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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
षष्ठः स्कन्धः
द्वाविंशोऽध्यायः

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हैहयैकवीराय यशोवत्यैकावलीमोचनाय देवीस्वप्नवर्णनम् -
यशोवतीका एकवीरसे कालकेतुद्वारा एकावलीके अपहृत होनेकी बात बताना -


यशोवत्युवाच
प्रातरुत्थाय तन्वङ्गी चलिता च सखीयुता ।
चामरैर्वीज्यमाना सा रक्षिता बहुरक्षिभिः ॥ १ ॥
सायुधैश्चातिसन्नद्धैः सहिता वरवर्णिनी ।
क्रीडार्थमत्र राजेन्द्र सम्प्राप्ता नलिनीं शुभाम् ॥ २ ॥
यशोवती बोली-एक बार वह सुन्दरी एकावली प्रातःकाल उठकर अपनी सखियोंके साथ बाहर निकल पड़ी । वह बहुत-से रक्षकोंसे रक्षित थी तथा उसके ऊपर चँवर इलाये जा रहे थे । हे राजेन्द्र ! वह सुन्दरी यहाँ सुन्दर कमलोंके पास क्रीड़ा करनेके लिये आयी थी ॥ १-२ ॥

अहमप्यनया सार्धं गङ्गातीरे समागता ।
अप्सरोभिः समेता च कमलैः क्रीडमानया ॥ ३ ॥
कमलोंसे खेलनेकी रुचिवाली इस कन्याके साथ मैं भी अप्सराओंसहित गंगाके तटपर आयी थी ॥ ३ ॥

एकावली तथा चाहं जाते क्रीडापरे यदा ।
सहसैव तदायातो दानवो बलसंयुतः ॥ ४ ॥
कालकेतुरिति ख्यातो राक्षसैर्बहुभिर्युतः ।
परिघासिगदाचापबाणतोमरपाणिभिः ॥ ५ ॥
जब मैं तथा एकावली दोनों खेलनेमें व्यस्त हो गयीं, उसी समय हाथोंमें परिघ, तलवार, गदा, धनुष, बाण तथा तोमर धारण किये हुए बहुत-से राक्षसोंके साथ कालकेतु नामक बलवान् दानव वहाँ अकस्मात् आ पहुँचा ॥ ४-५ ॥

दृष्टा चैकावली तेन रूपयौवनशालिनी ।
द्वितीया कामपत्‍नीव क्रीडमाना सुपङ्कजैः ॥ ६ ॥
उसने कमलोंके साथ क्रीडा करती हुई उस रूप-यौवनसम्पन्न तथा दूसरी कामपत्नी रतिकी भाँति प्रतीत हो रही एकावलीको देख लिया ॥ ६ ॥

मयोक्तैकावली राजन् कोऽयं दैत्यः समागतः ।
गच्छावो रक्षपालानां मध्ये पङ्कजलोचने ॥ ७ ॥
हे राजन् ! मैंने एकावलीसे कहा-हे कमलनयने ! यह कौन-सा दैत्य आ गया है ! अब हम दोनों रक्षकोंके पास भाग चलें ॥ ७ ॥

विमृश्यैव सखी चाहं त्वरयैव गते भयात् ।
मध्ये वै सैनिकानां तु सायुधानां नृपात्मज ॥ ८ ॥
हे राजकुमार ! इस प्रकार विचारविमर्श करके सखी एकावली तथा मैं भयभीत होनेके कारण शस्त्रधारी सैनिकोंके बीच तुरंत चली गयी ॥ ८ ॥

कालकेतुस्तु तां दृष्ट्वा मोहिनीं मदनातुरः ।
गदां गुर्वी गृहीत्वा तु धावमानः समागतः ॥ ९ ॥
रक्षकान्दूरतः कृत्वा जग्राहाम्बुजलोचनाम् ।
त्रस्तां वेपथुसंयुक्तां क्रन्दमानां कृशोदरीम् ॥ १० ॥
वह कामातुर कालकेतु उस मोहिनी एकावलीको देखकर अपनी विशाल गदा लेकर दौड़ता हुआ पासमें आ गया और उसने रक्षकोंको हटाकर डरके मारे काँपती तथा रोती हुई कुश कटिप्रदेशवाली तथा कमलके समान नेत्रोंवाली एकावलीको पकड़ लिया ॥ ९-१० ॥

