[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]
राजपुत्र्याः एकावल्याः वर्णनम् -
आखेटके लिये वनमें गये राजासे एकावलीकी सखी यशोवतीकी भेंट, एकावलीके जन्मकी कथा -
व्यास उवाच जातकर्मादिसंस्कारांश्चकार नृपतिस्तदा । दिने दिने जगामाशु वृद्धिं बालः सुलालितः ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! तत्पश्चात् राजा हरिवर्माने बालकके जातकर्म आदि संस्कार किये । भलीभाँति पालित-पोषित होनेके कारण वह बालक दिनोदिन शीघ्रतासे बढ़ने लगा ॥ १ ॥
नृपः संसारजं प्राप्य सुखं पुत्रसभुद्भवम् । ऋणत्रयविमोक्षं च मेने तेन महात्मना ॥ २ ॥
इस प्रकार पुत्रजनित सांसारिक सुख प्राप्त करके उन महात्मा नरेशने अपनेको अब तीनों ऋणोंसे मुक्त मान लिया ॥ २ ॥
षष्ठेऽन्नप्राशनं तस्य कृत्वा मासि यथाविधि । तृतीयेऽथ तथा वर्षे चूडाकरणमुत्तमम् ॥ ३ ॥ चकार ब्राह्मणान् द्रव्यैः सम्पूज्य विविधैर्धनैः । गोभिश्च विविधैर्दानैर्याचकानितरानपि ॥ ४ ॥
राजा हरिवर्माने छठे महीनेमें बालकका अन्नप्राशनसंस्कार करके तीसरे वर्ष में शुभ मुण्डन-संस्कार विधि-विधानके साथ सम्पन्न किया । इनमें ब्राह्मणोंकी सम्यक् पूजा करके उन्हें विविध धन-द्रव्यों तथा गौओंका दान किया गया और अन्य याचकोंको भी नानाविध दान दिये ॥ ३-४ ॥
वर्षे चैकादशे तस्य मौञ्जीबन्धनकर्म वै । कारयित्वा धनुर्वेदमध्यापयत पार्थिवः ॥ ५ ॥
ग्यारहवें वर्षमें उस बालकका यज्ञोपवीत-संस्कार कराकर राजाने उसको धनुर्वेद पढ़वाया ॥ ५ ॥
राजा हरिवर्माने उस पुत्रको धनुर्वेद तथा राजधर्ममें पूर्ण निष्णात हुआ देखकर उसका राज्याभिषेक करनेका निश्चय किया ॥ ६ ॥
पुष्यार्कयोगसंयुक्ते दिवसे नृपसत्तमः । कारयामास सम्भारानभिषेकार्थमादरात् ॥ ७ ॥
तत्पश्चात् श्रेष्ठ राजाने पुष्यार्क-योगसे युक्त शुभ दिनमें बड़े आदरके साथ अभिषेकहेतु सभी सामग्रियाँ एकत्र करवायीं ॥ ७ ॥
द्विजानाहूय वेदज्ञान् सर्वशास्त्रविचक्षणान् । अभिषेकं चकारासौ विधिवत् स्वात्मजस्य ह ॥ ८ ॥ जलमानीय तीर्थेभ्यः सागरेभ्यश्च पार्थिवः । स्वयं चकार विथिवदभिषेकं शुभे दिने ॥ ९ ॥
सभी शास्त्रोंमें पूर्ण पारंगत तथा वेदवेत्ता ब्राह्मणोंको बुलाकर उन्होंने विधिवत् अपने पुत्रका अभिषेक सम्पन्न किया । सभी तीर्थों तथा समुद्रोंसे जल मंगाकर राजाने शुभ दिनमें पुत्रका स्वयं अभिषेक किया । ८-९ ॥
धनं दत्त्वाथ विप्रेभ्यो राज्यं पुत्रे निवेश्य सः । जगाम वनमेवाशु स्वर्गकामः स भूपतिः ॥ १० ॥
तत्पश्चात् ब्राह्मणोंको धन देकर तथा पुत्रको राज्य सौंपकर उन राजा हरिवर्माने स्वर्गप्राप्तिकी कामनासे वनके लिये शीघ्र ही प्रस्थान किया ॥ १० ॥
