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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
षष्ठः स्कन्धः
त्रयोविंशोऽध्यायः

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एकवीरैकावल्योर्विवाहवर्णनम् -
भगवतीके सिद्धिप्रदायक मन्त्रसे दीक्षित एकवीरद्वारा कालकेतका वध, एकवीर और एकावलीका विवाह तथा हैहयवंशकी परम्परा -


व्यास उवाच
तस्यास्तु वचनं श्रुत्वा रमापुत्रः प्रतापवान् ।
प्रफुल्लवदनाम्भोजस्तामुवाच विशाम्पते ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! उस यशोवतीकी बात सुनकर लक्ष्मीपुत्र प्रतापी एकवीरका मुखारविन्द प्रसन्नतासे खिल उठा और वे उससे कहने लगे- ॥ १ ॥

राजोवाच
रम्भोरु यस्त्वया पृष्टो वृत्तान्तो विशदाक्षरः ।
हेहयोऽहं चैकवीरनाम्ना सिन्धुसुतासुतः ॥ २ ॥
राजा बोले-हे रम्भोरु ! जो तुमने सुन्दर वाणीमें मेरा वृत्तान्त पूछा है, वह सुनो । एकवीर नामसे प्रसिद्ध लक्ष्मीपुत्र हैहय मैं ही हूँ ॥ २ ॥

मनो मे यत्त्वया नूनं परतन्त्रं कृतं किल ।
किं करोमि क्व गच्छामि विरहेणातिपीडितः ॥ ३ ॥
[एकावलीके विषयमें वर्णन करके] तुमने मेरे मनको परतन्त्र बना दिया है । विरहसे अत्यन्त पीडित मैं अब क्या करूँ, कहाँ जाऊँ ? ॥ ३ ॥

प्रथमं रूपमाख्यातं सर्वलोकातिगं त्वया ।
तेन मे विह्वलं जातं कामबाणहतं मनः ॥ ४ ॥
तुमने सर्वप्रथम एकावलीके सम्पूर्ण लोकको तिरस्कृत कर देनेवाले रूपका जो वर्णन किया है, उससे मेरा मन कामबाणसे आहत होकर व्याकुल हो उठा है ॥ ४ ॥

ततस्तस्या गुणाः प्रोक्तास्तैस्तु चित्तं हृतं पुनः ।
यत्त्वयोक्तं पुनर्वाक्यं तेन मे विस्मयोऽभवत् ॥ ५ ॥
एकावल्या वचः प्रोक्तं दानवाग्रे मया वृतः ।
हैहयस्तं विना नान्यं वृणोमीति विनिश्चयः ॥ ६ ॥
तेन वाक्येन तन्वङ्‌गि भृत्योऽहमधुना कृतः ।
त्वया तस्याः सुकेशान्ते ब्रूहि किं करवाणि वाम् ॥ ७ ॥
तत्पश्चात् तुमने उसके जिन गुणोंका मुझसे वर्णन किया है, उनके द्वारा मेरा चित्त हर लिया गया है । पुनः तुमने जो बात कही, इससे मुझे बहुत विस्मय हो गया है । दानव कालकेतुके सामने एकावलीने यह बात कही थी कि मैं हैहयका वरण कर चुकी हूँ, उसके अतिरिक्त मैं किसी अन्यका वरण नहीं कर सकती; यह मेरा निश्चय है । हे तन्वंगि ! एकावलीके इस कथनके द्वारा तुमने मुझे उसका दास बना दिया है । हे सुन्दर केशोंवाली ! तुम्हीं बताओ, अब मैं तुम दोनोंके लिये क्या करूँ ? ॥ ५-७ ॥

स्थानं तस्य न जानामि राक्षसस्य दुरात्मनः ।
गतिर्मे नास्ति गमने पुरे तस्मिन्सुलोचने ॥ ८ ॥
वद मां त्वं विशालाक्षि तत्र प्रापयितुं क्षमा ।
प्रापयाशु सखी ते सा यत्र तिष्ठति सुन्दरी ॥ ९ ॥
हे सुलोचने ! मैं उस दुष्टात्मा राक्षस कालकेतुके स्थानको नहीं जानता । और फिर उस नगरतक पहुँच सकनेकी मेरी सामर्थ्य भी नहीं है । हे विशाल नयनोंवाली ! अब तुम्ही उपाय बताओ । मुझे वहाँ पहुँचानेमें तुम्हीं समर्थ हो । अतएव जहाँ तुम्हारी सुन्दर सखी एकावली विराजमान है, वहाँ मुझे शीघ्र पहुँचाओ ॥ ८-९ ॥