त्यजैनां मां गृहाणेति मया चोक्तोऽपि दानवः ।
न मां जग्राह कामार्तस्तां गृहीत्वा विनिःसृतः ॥ ११ ॥
'इस राजकुमारीको छोड़ दो और मुझे ग्रहण कर लो'-ऐसा मेरे कहनेपर भी उसने मुझे स्वीकार नहीं किया और कामके वशीभूत वह दानव एकावलीको लेकर वहाँसे निकल गया ॥ ११ ॥

तिष्ठ तिष्ठेति भाषन्तो रक्षकास्तं महाबलम् ।
प्रतिषिध्य तु संग्रामं चक्रुर्विस्मयकारकम् ॥ १२ ॥
रक्षकोंने 'ठहरो-ठहरो'-ऐसा कहते हुए उस महाबलीको रोककर उसके साथ विस्मयकारक युद्ध किया ॥ १२ ॥

तस्यापि राक्षसाः क्रूराः सर्वतः शस्त्रपाणयः ।
युयुधू रक्षकैः सार्धं स्वामिकार्ये कृतोद्यमाः ॥ १३ ॥
संग्रामस्तु तदा जातः कालकेतोस्तथा रणे ।
निहत्य रक्षकान्सर्वान्गृहीत्वैनां महाबलः ॥ १४ ॥
युक्तो राक्षससैन्येन निर्जगाम पुरं प्रति ।
वीक्ष्य तां रुदतीं बालां गृहीता दानवेन तु ॥ १५ ॥
पृष्ठतोऽहं गता तत्र यत्र नीता सखी मम ।
विक्रोशन्ती यथा सा मां पश्येदिति पदानुगा ॥ १६ ॥
अपने स्वामीके कार्यमें पूर्ण तत्पर तथा हाथोंमें शस्त्र धारण किये उसके सभी क्रूर राक्षसोंने भी रक्षकोंके साथ भीषण युद्ध किया । तब उन रक्षकोंके साथ कालकेतुका संग्राम होने लगा । वह महाबली युद्धमें सभी रक्षकोंको मारकर तथा एकावलीको लेकर राक्षसी सेनाके साथ अपने नगरके लिये चल दिया । दानव कालकेतुके द्वारा अधिकारमें की गयी उस राजकुमारीको रोती हुई देखकर मैं उसके पीछेपीछे वहीं पहुँच जाती थी, जहाँ कालकेतु मेरी सखीको लेकर जाता था जिससे कि रोती हुई वह मुझे अपने पीछे आते हुए देख ले ॥ १३-१६ ॥

सापि मामागतां वीक्ष्य किञ्चित्स्वस्थाभवत्तदा ।
गताहं तत्समीपे तु तामाभाष्य पुनः पुनः ॥ १७ ॥
मुझे आयी हुई देखकर वह भी कुछ स्वस्थचित्त हुई तब मैं उसके पास जाकर उससे बार-बार बातें करने लगी ॥ १७ ॥

सा मां प्राप्यातिदुःखार्ता स्तम्भस्वेदसमाकुला ।
कण्ठे गृहीत्वा मां भूप रुरोद भृशदुःखिता ॥ १८ ॥
हे राजन् ! दुःखसे व्याकुल तथा पसीनेसे संसिक्त उस एकावलीने मुझे पकड़कर गलेसे लगा लिया और वह अत्यन्त दुःखित होकर रोने लगी ॥ १८ ॥