इस प्रकार एकवीरको राजा बनाकर तथा योग्य मन्त्रियोंको नियुक्तकर इन्द्रियजित् राजा हरिवर्माने अपनी भार्याके साथ वनमें प्रवेश किया ॥ ११ ॥
मैनाकशिखरे राजा कृत्वा तार्तीयमाश्रमम् । नित्यं पत्रफलाहारश्चिन्तयामास पार्वतीम् ॥ १२ ॥
मैनाकपर्वतके शिखरपर तृतीय आश्रम (वानप्रस्थ)-का आश्रय लेकर वे राजा प्रतिदिन वनके पत्तों तथा फलोंका आहार करते हुए भगवती पार्वतीकी आराधना करने लगे ॥ १२ ॥
एवं स नृपतिः कृत्वा दिष्टान्ते सह भार्यया । मृतोऽसौ वासवं लोकं गतः पुण्येन कर्मणा ॥ १३ ॥
इस प्रकार अपनी भार्याके साथ वानप्रस्थआश्रमका पालन करके वे राजा प्रारब्ध कर्मके समाप्त हो जानेपर मृत्युको प्राप्त हुए और अपने पुण्यकर्मके प्रभावसे इन्द्रलोक चले गये ॥ १३ ॥
इन्द्रलोकं पिता प्राप्त इति श्रुत्वाथ हैहयः । चकार वेदनिर्दिष्टं कर्म चैवौर्ध्वदैहिकम् ॥ १४ ॥
पिता इन्द्रलोक चले गये-ऐसा सुनकर हैहय एकवीरने वैदिक विधानके अनुसार उनका औदैहिक संस्कार सम्पन्न किया ॥ १४ ॥
उत्कृष्ट राज्य प्राप्त करके धर्मपरायण एकवीर सभी मन्त्रियोंसे सम्मानित रहते हुए अनेकविध सुखोंका उपभोग करने लगे ॥ १६ ॥
एकस्मिन् दिवसे राजा मन्त्रिपुत्रैः समन्वितः । जगाम जाह्नवीतीरे हयारूढः प्रतापवान् ॥ १७ ॥ सम्पश्यन् पादपान् रम्यान् कोकिलालापसंयुतान् । पुष्पितान् फलसंयुक्तान् षट्पदालिविराजितान् ॥ १८ ॥ मुनीनामाश्रमान्दिव्यान् वेदध्वनिनिनादितान् । होमधूमावृताकाशान् मृगशावसमावृतान् ॥ १९ ॥ केदाराञ्छालिसम्पक्वान् गोपिकाभिः सुरक्षितान् । प्रफुल्लपङ्कजारामान्निकुञ्जांश्च मनोरमान् ॥ २० ॥ प्रेक्षमाणः प्रियालांस्तु चम्पकान् पनसद्रुमान् । बकुलांस्तिलकान्नीपान्मन्दारांश्च प्रफुल्लितान् ॥ २१ ॥ शालांस्तालांस्तमालांश्च जम्बूचूतकदम्बकान् । स गच्छञ्जाह्नवीतोये प्रफुल्लं शतपत्रकम् ॥ २२ ॥ पङ्कजं चातिगन्धाढ्यमपश्यदवनीपतिः । दक्षिणे जलजस्याथ पार्श्वे कमललोचनाम् ॥ २३ ॥ कनकाभां सुकेशीं च कम्बुग्रीवां कृशोदरीम् । बिम्बोष्ठी सुन्दरीं किञ्चित्समुद्यत्सुपयोधराम् ॥ २४ ॥ सुनासां चारुसर्वाङ्गीमपश्यत् कन्यकां नृपः । रुदतीं तां सखीं त्यक्त्वा विह्वलां दुःखपीडिताम् ॥ २५ ॥ साश्रुनेत्रां क्रन्दमानां विजने कुररीमिव । संवीक्ष्य राजा पप्रच्छ कन्यकां शोककारणम् ॥ २६ ॥