हत्वा तं राक्षसं क्रूरं मोचयिष्यामि साम्प्रतम् ।
विवशां शोकसन्तप्तां राजपुत्रीं तव प्रियाम् ॥ १० ॥
उस क्रूर राक्षसका वध करके मैं इसी समय विवश तथा शोक-सन्तप्त तुम्हारी प्रिय सखी राजकुमारी एकावलीको मुक्त करा लूंगा ॥ १० ॥

विमुक्तदुःखां कृत्वाऽऽशु प्रापयिष्यामि ते पुरम् ।
पित्रे चास्याः प्रदास्यामि कन्यामेकावलीमहम् ॥ ११ ॥
राजकुमारी एकावलीको संकटसे मुक्ति दिलाकर शीघ्र ही उसे तुम्हारे पुरमें पहुँचा दूंगा और उसके पिताको सौंप दूंगा ॥ ११ ॥

पश्चाद्विवाहं कर्तासौ राजा पुत्र्याः परन्तपः ।
एवं ते मनसः कामो मम चापि प्रियंवदे ॥ १२ ॥
भविष्यति स सम्पूर्णः साधनेन तवाधुना ।
दर्शयाशु पुरं तस्य पश्य मे त्वं पराक्रमम् ॥ १३ ॥
यथा हन्मि दुराचारं परदारापहारकम् ।
तथा कुरु प्रियं कर्तुं शक्तासि वरवर्णिनि ॥ १४ ॥
तत्पश्चात् शत्रुतापक राजा रैभ्य अपनी पुत्रीका विवाह कर सकेंगे । हे प्रियंवदे ! इस प्रकार तुम्हारे सहयोगसे मेरे तथा तुम्हारे मनकी कामना अब पूरी हो जायगी । तुम मुझे उस कालकेतुका नगर शीघ्र दिखा दो, फिर मेरा पराक्रम देखो । हे वरवर्णिनि ! मैं जिस प्रकार उस दुराचारी तथा परस्त्रीका हरण करनेवाले कालकेतुका वध कर सकूँ, तुम वैसा ही उपाय करो; क्योंकि तुम हित-साधन करनेमें पूर्ण सक्षम हो । उस दानवके दुर्गम नगरका मार्ग तुम मुझे आज ही दिखाओ ॥ १२-१४ ॥

मार्गं दर्शय तस्याद्य पुरस्य दुर्गमस्य च ।
व्यास उवाच
तन्निशम्य प्रियं वाक्यं मुदिता च यशोवती ॥ १५ ॥
तमुवाच रमापुत्रं गमनोपायमादरात् ।
मन्त्रं गृहाण राजेन्द्र भगवत्यास्तु सिद्धिदम् ॥ १६ ॥
दर्शयिष्यामि तस्याद्य पुरं राक्षसपालितम् ।
सज्जो भव महाभाग गमनाय मया सह ॥ १७ ॥
सैन्येन महता युक्तस्तत्र युद्धं भविष्यति ।
कालकेतुर्महावीरो राक्षसैर्बलिभिर्वृतः ॥ १८ ॥
तस्मान्मन्त्रं गृहीत्वा त्वं व्रज तत्र मया सह ।
दर्शयिष्यामि ते मार्गं पुरस्यास्य दुरात्मनः ॥ १९ ॥
हत्वा तं पापकर्माणं मोचयाशु च मे सखीम् ।
व्यासजी बोले-एकवीरकी यह प्रिय वाणी सुनकर यशोवती प्रसन्न हो गयी और वह लक्ष्मीपुत्र एकवीरसे नगर पहुँचनेका उपाय आदरपूर्वक बताने लगी-हे राजेन्द्र ! पहले आप भगवती जगदम्बाके सिद्धिप्रदायक मन्त्रको ग्रहण कीजिये । तत्पश्चात् मैं आपको अनेक राक्षसोंद्वारा रक्षित उस कालकेतुका नगर आज ही दिखाऊँगी । हे महाभाग ! एक विशाल सेनासे युक्त होकर आप मेरे साथ वहाँ चलनेके लिये तैयार हो जाइये । वहाँ युद्ध होगा । कालकेतु स्वयं महापराक्रमी है तथा बलवान् राक्षसोंसे युक्त रहता है । अतएव भगवतीका मन्त्र ग्रहण करके ही आप मेरे साथ वहाँ चलिये । मैं उस दुष्टात्माके नगरका मार्ग आपको दिखाऊँगी । अब आप उस पापकर्मपरायण दानवको मारकर मेरी सखीको शीघ्र मुक्त कीजिये ॥ १५-१९.५ ॥