स मामाह कालकेतुः प्रीतिपूर्वमिदं वचः ।
समाश्वासय भीतां त्वं सखीं चञ्चललोचनाम् ॥ १९ ॥
प्राप्तं ममाद्य नगरं देवलोकसमं प्रिये ।
दासोऽस्मि तव रत्या हि कस्मात्क्रन्दसि कातरा ॥ २० ॥
कथयैनां सखीं तेऽद्य स्वस्था भव सुलोचने ।
इत्युक्त्वा मां सखीपार्श्वे समारोप्य रथोत्तमे ॥ २१ ॥
जगाम तरसा दुष्टः पुरे स्वस्य मनोहरे ।
सैन्येन महता युक्तः प्रफुल्लवदनाम्बुजः ॥ २२ ॥
तत्पश्चात् उस कालकेतुने प्रेम प्रदर्शित करते हुए मुझसे यह बात कही कि चंचल नेत्रोंवाली अपनी इस भयग्रस्त सखीको धीरज बँधाओ और अपनी इस सखीसे [मेरी बात] कहो-'हे प्रिये ! देवलोकके समान अत्यन्त सुन्दर मेरा नगर अब आ ही गया है । तुम्हारे प्रेमके कारण मैं तुम्हारा दास हो चुका हूँ । तुम भयभीत होकर क्यों विलाप कर रही हो ? हे सुलोचने ! अब शान्त हो जाओ'-ऐसा कहकर उसी उत्तम रथमें सखीके पास मुझे भी बैठाकर प्रसन्नताके कारण खिले हुए कमलके समान मुखवाला दुष्ट कालकेतु अपनी भारी सेनाके साथ अपने सुन्दर नगरके लिये शीघ्र ही चल दिया । १९-२२ ॥

एकावली तथा मां च संस्थाप्य धवले गृहे ।
राक्षसान् गृहरक्षार्थं कल्पयामास कोटिशः ॥ २३ ॥
वहाँ उस दानवने मुझे तथा एकावलीको एक दिव्य महलमें ठहराकर उस महलकी रक्षाके लिये करोड़ों राक्षस नियुक्त कर दिये ॥ २३ ॥

द्वितीये दिवसे सोऽथ मामुवाच रहो नृप ।
प्रबोधय सखीं बालां शोचन्तीं विरहातुराम् ॥ २४ ॥
पत्‍नी मे भव सुश्रोणि सुखं भुङ्क्षव यथेप्सितम् ।
राज्यं त्वदीयं चन्द्रास्ये सेवकोऽहं सदा तव ॥ २५ ॥
हे राजन् ! दूसरे दिन उस कालकेतुने एकान्तमें मुझसे कहा-विरहसे दुःखित तथा शोक करती हुई अपनी सुन्दर सखीको [ मेरे शब्दोंमें] समझाओ-'हे सुश्रोणि ! तुम मेरी पत्नी हो जाओ और फिर यथेच्छ सुखोपभोग करो । हे चन्द्रमुखि ! अब यह राज्य तुम्हारा है और मैं सदाके लिये तुम्हारा सेवक बन गया हैं' ॥ २४-२५ ॥

पुनरुक्तं मया वाक्यं श्रुत्वा तद्‌भाषितं खरम् ।
नाहं क्षमाप्रियं वक्तुं त्वमेनां कथय प्रभो ॥ २६ ॥
उसका ऐसा दुर्वचन सुनकर मैंने उससे यह बात कही कि हे प्रभो ! मैं ऐसा अप्रिय वाक्य नहीं कह सकती, अत: आप ही इससे कहिये ॥ २६ ॥

इत्युक्ते वचने दुष्टो मदनक्षतमानसः ।
उवाच विनयादेनां सखीं क्षामोदरीं प्रियाम् ॥ २७ ॥
मेरे ऐसा कहनेपर कामसे आहत चित्तवाले उस दुष्ट दानवने कृश उदरवाली मेरी उस प्रिय सखीसे विनयपूर्वक कहा- ॥ २७ ॥

कृशोदरि त्वया मन्त्रो निक्षिप्तोऽस्ति ममोपरि ।
तेन मे हृदयं कान्ते हृतं ते वशतां गतम् ॥ २८ ॥
तेनाहं तव दासोऽद्य कृतोऽस्मीति विनिश्चयः ।
भज मां कामबाणेन पीडितं विवशं भृशम् ॥ २९ ॥
यौवनं याति रम्भोरु चञ्चलं दुर्लभं तदा ।
सफलं कुरु कल्याणि पतिं मां परिरभ्य च ॥ ३० ॥
हे कृशोदरि ! तुमने मेरे ऊपर कोई मन्त्र-प्रयोग कर दिया है । हे कान्ते ! उसीसे मोहित होकर मेरा मन तुम्हारे वशमें हो चुका है । उसी मन्त्रने मुझे अब तुम्हारा दास बना दिया है, इसमें कोई सन्देह नहीं है । इसलिये कामबाणसे आहत मुझ अत्यन्त विवशको अब तुम स्वीकार कर लो । हे रम्भोरु ! तुम्हारा दुर्लभ तथा चंचल यौवन व्यर्थ जा रहा है । इसलिये हे कल्याणि ! पतिभावसे मेरा आलिंगन करके इसे सफल कर लो ॥ २८-३० ॥

