनिरुद्धकण्ठः । दत्तोऽसि देवेन जनार्दनेन मात्रा हि पुत्रावमदुःखभीतेः ॥ ४१ ॥ तप्तं मया पुत्र तपस्तवार्थे सुदुष्करं वर्षशतं च पूर्णम् । तेनैव तुष्टेन रमाप्रियेण दत्तोऽसि संसारसुखोदयाय ॥ ४२ ॥
उस बालकका अत्यन्त मनोहर मुख देखकर प्रेमके अश्रुसे रुंधे कण्ठवाले राजाने उससे कहा-हे पुत्र ! भगवान् विष्णु तथा माता लक्ष्मीके द्वारा तुम मेरे लिये प्रदान किये गये हो । हे पुत्र ! नरकभोगके दु:खसे भयभीत होकर मैंने तुम्हारे लिये पूरे सौ वर्षोंतक अत्यन्त कठोर तपस्या की है । उसी तपसे प्रसन्न होकर रमाकान्त विष्णुने सांसारिक सुख भोगनेके लिये तुम्हें पुत्ररूपमें मुझे प्रदान किया है ॥ ४१-४२ ॥
लक्ष्मीजी तुम्हारी जननी हैं; तुझ पुत्रको मेरे लिये छोड़कर वे भगवान् विष्णुके साथ वैकुण्ठ चली गयी हैं । अब वह माता धन्य होगी, जो तुझ-जैसे हँसते हुए पुत्रको अपनी गोदमें लेकर आनन्द प्राप्त करेगी । हे पुत्र ! मेरे लिये संसारसागरको पार करनेके लिये तुम नौकास्वरूप हो, जिसे साक्षात् लक्ष्मीपति भगवान् विष्णुने उत्पन्न किया है । ऐसा कहकर राजा हरिवर्मा प्रसन्नतापूर्वक उस पुत्रको लेकर अपने घरकी ओर चले गये ॥ ४३-४४ ॥
सूत, बंदीजन तथा गायकगण भी राजाके सामने उनका यशोगान करते हुए शीघ्र ही आ गये । नगरमें आकर राजा हरिवर्मा अपने सम्मुख उपस्थित लोगोंको [स्नेहभरी] दृष्टि तथा [मधुर] वचनोंसे आश्वस्त करके नगरवासियोंद्वारा भलीभाँति पूजित होकर पुत्रके साथ नगरीमें प्रविष्ट हुए । नगरमें जाते समय रास्तेभर राजाके ऊपर लाजा तथा फूलोंकी वर्षा की जा रही थी ॥ ४६-४७ ॥
गृहं समृद्धं सचिवैः समेतः सुतं समादाय मुदा कराभ्याम् । राज्ये ददौ चाथ सुतं मनोज्ञं सद्यःप्रसूतं च मनोभवाभम् ॥ ४८ ॥
सचिवोंके साथ अपने समृद्धिशाली महलमें पहुँचनेपर राजाने हर्षपूर्वक कामदेवके तुल्य कान्तिमान् तथा मनोहर नवजात पुत्रको दोनों हाथोंमें लेकर रानीको दे दिया ॥ ४८ ॥
उस बालकको गोदमें लेकर पुण्यात्मा रानीने राजासे पूछा-हे राजन् ! कामदेवके समान सुन्दर तथा उत्तम कुलमें उत्पन्न इस पुत्रको आपने कहाँसे प्राप्त किया ? हे कान्त ! आप शीघ्र बताइये कि किसने आपको यह बालक दिया है ? इस पुत्रने अपने सौन्दर्यसे मेरे मनको वशीभूत कर लिया है । तब राजाने बड़ी प्रसन्नताके साथ कहा-हे प्रिये ! हे चंचल नेत्रोंवाली ! लक्ष्मीजीसे उत्पन्न तथा भगवान् जनार्दनका अंशस्वरूप यह महान् शक्तिशाली पुत्र मुझे स्वयं लक्ष्मीपति भगवान् विष्णुने ही दिया है । उस पुत्रको लेकर रानी परम आनन्दित हुई और राजाने अद्भुत उत्सव मनाया ॥ ४९-५१ ॥
राजाने याचकोंको दान दिया । इस अवसरपर गीत गाये गये तथा अनेक वाद्य बजाये गये । सम्यक् उत्सव करके राजाने अपने पुत्रका 'एकवीर'-यह प्रसिद्ध नाम रखा । वे सुख पाकर बहुत प्रसन्न हुए तथा आनन्दित हुए । इन्द्रके समान पराक्रमशाली राजा हरिवर्मा भगवान् विष्णुके सदृश रूपवान् तथा गुणी पुत्र पाकर वंशऋण (पितृऋण)-से मुक्त हो गये ॥ ५२-५३ ॥
इस प्रकार समस्त देवताओंके अधिपति भगवान् विष्णुके द्वारा अर्पित किये गये उस सर्वगुणसम्पन्न पुत्रको प्राप्त करके इन्द्रके समान प्रतापी राजा हरिवर्मा अपनी भायके साथ नानाविध सुख भोगते हुए तथा विनोद करते हुए अपने महलमें रहने लगे ॥ ५४ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवतेमहापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे एकवीराख्यानवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