श्रुत्वा तद्वचनं वीरो मन्त्रं जग्राह सत्वरः ॥ २० ॥
दत्तात्रेयाद्दैवयोगात्प्राप्ताज्ज्ञानिवराच्छुभात् ।
योगेश्वरीमहामन्त्रं त्रिलोकीतिलकाभिधम् ॥ २१ ॥
उसका यह वचन सुनकर एकवीरने वहाँपर दैवयोगसे पधारे हुए पुण्यात्मा तथा ज्ञानियों में श्रेष्ठ दत्तात्रेयजीसे त्रिलोकीका तिलक कहे जानेवाले योगेश्वरीके महामन्त्रको उसी क्षण ग्रहण कर लिया ॥ २०-२१ ॥

तेन सर्वज्ञता जाता सर्वान्तश्चारिता तथा ।
तया सह जगामाशु पुरं तस्य सुदुर्गमम् ॥ २२ ॥
उस मन्त्रके प्रभावसे एकवीरको सब कुछ जानने तथा सर्वत्र गमनकी क्षमता प्राप्त हो गयी । इसके बाद वे यशोवतीके साथ कालकेतुके दुर्गम नगरके लिये शीघ्र प्रस्थित हुए ॥ २२ ॥

रक्षितं राक्षसैघोरैः पातालमिव पन्नगैः ।
यशोवत्या च सैन्येन महता संयुतो नृपः ॥ २३ ॥
वह नगर राक्षसोंद्वारा इस प्रकार सुरक्षित था, जैसे सर्पोद्वारा पातालको निरन्तर सुरक्षा होती रहती है । कालकेतुके ऐसे नगरमें अब यशोवती तथा विशाल सेनाके साथ राजा एकवीर आ गये ॥ २३ ॥

तमायान्तं समालोक्य दूतास्तस्य भयातुराः ।
क्रोशन्तोऽभिययुः पार्श्वं कालकेतोस्तरस्विनः ॥ २४ ॥
एकवीरको आते देखकर कालकेतुके दूत भयसे व्यग्र हो गये और चीखते-चिल्लाते हुए बड़ी तेजीसे भागकर उसके पास पहुँचे ॥ २४ ॥

तमूचुः सहसा मत्वा राक्षसं काममोहितम् ।
एकावलीसमीपस्थं कुर्वन्तं विनयान्बहून् ॥ २५ ॥
उस समय एकावलीके पास बैठकर अनेकविध विनती कर रहे कालकेतुको अत्यन्त काममोहित समझकर दूत एकाएक उससे कहने लगे ॥ २५ ॥

दूता ऊचुः
राजन् यशोवती नारी कामिन्याः सहचारिणी ।
आयाति सह सैन्येन राजपुत्रेण संयुता ॥ २६ ॥
दूतोंने कहा-हेराजन् ! इस कामिनीकी सहचारिणी जो यशोवती नामकी स्त्री है, वह एक राजकुमारके साथ विशाल सेना लेकर आ रही है ॥ २६ ॥

जयन्तो वा महाराज कार्तिकेयोऽथवा नु किम् ।
आगच्छति बलोन्मत्तो वाहिनीसहितः किल ॥ २७ ॥
हे महाराज ! पता नहीं, वह जयन्त है अथवा कार्तिकेय । बलके अभिमानसे मत्त वह राजकुमार सेनाके साथ चला आ रहा है ॥ २७ ॥

संयत्तो भव राजेन्द्र संग्रामः समुपस्थितः ।
देवपुत्रेण युध्यस्व त्यज वा कमलेक्षणाम् ॥ २८ ॥
हे राजेन्द्र ! अब आप सावधान हो जाइये; क्योंकि युद्धकी स्थिति सामने आ गयी है । अब आप या तो इस देवपुत्रके साथ युद्ध कीजिये अथवा इस कमलनयनीको मुक्त कर दीजिये ॥ २८ ॥