एकावल्युवाच
पित्राहं कल्पिता पूर्वं दातुं राजसुताय वै ।
हैहयस्तु महाभाग स मया मनसा वृतः ॥ ३१ ॥
एकावली बोली-मेरे पिता राजकुमार हैहयको मुझे देनेका पहले ही निश्चय कर चुके हैं । मैंने भी उन महाभागका मनसे वरण कर लिया है ॥ ३१ ॥

कथमन्यं भजे कान्तं त्यक्त्वा धर्मं सनातनम् ।
कन्याधर्मं विहायाद्य वेत्सि शास्त्रविनिश्चयम् ॥ ३२ ॥
यस्मै दद्यात्पिता कामं कन्या तं पतिमाप्नुयात् ।
परतन्त्रा सदा कन्या न स्वातन्त्र्यं कदाचन ॥ ३३ ॥
सनातनधर्मका त्याग करके तथा कन्याधर्म छोड़कर मैं दूसरेको पतिरूपमें कैसे स्वीकार करूँ ? आप भी तो शास्त्रीय नियमको जानते ही हैं । पिता कन्याको जिसे सौंप दे, कन्या उसीको पति बना ले । कन्या इस विषयमें सदा पराधीन रहती है, उसे स्वतन्त्रता कभी नहीं रहती ॥ ३२-३३ ॥

इत्युक्तोऽपि तया पापी विरराम न मोहितः ।
न मुमोच विशालाक्षीं मां च पार्श्वस्थितां तथा ॥ ३४ ॥
[हे राजकुमार !] उस एकावलीके ऐसा कहनेपर भी वह पापात्मा कालकेतु राजकुमारीपर मोहित रहनेके कारण अपने निश्चयसे विचलित नहीं हुआ और उसने विशाल नेत्रोंवाली एकावलीको तथा उसके पासमें स्थित मुझको नहीं छोड़ा ॥ ३४ ॥

पातालविवरे तस्य पुरं परमसङ्कटे ।
राक्षसै रक्षितं दुर्गं मण्डितं परिखावृतम् ॥ ३५ ॥
तत्र तिष्ठति दुःखार्ता सखी मे प्राणवल्लभा ।
तेनाहं विरहेणात्र रारटीमि सुदुःखिता ॥ ३६ ॥
उस कालकेतुका नगर अनेक प्रकारके संकटोंसे युक्त एक पाताल-विवरमें विद्यमान है । वहींपर चारों ओर खाइयोंसे घिरा हुआ तथा राक्षसोंसे पूर्णतया रक्षित उसका सुन्दर दुर्ग है । मेरी प्राणप्यारी सखी एकावली वहींपर दुःखके साथ पड़ी हुई है । इसलिये उसके विरहसे अत्यन्त व्यथित होकर मैं यहाँ विलाप कर रही हूँ ॥ ३५-३६ ॥

एकवीर उवाच
कथं त्वमत्र सम्प्राप्ता पुरात्तस्य दुरात्मनः ।
विस्मयो मे महानत्र तत्त्वं ब्रूहि वरानने ॥ ३७ ॥
एकवीरने कहा-हे वरानने ! उस दुष्टात्मा कालकेतुके नगरसे तुम यहाँ कैसे आ गयी ? इस बातसे मैं बहुत ही आश्चर्यचकित हूँ: तुम मुझसे इस विषयमें बताओ ॥ ३७ ॥