एक दिन प्रतापी राजा एकवीर मन्त्रियोंके पुत्रोंके साथ घोड़ेपर आरूढ़ होकर गंगाके तटपर गये । वहाँ उन्होंने कोकिलोंकी कूजसे गुंजित, भ्रमरोंकी पंक्तियोंसे सुशोभित तथा फलों-फूलोंसे लदे मनोहर वृक्षों; वेदपाठकी ध्वनिसे निनादित, हवनके धुएँसे आच्छादित आकाश-मण्डलवाले, मृगोंके छोटे शिशुओंसे आवृत दिव्य मुनि-आश्रमों; गोपिकाओंके द्वारा सुरक्षित तथा पके हुए शालिधान्यसे युक्त खेतों; विकसित कमलोंसे सुशोभित अनेक सरोवरों तथा मनको आकर्षित करनेवाले निकुंजोंको देखा । उन राजा एकवीरने प्रियाल, चम्पक, कटहल, बकुल, तिलक, नीप, पुष्पित मन्दार, शाल, ताल, तमाल, जामुन, आम और कदम्बके आदि वृक्षोंको देखते हुए कुछ दूर आगे जानेपर गंगाके जलमें उत्कृष्ट गन्धयुक्त एक खिला हुआ शतदल कमल देखा । राजाने उस कमलके दक्षिण भागमें कमलसदृश नेत्रोंवाली, स्वर्णके समान कान्तिवाली, सुन्दर केशपाशवाली, शंखतुल्य गर्दनवाली, कृश कटिप्रदेशवाली, बिम्बाफलके समान ओष्ठवाली, किंचित् स्फुट पयोधरवाली, मनोहर नासिकावाली तथा समस्त सुन्दर अंगोंवाली एक सुन्दरी कन्याको देखा । अपनी सखीसे बिछुड़ जानेसे व्याकुल होकर दु:खपूर्वक विलाप करती हुई, निर्जन वनमें आँखोंमें आँसू भरकर कुररी पक्षीकी भाँति क्रन्दन करती हुई उस कन्याको देखकर राजा एकवीरने उससे शोकका कारण पूछा ॥ १७–२६ ॥
सुनसे ब्रूहि कासि त्वं कस्य पुत्री शुभानने । गन्धर्वी देवकन्याथ कथं रोदिषि सुन्दरि ॥ २७ ॥
हे सुन्दर नासिकावाली ! तुम कौन हो ? हे सुमुखि ! तुम किसकी पुत्री हो ? तुम गन्धर्वकन्या हो अथवा देवकन्या ? हे सुन्दरि ! तुम क्यों रो रही हो ? यह मुझे बताओ ॥ २७ ॥
कथमेकाकिनी बाले त्यक्ता केन पिकस्वरे । पतिस्ते क्व गतः कान्ते पिता वा ब्रूहि साम्प्रतम् ॥ २८ ॥
हे बाले ! तुम यहाँ अकेली क्यों हो ? हे पिकस्वरे ! तुम्हें यहाँ किसने छोड़ दिया है ? हे प्रिये ! तुम्हारे पति अथवा पिता इस समय कहाँ चले गये हैं ? मुझे बताओ ॥ २८ ॥
किं ते दुःखमरालभ्रु कथयाद्य ममान्तिके । करोमि दुःखनाशं ते सर्वथैव कृशोदरि ॥ २९ ॥
हे वक्र भौंहोंवाली ! तुम्हें क्या दुःख है ? उसे मेरे सामने अभी व्यक्त करो । हे कृशोदरि ! मैं सब प्रकारसे तुम्हारा दुःख दूर करूँगा ॥ २९ ॥
न राज्ये मम तन्वङ्गि पीडां कोऽपि करोत्यलम् । न भयं चौरजं कान्ते न राक्षसभयं तथा ॥ ३० ॥
हे तन्वंगि ! मेरे राज्यमें कोई भी प्राणी किसीको पीड़ा नहीं पहुंचा सकता और हे कान्ते ! कहीं न तो चोरोंका भय है और न राक्षसोंका ही भय है ॥ ३० ॥
मयि शासति भूपाले नोत्पाता दारुणा भुवि । भयं न व्याघ्रसिंहेभ्यो न भयं कस्यचिद्भवेत् ॥ ३१ ॥
मुझ नरेशके शासन करते हुए इस पृथ्वीपर भीषण उत्पात नहीं हो सकते; बाघ अथवा सिंहसे किसीको भय नहीं हो सकता और किसीको कोई भी भय नहीं रहता ॥ ३१ ॥