इतो दूरेऽस्ति सैन्यं तद्योजनत्रयमात्रतः ।
सज्जो भव महीपाल दुन्दुभिं घोषयाशु वै ॥ २९ ॥
उसकी सेना यहाँसे मात्र तीन योजनकी दूरीपर है । अतएव हे राजन् ! अब आप तैयार हो जाइये और रण-दुंदुभी बजानेकी तुरंत आज्ञा दीजिये ॥ २९ ॥

व्यास उवाच
तेषां तद्वचनं श्रुत्वा राक्षसः क्रोधमूर्च्छितः ।
राक्षसान्प्रेरयामास सायुधान्सबलान्वहून् ॥ ३० ॥
व्यासजी बोले-दूतोंके मुखसे वैसी बात सुनकर कालकेतु क्रोधसे मूछित हो गया । उसने अपने सभी बलवान् तथा शस्त्रधारी राक्षसोंको उत्साहित करते हुए कहा-हे राक्षसो ! तुम सब हाथोंमें शस्त्र लेकर शत्रुके सामने जाओ ॥ ३० ॥

गच्छध्वं राक्षसाः सर्वे सम्मुखाः शस्त्रपाणयः ।
तानाज्ञाप्य कालकेतुः पप्रच्छ प्रणयान्वितः ॥ ३१ ॥
एकावलीं समीपस्थां विवशां भृशदुःखिताम् ।
कोऽयमायाति तन्वङ्‌गि पिता ते वापरः पुमान् ॥ ३२ ॥
त्वदर्थे सैन्यसंयुक्तो ब्रूहि सत्यं कृशोदरि ।
पिता ते यदि सम्प्राप्तो नेतुं त्वां विरहातुरः ॥ ३३ ॥
ज्ञात्वा ते पितरं सम्यक् संग्रामं न करोम्यहम् ।
आनयित्वा गृहे पूजां रत्‍नैर्वस्त्रैर्हयैः शुभैः ॥ ३४ ॥
करोमि तस्य चातिथ्यं गृहे प्राप्तस्य सर्वथा ।
अन्यश्चेद्यदि सम्प्राप्तस्तं हन्मि निशितैः शरैः ॥ ३५ ॥
आनीतः किल कालेन मरणाय महात्मना ।
तस्माद्वद विशालाक्षि कोऽयमायाति मन्दधीः ॥ ३६ ॥
उन्हें आज्ञा देकर कालकेतुने अपने निकट बैठी हुई अत्यन्त विवश तथा दुःखित एकावलीसे विनम्रतापूर्वक पूछा-'हे तन्वंगि ! तुम्हें लेनेके लिये सेनासहित यह कौन आ रहा है ? ये तुम्हारे पिता हैं अथवा कोई अन्य पुरुष ? हे कृशोदरि ! सच-सच बताओ । यदि विरहसे व्यथित होकर तुम्हारे पिता तुम्हें लेनेके लिये आ रहे हों, तो यह जानकर कि ये तुम्हारे पिता हैं, मैं इनके साथ युद्ध नहीं करूंगा, अपितु उन्हें घर लाकर उनकी पूजा करूँगा तथा बहुमूल्य रत्न, वस्त्र तथा अश्व भेंट करके घरमें आये हुए उनका विधिवत् आतिथ्य करूँगा । यदि कोई अन्य व्यक्ति आया होगा तो मैं अपने तीक्ष्ण बाणोंसे उसे मार डालूंगा । निश्चित ही महान् कालने उसे मरनेके लिये यहाँ ला दिया है । अतएव हे विशाल नयनोंवाली ! मुझ अपराजेय, कालरूप तथा अपार बलसम्पन्नके विषयमें न जानकर यह कौन मन्दमति चला आ रहा है ? यह तुम मुझे बताओ' ॥ ३१-३६ ॥