त्वया च कथितं वाक्यं सन्दिग्धं भाति भामिनि ।
हैहयार्थे कल्पिता सा पित्रेति मम साम्प्रतम् ॥ ३८ ॥
हैहयो नाम राजाहं नान्योऽस्ति पृथिवीपतिः ।
मदर्थे कथिता सा किं सखी तव सुलोचना ॥ ३९ ॥
हे भामिनि ! अभी तुमने जो कहा है कि एकावलीके पिताने उसका विवाह हैहयके साथ करनेका निश्चय किया है, वह बात मुझे अत्यन्त सन्देहास्पद प्रतीत हो रही है । हैहय नामका राजा मैं ही हूँ; अन्य कोई राजा नहीं है । सुन्दर नेत्रोंवाली वह तुम्हारी सखी अपने पिताके द्वारा कहीं मेरे लिये ही तो कल्पित नहीं की गयी है ? ॥ ३८-३९ ॥

एतन्मे संशयं सुभ्रु छेत्तुमर्हसि भामिनि ।
अहं तामानयिष्यामि तं हत्वा राक्षसाधमम् ॥ ४० ॥
स्थानं दर्शय मे तस्य यदि जानासि सुव्रते ।
राज्ञे निवेदितं किं वा तत्पित्रे चातिदुःखिता ॥ ४१ ॥
हे सुभ्र ! हे भामिनि ! तुम मेरे इस सन्देहको दूर करो । मैं उस अधम राक्षसका वध करके उस एकावलीको ले आऊँगा । हे सुव्रते ! यदि तुम उस राक्षसका स्थान जानती हो तो वह स्थान मुझे दिखा दो । उसके पिता राजा रैभ्यको तुमने यह बताया अथवा नहीं कि वह अत्यन्त दुःखित है । ४०-४१ ॥

यस्यैषा वल्लभा पुत्री न किं जानाति तां हृताम् ।
नोद्यमः किं कृतस्तेन ततो मोचनहेतवे ॥ ४२ ॥
जिसकी ऐसी प्रिय पुत्री हो, क्या वह उसके हरणको नहीं जानता ? और फिर उसने एकावलीकी मुक्तिके लिये क्या कोई प्रयास नहीं किया ? ॥ ४२ ॥

बन्दीकृतां सुतां ज्ञात्वा कथं तिष्ठति सुस्थिरः ।
असमर्थो नृपः किं वा कारणं ब्रूहि सत्वरम् ॥ ४३ ॥
अपनी पुत्रीको बन्दी बनाया गया जाननेके बाद भी राजा स्थिरचित्त होकर कैसे चुप बैठे हैं ? अथवा राजा कुछ कर पानेमें असमर्थ तो नहीं हैं ? मुझे इसका कारण शीघ्र बताओ ॥ ४३ ॥

त्वया मेऽपहृतं चेतो गुणानुक्त्वा ह्यमानुषान् ।
सख्याः पङ्कजपत्राक्षि कृतः कामवशो भृशम् ॥ ४४ ॥
हे कमलनयने ! तुमने अपनी सखीके अलौकिक गुणोंको बताकर मेरे चित्तको हर लिया है तथा मैं पूर्ण-रूपसे कामके वशीभूत कर दिया गया हूँ ॥ ४४ ॥

कदा पश्यामि तां कान्तां मोचयित्वातिसङ्कटात् ।
इति मे हृदयं चाद्य करोत्यतिमनोरथम् ॥ ४५ ॥
अब तो मेरे मनकी यही अभिलाषा है कि उस प्रियाको इस महान् संकटसे मुक्त करके मैं उसे कब देख लूँ ॥ ४५ ॥

ब्रूहि मे गमनोपायं पुरे तस्यातिदुर्गमे ।
कथं त्वमागता तस्मात्सङ्कटादत्र तद्वद ॥ ४६ ॥
अब उस दानवके अत्यन्त दुर्गम नगरमें जानेका उपाय मुझे बताओ और यह भी बताओ कि उस महान् संकटसे छूटकर तुम यहाँ कैसे आयी ? ॥ ४६ ॥

यशोवत्युवाच
बालभावान्मया मन्त्रो भगवत्या विशांपते ।
प्राप्तोऽस्ति ब्राह्मणात्सिद्धात्सबीजध्यानपूर्वकः ॥ ४७ ॥
यशोवती बोली-हे राजन् ! मैंने बाल्यावस्थासे ही एक सिद्ध ब्राह्मणसे बीज तथा ध्यानसहित भगवतीका मन्त्र प्राप्त किया है । ४७ ॥