वद वामोरु कस्मात्त्वं विलापं जाह्नवीतटे । करोषि त्राणहीनात्र किं ते दुःखं वदस्व मे ॥ ३२ ॥
हे वामोरु ! असहाय होकर तुम गंगातटपर क्यों विलाप कर रही हो, तुम्हें क्या दुःख है ? मुझे बताओ ॥ ३२ ॥
हे कान्ते ! मैं जगत्के प्राणियोंके अत्यन्त भीषण दैविक तथा मानुषिक कष्टको भी दूर करता हूँ; यह मेरा अद्भुत व्रत है । हे विशालनयने ! बताओ, मैं तुम्हारा वांछित कार्य करूँगा ॥ ३३ ॥
राजाके ऐसा कहनेपर उसे सुनकर मधुरभाषिणी कन्याने कहा-हे राजेन्द्र ! सुनिये, मैं आपको अपने शोकका कारण बता रही हूँ । हे राजन् ! विपदारहित प्राणी भला क्यों रोयेगा ? हे महाबाहो ! मैं जिसलिये रो रही हैं, वह आपको बता रही हूँ । आपके राज्यसे भिन्न दूसरे देशमें रैभ्य नामक एक महान् धार्मिक राजा हैं, वे महाराज सन्तानहीन हैं, उनकी पत्नी रुक्मरेखा-इस नामसे प्रसिद्ध हैं । वे परम रूपवती, बुद्धिमती, पतिव्रता तथा समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न हैं । पुत्रहीन होनेसे दुःखित रहनेके कारण वे अपने पतिसे बार-बार कहा करती थींहे नाथ ! मेरे इस जीवनसे क्या लाभ ? इस जगत्में मुझ वन्ध्या, पुत्रहीन तथा सुखरहित नारीके इस व्यर्थ जीवनको धिक्कार है ॥ ३४-३९ ॥
पुत्राभिलाषी राजा रैभ्यने शास्त्रोक्त रीतिसे प्रचुर धन दान दिया । घृतकी आहुति अधिक पड़ते रहनेसे तीन प्रभायुक्त अग्निसे सुन्दर अंगोंवाली, शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न, बिम्बाफलके समान ओष्ठवाली, सुन्दर दाँतों तथा भौंहोंवाली, पूर्ण चन्द्रमाके समान मुखवाली, स्वर्णके समान आभावाली, सुन्दर केशोंवाली, रक्त हथेलियोंवाली, कोमल, सुन्दर लाल नेत्रोंवाली, कृश शरीरवाली तथा रक्त पादतल [तलवे]-वाली एक कन्या प्रकट हुई ॥ ४१-४३ ॥
तब होताने अग्निसे उत्पन्न हुई उस कन्याको स्वीकार कर लिया । इसके बाद उस सुन्दर कन्याको लेकर होताने राजा रैभ्यसे कहा-हे राजन् ! समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न इस पुत्रीको ग्रहण कीजिये । हवन करते समय अग्निसे उत्पन्न यह कन्या मोतियोंकी मालाके समान प्रतीत होती है । अत: हे राजन् ! यह पुत्री जगतमें 'एकावली' नामसे प्रसिद्ध होगी । पत्रतल्य इस कन्याको प्राप्तकर आप सुखी हो जायें । हे राजेन्द्र ! सन्तोष कीजिये; भगवान् विष्णुने आपको यह कन्या दी है ॥ ४४-४६.५ ॥