अज्ञात्वा मां दुराधर्षं कालरूपं महाबलम् ।

एकावल्युवाच
न जानेऽहं महाभाग कोऽयमायाति सत्वरः ॥ ३७ ॥
नमेऽस्ति विदितः कोऽपि स्थितायास्तव बन्धने ।
नायं पिता मे न भ्राता कोऽप्यन्योऽस्ति महाबलः ॥ ३८ ॥
किमर्थमिह चायाति नाहं वेद विनिश्चयम् ।
एकावली बोली-हे महाभाग ! मैं यह नहीं जानती कि इतनी तेजीसे यह कौन आ रहा है । आपके बन्धनमें पड़ी हुई मैं नहीं जानती कि यह कौन है ? ये न तो मेरे पिता हैं और न मेरे भाई ही । यह दूसरा ही कोई महान् पराक्रमी पुरुष है, यह किसलिये यहाँ आ रहा है, यह भी मैं निश्चितरूपसे नहीं जानती ॥ ३७-३८.५ ॥

दैत्य उवाच
एवं वदन्त्यमी दूता वयस्या ते यशोवती ॥ ३९ ॥
समानीय च तं वीरमागतेति कृतोद्यमा ।
क्व गता सा सखी कान्ते विदग्धा कार्यनिश्चये ॥ ४० ॥
दैत्य बोला-ये दूत तो कह रहे हैं कि तुम्हारी सखी यशोवती ही प्रयत्नपूर्वक उस वीरको साथमें लेकर आयी है । हे कान्ते ! कार्य सिद्ध करनेमें अत्यन्त चतुर तुम्हारी वह सखी कहाँ गयी ? कोई अन्य मेरा शत्रु भी नहीं है, जो मेरा विरोधी हो ॥ ३९-४० ॥

नान्यः कोऽपि ममारातिर्यो मे प्रतिबलो भवेत् ।
व्यास उवाच
एतस्मिन्नन्तरे दूतास्तत्रान्ये वै समागताः ॥ ४१ ॥
ते होचुस्त्वरिता भीताः कालकेतुं गृहे स्थितम् ।
किं स्वस्थोऽसि महाराज समीपे सैन्यमागतम् ॥ ४२ ॥
निर्गच्छ नगरात्तूर्णं सैन्येन महताऽऽवृतः ।
इति तेषां वचः श्रुत्वा कालकेतुर्महाबलः ॥ ४३ ॥
रथमारुह्य त्वरितो निर्ययौ स्वपुराद्‌बहिः ।
व्यासजी बोले-इसी बीच दूसरे दूत वहाँ आ गये । भयभीत उन दूतोंने महल में बैठे कालकेतुसे तुरंत कहा-हे महाराज ! आप निश्चिन्त क्यों हैं ? शत्रुसेना समीप आ पहुंची है । आप एक विशाल सेनाके साथ शीघ्र ही नगरसे बाहर निकलिये । उनकी यह बात सुनकर महान् बलशाली कालकेतु शीघ्र ही रथपर चढ़कर अपने नगरसे बाहर निकल गया ॥ ४१-४३.५ ॥

एकवीरोऽपि सहसा हयारूढः प्रतापवान् ॥ ४४ ॥
आगतस्तत्र कामिन्या विरहेण समाकुलः ।
युद्धं तयोरभूत्तत्र वृत्रवासवयोरिव ॥ ४५ ॥
शस्त्रास्त्रैर्बहुधा मुक्तैरादीपितदिगन्तरम् ।
कामिनी एकावलीके विरहसे व्याकुल प्रतापी एकवीर भी घोड़ेपर आरूढ़ होकर अचानक वहींपर आ गया । उन दोनोंका वृत्रासुर तथा इन्द्रकी भाँति युद्ध होने लगा । उस युद्ध में छोड़े गये विविध अस्त्रशस्त्रोंसे दिशाएँ प्रकाशित हो उठीं ॥ ४४-४५.५ ॥

वर्तमाने तदा युद्धे कातराणां भयावहे ॥ ४६ ॥
गदया ताडयामास दैत्यं सिन्धुसुतासुतः ।
स गतासुः पपातोर्व्यां वज्राहत इवाचलः ॥ ४७ ॥
पलायित्वा गताः सर्वे राक्षसा भयपीडिताः ।
भीरुजनोंको भयभीत कर देनेवाले उस युद्धमें लक्ष्मीपुत्र एकवीरने दानव कालकेतुपर अपनी गदासे प्रहार किया । गदाप्रहारसे वह कालकेतु वज्रसे आहत पर्वतकी भाँति प्राणहीन होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा । तब भयभीत होकर अन्य सभी राक्षस भाग गये ॥ ४६-४७.५ ॥