तत्रावस्थितया राजन् मया चित्ते विचारितम् ।
आराधयामि सततं चण्डिकां चण्डविक्रमाम् ॥ ४८ ॥
सा देवी सेविता कामं बन्धमोक्षं करिष्यति ।
भक्तानुकम्पिनी शक्तिः समर्था सर्वसाधने ॥ ४९ ॥
या विश्वं सृजते शक्त्या पालयत्येव सा पुनः ।
कल्पान्ते संहरत्येव निराकारा निराश्रया ॥ ५० ॥
इति सञ्चिन्त्य मनसा देवीं विश्वेश्वरीं शिवाम् ।
ध्यात्वा रक्ताम्बरां सौम्यां सुरक्तनयनां हृदि ॥ ५१ ॥
संस्मृत्य मनसा रूपं मन्त्रजाप्यपराभवम् ।
उपासिता मया देवी मासमेकं समाधिना ॥ ५२ ॥
हे राजन् ! जब मैं कालकेतुके यहाँ थी तभी मैंने अपने मनमें सोचा कि अब मैं प्रचण्ड पराक्रमवाली भगवती चण्डिकाकी निरन्तर आराधना करूँ । वे भगवती पूर्णरूपसे आराधित होनेपर निश्चितरूपसे मुझे इस बन्धनसे मुक्त करेंगी; क्योंकि भक्तोंपर अनुकम्पा करनेवाली वे शक्तिस्वरूपा चण्डिका सब कुछ करनेमें समर्थ हैं । जो निराकार तथा निरालम्ब भगवती अपनी शक्तिसे जगत्का सृजन करती हैं तथा पालन करती हैं, वे ही कल्पके अन्तमें उसका संहार भी कर देती हैं । मनमें ऐसा सोचकर मैं विश्वकी अधिष्ठात्री, कल्याणकारिणी, लाल वस्त्र धारण करनेवाली, सौम्य विग्रहवाली तथा सुन्दर रक्त नयनोंवाली भगवतीका ध्यान करके मन-ही-मन उनके रूपका स्मरण करके मन्त्रका जप करनेमें तत्पर हो गयी । इस प्रकार मैं समाधि लगाकर एक माहतक भगवती जगदम्बाकी उपासना करती रही ॥ ४८-५२ ॥

स्वप्ने मम समायाता भक्तिभावेन तोषिता ।
मामाहामृतया वाचा किं सुप्तासीति चण्डिका ॥ ५३ ॥
उत्तिष्ठ याहि तरसा गङ्गातीरं मनोहरम् ।
आगमिष्यति तत्रासौ हैहयो नृपपुङ्गवः ॥ ५४ ॥
एकवीरो महाबाहुः सर्वशत्रुविमर्दनः ।
दत्तात्रेयेण मन्मन्त्रो महाविद्याभिधः परः ॥ ५५ ॥
दत्तोऽस्मै सोऽपि सततं मामुपास्तेऽतिभक्तितः ।
मय्यासक्तमतिर्नित्यं मम पूजापरायणः ॥ ५६ ॥
मामेव सर्वभूतेषु ध्यायन्नास्ते च मत्परः ।
स ते दुःखविनाशं वै करिष्यति महामतिः ॥ ५७ ॥
मासुतो विहरंस्तत्र तव त्राता भविष्यति ।
हत्वा तं राक्षसं घोरं मोचयिष्यति मानिनीम् ॥ ५८ ॥
एकावलीमेकवीरः सर्वशास्त्रविशारदः ।
पश्चात्सैव पतिः कार्यस्त्वया राजसुतः शुभः ॥ ५९ ॥
तत्पश्चात् मेरे भक्तिभावसे प्रसन्न होकर देवी चण्डिकाने मुझे स्वप्नमें दर्शन दिया और अमृतमयी वाणीमें मुझसे कहा-'तुम सोयी क्यों हो ? उठो और तत्काल गंगाजीके मनोहर तटपर चली जाओ; वहींपर विशाल भुजाओंवाले तथा सभी शत्रुओंका दमन करनेवाले नपश्रेष्ठ हैहय एकवीर आयेंगे । दत्तात्रेयजीने महाविद्या नामक मेरा श्रेष्ठ मन्त्र उन्हें प्रदान किया है । वे भी भक्तिपूर्वक निरन्तर मेरी उपासना करते रहते हैं । उनका मन सदा मझमें लगा रहता है तथा वे सदा मेरी पूजामें रत रहते हैं । मेरे प्रति आसक्तिभाव रखनेवाले वे सभी प्राणियोंमें एकमात्र मुझे ही देखते हुए सदा मेरे ही परायण रहते हैं । वे महामति एकवीर ही तुम्हारा दुःख दूर करेंगे । वे लक्ष्मीपुत्र एकवीर घूमते हुए गंगातटपर आकर तुम्हारी रक्षा करेंगे और उस भयानक राक्षस कालकेतुका वध करके मानिनी एकावलीको मुक्त करेंगे । इसके बाद तुम समस्त शास्त्रोंमें निष्णात उन्हीं सुन्दर राजकुमार एकवीरके साथ एकावलीका विवाह करवा देना' ॥ ५३-५९ ॥