होताकी बात सुनकर राजाने उस सुन्दर कन्याकी ओर देखकर होताके द्वारा प्रदत्त उस कन्याको अति प्रसन्न होकर ले लिया । राजाने सुन्दर मुखवाली उस कन्याको ले करके अपनी पत्नी रुक्मरेखाको यह कहकर दे दिया कि हे सुभगे ! इस कन्याको स्वीकार करो । कमलपत्रके समान नेत्रोंवाली उस मनोहर कन्याको पाकर रानी बहुत हर्षित हुई; वे ऐसी सूखी हो गयीं मानो उन्हें पुत्र प्राप्त हो गया हो ॥ ४७-४९ ॥
जहर्ष मुदिता राज्ञी पुत्रं प्राप्य यथासुखम् । चकार मङ्गलं कर्म जातकर्मादिकं शुभम् ॥ ५० ॥ पुत्रजन्मसमुत्थं यत्तत्सर्वं विधिवत्ततः । समाप्य च मखं राजा द्विजेभ्यो दक्षिणां शुभाम् ॥ ५१ ॥
तत्पश्चात् राजाने उसके जातकर्म आदि सभी शुभ मंगल कार्य सम्पन्न किये तथा पुत्रजन्मके अवसरपर होनेवाले जो कुछ भी कार्य थे, वे सब उन्होंने विधिपूर्वक सम्पन्न कराये । यज्ञ सम्पन्न करके राजा रैभ्य ब्राह्मणोंको विपुल दक्षिणा देकर तथा सभी विप्रेन्द्रोंको विदाकर अत्यन्त आनन्दित हुए ॥ ५०-५१ ॥
श्याम नेत्रोंवाली वह कन्या पुत्रवृद्धिके समान दिनोंदिन बढ़ने लगी । उसे देखकर उस समय रानी अपनेको पुत्रवती समझकर परम आनन्दित हुई । उस दिन महलमें ऐसा उत्सव मनाया गया, जैसा पुत्रजन्मके अवसरपर मनाया जाता है । वह पुत्री उन दोनोंके लिये पुत्रके ही सदृश प्रिय हो गयी ॥ ५२-५३.५ ॥
राज्ञो मन्त्रिसुता चाहं सुबुद्धे मन्मथाकृते ॥ ५४ ॥ यशोवती च मे नाम समानं वय आवयोः । वयस्याहं कृता राज्ञा क्रीडनाय तया सह ॥ ५५ ॥ सदा सहचरी जाता प्रेमयुक्ता दिवानिशम् ।
हे सुबुद्धे ! हे कामदेवसदृश रूपवाले ! मैं उन्हीं राजा रैभ्यके मन्त्रीकी पुत्री हूँ । मेरा नाम यशोवती है । मेरी तथा एकावलीकी अवस्था समान है । उसके साथ खेलनेके लिये राजाने मुझे उसकी सखी बना दिया । इस प्रकार मैं उसकी सहचरी बनकर प्रेमपूर्वक दिनरात उसके साथ रहने लगी ॥ ५४-५५.५ ॥
एकावली जहाँ भी सुगन्धित कमल देखती थी, वह बाला वहीं खेलने लग जाती थी; अन्यत्र कहीं भी उसे सुख नहीं मिलता था । [एक बार] गंगाके तटपर बहुत दूर कमल खिले हुए थे । राजकुमारी एकावली सखियोसहित मेरे साथ घूमती हुई वहाँ चली गयी । [इससे चिन्तित होकर] मैंने महाराज रैभ्यसे कहा-हे राजन् ! आपकी पुत्री एकावली कमलोंको देखती हुई बहुत दूर निर्जन बनमें चली जाती है । तब उसके पिताने घरपर ही अनेक जलाशयोंका निर्माण कराकर उनमें पुष्पित तथा भौरोंसे आवृत कमल लगवाकर उसे दूर जानेसे मना कर दिया । इसपर भी मनमें कमलोंके प्रति आसक्ति रखनेवाली वह कन्या बाहर निकल जाती थी । तब राजाने उसके साथ हाथोंमें शस्त्र धारण किये हुए रक्षक नियुक्त कर दिये । इस प्रकार रक्षित होकर वह सुन्दरी मेरे तथा सखियोसहित क्रीडाके लिये गंगातटपर प्रतिदिन आयाजाया करती थी ॥ ५६-६१ ॥