यशोवती ततो गत्वा वेगादेकावलीं तदा ॥ ४८ ॥
उवाच मधुरां वाणीं विस्मिता मुदिता भृशम् ।
एह्यालि नृपपुत्रेण दानवोऽसौ निपातितः ॥ ४९ ॥
एकवीरेण धीरेण युद्धं कृत्वा सुदारुणम् ।
स्कन्धावारेऽप्यसौ राजा तिष्ठत्यद्य श्रमातुरः ॥ ५० ॥
दर्शनं काङ्क्षमाणस्ते श्रुतरूपगुणस्तव ।
पश्य तं कुटिलापाङ्‌गि मनोभवसमं नृपम् ॥ ५१ ॥
कथिता त्वं मया पूर्वं तस्याग्रे जाह्नवीतटे ।
पूर्णानुरागः सञ्जातस्तेनासौ विरहातुरः ॥ ५२ ॥
वाञ्छति त्वां चारुरूपां द्रष्टुं नृपतिनन्दनः ।
तत्पश्चात् यशोवतीने विस्मयमें पड़ी एकावलीके पास जाकर प्रसन्नतापूर्वक मधुर वाणीमें उससे कहाहे सखि ! इधर आओ । कालकेतुके साथ भीषण युद्ध करके धीरतासम्पन्न राजकुमार एकवीरने उस राक्षसको मार गिराया है । इस समय वे राजकुमार एकवीर थक जानेके कारण अपने शिविरमें विद्यमान हैं । तुम्हारे रूप तथा गुणोंके विषयमें सुनकर वे तुम्हारा दर्शन करना चाहते हैं । हे कुटिलापांगि ! कामदेवसदृश उन राजकुमारको तुम देखो । मैं उनसे तुम्हारे विषयमें गंगातटपर पहले ही बता चुकी हूँ । इससे तुम्हारे प्रति उनका पूर्ण अनुराग हो जानेके कारण वे विरहातुर राजकुमार अब तुझ सुन्दर रूपवालीका दर्शन करना चाहते हैं ॥ ४८-५२.५ ॥

सा तस्या वचनं श्रुत्वा गमनाय मनो दधे ॥ ५३ ॥
लज्जमाना भृशं भीत्या कौमारं प्राप्तया तया ।
कथं तस्य मुखं द्रक्ष्ये कुमारी ह्यवशा भृशम् ॥ ५४ ॥
स मां गृह्णाति कामार्त इति चिन्ताकुला सती ।
यशोवत्या युता तत्र नरयानस्थिता ययौ ॥ ५५ ॥
स्कन्धावारेऽतिमलिना मलिनाम्बरधारिणी ।
यशोवतीकी बात सुनकर उसने वहाँ जानेका मन बना लिया । कुमारी अवस्थामें होनेके कारण वह भयवश लज्जित हो रही थी । [वह सोचने लगी] मैं एक अत्यन्त विवश कुमारी कन्या उनका मुख कैसे देगी ? वह साध्वी एकावली इस बातसे चिन्तित हो उठी कि वे कामासक्त राजकुमार मुझे ग्रहण कर लेंगे । तब वह एकावली मलिन वस्त्र धारण करके अत्यन्त उदास होकर पालकीमें बैठकर यशोवतीके साथ उनके शिविरमें पहुँच गयी ॥ ५३-५५.५ ॥

तामागतां विशालाक्षीं दृष्ट्वा राजसुतोऽब्रवीत् ॥ ५६ ॥
दर्शनं देहि तन्वङ्‌गि तृषिते नयने मम ।
उस विशाल नयनोंवाली एकावलीको वहाँ आयी हुई देखकर राजकुमारने उससे कहा-हे तन्वंगि ! मुझे दर्शन दो । मेरे नेत्र तुम्हारे दर्शनके लिये तृष्णाकुल हैं ॥ ५६.५ ॥