इत्युक्त्वान्तर्दधे देवी प्रबुद्धाहं तदैव हि ।
कथितं स्वप्नवृत्तान्तं देव्याश्चाराधनं तथा ॥ ६० ॥
ऐसा कहकर देवी अन्तर्धान हो गयीं और मैं उसी समय जग गयी । तत्पश्चात् मैंने स्वप्नका वृत्तान्त तथा देवीकी आराधनाकी बात एकावलीको बतायी ॥ ६० ॥

प्रसन्नवदना जाता श्रुत्वा सा कमलेक्षणा ।
विशेषेण च सन्तुष्टा मामुवाच शुचिस्मिता ॥ ६१ ॥
गच्छ तत्र त्वरायुक्ता कुरु कार्यं मम प्रिये ।
सत्यवाक्या भगवती सावां मोक्षं विधास्यति ॥ ६२ ॥
सारी बातें सुनकर उस कमलनयनीके मुखमण्डलपर प्रसन्नता छा गयी । अत्यन्त सन्तुष्ट होकर पवित्र मुसकानवाली एकावलीने मुझसे कहा-हे प्रिये ! तुम वहाँ शीघ्रतापूर्वक जाओ और मेरा कार्य सिद्ध करो । जो भगवती सत्य वाणीवाली हैं, वे हम दोनोंको मुक्त करेंगी ॥ ६१-६२ ॥

इत्याज्ञप्ता तया चाहं सख्या वै प्रेमयुक्तया ।
मत्वोपसरणं युक्तं तस्मात्स्थानात्तदा नृप ॥ ६३ ॥
चालिताहं ततः शीघ्रं महादेवीप्रसादतः ।
मार्गज्ञानं शीघ्रगतिर्मया प्राप्ता नृपात्मज ॥ ६४ ॥
हे राजन् ! सखी एकावलीके इस प्रकार प्रेमपूर्वक आदेश देनेपर उस समय प्रस्थान कर देना उचित समझकर मैं उस स्थानसे तुरंत चल पड़ी । हे राजकुमार ! भगवती जगदम्बाकी कृपासे मार्गकी जानकारी तथा द्रुतगतिसे चलनेकी क्षमता मुझे प्राप्त हो गयी थी ॥ ६३-६४ ॥

इत्येतत्कथितं सर्वं कारणं मम दुःखजम् ।
कस्त्वं कस्य सुतश्चेति वद वीर यथा तथा ॥ ६५ ॥
हे वीर ! इस प्रकार मैंने अपने दुःखी होनेका समस्त कारण आपको बता दिया । अब जिस प्रकार मैंने आपको अपने विषयमें बताया, उसी प्रकार आप भी बताइये कि आप कौन हैं तथा किसके पुत्र हैं ? ॥ ६५ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे हैहयैकवीराय यशोवत्यैकावलीमोचनाय
देवीस्वप्नवर्णनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥
अध्याय बाईसवाँ समाप्त ॥ २२ ॥


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