कामातुरं च तं वीक्ष्य तां च लज्जाभरावृताम् ॥ ५७ ॥
नीतिज्ञा शिष्टमार्गज्ञा तमुवाच यशोवती ।
राजपुत्र पिताप्यस्यास्त्वामेनां दातुमिच्छति ॥ ५८ ॥
एषापि त्वद्वशा नूनं भविता सङ्गमस्तव ।
कालं प्रतीक्ष्य राजेन्द्र नयैनां पितुरन्तिकम् ॥ ५९ ॥
एकवीरको कामातुर तथा एकावलीको लज्जासे युक्त देखकर नीतिका ज्ञान रखनेवाली तथा श्रेष्ठजनोंके मार्गका अनुसरण करनेवाली यशोवतीने उस एकवीरसे कहा-हे राजकुमार ! इसके पिता भी इसे आपको ही देना चाहते हैं । यह एकावली भी आपके वशीभूत है; इसलिये इसके साथ आपका मिलन अवश्य होगा, किंतु हे राजेन्द्र ! कुछ समय प्रतीक्षा करके पहले इसे इसके पिताके पास पहुँचा दीजिये । वे विधिपूर्वक विवाह करके इसे आपको निश्चितरूपसे सौंप देंगे ॥ ५७-५९ ॥

स विवाहविधिं कृत्वा दास्यतीति विनिश्चयः ।
स तस्या वचनं तथ्यं मत्वा सैन्यसमन्वितः ॥ ६० ॥
यशोवतीकी बातको उचित मानकर उन दोनों कन्याओं-एकावली तथा यशोवतीको साथमें लेकर सेनासहित वे राजकुमार एकवीर उसके पिताके स्थानपर पहुँचे ॥ ६० ॥

समेतः कामिनीभ्यां तु ययौ तत्पितुराश्रमम् ।
राजपुत्रीं तथायातां श्रुत्वा प्रेमसमन्वितः ॥ ६१ ॥
प्रययौ सम्मुखस्तूर्णं सचिवैः परिवेष्टितः ।
बहुभिर्दिवसैर्दृष्टा पुत्री सा मलिनाम्बरा ॥ ६२ ॥
यशोवत्या तु वृत्तान्तः कथितो विस्तरात्पुनः ।
एकवीरं मिलित्वासौ गृहमानीय चादरात् ॥ ६३ ॥
पुण्येऽह्नि कारयामास विवाहं विधिपूर्वकम् ।
पारिबर्हं ततो दत्त्वा सम्पूज्य विधिवत्तदा ॥ ६४ ॥
राजपुत्रीको आयी हुई सुनकर राजा रैभ्य प्रेमपूर्वक मन्त्रियोंके साथ उसके सम्मुख शीघ्रतासे पहुँच गये । मलिन वस्त्र धारण की हुई उस पुत्रीको राजाने बहुत दिनोंके बाद देखा, पुनः यशोवतीने रैभ्यको सारा वृत्तान्त विस्तारके साथ बताया । तत्पश्चात् एकवीरसे मिलकर राजा रैभ्य उन्हें आदरपूर्वक घर ले आये । पुनः उन्होंने शुभ दिनमें विधिविधानसे दोनोंका विवाह सम्पन्न कराया । तदुपरान्त राजाने पर्याप्त वैवाहिक उपहार देकर एकवीरको भलीभाँति सम्मानित करके पुत्रीको यशोवतीसहित विदा कर दिया ॥ ६१-६४ ॥

पुत्रीं विसर्जयामास यशोवत्या समन्विताम् ।
एवं विवाहे संवृत्ते रमापुत्रो मुदान्वितः ॥ ६५ ॥
गृहं प्राप्य बहून्भोगाम्बुभुजे प्रियया समम् ।
बभूव तस्यां पुत्रस्तु कृतवीर्याभिधः किल ।
तत्सुतः कार्तवीर्यस्तु वंशोऽयं कथितो मया ॥ ६६ ॥
इस प्रकार विवाह हो जानेपर लक्ष्मीपुत्र एकवीर हर्षित हो गये और घर पहुँचकर अपनी भार्या एकावलीके साथ नानाविध सखोपभोग करने लगे । यथासमय उस एकावलीसे कृतवीर्य नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ । उस कृतवीर्यके पुत्र कार्तवीर्य हुए । इस प्रकार मैंने आपसे इस हैहयवंशका वर्णन कर दिया ॥ ६५-६६ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां षष्ठस्कन्धे एकवीरै-
कावल्योर्विवाहवर्णनं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥
अध्याय तेइसवाँ समाप्त ॥ २३ ॥


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